Monday, December 2, 2019

आज भी पूज्य हैं बुंदेलखंड में लोक देवी-देवता - डाॅ. शरद सिंह .. नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

( #नवभारत, 30.11.2019 में प्रकाशित)

हमने वैज्ञानिक प्रगति कर ली है। अनेक ऐसी मान्यताओं एवं लोक संसकारों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कस कर, परख कर पीछे छोड़ आए हैं किन्तु लोक देवी-देवताओं की मान्यताएं आज भी प्रतिष्ठित रूप में मौजूद हैं, विशेषरूप से बुंदेलखंड में। पौराणिक देवी-देवता जैसे शिव, दुर्गा, काली, हनुमान, चंडिका, भैरव, गाधर्व, गणेश आदि के साथ भूत, राक्षस या दानव, नाग आदि को अपने धार्मिक जीवन में शामिल करते हुए अपनी लोक मान्यताओं एवं अनुभवजनित देवी-देवताओं को भी बुंदेली जनमानस में भरपूर मान्यता मिली हुई है। लोकदेवता वे देवता हैं जो किसी भूभाग के लोक अर्थात् आमजन द्वारा पूजे है। ऐसे देवी-देवता लोक द्वारा बहुमान्य और बहुप्रतिष्ठित होते हैं। ये देवता सम्प्रदाय और वाद से परे होते हैं। भक्तों का इनसे रिश्ता पारिवारिक रिश्ते की भांति होता है। इनकी संकल्पना के मूल में आशावादी विचारधारा मौजूद रहती है। प्रत्येक सामान्यजन इन देवी-देवताओं को अपने माता-पिता या संरक्षक के रूप में देखता है या फिर संकट के समय रक्षक के रूप में। ये अदृश्य देवी-देवता कलात्मक आकारों में नहीं वरन् अनगढ़ या बेढब आकारों में पूजे जाते हैं। दरअसल वे भावना के प्रतीक होते हैं। बुंदेलखंड के लोकजीवन में लोक देवी-देवता इस तरह बसे हुए हैं कि उनके बिना लोक जीवन की कल्पना करना कठिन है। ये जितने शुभफलदायी प्रतीत होते हैं, उतने ही निरापद भी। इसका सबसे बड़ा कारण है कि इन लोक देवी-देवताओं से जुड़े आडम्बर एवं तंत्र-मंत्र जैसे ढकोसले शिक्षा के प्रसार और जनजागरूकता के साथ कटते चले गए हैं। अब इनका अस्तित्व मनोवैज्ञानिक सतर पर संबल प्रदान करने वाला है। 
Navbharat - Aaj Bhi Pujya Hain Bundelkhand Me Lok Devi-Devta    - Dr Sharad Singh
       बुंदेलखंड में समूह एवं मान्यताओं के अनुसार लोक देवी-देवताओं की मान्यता है। जैसे बड़ा देव, ठाकुरदेव आदि आदिवासी समाज के पूज्य देवता हैं। खेरमाई, मिड़ोइया, घटोइया, पौंरिया आदि गंाव के रक्षक देवी-देवता हैं। लोक की मासूमियत इन देवी-देवताओं की संकल्पना से पता चलती है। एक किसान के लिए उसकी खेत की सीमाओं की रक्षक यानी मेड़ महत्वपूर्ण होती है अतः किसान ने ऐसे देवता की कल्पना की जो मेड़ का देवता है और सजग रह कर खेत की रक्षा करता है। इसी तरह चाहे पीने के पानी की आवश्यकता हो या कपड़े धोने की, नहाने की अथवा खेतों को सींचने की जरूरत हो, नदी और तालाब में तो जाना ही पड़ता है। नदी के घाट जोखिम भरे होते हैं अतः वहां मनुष्य की रक्षा करने वाला कोई न कोई देवता तो होना ही चाहिए अतः घाट के देवता की कल्पना की गई। इस तरह बने खेत की मेड़ के देवता मिड़ोइया और घाट के देवता घटोइया ।
भारतीय समाज की संरचना कामों के आधार पर की गई है। जब काम अलग-अलग होंगे तो उनके जोखिम भी अलग-अलग होंगे। फिर जब जोखिम अलग-अलग होंगे तो उन जोखिमों से बचाने के लिए देवता भी अलग-अलग होंगे। पशुधन और दुग्धउत्पादन का कार्य करने वाले अहीरों ने कारसदेव, ग्वालबाबा और गुरैयादेव को अपना देवता माना तो तैलउत्पादन का काम करने वाले तेलियों मसानबाबा को अपना देवता माना। काछियों ने भियाराने को तो वनक्षेत्र में रहते हुए वनोपज एकत्र करने वाले आदिवासियों ने गौड़बाबा को अपना देवता माना।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि लोक देवी-देवताओं में से अनेक ऐसे हैं जिनका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। जो इस बात का प्रमाण है कि पुराणों में लोक देवी-देवताओं को समुचित स्थान दिया गया है। जैसे बुंदेलखंड में पूजित देवी शीतला माता का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी माना गया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। सूप से रोगी को हवा की जाती है। झाडू से स्वच्छता बनाए रखी जाती है। नीम के पत्ते ठंडक पहुंचाते हैं तथा एंटीबायोटिक का काम करते हैं। रोगी को कलश ठंडा जल दिया जाता है। यह लोक मान्यता रही है कि गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में भी प्रायः माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया जाता है।
कारसदेव के गोटे (कथा-गीत) में कारसदेव की कृपा से शिव के प्रसन्न होने की कल्पना की गई है। जैसे कोई अपने घर-परिवार के बड़े-बुजुर्ग के आशर्वाद से अपनी तीर्थयात्रा सफल होने की बात कह रहा हो-
बारा बरस तपिया तपी, करे न अन्न अहार
सरनी गई इस्नान खौं, उतई तला के पार
कारसदेव की किरपा भई जू
सो, जप-तप पूरन भए,
सो, शिव ने सुन लई पुकार ....
जहां आत्मीयता हो वहां सकल के सुख की कामना की जाती है और जिस पर विश्वास हो उसी से प्रार्थना की जाती है। इसीलिए लोकदेवी खेर माई की प्रार्थना करते हुए बुंदेली महिलाएं गा उठती हैं-
सबई जनन के संकट काटिया, माई खेर मैया....
तला-नदी भरे रैंय, अन्न इते धरे रैंय
सबके सबई जने खुसी-खुसी घरे रैंय
दुख को अंधेरो तनक छांटियो, माई खेर मैया....
यदि आज भी बुंदेलखंड में दूलादेव, खूंटादेव, खेरमाई, कारसदेव, गंगामाई, शारदा माई, शीतला माई, मरई माता, बड़ा देव, ठाकुरदेव आदि के प्रति श्रद्धा और पूजा-अर्चना प्रचलित हैं तो वह इसलिए कि ये देवी-देवता तर्क नहीं भावना से, औपचारिकता नहीं आत्मीयता से, औपचारिक ज्ञान से नहीं अनुभवजनित ज्ञान से संकल्पित हैं इसीलिए आज के वैज्ञानिक ज्ञान के मध्य भी इनकी महत्ता बनी हुई है और बुंदेली लोकमानस इनसे गहनता से जुड़ा हुआ है।
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