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Wednesday, September 10, 2025

चर्चा प्लस | अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस


अंग्रेजी के मोहपाश में बंध कर हिन्दी का भला नहीं हो सकता


- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                             

सितम्बर आते ही हिन्दी मास, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस के प्रति जागरूकत बढ़ जाती है। शेष माह में हिन्दी अंग्रेजी की सेविका की भांति जीती-खाती रहती है। पढ़ने में यह बात जितनी भी बुरी लगे किन्तु सच यही है। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके।


वर्ष 2025 का हिन्दी मास आरम्भ हुए सप्ताह भर बीत गया है। पहले गणेशोत्सव की धूम और अब पितृपक्ष की व्यस्तता। लगभग हर घर के बच्चे जा रहे हैं अं्रग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने। सो, हिन्दी के प्रति उतनी जागरूकता ही पर्रूाप्त समझी जा रही है जितनी सरकारी आदेश के हिसाब से जरूरी है। मुझे याद आ रही है विगत वर्ष ठीक दस वर्ष पहले 2015, जुलाई की 19 तारीख। मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति एवं हिन्दी भवन न्यास के तत्वावधान में भोपाल में पावस व्याख्यानमाला का आयोजन में मनोज श्रीवास्तव ने एक महत्वपूर्ण तथ्य रखा था कि हम बार-बार संयुक्त राष्ट्रसंघ स्वीकृत भाषासूची में हिन्दी को शामिल किए जाने की मांग करते हैं, किन्तु विश्व श्रम संगठन अथवा सार्क संगठन में भी हिन्दी के लिए स्थान क्यों नहीं मांगते हैं? उसी समय विश्वनाथ सचदेव ने इस ओर ध्यान दिलाया कि जहां हम हिन्दी के प्रति अगाध चिन्ता व्यक्त करते नहीं थकते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम के शासकीय विद्यालय खोल रहे हैं, क्या यह हमारा अपनी भाषा के प्रति दोहरापन नहीं है?
यह अत्यंत व्यावहारिक पक्ष है कि हम अपने दैनिक बोलचाल में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं जो आसानी से सबकी समझ में आ जाती है। यहां तक कि अहिन्दी भाषी भी इसे समझ लेते हैं किन्तु जब हिन्दी के विद्वान तकनीकी अथवा वैज्ञानिक शब्दावली के लिए जिन हिन्दी शब्दों का चयन करते हैं, वे प्रायः संस्कृतनिष्ठ होते हैं। जैसे- ‘चार पैरों वाले’ के स्थान पर ‘चतुष्पादीय’। जब किसी को पांव में ठोकर लगती है तो उससे हम यह नहीं पूछते कि ‘तुम्हारे पद में आघात तो नहीं लगा?’ हम यही पूछते हैं कि ‘तुम्हारे पैर में चोट तो नहीं लगी?’ जिस शब्दावली से विद्यार्थी परिचित होता है, उससे इतर हम उसके सामने इतनी कठिन शब्दावली परोस देते हैं कि वह तुलनात्मक रूप से अंग्रेजी को सरल मान कर उसकी ओर आकर्षित होने लगता है। संदर्भवश एक बात और (व्यक्तिगत राग-द्वेष से परे यह बात कह रही हूं) कि जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी शब्दावली की पैरवी करते हैं वे ही महानुभाव अपने बेटे-बेटियों को ही नहीं वरन् पोते-पोतियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलाने की होड़ में जुटे हुए भारी ‘डोनेशन’ देते दिखाई पड़ते हैं और गर्व से कहते मिलते हैं। कोई विद्यार्थी किस भाषाई माध्यम को शिक्षा के लिए चुनता है (अथवा उसे चुनने के लिए प्रेरित किया जाता है) यह मसला उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि भाषा को ले कर हमारे दोहरे चरित्र का मसला है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा दिलवाने तथा विश्वस्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने की लड़ाई आज आरम्भ नहीं हुई है, यह तो पिछली सदी के पूर्वार्द्ध से छिड़ी हुई है।

हिन्दी के पक्ष में संघर्ष

पं. मदन मोहन मालवीय ने हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सतत् प्रयास किया। न्यायालय में हिन्दी को स्थापित कराया। महामना पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी भाषा के उत्थान एवं उसे राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए इस आन्दोलन को एक राष्ट्र व्यापी आन्दोलन का स्वरुप दे दिया और हिंदी भाषा के विकास के लिए धन और लोगो को जोड़ना आरम्भ किया। आखिरकार 20 अगस्त सन् 1896 में राजस्व परिषद् ने एक प्रस्ताव में सम्मन आदि की भाषा में हिंदी को तो मान लिया पर इसे व्यवस्था के रूप में क्रियान्वित नहीं किया। लेकिन 15 अगस्त सन् 1900 को शासन ने हिंदी भाषा को उर्दू के साथ अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रयोग में लाने पर मुहर लगा दी।
बीसवीं सदी में थियोसोफिकल सोसाइटी की एनी बेसेंट ने कहा था, ‘भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।’
पुरुषोत्तम दास टंडन ने महामना के आदर्शों के उत्तराधिकारी के रूप में हिंदी को निज भाषा बनाने तथा उसे राष्ट्र भाषा का गौरव दिलाने का प्रयास आरम्भ कर दिया था। सन् 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए महात्मा गांधी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के योग्य ठहराते हुए कहा था कि, ‘मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए।’ इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएं सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाएं। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदीसेवा को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में महात्मा गांधी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। महात्मा गांधी की प्रेरणा से सन् 1927 में मद्रास में तथा सन् 1936 में वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गईं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिवेशन में हिन्दी में भाषण दिया था। वे चाहते रहे कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का सम्मान मिले। इसीलिए जो हिन्दी के प्रति अनिच्छा प्रकट करते थे उनके लिए अटल बिहारी का कहना था कि ‘‘क्या किसी भाषा को काम में लाए बिना, क्या भाषा का उपयोग किए बिना, भाषा का विकास किया जा सकता है? क्या किसी को पानी में उतारे बिना तैरना सिखाया जा सकता है?’’
क्या हम आज महामना मदनमोहन मालवीय और अटल बिहारी वाजपेयी के उद्गारों एवं प्रयासों को अनदेखा तो नहीं कर रहे हैं? वस्तुतः ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक दायित्व देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्कभाषा होती है। इसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है।
सम्मेलनों में सिमटी हिन्दी चिन्ता

पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी से 14 जनवरी 1975 तक नागपुर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन से सम्बन्धित राष्ट्रीय आयोजन समिति के अध्यक्ष महामहिम उपराष्ट्रपति बी. डी. जत्ती थे। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे माॅरीशस के प्रधानमंत्राी शिवसागर रामगुलाम। सम्मेलन में तीन महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए थे- 1.संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए 2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो तथा 3. विश्व हिन्दी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अत्यन्त विचारपूर्वक एक योजना बनायी जाए।
भोपाल में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन इस क्रम में दसवां सम्मेलन था। सन् 1975 से 2015 तक प्रत्येक विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी के प्रति वैश्विक चिन्ताएं व्यक्त की जाती रहीं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए योजनाएं बनती रहीं किन्तु  यदि हम अंग्रेजी के प्रति अपनी आस्था और समर्पण को इसी तरह बनाए रहेंगे, एक ओर विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे महत्वांकांक्षी आयोजन करेंगे और दूसरी ओर ठीक उसी समय अंग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलंेगे तो हमारे हिन्दी के प्रति आग्रह को विश्व किस दृष्टि से ग्रहण करेगा?
हिन्दी के प्रति हमारी कथनी और करनी में एका होना चाहिए। हिन्दी समाचारपत्र अपनी व्यवसायिकता को महत्व देते हुए अंग्रेजी के शीर्षक छापते हैं जबकि एक भी अंग्रेजी समाचारपत्र ऐसा नहीं मिलेगा जिसमें हिन्दी लिपि में अथवा हिन्दी के शब्दों को शीर्षक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा हो। ‘‘सैलेब्स’’ हिन्दी के समाचारपत्र में मिल जाएगा लेकिन अंग्रेजी के समाचारपत्र में ‘‘व्यक्तित्व’’ अथवा ऐसा ही कोई और शब्द शीर्षक में देखने को भी नहीं मिलेगा।

हिन्दी को रोजगार से जोड़ना होगा

विश्व में हिन्दी का गौरव तभी तो स्थापित हो सकेगा जब हम अपने देश में हिन्दी को उचित मान, सम्मान और स्थान प्रदान कर दें। हिन्दी के मार्ग में कहीं न कहीं सबसे बड़ा रोड़ा इसकी रोजगार से बढ़ती दूरी की है। इस तथ्य से हम मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि हमारे युवाओं में यहां युवा का अर्थ एक पीढ़ी पहले के युवाओं से भी है, अंग्रेजी पढ़ कर अच्छे रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं जबकि हिन्दी माध्यम से की हुई पढ़ाई कथित ‘स्लम अपाॅच्र्युनिटी’ देती है। इस बुनियादी बाधा को दूर करने के लिए हमें तय करना होगा कि हम पढ़ाई के लिए हिन्दी का कौन-सा स्वरूप रखें जिससे हिन्दी रोजगार पाने के लिए की जाने वाली पढ़ाई का शक्तिशाली माध्यम बन सके। दो में से एक मार्ग तो चुनना ही होगा- या तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को विभिन्न विषयों का माध्यम बना कर युवाओं को उससे भयभीत कर के दूर करते जाएं या फिर हिन्दी के लचीलेपन का सदुपयोग करते हुए उसे रोजगार की भाषा के रूप में चलन में ला कर युवाओं के मानस से जोड़ दें। यूं भी भाषा के साहित्यिक स्वरूप से जोड़ने का काम साहित्य का होता है, उसे बिना किसी संशय के साहित्य के लिए ही छोड़ दिया जाए। आखिर हिन्दी को देश में और विदेश में स्थापित करने के लिए बीच का रास्ता ही तो चाहिए जो हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाने के साथ उसके लचीलेपन को उसकी कालजयिता में बदल दे। त्रिभाषी फार्मूला इस दिशा में एक अच्छी पहल है किन्तु इसके परिणाम भी उतनी तीव्रता से सामने नहीं आ रहे हैं जितनी तीव्रता से आना चाहिए। जब तक हम अंग्रेजी के मोह से बंधे रहेंगे तब तक हिन्दी क्या, कोई भी भारतीय भाषा पूरा सम्मान और विश्वास नहीं पा सकती है। 
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Wednesday, September 3, 2025

चर्चा प्लस | राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

दैनिक, सागर दिनकर में 03.09.2025 को प्रकाशित  
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चर्चा प्लस 
राजनीति को इतना भी न गिराएं कि मां अपमानित हो
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
                                                             
     हर प्राणी अपनी मां की कोख से ही जन्म लेता है। पिता की पहचान पर एक बार संशय हो सकता है किन्तु मां की पहचान सुनिश्चित रहती है। फिर हम एक मातृदेश के नागरिक हैं। हमारी सभ्यता एवं संस्कृति इस बात की कभी अनुमति नहीं देती है कि मां का अपमान किया जाए। पुत्र प्रेम में स्वार्थी बनी मां कैकयी को भी श्रीराम ने मान दिया था तथा राजसत्ता के अवसर को त्याग कर उनकी इच्छानुसार चौदह वर्ष के वनवास में चले गए थे। महाभारत काल में कर्ण ने मां कुंती के अपराध को जानते हुए भी उनके पांच पुत्रों के जीवन का वचन दिया था। अब इतनी गिरावट क्यों आती जा रही है कि राजनीति के मैदान में एक मां को अपशब्द कहे जा रहे हैं?  
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। 
नास्ति मातृसमं त्राणं, नास्ति मातृसमा प्रपा।। 
अर्थात मां के समान कोई छाया नहीं, मां के समान कोई आश्रय नहीं, मां के समान कोई रक्षा नहीं और मां के समान कोई जीवन देने वाला नहीं है। 
ऐसी मां के प्रति राजनीतिक लाभ के लिए अपशब्द बोला जाना हमारे सांस्कृतिक पतन का परिचायक है। प्रश्न यह नहीं है कि किस पक्ष ने किस पक्ष को निशाना बनाया, प्रश्न यह है कि एक बेटे ने एक मां को अपशब्द कहने का साहस कैसे किया? मां सबकी एक समान होती है। वह अपनी संतान के प्रति अपना सर्वस्व निछावर कर देती है। नौ माह गर्भ में पालित-पोषित करने के उपरांत अपने प्राणों को दांव पर लगा कर शिशु को जन्म देती है। रात-रात भर जाग कर शिशु का पालन करती है। शिशु की गंदगी भी प्रसन्नतापूर्वक साफ करती है। वह अपनी संतान को अच्छे संस्कार देती है। हर मां यही करती है, चाहे मित्र की मां हो या शत्रु की मां। इसीलिए मां के प्रति अपशब्द कहे जाने का अधिकार किसी को नहीं है। किन्तु कहीं न कहीं जाने अनजाने राजनीतिक स्वार्थ को उस सीमा तक पहुंचा दिया है जहां सभ्यवर्ग और मां-बहन की गाली देने वाले ‘टपोरी’ वर्ग में अंतर मिटता जा रहा है। 

‘‘माता गुरुतरा भूमेः।’’ 
- अर्थात माता इस पृथ्वी से भी कहीं अधिक भारी और श्रेष्ठ होती है।
ऐसी मां के प्रति हल्के शब्द कैसे कहे जा सकते हैं? लेकिन समाज का एक बड़ा तबका अपनी दादागिरी जताने के लिए मां-बहन की गाली देता है। ऐसी गालियां जिन्हें सुन कर कान के पर्दे झनझना जाते हैं लेकिन अनेक औरतें प्रति दिन अपने शराबी पतियों के हाथों पिटती हुईं मां-बहन की गालियां सुनती हैं। उनके बच्चे भी अपने पिता का अनुकरण करते हुए उन गालियों को कंठस्थ कर लेते हैं, दोहराते हैं जबकि उन्हें उन गालियों का अर्थ भी पता नहीं होता है। हम अपने समाज से उन गालियों को तो नहीं मिटा पाए हैं लेकिन उन गालियों के एक नए संस्करण को विस्तार दे दिया जो राजनीतिक हलके में कुछ समय पहले से चलन में आ चुका है। जब कोई बुराई चलन में शामिल होती है तो उसे और अधिक विकृत होते देर नहीं लगती है। इसका उदाहरण प्रधानमंत्री की दिवंगत मां के लिए कहे गए अपशब्द के रूप में सामने आया है। यह आपत्तिजनक है। इसलिए नहीं कि यह प्रधानमंत्री की मां के लिए कहे गए अपितु इसलिए कि एक मां के लिए कहे गए। मां चाहे किसी की भी हो, वह जीवित हो या दिवंगत, उसका सम्मान यथावत एवं यथोचित ही रहना चाहिए। 

हम उस देश के नागरिक हैं जिसे मातृदेश कहा जाता है। अतः जब एक मां को गाली दी जाती है तो वह देश को भी गाली देने के समान है। मां किसकी है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि जिसे अपशब्द कहे गए वह एक मां (दिवंगत ही सही) है। यूं भी माना जाता है कि मां कभी मरती नहीं है। वह दैहिक रूप से भले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए किन्तु उसका अंश रक्त और मज्जा के रूप में उसकी संतानों में सदैव रहता है। उसका आशीष सदा संतानों के सिर पर रहता है। फिर हम तो उस देश के नागरिक हैं जहां श्रीराम जैसे पुत्र हुए। माता कैकयी ने अपने पुत्र भरत को लाभ पहुंचाने के स्वार्थ में पड़ कर राजा दशरथ के द्वारा श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास दिला दिया। श्रीराम चाहते तो सबसे बड़े पुत्र होने के नाते राजगद्दी पर अपने अधिकार का दावा करते हुए वनवास में जाने से मना कर सकते थे। किन्तु उन्होंने पिता के वचन और सौतेली माता की इच्छा को शिरोधार्य माना और चौदह वर्ष के वनवास पर सहर्ष चले गए।
स्त्री की अवमानना का सबसे धृणित उदाहरण जिस महाभारतकाल में मिलता है, भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण के रूप में, उस काल में भी माता का अपमान नहीं किया गया। माता कुंती की आज्ञा मानते हुए द्रौपदी ने पांच भाइयों की पत्नी बनना स्वीकार किया। वही कुंती माता जब अपने त्यागे गए पुत्र कर्ण के पास अर्जुन के प्राणों की भिक्षा मांगने पहुंचती हैं तो कर्ण सब कुछ जाने हुए भी कि मां के एक कमजोर निर्णय ने उसे आजीवन सूतपुत्र बन कर जीने को विवश किया, मां को निराश नहीं करता है। वह यही कहता है कि मां आपके पांच पुत्र जीवित रहेंगे, यह मैं आपको वचन देता हूंै।’’ वह जानता था कि उसके और अर्जुन के बीच युद्ध अवश्यमभावी है अतः उसमें और अर्जुन दोनों में से जो जीवित रहेगा वह मां के पांच पुत्रों की संख्या को बनाए रखेगा। कर्ण ने भी माता कुंती को अपशब्द नहीं कहा था।  
  
28 अगस्त, 2025 को भाजपा ने बिहार में विपक्षी दलों की ‘‘वोटर अधिकार यात्रा’’ को लेकर को निशाना साधते हुए उनपर गंभीर आरोप लगाए। पार्टी ने दावा किया कि बिहार चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी स्वर्गीया मां हीराबेन मोदी के खिलाफ बेहद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया गया। कार्यक्रम में कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आरजेडी प्रमुख तेजस्वी यादव के पोस्टर लगे थे। भाजपा ने सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर पोस्ट करते हुए विपक्षी नेताओं पर राजनीति में निम्न स्तर पर गिरने का आरोप लगाया। भाजपा ने कहा, राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की यात्रा के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वर्गीय मां के लिए बेहद अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया। भाजपा ने यह भी कहा कि राजनीति में ऐसी अभद्रता पहले कभी नहीं देखी गई। यह यात्रा अपमान, घृणा और स्तरहीनता की सारी हदें पार कर चुकी है।
भाजपा ने ‘‘एक्स’’ में पोस्ट में आगे लिखा, ‘‘तेजस्वी और राहुल ने पहले बिहार के लोगों का अपमान करने वाले स्टालिन और रेवंत रेड्डी जैसे नेताओं को अपनी यात्रा में बुलाकर बिहारवासियों को अपमानित कराया। अब उनकी हताशा की स्थिति यह है कि वे प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गीय मां को गाली दिलवा रहे हैं।’’
यह विवाद तब शुरू हुआ, जब कांग्रेस के एक स्थानीय नेता नौशाद के नेतृत्व में कांग्रेस और आरजेडी कार्यकर्ताओं ने पीएम मोदी के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया और पार्टी के झंडे लहराए। हालांकि कांग्रेस ने वीडियो और अभद्र भाषा के आरोपों से खुद को अलग कर लिया था। किन्तु भाजपा नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने कहा, ‘‘राहुल गांधी की यात्रा विफल हो रही है, इसलिए इसके लिए उन्होंने कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को फोन करना शुरू कर दिया है। तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी और तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने बिहारियों को गाली दी थी तो उन्हें फोन करके वह बिहार के लोगों को क्या संदेश देना चाहते हैं?’’
इसके बाद एक कदम और आगे बढ़ कर प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को अपशब्द कहे गए। इस घटना ने सभी को विचलित कर दिया है। यदि चुनाव विशेषज्ञों का मानें तो इस घटना का चुनाव के परिणामों पर सीधा असर पड़ेगा। इससे उपजी सहानुभूति की लहर विपक्ष को डुबो सकती है। 
इस घटना पर सभी नैतिक मूल्यों की दुहाई दे रहे हैं लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि इसकी शुरुआत पिछले कुछ वर्षों में हो चुकी है। मां चाहे देशी हो या विदेशी, उसकी संतान चाहे योग्य हो या अयोग्य, उसके प्रति भी निरादर का भाव नहीं होना चाहिए। जोकि पिछले कुछ वर्षों में बार-बार छलक कर बाहर आया है। यह सच है कि पलटवार में सीमाएं लांघी गई हैं और किसी भी मां के मातृत्व पर अपशब्द नहीं कहे जाने चाहिए। पुलिस सक्रिय है। जांच जारी है। जांच में परिणाम जो भी सामने आए किन्तु यह तो तय करना ही होगा कि राजनीतिक लाभ की बिसात पर मां की गरिमा को दांव पर नहीं लगाया जाना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से कोई एक प्रदेश मात्र नहीं, वरन पूरा देश, पूरा समाज एवं पूरी संस्कृति लांछित होती है। जब एक प्रधानमंत्री की दिवंगत मां को सार्वजनिक स्थान पर अपशब्द कहा जा सकता है तो आम नागरिक की मां की प्रतिष्ठा को कहां तक सुरक्षित माना जाए? राजनीति की ओर से ऐसी मिसालें स्थापित किया जाना सर्वथा अनुचित है। भारतीय राजनीति से इस प्रकार के आचरण को विलोपित किए जाने पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
यह स्मरण रखना आवश्यक है कि -
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत।
 - अर्थात माता का स्थान सभी तीर्थों से भी ऊपर होता है और पिता का स्थान सभी देवताओं के भी ऊपर होता है इसीलिए हर मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता का सदा सम्मान करे। 
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Wednesday, August 27, 2025

चर्चा प्लस | गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

पढ़िए  श्री गणेश प्रथम पूज्य कैसे बनें 🙏
चर्चा प्लस  
गणपति बप्पा मोरया ! प्रथमपूज्य देवता हैं श्री गणेश            
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह   
       हिन्दू पूजाविधि में श्रीगणेश की पूजा से ही हर अनुष्ठान आरम्भ होता है। हिन्दू धर्म में श्रीगणेश को कार्य आरम्भ करने का पर्याय माना गया है। यहां तक कि पत्राचार और बहीखाते में भी कई लोग ‘‘श्रीगणेशायनमः’’ लिख कर ही कुछ भी लिखना आरम्भ करते हैं। किसी भी कार्य को आरम्भ करते हुए कहा भी जाता है कि ‘‘श्रीगणेश किया जाए’’। गणेश को विघ्नविनाशक देवता माना गया है अतः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व यह विध्नहर्ता की प्रार्थना भी आवश्यक है। किन्तु श्रीगणेश ही क्यों प्रथमपूज्य देवता माने गए, जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो स्वयं में सर्वशक्तिमान देवता हैं? तो चलिए देखते हैं उन पौराणिक कथाओं को जो यह बताती हैं कि गणेश प्रथमपूज्य देवता कैसे बने। ये कथाएं वर्तमान जीवन को भी महत्वपूर्ण सबक देती हैं।
      हिन्दू धर्म संस्कृति में हर शुभकार्य एवं पूजाविधि का आरंभ श्रीगणेश पूजा से ही होता है। कुछ लोग कार्य का शुभारंभ करते समय सर्वप्रथम ‘‘श्रीगणेशाय नमः’’ लिखते हैं। यहां तक कि चिट्ठी और महत्वपूर्ण कागजों में लिखते समय भी ‘‘ऊं’’ या ‘‘श्रीगणेश’’ का नाम अंकित करते हैं। क्योंकि यह माना जाता है कि श्रीगणेश के नाम स्मरण मात्र से उनके कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। शुभकार्यों के आरंभ एवं पूजन के पूर्व श्रीगणेश पूजा ही क्यों की जाती है? इस संबंध में पौराणिक ग्रंथों में विविध कथाएं मिलती है। 
      एक कथा के अनुसार एक बार सभी देवता इंद्र की सभा में बैठे हुए थे। बात पृथ्वीलोक की होने लगी। तब यह प्रश्न उठा कि पृथ्वी पर किस देवता की पूजा सबसे पहले होनी चाहिए? सभी देवता स्वयं को बड़ा बताते हुए दावा करने लगे कि उनकी पूजा सबसे पहले होनी चाहिए। तब देवर्षि नारद ने हस्तक्षेप किया और सलाह दी कि सभी देवता अपने-अपने वाहन से पृथ्वी की परिक्रमा करें। जो देवता सबसे पहले परिक्रमा पूरी कर लेगा, वही पृथ्वी पर प्रथमपूज्य होगा। देवर्षि नारद ने शिव से निणार्यक बनने का आग्रह किया। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। विष्णु गरुड़ पर, कार्तिकेय मयूर पर, इन्द्र ऐरावत पर सवार हो कर तेजी से निकल पड़े। जबकि श्रीगणेश मूषक पर सवार हुए और अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। माता पार्वती ने गणेश का यह कृत्य देखा तो उनसे पूछा कि ‘‘गणेश यह तुम क्या कर रहे हो? सभी देवता परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं और तुम हमारी परिक्रमा कर के यही खड़े हो? क्या तुम्हें पृथ्वी का प्रथमपूज्य देवता नहीं बनना है?’’
इस पर गणेश जी ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया,‘‘माता! मैंने आप दोनों की परिक्रमा कर के पृथ्वी ही नहीं अपितु पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर ली है। माता-पिता में ही पूरा ब्रह्मांड समाया होता है। अब मुझे पृथ्वी की परिक्रमा कर के क्या करना है!’’
पुत्र गणेश का उत्तर सुन कर शिव और पार्वती दोनों प्रसन्न हो गए। वे समझ गए कि उनका यह पुत्र सबसे अधिक बुद्धिमान है और एक सबसे बुद्धिमान देवता की पूजा से ही हर कार्य आरम्भ होना चाहिए। तभी सभी देवताओं में कार्तिकेय सबसे पहले लौटा और उसने गर्व से कहा कि ‘‘पिताश्री! मैं पृथ्वी की परिक्रमा कर के सबसे पहले आया हूं अतः अब पृथ्वीवासी सबसे पहले मेरी पूजा किया करेंगे। मैं ही प्रथमपूज्य देवता हूं।’’  
      तब शिव ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘‘हे पुत्र कार्तिकेय, तुम प्रथम नहीं आए हो! तुमसे पहले तुम्हारा भाई गणेश परिक्रमा कर चुका है। वह भी पृथ्वी की ही नहीं वरन पूरे ब्राम्हांड की। अतः यही प्रथमपूज्य होगा।’’ 
कार्तिकेय को यह सुन कर बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कि माता-पिता पक्षपात कर रहे हैं। उसने शिव को उलाहना दिया कि ‘‘आप गणेश को इस लिए विजयी कह रहे हैं न क्योंकि वह आपका प्रिय पुत्र है? वह मोटा है और उसका वाहन छोटा चूहा है, इसलिए आपको उस पर दया आ रही है। यही बात है न?’’
यह सुन कर शिव ने पूर्ववत मुस्कुराते हुए कार्तिकेय को समझाया कि ‘‘नहीं पुत्र कार्तिकेय! मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूं। मेरे लिए मेरी सभी संतानें समान रूप से प्रिय हैं। तुम तथा अन्य देवता महर्षि नारद का प्रयोजन नहीं समझे जबकि गणेश ने समझ लिया। गणेश जान गया कि नारद बुद्धि की परीक्षा ले रहे हैं, परिक्रमा की गति की नहीं। अतः उसे बुद्धि से काम लिया और मेरी तथा तुम्हारी मां पार्वती की परिक्रमा करते हुए ब्रह्मांड की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर लिया। इस प्रकार उसने प्रतियोगिता भी जीत ली।’’
जब कार्तिकेय ने यह विवरण सुना तो वह लज्जित हो उठा और उसने श्रीगणेश को उनकी विजय पर बधाई दी। तब तक सभी देवता परिक्रमा कर के लौट आए थे। उन्होंने भी सर्व सम्मति से बुद्धि के देवता गणेश को प्रथमपूज्य देवता स्वीकार कर लिया।

दूसरी कथा है जो श्रीगणेश के जन्म से जुड़ी हुई है। एक बार माता पार्वती स्नान करने के लिए स्नानघर में प्रवेश करने वाली थीं। किन्तु वहां आस-पास कोई नहीं था जिसे वे द्वार पर पहरा देने का काम सौंपतीं। वे नहीं चाहती थीं कि जब वे स्नान कर रही हों तो कोई आ कर उनके स्नानकर्म में व्यवधान डाले। तब माता पार्वती को एक उपाय सूझा। उन्होंने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूंक कर उसे जीवित कर दिया। प्राण प्राप्त होते ही बालक ने हाथ जोड़ कर पूछा,‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है माता?’’
‘‘तुम इस महल के द्वार पर पहरा दोगे। जब तक मेरा स्नान पूर्ण न हो जाए तब तक किसी को भी महल में प्रवेश मत करने देना।’’ पार्वती ने आज्ञा दी। वह बालक द्वार पर पहरा देने लगा। 
कुछ देर में भगवान शिव वहां आ पहुंचे। द्वार पर बैठा बालक तो सद्यः जन्मा था अतः शिव अथवा किसी अन्य व्यक्ति के बारे में उसे ज्ञान नहीं था। उसने शिव को महल में प्रवेश करने से रोका। शिव ने उसे सामझाया कि वे इसी महल में रहते हैं और जिस माता की आज्ञा का तुम पालन कर रहे हो वह मेरी अद्र्धांगिनी है।
‘‘तो क्या अर्द्धांगिनी की कोई अपनी इच्छा या प्रतिष्ठा नहीं होती है? यदि वे चाहती हैं कि इस समय महल में कोई प्रवेश न करे, तो उनकी यह इच्छा आप पर भी लागू होती है।’’ उस बालक ने तर्क दिया। यह सुन कर शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने क्रोधावेश में बालक का सिर काट दिया। तब तक झगड़े की आवाज सुन कर पार्वती द्वार तक आ पहुंची थीं। उन्होंने उस बालक को सिरविहीन देखा तो दुख और क्रोध से भर उठीं।
‘‘यह आपने क्या किया? आपने मेरे पुत्र का सिर क्यों काटा? मेरा पुत्र आपका भी पुत्र हुआ अतः आपने अपने पुत्र का सिर काट कर आप पुत्रहंता बन गए।’’ पार्वती ने कहा।
‘‘मुझे नहीं मालूम था कि यह हमारा पुत्र है। यह हठ कर रहा था और मुझे महल में प्रवेश नहीं करने दे रहा था इसीलिए मुझे क्रोध आ गया।’’ शिव ने पार्वती को शांत करना चाहा।
‘‘मैं कुछ नहीं सुनना चाहती हूं! आप मेरे आज्ञाकारी पुत्र को जीवित करिए, अन्यथा मैं भी प्राण त्याग दूंगी।’’ पार्वती ने शिव को चेतावनी दी।
तब शिव ने हाथी के सद्यःमृत बच्चे के सिर को उस बालक के धड़ से जोड़ दिया जिससे वह बालक पुनर्जीवित हो उठा। सूंड़धारी उस बालक को माता पार्वती ने प्रसन्नता से गले लगा लिया। तब भगवान शिव ने उस बालक का नामकरण करते हुए उसे आर्शीवाद दिया कि ‘‘तुम आज से गणेश, गणपति एवं गजानन, गजवदन आदि नामों से जाने जाओगे और तुम बुद्धि के देवता होने के कारण सभी देवताओं से पहले पूजे जाओगे।’’
   यह सुन कर माता पार्वती का क्रोध शांत हो गया तथा उन्होंने अपने पुत्र गणेश को ‘‘श्रीगणेश’’ कह कर संबोधित किया।

तीसरी कथा इस प्रकार है कि एक बार पार्वती के मन में यह इच्छा पैदा हुई कि उनका एक ऐसा पुत्र हो जो समस्त देवताओं में प्रथम पूजन पाए। इन्होंने अपनी इच्छा भगवान शिव को बताई। इस पर शिव ने उन्हें पुष्पक व्रत करने की सलाह दी। पार्वती ने पुष्पक व्रत का अनुष्ठान करने का संकल्प किया और उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए समस्त देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ का आरम्भ हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र सनतकुमार यज्ञ की पुरोहिताई कर रहे थे। 
यज्ञ पूर्ण होने पर विष्णु ने पार्वती को आशीर्वाद दिया कि जिस प्रकार यह यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ है उसी प्रकार आपकी इच्छानुरूप विध्नविनाशक पुत्र आपको प्राप्त होगा। विष्णु से यह आशीर्वाद पा कर माता पार्वती प्रसन्न हो उठीं। यह देख कर सनतकुमार ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि ‘‘मैं इस यज्ञ का ऋत्विक हूं। पुरोहित हूं। यज्ञ भले ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गया है, परंतु शास्त्र-विधि के अनुसार जब तक पुरोहित को उचित दक्षिणा देकर संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तब तक यज्ञकर्ता को यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होगा।’’
‘‘बताइए आपको दक्षिणा में क्या चाहिए?’’ माता पार्वती ने सनतकुमार से पूछा।
‘‘माता भगवती, मैं आपके पतिदेव शिवजी को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूं।’’सनतकुमार ने विचित्र मांग की। 
‘‘ऋत्विक सनतकुमार!, आप एक स्त्री से उसका पति अर्थात् उसका सौभाग्य मांग रहे हैं जो देना मेरे लिए संभव नहीं है। अतः आप कुछ और मांगिए।’’ माता पार्वती ने सनतकुमार की मांग ठुकराते हुए कहा। 
सनतकुमार अपनी मांग पर अड़ गए। पार्वती ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि यदि मैं आपको अपना पति सौंप दूंगी तो मुझे पुत्र की प्राप्ति कैसे होगी? यज्ञ का फल तो उस स्थिति में भी नहीं मिलेगा। अतः आप हठ छोड़ दें। किन्तु सनत कुमार अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं थे। तब शिव ने पार्वती को समझाया कि ‘‘आप मुझे सनतकुमार को दक्षिणा में दान कर दें और विश्वास रखें कि आपकी इच्छा भी पूर्ण होगी।’’ 
पार्वती सनतकुमार को दक्षिणा में शिव का दान करने ही वाली थीं कि एक दिव्य प्रकाश के रूप में विष्णु प्रकाशित हुए तथा अगले ही पल श्रीकृष्ण का रूप धारण कर के सनतकुमार के सामने आ खड़े हुए। सनतकुमार ने विष्णु के कृष्ण रूप का दर्शन किया और कहा,‘‘मेरी इच्छा पूर्ण हुई अब मुझे दक्षिणा नहीं चाहिए। मैं जानता था कि आपको दान देने से रोकने के लिए विष्णु मेरी इच्छा पूर्ण अवश्य करेंगे।’’
इसके बाद सभी देवता तथा यज्ञकर्ता पार्वती को आशीर्वाद देकर वहां से चले गए। पार्वती अभी अपनी प्रसन्नता से आनन्दित ही हो रही थीं कि एक विप्र याचक वहां आ गया। उसने खाने को कुछ मांगा। पार्वती ने उसे मिष्ठान्न दिए। उतना खा लेने के बाद वह याचक बोला,‘‘मां अभी भूख नहीं मिटी है, थोड़ा और दो!’’
पार्वती ने और मिष्ठान्न दे दिया। इसके बाद याचक खाता जाता और मांगता जाता। पार्वती उसे खिला-खिला कर थक गईं। उन्होंने शिव से कहा कि ‘‘ये न जाने कैसा याचक आया है जिसका पेट ही नहीं भर रहा है। मैं तो खिला-खिला कर थक गई।’’ 
‘‘कहां है वह याचक?’’ कहते हुए शिव याचक को देखने निकले तो वहां कोई नहीं था। पार्वती चकित रह गईं कि अभी तो वह याचक भोजन की मांग कर रहा था और पल भर में कहां चला गया? तब शिव ने पार्वती को उस याचक का रहस्य समझाया कि वह कोई याचक नहीं बल्कि तुम्हारे उदर से जन्म लेने की तैयार कर रहा गणेश है जो जन्म के बाद लंबोदर कहलाएगा और देवताओं में प्रथम भोग पाने वाला प्रथम पूज्य होगा।’’
ये तीनों कथाएं न केवल अयंत रोचक हैं बल्कि यह बताती हैं कि बुद्धि का उपयोग करने वाला ज्ञानी ही प्रथम पूज्य बनता है। इन कथाओं को मात्र धार्मिक भावना से नहीं, वरन ज्ञान भावना से भी समझने का प्रयास करना चाहिए। बुद्धि ही है जो जीवन में सुख, संपदा और सफलता दिलाती है तथा बुद्धि के देवता हैं श्री गणेश इसीलिए तो वे ही प्रथम पूज्य देवता हैं।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 27.08.2025 को प्रकाशित)  
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Thursday, August 21, 2025

चर्चा प्लस | प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 21.08.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस           
प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                             कहावतों की दुनिया निराली होती है क्योंकि कहावतें इसी दुनिया से जन्म लेती हैं और दुनिया तो निराली है ही। दो बहुप्रचलित कहावतें हैं-‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। यद्यपि नई पीढ़ी इनके अर्थ रट के भले ही इन्हें जान ले किन्तु उस समय तक इनका व्यवहारिक अर्थ नहीं समझ सकती है जब तक कि इन्हें राजनीति से जोड़ कर न बताया जाए। बस, यही तो खूबी है कहावतों की कि वे कहीं भी फिट की जा सकती हैं इसीलिए उनके मूल संदर्भों के विलुप्ति की कगार पर होते हुए भी उनकी अर्थवत्ता बनी हुई है। तो चलिए परखते हैं ‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’ की अर्थवत्ता एवं प्रासंगिकता को।  
        किसी भी चर्चा के दौरान कहावतें स्वतः वाणी में उतर आती हैं। जैसे कोई व्यक्ति काम बिगाड़ दे तो दूसरा उस पर झल्ला कर यही कहेगा कि ‘‘अकल के अंधे हो क्या? सब गड़बड़ कर दिया।’’ अंधा तो आंख का ही होगा न! जी नहीं, अकल के अंधे भी होते हैं। जब किसी को अकल का अंधा कहा जाए तो वहीं इस एक मुहावरे का प्रयोग खुद-ब-खुद हो जाता है और तगड़े कटाक्ष के सहित। यह जरूरी नहीं है कि हमेशा कटाक्ष के लिए अथवा डांट-डपट के लिए ही मुहावरों या कहावतों का प्रयोग किया जाए। किसी भी संदर्भ में कोई भी कहावत बोली जा सकती है। जैसे किसी की अतिगरीबी को बयान करने के लिए कह दिया जाता है कि ‘‘नंगा धोए क्या और सुखाए क्या?’’ यहां ‘‘नंगा’’ शब्द अति गरीबी का परिचायक है। जिसके पास वस्त्र ही न हो वह कौन से कपड़े धोएगा और, कौन से कपड़े धो कर सुखाएगा? मार्मिक दृश्यात्मकता है। वहीं यदि कह दिया जाए कि ‘‘नंगे से तो भगवान भी डरता है’’ तो यहा ‘‘नंगे’’ से आशय निर्लज्ज, ढीठ, अड़ियल व्यक्ति से होगा। इसीलिए कहावतों या मुहावरों की दुनिया निराली होती है। ये कहावतें जीवन के अनुभवों से जन्मती हैं। लेकिन जीवन जिस तेजी से बदला है उसमें बहुत सी कहावतों के मूल प्रसंग एवं संदर्भ खो गए हैं। जैसे एक कहावत है- ‘‘कोल्हू का बैल’’। अब न पारंपरिक कोल्हू कहीं दिखाई देता न कोल्हू चलाते बैल। बिजली से चलने वाले कोल्हू भी अब इलेक्ट््रानिक रूप ले चुके हैं। कम्प्यूटराइज़्ड जमाने में बैल वाला कोल्हू कहां मिलेगा? नई पीढ़ी और वह भी हिन्दी भाषा एवं साहित्य पढ़ने वाली नई पीढ़ी ‘‘कोल्हू का बैल’’ मुहावरे को रटती है, पर समझ नहीं पाती है। 

युवा पीढ़ी के लिए कई कहावतें अबूझ हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। समय की परिवर्तनशीलता ने अनेक कहावतों के परिदृश्य को लगभग विलोपित कर दिया है। बात चल रही थी ‘‘कोल्हू के बैल’’ की, तो कोल्हू वह विशालकाय यंत्र होता था जो खल और मूसल की भांति लकड़ी का बना होता था। मूसल को चलाने के लिए उसमें लकड़ी का जुआ जोड़ा जाता था जिसे बैल की गरदन पर बांध दिया जाता था। बैल उस जुए को लाद कर खल के चारो ओर गोल-गोल चक्कर काटता था जिससे खल में डाला गया सरसों, मूंगफली या तिल आदि के दाने पिस जाएं और उनसे तैल निकल आए। गोल चक्कर काटते हुए बैल को चक्कर न आ जाए, इसीलिए उसकी दोनों आंखों के बाजुओं में पट्टे बंाध दिए जाते थे ताकि उसे भ्रम हो कि वह लम्बाई में कहीं दूर चला जा रहा है। उस बैल को सुबह से रात तक काम करना पड़ता था। वह भी एक ही स्थान पर गोल-गोल चक्कर काटते हुए। इसीलिए एक ही स्थान पर अथक मेहनत करने वाले जो तैल निकालने जैसा कठिन काम करता है किन्तु मुनाफे में से उसे मात्र चारा-भूसा जैसा परिणाम मिलता है। ऐसे लोगों के लिए इस कहावत का प्रयोग किया जाता है। बस, वे एक भ्रम में चलते चले जाते हैं। जैसे कई कर्मचारी यह भ्रम पाल लेते हैं कि सिर्फ़ उनकी मेहनत से कार्यालय का सारा कामकाज चल रहा है। ऐसे लोग कभी छुट्टियां नहीं लेते, फोकट में ओव्हर टाईम काम करते हैं। उस समय वे यह भूल जाते हैं कि जब वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे उसके बाद भी कार्यालय के सभी काम उसी तरह सुचारु चलते रहेंगे। ऐसे कर्मचारी स्वयं को कोल्हू का बैल बना कर प्रसन्न रहते हैं।

 खैर, कर्मचारियों को छोड़िए क्योंकि आजकल मल्टीनेशनल कंपनी का प्रत्येक कर्मचारी कोल्हू का बैल होता है। तो फिर, क्यों न बात की जाए राजनीति की? क्योंकि हर व्यक्ति तो मल्टीनेशनल कंपनी का कर्मचारी होता नहीं है। जबकि हर व्यक्ति राजनीति से कुछ न कुछ सरोकार रखता ही है। चाहे नेता के रूप में हो या मतदाता के रूप में या फिर ट्रोलकर्ता के रूप में। यूं भी राजनीति में खुदमुख़्तारी यानी स्वयं की सत्ता होती है। विरले ही होते हैं जिन्हें ठेल-ठाल कर राजनीति में पहुंचा दिया जाता है अन्यथा अधिकांश तो अपनी बेरोजगारी को ढांपने अथवा सुनहरे भविष्य की मृगमारीचिका को ले कर राजनीति के मैदान में उतर जाते हैं।

अनेक छुटभैये जो जीवनभर अपने प्रिय नताओं के लिए कोल्हू का बैल बने रहते हैं उन्हें भी यही भ्रम होता है कि वे एक दिन राजनीति के कलछौंहे आकाश में चमकते सितारे बन जाएंगे। यही भ्रम उनसे अपने आका का हर आदेश मनवाता है। ये छुटभैये गली-गली घूम कर पोस्टर चिपकाने और अपने आका के जयकारे लगवाने में भी स्वयं की अर्थवत्ता महसूस करते हैं। जैसे कोल्हू का बैल वहीं-वहीं एक वर्तुल या गोले में चक्कर लगाता हुआ भी समझता है कि वह अपने मालिक को साथ ले कर कहीं दूर यात्रा पर निकला है। यही समझ का फेर छुटभैयों को कोल्हू का बैल बनाए रखता है। फिर यदि कुछ को समझ में आ भी जाए तब भी वे सोचते हैं कि कुछ न होने से कुछ दिखने में कोई बुराई नहीं है। अरबों की जनसंख्या में कुछ सैंकड़ा तो यह मान ही लेंगे कि वे छुटभैये अपने आका के निकटतम हैं, खास हैं। इसीलिए तो उन्हें पोस्टर चिपकाने और जयकारे लगाने का काम दिया गया है। वैसे ध्यान से देखा जाए तो भ्रम का सबसे बड़ा लाभ इन्हें मिल ही जाता है। क्योंकि ऐसे लोगों को आका की बैठक में भी प्रवेश की अनुमति नहीं होती है किन्तु वे द्वारपाल की भांति दरवाजे के बाहर मंडराते रहते हैं। जिससे जन्मजात भोली जनता को उनके खास होने का भ्रम हो जाता है। जनता सोचती है कि फलां छुटभैया हमेशा उस बड़े नेता के दरवाजे पर दिखता है यानी वह उस नेता का खास है। नेता से यदि कोई काम है तो पहले उसे खुश करना होगा, पटाना होगा। सो इस तरह छुटभैयों को शुद्ध तैल नहीं तो कम से कम चारा-भूसा मिल जाता है। वे इसी में खुश रहते हैं। जब चुनावों का मौसम आता है तो ऐसे छुटभैयों को दूसरे राज्यों में भी जा कर कोल्हू चलाने का अवसर मिल जाता है, बदले में रोटी-कपड़ा और कुछ पैसे तो मिलते ही हैं।

अब बात करते हैं दूसरी कहावत की- ‘‘थाली का बैंगन’’। छोटे शहरों, गांवों, कस्बों में तो अभी भी गृहणियों को स्वयं सब्जियां काटनी पड़ती हैं, अन्यथा मेट्रो सिटीज़ में कटी-कटाई सब्ज़ियां भी बिकने लगी हैं। जिन्हें खाने की होम डिलेवरी नहीं मंगानी है और घर में कम से कम मेहनत में खाना पकाना है उसके लिए कटी हुई सब्ज़ियां खरीदना एक लुभावना आॅप्शन होता है। मेहनत और अनुभवों से दूर भागने का यह भी एक रूप है। अतः जो साबुत सब्ज़ियां अपने घर में लाते हैं वे थाली में बैंगन को रख कर इस कहावत को चरितार्थ होता देख सकते हैं। बैंगन की बनावट ही ऐसी होती है कि वह थाली में एक स्थान पर नहीं टिक पाता है। थाली ज़रा सी हिली नहीं कि वह इधर से उधर लुढ़क जाता है। उसकी इसी प्रवृति को ले कर ‘‘थाली का बैंगन’’ कहावत बनी। इस कहावत को उन लोगों पर लागू किया जाता है जो जरा सी हलचल में अपनी पाली बदल लेते हैं अथवा अपने वचन से फिर जाते हैं। यदि कर्मचारियों में देखा जाए तो ऐसे कर्मचारी अपने साथियों के सामने अपने बाॅस की बढ़-चढ़ कर बुराई करते मिलेंगे, किन्तु वे ही जब अपने बाॅस के कक्ष में पहुंचते हैं तो बाॅस का गुणगान करते हुए अपने साथियों की बुराइयां गिनाने लगते हैं। फिर भी ‘‘थाली का बैंगन’’ का यदि सही-सही अर्थ समझना है तो राजनीति से बढ़ कर कोई अच्छा उदाहरण हो ही नहीं सकता है। पिछले कुछ वर्षों में थाली के बैंगनों की जो बाढ़ आई वह हम सबने देखी ही है। अनेक बैंगन अर्थात अनेक नेता इस पार्टी से उस पार्टी में लुढ़क गए। जिन्होंने कभी श्रीराम का नाम नहीं लिया, वे भी श्रीराम के अनन्य भक्त हो गए। लेकिन यह बात सिर्फ़ आज की या पिछले कुछ वर्षों की नहीं है, थाली के बैंगनों ने तो लोकतंत्र की नई परिभाषा ही गढ़ दी थी। 

स्वतंत्र भारत में सन् 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में पहले आम चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था। अन्य पार्टियों की कुल सीटें 223 के मुकाबले कांग्रेस को 152 सीटें मिली थीं। तब दक्षिण भारत के दिग्गज नेता टी. प्रकाशम के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि तत्कालीन राज्यपाल ने सेवानिवृत्त गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। जबकि सी. राजगोपालाचारी विधान सभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद दलबदल का दौर चला और 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस के पक्ष में आ गए। परिणामस्वरूप राजाजी मुख्यमंत्री बन पाए। दलबदल की राजनीतिक प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए राजाजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘दल के सदस्यों का सामूहिक दलबदल लोकतंत्र का सार है। सामूहिक रूप से दलबदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है। अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए, अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।’’
 लगभग साल भर बाद इसी राजनीतिक मंच पर यही नाटक पुनः प्रस्तुत किया गया। टी. प्रकाशम को कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन दिया गया। प्रकाशम ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुख्यमंत्री के पद के समक्ष अपने दल को त्यागने की अपनी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ को सुना। यदि अंतरात्मा की आवाज़ के तर्क को स्वीकार किया जाए तो यह भी मानना होगा कि हर बैंगन में अंतरात्मा होती है। होनी भी चाहिए आखिर वनस्पतियों में भी जीवन पाया जाता है। यह बात और है कि एक टूटा हुआ बैंगन जो वस्तुतः जीवन से नाता तोड़ चुका होता है वही थाली में लुढ़कता है, पौधे में लटका हुआ बैंगन कभी, कहीं नहीं लुढ़कता। किन्तु राजनीति के बैंगन तो संजीवनी की आशा में यहां से वहां लुढ़कते हैं। जो कल नास्तिक थे, वे आज घोर आस्तिक हो गए और जो आज आस्तिक हैं वे कल फिर से घोर नास्तिक हो सकते हैं, यदि राजनीतिक परिदृश्य बदल गया तो। 

तो ये थी दो कहावतें ‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। इनकी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता तब तक समाप्त होने वाली नहीं है जब तक समाज और राजनीति से इन्हें प्राणवायु मिलती रहेगी।  
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Wednesday, August 13, 2025

चर्चा प्लस | मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
मैंने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता प्राप्त हो गई किन्तु इसके साथ ही विभाजन का दंश भी मिला था जिसने हर भारतीय की आत्मा को झकझोर दिया था। ऐसे समय में देश के नागरिकों में राष्ट्र के प्रति उत्साह की नवीन ऊर्जा का संचार करना आवश्यक था। यह याद दिलाना जरूरी था कि स्वतंत्रता प्राप्ति की एक बड़ा लक्ष्य पा लिया है किन्तु अब नवीन राष्ट्र को नए सिरे से स्थापना देने के लिए सबको जुटना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘‘राष्ट्रधर्म’’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ। अब आवश्यकता थी राष्ट्रधर्म का सच्चा अर्थ समझने वाले संपादक की।
          अटल बिहारी वाजपेयी में राजनीतिक समझ, साहित्यिक प्रतिभा और लेखन की प्रभावी कला थी। उनकी ये विशेषताएं एक न एक दिन उन्हें सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचाने वाली थीं। अटल बिहारी यदि चाहते तो वे तत्काल सफलता प्राप्त करने का कोई छोटा रास्ता भी चुन सकते थे किन्तु वे किसी भी ‘शाॅर्टकट’ में विश्वास नहीं रखते थे। उनका उस समय भी मानना था कि ‘‘जो श्रम करके प्राप्त किया जाए, वही सुफलदायी होता है और स्थायी रहता है।’’ कर्म के प्रति आस्था रखने वाले अटल बिहारी ने श्रम का मार्ग चुना। वे जनसेवक बनना चाहते थे। दिखावे के जनसेवक नहीं, वरन् सच्चे जनसेवक। वे जनता के सहभागी बन कर काम करना चाहते थे, जनता से दूर रह कर नहीं। उनकी यह अभिलाषा उनके भाषणों और लेखों में मुखर होती रहती। अतः जब पं. दीनदयाल उपाध्याय को एक पत्रिका प्रकाशित करने का विचार आया तो प्रश्न था कि उस पत्रिका का संपादक किसे बनाया जाए? क्योंकि पं. दीनदयाल स्वयं संपादन का भार ग्रहण नहीं करना चाहते थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सबसे पहला नाम अटल बिहारी का ही सूझा।
सन् 1946 में स्वतंत्रता संग्राम अपनी चरम स्थिति पर जा पहुंचा था। सन् 1947 के आरम्भिक महीनों में अंग्रेज सरकार को भी समझ में आ गया था कि अब उनके भारत से जाने का समय आ गया है। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया किन्तु इससे पहले देश के बंटवारे का दंश देश की आत्मा को घायल कर चुका था।
बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहार्द स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना की थी जिसके अंतर्गत क्रमशः स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित हुए।
‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करने से पूर्व आवश्यकता थी एक अत्यंत योग्य संपादक की, जो पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को भली-भांति समझते हुए पत्रिका को सही स्वरूप प्रदान कर सके। चूंकि दीनदयाल उपाध्याय स्वयं संपादक पद पर रह कर बंधन स्वीकार नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपने का निर्णय किया। उपाध्याय जी ने अटल बिहारी को लखनऊ बुला दिया। अटल बिहारी ने भी ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन का भार सहर्ष स्वीकार कर लिया।  

राजधानी लखनऊ के राजेंद्र नगर स्थित आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल में राष्ट्रधर्म का काम शुरू हुआ था। सन 1947 में अटल बिहारी वाजपेयी ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के पहले संपादक बने। देश स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रवाद की अलख जगाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के अनुसार प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका में लेखन और फिर उसकी छपाई का काम शुरू हुआ था। उस दौर में ट्रेडइल और विक्टोरिया फ्रंट जैसी छोटी मशीनों में पत्रिका और अखबारों की छपाई का काम होता था। धीरे-धीरे करके यह काम अटल जी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और उनके नेतृत्व में लोगों को राष्ट्रवाद के विचार मिलने शुरू हो गए। राष्ट्रधर्म में लेखन और उसके वितरण का काम अटल बिहारी वाजपेयी खुद करते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ को अपने धर्म की भांति सम्हाला। वे समाचार लिखते थे, लेख लिखते थे, संपादकीय लिखते थे और छपने के बाद उसे हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए लखनऊ की गलियों में साइकिल से भी राष्ट्रधर्म बांटने का काम भी किया करते थे। उनकी इस विशेषता को पहचानते हुए ही दीनदयान उपाध्याय ने ‘‘राष्ट्रधर्म’’ के लिए जब संपादक के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को चुना उस दौरान मनोहर आठवले ने उनसे पूछा कि ‘‘आप राष्ट्रधर्म के लिए संपादक ढूंढ रहे थे, कोई मिला कि नहीं?’’
इस पर दीनदयाल उपाध्याय ने संतोष भरे स्वर में उत्तर दिया कि ‘‘मैंने ‘राष्ट्रधर्म’ के लिए उसे चुन लिया है जिसे राष्ट्रधर्म की समझ है।’’
फिर जैसे ही दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी का नाम लिया तो मनोहर आठवले के मुख से निकला,‘‘उत्तम चयन!’’
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 31 अगस्त 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला. स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक 16वें दिन राष्ट्रधर्म का पहला अंक निकला था अतः उसे विशिष्ट होना ही था। अटल जी ने अपनी कविता ‘‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन, हिन्दू रग-रग, हिन्दू मेरा परिचय’’ को राजधर्म के प्रथम अंक में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया। कविता के प्रथम दो बंद थे-
हिन्दू तनदृमन, हिन्दू जीवन, रगदृरग हिन्दू मेरा परिचय!
मैं शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षारदृक्षार।
डमरू की वह प्रलयदृध्वनि हूँ, जिसमे नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मै दुर्गा का उन्मत्त हास।
मै यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुंआधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती मे आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड चेतन तो कैसा विस्मय?
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मैने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ मे घहर-घहर, सागर के जल मे छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

तथा, कविता के अंतिम दो बंद थे -
होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल-राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर-घर मे नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल मे जाकर कितनी मस्जिद तोडी?
भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज।
मेरा इसका संबन्ध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तनदृमन, इससे मैने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूँ, मै तो समाज का हूं सेवक।
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय!

यद्यपि यह प्रथम अंक निकालना भी कोई आसान काम नहीं था। पहले अंक की 3500, दूसरे अंक की आठ हजार और तीसरे अंक की 12000 प्रतियां निकली थीं। पत्रिका लोकप्रिय हुई, प्रसार बढ़ा, पाठक बढ़े किन्तु इसी के साथ काम भी बढ़ गया। अटल जी को अपने ही हाथ से कंपोजिंग करना रहता था और राष्ट्रधर्म के बंडल साइकिल पर लेकर उनको बांटने के लिए जाना पड़ता था। इतनी विषम परिस्थिति में अटल जी काम करते थे। किन्तु उनकी इसी जीवटता के कारण इस युवा संपादक की पहचान पूरे देश में स्थापित हो गई थी।
अटल बिहारी के संपादन में ‘राष्ट्रधर्म’ ने शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर ली। उनके संपादकीय लेख लोग रुचि से पढ़ते। समाचारपत्र की प्रसार संख्या और प्रशंसकों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा एवं डाॅ. रामकुमार वर्मा भी अटल बिहारी के संपादकीय लेखों के प्रशंसक थे। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त, 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने आगे चल कर न केवल अटल बिहारी वाजपेयी वरन् वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र तथा राजीवलोचन अग्निहोत्री जैसे महानुभावों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। इसी के साथ ‘राष्ट्रधर्म’ का वह उद्देश्य भी पूरा हुआ जिसके लिए इसका प्रकाशन आरम्भ किया गया था। उद्देश्य था राष्ट्रवासियों के मन में उत्साह संचार करना एवं नवीन लक्ष्यों की ओर ध्यानआकर्षित करना ताकि एक सृदुढ़ स्वतंत्र भारत आकार ले सके।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 13.08.2025 को प्रकाशित)  
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Wednesday, August 6, 2025

चर्चा प्लस | कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
कितना जानते हैं हम अपनी नदियों के बारे में
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       गंगा पापों नाश करती है, यमुना भूमि की प्यास बुझाती है, सरस्वती भूमिगत हो कर लुप्त हो चुकी है। लगभग इतना ही जानते हैं हम नदियों के बारे में। अधिक से अधिक नदियों के उद्गम और समापन के बारे में जानकारी रखते हैं और स्वयं को नदी के ज्ञाता मानने की भूल करने लगते हैं। यदि हम नदियों के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लें तो उन्हें क्षति पहुंचाने के बारे में कभी नहीं सोचेंगे। नदियों की विस्तृत जानकारी के लिए कठिन लगने वाले वैज्ञानिक ग्रंथों की नहीं अपितु मात्र वेदों के पठन की आवश्यकता है। आजकल तो वेद अर्थ, भावार्थ एवं टीका सहित भी उपलब्ध हैं। उन्हें पढ़ने के बाद समझ में आता है कि अपने पूर्वजों की तुलना में तो नदियों के बारे में हमारा ज्ञान न्यूनतम हैं।  
          इतना तो हम सभी जानते हैं कि नदियां जल का वे सतत स्रोत हैं जिसका जल समुद्र की तरह खारा नहीं वरन मीठा है। इसी लिए हमारे पूर्वजों ने अपनी बस्तियां बसाने के लिए नदियों की निकटता को चुना। नदियों के किनारे ही महान संस्कृतियों ने जन्म लिया और विकास किया। हमारे पूर्वज परम ज्ञानी थे। वे अपनी स्मृतियों को सहेज कर अरने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाने की कला में निपुण थे। यहां तक कि प्रागैतिहासिक कालीन पूर्वजों ने गुफा भित्तियों एवं चट्टानों पर चित्रों के रूप में अपने जीवन के अनुभवों एवं कल्पनाओं को अंकित किया। वह भी उन पदार्थों से जो समय की सीमाओं को पार करते हुए आज भी हमारे लिए उपलब्ध हैं। उनके बाद के पूर्वजों ने लेखन कला का आविष्कार किया और ताड़पत्रों, भुर्जपत्रों, तथा कालान्तर में ताम्रपत्रों में अपने अनुभवों को सहेजा। उन सभी बातों को लिपिबद्ध किया जो आने वाली पीढ़ी के लिए जानना आवश्यक थीं। स्मरण रहे कि हमारे पूर्वजों ने जिस प्रकृति से जीवन पाया था, उसका महत्व वे समझते थे। इसीलिए उन्होंने पंचतत्वों की व्याख्या की जिसमें जल भी एक तत्व है। उनके लिए जल का स्थाई स्रोत नदी। प्राकृतिक कूप हर जगह नहीं थे। कूपों का निर्माण प्रकृतिक कूपों को देख कर ही हमारे पूर्वजों ने सीखा। किन्तु नदी का निर्माण संभव नहीं था। यदि संभव था तो नदी का संरक्षण। वे इस बात को भली-भांति जानते थे। यद्यपि उस समय प्राकृतिक स्थिति आज से भिन्न थी। वन और वर्षा की बहुलता थी फिर भी ग्रीष्मकाल में उन्होंने नदियों के जल को कम होते और सिकुड़ते देखा होगा। इस बात की कल्पना की होगी कि यदि हम नदियों के जल का संरक्षण नहीं करेंगे तो एक समय ऐसा आएगा जब नदी-जल की उपलब्धता कम से कम उस स्थान पर नहीं रहेगी जहां मनुष्यों का निवास है। इसलिए पौराणिक ग्रंथों में नदियों महिमा का वर्णन किया गया है जिससे नदियों के महत्व को सभी समझें और उनके संरक्षण का ध्यान रखें। 

       ऋग्वेद के तीसरे मण्डल का 33 वें सूक्त में विश्वामित्र नदी संवाद के रूप में कुल मंत्र 13 हैं। भरतवंशी विश्वामित्र सुदास से पौरोहित्य कर्म का धन लेकर अपने गन्तव्य मार्ग के लिए जाने लगा तो अन्य लोग भी उसका अनुकरण करने लग जाते हैं। रास्ते में नदियों में बाढ़ आ जाने के कारण उन्हें पार करना मुश्किल था। 13 मन्त्रों में विश्वामित्र द्वारा शुतुद्री और विपाट् नदियों से मार्ग देने के लिए प्रार्थना की गई है ।

      ऋग्वेद संहिता में कुल दस मण्डल हैं। दशम मण्डल सबसे अर्वाचीन है। इसमें 191 सूक्त हैं। त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी, इन्द्राणी, शची आदि इसके मुख्य ऋषि हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल में नदी सूक्त है, जिसमें कुल 75 सूक्त हैं जो नदियों को समर्पित है। यह सूक्त भारत की नदियों की महिमा का वर्णन करता है और उन्हें मां के समान पूज्य माना गया है। इसमें 21 नदियों का उल्लेख है, जिनमें सिंधु, यमुना, गंगा, सरस्वती, और गोमल जैसी प्रमुख नदियां शामिल हैं।
प्र तेंरदद्वरूणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजौ अभ्यद्रवस्त्वं।
भूम्या अधिं प्रवता यासि सानुना यदेषामग्र जगतमिरज्यसि।।
- अर्थात अति बहाव वाली नदी के बहने के लिए आदित्य ने मार्ग बना रखा है जिससे वह अन्न आदि को लक्ष्य में रखकर बहती है। भूमि के उन्नत मार्ग से यह बहती है। जिस उन्नत मार्ग से यह बहती है वह प्राणियों को प्रत्यक्ष दिखाई देता है और नदी का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखता है।

     नदी के वेग के संबंध में सुंदर वर्णन है कि किस प्रकार वेगवती नदी ऐसी गर्जना के साथ बहती है कि उसकी ध्वनि आकाश तक गूंजती है-
दिवि स्वनो यतते भूम्योपर्यनन्तं शुष्म मुर्दियर्ति भानुना।
अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेतिं वृषभो न रोरूयत्।।
- अर्थात जब यह वेग वाली नदी गर्जना की तरह शब्द करती हुई बहती है तब मेघ से होने वाली वृष्टि के समान शब्द होता है। इसके बहाव का शब्द पृथ्वी पर होता हुआ आकाश में पहुंचता है। सूर्य की किरणों से इसकी उर्मियां युक्त होती हैं और यह नदी अपने वेग को और भी बढ़ा लेती है।

    एक सूक्त में वर्णन है जिसमें उसे उन नदियों की माता की भांति कहा गया है जो सिंधु से आ कर मिलती हैं। साथ ही बाढ़ की स्थित में किनारों को तोड़ती हुई नदी की तुलना युद्ध में निकले हुए प्रतापी राजा से करते हुए इसे अन्य छोटी नदियां की नेतृत्वकर्ता बताया गया है -
अभि त्वां सिन्धो शिशुमिन्न मातरो वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनवः।
राजेव युध्वां नयसि त्वमित्सिचै यदासामग्रं प्रवतामिनक्षसि।।
- अर्थात जिस प्रकार माताएं शिशुओं को मिलती हैं और जिस प्रकार दूध से भरी हुई नवप्रसूता गाय आती है, उसी प्रकार शब्द करती हुई दूसरी नदियां सिंधु में मिलती हैं। युद्ध करने वाले राजा के समान यह जब इसमें मिली नदियों से आगे रहती है और बाढ़ आती है तो तटों को भी बहाती है।

एक सूक्त में कई बड़ी नदियों के नाम हैं तथा उनकी विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण है-
इमं में गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमै सचता परूष्ण्या।
असिवक्न्या मरूद्वृधे वितस्तयार्जीकीये श्रणुह्या सुषोमया।।
- भवार्थ है कि मेरे इस प्रशंसा वचन को ये नदियां सब प्रकार से सेवित कराती हैं, सुनवाती हैं। गंगा अति वेगवती नदी है, यमुना मिलकर उसे अधिक जल वाली नदी बना देती है। सरस्वति अधिक जल वाली नदी है। शुतुद्रि शीघ्र बहने वाली नदी है तथा परूष्ण्या पर्व वाली कुटिल गामिनी नदी है। असिवन्या जो नीले पानी वाली है, मरुद्वधे मरूतों से बढ़ने वाली, वितस्तया विस्तार वाली नदी, आर्जिकीये सीधे बहने वाली नदी, सुषोमया यानी जिसके किनारे पर सोमलता आदि हों। 
जहां नदी हों वहां उद्योग-धंधे भी बढ़ते हैं।

स्वश्वा सिन्धु सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती।
ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि  वस्ते  सुभगा  मधुवृधं।।
- भावार्थ ऐसी स्पंदनशील नदी के किनारे के प्रदेशों में घोड़े, रथ निर्माण, वस्त्रोपादन, स्वर्ण आदि धातुओं की खानें, ऊन की पैदावार, औषधियां आदि अधिकतर होती हैं।
नदीस्तुति सूक्त (संस्कृतर: नदीस्तुति सूक्तम्य आईएएसटीरू नदीस्तुति सूक्तम्), ऋग्वेद के 10वें मंडल1, का 75वां भजन (सूक्त) है। वैदिक सभ्यता के भूगोल के पुनर्निर्माण के लिए नदीस्तुति सूक्त महत्वपूर्ण है। सिंधु (सिंधु) को सबसे शक्तिशाली नदियों के रूप में संबोधित किया गया है और श्लोक 1, 2, 7, 8 और 9 में विशेष रूप से संबोधित किया गया है। श्लोक 5 में, ऋषि ने दस नदियों की गणना की है, जो गंगा से शुरू होकर पश्चिम की ओर बढ़ती हैं- ‘‘हे गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), परुष्णी (इरावती, रवि), मेरी स्तुति का अनुसरण करो! हे असिक्नी (चिनाब) मरुदवृध, वितस्ता (झेलम), अर्जिकिया (हरो) और सुशोमा (सोहन) के साथ, सुनो!’’
इन नदियों में गंगा, यमुना,सरस्वती, सुतुद्री,पारुस्नी,असिक्नी,मरुद्वृद्ध,वितस्ता,अरजीकिया तथा सुसोमा है। श्लोक 6 में उत्तर-पश्चिमी नदियों (अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान से होकर बहने वाली सिंधु नदी की सहायक नदियां) को जोड़ा गया है- ‘‘इस यात्रा में सबसे पहले तुम त्रिष्टमा से, सुशर्तु, रसा और श्वेती से, कुभा (कोफेन, काबुल नदी) से गोमोती (गोमल) तक, मेहतनु से क्रुमु (कुरुम) तक, जिनके साथ तुम आगे बढ़ रहे हो।’’ इसके आगे कहा गया है कि ‘‘पहले त्रिष्टमा के साथ मिलकर प्रवाहित हो, सुशर्तु और रस के साथ, और इस श्वेता (तुम प्रवाहित हो), हे सिंधु (सिंधु), कुभा (काबुल नदी) के साथ गोमती (गोमल) तक, मेहतनु के साथ क्रुमु (कुर्रम) तक, जिनके साथ तुम एक ही रथ पर सवार होकर दौड़ती हो।’’

ऋग्वेद (एकहा गया है कि पृथ्वी में प्रारम्भ से जल था। कहा जाता है कि जीवन का आरम्भ जल में हुआ।  ‘‘शिवा नः सन्तु वार्षिकी’’ वृष्टि से प्राप्त जल हमारा कल्याण करने वाला हो। ऋग्वेद में जल चक्र  अर्थात हाइड्रोलॉजिकल साइकिल का संकेत भी दिया गया है। ‘‘इन्द्रोदीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत्दिवि, विगोभिरद्रि मैरयत’’ अर्थात प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया, जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो। इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा के रूप में आता है।

यजुर्वेद में समुद्र से मेघ, मेघ से पृथ्वी और फिर विभिन्न सरिताओं में जल से बहाव और फिर समुद्र में उसके संचयन एवं वाष्प का वर्णन है। सामवेद में भी सूर्य एवं वायु द्वारा जलवाष्प के रूप मेें मेघ बनाता है जो वर्षा के रूप में मेघ बनाता है और वर्षा के रूप में पृथ्वी पर आता है। मानसून का वर्णन यजुर्वेद संहिता में सल्लिवात के रूप में आता है। वेदों से बाद के ग्रन्थ ‘मार्कण्डेय’ पुराण में उल्लेख है कि पृथ्वी पर प्राप्त होने वाला सभी जल सतही अथवा भूजल का स्रोत, सागर है और पृथ्वी तल का सभी जल अन्ततः महासागरों में पहुंचकर ही विलीन हो जाता है। अतः यदि हम नदियों को नष्ट करते हैं तो सूर्या के द्वारा निर्मित कृति को नष्ट करते हैं, ऐसे में सूर्य का प्रकोप बढ़ना स्वाभाविक है। इसे आज की वैज्ञानिक भाषा में ग्लसेबल वार्मिंग कह सकते हैं। दुखद पक्ष यह है कि वैज्ञानिक विकास के साथ जो आधुनिकता की अंधी दौड़ आई उसमें हमने तथ्यपरक पौराणिक ज्ञान को भी ठुकरा दिया। जबकि इसी ज्ञान को नासा आदि विदेशी अनुसंधान केन्द्रों ने अपना कर तथा भारतीय विद्वानों से ही उसे डी-कोड करा कर लाभ उठाया है।
यदि हमें अपने नदियों के बारे में जानना है तो ज्ञान की दृष्टि से वेदों को गहराई से पढ़ना होगा। यह मानना संकुचित दृष्टिकोण है कि वेद मात्र धार्मिक ग्रंथ हैं, वस्तुतः वेद जीवन को सही ढंग से जीने का तरीका सिखाने वाले ग्रंथ हैं अर्थात् प्रकृति का सम्मान करते हुए मनुष्यता का जीवन जीने की कला खिाते हैं वेद। अतः यदि नदियों को विस्तार से जानना है तो वैदिक ज्ञान की यात्रा भी आवश्यक है।   
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(दैनिक, सागर दिनकर में 06.08.2025 को प्रकाशित)  
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Wednesday, July 30, 2025

चर्चा प्लस | उफनती नदियां सिखाती हैं जीवन का पाठ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 30.07.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस           
उफनती नदियां  सिखाती हैं जीवन का पाठ
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’! अर्थात किसी भी चीज की अति सदा वर्जनीय है। चाहे मानवीय चेष्टाएं हों या प्रकृति, अति सदा विनाश का कारण बनती है। नदी का जल उसी समय तक सुखद, सुंदर और मनमोहक लगता है जब तक वह बाढ़ में परिवर्तित नहीं होता। बाढ़ के रूप में नदी में अपार जलराशि आते ही नदी का रूप और चरित्र बदल जाता है। वह विनाशकारी साबित होने लगती है। एक बाढ़ आई नदी अपने साथ पूरा का पूरा गांव बहा ले जाने की क्षमता रखती है। इसलिए उसका यह विकराल रूप किसी को नहीं भाता है। यही मानव जीवन के साथ है। यदि मानव अपने कर्मों को अति पर पहुंचा देता है तो उसका परिणाम दुखद ही होता है। 
वृष्टि नहीं होती तो नदियां सूखने लगती हैं और यदि अतिवृष्टि होने लगे तो नदियां किनारों को लांघती हुई, बांधों को तोड़ती हुई अपने विनाशकारी रूप में विस्तार लेने लगती हैं। अनेक स्थानों पर नदियां अपना मार्ग बदल लेती हैं। कभी-कभी यह अंतर उनके मूल स्थान से 5 किलोमीटर की दूरी का भी होता है अर्थात जो नदी गांव की दाई तरफ से होकर बह रही थी वह गांव की बाई ओर से बहने लगती है। नदी का इस तरह अपना स्थान परिवर्तित करना गांव के लिए विनाशकारी साबित होता है। वर्षा ऋतु में नदियां उफान पर होती हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि वर्षा ऋतु का जल नदियों में समाकर उन्हें पूर्णता से अधिक भर देता है और फिर स्थिति होती है अतिरिक्त जल के बह निकलने की। ऋषि वाल्मीकि ने ‘‘रामायण’’ के किष्किंधा कांड में वर्षा ऋतु में नदी के प्राहव का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि- 
‘‘प्रवंति वतस्समुदीर्नघोषः। 
विपुलाः पतन्ति गिरः, समुद्रघोषाः। 
वातः प्रवंति, प्राणष्टकूलाः। 
विप्रतिपन्नमार्गः, नद्याः शीघ्रम् जलैः प्रवहन्ति।’’ 
अर्थात वायु के वेग से गरजते हुए बादल बरसते हैं, नदियां किनारों को तोड़कर, दिशा बदलकर, तेजी से पानी बहाती हुई बहती हैं। इसी बात को मानव जीवन एवं आचरण से जोड़ते हुए गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है-
बरशहिं जलद भूमि नियारेन। जथा नवहिं बुध का ज्ञान पावे।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसे।।
- अर्थात बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते है।
इसी प्रकार का एक और पद है-
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
- अर्थात छोटी नदियां भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। यानी अपनी मर्यादा का त्याग कर देते हैं। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव से माया लिपट गई हो।

मानव चरित्र पर जब मोह-माया प्रभावी हो जाती है तो उसका आचरण किसी गंदले पानी की भांति मैला हो जाता है। वह छल, कपट, मिथ्या, लोभ, लालच आदि सभी प्रकार के दुर्गंणों में फंस जाता है। वह स्वयं तो बाढ़ के पानी की भांति बढ़ता ही चला जाता है, साथ ही अपने परिजन, अपने आस-पास के सभी लोगों को चोट पहुंचाने, उनका विनाश करने पर तुल जाता है। जो किनारे नदी को सुंदरता प्रदान करते हैं नदी की बाढ़ उन्हीं किनारों को निर्दयतापूर्वक तोड़ देती है। 

जल द्वारा उत्पन्न की गई विनाश की स्थिति भयानक होती है। ऐसे दृश्य पहली बार देखने में और अधिक भयाक्रांत कर देते हैं। मैंने स्वयं लगभग सात-आठ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से बिहार के दरभंगा जाते समय सड़क मार्ग से जो बाढ़ का दृश्य देखा था वह आज भी मेरी आंखों में ताज़ा है। ऐसा ही वर्षा ऋतु का समय था। खेत तालाबों की भांति दिखाई दे रहे थे। किन्तु उनकी गहराई कितनी थी इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने वैसे कुछ मकान देखे जिनका ग्राउंड फ्लोर पूरी तरह पानी में डूबा हुआ था। उन घरों के रहवासी पहली मंज़िल की बाल्कनी पर खड़े हो कर हाथ हिला रहे थे। यह दृश्य मेरी कल्पना से परे था। लगभग 10 से 14 फीट तक डूबे हुए घरों को देख कर उनकी गृहस्थी की दशा का अनुमान लगाना कठिन था। वह जल के आप्लावन का एक भयभीत कर देने वाला दृश्य था। इससे पहले पुलों पर से बहती हुई नदी को कई बार देखा था और जल की उस उद्दंड तीव्रता को महसूस किया था। उन दुस्साहसियों को भी देखा था जो लोगों के मना करने के बावजूद उस तीव्र बहाव वाले पुल पर से अपनी गाड़ी सहित चल पड़े थे। वह मानव मन की बाढ़ थी जिसने उन्हें जोखिम लेने के लिए उकसाया। बाढ़ कोई भी हो कभी अच्छी नहीं होती है। उसके संकटपूर्ण परिणामों की संभावना बनी रहती है।

चाहे क्रोध की अधिकता हो या प्रेम की अधिकता, दोनों की नदी की बाढ़ के समान ही होती है, विनाशकारी। ‘‘श्रीमद् भगवद्गीता’’, 2-63, में लिखा है कि-
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 
- अर्थात क्रोध की तीव्रता व्यक्ति को जब अपने सम्मोहन में लेती है तो सबसे पहले उसके सही-गलत के सोचने-समझने की शक्ति को अपने वश में कर लेती है। यह सम्मोहन की स्थिति भ्रम उत्पन्न करती है। भ्रम में पड़ कर बुद्धि का नाश हो जाता है। जब बुद्धि का नाश हो जाए तो प्राणों के नाश होने में देर नहीं लगती। यदि इसे आम बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो क्रोध में आ कर लोग एक-दूसरे को मार-काट देते हैं। यह मानवीय भाव के क्रोध संवेग की अति होती है या कहिए कि यह क्रोध की बाढ़ होती है। 
गोस्वामी तुलसी दास भी बाढ़ एवं अतिवृष्टि की तुलना क्रोध से करते हुए कहते हैं कि-
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। 
जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। 
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।
- अर्थात अतिवृष्टि के कारण मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का का प्रभाव क्षीण पड़ जाता है किन्तु वहीं, धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती। जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता।

प्रत्येक ऋतु अच्छी होती है जब तक वह अति की स्थिति में नहीं पहुंचती है। अति की सीमा पार करते ही वह कष्टप्रद हो जाती है। जैसा कि तुलसीदास ने लिखा है कि संतान का जन्म सुखद लगता है किन्तु जब संतान कुपुत्र साबित हो तो उसका होना दुखदाई होता है- 
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।
- अर्थात जब कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म नष्ट हो जाते हैं।
वस्तुतः प्रकृति का आचरण मनुष्य की पाठशाला होता है। यदि मनुष्य उस पाठशाला के प्रत्येक पाठ ध्यानपूर्वक पढ़े और समझ ले तो जीवन उत्तम रहता है। जैसे तुलसीदास लिखते हैं कि-
कबहु दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।
- अर्थात कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाता हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। 
उफनती हुई नदियां बांध तोड़ देती हैं, गांव बहा देती हैं तथा खेत-खलिहान तक नष्ट कर देती हैं। मनुष्य, मवेशी आदि सब उसकी धाराओं में बह जाते हैं। ऐसी तीव्रतम धाराओं पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने युक्ति निकाली और पुल बनाने आरम्भ कर दिए, नदियों को बांधना आरम्भ कर दिया किन्तु मानवीय प्रवृति में मौजूद लालच ने उससे ऐसे निर्माण कार्य कराए कि प्रकृति की अति के सामने उसकी अति भारी पड़ गई। पुलों पर दारा आना, अतिवृष्टि में पुलों का बह जाना अब चौंकाता नहीं है। मानवीय आचरण इतना लचीला होता है कि मानो वह अति करने के लिए सदा लालायित रहता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार में अति, आर्थिक मामलों में घोटालों की अति, यहां तक कि प्रेम में भी अति व्यक्ति को हानिकारक बना देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दाम्पत्य जीवन में तुलसीदास का अपनी पत्नी रत्नावलि के प्रति प्रेम की अतिशयता के रूप में हमारे सामने है। पत्नी रत्नावलि के मायके जाने पर तुलसीदास प्रेमाकुल हो कर बाढ़ आई नदी को एक शव के सहारे पार कर के, सर्प को रस्सी समझ कर उसके सहारे अटारी पर चढ़ कर अपनी पत्नी के सम्मुख जा पहुंचते हैं। उन्हें इस तरह आया हुआ देख कर रत्नावलि झुंझला कर कहती है कि-
लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ, 
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीत। 
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।। 
- अर्थात हे नाथ, आपको लज्जा नहीं आई? जो इस हड्डी और मांस के शरीर से इतना प्रेम कर रहे हैं। यदि इतना ही प्रेम राम से किया होता तो सांसारिक भय नहीं रहता।

अति प्रेम में भी वर्जित है। एक तरफा प्रेम के चलते आए दिन कोई न कोई जघन्य वारदात सुनने, पढ़ने को मिल जाती है। प्रेम की अति यदि परस्पर एक-दूसरे के प्रति शंकालु बना दे तो फिर वहां प्रेम विलुप्त होते देर नहीं लगती है, बच रहती है संदेह की विनाशकारी बाढ़ जो अपने साथ कई प्राणों को बहा ले जाती है। 
ये नदियां हमें सिखाती हैं कि जब तक सब कुछ शांत है, हरा-भरा और सुखकर है। यदि नदियां बाढ़ रूपी अति पर उतर आती हैं तो फिर दिखाई देता है विनाश का तांडव। किन्तु वहीं, अंततः नदियों को भी खुद ही सिमटना पड़ता है। अतिवृष्टि में जन्मी नदियां तो वर्षा ऋतु के बाद अपना अस्तित्व ही खो देती हैं। जिस तीव्रता से वे जन्मी थीं, उसी तीव्रता से लुप्त हो जाती हैं। अतः अति करने वालों को इन उफनती नदियों से सीख लेना चाहिए, यही तो प्रकृति का आग्रह है। 
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Wednesday, July 23, 2025

चर्चा प्लस | डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखा था करारा पत्र | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखा था करारा पत्र
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
     देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्षरत था। अंग्रेजों को भी समझ में आता जा रहा था कि अब उन्हें भारत से जाना होगा किन्तु शासक कभी स्वयं को भयभीत या डरा हुआ प्रकट नहीं करता है। 1947 के पूर्व अंग्रेज सरकार इतनी सक्षम थी कि वह उनका विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति केा बेझिझक दण्डित कर सकती थी। किन्तु उस दौर में भारतीय राजनीति में भी वह नेता थे जो अन्याय अथवा अनुचित के विरुद्ध झुकना नहीं जानते थे। उन्हें अपने परिणाम की चिन्ता नहीं थी। उन्हें चिन्ता थी तो देश और देशवासियों की। इसका सबूत दिया डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सर जान हरवर्ट को करारा पत्र लिख कर।
जिस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रजा कृषक पार्टी में सम्मिलित हो कर उन्हें अपना समर्थन दिया उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और बंगाल पर जापानी आक्रमण का खतरा मंडराने लगा था। जबकि ब्रिटिश सरकार बंगाल की सुरक्षा की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा रही थी। यदि बंगाल जापान के कब्जे में आ जाता तो भारत के अन्य भागों में उसे अधिकार करने में देर नहीं लगती। यदि जापान बंगाल पर अधिकार नहीं कर पाता तब भी अपार जनहानि सुनिश्चित थी। इन दोनों परिस्थितियों से बचने के लिए आवश्यक था कि बंगाल में एक सेना गठित की जाए जो हर परिस्थिति में जापानी सेना को सीमा पर ही रोक दे। 
बंगाल के प्रशासन की ओर से सुरक्षा व्यवस्था की अनदेखी किए जाने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी चिन्तित हो उठे। पहले उन्होंने विभिन्न माध्यमों से इस मुद्दे को उठाया किन्तु अंग्रेज सरकार द्वारा ध्यान नहीं दिए जाने पर उन्होंने बंगाल के गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने बंगाल में सेना का गठन किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने बिना किसी संकोच के ‘‘नौकरशाही तथा प्रशासन के हानिप्रद स्वरूप’’ का भी अपने पत्र में स्पष्ट उल्लेख किया तथा इस बात का भी संकेत दिया कि अब अंग्रेजी शासन के आधीन भारत की यात्र अपने अंतिम पड़ाव पर है। इतना सब लिखना किसी जोखिम से कम नहीं था। किन्तु डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी डरना तो जानते ही नहीं थे।
डाॅ. मुखर्जी ने जो पत्र सर जाॅन हरवर्ट को लिखा उसका मुख्य अंश इस प्रकार था -‘‘आप गवर्नर जनरल से कहें कि इतना विलम्ब होने पर भी इंग्लैण्ड और भारत में तत्काल समझौता हो जाना चाहिए जिससे भारतीय यह अनुभव कर सकें कि यह सचमुच जनता का युद्ध है और यदि हमें इस युद्ध में विजय प्राप्त करनी है तो अविलम्ब ही एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय सरकार बनानी चाहिए जो भारत के हितों की दृष्टि से भारतीय प्रतिरक्षा की नीतियों का अधिकारपूर्वक संचालन करे। चीनी जनता को अंतिम सांस तक शत्रु से टक्कर लेने की प्रेरणा चीनी सेनानायक च्यांग काई शेक ही दे सकते हैं और आपके देशबंधु चर्चिल संकट की स्थिति में शंखनाद कर आप लोगों का आह्वान कर सकते हैं। किन्तु यहां इसके ठीक विपरीत वास्तविक शक्ति उस लापरवाह शासन के हाथों में है जिसे हम अपने देशहित के लिए हटाना आवश्यक समझते हुए भी हटा नहीं सकते।
मैं आपके सम्मुख कई बार यह प्रस्ताव रख चुका हूं कि हमें बंगाल की रक्षा के लिए गृहसेना के निर्माण का अधिकार मिलना चाहिए। संकटपूर्ण परिस्थिति में भी बंगाल में गृहसेना के निर्माण में आपको यह आपत्ति थी कि यह भारतीय सैन्य-नीति के सर्वथा प्रतिकूल है। मेरा उत्तर है कि नीति में भारत का हित ही सबसे ऊपर होना चाहिए। नीति निर्धारण में भारत के हितों को ही प्रमुख आधार बनने दीजिए और भारतवासियों को स्वयं सोचने दीजिए कि जिस संकट में आपने उन्हें झोंक दिया है वे उससे कैसे बचें।
व्यावहारिक दृष्टि से इसमें कई अड़चनें आएगीं, जैसा कि मैं पूर्व में भी निवेदन कर चुका हूं। फिर भी मेरी आपसे और आपके द्वारा वायसराय से यह प्रार्थना है कि इस नौकरशाही तथा प्रशासन के हानिप्रद स्वरूप का मोह त्याग दें। आपसे कई बार निवेदन कर चुका हूं कि ऐसे कई भारतीय हैं जो नहीं चाहते हैं कि यहां ब्रिटिश शासन सदा बना रहे, किन्तु भारत कोई भी सहृदय शुभचिन्तक नहीं चाहेगा कि भारत जापान के अधीनस्थ हो कर विदेशी परतंत्रता का नया इतिहास आरम्भ करे।  इंग्लैण्ड से जहां तक हमारे संबंधों का प्रश्न है, हम यात्र के अंतिम पड़ाव तक पहुंच सके हैं और अब यह समझने की आवश्यकता है कि भारत के सपूत ही उसके भाग्यनिर्मता होंगे। इस तथ्यात्मक वास्तविकता पर आधारित उदार राजनीति अपेक्षित है।’’
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने इस पत्र के माध्यम से बंगाल के गवर्नर को ही नहीं वरन भारत स्थित ब्रिटिश सरकार को भी इस सच्चाई से अवगत कराने का प्रयास किया कि भारत पर ब्रिटेन का आधिपत्य अपने अंतिम चरण में चल रहा है, वह अधिक समय तक भारत को अपने आधीन नहीं रख सकेगा। अतः भारतीयों को सौहाद्र्य एवं सुरक्षा भरा प्रशासन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। अन्यथा जापान के आक्रमण के संकट से निपटना दुरूह हो जाएगा। 
दूसरी ओर श्यामा प्रसाद मुखर्जी यह आकलन कर चुके थे कि भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य अधिक दिन तक नहीं रह सकेगा, ऐसे में यदि देश एक नए आक्रमणकारी के आधीन हो जाएगा तो डेढ़ शताब्दी से भी अधिक समय से किए जा रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों पर पानी फिर जाएगा।
बंगाल के गर्वनर सर जाॅन हरवर्ट को लिखे अपने इस पत्र में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने गवर्नर जनरल का ध्यान आकृिष्ट करते हुए लिखा कि -
‘‘विश्व में हो रहे परिवर्तनकारी उथल-पुथल को ध्यान में रखते हुए वे भारतीय स्थिति की वास्तविकता को परखें तथा उचित निर्णय लें।’’ 
अपने इसी पत्र में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत-इंग्लैण्ड के मध्य समझौते के लिए कुछ आवश्यक सुझाव दिए जो कि इस प्रकार थे -
1. ब्रिटिश सरकार इस बात की घोषणा करे कि भारत की  स्वतंत्रता को औपचारिक रूप से मान्यता दे दी गई है।
2. वाइसराय या ब्रिटिश सरकार के किसी भी अन्य प्रतिनिधि को यह अधिकार दिया जाएगा कि वह भारत के राजनीतिक दलों से भारत की राष्ट्रीय सरकार के निर्माण के विषय में, जिसे सत्ता हस्तांतरित होगी, बातचीत करे।
3. इंडियन नेशनल कांग्रेस पूरी शक्ति से जर्मन एवं जापान गुट से युद्ध करने की घोषणा करेगी। 
4. भारत के प्रतिनिधित्व में भारत की युद्धनीति ‘एलाईड वार कौंसिल’ द्वारा निर्धारित होगी।
5. एलाईड वार कौंसिल द्वारा निर्धारित युद्धनीति का पालन भारत की ओर से कमांडर-इन-चीफ के हाथों में होगा।
6. राष्ट्रीय सरकार का स्वरूप बहुदलीय सरकार का होगा जिसमें देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होंगे। यही स्वरूप प्रांतों द्वारा भी अपनाया जाएगा।
7. जो लोग देश की नीतियों में प्रभावी रूप से सहायक हो सकते हैं तथा जो युद्धकाल में विशेष सहायक हो सकते हैं, उन्हें भी केन्द्रीय एवं प्रांतीय मंत्रीमंडलों में सदस्यता दी जाएगी।
8. राष्ट्रीय सरकार देश के आर्थिक उत्थान एवं विकास पर विशेष ध्यान देगी जिससे युद्धकाल में आर्थिक सहायता में किसी भी प्रकार की कोई कमी न हो।
9. ‘इंडिया आॅफिस’ को अनुपयोगी मानते हुए बंद कर दिया जाएगा।
10. भारतीय राष्ट्रीय सरकार भविष्य में एक ‘कांस्टीट्यूएंट एसेम्बली’ का गठन करेगी जिसके अंतर्गत भविष्य में संविधान का निर्माण हो सकेगा। इसी तारतम्य में भारत तथा ब्रिटेन के मध्य एक संधि होगी अल्पमत दलों के अधिकारों के संबंध में भी विशेष धाराएं होंगी।किसी भी अल्पमत दल को यह अधिकार होगा कि वह अपने न्यायोचित अधिकारों की रक्षा के लिए भावी संविधान संबंधी अपने विकल्प को वैचारिक मध्यस्थता के लिए पटल पर रख सके। पटल पर रखने के बाद विचार किए जाने पर निए गए निर्णयों को राष्ट्रीय सरकार तथा संबंधित अल्पमत दल को स्वीकार करना होगा।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने इन सुझावों के साथ ही पत्र में लिखा कि -
‘‘ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के रूप में आपको यह अधिकार होना चाहिए कि आप भारतीय समस्याओं पर ब्रिटिश सरकार के निश्चित आदेश के अनुसार कार्य कर सकें। इस विषय पर अन्य सुझाव भी रखे जा सकते हैं। मुख्य बात तो यह है कि ब्रिटिश सरकार को इस विषय पर चर्चा करने से पूर्व इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अब उसे सत्ता का हस्तांतरण करना है।
मैं बंगाल के गवर्नर को ब्रिटिश सरकार तथा उसके प्रतिनिधियों द्वारा संकटकाल में अपनाई गई नीतियों के प्रति अपनी असहमति दे चुका हूं। मैं आपसे इस आशा से प्रार्थना कर रहा हूं आप झूठी प्रतिष्ठा के भ्रम में न पड़ते हुए इस गतिरोध को दूर करने हेतु आवश्यक कदम उठाएंगे तथा तत्काल कार्यवाही करेंगे। यदि आपका यह विचार हो कि ब्रिटिश सरकार को इस गतिरोध की सर्वथा उपेक्षा कर निष्क्रिय बने रहना चाहिए तो मुझे खेदपूर्वक अपने गवर्नर से कहना पड़ेगा कि वे मुझे मंत्रीपद के कार्यभार से मुक्त करें जिससे मैं स्वतंत्रतापूर्वक समझौते की मांग के प्रति आम जनता में जागृति ला सकूं।’’  
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उपरोक्त पत्र अंग्रेज सरकार के मुंह पर तमाचा के समान थी किन्तु उस समय नौकरशाही इतनी चरम पर थी कि उनके इस कठोर पत्र पर भी गवर्नर या वायसराय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अंग्रेज सरकार न तो उनके पत्र पर अपनी सहमति देने का साहस जुटा पाई और न उन्हें दण्डित करने का। इससे डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के समक्ष यह खुलेतौर पर स्पष्ट हो गया था कि अब अंग्रेजी शासन की बागडोर सम्हाले जो आका बैठे हैं उन्हें मात्र ‘‘निज चिन्ता’’ है, यही समय है जब बड़े और कड़े कदम उठाए जाएं और अंग्रेजों को वापसी का रास्ता दिखा दिया जाए। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं ने ही देश की झोली में स्वतंत्रता का उपहार डालने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पत्र पर भले ही प्रतिक्रिया नहीं हुई किन्तु इसने साबित कर दिया कि राजनीति भी साहसियों को सलाम करती है, कायरों को नहीं। एक साहसी राजनीतिज्ञ ही युग निर्माता बनता है।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 23.07.2025 को प्रकाशित)  
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Wednesday, July 16, 2025

चर्चा प्लस | जान बचाने का पूरा दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस           
जान बचाने का पूरा दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       यह शीर्षक अजीब लग सकता है किन्तु इस पर चिन्तन करने के बाद इसे नकारा नहीं जा सकता है कि- जान बचाने का दायित्व मात्र प्रशासन का नहीं है। अभी कुछ दिन पहले ही एक युवती का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वह रील बनाने के चक्कर में पीछे की ओर चलती हुई नदी में जा गिरी और जान से हाथ धो बैठी। यह भी वर्तमान का कटु सत्य है कि आज किसी को डूबते या मरते हुए देख कर अधिकांश लोग उसकी रील शूट करने में जुट जाएंगे, उसे बचाने के लिए दो-चार लोग ही आगे आएंगे। कभी- कभी कोई भी आगे नहीं आता है या फिर इतनी जल्दी सबकुछ घटित होता है कि बचाने वालों के पास इतना समय नहीं होता है कि वे संकटग्रस्त व्यक्ति को बचा सकें। ऐसी स्थिति में प्रशासन जिम्मेदार है या जोखिम ले उठा कर प्राण गंवाने वाला व्यक्ति जिम्मेदार है? जरा सोच कर देखिए।
         हाल ही में एक ऐसी रील वायरल हुई जिसमें एक युवक रेल आती देख कर रेल की दोनों पटरियों के बीच लेट गया। रेल उसके ऊपर से धड़धड़ाती हुई निकल गई और रेल गुजरने के बाद वह युवक उठ कर नाचते हुए खुशियां मनाने लगा। क्या प्रशासन यह चेतावनी नहीं देता है कि रेलगाड़ी आ रही हो तो पटरियां पार न करें? मगर यहां तो वह युवक रील बनाने के चक्कर में पटरियों के बीच लेट गया। अब प्रशासन को दोष दिया जा सकता है कि उसने यह चेतावनी नहीं दी थी कि रेल आ रही हो तो पटरियों के बीच न लेटें। अर्थात स्वयं की सुरक्षा स्वयं की नहीं प्रशासन की जिम्मेदारी है। यानी कुल मिला कर किस्सा यह कि आप कुएं में कूदिए, यदि नहीं डूबते तो आप ‘डेयरिंग’ हैं और अगर डूब गए तो प्रशासन हत्यारा है।  

अभी पिछले रविवार को मुझे राजघाट बांध देखने जाने का अवसर मिला। उस दिन रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। अच्छा सुहाना मौसम था। राजघाट पहुंच कर यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि वहां दर्शकों की भारी भीड़ थी। सभी राजघाट को लबालब भरा हुआ देखने और बंधान से ओव्हरफ्लो करते पानी को देखने आए थे। एक पिकनिक स्पाॅट जैसा माहौल था। बंाध के किनारे बने रास्ते पर भुट्टे बेचने वालों की टेम्परेरी दूकानें लगी हुई थीं। यह सब देख कर तत्काल मन में विचार आया कि उस मार्ग पर उमड़ने वाली भीड़ को देखते हुए वहां मरम्मत और मार्ग के चैड़ीकरण किए जाने की आवश्यकता है। सड़कों के दोनों ओर खरपतवार-सी उग आई झाड़ियां सड़क के लिए नुकसानदायक हैं। साफ-सफाई की दृष्टि से भी उन्हें हटाया जाना जरूरी है। सड़क पर बड़े-बड़े गढ्ढे बन गए हैं जो आगे चल कर किसी दिन कोई बड़ी आपदा का कारण बन सकते हैं। सभी जानते हैं कि बारिश के मौसम में बांध, झरने, नदियां आदि पिकनिक स्पाॅट में ढल जाते हैं। अतः ऐसे स्थानों को एक सुचारु शहरी पर्यटन क्षेत्र का रूप दे दिया जाए तो इससे प्रशासन को रेवेन्यू भी मिलेगा और लोगों को सुविधाएं एवं सुरक्षा भी मिलेगी। राजघाट बांध के पास एक भी रेस्टोरेंट नहीं है और न ही कोई सुविधाघर। विधिवत सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं है। यह जरूर है कि बांध के द्वार से भीतर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है किन्तु ओव्हरफ्लो वाले क्षेत्र में कोई रोक-टोक नहीं है। एक निश्चित दूरी तक यानी जहां तक संभव है, लोग अपने वाहन ले जाते हैं फिर वहां से उफनती धाराओं के पास तक पैदल जा पहुंचते हैं। यूं भी आजकल रील बनाने का जमाना है अतः जुनून की हद पार करते हुए लोगों को उफनती धाराओं के पास जाते मैंने अपनी आंखों से देखा। उस दृश्य को देख कर एक आम नागरिक की भांति मेरे मन में यही पहला विचार आया कि इन्हें कोई रोकता क्यों नहीं? प्रशासन इस ओर ध्यान क्यों नहीं देता? फिर तत्काल मेरे मन ने मुझे टोंका कि क्या सारा ठेका प्रशासन का ही है? क्या प्रशासन ने इन्हें कहा है कि उफनती धाराओं के पास जा कर रील बनाओ? ये लोग स्वयं क्यों नहीं समझते हैं कि वे कितना बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं। अरे, उफनती धाराओं के साथ रील बनानी ही है तो एक सुरक्षित दूरी पर रह कर भी बनाई जा सकती है, जान हथेली पर ले कर बनाने से क्या लाभ?

जरा सोचिए कि कोई युवा रील बनाने की धुन में उफनती धाराओं के पास जा खड़ा होता है। ऐसे समय स्पष्ट है कि धाराओं की तरफ उसकी पीठ होगी ताकि उसका चेहरा और चेहरे के पीछे से धाराएं दिखाई दे जाएं। एंगल सही करने के चक्कर में यदि उसका पांव लड़खड़ा जाए या वह फिसल जाए तो वह अपने प्राण भी गवां सकता है। चाहे युवा हों या प्रौढ़ या बुजुर्ग - किसी भी आयुवर्ग के क्यों न हों, ऐसे समय उन्हें सोचना चाहिए कि यदि वे अपनी लापरवाही से किसी दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं तो उनके परिवारवालों का क्या हाल होगा? किसी युवक की मां भोजन की थाली परोसे उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी, किसी युवती का पिता अपनी बेटी के सुरक्षित घर लौटने का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहा होगा, कोई पत्नी अपने पति की वापसी की बाट जोह रही होगी, लेकिन जब उन्हें एक हृदयविदारक सूचना मिलेगी तो उन पर कैसी गाज गिरेगी? इस बात को भी सोचना चाहिए। किसी भी सेल्फी, रील अथवा वीडियों के वायरल होने की खुशी आप तभी महसूस कर सकते हैं जब आप स्वयं जीवित हों। यदि आपको कुछ हो गया तो आपके बाद आपके परिजन भी आपकी कलाकारी की खुशियां कभी नहीं मना सकेंगे। 

अकसर होता यही है कि जब किसी बांध, नदी, तालाब या झरने में कोई युवक या युवती फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी के चक्कर में जान से हाथ धो बैठते हैं तो सबसे पहले दोष दिया जाता है प्रशासन को कि उसने उस स्थान पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाए अथवा सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं की? निःसंदेह, यह होना चाहिए। लेकिन अधिकांश स्थानों पर जहां दुर्घटना संभावित क्षेत्र घोषित कर के प्रतिबंध लगाया जाता है वहां भी घुस कर जोखिम लेते हुए लोग दिख जाते हैं। पिछले साल की बात है मैं राहतगढ़ वाटरफाॅल देखने गई थी। वहां लोहे की जालियां लगा कर उस पूरे क्षेत्र को प्रतिबंधित कर दिया गया है, जहां दर्शकों के लिए जान का खतरा हो सकता है। किन्तु मैंने देखा कि कुछ युवक वनक्षेत्र से चक्कर लगा कर फाॅल के इतने निकट पहुंच कर फोटोग्राफी कर रहे थे कि कभी भी कोई भी दुर्घटना घट सकती थी। जब वहां के एक सुरक्षाकर्मी ने उन्हें ललकारा तो वे दौड़ के वहां से जाने लगे। यह दूसरा जोखिम था जो वे उठा रहे थे। पांव फिसलते ही वे अथाह जल में लापता हो सकते थे। अब यह ढिठाई नहीं तो और क्या है? इस हरकत के लिए प्रशासन को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है? 
प्रशासन सुरक्षा की व्यवस्था कर सकता है, मरने पर मुआवजा दे सकता है किन्तु वह जीवन नहीं लौटा सकता है। अपने जीवन की सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी खुद हर इंसान की होती है। वह कहावत भी है न कि ‘‘जान है तो जहान है।’’ सारी डेयरिंग, सारा दुस्साहस, सारा जोखिम प्राणों पर संकट तो ला सकता है, प्राण नहीं लौटा सकता है। इसलिए बारिश के मौसम में ऐसे स्थानों पर जहां जोखिम अधिक हो अपनी सुरक्षा का ध्यान पहले रखना चाहिए। 

राजघाट पर युवाओं, महिलाओं और बच्चों को उफनती धाराओं के निकट मंडराते देख कर मुझे उत्तराखंड की वह घटना याद आ गई जब कुछ युवक पिकनिक मनाने गए थे और बंाध से छोड़े गए पानी के चपेट में आ गए थे। उस समय प्रशासन को भी कोसा गया था कि उसने समय रहते चेतावनी नहीं दी किन्तु यह भी तो सभी को पता रहता है कि बांध से जुड़ी हुई नदियों में बारिश के दिनों में कभी भी बांध के दरवाजे खोलने की नौबत आ सकती है। बांध पर दरार आदि की भी स्थिति निर्मित हो जाती है। कोई भी आपदा संदेश दे कर नहीं आती है, वह अचानक ही आती है और इसीलिए हर दुर्घटना संभावित क्षेत्र पर बोर्ड पर चेतावनी लिखी जाती है जिसे लापरवाह पर्यटक कभी नहीं पढ़ते हैं। अब इस लापरवाही का जिम्मेदार किसे ठहराया जा सकता है?
हाल ही में हिमाचल प्रदेश के ऊना में सोशल मीडिया के लिए रील बनाने का शौक युवकों पर भारी पड़ गया। चार युवक नहर में नहाने और रील बनाने पहुंचे। एक युवक नहाने के लिए गंगनहर में उतर गया। इस दौरान उसका दोस्त मोबाइल से उसका वीडियो बनाने लगा। इसी बीच नहाने वाला युवक तैरते हुए रेलिंग पार कर आगे की तरफ जाने लगा। जैसे ही वह कुछ ही दूरी पर पहुंचा वहां पानी का बहाव बहुत तेज था। वह पानी के बहाव से खुद को बचा न सका और कुछ ही सेकंड में डूबकर लापता हो गया। दूसरा युवक उसे बचाने के लिए लपका किन्तु वह भी तेज धार में जा गिरा और लापता हो गया। जीवित बचे दोस्त कुछ भी न कर सके।
उत्तराखंड में हरिद्वार के गोविंदपुरी घाट में इसी तरह का एक दर्दनाक हादसा हो गया जब रील बनवाने के चक्कर में एक व्यक्ति गंगनहर में उतरा और पलक झपकते तेज धाराओं में डूब गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के सीमावर्ती क्षेत्र की सौल खड्ड में रील बनाने और सेल्फी लेने के चक्कर में दो लड़के पानी में डूब गए। अजमेर जिले के मसूदा थाना क्षेत्र के ग्राम देवपुरा में रील बनाने के चक्कर में दो किशोर तालाब में गए और फिल्मी गानों पर रील बनाने लगे। तभी एक किशोर रील बनवाने की धुन में गहरे पानी की ओर चला गया और तालाब में डूब गया। 

रील बनाने के चक्कर में ही गुजरात के अहमदाबाद के सरखेज स्थित फतेहवाड़ी नहर में एक स्कॉर्पियो कार जा गिरी। वह स्कार्पियों तीन दोस्तों ने मिल कर 4 घंटे के लिए 3500 रुपए दे कर किराए पर ली थी। उनका उद्देश्य था फतेहवाड़ी नहर में रील बनाना। नहर के पास पहुंच कर रील बनाने के चक्कर में स्कार्पियों अनियंत्रित हो कर नहर में जा गिरी। उस समय उसके भीतर तीनों युवक मौजूद थे। स्कॉर्पियो जैसे ही नहर में गिरी उसके तुरंत बाद वहां मौजूद उनके दूसरे दोस्तों ने रस्सी डालकर तीनों युवकों को बचाने की कोशिश की वे लेकिन असफल रहे। जिसके बाद आसपास के स्थानीय लोग मौके पर इकट्ठा हुए। नहर में स्कॉर्पियो कार गिरने और तीन युवकों के डूबने की जानकारी फायर ब्रिगेड और पुलिस को दी गई और रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू हुआ। लेकिन उन युवकों को बचाया नहीं जा सका।
बहुधा यह देखा गया है कि रील और वीडियो बनाने के चक्कर में युवाओं को होश ही नहीं रहता कि वह किस तरफ बढ़ रहे हैं। पहले भी ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जब रील और वीडियो बनाने के चक्कर में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सागर में ही राहतगढ़ वाटर फाल में ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं। फिर भी हर युवा इसी भ्रम में रहता है कि उस पर कभी कोई आपदा नहीं आ सकती है। यह लापरवाही भरा दुस्साहस ही उनकी जान ले लेता है। यह सच है कि प्रशासन लापरवाहियां करता है लेकिन रील बनाने के चक्कर में लोग इतने लापरवाह हो जाते हैं कि प्रशासन को भी कई मील पीछे छोड़ देते हैं। हर व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी को सुरक्षित रखने की पहली जिम्मेदारी उसकी स्वयं की है, फिर दूसरे नंबर पर प्रशासन की।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 16.07.2025 को प्रकाशित)  
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Wednesday, July 9, 2025

चर्चा प्लस | योगनिद्रा की पौराणिक कथाएं और वैज्ञानिक उपलब्धि | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


दैनिक, सागर दिनकर में 09.07.2025 को प्रकाशित


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चर्चा प्लस
योगनिद्रा की पौराणिक कथाएं और वैज्ञानिक उपलब्धि
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह        

     
          चातुर्मास आरम्भ हो चुका है। भगवान विष्णु चार माह के लिए योगनिद्रा में चले गए हैं। सभी मांगलिक कार्य स्थगित रहेंगे इन चार मास में। कहा जाता है कि इस दौरान विश्व का संचालन भगवान शिव के हाथों में आ जाता है। क्यों जाते हैं विष्णु योगनिद्रा में और क्या है यह योगनिद्रा? वस्तुतः पुराणों में विष्णु के योगनिंदा में जाने संबंधी विविध रोचक कथाएं हैं। साथ ही योगनिद्रा का वैज्ञानिक महत्व भी है। यह गूढ़ विषय है जिसे पाश्चात्य दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने अपने-अपेन ढंग से व्याख्या की है किन्तु वे निद्रा और योगनिद्रा के गहराई से अंतर नहीें बता सके हैं क्योंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान वर्तमान ज्ञान से भी अधिक परिष्कृत था जिसे समझना आसान नहीं है।   

आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का समय वह समय होता है जब माना जाता है कि भगवान विष्णु जो इस संसार के नियंता हैं चार मास के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। उनकी अनुपस्थिति में सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। अब प्रश्न उठता है कि भगवान विष्णु चार मास के लिए क्यों सोते हैं? यह उनकी नींद किस प्रकार की है? क्योंकि यदि ईश्वर ही सो जाएंगे तो ईश्वरीय संरचनाओं का क्या होगा? विष्णु की योग निद्रा की गूढ़ता में जाने तथा उससे संबद्ध पौराणिक कथाओं का आनंद लेने से पहले पहले यह समझ लेना जरूरी है कि इसमें वैज्ञानिकता एवं प्रकृति विज्ञान शामिल है। आषाढ़ मास से वर्षारम्भ होती है। चार मास वर्षा ऋतु का माना गया है। इस दौरान सूर्य की प्रखरता कम हो जाती है तथ कई बार सूर्य कई-कई दिन तक बादलों के पीछे अदृश्य रहता है। जल की बहुलता रहती है। वृष्टि के कारण नदियों में बाढ़ की स्थिति रहती है तथा सभी जलाशय जल से आप्लावित हो जाते हैं। प्राचीनकाल में इस अवधि में यात्राएं संभव नहीं थीं। बड़े यज्ञ-अनुष्ठान एवं वैवाहिक कार्यक्रम संभव नहीं थे। अतः छोटे यज्ञ-अनुष्ठानों, एक स्थान पर ठहरे हुए ऋषियों-मुनियों से ज्ञान की प्राप्ति आदि कार्यों का समय इसे माना गया। क्योंकि इस अवधि में ऋषि-मुनि भी बाढ़ आप्लावित नदियों को पार कर के यात्राएं नहीं कर सकते थे। उनका एक स्थान पर ठहर कर चार मास की अवधि को व्यतीत करना आवश्यक था। इस अवधि में वे जन सामान्य को ज्ञान प्रदान करते थे। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ऋतु परिवर्तन के कारण अर्थात वर्षा ऋतु के कारण ब्रह्मांडीय गतिविधियां बदल जाती हैं। इसीलिए माना जाता है कि भगवान विष्णु की उस योग निद्रा में चले जाते हैं जो ब्रह्मांडीय शिथिलता की अवधि है। इसीलिए कहा जाता है कि इस अवधि में विष्णु अपनी ऊर्जा वापस ले लेते हैं, जिससे ब्रह्मांड ब्रह्मांडीय जल में विलीन समा जाता है।

योगनिद्रा के संबंध में कई पौराणिक कथाएं मिलती हैं जो अत्यंत रोचक हैं। एक कथा है राजा बलि की।

राजा बलि और भगवान विष्णु की कथा:
पद्म पुराण और भागवत पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु की निद्रा से जुड़ी सबसे प्रचलित कहानियों में से एक राजा बलि की है। राजा बलि को ये वरदान था कि जो भी उनके सामने युद्ध करने आएगा उसकी दुगनी शक्ति राजा बलि के पास आ जाएगी। देवताओं ने उसके बढ़ते प्रभाव से भयभीत होकर, भगवान विष्णु से ब्रह्मांड में संतुलन बनाने का आग्रह किया। भगवान विष्णु ने वामन अर्थात बौने का रूप धारण किया और राजा बलि के पास गए। उनसे तीन पग भूमि का दान मांगा। राजा बलि तुरंत सहमत हो गए। वामन रूप में विष्णु ने अपने पहले पग से पूरी पृथ्वी लोक को नाप लिया। दूसरे पग सेे स्वर्ग नाप लिया। राजा बलि तब तक विष्णु को पहचान गए थे अतः उन्होंने तीसरे पग के नीचे अपना शीष रख दिया। अब भगवान विष्णु ने राजा बलि के भक्ति भाव से प्रभावित होकर उनसे वर मांगने को कहा, बलि ने भगवान विष्णु से अपने साथ पाताल चलकर हमेशा वहीं रहने का वर मांगा। अब भगवान विष्णु राजा बलि के साथ पाताल लोक में रहने लगे। ऐसा होने से देव लोक के सभी देवी-देवता चिंतित हो गए। अब माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को छुड़ाने के लिए एक चाल चली। माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को पाताल लोक से निकालने के लिए एक साधारण स्त्री का रूप धारण किया और राजा बलि को राखी बांधी। राखी बांधने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु को पाताल लोक मुक्त करने का वचन मांगा। ऐसे में भगवान अपने भक्त को उदास नहीं करना चाहते थे। इसलिए भगवान विष्णु ने राजा बलि को वचन दिया कि वह आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तक वे पाताल लोक में निवास करेंगे। यही कारण है कि भगवान विष्णु चार महीने के लिए योगनिद्रा में रहते हैं। चातुर्मास के दौरान योग निद्रा में रहकर पाताल लोक में बलि के साथ समय व्यतीत करने लगे। शेष समय वे वैकुंठ में रह कर सृष्टि का संचालन करते हैं।

योग निद्रा और विष्णु की कथा:
17वीं शताब्दी में रामभद्र दीक्षित द्वारा रचित ऋषि पतंजलि की कथा ‘‘पतंजलि चरितम’’ में है। कहानी भगवान विष्णु के योग निद्रा या लौकिक निद्रा में विश्राम से शुरू होती है, जहां वे ब्रह्मांड का ध्यान करते हैं। मान्यता है कि भगवान विष्णु योग निद्रा के दौरान भारी हो जाते हैं। इस विशेष समय में विष्णु योग निद्रा की इतनी गहरी अवस्था में प्रवेश कर गए थे, वे बहुत भारी हो गए। इतने भारी हुए कि हजार सिर वाला शेषनाग उनका भार सहन नहीं कर सका और फुफकारने लगा। उसके मुख से विष निकलने लगा। शेषनाग के फुफकारने से उत्पन्न विष ने देवताओं को भयभीत कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे विष्णु को योग निद्रा से जागाएं। ब्रह्मा ने योग निद्रा नामक देवी की स्तुति की और उनसे अनुरोध किया कि वे भगवान विष्णु की आंखों से दूर चले जाएं ताकि वे शेषनाग को अपने भार से मुक्त कर के सभी की रक्षा करें। तब देवी योग निद्रा ने विष्णु के नेत्रों से विदा ली और विष्णु जाग गए।

मधु और कैटभ से रक्षा और देवी योग निद्रा की कथा:
देवी योग निद्रा की ही एक कथा और मिलती है जिसमें शेषनाग के स्थान पर राक्षस द्वय मधु और कैटभ का उल्लेख है। सृष्टि के आरंभ में चारों ओर केवल आदि सागर था। भगवान विष्णु योगनिद्रा के प्रभाव में शेषनाग पर गहरी नींद में लेटे थे। जब भगवान विष्णु सो रहे थे, तब भगवान विष्णु के दोनों कानों के मैल से मधु और कैटभ नामक दो असुरों का जन्म हुआ। इन असुरों ने देवी की हजारों वर्षों तक घोर तपस्या की। देवी उनकी भक्ति से प्रसन्न हुईं, उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें वरदान दिया कि उनकी मृत्यु तभी होगी जब वे इसकी इच्छा करेंगे। वर पा कर दोनों असुर अभिमानी हो गए। उन्होंने ब्रह्मा पर आक्रमण किया और उनसे चारों वेद छीन लिए। तब ब्रह्मा ने विष्णु को जगाने के लिए योगनिद्रा की स्तुति की और उन्हें प्रसन्न किया। योगनिद्रा ने विष्णु से इस शर्त पर विदा ली कि वे चार मास उसके वश में रहेंगे। विष्णु ने शर्त स्वीकार की और जाग्रत हो कर मधु एवं कैटभ का संहार किया। मधु और कैटभ की कथा में, देवी दुर्गा को ‘‘योग निद्रा’’ के रूप में माना जाता है।

सृष्टि के संतुलन की कथा:
एक अन्य कथा के अनुसार, भगवान विष्णु सृष्टि के संचालन में संतुलन बनाए रखने के लिए योग निद्रा में जाते हैं। सृष्टि का निर्माण ब्रह्मा, पालन विष्णु और संहार भगवान शिव करते हैं। चातुर्मास के दौरान, जब वर्षा ऋतु होती है, सृष्टि में नई हरियाली और जीवन का संचार होता है। इस समय भगवान विष्णु विश्राम लेकर सृष्टि को स्वयं संतुलित होने का अवसर देते हैं भगवान शिव जल के सहयोग से संहार द्वारा सृष्टि का संतुलन बनाते हैं।
शेषनाग और क्षीर सागर की कथा:
पुराणों में यह भी वर्णित है कि विष्णु द्वारा सृष्टि के संचालन कार्यों में व्यस्त रहने के कारण दुखी हो कर शेषनाग ने रोष प्रकट किया कि वे उन पर ध्यान ही नहीं देते हैं। तब भगवान विष्णु शेषनाग को आश्वस्त किया कि वे चार मास योगनिद्रा में रहते हुए क्षीर सागर में शेषनाग के साथ रहेंगे तथा उन्हीं की शारीरिक शैय्या पर सोएंगे।

योग निद्रा का वैज्ञानिक पक्ष:
उपनिषदों और महाभारत में योग निद्रा नामक एक अवस्था का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘‘देवीमहात्म्य’’ में योगनिद्रा नामक एक देवी का उल्लेख है। शैव और बौद्ध तंत्रों में योग निद्रा को ध्यान से जोड़ा गया है। वहीं कुछ मध्यकालीन हठ योग ग्रंथों में समाधि की गहन ध्यान अवस्था के पर्याय के रूप में ‘‘योगनिद्रा’’ का उपयोग किया गया है। पश्चिम के आधुनिक काल में 19वीं और 20वीं सदी में एनी पेसन कॉल और एडमंड जैकबसन जैसे चिकित्सकों ने इसे ‘‘प्रोप्रियोसेप्टिव रिलैक्सेशन’’ कहा। इसे चिकित्सा के रूप में भी अपनाया गया। इसे अमेरिकी सेना द्वारा पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर से सैनिकों की रिकवरी में सहायता के लिए लागू किया जाता है। इंटीग्रेटिव रिस्टोरेशन अर्थात आईरेस्ट प्रोटोकॉल का इस्तेमाल इराक और अफगानिस्तान से लौटने वाले सैनिकों के साथ पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर  से पीड़ित होने पर किया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका की सेना के सर्जन जनरल ने 2010 में पुराने दर्द के लिए पूरक वैकल्पिक चिकित्सा (सीएएम) के रूप में योग निद्रा का समर्थन किया था। योग निद्रा की क्रिया के वैज्ञानिक प्रमाण एकमत नहीं हैं किन्तु अभी तक किए गए शोधों ने पश्चिम जगत को चैंकाया है। सन 2019 में पार्कर ने एक प्रसिद्ध योगी का एकल-अवलोकन अध्ययन किया था। इसमें, स्वामी राम ने योग निद्रा के माध्यम से एनआरईएम डेल्टा तरंग नींद में सचेत प्रवेश का प्रदर्शन किया था जिसमें एक शिष्य ने आंखें खुली और बात करते हुए भी डेल्टा और थीटा तरंगें उत्पन्न कीं। सन 2017 में एक चिकित्सीय मॉडल दत्ता और सहकर्मियों द्वारा विकसित किया गया था और यह अनिद्रा के रोगियों के लिए उपयोगी रहा। फिर 2022 में दत्ता और सहकर्मियों ने पैंतालीस पुरुष एथलीटों की नींद की समस्या पर योग निद्रा आजमाया। इसके सकारात्मक परिणाम उन्हें मिले।

यद्यपि योगनिद्रा को सामान्य निद्रा मानने की भूल पश्चिम जगत करता आया है तथा पश्चिम से प्रभावित भारतीय भी यही भूल कर बैठते हैं किन्तु वस्तुतः योगनिद्रा सामान्य निद्रा नहीं वरन एक सजग अवचेतन की स्थिति है जिसे योग की एक अवस्था कहना अधिक उचित होगा। वर्तमान समय में जब इंसान मानसिक तनाव से प्रतिदिन जूझ रहा है, उचित शिक्षक के निर्देशन में योगनिद्रा का अभ्यास उसे आराम पहुंचा सकता है।
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