Wednesday, July 30, 2025

चर्चा प्लस | उफनती नदियां सिखाती हैं जीवन का पाठ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 30.07.2025 को प्रकाशित)  
------------------------

चर्चा प्लस           
उफनती नदियां  सिखाती हैं जीवन का पाठ
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                 
       ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’! अर्थात किसी भी चीज की अति सदा वर्जनीय है। चाहे मानवीय चेष्टाएं हों या प्रकृति, अति सदा विनाश का कारण बनती है। नदी का जल उसी समय तक सुखद, सुंदर और मनमोहक लगता है जब तक वह बाढ़ में परिवर्तित नहीं होता। बाढ़ के रूप में नदी में अपार जलराशि आते ही नदी का रूप और चरित्र बदल जाता है। वह विनाशकारी साबित होने लगती है। एक बाढ़ आई नदी अपने साथ पूरा का पूरा गांव बहा ले जाने की क्षमता रखती है। इसलिए उसका यह विकराल रूप किसी को नहीं भाता है। यही मानव जीवन के साथ है। यदि मानव अपने कर्मों को अति पर पहुंचा देता है तो उसका परिणाम दुखद ही होता है। 
वृष्टि नहीं होती तो नदियां सूखने लगती हैं और यदि अतिवृष्टि होने लगे तो नदियां किनारों को लांघती हुई, बांधों को तोड़ती हुई अपने विनाशकारी रूप में विस्तार लेने लगती हैं। अनेक स्थानों पर नदियां अपना मार्ग बदल लेती हैं। कभी-कभी यह अंतर उनके मूल स्थान से 5 किलोमीटर की दूरी का भी होता है अर्थात जो नदी गांव की दाई तरफ से होकर बह रही थी वह गांव की बाई ओर से बहने लगती है। नदी का इस तरह अपना स्थान परिवर्तित करना गांव के लिए विनाशकारी साबित होता है। वर्षा ऋतु में नदियां उफान पर होती हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि वर्षा ऋतु का जल नदियों में समाकर उन्हें पूर्णता से अधिक भर देता है और फिर स्थिति होती है अतिरिक्त जल के बह निकलने की। ऋषि वाल्मीकि ने ‘‘रामायण’’ के किष्किंधा कांड में वर्षा ऋतु में नदी के प्राहव का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि- 
‘‘प्रवंति वतस्समुदीर्नघोषः। 
विपुलाः पतन्ति गिरः, समुद्रघोषाः। 
वातः प्रवंति, प्राणष्टकूलाः। 
विप्रतिपन्नमार्गः, नद्याः शीघ्रम् जलैः प्रवहन्ति।’’ 
अर्थात वायु के वेग से गरजते हुए बादल बरसते हैं, नदियां किनारों को तोड़कर, दिशा बदलकर, तेजी से पानी बहाती हुई बहती हैं। इसी बात को मानव जीवन एवं आचरण से जोड़ते हुए गोस्वामी तुलसी दास ने लिखा है-
बरशहिं जलद भूमि नियारेन। जथा नवहिं बुध का ज्ञान पावे।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसे।।
- अर्थात बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते है।
इसी प्रकार का एक और पद है-
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।
- अर्थात छोटी नदियां भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। यानी अपनी मर्यादा का त्याग कर देते हैं। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव से माया लिपट गई हो।

मानव चरित्र पर जब मोह-माया प्रभावी हो जाती है तो उसका आचरण किसी गंदले पानी की भांति मैला हो जाता है। वह छल, कपट, मिथ्या, लोभ, लालच आदि सभी प्रकार के दुर्गंणों में फंस जाता है। वह स्वयं तो बाढ़ के पानी की भांति बढ़ता ही चला जाता है, साथ ही अपने परिजन, अपने आस-पास के सभी लोगों को चोट पहुंचाने, उनका विनाश करने पर तुल जाता है। जो किनारे नदी को सुंदरता प्रदान करते हैं नदी की बाढ़ उन्हीं किनारों को निर्दयतापूर्वक तोड़ देती है। 

जल द्वारा उत्पन्न की गई विनाश की स्थिति भयानक होती है। ऐसे दृश्य पहली बार देखने में और अधिक भयाक्रांत कर देते हैं। मैंने स्वयं लगभग सात-आठ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से बिहार के दरभंगा जाते समय सड़क मार्ग से जो बाढ़ का दृश्य देखा था वह आज भी मेरी आंखों में ताज़ा है। ऐसा ही वर्षा ऋतु का समय था। खेत तालाबों की भांति दिखाई दे रहे थे। किन्तु उनकी गहराई कितनी थी इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने वैसे कुछ मकान देखे जिनका ग्राउंड फ्लोर पूरी तरह पानी में डूबा हुआ था। उन घरों के रहवासी पहली मंज़िल की बाल्कनी पर खड़े हो कर हाथ हिला रहे थे। यह दृश्य मेरी कल्पना से परे था। लगभग 10 से 14 फीट तक डूबे हुए घरों को देख कर उनकी गृहस्थी की दशा का अनुमान लगाना कठिन था। वह जल के आप्लावन का एक भयभीत कर देने वाला दृश्य था। इससे पहले पुलों पर से बहती हुई नदी को कई बार देखा था और जल की उस उद्दंड तीव्रता को महसूस किया था। उन दुस्साहसियों को भी देखा था जो लोगों के मना करने के बावजूद उस तीव्र बहाव वाले पुल पर से अपनी गाड़ी सहित चल पड़े थे। वह मानव मन की बाढ़ थी जिसने उन्हें जोखिम लेने के लिए उकसाया। बाढ़ कोई भी हो कभी अच्छी नहीं होती है। उसके संकटपूर्ण परिणामों की संभावना बनी रहती है।

चाहे क्रोध की अधिकता हो या प्रेम की अधिकता, दोनों की नदी की बाढ़ के समान ही होती है, विनाशकारी। ‘‘श्रीमद् भगवद्गीता’’, 2-63, में लिखा है कि-
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।। 
- अर्थात क्रोध की तीव्रता व्यक्ति को जब अपने सम्मोहन में लेती है तो सबसे पहले उसके सही-गलत के सोचने-समझने की शक्ति को अपने वश में कर लेती है। यह सम्मोहन की स्थिति भ्रम उत्पन्न करती है। भ्रम में पड़ कर बुद्धि का नाश हो जाता है। जब बुद्धि का नाश हो जाए तो प्राणों के नाश होने में देर नहीं लगती। यदि इसे आम बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो क्रोध में आ कर लोग एक-दूसरे को मार-काट देते हैं। यह मानवीय भाव के क्रोध संवेग की अति होती है या कहिए कि यह क्रोध की बाढ़ होती है। 
गोस्वामी तुलसी दास भी बाढ़ एवं अतिवृष्टि की तुलना क्रोध से करते हुए कहते हैं कि-
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। 
जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। 
करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।
- अर्थात अतिवृष्टि के कारण मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का का प्रभाव क्षीण पड़ जाता है किन्तु वहीं, धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती। जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है। क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता।

प्रत्येक ऋतु अच्छी होती है जब तक वह अति की स्थिति में नहीं पहुंचती है। अति की सीमा पार करते ही वह कष्टप्रद हो जाती है। जैसा कि तुलसीदास ने लिखा है कि संतान का जन्म सुखद लगता है किन्तु जब संतान कुपुत्र साबित हो तो उसका होना दुखदाई होता है- 
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।
- अर्थात जब कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म नष्ट हो जाते हैं।
वस्तुतः प्रकृति का आचरण मनुष्य की पाठशाला होता है। यदि मनुष्य उस पाठशाला के प्रत्येक पाठ ध्यानपूर्वक पढ़े और समझ ले तो जीवन उत्तम रहता है। जैसे तुलसीदास लिखते हैं कि-
कबहु दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।
- अर्थात कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाता हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। 
उफनती हुई नदियां बांध तोड़ देती हैं, गांव बहा देती हैं तथा खेत-खलिहान तक नष्ट कर देती हैं। मनुष्य, मवेशी आदि सब उसकी धाराओं में बह जाते हैं। ऐसी तीव्रतम धाराओं पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने युक्ति निकाली और पुल बनाने आरम्भ कर दिए, नदियों को बांधना आरम्भ कर दिया किन्तु मानवीय प्रवृति में मौजूद लालच ने उससे ऐसे निर्माण कार्य कराए कि प्रकृति की अति के सामने उसकी अति भारी पड़ गई। पुलों पर दारा आना, अतिवृष्टि में पुलों का बह जाना अब चौंकाता नहीं है। मानवीय आचरण इतना लचीला होता है कि मानो वह अति करने के लिए सदा लालायित रहता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार में अति, आर्थिक मामलों में घोटालों की अति, यहां तक कि प्रेम में भी अति व्यक्ति को हानिकारक बना देती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दाम्पत्य जीवन में तुलसीदास का अपनी पत्नी रत्नावलि के प्रति प्रेम की अतिशयता के रूप में हमारे सामने है। पत्नी रत्नावलि के मायके जाने पर तुलसीदास प्रेमाकुल हो कर बाढ़ आई नदी को एक शव के सहारे पार कर के, सर्प को रस्सी समझ कर उसके सहारे अटारी पर चढ़ कर अपनी पत्नी के सम्मुख जा पहुंचते हैं। उन्हें इस तरह आया हुआ देख कर रत्नावलि झुंझला कर कहती है कि-
लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ, 
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीत। 
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।। 
- अर्थात हे नाथ, आपको लज्जा नहीं आई? जो इस हड्डी और मांस के शरीर से इतना प्रेम कर रहे हैं। यदि इतना ही प्रेम राम से किया होता तो सांसारिक भय नहीं रहता।

अति प्रेम में भी वर्जित है। एक तरफा प्रेम के चलते आए दिन कोई न कोई जघन्य वारदात सुनने, पढ़ने को मिल जाती है। प्रेम की अति यदि परस्पर एक-दूसरे के प्रति शंकालु बना दे तो फिर वहां प्रेम विलुप्त होते देर नहीं लगती है, बच रहती है संदेह की विनाशकारी बाढ़ जो अपने साथ कई प्राणों को बहा ले जाती है। 
ये नदियां हमें सिखाती हैं कि जब तक सब कुछ शांत है, हरा-भरा और सुखकर है। यदि नदियां बाढ़ रूपी अति पर उतर आती हैं तो फिर दिखाई देता है विनाश का तांडव। किन्तु वहीं, अंततः नदियों को भी खुद ही सिमटना पड़ता है। अतिवृष्टि में जन्मी नदियां तो वर्षा ऋतु के बाद अपना अस्तित्व ही खो देती हैं। जिस तीव्रता से वे जन्मी थीं, उसी तीव्रता से लुप्त हो जाती हैं। अतः अति करने वालों को इन उफनती नदियों से सीख लेना चाहिए, यही तो प्रकृति का आग्रह है। 
-----------------------

#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस  #सागरदिनकर #charchaplus  #sagardinkar  #डॉसुश्रीशरदसिंह #नदी #बाढ़

No comments:

Post a Comment