Friday, July 4, 2025

शून्यकाल | तुलसीदास के काव्य में आदर्श परिवार की अवधारणा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -'शून्यकाल'
तुलसीदास के काव्य में आदर्श परिवार की अवधारणा
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
     गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं के केन्द्र में है रामकथा। श्रीराम जिन्हें आदर्श पुरुष अर्थात पुरुषोत्तम माना गया है। यही रामकथा परिवार के टूटने और परिवार को टूटने से बचाने की भी कथा है। इसी रामकथा को आधार बना कर तुलसीदास ने अपने काव्य में एक आदर्श परिवार की जो अवधारणा प्रस्तुत की है, वह हर युग में महत्व रखती है। विशेषरूप से वर्तमान में जब परिवार टूट कर बिखर रहे हैं। पारिवारिक संबंधों में शिथिलता और स्वार्थ का बोलबाला है। ऐसे संवेदनहीन समय में तुलसीदास की पारिवारिक अवधारणा को जानना और समझना और अधिक आवश्यक हो जाता है। ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ का नित्य पाठ करने मात्र से वह इच्छित परिणाम (पुण्य) नहीं मिल सकता है जो उसमें निहित संदेशों को समझने से परिणाम मिल सकता है।
        यदि रामकथा को जन-जन तक पहुंचाने में अपनी सबसे बड़ी भूमिका यदि किसी ने निभाई है तो वह है गोस्वामी तुमलसीदास के काव्य ने। तुलसी का समग्र रचनाकर्म रामकथा पर आधारित एवं केन्द्रित है। रामकथा भारतीय संस्कृति के जिन मूल्यों को प्रस्तुत करती है उसमें पारिवारिक संरचना का विशेष स्थान है। तुलसीदास भी एक आदर्श लोकमंगलकारी समाज में एक आदर्श परिवार की स्थापना का आह्वान करते हैं। रामकथा में आरंभ में परिवार का एक सुंदर स्वरूप दिखाई देता है। ऐसा स्वरूप जिसमें तत्कालीन पारिवारिक संरचना के अनुरुप पिता, माताएं एवं पुत्र हैं। सभी में पारस्परिक वचनबद्धता है। पुत्रों में आज्ञाकारिता है। वे गुरुकुल में अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं तथा अपने पिता के गृह पर होने पर माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। इसी रामकथा में पारिवारिक टूटन की स्थिति तब आती है जब दासी मंथरा की मंत्रणा पर कैकयी राम को 14 वर्ष का वनवास और अपने पुत्र भरत के लिए राजगद्दी मांग लेती है। यहां स्वार्थ परिवार को तोड़ता है। भाई-भाई में परस्पर द्वंद्व और युद्ध हो सकता था किन्तु राम इस स्थिति को टाल देते हैं और अपने पिता के आदेश को शिरोधार्य कर के वनगमन कर जाते हैं। जब परिवार के टूटने की घड़ी आती है तो तो कई सदस्यों पर उसका गहरा असर पड़ता है, फिर वह चाहे राजा का परिवार हो या रंक का परिवार।  

    तुलसीदास के अनुसार आदर्श परिवार में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता है। सभी संबंध घनिष्ठ और उदार होने चाहिए। इसीलिए राज्याभिषेक की बात आते ही तुलसी के राम चिन्तित हो कर सोचते हैं कि - 
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।
करनबेध उपबीत बिआहा। संग-संग सब भए उछाहा।
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बन्धु बिहाई बड़ेहि अभिषेक।
      अर्थात - हम सब भाई एक ही साथ जन्में, खाना-पीना, खेलकूद यहां तक कि कनछेदन, जनेऊ संस्कार और विवाह भी एक साथ हुए, फिर राज्याभिषेक मेरा ही क्यूँ? मात्र इसलिए कि मैं अपने भाइयों में सबसे बड़ा हूं? यह कैसा नियम है? 

    तुलसीदास के राम पारिवारिक मूल्यों की रक्षा करते हुए वनवास का आदेश ग्रहण कर लेते हैं। वे कैकयी से प्रेमपूर्वक मिलते हैं। किन्तु यहां तुलसी स्मरण कराते हैं कि कैकयी ने तपस्वीवेश में वनवास करने का आदेश कराया था-
तापस बेष बिसेषि उदासी। 
चौदह बरिस रामु बनबासी। 

तुलसी के राम को यह भी स्वीकार है। वे अपनी सौतेली माता की इच्छा को ठुकरा कर अपने पिता को लज्जित होते नहीं देखना चाहते हैं- 
सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी। जो पितु-मातु बचन अनुरागी।।
    अर्थात - हे माता! सुनो, वही पुत्र सबसे बड़ा भाग्यशाली है, जो अपने माता-पिता के बचनों का अनुरागी है। यहाँ पारिवारिक त्याग अपनी उत्कृष्टता को प्राप्त करता है। राम तो यह भी कहते हैं कि - 
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।।
       अर्थात - मेरे प्राणप्रिय भ्राता भरत राजगद्दी पाएंगे, मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? ऐसा प्रतीत होता है, मानो विधाता हर प्रकार से मेरे अनुकूल है।

      तुलसी एक बार फिर आदर्श परिवार की अवधारणा को सामने रखते हुए भरत को आत्मग्लानि एवं पश्चाताप से भरा हुआ वर्णित करते हैं क्योंकि भरत को लगता है कि पिता की मृत्यु और राम के वनगमन का कारण वे स्वयं को मानते हैं। यानी तुलसी की दृष्टि में आदर्श परिवार वही है जिसमें सभी व्यक्ति अपनी भूमिका और अपने दायित्वों को भली-भांति समझें और उनका पालन करें। तुलसी लिखते हैं-
भरतहि विसरोउ पितुमरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौन।
        अर्थात - राम का वन जाना सुनकर भरत, पिता की मुत्यु भूल गए और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण स्वयं को मानकर व्यथित हैं, क्रोधित हैं। भरत अपनी माता को किस तरह उनके कृत्य के लिए धिक्कारते हैं, इसे तुलसी के शब्दों में देखिए - 
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।
पेड़ काटि तै पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।
        अर्थात - मां आने जो किया है, उससे तो अच्छा था कि आप मुझे जन्म लेते ही मार देतीं। मां आपने पेड़ को काट कर पत्ते को सींचने की अभिलाषा रखी। आपने तो मछली को ही जलविहीन कर दिया है। यहां तुलसी एक पुत्र द्वारा अपनी मां को उसका अपराध बताने कार्य करते हैं क्योंकि आदर्श परिवार में पारिवारिक सदस्यों के अपराधों पर पर्दा डालने के स्थान पर उन्हें उनकी त्रुटि का भान कराना आधिक आवश्यक है। 

     तुलसी राम के जीवन एवं परिवार को ही दृष्टि में नहीं रखते हैं अपितु वे उस समाज में भी आदर्श परिवार की आकांक्षा रखते हैं जिसमें बालि और सुग्रीव जैसे वानर वंशीय हैं। सुग्रीव बालि को मृत समझकर राजसिंहासन पर बैठ जाता है। वहीं बालि लौटते ही सुग्रीव को अपना शत्रु समझ कर उसकी पत्नी का हरण कर लेता है। तुलसी की दृष्टि में यह बहुत बड़ा पारिवारिक अपराध है, साथ ही मर्यादा का उल्लंघन भी। बालि की मुत्यु के समय का वर्णन करते हुए तुलसीदास ने ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ में राम के द्वारा उसके पापकर्म का स्मरण कराते हैं-
अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई। ताहि बधें  कछु पाप न होई।।
       अर्थात - छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं, जो व्यक्ति इन पर कुदृष्टि डालता है उसका मारना पाप नहीं है।
रावण राक्षसी प्रवृति का था। उसने सीता का अपहरण करके पारिवारिक मर्यादा एवं मूल्यों को तोड़ा था। किन्तु रावण के परिवार में उसकी पत्नी मंदोदरी स्थिति को सम्हालने का हर संभव प्रयास करती है क्योंकि वह समझ रही है कि उसका पति कालवश भ्रमित हो कर गलत कार्य कर रहा है- 
मन्दोदरी मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।

तुलसी उस स्थान पर तनिक ठिठकते हैं जहां कुम्भकर्ण, मेघनाद, त्रिजटा आदि रावण के प्रति अपने पारिवारिक संबंध और दायित्व को जीते हैं किन्तु वहीं विभीषण परिवारद्रोह करता है और राम की शरण में चला जाता है। यहां पारिवारिक आदर्श के साथ पारिवारिक प्रतिष्ठा को शामिल करते हुए तुलसी विभीषण की भक्ति भावना की प्रशंसा करते हैं और पारिवारिक आदर्श में विभीषण के खरे उतरने या न उतर पाने के फेर में नहीं पड़ते हैं। अर्थात तुलसी यहां मौन रह कर भी यह संदेश दे देते हैं कि ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत’’ पूरा परिवार या परिवार का कोई प्रभावशाली सदस्य यदि आपराधिक अति करे तो उसका साथ छोड़ना आदर्श अवहेलना नहीं है। इस तरह देखा जाए तो तुलसी अपने काव्य के द्वारा आदर्श समाज की अपनी अवधारणा को सोदाहरण सामने रखते हैं जिसे आज के समय में समझना अत्यंत आवश्यक है। तुलसी का पारिवारिक आदर्श सैद्धांतिक नहीं वरन व्यवहारिक है। इससे समाज में भी आदर्श मूल्यों की स्थापना हो सकती है।
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