शून्यकाल
तुलसीदास के काव्य में लोक-मंगल की भावना
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
गोस्वामी तुलसीदास उस इष्ट के उपासक थे जिन्होंने लोकमंगल के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। श्रीराम ने बाल्यकाल से ही वे सभी कार्य किए जो लोकमंगलकारी थे। अतः ऐसे इष्ट के भक्त तुलसीदास के काव्य में लोकमंगल भावना की गहन उपस्थिति स्वाभाविक है। उन्होंने ‘‘रामचरित मानस’’ लिखते हुए श्रीराम के जीवन की उन सभी घटनाओं को चयनित किया जो लोकमंगलकारी थीं, भले ही श्रीराम को स्वयं उनमें से कई घटनाओं के कारण दुख झेलना पड़ा। तुलसी ने अपने काव्य के माध्यम से लोकमंगल का सही स्वरूप प्रस्तुत किया है। आज के संवेदनाहीन होते समय में तुलसी की लोकमंगलकारिता संवेदना का संचार करने में सक्षम है। आवश्यकता है उसे मात्र पाठ करने की नहीं अपितु समझने की।
परहित सरिस धर्म नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
- श्री रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड में यह पंक्ति गोस्वामी तुलसीदास ने लिखी है। इसका अर्थ है कि दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई अधर्म (पाप) नहीं है। इससे बढ़ कर लोकमंगल की भावना और कोई हो ही नहीं सकती है।
तुलसी दास ने अपने आदर्श, अपने इष्ट देव के रूप में श्रीराम को चुना। संभवतः इसीलिए कि श्रीराम का पूरा चरित्र एवं समूचा जीवन लोकहितकारी रहा। बाल्यावस्था में उन्होंने ऋ़षियों को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराया। फिर बड़े होने पर गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए सीता-स्वयंवर में भाग लिया क्योंकि स्वयंवर ही वर द्वार था जहां से असुराधिपति रावण के विनाश का आरम्भ तय होना था। श्रीराम ने राजसत्ता का मोह नहीं किया वरन लोकहित में राज के अधिकार को त्याग कर वचन का पालन स्वीकार किया। अन्यथा एक महाभारत पहले ही हो जाती। ऐसा चरित्र एवं व्यक्तित्व तुलसी के काव्य का केन्द्र है। तुलसी ने राम को उनके आदर्श स्वरूप में ही अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। तुलसी के राम सर्वगुणसम्पन्न, सर्वशक्तिमान एवं शीलवान हैं, इसलिए वे लोकमंगलकारी हैं। राम के साथ ही सीता आदर्श पत्नी हैंें, भरत आदर्श भाई हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं। तुलसी ने जो आदर्श की झांकी अपने शब्दों से रची है उसके मूल में लोकमंगल का ध्येय है।
तुलसीदास काव्य को भी मनोरंजन का साधन नहीं अपितु उसे लोकमंगल का साधन मानते हैं। उनकी दृष्टि में वही काव्य श्रेष्ठ है, जिसमें समाज का हित की चर्चा की गई हो -
कीरति भनिति भूति भल सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
- अर्थात कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वहीं उत्तम है, जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो।
तुलसीदास ने ‘‘रामचरितमानस’’ में श्रीराम की आगमन ही लोक कल्याण के लिए बताया है। उनके श्रीराम असुरों से आक्रांत धरती पर शांति एवं कल्याण की स्थापना के लिए अवतरित होते हैं-
जब जब होई धरम कै हानि।
बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि मनुज सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
अर्थात् जब-जब संसार में आसुरी शक्तियां आतंक मचाने लगती हैं, अधर्म करने लगती हैं तब-तब ईश्वर मनुष्य का शरीर धारण कर के इस धरती पर जन्म लेते हैं।
तुलसीदास ने रामचरितमानस के आरंभ में ही लिखा है कि-
मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।।
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।।
- भावार्थ है कि तुलसीदास कहते हैं कि श्रीरघुनाथ की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस अनगढ़ कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु रघुनाथ के सुंदर यश के संग से यह कविता सुंदर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है। मानस की कथा को तुलसी ने कलियुग के पापों को नष्ट करने वाली, लोक और परलोक में सुख देने वाली ,विषय विकारों को नष्ट करने वाली और अज्ञान के अंधकार को दूर करने तथा उसमें उद्दात्त मानवीय तत्वों का समावेश करके पूर्णतया लोकमंगलकारी बना दिया। इसके मूल में त्याग, तप संतोष, सदाचार, परोपकार जैसे सुदृढ़ भावनाएं हैं जो लोकमंगल के लिए मनुष्य को प्रेरित करती हैं।
‘‘रामचरितमानस’’ के सृजन का मूल उद्देश्य असत पर सत की विजय दिखा कर स्वयं को असहाय मानने वाले मनुष्यों के हृदय में आशा का संचार करना है। ‘‘रामचरितमानस’’ ही नहीं वरन तुलसी ने अपने सभी सृजन में लोकमंगल को आधार बनाया है। गोस्वामी तुलसीदास ने राम को ईश्वर मानते हुए कहा कि वे मनुष्य नहीं ईश्वर हैं और मनुष्यों का कल्याण करने के लिए ही अयोध्या राजवंश में मनुष्य रूप में अवतरित हुए थे। तुलसी ने रावण के दरबार में अंगद द्वारा इसे बात को कहलाया है-
राम मनुज कस रे सठ बंगा।
सुरभि कामधेनु सर गंगा।
गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम को इष्ट मानकर उनकी पग-पग पर एक लोककल्याणकारक ईश्वर के रूप में वंदना की है -
जय राम रूप अनूप निरगुन सगुन गुन प्रेरक सही ।
दशशीश बाहु प्रचण्ड खण्डन चंड शर मन्डन मही।।
पाथोद्गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनम।
नित नौमि राम कृपाल बाहु विशाल भवभय मोचनम।।
तुलसी अपने काव्य में विभिन्न सम्प्रदायों एवं विभिन्न मतों के बीच समन्वय की बात भी करते हैं। वे शैव और वैष्णव दोनों को समझाते हुए वे कहते हैं-
सिवद्रोही मम दासा कहावा।
सो नर मोहि सपनेहुँ नहिं भावा।
इसी तरह निर्गुण और सगुण, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग के विवाद एवं अलगाव को भी वे लोहित में उचित नहीं मानते हैं तथा कहते हैं-
ग्यानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।
तुलसी ने लोक कल्याण का ऐसा सहज मार्ग बताया है जिसमें धन ,बुद्धि ,वैभव की आवश्यकता नहीं है, मात्र सद्भाव की आवश्यकता है। इसीलिए तुलसी ने श्रीराम के रूप में एक आदर्श सामने रखा। तुलसी के राम ‘‘मंगल भवन अमंगल हारी’’ हैं। तुलसी मानते हैं कि श्रीराम नाम का जाप करने, सदाचार पालन करने और राम कथा का निरंतर पारायण करने से मनुष्य का मंगल होता है। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि जब व्यक्ति सदविचारों में लिप्त रहेगा तो उसके मन में परपीड़ा की भावना उपजेगी ही नहीं। फिर जिस समाज में परपीड़ा की भावना जन्म ही नहीं लेगी तो वह समाज मंगलकारी वातावरण में रहेगा।
तुलसी के राम छोटे बड़े में भेद नहीं करते हैं। वे शबरी के जूठे बेरों को उसी आत्मीयता के साथ खाते हैं जितनी आत्मीयमा के साथ वे माता कौशल्या के हाथों भोजन ग्रहण करते थे। राम की दृष्टि में वानर, भाल्लुक, गीध आदि कोई भी छोटे नहीं हैं। वे आगे बढ़ कर सबको गले लगाते हैं तथा सबका मान-सम्मान करते हुए यथोचित उनकी सहायता भी करते हैं।
तुलसी श्रीराम द्वारा शबरी को कहलाते हैं कि सही भक्ति दिखावे में नहीं परस्पर प्रेम और समर्पण में है। निम्नलिखित पंक्तियां नवधा भक्ति की हैं, जिसमें भगवान की कृपा पाने के नौ तरीके बताए गए हैं -
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।।
गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।।
चौथी भगति मम गुन गन,करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
पंचम भगति सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरति बहु कर्मा।
निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
सातव सब मोहिमय जग देखा ।
मो ते संत अधिक कर लेखा।।
आठव जथालाभ संतोषा।
सपनेहु नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सम छल हीना।
मम भरोस हिय हरष न दीना।।
स्वार्थ में डूबते समय में इस भावना को आज समझने की आवश्यकता है कि तुलसी ने काव्य में लोकमंगल भावना उच्चता को स्थापित करते हुए अपने इष्टदेव श्रीराम से स्वयं के लिए नहीं अपितु लोकमंगल के लिए द्रवित होने की याचना की है-
मंगल भवन अमंगल हारी ।
द्रवहु सु दसरथ अजिर बिहारी।।
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