Friday, July 25, 2025

शून्यकाल | कौन थे असुर? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - 
शून्यकाल
कौन थे असुर? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति?
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                              जिसने वैदिक ग्रंथ पढ़े हैं अथवा वैदिक ग्रंथों की कथाएं सुनी हैं, वह देवासुर संग्राम से परिचित होगा। जो असुरों एवं देवताओं के मध्य कई वर्ष चला था। ये असुर ही राक्षस कहे गए। शुंभ और निशुंभ राक्षसों का देवी दुर्गा द्वारा वध किए जाने की कथा है। महिषासुर को भी देवी ने मारा था। असुर और देवताओं के बीच युद्ध के बाद मानव एवं असुरों के बीच युद्ध होने लगा। रामकथा के मूल में श्रीराम एवं रावण के मध्य युद्ध का वर्णन है। श्रीराम देवावतार थे किन्तु थे मानव ही, और रावण राक्षस था। इसके बाद श्रीराम-रावण युद्ध से बड़ा युद्ध महाभारत का हुआ किन्तु यह दो मानवकुलों के बीच का युद्ध था जिसमें राक्षस कुल के लोगों ने भी भाग लिया किन्तु सहयोगी के रूप में। तो फिर असुर कौन थे? आर्य, अनार्य अथवा कोई और प्रजाति जो देखने में मनुष्यों से अलग थी?
    वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ वह रामकथा है जिसमें राक्षसों एवं श्रेष्ठ मानवों के मध्य छल, कपट, राजनीति एवं युद्ध का वर्णन है। यह माना जाता है कि श्रीराम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह वस्तुतः आर्यों एवं अनार्यों के बीच युद्ध था। यद्यपि इस युद्ध में उनकी भी सहभागिता थी जो न तो आर्य थे और न अनार्य थे, जैसे वानर, भाल्लुक आदि। रामायण के अतिरिक्त हर भाषा में लिखी गई रामकथा में राक्षस राज रावण से युद्ध का वर्णन मिलता है। अनेक विद्वान यह मानते हैं कि आर्य भारत भूमि के नहीं थे, जबकि द्रविड़ भारत के मूल निवासी थे। इस समय इस प्रश्न को छोड़ कर इस पर विचार किया जाए कि राक्षस यानी असुर कौन थे? क्या वे अनार्य थे? या फिर वे मनुष्य ही नहीं थे अपितु कोई और प्रजाति के थे? यद्यपि यह सोचना भी अटपटा लगता है कि राक्षस मनुष्य से इतर किसी और प्रजाति के थे। यूं भी वैज्ञानिकों द्वारा मानव विकास के संबंध में किए गए अब तक के अनुसंधानों से यह ज्ञात नहीं हुआ है कि मनुष्य से इतर कोई ऐसी प्रजाति मानव के समकालीन रही जिसे हम राक्षस कह सकते हों। तो फिर वही प्रश्न उठता है कि क्या राक्षस अनार्य थे? वेदों में राक्षसों को असुर कहा गया है। वैदिक ग्रंथों में सुर-असुर संग्राम की कई कथाएं हैं। ये देवासुर संग्राम कई-कई वर्ष तक चलते थे। इस दृष्टि से देखा जाए तो कोई बाहरी आक्रांता कई वर्ष तक युद्ध में निरंतर डटे नहीं रह सकता था अतः सुर और असुर दोनों को एक ही भू-भाग का निवासी होना चाहिए, जिनमें वर्चस्व की लड़ाई चलती रही होगी। किन्तु दोनों पक्षों में उस पक्ष को असुर अथवा राक्षस का सम्बोधन दिया गया जिसने शालीनता का उल्लंघन किया, जिसने स्त्रियों का सम्मान नहीं किया, जिसने स्वार्थपूर्ति के लिए हर प्रकार के छल-कपट का सहारा लिया, जिसने नृशंसता को अपनाया। अतः इस दृष्टि से देखा जाए तो असुर अथवा राक्षस वे थे जो अमानवीय भावनाओं से भरे हुए थे। जिस परिवार अथवा समुदाय के अधिकांश जन अमानवीय भावनाओं से युक्त थे वे असुर अथवा राक्षस कुल के कहलाए। यद्यपि यह आवश्यक नहीं था कि उस कुल का प्रत्येक सदस्य अनार्य आचरण अथवा राक्षसी प्रवृत्ति का हो। 
वाल्मीकि कृत ‘‘रामायण’’ में रावण को राक्षस कुल का माना गया है। उसके भाई-बहन राक्षसी आचरण के थे किन्तु उसका एक भाई विभीषण तथा उसकी एक पत्नी मंदोदरी राक्षस कुल के होते हुए भी राक्षसी प्रवृति के नहीं थे। विभीषण श्रीराम के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है तो मंदोदरी सीता के पक्ष लेती है। रामायण काल से पूर्व वैदिक काल में असुरों का अस्तित्व था जिसका उल्लेख ‘‘ऋग्वेद’’ में मिलता है। 

वैदिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन भारत में ये जातियां थीं- देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। माना गया कि देवताओं की अदिति, तो दैत्यों की दिति से उत्पत्ति हुई। दानवों की दनु से, तो राक्षसों की सुरसा से, गंधर्वों की उत्पत्ति अरिष्टा से हुई। इसी तरह यक्ष, किन्नर, नाग आदि की उत्पत्ति मानी गई है। प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस जुड़ी हुई धरती को प्राचीन काल में 7 द्वीपों में बांटा गया था- जम्बू द्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। जम्बू द्वीप के 9 खंड थे - इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी क्षेत्र में सुर और असुरों का साम्राज्य था।
कुछ विद्वान वैदिक ग्रंथों में प्राप्त विवरण के आधार पर निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि ब्रह्मा और उनके कुल के लोग धरती के नहीं थे। उन्होंने धरती पर आक्रमण करके मधु और कैटभ नाम के दैत्यों का वध कर धरती पर अपने कुल का विस्तार किया था। बस, यहीं से धरती के दैत्यों और स्वर्ग के देवताओं के बीच लड़ाई शुरू हो गई। देवता और असुरों की यह लड़ाई हमेशा चलती रही। जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षेत्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ। जब देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। माना जाता है कि अंतिम बार संभवतः शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था। 

चाहे देवता हों अथवा देवियां, उन्हें असुरों का दमन करने के लिए शस्त्र उठाने पड़े। प्राचीन ग्रंथों में जिन प्रमुख असुरों का वर्णन है उनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं- राहू, केतु, हेति, प्रहेति, सुकेश, माल्यवान, माली, सुमाली, कुम्भकर्ण, मेघनाद, अक्षयकुमार, अतिकाय, त्रिशरा, नरान्तक, देवान्तक, मूलक, शुम्भ, निशुम्भ आदि।

यहां यह भी विचारणीय है कि वैदिक युग से रामायण काल तक राक्षसों का मानव एवं देवमानवों  अथवा देवताओं के विरुद्ध प्रबल विरोध एवं युद्ध चलता रहा। किन्तु महाभारत काल में राक्षसकुल का वर्णन तो है किन्तु मूल युद्ध एक ही कुल के मानवों के बीच हुआ। हिडिम्ब, हिडिम्बा को राक्षस कुल का कहा गया है। पाण्डव कुल का भीम हिडिम्बा से विवाह कर के घटोत्कच नामक संतान उत्पन्न करता है जो मानव एवं राक्षस दोनों के अंश से जन्मा था। घटोत्कच ने भी महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की ओर से भाग लिया था। किन्तु महाभारत की मूल कथा रामकथा की भांति राक्षसों एवं मानवों के बीच युद्ध की कथा नहीं है अपितु मानव में ही मौजूद न्याय एवं अन्याय की प्रवृत्तियों के बीच युद्ध की कथा है। 
‘‘महाभारत’’ में राक्षसों से कहीं अधिक बर्बरता के उदाहरण हैं। जैसे रावण ने छल पूर्वक सीता का अपहरण किया था। सीता उसके लिए एक रूपवती परस्त्री थी जिसे वह अपनी रानी बनाना चाहता था। वह भी अपनी बहन शूर्पणखा के उकसावे में आ कर। वहीं महाभारत काल में द्रौपदी को पहले जुए में दांव पर लगाया जाता है, वह भी युधिष्ठिर जैसे व्यक्ति द्वारा जिसे धर्म का ज्ञाता माना जाता था। फिर दुश्शासन भरी सभा में उसका चीरहरण करने का यत्न करता है। यदि श्रीकृष्ण का हस्तक्षेप नहीं होता तो द्रौपदी के साथ निर्लज्जता की सारी सीमाएं लांघ दी गई होतीं। लाक्षागृह में पाण्डवों को जीवित जला कर मार दिए जाने का षडयंत्र किया जाता है। यहां तक कि महाभारत के युद्ध के दौरान अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेर का मार दिया जाना अमानवीयता की कहानी कहता है। ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनके आधार पर कौरवों को राक्षस कहा जा सकता है फिर भी उनके कृत्य को तो राक्षसी कृत्य विशेषण दिया गया किन्तु उन्हें ‘‘राक्षस अथवा असुर’’ नहीं कहा गया। कहने का आशय यह है कि महाभारत काल आते-आते असुर का विशेषण उन लोगों के लिए सिमटने लगा था जो वनांचलों में अपनी विशेष रीति-रिवाजों के साथ कबीलों के रूप में रहते थे किन्तु वे ‘‘वनवासी’’ भी नहीं कहे गए। उस काल में तो वनों में ऋषि-मुनि भी रहते थे। नगर के कोलाहल से दूर वनप्रांतर में उनके आश्रम होते थे जहां वे यज्ञ आदि पवित्र अनुष्ठान करते थे। लेकिन हिडिम्बा को भी ‘सुंदर स्त्री का रूप धारण कर’ प्रकट होने वाली कहा गया है, ठीक शूपर्णखा की भांति। अर्थात ये दोनों स्त्रियां तत्कालीन स्त्रियों के सौंदर्य के मानकों के अनुरूप नहीं थीं। उसका भाई हिडिम्ब भी तत्कालीन प्रचलित मानवीय कद-काठी से भिन्न था। यह विशेष कबीलों में पाया जाना संभव था। जिनका बैर देवताओं एवं मानवों से पहले की अपेक्षा बहुत सीमित हो गया था।
असुरों/राक्षसों की उपस्थिति को यदि प्रवृत्ति से आंका जाए तो वे आज भी मानव में ही उन लोगों के रूप में मौजूद हैं जो अमानवीय कृत्य करते हैं। वे चाहे बलात्कारी हों, जघन्य अपराधी हों अथवा आतंकवादी हों। यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो ऐसी प्रवृति के लोगों में अधिकांश का रहन-सहन आसुरी ही हो जाता है। वहीं, यदि राक्षसों को किसी कुल अथवा कबीले के रूप में देखें तो यह माना जा सकता है कि निर्दयी कबीले दयावान कबीलों पर आक्रमण करते थे और उनकी स्त्रियां, उनकी भूमि, उनके पशुधन पर अधिकार पा लेना चाहते थे। इसे सुर-असुर संग्राम कह सकते हैं। दयावान कबीलों में संस्कृति का वह विकास हुआ जिसने कालांतर में असुर कबीलों को भी प्रभावित किया और वे भी निर्दयता को त्याग कर स्वयं को बदलते चले गए। यहां आशय वर्तमान चिन्हित वनांचल समुदाय से कदापि नहीं है, क्योंकि असुर कबीलों के भी अपने बड़े-बड़े राज्य हुआ कहते थे जिसे बलि, रावण आदि के रूप में हम जान सकते हैं। 

वस्तुतः यह विषय अत्यंत विस्तृत है। एक संक्षिप्त विचार बिन्दु इस लेख में रखा गया है। राक्षसों अथवा असुरों की संकल्पना माया एवं योरोपीय संस्कृतियों में भी पाई जाती है। वहां भी असुरों की कथाएं प्रचलित हैं। जहां तक आचरण से असुर होने पर उसे राक्षस कहे जाने का उदाहरण मध्यकालीन योरोप की ड्रैकुला की कथा में मौजूद है जिसमें एक विलासी राजा इंसानी रक्त पीता था। वस्तुतः सुर और असुर का युद्ध मानवीय चरित्रों के अच्छे और बुरे के बीच का युद्ध है, जो हमेशा चलता रहेगा।  
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