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Tuesday, November 1, 2022

पुस्तक समीक्षा | मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता दोहा संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 01.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई गीतकार डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के दोहा संग्रह "आशीषों के मेह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता दोहा संग्रह
- समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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काव्य संग्रह  - आशीषों के मेह
लेखक      - डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक    - जनशक्ति प्रकाशन, आर 2/29,रमेश पार्क, गुरुद्वारा रोड, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-92
मूल्य       - 350/-
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डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने अपनी वर्षों की काव्य साधना के दौरान अब तक विविध विधाओं के कई काव्य संग्रह पाठकों को दिए हैं। यह काव्य संग्रह -‘आशीषों के मेह’ उनका दोहा संग्रह है। दोहा साहित्य का एक बहुत पुराना छन्द है। सदियों से यह छन्द अलग-अलग युगबोध और भावों को अभिव्यक्ति देता रहा है। भक्ति के दोहे, वीर रस के दोहे, नीतिपरक दोहे, श्रृंगार के दोहे आदि के रूप में दोहा लोक-काव्य में समा कर कालजयी विधा बनता गया। दोहा हिन्दी भाषा के साथ-साथ लगभग सभी भारतीय भाषाओं में प्रचलित हैं। कबीर के दोहे, तुलसी के दोहे, रहिम के दोहे भारतीय जन मानस में बसे हुए हैं। परम्परागत हिन्दी मुक्तक काव्य में दोहा अकेला ऐसा छन्द है जो अपनी लघुता तीक्ष्णता और सम्प्रेषणीयता के कारण जनमानस में सदैव लोकप्रिय बना रहा है। इसका प्रमुख कारण यही है कि दोहे ने समय के साथ-साथ अपने कथ्य को बदला है। ‘दोहा छन्द’ के रचना विधान अथवा अनुशासन के नियम दोहाकार को मानने पड़ते हैं अन्यथा न तो उसकी रचना को ‘दोहा’ कहा जाएगा और न ही उसे ‘दोहाकार’। संस्कृत वांग्मय के अनुसार ‘दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्‘ अर्थात जो श्रोता व पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है । दोहे की दों पंक्ति में ‘गागर में सागर’ जैसे भाव भरा होता हैं । दोहा एक मुक्तक छंद है इसलिये दोहा में बिना पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती प्रसंग के एक ही दोहा में पूर्ण अर्थ और चमत्कार को प्रकट किया जाता है । दोहे में भाव को इस प्रकार पिरोया जाता है कि उसका कथ्य इने दो ही पंक्तियों में पूर्ण अर्थ देता हो, इनके अर्थ की सार्थकता के लिये और पंक्ति की आवश्यकता न हो । दोहे में शब्दों का चयन इस प्रकार होना चाहिये के वह जिस अर्थ के लिये लिखा जा रहा हो वही अर्थ दे।
काव्य में छांदासिकता का अपना अलग महत्व है। काव्य में छंद के प्रयोग से पाठक या श्रोता के हृदय में सौंदर्य बोध की गहरी अनुभूति होती है। छंद में यति , गति के सम्यक का निर्वाह से पाठक को सुविधा होती है। छंदबद्ध कविता को सुगमता से कंठस्थ किया जा सकता है। छंद से कविता में सरसता, गेयता के कारण अभिरुचि बढ़ जाती है। मानवीय भावनाओं को झंकृत कर उसके नाद सौंदर्य में वृद्धि करता है। जहां तक बात ‘आशीषों के मेह’ के दोहों की है, तो इसमें संकलित सभी दोहे न केवल ‘दोहा छन्द’ के रचना विधान की कसौटी पर खरे उतरते हैं, अपितु दोहे के रूप में अपनी प्रभावी क्षमता और दोहाकार की साहित्य साधना को भी मुखर करते हैं। वस्तुतः छंदों के कठोर बंधन में बंधी दोहा शैली देखने में जितनी सरल व सहज प्रतीत होती है लेखन में उतनी ही जटिल व दुरुह होती है। डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया ने दोहों की दो-दो पंक्तियों में अपार भाव सम्पदा का समावेश कर गागर में सागर भरने श्रमशील प्रयास किया है।
डाॅ. सीरोठिया के दोहे जहां शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं वहीं लक्ष्य-संधान की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। उन्होंने अपने दोहों में अपार भाव सम्पदा का समावेश कर गागर में सागर भरने की कोशिश की है। डाॅ. सीरोठिया इन दोहों में युगीन विसंगतियों व विकृतियों के विरुद्ध अपना आक्रोश दर्ज करवाते हैं परंतु उनकी आवाज में न तो क्रोध है और न ही नारेबाजी। सामाजिक, पारिवारिक व मानवीय संबंधों के मध्य कड़वाहट व बिखराव के प्रति उनकी पीड़ा भी इन दोहों में प्रकट हुई है लेकिन वे इससे निराश नहीं हैं, वे सकारात्मक भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। लोकचेतना, संघर्ष और प्रेम उनके दोहों के मुख्य स्वर हैं। उनके दोहों का मूल धर्म अपने समय, समाज और स्वयं से संवाद है। अनुभूति की प्रामाणिकता व अभिव्यक्ति की सात्विकता डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया के सृजनकर्म के आधार हैं। वे सहानुभूति को स्वानुभूति के स्तर पर ले जाकर लिखते हैं। उनके दोहों में आत्मीयता, सांसारिकता, भावबोध, युगबोध के साथ ही आध्यात्म का सुंदर स्वर है। कुछ उदाहरण देखें-
हमको  मन  के  अक्ष से ,  दिखे  दिव्य संसार।
भला-बुरा, सत-असत सब, इस जीवन का सार।।
भले   साथ  कोई  नहीं,  लक्ष रहें  व्यवधान।
किन्तु  अडिग  संकल्प हों तो मंज़िल आसान।।

डाॅ. सीरोठिया आदिकालीन प्रसंगों को अपने दोहों में पिरोते हुए जीवन के लिए आवश्यक आचरण का बहुत सहज ढंग से आग्रह करते हैं-
रण में अर्जुन,  कर्ण है, माता  हुई  अधीर।
वध हो चाहे किसी का, होय पृथा को पीर।।
रुक जाओ, जब भी कभी, प्रथा रोकती राह।
परम्पराओं  की   करो,  आदर से परवाह।।
वृथा कभी जाती नहीं, निश्छल मन की टेर।
सुनते  दीनदयालु  हैं,  भले लगे कुछ देर।।

आज के संवेदनहीन समय में डाॅ. सीरोठिया के दोहे जन-मन में संवेदना को बचाने की एक सार्थक पहल करते दिखाई देते हैं। वे परस्पर मन के उद्वेगों को जानने और परखने का आग्रह करते हैं तथा संसार की नश्वरता का स्मरण कराते हैं-
मुख पर आती भंगिमा, कहे हुदय की बात।
प्रीति, कपट, छल, बैर है या निछल सौगात।।
जीवन क्षण भंगुर कहें, सभी सनातन धर्म।
किन्तु मोह जाता नहीं, कब समझेंगे मर्म।।

डाॅ. सीरोठिया के कवि-मन ने इस बात का उलाहना भी दिया है कि आज के समय में धनबल के प्रयोग से अयोग्य व्यक्ति सम्मान पाता है और योग्य व्यक्ति ठगा-सा खड़ा रह जाता है। ठीक वहीं, वे इस बात का भरोसा भी दिलाते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्थाएं सदा नहीं रहती हैं। अंधकार के बाद प्रकाश अवश्य आता है-
संस्कार से हीन भी , रहे अगर अभिजात।
पा जाता सम्मान की, सामाजिक सौगात।।
दिनकर को संवृत करे, जब भी काले मेह।
किसी तरह उजयार पर, मत करना संदेह।।

यूं तो डाॅ. सीरोठिया का दोहा संग्रह अपने समग्र दोहों के साथ प्रस्तुत है किन्तु उनके दोहों की बानगी देना जरूरी-सा लग रहा है जिससे इस संग्रह का पाठक इन दोहों की भावभूमि से स्वयं को जोड़ कर इनका भरपूर रसास्वादन कर सके। इसी तारतम्य में कुछ और दोहे यहां देना समीचीन होगा-
मिले सभी को देश में, कुछ मौलिक अधिकार।
किन्तु रहे  कर्तव्य का,  नीति परक व्यवहार।।
बना रहे हैं धर्म को, कौलिक निज व्यापार।
ठगी जा रही भावना, बढ़े नित्य व्यभिचार।।
भौगोलिक सीमा रखे, सदा देश का मान।
सीमाओं से  देश की, बनती है  पहचान।।

कवि पाठकों को मन के अंदर झांकने की अनुमति भी प्रदान करता है। कवि ने निःसंकोच भाव से उन्मुक्त होकर अपने मन के भावों को गढ़ा है। इन कविताओं में बनावट नहीं है। इस संगह में  कवि ने ईश्वर की आराधना, प्रार्थना और उससे जुड़ी अपेक्षाओं को स्थान दिया है। इसमें सामाजिक शिक्षा और प्रेरणा के भाव हैं।
छांव पिता की हो घनी, मां की ममता गोद।
जीवन सुखमय है यही, मिलता यहीं प्रमोद।।
देर उदासी को करे, हो जब कहीं विनोद।
सकारात्मक सोच से, जीवन  में  आमोद।।
कृत्य बुरे जो भी करें, दुख पाते हैं लोग।
बनता है प्रभुकृपा से, सदकर्मों का योग।।

डाॅ. सीरोठिया ने अपने दोहों में जिस तरह कोमलता और स्निग्धता को अपनाया है, वह मन को एक अनूठी रसात्मकता से सिक्त करने में सक्षम है। उन्होंने दोहा छन्द को बखूबी साधा है। उनकी शैली में तरलता और सरलता दृष्टिगोचर होती है तथा उनके कथ्य माधुर्य को प्रतिध्वनित करते हैं। संतुलित शब्द चयन के साथ ऐसा प्रवाहपूर्ण, सहज  दोहा सृजन आजकल बिरले ही देखने को मिलता है। इस दृष्टि से उनका दोहा संग्रह ‘‘आशीषों के मेह’’ मानवीय संवेदनाओं को मुखर करता छांदासिक रसबोध का एक बेहतरीन संग्रह है।                  
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