Wednesday, October 25, 2017

चर्चा प्लस ... स्वप्नजीवी सरकारी योजनाएं - डॉ. शरद सिंह प्लस

Dr (Miss) Sharad Singh

मेरा कॉलम चर्चा प्लस दैनिक सागर दिनकर में (25.10.2017)

 
स्वप्नजीवी सरकारी योजनाएं
 
- डॉ. शरद सिंह 

इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार बहुत अच्छी योजनाएं बनाती है लेकिन सभी अच्छी योजनाओं का क्रियान्वयन क्या सचमुच अच्छी तरह हो सकता है? यह जरूर संदेह का विषय है। जहां औरतों, लड़कियों यहां तक कि नाबालिग बालकों के साथ भी अनैतिक कार्यों का ग्राफ चौंकाने वाला हो उस वातावरण में बाईक-टैक्सी कितनी सुरक्षित हो सकती है? या फिर यह कि बच्चे एप्प पर शिकायत करेंगे कि उन्हें दिया गया मध्यान्ह भोजन अच्छा था कि नहीं, जबकि भयवश तो अच्छे-अच्छे दमदार लोग भी ग़लतबयानी कर जाते हैं। यह समझ से परे है कि ज़मीनी सच्चाई और सरकारी योजनाओं में इतनी दूरी क्यों रहती है? क्या हर सपना सच्चाई की धूप में खरा उतर सकता है? करोड़ों खर्च होने के बाद यदि सपने की कटु सच्चाई सामने आए भी तो क्या लाभ? 
Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper

यदि आज के समय में कोई पूछे कि स्वप्नजीविता क्या है तो इसका सटीक उत्तर होगा-‘‘बहुसंख्यक सरकारी योजनाएं’’। अभी हाल ही में दो-तीन सरकरी योजनाओं की घोषणा की गई है ये भी स्वप्नजीविता की बेहतरीन उदाहरण कही जा सकती हैं। स्वप्नजीविता यानी सपनों में जीना। सच्चाई के खुरदुरेपन से दूर मखमली सपनों में सब कुछ आनन्द में डूबा, सही और विकसित दिखाई देता है। व्यवहारिकता का इससे वस्ता सिर्फ़ इतना ही रहता है कि इनकेेेेेेे क्रियान्वयन में करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं और हाथ अगर कुछ आता है तो असफलता और जांच आयोग। हाल ही में जो दो योजनाएं मध्यप्रदेश में घोषित की गई हैं वे निश्चितरूप से उम्दा हैं। यदि ये योजनाएं सामान्य परिस्थितियों में लागू होतीं तो इनका परिणाम विकास में चार चांद लगा देता लेकिन सरकार को इन योजनाओं के बारे में सुझाव देने वाले विद्वान भूल गए कि परिस्थितियां इनके ठीक विपरीत हैं।
दोनों में से पहली योजना को ही लें, यह है बाईक-टैक्सी योजना। बदलती जीवनशैली और शहरों में ट्रैफिक समस्या या बढ़ते वाहनों की भीड़ के मद्देनजर अब सरकार मोटरसाइकिल का भी कॉमर्शियल लाइसेंस जारी करेगी। ताकि मोटरसाइकिल का इस्तेमाल टैक्सी की तरह बाइक टैक्सी (बैक्सी) के रूप में हो सके। इससे जहां एक तरफ लोगों को रोजगार मिल सकेगा, वहीं दूसरी तरफ लोग कम पैसे में और कम समय में अधिक ट्रैफिक की स्थिति में भी अपने गंतव्य स्थल तक पहुंच सकेंगे। यद्यपि बैक्सी नया कॉन्सेप्ट नहीं है। भारत में भी यह राजस्थान, गोवा, गुजरात, नोएडा, गुरुग्राम और गाजियाबाद में शुरू हो चुका है लेकिन अभी लोगों के बीच ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो सका है। बैक्सी का एप लोड करने के बाद दो विकल्प मिलेंगे, जिसमें पिकअप और ड्रॉप लिखना होगा। ड्रॉप और पिकअप लिखने के बाद संभावित किराया भी पता लगाया जा सकेगा। सभी बाइक चालकों के पास स्मार्ट फोन होगा। चालक एप की मदद से आपकी स्थान (लोकेशन) खोज लेगा और आपके घर पहुंच जाएगा। इस तरह घर बैठे आप बाइक टैक्सी को बुला सकेंगे। मध्यप्रदेश में सरकार ने किराए पर बाईक देने की योजना को सामने रखा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस प्रकार की सवारी सुविधा सस्ते दर में उपलब्ध हो सकेगी और तंग गलियों में भी पहुंचा सकेगी।
क्या इस प्रकार की बाईक-सेवा सुरक्षित होगी जबकि महिलाओं और बालक-बालिकाओं के प्रति अपराध के आंकड़ें असुरक्षा की एक अलग ही कहानी कह रहे हों। एक राष्ट्रीय जांच सर्वे के अनुसार भारत में हर एक घंटे में 22 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। ये वे आंकड़े हैं जो पुलिसथानों में दर्ज कराए जाते हैं। अनेक मामले तो पुलिसथानों तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। अकसर लोकलाज को आधार बनाकर पीड़िता के परिजनों द्वारा मामला दबा दिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली जैसे महानगर में उबेर कंपनी के टैक्सी चालक द्वारा अपनी महिला सवारी से बलात्कार करने की घटना सुर्खियों में छाई रही। महिलाओं के प्रति अपराध की संभावना भीड़ भरे वातावरण में अपेक्षाकृत कम रहती है। इसीलिए स्वयं महिलाएं भी सिटी बस, टेम्पो, टैक्सी या ऑटोरिक्शा को प्राथमिकता देती हैं जिनमें अन्य सवारियां भी रहती हैं। क्या सागर, जबलपुर, कटनी, झाबुआ जैसे छोटे शहरों की महिलाएं बाईक टैक्सी में जाना पसंद करेंगी? यदि वे बाईक टैक्सी को अपनाएंगी भी तो क्या यह उनके लिए सुरक्षित होगा? फिर महिलाएं बाईक टैक्सी में जाएं या न जाएं किन्तु युवाओं और बच्चों को तो वह आकर्षिक करेगी ही। उल्लेखनीय है कि एक ओर बच्चों के साथ यौन शोषण के बढ़ते मामलों के बीच एनसीईआरटी चाहता है कि छात्र गुड टच और बैड टच के बीच का अंतर पहचानें और उन्हें किताबों में यह पढ़ाया जाए कि यौन शोषण का सामना करने पर उन्हें क्या करना चाहिए। स्कूली पाठ्यक्रमों और पुस्तकों पर केंद्र और राज्य सरकार को सुझाव देने वाले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने कहा है कि अगले सत्र से उसकी सभी किताबों में ऐसे मामलों से निपटने के लिए क्या करना चाहिए, इसकी एक सूची होगी। इसमें पोक्सो कानून और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के बारे में जानकारी देने के साथ ही कुछ हेल्पलाइन नंबर भी होंगे। एनसीईआरटी के अनुसार शिक्षकों को गुड और बैड टच के बीच अंतर बताने के लिए छात्रों को शिक्षित करने की कोशिश करनी चाहिए। इसीलिए तय किया गया है कि अगले शिक्षण सत्र से एनसीईआरटी की सभी किताबों के पीछे वाले कवर के अंदर की तरफ आसान भाषा में कुछ दिशा निर्देश होंगे। इसमें छूने के अच्छे और बुरे तरीके के बारे में कुछ चित्र भी होंगे। कुछ हेल्पलाइन नंबर भी होंगे, जहां छात्र या अभिभावक ऐसे मामलों की रिपोर्ट कर सकते हैं या कोई मदद या काउंसिलिंग मांग सकते हैं। गुरुग्राम (हरियाणा) में एक निजी स्कूल में सात वर्षीय लड़के की हत्या और दिल्ली में एक स्कूल के चपरासी द्वारा पांच साल की बच्ची का बलात्कार किए जाने की घटनाओं के मद्देनजर छात्रों की सुरक्षा को लेकर बढ़ रही चिंताओं के बीच यह कदम उठाया गया। सीबीएसई ने पिछले सप्ताह स्कूलों से अपने शिक्षण और गैर शिक्षण कर्मचारियों का पुलिस वेरिफिकेशन कराने के साथ-साथ साइकोमेट्रिक जांच कराने के लिए भी कहा। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर ने स्कूली बसों के लिए महिला चालकों की भर्ती करने का भी सुझाव दिया। वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारों द्वारा बाईक-टैक्सी योजना सामने रखी जा रही है।
प्रदेश में कानून व्यवस्था की दशा यह है कि स्वयं पुलिसवाले असुरक्षित दिखाई देते हैं। मध्यप्रदेश के छतरपुर जिला मुख्यालय में कोतवाली थाना क्षेत्र में आरक्षक की गोली मारकर हत्या कर दी गई। मामला ठंडा नहीं हुआ कि एक और नया मामला सामने आ गया। छतरपुर के ही सिविल लाइन थाना में पदस्थ आरक्षक दुवेश सोनकर अपने परिजनों को ट्रेन में बैठाने के लिए पन्ना रोड स्थित महाराजा छत्रसाल रेलवे स्टेशन छतरपुर पहुंचे। जहां पर करीब 5-6 गुंडे आए और आरक्षक की कालर पकड़कर गाली-गलौज करने लगे। साथ धक्कामुक्की की और स्टेशन पर मौजूद लोग तमाशाबीन बने रहे। इस दौरान गुंडों ने आरक्षक को जान से मारने की धमकी देते हुए कहा कि चंद्रपुरा आओ, तो काट कर फेंक देंगे। पीड़ित आरक्षक ने इस बात की सूचना तत्काल ही सिविल लाइन पुलिस को दी, लेकिन जब तक पुलिस पहुंची, तब तक गुंडे वहां से भाग चुके थे। इतना ही नहीं कोतवाली थाना क्षेत्र में हुई घटना का हवाला देकर गुंडों ने आरक्षक दुवेश को धमकाया। जब पुलिस आरक्षक ही सुरक्षित न हो तो आम जनता किसके भरोसे बाईक टैक्सी जैसी नई योजनाओं का स्वागत करें?
स्वप्नजीवी दूसरी योजना है कि अब बच्चे खुद खाने की गुणवत्ता जांचेंगे। महिला एवं बाल विकास विभाग के तहत संचालित आंगनवाड़ियों में मिड डे मील की गुणवत्ता स्वयं विभाग तय नहीं कर पा रहा हो तो बच्चे कैसे बताएंगे कि उसमें कार्बोहाइड्रेट कम है या प्रोटीन की मात्रा मानक स्तर से कम है? वैसे महिला एवं बाल विकास विभाग ने इसके लिए मोबाइल एप्प एमपीडब्ल्यूडी सीडी बनाया है। उस पर बताया जा सकेगा कि भोजन में प्रोटीन या कार्बोहाइड्रेट उचित मात्रा में नहीं है। अब ज़मीनी सच्चाई पर नज़र डाली जाए। गुणवत्ताहीन भोजन की शिकायत करने के लिए मोबाईल एप्प की व्यवस्था रहेगी। शून्य से छह साल तक के अधिकांश कुपोषित बच्चे ग्रामीण इलाकों से हैं। एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में एंडरायड मोबाईल कम लोगों के पास होते हैं, दूसरे जिनके पास होते भी हैैैैैैै वे सस्ते फोन रखते हैं जिनमें ढेर सारे एप्प लोड नहीं किए जा सकते हैं, तीसरे जब अच्छे-अच्छे दमदार लोग सच्चाई बयान नहीं कर पाते हैं तो छोटे-बच्चों को तो बड़ी आसानी से अपने पक्ष में किया जा सकता है। इन तीनों से भी बड़ी सच्चाई कि कोई छः साल का ग्रामीण बच्चा मोबाईल एप्प से शिकायत कैसे दर्ज़ करा सकेगा? इस योजना एक अर्थ यह भी है कि मिड डे मील की गुणवत्ता पर निगरानी रखने वाले संदेह के दायरे देखे जा रहे हैं या उन पर लगाम लगाना सरकार को कठिन लग रहा है।
हर सरकार अच्छे काम करना चाहती है। वह जनता पर अपने प्रशासनिक कौशल और अपनी योजनाओं की छाप छोड़ना चाहती है लेकिन वह अपनी इस आकांक्षा में तभी कामयाब हो सकती है जब उसकी योजनाएं ज़मीनी स्तर पर खरी उतरती हों। यह समझ से परे है कि ज़मीनी सच्चाई और सरकारी योजनाओं में इतनी दूरी क्यों रहती है? क्या हर सपना सच्चाई की धूप में खरा उतर सकता है? करोड़ों खर्च होने के बाद यदि सपने की कटु सच्चाई सामने आए भी तो क्या लाभ? कई राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो ज़मीन से जुड़े हुए हैं कम से कम उनसे तो यह अपेक्षा की ही जा सकती है वे अपने अमले को व्यावहारिक योजनाएं बनाने की सलाह दें। यह उनकी जनहितप्रिय छवि के लिए भी आवश्यक है।
---------------------------
#शरद_सिंह #मेरा_कॉलम #चर्चा_प्लस #दैनिक #सागर_दिनकर #स्वप्नजीवी #सरकारी #योजनाएं #बैक्सी #मिडडेमील #महिला_बाल_विकास #एप्प

Saturday, October 21, 2017

चर्चा प्लस ... अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद का समय - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद का समय
- डॉ. शरद सिंह 

 
(मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस' दैनिक 'सागर दिनकर' में, 18.10.2017)


गुलामी से आजाद हुए वर्षों व्यतीत हो गए लेकिन ग़रीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, धर्मांधता, पाखंड जैसी समस्याएं आज भी जस के तस हैं। हर दशहरे पर हम आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण को जलाते हैं और हर दीपावली को दीपक से घरों को जगमगा कर सुख-समृद्धि, धन-धान्य का आह्वान करते हैं। हम कामना करते हैं कि समृद्धि की देवी लक्ष्मी आए और हमारे कष्टों को दूर कर दे। उस समय हम भूल जाते हैं कि मंहगाई देवी लक्ष्मी नहीं बढ़ाती है, आर्थिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण मंहगाई बढ़ती है और अपनी इन कमियों के विरुद्ध हम स्वयं डट कर खड़े नहीं होते हैं। इस बार दीपावली पर हम तमाम भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था के अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद करने का निश्चय करें तभी सच्चे अर्थ में दीपक जगमगा सकेंगे। 

Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper

यह प्रतिदिन का कार्य है कि शाम को अंधेरा घिरते ही हम अपने-अपने घरों में बल्ब, ट्यूबलाईट, दिया-बाती, चिमनी आदि किसी न किसी साधन से उजाला कर ही लेते हैं। अंधेरा होते ही ऊंची अट्टालिकाओं से ले झुग्गी झोपड़ी तक मनुष्य प्रकाश की व्यवस्था कर लेता है। फिर अपने जीवन के उस अंधकार को मिटाने के प्रश्न पर हम असहाय और निर्बल बन कर क्यों खड़े हो जाते हैं। माना कि भ्रष्टाचार और अव्यवस्था की जड़ें हमारे जीवन में बहुत गहरे तक समा चुकी हैं और भ्रष्टाचार का अंधेरा हमारे जीवन के सुख-चैन के प्रकाश को निगलता जा रहा है। लेकिन ये भ्रष्टाचारी हैं कौन? ये कोई एलियन यानी किसी दूसरे ग्रह से आए हुए प्राणी तो नहीं हैं, ये तो हमारे बीच के, हमारे अपने लोग ही हैं, फिर हम इन्हें अंधेरा फैलाने से रोक क्यों नहीं पाते हैं? कहीं हम कायर तो नहीं होते जा रहे हैं? मुझे याद है अपने बचपन में देखा हुआ महिलाओं द्वारा किया गया वह विरोध जिसने जिला प्रशासन को झुकने के लिए विवश कर दिया था। वह कोई बड़ा आंदोलन नहीं था। महिलाओं के समूह द्वारा किया गया एक छोड़ा-सा विरोध प्रदर्शन था। घटना सागर संभाग के पन्ना जिला मुख्यालय की है। यू ंतो पन्ना में तालाबों की कोई कमी नहीं है लेकिन अव्यवस्था के कारण मोहल्ला रानीगंज में पेयजल का संकट खड़ा हो गया। मोहल्लेवालों ने जिला प्रशासन से शिकायत की। जब इससे भी काम नहीं बना तो एक दिन मोहल्ले की समस्त महिलाएं खाली घड़े ले कर कलेक्ट्रेट कार्यालय के रास्ते पर बैठ गईं। महिलाओं के उस हुजूम में हाथ-हाथ भर का घूंघट (जो उस समय चलन में था) चेहरे पर डाले बहुएं भी शामिल थीं। जब तक जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों ने पेयजल समस्या को सुलझाने का वादा नहीं किया तब तक वे रास्ते पर डटी रहीं। प्रदर्शनकारियों द्वारा न तो कोई तोड़-फोड़ की गई और न कोई उद्दण्डता की गई। यह घरेलू महिलाओं द्वारा किया गया एक ईमानदार विरोध था जिसने प्रशासन को जागने को मजबूर कर दिया। विरोध का यह तेवर अब दिखाई ही नहीं देता है। ऐसा लगता है कि गोया सारा विरोध सोशल मीडिया तक सिमट कर रह गया है। जो विरोध सड़कों पर दिखाई देता है उसमें प्रायोजित तत्वों की इतनी मिलावट रहती है कि जिसके परिणामस्वरूप लाठीचार्ज, आगजनी के दृश्य निर्मित हो जाते हैं और निरपराधों के रक्त की नदियां बहती दिखाई देती हैं। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार के विरोध के रास्ते हें पता नहीं हैं लेकिन हजारों में से कोई एक होता है जो भ्रष्टाचारी को पकड़वाने के लिए आर्थिक अपराध शाखा की मदद लेता है। जब कोई किसी भ्रष्टाचारी को रंगेहाथों पकड़वाता है तो हम उस समाचार को पढ़ कर खुश होते हैं, उस पर दिनभर जुगाली करते हैं, उस समाचार को गर्मजोशा से व्हाट्सअप करते हैं लेकिन उसके बाद किसी अन्य भ्रष्टाचारी को पालने-पोसने वालों की पंक्ति में जा कर खड़े हो जाते हैं।
चर्चा करने में बात बहुत घिसी-पिटी और पुरानी सी लगती है कि समाज में दहेज लिया और दिया जाता है। दहेज के विरुद्ध कानून भी बने हुए हैं लेकिन प्रति वर्ष देश में करोड़ों शादियां दहेज का लेन-देन करते हुए होती हैं। अधिक हुआ तो दोनों पक्ष झूठ बोल देते हैं कि हमने तो कुछ लिया-दिया ही नहीं। रही-सही कसर सरकार पूरी कर देती है सामूहिक विवाहोत्सवों में गहने, कपड़े और गृहस्थी का सामान दे कर। मुफ़्तखोरी की बुनियाद पर नए जीवन की शुरूआत होने से मेहनत की रोटी अच्छी कैसे लगेगी? इस तरह की योजनाएं सामाजिक संस्थाओं के सुपुर्द ही रहे तो सही जरूरतमंद को इसका लाभ मिलेगा वरना हर साल कई शादीशुदा जोड़े फिर से फेरे लेते नज़र आते रहेंगे।
मुफ़्तखोरी की बात जब चली ही है तो इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि राजनीतिक लाभ के लिए या वोट बटोरने के लिए अथवा सस्ती लोकप्रियता के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को मुफ़्त बिजली, मुफ़्त रसोई गैस कनेक्शन जैसे लाभ दिए जाते हैं। जिसका बोझ प्रत्यक्ष रूप से सरकार उठाती दिखाई देती है जबकि असली बोझ पड़ता है हर नागरिक पर। तरह-तरह के टैक्स के रूप में प्रत्येक नागरिक उस बोझ को ढोता है। यह बोझ किसी को भी बुरा न लगे यदि सही व्यक्तियों को लाभ मिल पा रहा हो और इससे उनमें मेहनत करने की भावना जागती हो। ज़मीनी सच्चाई इससे भिन्न है और यह सच्चाई किसी से छिपी भी नहीं है फिर भी इस तरह की योजनाएं चलती रहती हैं। जरा सोचिए कि एक बार किसी व्यक्ति को कुकिंग गैस का चूल्हा और सिलेंडर मुफ़्त में दे भी दिया जाए तो वह एक सिलेंडर जीवन भर तो चलेगा नहीं। अगली बार वह सिलेंडर कैसे भरवाएगा? क्या बेहतर नहीं है कि उसे ऐसा रोजगार दिया जाए जिससे वह स्वयं गैस-चूल्हा, सिलेंडर आदि खरीदने की क्षमता पा सके। राजनीति में तो सभी एक-दूसरे पर तोहमत लगाते रहते हैं। एक कहता है कि तुम्हारे शासन में ग़रीबी बढ़ी तो दूसरा कहता है मेरे नहीं, तुम्हारे शासन में ग़रीबी बढ़ी। ग़रीबी हटाने का वादा हर शासन करता है लेकिन आजादी की लगभग तीन चौथाई सदी बाद भी ग़रीबी समाप्त नहीं हुई है। वरन् आर्थिक अस्थिरता बढ़ती ही जा रही है। करों और निजी क्षेत्रों की भूल-भुलैया में प्रत्येक नागरिक भ्रमित-सा घूम रहा है। लेकिन लगता है जैसे वह इस भ्रम से उबरना ही नहीं चाहता है।
कला कभी कलंक नहीं होती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए ‘‘ताजमहल हमारी संस्कृति पर कलंक है’’ जैसे मानसिक प्रदूषण का भी विरोध करना होगा। यदि हमारी सोच इतनी संकुचित हो जाएगी तो फिर हम में और तालिबानों में क्या अन्तर रह जाएगा जिन्होंने बाम्बियान (अफ़गानिस्तान) में महात्मा बुद्ध की अनुपम प्रतिमा को ध्वस्त कर दिया था। हमारी संस्कृति में ऐसी संकुचित सोच के लिए कोई जगह नहीं है और न कोई जगह होनी चाहिए। वाद-विवाद स्वस्थ मुद्दों पर हों तो सुपरिणाम देते हैं अन्यथा गाली-गलौच की सूरत में बदलते चले जाते हैं। भारतीय संस्कृति शास्त्रार्थ की संस्कृति रही है, गाली-गलौच की नहीं।
एक बात और कि जब कोई तथाकथित बाबा पकड़ा जाता है तो हम चौंक जाते हैं और थू-थू करने लगते हैं लेकिन हम उस व्यक्ति की सच्चाई का आकलन करने के बारे में कभी सोचते ही नहीं है जिसे हम स्वयं ‘बाबा’ या ‘मां’ के रूप् में पूज रहे होते हैं। भले ही वह ‘बाबा’ सोने के सिंहासन पर विराजते हो या ‘मां’ फिल्मी गानों की धुन पर नाचती हो। अचम्भा तो तब होता है जब अच्छा-खासा पढ़ा-लिखा तबका ऐसे बाबाओं और मांओं की धुन पर बेखबर नाचता-झूमता नज़र आता है। जंगल बचाने और हरियाली लाने की बातें तो खूब होती हैं लेकिन सच तो यह है कि हम अपने मोहल्ले में एक पार्क भी बना नहीं पाते हैं। जो पार्क बने हुए हैं उनको बचाने की भी सुध हमें नहीं रहती है। यहां तक कि जब हम घर बनवाते हैं तो उसमें एक ऐसा छोटा-सा स्थान भी नहीं रखते हैं जिसमें कोई पेड़ लगा सकें। आमतौर पर हमारा हरियाली प्रेम गमलों में सिमट कर रह जाता है। वर्तमान आचार-व्यवहार को देख कर यही लगता है गोया हमें अपनी अगली पीढ़ी की भी चिंता नहीं है। ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जंगलों का अभाव, पानी की किल्लत, नौकरियों की अस्थिरता आदि की विरासत हमारी आने वाली पीढ़ी को कब तक सहेज पाएगी? सच तो ये है कि हमें अपने भीतर के अंधेरे को समझना होगा और उसके विरुद्ध खड़े होना होगा। अपनी कमजोरियों के अंधेरों को मिटाना होगा और आने वाली पीढ़ियों की जरूरतों से सरोकार रखना होगा।
गुलामी से आजाद हुए वर्षों व्यतीत हो गए लेकिन ग़रीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, धर्मांधता, पाखंड जैसी समस्याएं आज भी जस के तस हैं। हर दशहरे पर हम आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण को जलाते हैं और दीपावली को दीपक से घरों को जगमगा कर सुख-समृद्धि, धन-धान्य का आह्वान करते हैं। हम कामना करते हैं कि समृद्धि की देवी लक्ष्मी आए और हमारे कष्टों को दूर कर दे। उस समय हम भूल जाते हैं कि मंहगाई देवी लक्ष्मी नहीं बढ़ाती है, आर्थिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण मंहगाई बढ़ती है और अपनी इन कमियों के विरुद्ध हम स्वयं डट कर खड़े नहीं होते हैं। हमें ‘अप्प दीपो भव’ के आचरण को अपनाना होगा ताकि अपनी कमियों, अपनी भीरुता, अपनी असंवेदनशीलता के अंधकार को मिटा सकें। इस बार दीपावली पर हम तमाम भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था के अंधेरे के विरुद्ध शंखनाद करने का निश्चय करें तभी सच्चे अर्थ में दीपक जगमगा सकेंगे।
एक दीपक तो जलाओ
दूर हो मन का अंधेरा
क्लेश मिट जाएं, रहे बस
रोशनी का ही बसेरा

------------------------------------

#शरद_सिंह #चर्चा_प्लस #मेरा_कॉलम #सागर_दिनकर #दीपक #दीपावली #ताजमहल #बाम्बियान #अफगानिस्तान #भ्रष्टाचार #प्रदूषण #अंधेरा #शंखनाद #समय #भारतीय #संस्कृति

चर्चा प्लस ... स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस
 

स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम
- डॉ. शरद सिंह
 

( सागर दिनकर में मेरा कॉलम चर्चा प्लस, 11.10.2017)
जब हम दीपावली के समय लक्ष्मी-आगमन की कल्पना कर के यह स्वीकार करते हैं कि देवी लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती हैं तो फिर दीपावली की रात छोड़ कर शेष 364 रातों में देवी लक्ष्मी का अनादर क्यों करते हैं? यदि हमेशा स्वच्छता बनी रहे तो हमेशा लक्ष्मी आएंगी न! इसीलिए दीपावली के घरेलू स्वच्छता अभियान के साथ हमें अपने मन के कोने-कोने को भी टटोलना होगा कि हम भारतीय दुनिया की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति वाले हो कर भी आज शौच और गली-मोहल्ले की स्वच्छता के अभियान के क्यों मोहताज़ हैं? 

 
Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper

दीपावली एक ऐसा त्यौहार है जो स्वच्छता के लिए प्रेरित करता है। बचपन में जब दीपावली पर निबंध लिखना पड़ता था तब उसमें हम अपने अनुभव से प्रेरित हो कर लिखते थे कि दीपावली पर घरों में साफ-सफाई होती है। खिड़की, दरवाजों और दीवारों पर रंग-रोगन किया जाता है। यह लिखते हुए हम सभी को अपने घरों में होने वाली सफाई, लिपाई और रंगा-पुताई याद आने लगती थी। उन दिनों घरों के सामने गोबर से लीप कर चूने या छुई से ढिग (आउटलाईन) धरी जाती थी। ऐसे आंगन आज शहरों में यकाकदा लेकिन गांवों में अभी भी देखने को मिल जाते हैं। गोबर से लिपे आंगन का एक साफ, गुनगुना अहसास। गोबर से लिपी मिट्टी वाले फर्श सीमेंट या टाईल्स के फर्श जितने ठंडे नहीं हुआ करते हैं। यद्यपि ऐसे गोबर लिपे फर्श में समाई रहती है स्त्रियों की कमरतोड़ मेहनत और घर को साफ-सुथरा रखने का जज़्बा।
आज हमने अपने रहन-सहन में बहुत प्रगति कर ली है। आज गांवों में भी पक्के मकान और सीमेंट के फर्श बनने लगे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि साफ़-सफ़ाई से रहने की भावना हम कहीं पीछे छोड़ आए हैं। पहले सीमित साधन अथवा साधनहीनता में भी जो कचरा-कूड़ा गांवों और शहरों के बाहर फेंका जाता था, उसे आज परस्पर एक-दूसरे के घर के सामने या फिर हमारे घरों के बीच खाली पड़े किसी प्लॉट पर फेंक कर सफाई का कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं। कहने को 21 वीं सदी में पहुंच गए हैं हम, रहन-सहन का स्तर और स्टाईल भी बदल लिया है लेकिन क्या यह शर्मनाक नहीं है कि आज भी हमें अपने लोगों को समझाना पड़ रहा है कि उन्हें शौच के लिए कहां जाना चाहिए? क्या यह लज्जित कर देने वाला संदर्भ नहीं है कि हमें ‘‘भारत स्वच्छता अभियान’’ चला कर स्वच्छता का महत्व और उसकी जरूरत समझाना पड़ रहा है? जो स्वच्छता के लिए उत्साह दीपावली के समय हमारे मन में जागता है वह साल के 365 दिन बना क्यों नहीं रह पाता है? इसीलिए दीपावली के घरेलू स्वच्छता अभियान के साथ हमें अपने मन के कोने-कोने को भी टटोलना होगा कि हम भारतीय दुनिया की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति वाले हो कर भी आज शौच और गली-मोहल्ले की स्वच्छता के अभियान के क्यों मोहताज़ हैं? ये अभियान ऐसे नहीं हैं जिन पर दुनिया की दृष्टि न पड़ रही हो, हमें सोचना होगा कि हम दुनिया के सामने अपनी कैसी छवि रख रहे हैं? यह हमारी भीरुता ही है कि जो आज भी गांवों और शहरों के भी अनेक हिस्सों में शौचालय नहीं हैं।
आधिकारिक रूप से 1 अप्रैल 1999 से शुरू, भारत सरकार ने व्यापक ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का पुनर्गठन किया और पूर्ण स्वच्छता अभियान शुरू किया जिसको बाद में 01 अप्रैल 2012 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा निर्मल भारत अभियान नाम दिया गया। स्वच्छ भारत अभियान के रूप में 24 सितंबर 2014 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी से निर्मल भारत अभियान का पुनर्गठन किया गया था। इसके बाद स्वच्छ भारत अभियान की विस्तृत रूपरेखा तैयार की गई। स्वच्छ भारत अभियान 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किया गया और 2019 तक खुले में शौच को समाप्त करना इसका उद्देश्य तय किया गया। यह एक राष्ट्रीय अभियान है।
सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक इकाइयां भी इस अभियान में अपना योगदान दे रही हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सच्चाई का एक अन्य पहलू भी है। सरकार की ओर से घर में शौचालय बनाने के लिए धनराशि दी जा रही है, शौचालय बनवाने के बाद उसकी तस्वीर सरकार के पास भेजे जाने का भी प्रावधान रखा गया है ताकि शौचालय बनवाने की झूठी रिपोर्ट तैयार न की जा सके। इस तरह सरकार के पास अपनी योजना के क्रियान्वयन का सबूत तो इकट्ठा हो जाता है किन्तु यह भी देखने में आया है कि शौचालय के मालिक सरकार के पीठ करते ही उस शौचालय के कमरे को दूसरे काम में लाने लगते हैं। शौचालय के कमरे से कमोड उखाड़ कर रसोईघर बना लेने तक की तस्वीरें सामने आई हैं। अब यदि हमारे प्रधान मंत्री यह कहते हैं कि मंदिर निर्माण से अधिक शौचालय निर्माण की आवश्यकता है तो हम शब्दों तक सीमित रहते हुए भड़क जाते हैं। उस हम बिना चिन्तन किए विपक्ष की कुर्सी पर जा बैठते हैं। जबकि यहां सवाल राजनीति का नहीं है बल्कि अपनी सोच बदलने का है। जब हम दीपावली के समय लक्ष्मी-आगमन की कल्पना कर के यह स्वीकार करते हैं कि देवी लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही प्रवेश करती है तो फिर दीपावली की रात छोड़ कर शेष 364 रातों में देवी लक्ष्मी का अनादर क्यों करते हैं? यदि हमेशा स्वच्छता बनी रहे तो हमेशा लक्ष्मी आएगी न।
बॉलीवुड भी स्वच्छता अभियान में गंभीरता से जुड़ गया है और फिल्म निदेशक नारायण सिंह की अक्षय कुमार और भूमि पेडनेकर द्वारा अभिनीत फिल्म ‘‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’’ इसका एक दमदार सबूत है। इस फिल्म ने लोगों के दिलों को भी छुआ। लेकिन फिल्म देखने के बाद कितने लोगों ने उसके कथानक की गंभीरता को समझा या आत्मसात किया, यह कहना कठिन है। सच्चाई यह भी है कि एक करोड़ में औसतन एक हज़ार लोग आज भी खुले में शौच के लिए जाते हैं और इस एक हज़ार की जनसंख्या में एक भी लड़की ऐसी नहीं होती है जो ससुराल में शौचालय है या नहीं, यह जानना चाहे। या फिर ससुराल में शौचालय न होने पर विवाह से मना कर दे। ससुराल और विवाह की बात तो छोड़िए, इन घरों की बेटियां अपने माता-पिता से भी घर में शौचालय बनवाने का हठ नहीं करती हैं। यह स्वच्छता, स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति चेतनाहीनता नहीं तो और क्या है? यह ठीक है कि कई परिवारों की स्थिति यह नहीं होती है कि वे शौचालय बनवाने के लिए जमीन या निस्तार के लिए र्प्याप्त पानी जुटा पाएं लेकिन ऐसे परिवार क्या सार्वजनिक शौचालय इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं? खुले में जाने से तो यह कहीं अधिक सुरक्षित है, विशेषरूप से महिलाओं और बच्चियों के लिए।
वैसे खुले मैंने स्वयं इस विडम्बना को झेला है। हुआ यूं था कि सन् 1998 में मंडला जिले के विक्रमपुर में मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह अपने मामा कमल सिंह जी के पास छुट्टी मनाने पहुंचे। मामा जी वहां हायरसेकेंड्री स्कूल में प्राचार्य थे। उन्होंने हमें आगाह किया था कि उनके घर और स्कूल में शौचालय नहीं है, आओगी तो ‘लोटा परेड’ करना पड़ेगा। हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया और विक्रमपुर पहुंचे। दूसरे दिन से ही हमें भी ‘लोटा परेड’ करनी पड़ी। शर्म तो बहुत आई मगर मजबूरी थी। उस आदिवासी बाहुल्य और वनसंपदा के धनी क्षेत्र के जंगल में घूमते हुए हमने गूलर के पके हुए फल खा लिए। बहुत स्वादिष्ट थे। लेकिन उसका खामियाज़ा दूसरे दिन भुगतना पड़ा जब ठीक उस समय लोटा परेड की आवश्यकता महसूस हुई जब घर के सामने स्थित स्कूल के सुबह के सत्र की छुट्टी का समय हुआ। इधर हम घर से लोटा ले कर निकले और उधर से स्कूल से दर्जनों लड़के-लड़कियां निकले। उनके लिए हमारा यूं लोटा लिए निकलना सहज बात थी लेकिन हमारे लिए कुछ भी सहज नहीं था। वह दिन ज़िन्दगी में कभी भुला नहीं सकती हूं। यद्यपि उस घटना ने मुझे ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं को समझने का एक और आयाम दिया। खुले में शौच जाना किस तरह किसी स्त्री के लिए अभिशाप बन सकता है, इस पर मैंने एक कहानी भी लिखी थी जिसका नाम था ‘मरद’। इस कहानी को अनेक प्रशंसक मिले। लेकिन दुख है कि कहानी लिखे जाने के डेढ़ दशक बाद भी समस्या जस की तस है।
एक बात और सोचने की है कि आज विदेश में रह रहे बच्चों और रिश्तेदारों से मिलने या फिर टूर-पैकेज पर पर्यटन के लिए विदेश जाने का तारतम्य बढ़ गया है। लेकिन विदेश घूम कर लौटने वाले, वहां की स्वच्छता से प्रभावित होने वाले भी भारत लौटते ही गोया स्वच्छता के सारे सबक भूल जाते हैं। उनके सारे अनुभव सोशल मीडिया की वॉल तक सीमित हो कर रह जाते हैं। अधिक से अधिक घर के भीतर की सजावट बदल लेते हैं लेकिन घर के बाहर खुली बजबजाती नालियों और कचरे के ढेरों की ओर ध्यान नहीं देते हैं।
जब प्रश्न घरेलू, ग्रामीण, नगरीय और देश की स्वच्छता का हो तो हमें राजनीति के चश्में को उतार कर स्वास्थ्य, सुरक्षा और सभ्यता के नजरिए से सोचना चाहिए। मंदिर अथवा किसी भी देवस्थल को हम साफ़ रखते हैं क्यों कि हम मानते हैं कि वहां देवता का वास होता है। फिर जिस देश में अनेक देवता वास कर रहों उसे हम साफ-सुथरा क्यों नहीं रख पा रहे हैं? तो चलिए, स्वच्छता की दीपावली साल भर मनाएं हम।
---------------------------

#शरद_सिंह #चर्चा_प्लस #सागर_दिनकर #दीपावली #टॉयलेट_एक_प्रेम_कथा #प्रधानमंत्री #नरेन्द्र_मोदी #भारत_स्वच्छता_अभियान #स्वच्छता

Wednesday, October 4, 2017

चर्चा प्लस ... कला राजनीतिक सीमाओं में न बंधे - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

मेरा कॉलम चर्चा प्लस, सागर दिनकर में, इस बार उन विदेशी कलाकारों के बारे में जो बॉलीवुड से जुड़े हुए हैं। 04.10.2017...



चर्चा प्लस
कला राजनीतिक सीमाओं में न बंधे
- डॉ. शरद सिंह 


कला सीमाओं में नहीं बंधना चाहती है। यही कारण है कि कलाकार भी देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देशों में अपनी कला का प्रदर्शन करने को आतुर रहते हैं। बॉलीवुड इसका अपवाद नहीं है। बॉलीवुड के कालाकार पाकिस्तानी फिल्मों में अभिनय करने गए तो पाकिस्तान से कई कलाकारों ने बॉलीवुड का रुख किया। इस समय तो अनेक देशों के कलाकार बॉलीवुड में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। वैसे भी वे नुकसानदायक नहीं हैं बल्कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का प्रचार ही करते हैं फिर उनके आने से परहेज क्यां किया जाए? बेहतर है कि राजनीति में बांधने की बजाए कला को कला ही रहने दिया जाए। 
Charcha Plus Column by Dr Miss Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily News Paper
‘मुझे जीवन भर इस बात का दुख रहा कि मुझे मेरी कला से नहीं बल्कि मेरी नस्ल से पहचाना गया। मैं विदेशी नहीं, भारतीय हूं। भारत मेरी जन्मभूमि है।’ यह कहा था टॉम आल्टर ने अपने एक साक्षात्कार में। इंग्लिश और स्कॉटिश पूर्वजों के अमेरिकी ईसाई मिशनरियों के पुत्र भारतीय नागरिक एवं भारतीय अभिनेता पद्मश्री स्व. टॉम आल्टर के पिता मसूरी में बस गए थे। उनके दादा दादी नवंबर 1916 में ओहियो से भारत आए थे। इलाहाबाद, जबलपुर और सहारनपुर में रहने के बाद, वे अंततः सन् 1954 में उत्तर प्रदेश में मसूरी में बस गए।
सच है, कलाकारों को उनकी नस्ल से नहीं बल्कि उनकी कला से पहचाना जाना चाहिए। उन्हें राजनीतिक सीमाओं में नहीं बांधा जाना चाहिए। फिर भी कभी-कभी राजनीति कला को बुरी तरह प्रभावित कर बैठती है। कश्मीर घाटी में उड़ी हमले के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने पाकिस्तानी कलाकारों को भारत से चले जाने का अल्टीमेटम दिया था और घोषणा की थी कि वो ऐसी फ़िल्मों को रिलीज़ नहीं होने देंगे जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों ने काम किया हो। इस धमकी के कारण पाकिस्तानी कलाकारों की फिल्मों, उनके टीवी सीरियल्स का भारत में प्रदर्शन बंद करना पड़ा था। पाकिस्तान की राजनीतिक एवं सैन्य कुचेष्टाओं को ध्यान में रखते हुए यह विरोध स्वाभाविक था जिसका नुकसान उठाना पड़ा उन पाकिस्तानी कलाकारों को जो बॉलीवुड में निरंतर काम करना चाहते हैं। यह सर्वविदित है कि पाकिस्तान में भारतीय फिल्में बड़े चाव से देखी जाती हैं। ऐसे में भारतीय फिलमों में पाकिस्तानी कलाकारों को शामिल किया जाना पाकिस्तानी दर्शकों के लिए और भी आनन्ददायक होता है। यूं भी आमनागरिक किसी भी देश का हो, वह लड़ाई-झगड़े से दूर रहना चाहता है किन्तु राजनीतिज्ञ उन्हें भेड़ों के समान हांकते रहते हैं और कई बार वैमनस्य या आतंक के कुए की ओर बढ़ा देते हैं। जबकि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री और भारतीय कलाकारों को आज सारी दुनिया प्रशंसा की दृष्टि से देखती है। नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, नंदिता दास, जैसे कलाफिल्मों के कलाकारों से ले कर प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्या राय, अनिल कपूर, सोनू सूद जैसे कामर्शियल फिल्मों के कलाकार भी हॉलीवुड में लोकप्रिय हो चुके हैं। जिस तरह हॉलीवुड दुनिया भर की नस्ल, जाति और धर्म के कलाकारों के लिए अपने दरवाज़े खुले रखता है, उसी प्रकार बॉलीवुड को भी स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए। कहते हैं न कि कला बंधनों से जितनी आजाद रहती है उतनी ही निखरती है।
श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘मॉम’ जिसने में भी देखी होगी, वह उस फिल्म को भुला नहीं सका होगा। इस फिल्म की कहानी एक ऐसी मां के इर्द-गिर्द घूमती है जो अपनी बेटी के साथ गैंगरेप करने वालों को दण्ड देने के लिए कानून अपने हाथ में ले लेती है। इस फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार अदनान सिद्दकी और सजल खान ने पिता-पुत्री की भूमिका निभाई थी। फिल्म देखते हुए किसी भी दर्शक को एक पल को भी यह नहीं लगा कि वे दोनों पाकिस्तानी कलाकार हैं। इससे पहले फिल्म ‘इंग्लिश मीडियम’ में इरफान खान की पत्नी की भूमिका में पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर अपने अभिनय के जलवे बिखेर चुकी है। सबा कमर ने जिस तरह ठेठ दिल्ली की मध्यमवर्गीय स्त्री जो अपने बेटी का दाखिला इंग्लिश मीडियम स्कूल में कराना चाहती है, की भूमिका निभाई उससे लगा ही नहीं कि उसका दिल्ली से कोई नाता है ही नहीं। क्योंकि कलाकार स्वयं को पात्र में ढाल लेता है। उस समय वह किसी देश का नागरिक नहीं बल्कि उस पात्र का जीवन होता है जिसे उसे जीवन्त करना है। पाकिस्तानी कलाकारों के भारत में प्रवेश पर हंगामें के बाद भी कई फिल्में प्रदर्शित हुईं जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों की उपस्थिति की अलग से चर्चा नहीं हुई। रणवीर कपूर अभिनीत ‘तमाशा’ में उसके पिता की भूमिका पाकिस्तानी कलाकार जावेद शेख ने निभाई थी। इससे पहले विपाशा बसु की हॉरर फिल्म ‘क्रिएचर’ में हीरो की भूमिका में थे पाकिस्तान के गायक एवं अभिनेता इमरान अब्बास। सन् 2014 में सोनम कपूर अभिनीत फिल्म ‘खूबसूरत’ में नायक थे पाकिस्तान के मशहूर अभिनेता फवाद खान।
बॉलीवुड में विदेशी कलाकारों का प्रवेश वर्षों से होता आया है। राज कपूर की सुप्रसिद्ध फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सरकस की कलाकार के रूप में एडवर्ड जेराडा ने महत्वपूर्ण रोल किया था। यह फिल्म सुपर-डुपर हिट रही। इसमें राज कपूर का अभिनय काफी सराहा गया। फिल्म में असली सरकस दिखाया गया था, जिसके लिये सोवियत स्टेट सरकस से कलाकारों को बुलाया गया था। इसी सरकस में काम करने वाली एडवर्ड जेराडा ने एक ऐसी महिला का अभिनय किया जिसे राजकपूर अपना दिल दे बैठते हैं।
सन् 1979 में इंडो-रशियन सहयोग से बनी ‘अरेबीयन नाइट्स’ की मशहूर कथा पर आधारित फिल्म ‘अलीबाबा और चालीस चोर‘ में जाकिर मुख्वामेद्ज़नोव, सोफिको चिआउरेली, याकूब अख्मेदोव, रोलन बाईकोव आदि कई प्रसिद्ध रशियन कलाकारों ने अभिनय किया था। इस फिलम का डायरेक्शन भी उमेश मेहरा और रूसी फिल्म निदेशक लतीफ़ फैजियेव ने संयुक्त रूप से किया था। सन् 1984 में लतीफ़ फैजियेव ने एक और भारतीय फिल्म का निर्देशन किया जिसका नाम था ‘सोहनी महिवाल’। सनी देओल और पूनम ढिल्लो की प्रमुख भूमिका वाली इस फिल्म में जाकिर मुख्वामेद्ज़नोव, महेर मर्कतच्यान तथा कोमुरोवा ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया था।
फिल्म ‘निकाह’ की पाकिस्तानी अभिनेत्री सलमा आगा भारतीय दर्शकों के दिलों पर भी छा गई थी। सलमा आगा के पूर्वपति पार्श्वगायक अदनान सामी को तो भारत इतना पसंद आया कि उन्होंने भारत की नागरिकता ही ग्रहण कर ली। फिल्म ‘हिना’ में हिना की भूमिका निभाई थी पाकिस्ता्नी अभिनेत्री ज़ेबा बख्तियार ने। यह फिल्म भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के सिनेमाघरों में खूब चली थी। इसमें हिना के साथ थे ऋषि कपूर। यह फिल्म् भारत-पाक बॉर्डर पर बसे गांवों में आये दिन होने वाले विवादों पर बनी बनाई गई थी। सन् 2007 में सलमान खान की फिल्म ‘मैरीगोल्ड’ में अली लार्टर ने बेहतरीन अदाकारी की। अली कार्टर अमेरिकी अभिनेत्री है जिसने हॉलीवुड की कई फिल्मों में काम किया है।
फिल्म ‘लगान’ में ब्रिटिश अभिनेत्री रशेल शैली की प्रभावी भूमिका थी। आमिर खान इस फिल्म् को ऑस्कर के लिये नॉमिनेट किया गया था। यह फिल्म देश भक्ति पर बनी है, जिसमें अंग्रेजों के शासन से मुक्ति पाने के लिये गांव वाले उनसे क्रिकेट मैच खेलते हैं। क्रिकेट का खेल सिखाने के लिये अंग्रेजों के साथ रहने वाली एलीज़ाबेथ रस्सेल यानी रशेल शैली आती हैं। उसी बीच वो भुवन यानी आमिर पर फिदा हो जाती हैं। रशेल शैली इंग्लैंड की मॉडल हैं। कई फिल्मों में काम कर चुकी हैं।
आमिर खान की ही ‘रंग दे बसंती’ में ब्रिटिश अभिनेत्री एलिस ने विदेशी महिला सू की भूमिका निभाई, जो डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने भारत आती है। यह डॉक्यूमेंट्री भी ब्रिटिश नियमों पर आधारित होती है। ‘किसना’ फिल्म में कैथरीन की भूमिका निभाने वाली एंटोनिया बरनथ इंग्लैंड की अभिनेत्री हैं और कई हॉलीवुड फिल्में कर चुकी हैं। इन्होंन ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है। यह फिल्म 2005 में आयी। फिल्म ‘काइट्स’ में बारबरा मोरी ने रितिक रौशन के साथ काम किया तो फिल्म ‘लव आजकल’ में ब्राजील की अभिनेत्री गिसेली मॉन्टे्रियो ने सैफ अली खान और दीपिका पादुकोण के साथ अभिनय किया। सैफ अली खान की फिल्म ‘एजेंट विनोद’ में स्विडशि मॉडल मरियम जकारिया ने फराह की भूमिका निभाई।
ब्रिटेन की कैटरीना कैफ, श्रीलंका की जैक्लीन फर्नांडीज की लोकप्रियता भारतीय दर्शकों के सिर चढ़ कर बोलती रही है। सलमान खान की ‘बॉडीगार्ड’ में ब्रिटिश मॉडल हज़ेल कीच ने भी यादगार रोल निभाया। स्वीडन की मॉडल एली अवराम ने जो पहले बिग बॉस में आयीं और फिर फिल्म ‘मिक्की वायरस’ में अपना कमाल दिखाया। पोर्न फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री सन्नी लियोन को जिस तरह भारतीय फिल्म एवं विज्ञापन जगत में प्रमुखता से स्थान दिया वह भी अपने आप में एक मिसाल है।
यूं भी भारतीय सिने जगत में विदेशी कलाकार छोटे-बड़े रोल्स में आते रहते हैं।
कला सीमाओं में नहीं बंधना चाहती है। यही कारण है कि कलाकार भी देश की सीमाओं को लांघ कर दूसरे देशों में अपनी कला का प्रदर्शन करने को आतुर रहते हैं। बॉलीवुड इसका अपवाद नहीं है। बॉलीवुड के कालाकार पाकिस्तानी फिल्मों में अभिनय करने गए तो पाकिस्तान से कई कलाकारों ने बॉलीवुड का रुख किया। इस समय तो अनेक देशों के कलाकार बॉलीवुड में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। वैसे भी वे नुकसानदायक नहीं हैं बल्कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का प्रचार ही करते हैं फिर उनके आने से परहेज क्यां किया जाए? बेहतर है कि राजनीति में बांधने की बजाए कला को कला ही रहने दिया जाए। इस संदर्भ में जाने-माने फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर की यह टिप्पणी मायने रखती है कि “जिस दिन हम कला, संस्कृति और राजनीति में फ़र्क करना बंद कर देंगे उस दिन बदले की भावना और नफ़रत के सिवा कुछ नहीं रह जाएगा।“
------------------------------
#चर्चाप्लस #सागरदिनकर #शरद_सिंह #मेरा_कॉलम #कला #राजनीति #टॉम_आल्टर #मयंक_शेखर #भारतीयसिनेजगत #विदेशी_कलाकार