Wednesday, October 31, 2018

चर्चा प्लस : 31 अक्तूबर जन्मदिन पर विशेष : ‘स्टेच्यू आफॅ यूनिटी’ से ऊंचा है सरदार वल्लभ भाई पटेल का क़द - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss)Sharad Singh
चर्चा प्लस  
31 अक्तूबर जन्मदिन पर विशेष :
  ‘स्टेच्यू आफॅ यूनिटी’ से ऊंचा है सरदार वल्लभ भाई पटेल का क़द
 - डॉ. शरद सिंह
       सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के अनावरण के साथ ही यह प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में जानी जाएगी। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है। सरदार पटेल के जन्मदिन के अवसर पर मैं अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : वल्लभ भाई पटेल’ के कुछ अंश यहां दे रही हूं जो सन् 2015 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी।    
Charcha Plus a column of Dr Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar Newspaper
         देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के अनावरण के साथ ही यह प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में जानी जाएगी। इसे अहमदाबाद से 200 किमी दूर सरदार सरोवर डैम के निकट स्थापित किया गया है। इस प्रोजेक्ट की घोषणा 2010 में की गई थी, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2013 में इसकी आधारशिला रखी थी तथा इंजीनियरिंग कंपनी एल एंड टी को इसका कांट्रैक्ट दिया गया था। कुल 182 मीटर ऊंची इस प्रतिमा के निर्माण में 25,000 टन लोहे और 90,000 टन सीमेंट का इस्तेमाल किया गया। स्टैच्यू को 7 किमी दूर से देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि राज्य की असेंबली सीट 182 के बराबर ही इसकी ऊंचाई 182 मीटर रखी गई है।  
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि 31 अक्टूबर 1875 को जब वल्लभ भाई का जन्म हुआ तो गांव में अनेक शुभ समाचार प्राप्त हुए जिससे वल्लभ भाई के जन्म को शुभ मानते हुए प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वल्लभ भाई जन्म से ही आकर्षक छवि के थे। गांव के लोग उन्हें अपनी गोद में लकर दुलारना पसन्द करते थे। उस समय यह किसी को पता नहीं था कि यही बालक एक दिन आधुनिक भारत का निर्माता बनेगा। सरदार वल्लभ भाई पटेल के पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों क निवास था-लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। स्वतंत्र भारत को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आधुनिक स्वरूप प्रदान करने वाले व्यक्तित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल का जीवन स्वयं में एक आदर्श जीवन था। उन्होंने कभी भी समझौतावादी नहीं किया। वे स्पष्टवादी थे तथा ऐसे ही आचरण की अपेक्षा दूसरों से भी रखते थे। उनके विचारों में असीम दृढ़ता थी। वे जो कार्य एक बार स्वीकार कर लेते उसे हर हाल में सफलतापूर्वक पूरा करके ही विश्राम करते। उनका यह स्वरूप भारतीय रियासतों के विलय के समय प्रत्यक्षरूप से उभर कर सामने आया। वैसे बाल्यावस्था से ही यह दृढ़ता उनके भीतर मौजूद थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबसे दुरूह दायित्व वल्लभ भाई की प्रतीक्षा कर रहा था। यह दायित्व था देशी रियासतों के एकीकरण का। यदि स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के बाद भी भारत पूर्व की भांति अनेक रियासतों में बंटा रहता तो उस स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं रहता। क्योंकि वे रियासतें स्वार्थ के वशीभूत देश की प्रगति में बाधाएं खड़ी करने का काम करतीं। किन्तु वल्लभ भाई किसी भी मूल्य पर स्वतंत्रता के महत्व को कम नहीं होने दे सकते थे। वल्लभ भाई ने ऐसा राजनीतिक दृढ़ता का चमत्कार कर दिखाया कि एक वर्ष के भीतर ही अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारतीय संघ में विलीन होकर उसका एक उपयोगी अंग बन गईं। सरदार पटेल का नाम भारत की तत्कालीन 563 रियासतों के भारत में विलीनीकरण के कारण बहुत ही सम्मान से लिया जाता है। उनके ‘लौहपुरूष’ होने का प्रमाण उनके द्वारा रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने के उनके महान कार्य में देखने को मिला।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम में राजशाही का कोई विशेष योगदान नहीं था। बहुत से शासक केवल नाममात्र के शासक थे। छोटे-छोटे रजवाड़े अपने किलों में या दरबारों में अपनी प्रशंसा कराके ही खुश हो जाते थे। परंतु इसके उपरांत भी उनके भीतर यह इच्छा अवश्य थी कि स्वतंत्र भारत में संभवतः वह भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सकेंगे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी वे अपनी राजशाही का स्वप्न देख रहे थे। उनकी यह अभिलाषा उस समय और भी बलवती हो गयी जब अंग्रेजों ने भारतीय रियासतदारों को यह अधिकार दे दिया कि वह चाहें तो भारत के साथ जा सकते हैं, चाहें तो पाकिस्तान के साथ जा सकते हैं और यदि चाहें तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाए रख सकते हैं। वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली पुस्तक है ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’(1955)  और दूसरी पुस्तक (1957) का ष्शीर्षक है- ‘‘दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डिया’’। पहली पुस्तक ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’ पुस्तक में उल्लेख है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे एटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे। माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।’’
माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने सरदार पटेल की सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया। इतिहास लेखिका ऑलेक्स फॉन टुलसेनमाल के अनुसार अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। टुलसेनमाल ने लिखा है कि -”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था तथा वह मुस्लिम था जबकि  उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतः मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे। उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500मील से ज्यादा दूर।’’
इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरू और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल ने कठोरता से काम लेते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है।
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          ( सागर दिनकर, 30.10.2018)

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Thursday, October 25, 2018

शरद पूर्णिमा, महारास और संत प्राणनाथ के विचार - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh Article in 'Dabang Media'
मुझे प्रसन्नता है कि ‘दबंग मीडिया’ ने मेरे लेख को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। आभारी हूं 'दबंग मीडिया' की और भाई हेमेन्द्र सिंह चंदेल बगौता की जिन्होंने मेरे इस समसामयिक लेख को और अधिक पाठकों तक पहुंचाया है....
http://dabangmedia.com/news.php?post_id=142260&title&fbclid=IwAR02YllgHaAdFhxXKbIwu_zwFeJzeWFDEw0X9OQThlwBu_Pt6iQyFeD5JY8

Wednesday, October 24, 2018

चर्चा प्लस - शरद पूर्णिमा, महारास और संत प्राणनाथ के विचार - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
  शरद पूर्णिमा, महारास और संत प्राणनाथ के विचार
   - डॉ. शरद सिंह
 
बुंदेलखंड में पन्ना नगर एक ऐसा स्थान है जहां शरद पूर्णिमा के अवसर पर विदेशों से भी भक्तगण आते हैं और फिर होता है महारास का आयोजन। यह ‘महारास’ उस संत की एकेश्वरवादी प्रेरणा है जिन्हें हम महामति प्राणनाथ के नाम से जानते हैं। ये वही संत हैं जिन्होंने महाराज छत्रसाल को जानकारी दी थी कि पन्ना की भूमि में हीरे मौजूद हैं। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की सत्रहवीं शताब्दी में थे।  
Charcha Plus Column by Dr (Miss) Sharad Singh
        
अच्छा लगता है यह सोच कर कि मेरी जन्मभूमि पन्ना (मध्यप्रदेश) मंदिरों की धनी है। एक से एक भव्य मंदिर और संतो के अद्वितीय विचारों ने पन्ना को न केवल बुंदेलखण्ड अपितु समूचे विश्व में एक अलग पहचान दी है। शरद पूर्णिमा आते ही दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु पन्ना आने लगते हैं। ये भक्त जो प्रणामी धर्म को मानते हैं और संत प्राणनाथ के शब्दों में ‘सुंदर साथ’ कहलाते हैं, उनकी उमंग और उत्साह देखते ही बनता है। यह तो यूं भी शताब्दी वर्ष के रूप में महत्वपूर्ण है। मेरी माता जी डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ ने महामति प्राणनाथ के जीवन, विचार और दर्शन का गहन अध्ययन किया है। उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है जिसका नाम है -‘‘महामति प्राणनाथ : एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व’’। यह पुस्तक महामति प्रणनाथ के बारे में जानने के इच्छुक एवं प्रणामी धर्म के अनुयायियों के लिए तो विशेष महत्व की है ही, किन्तु मेरे लिए इसका एक महत्व यह भी है कि यह एक ऐसी किताब है जिसमें मां ने मुझे सहलेखिका के रूप में शामिल किया सत्रहवीं शताब्दी के इतिहास का अध्याय उन्होंने मुझसे लिखवाया। यदि मैं यह कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अपनी मां के साथ सहलेखिका होने का सुख और गौरव मुझे महामति प्राणनाथ के अनुग्रह से मिला। आज ‘चर्चा प्लस’ में मैं महामति के विचारों की प्रासंगिकता का जो उल्लेख कर रही हूं वह मूलतः ‘‘महामति प्राणनाथ : एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व’’ पुस्तक से ही लिया गया है।

मां के साथ पुस्तक लिखने के सिलसिले में मैंने भी महामति प्राणनाथ के विचारों एवं दर्शन का अध्ययन किया और उन्हें समझने का प्रयास किया। मैं यह देख कर चकित रह गई थी कि सत्रहवीं शताब्दी में, जिस समय औरंगजेब का शासन था, एक संत ने किस प्रकार धार्मिक एकता, भाषाई एकता और वैश्विक एकता का संदेश मुखर किया था। सखी भाव ग्रहण करते हुए उन्होंने भाषा के संबंध में कहा कि कि मैं ‘‘मैं कहूंगी हिन्दुस्तानी’’। यानी हिन्दुस्तान की भाषा हिन्दुस्तानी।

पन्ना महामति प्राणनाथ की कर्मस्थली, ध्यानस्थली और परिनिर्वाण स्थली रही, जबकि उनका जन्म सन् 1618 में गुजरात के जामनगर में दीवान केशव ठाकुर के घर हुआ था। मातापिता ने उनका नाम मेहराज ठाकुर रखा था जो आगे चल कर संत प्राणनाथ के नाम से विख्यात हुए। ‘श्री कुलजम स्वरूप’ ग्रंथ में संत प्राणनाथ की वाणी 524 प्रकरण 18758 चौपाइयों में संग्रहीत हैं।

छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय
जित-जित घोड़ा पग धरे, उत-उत हीर होय।।
यह आशीर्वाद दिया था महामति ने महाराज छत्रसाल को। महाराज छत्रसाल उन दिनों औरंगजेब के विरुद्ध संघर्षरत थे और उन्हें सैन्यबल के लिए धन की भी बहुत आवश्यकता थी। उसी दौरान संत प्राणनाथ बुंदेलखंड आए और महाराज छत्रसाल की भेंट उनसे हुई। संत प्राणनाथ उन्हें देखते ही उनके संकट को भांप गए और उन्होंने जानकारी दी कि पन्ना की भूमि साधारण नहीं है, इस भूमि में हीरे मौजूद हैं। इसके बाद ही पन्ना में हीरे-उत्खनन का कार्य आरम्भ हुआ।

संत प्राणनाथ ने कृष्ण को अपना ईश्वर माना। किन्तु उनके कृष्ण एकेश्वर थे। संत प्राणनाथ की भक्ति ‘सखीभाव’ की भक्ति थी। उनका मानना था कि परमात्मा एममात्र प्रिय है तो आत्माएं उसकी सखियां हैं। जब सखियां अपने प्रिय के साथ रास रचाती हैं तो ‘महारास’ का दृश्य बनता है और इस महारास के बाद परमात्मा और आत्माएं एकाकार हो जाती हैं। जब ईश्वर एक है, तो फिर झगड़ा किस बात का? संत प्राणनाथ ने यही तो कहा कि नाम सबके भले ही अलग-अलग हो, सबके आकार-प्रकार और स्वरूप अलग-अलग हों लेकिन ईश्वर तो एक ही है न, तो फिर आपस में झगड़ा क्यों किया जाए? -  
जुदे जुदे नामें गावहीं, जुदे जुदे भेख अनेक।
जिन कोई झगरो आप में, धनी सबों का एक।।

देश में आज भी मंदिर-मस्जिद का विवाद है। विश्वमंच पर धार्मिक कट्टरता के वशीभूत नृशंस हत्याएं की जा रही हैं। वर्तमान समय शुष्कता की हद तक संवेदनहीन हो चला है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी वातावरण में स्वार्थ की उत्तेजना के सम्मुख परमार्थ की संवेदना गौण हो गई है। मानव में भौतिक पदार्थों के प्रति ललक सीमाहीन हो चली है । आध्यात्मिक विचारों के प्रति उदासीनता ने मानव की चेतना को विकृत करके मानव को  असंवेदनशील बना दिया है। इसका एकमात्र कारण यही है कि मानव एक बार फिर उस सत्य को भूलने लगा है कि नाम चाहे जितनी भी हो किंतु परब्रह्म परमात्मा एक ही है। इस धरती के सभी मानव उसी परमात्मा से बिछड़ी हुई आत्माएं हैं, जो जगत लीला के अंतर्गत यहां प्रकट हुई है। संत प्राणनाथ ने एकेश्वर परब्रह्म के सत्य को ज्ञान की कसौटी पर परखने के बाद विश्व के सामने रखा था। उन्होंने मात्र कही सुनी बातों के आधार पर नहीं वरन वेद और कतेब ग्रंथों के गंभीरता पूर्वक अध्ययन के उपरांत अपने निष्कर्षों को प्रस्तुत किया था। दुर्भाग्यवश आज छोटे-छोटे मठाधीश अपने निहित स्वार्थों के कारण परब्रह्म के स्वरूप और धर्म के सूत्रों की मनमानी व्याख्या करने लगे हैं। इसलिए मानव मन एक बार फिर भ्रमित हो चला है। इस भ्रम के कोहरे ने सच्चे संतों और गुरुओं की वाणी की चमक को किसी ‘स्मॉग’ की तरह ढांक रखा है। यदि आज संत प्रणनाथ जैसे संतों के विचारों और उनकी वाणी को जनमानस आत्मसात करें तो यह विसंगतियों से परिपूर्ण विश्व-समाज ‘सुंदरसाथ’ में परिवर्तित हो सकता है।

संत प्राणनाथ का मानना था कि वैश्विक एकीकरण के लिए भी आध्यात्मिक एकीकरण पहले आवश्यक है। आज जब वैश्विक एकीकरण को साकार करने के प्रयास किए जा रहे हैं और इस प्रयास के अंतर्गत ‘यूरो मुद्रा’ भी चलाई जा रही है, फिर भी सच्चे अर्थों में वैश्विक एकीकरण नहीं हो पा रहा है। स्वार्थ प्रेरित मानसिक वैश्विक एकीकरण के प्रयासों को झकझोर देती है। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि वैश्विक एकीकरण के प्रयासों में कहीं कोई कमी अवश्य है, जिनके कारण यह सुंदर परिकल्पना साकार होने से बार-बार रह जाती है। जब हम संत प्राणनाथ के विचारों को पढ़ते हैं तो हमें अपने प्रयासों में मौजूद उस कमी का तत्काल पता चल जाता है। यह कमी है आध्यात्मिक एकीकरण की कमी। जब तक मानव इस भ्रम में रहेगा कि प्रत्येक देश जाति अथवा संस्कृति का अपना अलग देवता है तब तक वैश्विक एकीकरण का स्वप्न साकार नहीं हो सकेगा। संत प्राणनाथ ने तो 17 वीं शताब्दी में ही इस सत्य की ओर मानव समुदाय का ध्यान आकृष्ट था। ‘महारास’ उसी विश्व-एकता का स्वरूप है जो प्रत्येक वर्ष शरदपूर्णिमा को प्राणनाथ मंदिर के प्रांगण में आयोजित होता है।

आकाश में अमृत के कटोरे जैसा सुंदर चन्द्रमा, उस चन्द्रमा से फूटती प्रखर किरणें और दुनिया के कोने-कोने से आए लोग समस्त सांसारिकता भुला कर महारास में झूम उठते हैं। यह अलौकिक आनंद उसी भावना को साकार करता है जो संत प्राणनाथ ने वैश्विक एकता के रूप में प्रकट की थी। दरअसल,   संत महामती प्राणनाथ के विचार और दर्शन आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितने कि 17वीं शताब्दी में थे।
और अंत में संत प्राणनाथ की एक वाणी -
नाम सारों जुदे धरे, लई सबों जुदी रसम।
सब में उमत और दुनिया, सोई खुदा सोई ब्रह्म।।
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( सागर दिनकर, 24.10.2018)

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Friday, October 19, 2018

Happy Dussehra - Dr (Miss) Sharad Singh

Happy Dussehra - Dr (Miss) Sharad Singh
धर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई।
जीत के इस त्योहार पर आप सभी को बधाई।।
- डॉ शरद सिंह

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Wednesday, October 17, 2018

चर्चा प्लस ... रोचक परम्पराओं से जुड़ा है बुंदेली दशहरा - डॉ. शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस …
रोचक परम्पराओं से जुड़ा है बुंदेली दशहरा
- डॉ. शरद सिंह

बुंदेलखंड में दशहरा मनाने की भी अपनी अलग परम्पराएं हैं। इस दिन सुबह से नीलकंठ के दर्शन करना अच्छा माना जाता है। इसी तरह मछली को देखना भी शुभ माना जाता है। इसीलिए कुछ लोग मछली ले कर भी घर-घर जाते हैं और मछली के दर्शन करा कर नेंग मांगते हैं। दशहरे पर पान के बीड़े के बिना तो काम ही नहीं चलता है। सागर नगर में सागरझील यानी लाखा बंजारा झील में रावण को नाव पर स्थापित कर के दहन किए जाने की परम्परा रही है। दरअसल, कई रोचक परम्पराएं त्योहारों को भी अधिक रोचक बना देती हैं और कभी-कभी कुछ परम्पराएं जानबूझ कर छोड़ दी जाती हैं, ताकि त्योहार अच्छे और अहिंसक संदेश दे सकें। 
चर्चा प्लस ... रोचक परम्पराओं से जुड़ा है बुंदेली दशहरा - डॉ. शरद सिंह  ... Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper

मुझे अच्छी तरह से याद है, जब मैं छोटी थी तो दशहरे का उत्साह किस तरह चारों ओर व्याप्त हो जाता था। उन दिनों मैं सागर संभाग के पन्ना नगर में रहती थी। वह मेरी जन्मस्थली भी है। हिरणबाग कहलाती थी वह कॉलोनी जहां गिनती के छः सरकारी क्वार्टर्स थे। उन्हीं में दायीं ओर का आखिरी क्वार्टर मेरी मां के नाम एलॉट था। मेरी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ पन्ना में मनहर गर्ल्स हायर सेंकेंड्री स्कूल में हिन्दी की व्याख्याता थीं। मेरी मां का बचपन मालवा में बीता था। वे मालवा की बेटी रहीं और मैं बुंदेलखंड की बेटी। दो अंचलों की संस्कृतियों के प्रभाव में मेरा आरम्भिक बचपन बीता। लेकिन पैदायशी ही बुंदेलखंड का पानी तो मेरी रगों में खून बन कर दौड़ने लगा था। मुझे अच्छा लगता था अपने शहर का दशहरा उत्सव। बहुत ही भव्य आयोजन होता था। छत्रसाल पार्क के सामने वाले बड़े से मैदान में बहुत बड़ा रावण बनाया जाता था। उस समय की मेरी दो-ढाई फुट के क़द के हिसाब से रावण कुछ ज़्यादा ही बड़ा दिखता रहा होगा मुझे। बहरहाल, घर की दीवारों पर ‘व्हाईटवॉश’ (जो कि पी.डब्ल्यू. डी. की कृपा से होता था) और आंगन में गोबर से लिपाई जो कि मां स्वयं अपने हाथों से करती थीं, जिसमें मैं भी हाथ बंटाने का प्रयास करती और डांट खाती थी। इन सबके बीच प्रतीक्षा रहती थी दशहरे की उस रात की जिसमें रावण दहन किया जाता था। रामलीला वाले राम और लक्ष्मण धनुष ले कर आते थे। पन्ना राजपरिवार से तत्कालीन महाराज नरेन्द्र सिंह आते थे। अच्छा-खासा मेला भर जाता था। तरह-तरह की दूकानें, झूले और हम बच्चों के लिए ढेर सारा आकर्षण। दशहरा मैदान मेरे घर से लगभग पचास कदम की दूरी पर था। यानी कॉलोनी के कैम्पस से निकलो और दशहरा मैदान सामने नज़र आता था। छोटे शहरों के यही तो फायदे होते हैं। सब कुछ आस-पास।
मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह अपने मामा कमल सिंह की उंगली पकड़ कर दशहरा मैदान पहुंचते थे। फिरकी, गुब्बारे, सीटी, चूड़ी और न जाने क्या-क्या ले डालते थे हम लोग। उस जमाने की हमारी गंभीर शॉपिंग होती थी हम दोनों बहनों की। नहीं, विशेष रूप से मेरी। मेरी तुलना में वर्षा दीदी को शॉपिंग का शौक़ हमेशा कम ही रहा है। आज भी वे मुझसे पीछे रहती हैं। मुझे आज भी याद है कि किस तरह पन्ना महाराज राम और लक्ष्मण का तिलक करते थे और फिर राम बना रामलीला का कलाकार धनुष में तीर चढ़ता था। जब तीर के नुकीले सिरे पर आग लगा दी जाती थी तो वह जलता हुआ तीर रावण के पुतले की ओर छोड़ देता था। तीर लगते ही रावण का पुतला धू-धू कर के जल उठता था और हम सभी बच्चे प्रफुल्लित हो कर तालियां बजाने लगते थे।
घर लौटने पर मां आरती की थाली सजा कर मामा जी की आरती उतारती थीं, यह कहती हुईं कि -‘‘मेरा भाई रावण को मार कर आया है।’’ इसके बाद हमारे घर में परम्परागत शस्त्रपूजा होती थी। मुझे उस तलवार की धुंधली स्मृति है जो मेरे बचपन में शस्त्र के रूप में पूजी जाती थी लेकिन बाद में मेरे नानाजी जो गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, घर में शस्त्रपूजन बंद करा दिया और उस तलवार को हंसिए में ढलवा दिया गया जो वर्षों तक रसोईघर में सब्ज़ी काटने के काम आता रहा। हमारे परिवार में मांसाहार नानाजी के समय से ही बंद कर दिया गया था। वे घोर अहिंसावादी थे। इसलिए बलि के प्रतीक स्वरूप कुम्हड़े को काटा जाता था किन्तु बाद में यह भी उचित नहीं लगा। नानाजी को लगा कि भले ही हम कुम्हड़े को काट रहे हैं किन्तु मन में बलि की कल्पना होने से हिंसा की भावना तो बनी रहेगी। अतः वह परम्परा भी समाप्त कर दी गई। बस, परस्पर पान की बीड़ा दिए जाने की परम्परा यथावत चलती रही।
यह सारी बातें मुझे इसलिए याद आ रही हैं क्यों कि पिछले दिनों झांसी प्रवास के दौरान मुझे हमीरपुर के विदोखर गांव के दशहरे के बारे में पता चला। कोई दशहरा इतना रक्तरंजित भी हो सकता है, यह जान कर मुझे हैरानी हुई। विदोखर में दशहरा मनाने की अपनी एक अलग ही परम्परा है। विदोखर में दशकों पहले हजारों लोग सवा मन सोना लुटाकर दशहरा मनाते थे। इस गांव में वह कुआं और राहिल देव मंदिर आज भी मौजूद है, जहां नरसंहार के बाद सोना लुटाए जाने की परंपरा शुरू हुई थी। यहां उन्नाव के गांव डोंडियाखेड़ा के लोग सोना लुटाने में अहम भूमिका निभाते थे। आपको याद दिला दूं कि यह वही जगह है जहां दो-तीन साल पहले संत शोभन सरकार ने सोने का खजाना जमीन में दबे होने का दावा किया था और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भारी हंगामा छाया रहा था।
स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि औरंगजेब के समय विदोखर के ठाकुरों को बलात् मुसलमान बनाया गया था। जिन्हें बगरी ठाकुर कहा जाता था। लगभग 530 वर्ष पहले उन्नाव के डोंडियाखेड़ा से ठाकुर बड़ी संख्या में यहां व्यापार के लिए जाते थे। ठाकुरों का यह जत्था एक बार हमीरपुर के इसी विदोखर गांव से गुजर रहे था, तभी कुआं देख पानी पीने के लिए रुक गए। इसी दौरान बगरी ठाकुर समाज के कुछ युवक यहां पहुंच गए। बगरी ठाकुर युवकों ने डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों को कुए से पानी नहीं पीने दिया और मारपीट कर डाली। अपने अपमान से हो कर डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने बगरी ठाकुरों को सबक सिखाने की ठान ली। विदोखर में बगरी ठाकुर और आसपास के 24 गांवों के ठाकुर एकत्र होकर दशहरे का जश्न मनाते थे। इसी दौरान उन्नाव के डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने योजना के साथ बगरी ठाकुरों पर हमला बोल दिया। अचानक हमले से दशहरे के जश्न में डूबे बगरी ठाकुर संभल नहीं सके और इस भीषण युद्ध में सैकड़ों की संख्या में मारे गए। डोंडियाखेड़ा के ठाकुरों ने युद्ध जीत लिया और विदोखर के आसपास मौजूद 24 गांवों पर कब्जा कर लिया। युद्ध के बाद इन ठाकुरों ने बगरी ठाकुर के घरों से सोना-चांदी लूट लिया। इस दौरान उन्होंने लूटा हुआ सोना लुटाते हुए जमकर जीत का जश्न मनाया। बस, उसी समय से वहां सोना लुटाए जाने की परंपरा का आरम्भ हुआ। लगभग पांच दशक पहले तक विदोखर गांव के आसपास के 24 गांवों के ठाकुर एकत्रित होते थे। इसके बाद अनोखे ढंग से दशहरा मनाते हुए लोग सवा मन सोना इकट्ठा कर लुटाते थे। जितना सोना जिसके हाथ लगता था, वे अपने घर ले जाता था। अब मंहगाई के जामने में सवा मन सोना लुटाने की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता है, इसलिए प्रतीक रूप में रत्ती भर सोना लुटाया जाता है। आज भी 24 गांवों के ठाकुर एकत्र होकर मिट्टी के गोले बनाते हैं और इन्हीं में रत्ती भर सोना डालकर लुटाते हैं। जिसके हाथ सोने वाला मिट्टी का गोला लगता है, उसे सौभाग्यशाली माना जाता है।
हो सकता था कि भविष्य में मेरे नानाजी की तरह किसी को यह परम्परा हिंसक घटना की याद दिलाने वाली लगे और इसे वह बंद करवा दे। यदि ऐसा होता है तो भी विदोखर में दशहरे का आनंद कम नहीं होगा। उत्सव वही है जो मन को आनन्दित करे, उत्साह से भर दे। उत्सव में आडंबर का कोई महत्व नहीं होता। दशहरा तो यूं भी असत्य पर सत्य की विजय और बुराई पर अच्छाई की जीत का त्यौहार है। इसे तो सद् विचारों और सद्परम्पराओं के साथ ही मनाया जाना चाहिए। हमेशा दस सिर वाला रावण मारा जाए, एक सिर वाला इंसान नहीं।
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( सागर दिनकर, 17.10.2018)


चर्चा प्लस ... हिन्दी की उपेक्षा पर स्व. अटल जी की पीड़ा - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
हिन्दी की उपेक्षा पर स्व. अटल जी की पीड़ा
  - डॉ. शरद सिंह
  जब हमारी बात सुनी नहीं जाती है, मानने योग्य हो कर भी मानी नहीं जाती है तो क्षोभ होता है अपनी स्थिति पर। कुछ इसी तरह की पीड़ा से गुज़रे थे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी। हिन्दी के गहन समर्थक स्व. अटल जी देश में हिन्दी की उपेक्षा को देख कर तड़प उठे थे और वे कह उठे थे कि-‘अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता...’।                              

अटल बिहारी भली-भांति जानते थे कि कब, कहां, क्या कहना है? अटल बिहारी अपने भाषण के श्रोताओं से अपने उद्गारों द्वारा सीधा सम्बन्ध स्थापित करने में माहिर रहे। चाहे साहित्यिक मंच हो, चाहे राजनीतिक मंच हो अथवा संसद हो, अटल बिहारी के ओजस्वी भाषणों को सभी ध्यानपूर्वक सुनते रहे हैं, यहां तक कि उनके राजनीतिक विरोधी भी उनके भाषणों की प्रशंसा करते रहे हैं। चाहे कितना भी आक्रामक विषय क्यों न हो, वे अपने भाषणों में शालीनता बनाए रखते और शब्दों की गरिमा बनाए रखते। ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व अटल बिहारी वाजपेयी’’ को लिखने के दौरान मुझे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के विचारों को गहराई से जानने का अवसर मिला। मेरी यह किताब सन् 2015 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। अपनी इसी किताब में सहेजा गया उनके भाषा के प्रमुख अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रही हूं जो  22 फरवरी 1965 को राज्यसभा में राजभाषा नीति पर परिचर्चा के दौरान उन्हांने दिया था, इसमें हिन्दी की उपेक्षा के प्रति उनकी पीड़ा को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है- µ
‘‘सभापति जी! मेरा दुर्भाग्य है, मेरी मातृभाषा हिन्दी है। अच्छा होता यदि मैं किसी अहिन्दी प्रांत में पैदा हुआ होता क्योंकि तब अगर हिन्दी के पक्ष में कुछ कहता तो मेरी बात का ज्यादा वजन होता। हिन्दी को अपनाने का फैसला केवल हिन्दी वालों ने ही नहीं किया। हिन्दी की आवाज पहले अहिन्दी प्रांतों से उठी। स्वामी दयानंद जी, महात्मा गांधी या बंगाल के नेता हिन्दीभाषी नहीं थे। हिन्दी हमारी आजादी के आंदोलन का एक कार्यक्रम बनी और चौदह सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत उसका समावेश किया गया। हमारे संविधान का जो पहला मसविदा बना, उसमें अंग्रेजी के लिए पांच साल देना तय किया गया था, लेकिन श्री गोपालास्वामी अयंगार, श्री अल्लादि कृष्णास्वामी और श्री टी.टी. कृष्णमाचारी के आग्रह पर वह पांच साल की अवधि बढ़ाकर पन्द्रह साल की गयी। हिन्दी अंकों को अंतर्राष्ट्रीय अंकों का रूप नहीं दिया गया। राष्ट्रभाषा की जगह हिन्दी को राजभाषा कहा गया। उस समय अहिन्दी प्रान्तों से हिन्दी का विरोध नहीं हुआ था। संविधान में जो बातें थीं, उनका विरोध या तो राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने किया, जो अंग्रेजी नहीं चाहते थे या स्वर्गीय मौलाना आजाद ने किया, जो हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी चाहते थे, मगर दक्षिण में हिन्दी के विरोध में आवाज नहीं उठी थी, लेकिन पंद्रह साल में हमने क्या किया? यदि पन्द्रह साल में जैसा कि सभा ने निर्णय किया था और जैसा कि संविधान में लिखा गया था, हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था होती तो फिर आज जो परिस्थिति पैदा हो गई है, वह न होती, लेकिन केन्द्र तो मद्रास में हिन्दी नहीं ला सकता था। मद्रास की सरकार ने हिन्दी को अनिवार्य नहीं किया। अनिवार्यता हटा ली गयी। परीक्षाओं में पास होना भी अनिवार्य नहीं रहा और वहां हिन्दी की पढ़ाई एक मजाक बनकर रह गयी। जनता का राज जनता की भाषा में ही चलना चाहिए, मगर उत्तर प्रदेश में, बिहार में, राजस्थान में भी अंग्रेजी चल रही है क्योंकि सब नईदिल्ली की तरफ देखते हैं, दिल्ली से प्रेरणा लेते हैं। अगर नईदिल्ली और प्रांतों में हिन्दी नहीं चला सकती तो हिन्दी प्रांतों में उसे अंग्रेजी चलाने का अधिकार नहीं होगा।
मैं एक सुझाव देना चाहता हूं कि अगर हमारे गैर हिन्दी वाले हिन्दी को जोड़ भाषा, लिंक लैंग्वेज मानने के लिए तैयार नहीं हैं तो ईमानदारी से केवल मद्रास में, नईदिल्ली में कहना काफी नहीं है। अतुल्य बाबू संसद में कहेंगे कि हमने हिन्दी मान ली है, बंगाल में कहेंगे हिन्दी नहीं लदेगी। श्री कामराज रायपुर में कहेंगे हिन्दी चलनी चाहिए और वहां सिण्डीकेट के सदस्यों के साथ बैठकर हिन्दी के खिलाफ होने वाले आंदोलन में आहुति डालेंगे, यह दुरंगी बात, यह दोमुंही बात बंद होनी चाहिए। आप ईमानदारी से कहिए कि हम हिन्दी नहीं मानेंगे।
आप तय कर लीजिए कि आप कौन-सी भाषा मानते हैं। जिसकी भाषा हिन्दी नहीं है मैं उन्हें दावत देता हूं कि वे अपनी सभा कर लें और उसमें निश्चय कर लें कि हिन्दी जोड़ भाषा नहीं होगी, हिन्दी राजभाषा नहीं होगी और हम जो भाषा तय करते हैं, वह रहेगी और अगर वे सब मिलकर एक भाषा तय कर लेंगे तो हम हिन्दी वाले पंद्रह साल में उसको सीख कर दिखाएंगे। उसे हिन्दी वालों पर लाद दो, मगर अंग्रेजी को हटाओ। मगर वह खुद कोई भाषा तय नहीं करेंगे। हिन्दी नहीं चलने देंगे और हमारे ऊपर अंग्रेजी लादे रखना चाहते हैं।
एक सुझाव मैं और देना चाहता हूं। कहा जाता है कि झगड़ा नौकरियों का है, बच्चों का भविष्य क्या बनेगा? मेरा निवेदन है कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन के लिए अंग्रेजी चल रही है। यह सिफारिश पहले भी की गई थी कि अंग्रेजी के साथ हिन्दी और एक अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान हर एक उम्मीदवार के लिए आवश्यक कर दिया जाए। अंग्रेजी में परीक्षा हो लेकिन उसके साथ हिन्दी का ज्ञान हो और हिन्दी के साथ एक भारतीय भाषा का ज्ञान अनिवार्य कर दिया जाए। अभी हिन्दी राज्यों में तीन भाषायी फार्मूला नहीं चल रहा। चलना चाहिए लेकिन जब तक नौकरी के लिए उसकी जरूरत नहीं होगी, कोई दक्षिण की भाषा नहीं पढ़ेगा। यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन के इम्तिहान में जो भी विद्यार्थी बैठे, उन्हें अपनी मातृभाषा के अलावा एक भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से जाननी चाहिए। हिन्दी के अलावा एक और भाषा क्या हो, यह अहिन्दी वाले तय कर लें। अगर वे उर्दू तय करेंगे तो हम मान लेंगे। अगर वे पंजाबी के पक्ष में मत देंगे तो हम मान लेंगे मगर वे एक भाषा तय कर दें और हिन्दी प्रांतों के जो भी लड़के आएंगे, उन्हें उस भाषा का पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए। अगर उन्हें नौकरी लेनी है तो वे उस भाषा को पढ़ेंगे किन्तु नौकरियों के कारण देश के सांस्कृतिक विकास को रोका नहीं जा सकता। कितने लोग केन्द्रीय नौकरियों में आते हैं? चाहिए तो जनसंख्या के हिसाब से नौकरियों का कोटा तय कर दीजिए, चाहिए तो हिन्दी वालों को दस साल के लिए केन्द्रीय सेवाओं से वंचित कर दीजिए।
हम हिन्दी वालों को समझाएंगे जाकर, मगर चित भी मेरी, पट भी मेरी, यह नहीं चलेगा। नौकरियों के लिए ऐसा वातावरण पैदा करना कि देश की एकता खतरे में पड़ जाए, यह अच्छा नहीं है। इसलिए इस सवाल को जरा ऊंचे धरातल पर देखना होगा। अंग्रेजी पढ़ने में कितनी शक्ति, कितना समय, कितना धन खर्च होता है? हमारे श्री गोविन्द रेड्डी कह रहे थे कि अंग्रेजी का स्तर गिर रहा है, क्यों कि हवा बदल गई है, वातावरण बदल गया है। लड़के प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा अपनी भाषा में शुरू करते हैं और फिर उनके ऊपर अंग्रेजी लादी जाती है। यह केवल हिन्दी प्रांतों में नहीं है, अहिन्दी प्रांतों में भी है। मद्रास में तमिल को, बंगाल में बंगला को जो स्थान मिलना चाहिए, वह नहीं मिला। इसलिए नहीं कि राजभाषा हिन्दी हो गई, लेकिन इसलिए कि अंग्रेजी वहां पर अभी तक छाई हुई है। कुल दो फीसदी लोग अंग्रेजी जानते हैं। क्या वे चिरन्तन काल तक अठानवे फीसदी अंग्रेजी न जानने वालों पर राज करते रहेंगे? दो फीसदी लोग ऊंचे वर्ण के हैं, ऊंचे वर्ग के हैं और अठानवे फीसदी का शोषण करना चाहते हैं।
राष्ट्र की सच्ची एकता तब पैदा होगी जब भारतीय भाषाएं अपना स्थान ग्रहण करेंगी और अगर भारतीय भाषाएं हर जगह अपना स्थान ग्रहण कर लें तो फिर ‘लिंक लेंग्वेज’ के बनने में दो राय नहीं होंगी। अभी मद्रास में तमिल नहीं आई, बंगाल में बंगला नहीं आई। इसलिए वहां के लोगों को हिन्दी के खिलाफ भड़काया जा सकता है। एक बार वहां के आम आदमी समझ जाएं कि दो फीसदी अंग्रेजी जानने वाले हमें गुलाम रखने के लिए हिन्दी के विरोध का नारा लगा रहे हैं तो फिर अंग्रेजी नहीं रहेगी।’’
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( सागर दिनकर, 12.09.2018)

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Tuesday, October 16, 2018

पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक पत्रिका 'सेतुु' में प्रकाशित मेरे उपन्यास 'कस्बाई सिमोन' की समीक्षा...


Kasbai Simon - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
ISSN 2475-1359
* Bilingual journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक पत्रिका 'सेतुु' में प्रकाशित मेरे उपन्यास 'कस्बाई सिमोन' की समीक्षा....
http://www.setumag.com/2017/03/Book-Review-Lata-Agrawal-Sharad-Singh-Poonam-Dogra.html?m=1

Monday, October 15, 2018

चुनावी उम्मीदवारों से डॉ शरद सिंह की उम्मीदें ... पत्रिका समाचारपत्र में प्रकाशित

Patrika News Paper, Sagar Edition, 14.10.2018
मैंने महसूस किया है कि हर चुनाव में बड़े-बड़े वादों के सामने महिलाओं की बुनियादी जरूरतें कहीं पीछे छूट जाती हैं इसीलिए जब "पत्रिका" समाचार पत्र ने मुझसे चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों से मेरी उम्मीदों के बारे में जानना चाहा तो मैंने दो टूक तरीके से अपने विचार व्यक्त कर दिए जो आज के "पत्रिका" के अंक में प्रकाशित हुए हैं । लीजिए आप भी पढ़िए मेरे विचार और जीतने वालों से मेरी अपेक्षाएं !

हार्दिक धन्यवाद "पत्रिका" !!!


डॉ शरद सिंह दैनिक भास्कर के “नारी तू नारायणी“ विशेष परिशिष्ट की गेस्ट एडीटर ... Dr Sharad Singh As Guest Editor In Dainik Bhaskar, Sagar Edition

Dr Sharad Singh As Guest Editor
In Dainik Bhaskar,
Sagar Edition, 14.10.2018
दैनिक भास्कर के सागर संस्करण की 12वीं वर्षगांठ और नवरात्रि के सुअवसर पर आज रविवार दिनांक 14.10.2018 को दैनिक भास्कर द्वारा "नारी तू नारायणी" थीम पर आधारित शक्ति को समर्पित विशेष परिशिष्ट प्रकाशित किया गया है। इस परिशिष्ट के संयोजन में गेस्ट एडिटर के रूप में मैंने भी एडिटिंग सहयोग दिया है। 
Dr Sharad Singh As Guest Editor In Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 14.10.2018
मुझे इस विशेष परिशिष्ट में गेस्ट एडीटर के रूप में आमंत्रित करने और मेरा सहयोग लेने के लिये दैनिक भास्कर सागर संस्करण के सम्पादक एवं परिशिष्ट टीम के सभी सदस्यों के प्रति हार्दिक आभार 🙏
Dr Sharad Singh As Guest Editor In Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 14.10.2018
Dr Sharad Singh As Guest Editor
In Dainik Bhaskar,
Sagar Edition, 14.10.2018
 
📰दैनिक भास्कर के सागर संस्करण की 12वीं वर्षगांठ पर बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं 💐



Dr Sharad Singh As Guest Editor In Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 14.10.2018