Dr (Miss)Sharad Singh |
चर्चा प्लस
31 अक्तूबर जन्मदिन पर विशेष :
‘स्टेच्यू आफॅ यूनिटी’ से ऊंचा है सरदार वल्लभ भाई पटेल का क़द
- डॉ. शरद सिंह
सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के अनावरण के साथ ही यह प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में जानी जाएगी। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है। सरदार पटेल के जन्मदिन के अवसर पर मैं अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : वल्लभ भाई पटेल’ के कुछ अंश यहां दे रही हूं जो सन् 2015 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी।
‘स्टेच्यू आफॅ यूनिटी’ से ऊंचा है सरदार वल्लभ भाई पटेल का क़द
- डॉ. शरद सिंह
सरदार वल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के अनावरण के साथ ही यह प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में जानी जाएगी। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है। सरदार पटेल के जन्मदिन के अवसर पर मैं अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व : वल्लभ भाई पटेल’ के कुछ अंश यहां दे रही हूं जो सन् 2015 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई थी।
Charcha Plus a column of Dr Sharad Singh in Daily Sagar Dinkar Newspaper |
देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनकी 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के अनावरण के साथ ही यह प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के रूप में जानी जाएगी। इसे अहमदाबाद से 200 किमी दूर सरदार सरोवर डैम के निकट स्थापित किया गया है। इस प्रोजेक्ट की घोषणा 2010 में की गई थी, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2013 में इसकी आधारशिला रखी थी तथा इंजीनियरिंग कंपनी एल एंड टी को इसका कांट्रैक्ट दिया गया था। कुल 182 मीटर ऊंची इस प्रतिमा के निर्माण में 25,000 टन लोहे और 90,000 टन सीमेंट का इस्तेमाल किया गया। स्टैच्यू को 7 किमी दूर से देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि राज्य की असेंबली सीट 182 के बराबर ही इसकी ऊंचाई 182 मीटर रखी गई है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि 31 अक्टूबर 1875 को जब वल्लभ भाई का जन्म हुआ तो गांव में अनेक शुभ समाचार प्राप्त हुए जिससे वल्लभ भाई के जन्म को शुभ मानते हुए प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वल्लभ भाई जन्म से ही आकर्षक छवि के थे। गांव के लोग उन्हें अपनी गोद में लकर दुलारना पसन्द करते थे। उस समय यह किसी को पता नहीं था कि यही बालक एक दिन आधुनिक भारत का निर्माता बनेगा। सरदार वल्लभ भाई पटेल के पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों क निवास था-लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। स्वतंत्र भारत को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आधुनिक स्वरूप प्रदान करने वाले व्यक्तित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल का जीवन स्वयं में एक आदर्श जीवन था। उन्होंने कभी भी समझौतावादी नहीं किया। वे स्पष्टवादी थे तथा ऐसे ही आचरण की अपेक्षा दूसरों से भी रखते थे। उनके विचारों में असीम दृढ़ता थी। वे जो कार्य एक बार स्वीकार कर लेते उसे हर हाल में सफलतापूर्वक पूरा करके ही विश्राम करते। उनका यह स्वरूप भारतीय रियासतों के विलय के समय प्रत्यक्षरूप से उभर कर सामने आया। वैसे बाल्यावस्था से ही यह दृढ़ता उनके भीतर मौजूद थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबसे दुरूह दायित्व वल्लभ भाई की प्रतीक्षा कर रहा था। यह दायित्व था देशी रियासतों के एकीकरण का। यदि स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के बाद भी भारत पूर्व की भांति अनेक रियासतों में बंटा रहता तो उस स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं रहता। क्योंकि वे रियासतें स्वार्थ के वशीभूत देश की प्रगति में बाधाएं खड़ी करने का काम करतीं। किन्तु वल्लभ भाई किसी भी मूल्य पर स्वतंत्रता के महत्व को कम नहीं होने दे सकते थे। वल्लभ भाई ने ऐसा राजनीतिक दृढ़ता का चमत्कार कर दिखाया कि एक वर्ष के भीतर ही अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारतीय संघ में विलीन होकर उसका एक उपयोगी अंग बन गईं। सरदार पटेल का नाम भारत की तत्कालीन 563 रियासतों के भारत में विलीनीकरण के कारण बहुत ही सम्मान से लिया जाता है। उनके ‘लौहपुरूष’ होने का प्रमाण उनके द्वारा रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने के उनके महान कार्य में देखने को मिला।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम में राजशाही का कोई विशेष योगदान नहीं था। बहुत से शासक केवल नाममात्र के शासक थे। छोटे-छोटे रजवाड़े अपने किलों में या दरबारों में अपनी प्रशंसा कराके ही खुश हो जाते थे। परंतु इसके उपरांत भी उनके भीतर यह इच्छा अवश्य थी कि स्वतंत्र भारत में संभवतः वह भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सकेंगे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी वे अपनी राजशाही का स्वप्न देख रहे थे। उनकी यह अभिलाषा उस समय और भी बलवती हो गयी जब अंग्रेजों ने भारतीय रियासतदारों को यह अधिकार दे दिया कि वह चाहें तो भारत के साथ जा सकते हैं, चाहें तो पाकिस्तान के साथ जा सकते हैं और यदि चाहें तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाए रख सकते हैं। वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली पुस्तक है ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’(1955) और दूसरी पुस्तक (1957) का ष्शीर्षक है- ‘‘दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डिया’’। पहली पुस्तक ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’ पुस्तक में उल्लेख है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे एटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे। माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।’’
माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने सरदार पटेल की सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया। इतिहास लेखिका ऑलेक्स फॉन टुलसेनमाल के अनुसार अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। टुलसेनमाल ने लिखा है कि -”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था तथा वह मुस्लिम था जबकि उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतः मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे। उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500मील से ज्यादा दूर।’’
इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरू और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल ने कठोरता से काम लेते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है।
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सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि 31 अक्टूबर 1875 को जब वल्लभ भाई का जन्म हुआ तो गांव में अनेक शुभ समाचार प्राप्त हुए जिससे वल्लभ भाई के जन्म को शुभ मानते हुए प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वल्लभ भाई जन्म से ही आकर्षक छवि के थे। गांव के लोग उन्हें अपनी गोद में लकर दुलारना पसन्द करते थे। उस समय यह किसी को पता नहीं था कि यही बालक एक दिन आधुनिक भारत का निर्माता बनेगा। सरदार वल्लभ भाई पटेल के पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। करमसाड गांव के आस-पास दो उपजातियों क निवास था-लेवा और कहवा। इन दोनों उपजातियों की उत्पत्ति भगवान रामचन्द्र के पुत्रों लव और कुश से मानी जाती है। वल्लभ भाई पटेल का परिवार लव से उत्पन्न लेवा उपजाति का था जो पटेल उपनाम का प्रयोग करते थे। वल्लभ भाई के पिता मूलतः कृषक होते हुए भी एक कुशल योद्धा एवं शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी थे। स्वतंत्र भारत को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आधुनिक स्वरूप प्रदान करने वाले व्यक्तित्व सरदार वल्लभ भाई पटेल का जीवन स्वयं में एक आदर्श जीवन था। उन्होंने कभी भी समझौतावादी नहीं किया। वे स्पष्टवादी थे तथा ऐसे ही आचरण की अपेक्षा दूसरों से भी रखते थे। उनके विचारों में असीम दृढ़ता थी। वे जो कार्य एक बार स्वीकार कर लेते उसे हर हाल में सफलतापूर्वक पूरा करके ही विश्राम करते। उनका यह स्वरूप भारतीय रियासतों के विलय के समय प्रत्यक्षरूप से उभर कर सामने आया। वैसे बाल्यावस्था से ही यह दृढ़ता उनके भीतर मौजूद थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सबसे दुरूह दायित्व वल्लभ भाई की प्रतीक्षा कर रहा था। यह दायित्व था देशी रियासतों के एकीकरण का। यदि स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के बाद भी भारत पूर्व की भांति अनेक रियासतों में बंटा रहता तो उस स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं रहता। क्योंकि वे रियासतें स्वार्थ के वशीभूत देश की प्रगति में बाधाएं खड़ी करने का काम करतीं। किन्तु वल्लभ भाई किसी भी मूल्य पर स्वतंत्रता के महत्व को कम नहीं होने दे सकते थे। वल्लभ भाई ने ऐसा राजनीतिक दृढ़ता का चमत्कार कर दिखाया कि एक वर्ष के भीतर ही अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारतीय संघ में विलीन होकर उसका एक उपयोगी अंग बन गईं। सरदार पटेल का नाम भारत की तत्कालीन 563 रियासतों के भारत में विलीनीकरण के कारण बहुत ही सम्मान से लिया जाता है। उनके ‘लौहपुरूष’ होने का प्रमाण उनके द्वारा रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने के उनके महान कार्य में देखने को मिला।
भारत की स्वतंत्रता संग्राम में राजशाही का कोई विशेष योगदान नहीं था। बहुत से शासक केवल नाममात्र के शासक थे। छोटे-छोटे रजवाड़े अपने किलों में या दरबारों में अपनी प्रशंसा कराके ही खुश हो जाते थे। परंतु इसके उपरांत भी उनके भीतर यह इच्छा अवश्य थी कि स्वतंत्र भारत में संभवतः वह भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रख सकेंगे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी वे अपनी राजशाही का स्वप्न देख रहे थे। उनकी यह अभिलाषा उस समय और भी बलवती हो गयी जब अंग्रेजों ने भारतीय रियासतदारों को यह अधिकार दे दिया कि वह चाहें तो भारत के साथ जा सकते हैं, चाहें तो पाकिस्तान के साथ जा सकते हैं और यदि चाहें तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी बनाए रख सकते हैं। वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली पुस्तक है ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’(1955) और दूसरी पुस्तक (1957) का ष्शीर्षक है- ‘‘दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डिया’’। पहली पुस्तक ‘‘दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स’’ पुस्तक में उल्लेख है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे एटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे। माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।’’
माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने सरदार पटेल की सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया। इतिहास लेखिका ऑलेक्स फॉन टुलसेनमाल के अनुसार अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। टुलसेनमाल ने लिखा है कि -”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था तथा वह मुस्लिम था जबकि उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतः मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे। उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500मील से ज्यादा दूर।’’
इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरू और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल ने कठोरता से काम लेते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल राजनीति जगत के वह स्तम्भ थे जिनका क़द किसी भी स्टेच्यू या किसी भी राजनीतिज्ञ से बहुत बड़ा है। भारत का एक राष्ट्र के रूप में जो एकीकृत स्वरूप है, वह सरदार पटेल की ही देन है।
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( सागर दिनकर, 30.10.2018)
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