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Wednesday, September 21, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-5 | दलबदल विरोधी कानून पर राय,फैसले और दृष्टिकोण | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
राजनीतिक दलबदल : अध्याय-5
दलबदल विरोधी कानून पर राय,फैसले और दृष्टिकोण
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                             दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला, अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखे, अध्याय-4 में दलबदल विरोधी कानून और उसके प्रभाव को देखा। अब अध्याय-5 के रूप में इस अंतिम किस्त में देखते हैं कि आखिर दलबदल विरोधी कानून पर राजनीतिक आकलनकर्ताओं, विद्वानों और न्यायालय का क्या कहना है? इस लेखमाला के प्रिय पाठकों इस अंतिम किस्त के बाद इस विषय पर स्वतंत्र चिंतन करने की आपकी बारी रहेगी।      

(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)
            हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य निबंध है-‘‘आवारा भीड़ के खतरे’’। अपने इस व्यंग्य में परसाई ने नेताओं और युवाओं के संबंधों को लक्ष्य किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘ऊंची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?’’
कमोवेश यही स्थिति निर्वाचित नेताओं एवं आमजनता के बीच है। आमजनता समझ नहीं पाती है कि जिसे चुना था आमपार्टी के लिए वह अमरूद पार्टी में पहुंच गया।
दलबदल पर रोक लगाने के लिए दलबदल विरोधी कानून लाया गया। लेकिन क्या यह दलबदल रोक सका? पिछले एक दशक से अब तक अनेक उदाहरण सबके सामने हैं। यह अनुभव किया जाने लगा कि इस कानून में रफू किए जाने की ज़रूरत है। वहीं कुछ विद्वान मानते हैं कि इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। फैजान मुस्तफा अकादमिक और कानूनी विद्वान हैं। वे नेशनल अकादमी आॅफ लीगल स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद के कुलपति रह चुके हैं। उनके अनुसार दलबदल कानून में बदलाव लाने की जरूरत है। फैजान मुस्तफा कहते हैं कि ‘‘कानून में संशोधन कर ये प्रावधान किया जाना चाहिए कि दल बदल करने वाला विधायक पूरे पांच साल के टर्म में चुनाव नहीं लड़ सकता. या फिर वो अविश्वास प्रस्ताव में वोट देंगे तो तो वोट काउंट नहीं किया जाएगा।’’
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता ने दलबदल पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि दल-बदल कानून के दायरे से बचने के लिए विधायक या सांसद इस्तीफा दे रहे हैं। लेकिन ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि जिस पीरियड के लिए वो चुने गए थे, अगर उससे पहले उन्होंने स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया, तो उन्हें उस वक्त तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा।  विराग गुप्ता के अनुसार, ‘‘देशव्यापी कोई बहुत बड़ी वजह हो, आदर्शों की बात है या कोई बहुत उसूलों की बात है। तब तो ठीक है, लेकिन बिना वजह त्याग पत्र देने के बाद अगला चुनाव आप फिर से लड़ रहे हैं. तो ये तकनीकी तौर पर तो सही है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये सारे लोग कानून में बारूदी सुरंग लगा रहे हैं। किसी भी कानून को तोड़ने वाले उसका तरीका निकाल लेते हैं, यहां जो तोड़ निकाला गया है, उसे रिसॉर्ट संस्कृति का नाम दिया जा रहा है।’’
15 जुलाई 2022 को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पीठासीन अधिकारियों के साथ एक बैठक कर के दलबदल कानून पर गहन विचार-विमर्श करने का निर्णय लिया था। इस बैठक में राज्यसभा के उपसभापति और 17 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पीठासीन अधिकारियों ने भाग लिया था। बैठक में दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने पर भी चर्चा हुई और कानून में संशोधन पर सीपी जोशी कमेटी की रिपोर्ट पर विचार किया गया था। लोकसभा अध्यक्ष ने दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के मुद्दे को महत्वपूर्ण बताते हुए उसे तय कर अंतिम रूप देने की बात कही थी। लेकिन बैठक में तय हुआ कि मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है और इस पर जल्दबाजी में कुछ नहीं होना चाहिए अंतिम निर्णय से पहले सभी हित धारकों जैसे पीठासीन अधिकारियों, संवैधानिक विशेषज्ञों और कानूनी विद्वानों के साथ विचार विमर्श किया जाए। दलबदल विरोधी कानून के बावजूद दलबदल की समस्या बनी रहने पर लोकसभा अध्यक्ष ने वर्ष 2021 में दलबदल विरोधी कानून को मजबूत करने के लिए सीपी जोशी कमेटी का गठन किया था।
देश में विधानसभाओं के बारे में जानकारी के लिए एक मंच की आवश्यकता पर जोर देते हुए लोकसभा अध्यक्ष ने कहा था कि एक डिजिटल प्लेटफार्म तैयार किया जा रहा है और इस प्लेटफार्म पर देश की सभी विधानसभाओं की डिबेट्स उपलब्ध होगी। उन्होंने राज्य विधानसभाओं की बहसों को साझा करने के लिए पीठासीन अधिकारियों से सहयोग मांगा ताकि एक मजबूत डिजिटल प्लेटफार्म तैयार किया जा सके। नियमों और प्रक्रियाओं की एकरूपता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि पंचायतों सहित सभी लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित विधायी निकायों के लिए नियमों और प्रक्रियाओं की एकरूपता, जमीनी स्तर से लोकतंत्र को मजबूत करेगी।
इससे पूर्व भी दलबदल कानून को ले कर कई बार विचार-विमर्श किया गया तथा कानून में सुधार की सिफारिशें भी की गईं। जैसे -
चुनावी सुधारों पर दिनेश गोस्वामी समिति (1990)- इस समिति ने सुझाव दिया कि अयोग्यता उन मामलों तक सीमित होनी चाहिए जहां
- एक सदस्य स्वेच्छा से अपने विधायक दल की सदस्यता छोड़ देता है,
- एक सदस्य विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव में पार्टी व्हिप के विपरीत वोट देने या वोट देने से परहेज करता है।
- अयोग्यता का मामला चुनाव आयोग के मार्गदर्शन में राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल द्वारा तय किया जाना चाहिए।
दलबदल विरोधी कानून पर हलीम समिति (1998) - इस समिति की सिफारिश थी कि
- किसी राजनीतिक दल की ‘‘स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना’’ शब्दों को पूरी तरह से रेखांकित किया जाना चाहिए।
- किसी अन्य पार्टी में शामिल होने या सरकार में पद धारण करने पर प्रतिबंध जैसी सीमाएं निष्कासित सदस्यों पर लागू की जा सकती हैं।
- राजनीतिक दल शब्द को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाना चाहिए।
विधि आयोग (170वीं रिपोर्ट, 1999) - विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में दलबदल विरोधी कानून का आकलन करते हुए सुझाव दिया था कि
- विभाजन और विलय को अयोग्यता से छूट देने वाले प्रावधानों या विनियमों को हटाने की आवश्यकता है।
- दलबदल विरोधी कानून के तहत चुनाव पूर्व चुनावी मोर्चों को राजनीतिक दलों के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए।
- राजनीतिक दलों को व्हिप जारी करने में तभी कटौती करनी चाहिए जब सरकार खतरे में हो।
संविधान समीक्षा आयोग (2002) - संविधान समीक्ष आयोग ने 2002 में यह सिफारिश की थी कि
- दलबदलुओं को शेष कार्यकाल की अवधि के लिए सार्वजनिक पद या किसी भी आकर्षक राजनीतिक पद को धारण करने से रोका जाना चाहिए।
- सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए दलबदलू द्वारा डाले गए वोट को अमान्य माना जाना चाहिए।

 सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख फैसले - कुछ मामले न्यायालय तक गए जिन पर न्यायालय द्वारा महत्वपूर्ण फैसले दिए गए। इनमें से उल्लेखनीय प्रकरण हैं-
किहोतो होलोहन बनाम जाचिलु और 1992 का प्रकरण - 1992 के किहोतो होलोहन बनाम जाचिलु और अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्पीकर या अध्यक्ष द्वारा निर्णय लेने से पहले एक चरण में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है और अध्यक्ष द्वारा किए गए परीक्षण में किसी भी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जाएगी। यद्यपि इस मामले से पहले अध्यक्ष या अध्यक्ष के फैसले को अंतिम माना जाता था और न्यायिक मूल्यांकन के अधीन नहीं था। इस प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था।
1994 का रवि एस नाइक बनाम भारत संघ का प्रकरण - 1994 के रवि एस नाइक बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि “एक राजनीतिक दल की स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना” शब्दों के बड़े निहितार्थ थे और इस्तीफे का पर्याय नहीं थे।
राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य 2007 का प्रकरण - 2007 के राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उल्लेख किया कि यदि स्पीकर किसी आरोप पर कार्रवाई करने में विफल रहता है या विभाजन या विलय के दावों को बिना कोई निष्कर्ष निकाले स्वीकार करता है तो वह दसवीं अनुसूची के अनुसार कार्य करने में विफल रहता है। उन्हें अपने संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन करने वाला भी माना जाता है।
वस्तुतः दलबदल पर राजनीतिक दलों की टीका-टिप्पणी का प्रश्न है तो हर वह दल सुधार और कड़ाई की मांग करता है जिसके सदस्य दूसरे दल से जा मिलते हैं। वहीं, वह दल जिसमें दूसरे दल से लोग आते हैं, दलबदल कानून के लचीलेपन को उचित ठहराता है। देखा जाए तो दलबदल का प्रकरण ही अति संवेदनशील मामला है। यदि किसी जननिर्वाचित नेता को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके मूल दल में रुकने को विवश किया जाए तो यह एक तरह से लोकतंत्र का हनन होगा। वहीं, किसी जननिर्वाचित नेता लालच में फंस कर या उसे लालच में फंसा कर एक दल से दूसरे दल में में जाने के लिए बाध्य किया जाए तो यह भी लोकतंत्र के प्रति घात होगा। दरअसल, दलबदल किसी भी जननिर्वाचित नेता के स्वविवेक एवं राजनीति से जुड़ी उसकी चारित्रिक शुद्धता का मामला है। यदि वह अपने मतदाताओं को अपने दलबदल के कारणों के प्रति सहमत कर लेता है तो उसके ध्येय के प्रति संदेह नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल, दलबदल विरोधी वर्तमान स्थितियों, इसके इतिहास, इसके कानून तथा इसके प्रति दृष्टिकोण की ‘‘चर्चा प्लस’’ के अंतर्गत जारी इस लेखमाला को यहीं विराम देती हूं। अगली ‘‘चर्चा प्लस’’ में किसी नवीन मुद्दे पर चर्चा होगी। किन्तु आप सभी पाठक भारतीय राजनीति में दलबदल की स्थितियों पर चिंन्तन जारी रखें जो कि हमारे लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।    
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Thursday, September 8, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक दलबदल | अध्याय-4 | दलबदल विरोधी कानून और उसका प्रभाव | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
राजनीतिक दलबदल : अध्याय-4
दलबदल विरोधी कानून और उसका प्रभाव
         - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

           दलबदल के संदर्भ में मैंने आपसे लोकतंत्र के बारे में अध्याय-1 में चर्चा की, अध्याय-2 में दलबदल की प्रचीनता को टटोला, अध्याय-3 में इतिहास के पन्ने पलट कर देखे। अब अध्याय-4 में देखते हैं कि आखिर दलबदल निषेध कानून क्या है? यह कितना कारगर साबित हुआ? क्या यह कानून अब मूल्यहीन हो कर रह गया है अथवा इसकी अर्थवत्ता अभी भी शेष है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दलबदल एक लाभप्रद पैकेज का रूप लेता जा रहा है?     

(डिस्क्लेमेर: इस पूरी धारावाहिक चर्चा का उद्देश्य किसी भी नए या पुराने राजनीतिक दल, जीवित अथवा स्वर्गवासी राजनेता अथवा राजनैतिक विचारकों की अवमानना करना नहीं है, यह मात्र इस उद्देश्य से लिख रही हूं कि भारतीय राजनीति की चाल, चेहरा, चरित्र के बदलते हुए स्वरूप का आकलन करने का प्रयास कर सकूं। अतः अनुरोध है कि इस धारावाहिक आलेख को कोई व्यक्तिगत अवमानना का विषय नहीं माने तथा इस पर सहृदयता और खुले मन-मस्तिष्क से चिंतन-मनन करे। - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह)


दलबदल को यदि सरल शब्दों में परिभाषित किया जाए यही कहा जाएगा कि यदि कोई विधायक या सांसद अपने दल का परित्याग कर दूसरे दल में चला जाए तो उसे दलबदल माना जाएगा। सन् 1985 तक दलबदल की इतनी घटनाएं हुई कि दलबदल विरोधी कानून लाए जाने की आवश्यकता का अनुभव होने लगा। अंततः संसद ने दलबदल पर रोक लगाने के लिए 52 वां संविधान संशोधन एक्ट 1985 सर्वसम्मति से पारित कर दिया। दलबदल करने वालों की सदस्यता की इस अधिनियम के तहत क्या स्थिति होगी, इसका प्रावधान स्पष्ट किया गया कि:-
दलबदल करने वाले की संसद या विधानसभा की सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी- यदि वह स्वेच्छा से अपने दल से त्यागपत्र दे दे। यदि वह अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके किसी निर्देश के प्रतिकूल मतदान में उपस्थित रहे। (पंरतु यदि पंद्रह दिन के अंदर दल उसे इस उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।) यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए। यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के छह माह के बाद किसी राजनीतिक दल में सम्मलित हो जाए।

वहीं किसी राजनीतिक दल के विघटन पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी, यदि मूल दल के एक-तिहाई सांसद, विधायक दल छोड़ दें। इसी प्रकार विलय की स्थिति में भी दलबदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें। दलबदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अंतिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तेक्षप करने का अधिकार नहीं होगा। सदन के अध्यक्ष को इस विधेयक को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार होगा।
दरअसल उन सारी स्थितियों को दलबदल के रूप में माना गया जिनमें किसी विधायक का किसी दल विशेष के टिकट पर निर्वाचित होने के बाद अपने पद को और दल को छोड़ देना तथा किसी दूसरे राजनीतिक दल में शामिल होना। अपने दल को छोड़ने के बाद निर्दलीय बन जाना। आम चुनावों में निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ना और निर्वाचित होने के बाद किसी दूसरे विशेष दल में शामिल हो जाना। अपने दल की बुनियादी नीतियों का लगातार विरोध करना। दल के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन न करना। जब एक मिली-जुली सरकार के घटक राजनीतिक दलों के सदस्य उस सरकार के एक घटक दल को छोड़ अन्य घटक दल में शामिल हो जाए या फिर विरोधी दलों में से अपना दल छोड़कर, दूसरे विरोधी दल में शामिल हो जाना या राजनीतिक पदों और निजी स्वार्थ के लिए अपना दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल होना इत्यादि।
11 अगस्त, 1968 को कांग्रेसी सांसद पी बेंकटसुबैया ने अनैतिक रूप से दलबदल रोकने के लिए एक गैर-सरकारी प्रस्ताव लोकसभा के सामने रखा था। इसमें उस दौर के प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये ने कुछ महत्वपूर्ण संशोधन सुझाए थे। इसमें एक सुझाव यह था कि दलबदलुओं को न केवल मंत्री पद आदि से वंचित किया जाए, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी दंडित किया जाए, और न केवल दलबदलू सदस्य को बल्कि दलबदलुओं को शरण देने वाली पार्टी को भी दंडित किया जाए। उस समय उस पर विचार कर के उसे लगभग भुला दिया गया।
फिर 30 जनवरी 1985 को लोक सभा ने दलबदल विरोधी कानून पारित कर दिया। दलबदल विरोधी कानून संविधान (52वां संशोधन) अधिनियम, 1985 द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची में शामिल किया गया था। उस समय यह लगा कि अब दलबदल की घटनाओं में कमी आएगी किन्तु ऐसा हुआ नहीं। अपितु दलबदल विरोधी कानून को ही चुनौतियां दी गईं। दलबदल कानून की वैधता को पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाशसिंह बादल और 25 अन्य विधायकों ने चुनौती दी थी। ये सभी विधायक अकाली दल से पृथक हो गए थे। फिर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1 मई 1987 को एक महत्वपूर्ण निर्णय में दलबदल रोकने के लिए बनाए गए संविधान के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध ठहराया था लेकिन कोर्ट ने इसकी धारा 7 को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। अधिनियम की धारा 7 में यह प्रावधान है कि किसी सद्स्य को अयोग्य ठहराए जाने के निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस निर्णय के कुछ ही समय बाद पंजाब के विधानसभा अध्यक्ष सुरजीतसिंह मिन्हास ने प्रकाशसिंह बादल सहित 11 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था, जिससे उनकी सीट खाली हो गई थी।

दलबदल रोकने के लिए 52 वां संविधान संशोधन जैसा कानून बन जाने के बाद भी एक रिपोर्ट के अनुसार नागालैंड (1988), मिजोरम (1988), कर्नाटक (1989), गोवा (1990), नागालैंड (1990), मेघालय (1991), मणिपुर (1992), नागालैंड (1992) और मणिपुर (2001) में दलबदल हुआ था। उस स्थिति में कानून के प्रावधानों को लागू न करके वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। साल 1998-99 में गोवा दलबदल चर्चा में रहा। गोवा में लगभग 17 महीने में पांच मुख्यमंत्री बदल गए थे और फरवरी-जून 1999 में चार महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। 28 जुलाई, 1989 को राज्यसभा के सभापति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की राज्यसभा की सदस्यता दलबदल अधिनियम के तहत समाप्त कर दी थी।
नंवबर 1990 में केंद्र में वी.पी सिंह सरकार के पतन के बाद जिस तरह चंद्रशेखर के नेतृत्व में 54 सांसदों के एक गुट ने दलबदल करते हुए समाजवादी जनता पार्टी के रूप में विपक्षी कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में दलबदल के जरिए नई सरकार बना कर दलबदल विरोधी कानून के अवहेलना की एक नई मिसाल कायम कर दी गई। यद्यपि कुछ समय बाद लोकसभा अध्यक्ष रवि राय ने उनके मंत्रिमंडल के मात्र 5 सदस्यों को 52 वें संविधान संशोधन के तहत दलबदल का दोषी पाया और उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी गई थी। किन्तु यह कदम इतना बड़ा नहीं था कि इसका व्यापक प्रभाव पड़ता। दलबदल का खेल जारी रहा। 19 अक्टूबर, 1997 को कल्याण सिंह की सरकार से मायावती द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद कल्याण सिंह ने बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस, जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के दलबदलुओं को मंत्रिमंडल में शामिल करके 93 सदस्यीय मंत्रिमंडल बना लिया था। 31 दिसंबर, 2016 को अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू सहित पीपुल्स पार्टी ऑफ अरूणाचल (पीपीए) के 33 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे।
दलबदल के कुछ मामले सुप्रीम कोर्ट तक गए। सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दलबदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया जिसमें मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष के. आर. किंडियाह के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें उन्होंने लिंगदोह मंत्रिमंडल के पाच सदस्यों को बर्खास्त कर दिया था, जो निर्दलीय विधायक थे। इन विधायकों को बर्खास्त किए जाने से एक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। कोर्ट ने दलबदल विरोधी कानून को वैध ठहराया, लेकिन 10 वीं अनुसूची के अनुच्छेद 7 के प्रावधानों को स्पष्ट किया। अनुच्छेद 7 के अनुसार अध्यक्षों के निर्णयों पर कोर्ट को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने दलबदल विरोधी अधिनिमय के इस प्रावधान को अवैध करार दिया। कोर्ट के मुताबिक किसी सदस्य को अयोग्य करार देते समय अध्यक्ष या सभापति न्यायाधिकरण के रुप में कार्य करते हैं, इसलिए न्यायाधिकरण के निर्णयों की तरह उनके निर्णयों पर भी कोर्ट के द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
मगर दलबदल धीरे-धीरे लाभ के सौदे में बदलता गया और पिछले दो दशक में इतर की घटनाओं तेजी देखी गई। महाराष्ट्र में शिवसेना पार्टी के विधायकों द्वारा दलबदल करने के कारण मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार को गिरा कर शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के बाद देश का दलबदल निरोधक कानून ध्वस्त होता दिखा। इससे पूर्व कर्नाटक व मध्य प्रदेश में बड़े पैमाने पर विधायकों का दलबदल हुआ और पुरानी सरकारें कगरा कर नई सरकारें बनाई गईं। 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में पूर्ण बहुमत नहीं मिलने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बसपा से चुनाव जीते सभी 6 विधायकों को कांग्रेस में शामिल करवा कर बहुमत प्राप्त कर लिया था। बिहार विधानसभा में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद ने असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी के 5 में से 4 विधायकों को दल बदल करवा कर राजद में शामिल करवा लिया। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने कांग्रेस के अधिकांश विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करवा लिया। सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी के दस विधायक दलबदल कर भाजपा में शामिल हो गए थे।
अब यह देखने में आता है कि दलबदल करने वाले विधायक अथवा संासद सामूहिक रूप से दलबदल करते हैं। जिससे तत्कालीन सरकार गिर जाती है। इस दौरान दलबदलुओं को 5 स्टार रिसाॅर्टस् में रख कर सारी सुख-सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं और इससे पहले ‘‘लाभ के सौदे’’ की ‘‘डील’’ हो चुकी होती है। नई सरकार बनने पर दलबदलुओं उनकी इच्छानुरूप पद दे दिए जाते हैं। यानी दलबदल करने वालों को मिलता है एक शानदार चमचमाता हुआ ‘‘फुल पैकेज’’। शायद यही कारण है कि अपनी मूल पार्टी के प्रति निष्ठा गौण होने लगती है और वह मत भी विस्मृत कर दिया जाता है जिसे दे कर जनता ने उसे उस महत्वपूर्ण पद तक पहुंचाया होता है।
दलबदल की तेज होती घटनाओं को देखते हुए अब यह मांग उठने लगी है कि दलबदल कानून में आवश्यक संशोधन कर के उसे और कड़ा बनाया जाए। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या इसका कोई ठोस प्रभाव पड़ सकेगा? क्या मंत्रीपद एवं अन्य प्रकार का प्रलोभन दलबदल कानून पर भारी नहीं पड़ेगा? इससे भी बड़ा प्रश्न कि अधिक कठोरता बरतने पर कहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच निरंकुशता के बीज तो नहीं उगने लगेंगे? राजनीतिक आकलनकर्ताओं, विद्वानों और संचार माध्यमों की बहुचर्चित टिप्पणियों के आधार पर इसका आकलन करूंगी अगली अर्थात इस लेखमाला की पांचवीं और अंतिम किस्त में।
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