Friday, July 4, 2025

शून्यकाल | तुलसीदास के काव्य में आदर्श परिवार की अवधारणा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -'शून्यकाल'
तुलसीदास के काव्य में आदर्श परिवार की अवधारणा
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
     गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं के केन्द्र में है रामकथा। श्रीराम जिन्हें आदर्श पुरुष अर्थात पुरुषोत्तम माना गया है। यही रामकथा परिवार के टूटने और परिवार को टूटने से बचाने की भी कथा है। इसी रामकथा को आधार बना कर तुलसीदास ने अपने काव्य में एक आदर्श परिवार की जो अवधारणा प्रस्तुत की है, वह हर युग में महत्व रखती है। विशेषरूप से वर्तमान में जब परिवार टूट कर बिखर रहे हैं। पारिवारिक संबंधों में शिथिलता और स्वार्थ का बोलबाला है। ऐसे संवेदनहीन समय में तुलसीदास की पारिवारिक अवधारणा को जानना और समझना और अधिक आवश्यक हो जाता है। ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ का नित्य पाठ करने मात्र से वह इच्छित परिणाम (पुण्य) नहीं मिल सकता है जो उसमें निहित संदेशों को समझने से परिणाम मिल सकता है।
        यदि रामकथा को जन-जन तक पहुंचाने में अपनी सबसे बड़ी भूमिका यदि किसी ने निभाई है तो वह है गोस्वामी तुमलसीदास के काव्य ने। तुलसी का समग्र रचनाकर्म रामकथा पर आधारित एवं केन्द्रित है। रामकथा भारतीय संस्कृति के जिन मूल्यों को प्रस्तुत करती है उसमें पारिवारिक संरचना का विशेष स्थान है। तुलसीदास भी एक आदर्श लोकमंगलकारी समाज में एक आदर्श परिवार की स्थापना का आह्वान करते हैं। रामकथा में आरंभ में परिवार का एक सुंदर स्वरूप दिखाई देता है। ऐसा स्वरूप जिसमें तत्कालीन पारिवारिक संरचना के अनुरुप पिता, माताएं एवं पुत्र हैं। सभी में पारस्परिक वचनबद्धता है। पुत्रों में आज्ञाकारिता है। वे गुरुकुल में अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं तथा अपने पिता के गृह पर होने पर माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। इसी रामकथा में पारिवारिक टूटन की स्थिति तब आती है जब दासी मंथरा की मंत्रणा पर कैकयी राम को 14 वर्ष का वनवास और अपने पुत्र भरत के लिए राजगद्दी मांग लेती है। यहां स्वार्थ परिवार को तोड़ता है। भाई-भाई में परस्पर द्वंद्व और युद्ध हो सकता था किन्तु राम इस स्थिति को टाल देते हैं और अपने पिता के आदेश को शिरोधार्य कर के वनगमन कर जाते हैं। जब परिवार के टूटने की घड़ी आती है तो तो कई सदस्यों पर उसका गहरा असर पड़ता है, फिर वह चाहे राजा का परिवार हो या रंक का परिवार।  

    तुलसीदास के अनुसार आदर्श परिवार में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं होता है। सभी संबंध घनिष्ठ और उदार होने चाहिए। इसीलिए राज्याभिषेक की बात आते ही तुलसी के राम चिन्तित हो कर सोचते हैं कि - 
जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।
करनबेध उपबीत बिआहा। संग-संग सब भए उछाहा।
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बन्धु बिहाई बड़ेहि अभिषेक।
      अर्थात - हम सब भाई एक ही साथ जन्में, खाना-पीना, खेलकूद यहां तक कि कनछेदन, जनेऊ संस्कार और विवाह भी एक साथ हुए, फिर राज्याभिषेक मेरा ही क्यूँ? मात्र इसलिए कि मैं अपने भाइयों में सबसे बड़ा हूं? यह कैसा नियम है? 

    तुलसीदास के राम पारिवारिक मूल्यों की रक्षा करते हुए वनवास का आदेश ग्रहण कर लेते हैं। वे कैकयी से प्रेमपूर्वक मिलते हैं। किन्तु यहां तुलसी स्मरण कराते हैं कि कैकयी ने तपस्वीवेश में वनवास करने का आदेश कराया था-
तापस बेष बिसेषि उदासी। 
चौदह बरिस रामु बनबासी। 

तुलसी के राम को यह भी स्वीकार है। वे अपनी सौतेली माता की इच्छा को ठुकरा कर अपने पिता को लज्जित होते नहीं देखना चाहते हैं- 
सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी। जो पितु-मातु बचन अनुरागी।।
    अर्थात - हे माता! सुनो, वही पुत्र सबसे बड़ा भाग्यशाली है, जो अपने माता-पिता के बचनों का अनुरागी है। यहाँ पारिवारिक त्याग अपनी उत्कृष्टता को प्राप्त करता है। राम तो यह भी कहते हैं कि - 
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।।
       अर्थात - मेरे प्राणप्रिय भ्राता भरत राजगद्दी पाएंगे, मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? ऐसा प्रतीत होता है, मानो विधाता हर प्रकार से मेरे अनुकूल है।

      तुलसी एक बार फिर आदर्श परिवार की अवधारणा को सामने रखते हुए भरत को आत्मग्लानि एवं पश्चाताप से भरा हुआ वर्णित करते हैं क्योंकि भरत को लगता है कि पिता की मृत्यु और राम के वनगमन का कारण वे स्वयं को मानते हैं। यानी तुलसी की दृष्टि में आदर्श परिवार वही है जिसमें सभी व्यक्ति अपनी भूमिका और अपने दायित्वों को भली-भांति समझें और उनका पालन करें। तुलसी लिखते हैं-
भरतहि विसरोउ पितुमरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौन।
        अर्थात - राम का वन जाना सुनकर भरत, पिता की मुत्यु भूल गए और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण स्वयं को मानकर व्यथित हैं, क्रोधित हैं। भरत अपनी माता को किस तरह उनके कृत्य के लिए धिक्कारते हैं, इसे तुलसी के शब्दों में देखिए - 
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।
पेड़ काटि तै पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।
        अर्थात - मां आने जो किया है, उससे तो अच्छा था कि आप मुझे जन्म लेते ही मार देतीं। मां आपने पेड़ को काट कर पत्ते को सींचने की अभिलाषा रखी। आपने तो मछली को ही जलविहीन कर दिया है। यहां तुलसी एक पुत्र द्वारा अपनी मां को उसका अपराध बताने कार्य करते हैं क्योंकि आदर्श परिवार में पारिवारिक सदस्यों के अपराधों पर पर्दा डालने के स्थान पर उन्हें उनकी त्रुटि का भान कराना आधिक आवश्यक है। 

     तुलसी राम के जीवन एवं परिवार को ही दृष्टि में नहीं रखते हैं अपितु वे उस समाज में भी आदर्श परिवार की आकांक्षा रखते हैं जिसमें बालि और सुग्रीव जैसे वानर वंशीय हैं। सुग्रीव बालि को मृत समझकर राजसिंहासन पर बैठ जाता है। वहीं बालि लौटते ही सुग्रीव को अपना शत्रु समझ कर उसकी पत्नी का हरण कर लेता है। तुलसी की दृष्टि में यह बहुत बड़ा पारिवारिक अपराध है, साथ ही मर्यादा का उल्लंघन भी। बालि की मुत्यु के समय का वर्णन करते हुए तुलसीदास ने ‘‘श्रीरामचरित मानस’’ में राम के द्वारा उसके पापकर्म का स्मरण कराते हैं-
अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई। ताहि बधें  कछु पाप न होई।।
       अर्थात - छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं, जो व्यक्ति इन पर कुदृष्टि डालता है उसका मारना पाप नहीं है।
रावण राक्षसी प्रवृति का था। उसने सीता का अपहरण करके पारिवारिक मर्यादा एवं मूल्यों को तोड़ा था। किन्तु रावण के परिवार में उसकी पत्नी मंदोदरी स्थिति को सम्हालने का हर संभव प्रयास करती है क्योंकि वह समझ रही है कि उसका पति कालवश भ्रमित हो कर गलत कार्य कर रहा है- 
मन्दोदरी मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।

तुलसी उस स्थान पर तनिक ठिठकते हैं जहां कुम्भकर्ण, मेघनाद, त्रिजटा आदि रावण के प्रति अपने पारिवारिक संबंध और दायित्व को जीते हैं किन्तु वहीं विभीषण परिवारद्रोह करता है और राम की शरण में चला जाता है। यहां पारिवारिक आदर्श के साथ पारिवारिक प्रतिष्ठा को शामिल करते हुए तुलसी विभीषण की भक्ति भावना की प्रशंसा करते हैं और पारिवारिक आदर्श में विभीषण के खरे उतरने या न उतर पाने के फेर में नहीं पड़ते हैं। अर्थात तुलसी यहां मौन रह कर भी यह संदेश दे देते हैं कि ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत’’ पूरा परिवार या परिवार का कोई प्रभावशाली सदस्य यदि आपराधिक अति करे तो उसका साथ छोड़ना आदर्श अवहेलना नहीं है। इस तरह देखा जाए तो तुलसी अपने काव्य के द्वारा आदर्श समाज की अपनी अवधारणा को सोदाहरण सामने रखते हैं जिसे आज के समय में समझना अत्यंत आवश्यक है। तुलसी का पारिवारिक आदर्श सैद्धांतिक नहीं वरन व्यवहारिक है। इससे समाज में भी आदर्श मूल्यों की स्थापना हो सकती है।
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Thursday, July 3, 2025

बतकाव बिन्ना की | चल रओ असाढ़ को मंगल और बिटियां कर रईं अमंगल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
चल रओ असाढ़ को मंगल और बिटियां कर रईं अमंगल
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

‘‘काए भौजी, ऐसी उदासी काए बैठीं?’’ मैंने देखी के भौजी अंगना में डरे पलका पे पांव सिकोड़े अपने हाथन में मूंड़ दए बैठी हतीं।
‘‘अरे का कएं बिन्ना, हमाओ आज जी जाने कैसो-कैसो हो रओ!’’ भौजी तनक बुझी-बुझी सी बोलीं।
‘‘काए का हो गओ? भैयाजी से रार हो गई का?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे, उनसे तो चलत रैत आए। बो का कहाऊत आए के उनकी तो कच्ची लोई ठैरी।’’ इत्तो कै के भौजी फेर के चुप हो गईं।
‘‘जो उनसे रार ने भई, तो फेर का भओ? अब तो आप बताई देओ। काए से के अब आपके लाने मोए चिंता होन लगी आए।’’ मैंने भौजी से कई।
‘‘बात ई चिंता करबे जोग आए, मनो हमाई नईं, उन ओरन की।’’ भौजी गोलमोल करत भईं बोलीं। जबलौं बे अच्छो-खासो सस्पेंस ने खड़ो कर देवें तब लौं बे आगे कछू ने बोलहें।
‘‘भैयाजी कां गए? बे नईं दिखा रए?’’ मैंने भैयाजी के बारे में पूछी।
‘‘बे गढ़पैरा गए।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मनो मंगल तो कढ़ गओ।’’ मैंने कई। काए से इते सागर में गढ़पैरा के हनुमान जू के इते असाढ़ को मेला भरत आए औ हरेक मंगल खों सबई उते पौंचत आएं। बड़ी मान्यता ठैरी उते की।
‘‘हऔ, मंगल को बी गए रए। मनो आज उनके कछू दोस्त हरें आ गए औ उने संगे लिवा ले गए।’’ भौजी ने बताई।
‘‘आप नईं गईं?’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘नईं! हमने बताई न, के उनके दोस्त हरें आए रए, सो अब उन ओरन के संगे हम कां जाते।’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ सई कई आपने। बाकी असाढ़ के मईना में तो सबरे हनुमान मंदिरन में मेला सो लगो रैत आए। अब ऊ दिनां मंगलवार को मैं सिविल लाईन से आ रई ती तो उते कठवापुल वारे हनुमान जी के इते भारी भीड़ मची हती।’’ मैंने भौजी खों बताई।
‘‘हऔ री बिन्ना! इते असाढ़ को मंगल चल रओ औ उते बिटिया हरें अमंगल करत फिर रईं।’’ भौजी फेर के अपने पुराने मुद्दा पे जा पौंची।
‘‘असाढ़ को मंगल तो समझ में आओ मनो बिटिया अमंगल कर रईं? जे बात समझ ने पर रई।’’ मैंने भौजी से पूछी। काए से के मोए सई में समझ ने आ रई हती के भौजी कोन के लाने जे डायलाग बोल रईं।
‘‘तुमने आज को अखबार पढ़ो?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘हऔ! बे अपने इते की, मने अपने प्रदेस की मंत्री जू के लाने जांच को आदेस दओ गओ आए। ऊमें लिखों रओ के मंत्री बाई जू ने एक हजार करोड़ की घूस लई। सई में, एक औ अखबार में उन्ने एक के आगे इत्ते सुन्न लगा के छापो रओ के मोए तो गिनत में टेम लगो। उने ऐसो नई करो चाइए। अरे, मुतकी पब्लिक ने एक लाख एक संगे नई गिने कभऊं, बा एक हजार करोड़ कां से गिन पाहे? हां, कछू ने बुद्धिमानी दिखाई औ शब्दन में एक हजार करोड़ छापो। इत्तो पइसा खा के कैसो लगो हुइए बा मंत्री बाई जू खों?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ! बा तो हमने सोई पढ़ी। बाकी बे मंत्री बाई जू लुगाइन की नाक कटवा रईं। उने ऐसो नई करो चाइए हतो।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मनो, हमें जे समझ ने परी, के आपके लाने ईमें दुखी होबे की का बात आए? अब तो उनकी जांच चलहे।’’ मैंने भौजी से पूछी।
‘‘बा बात नइयां।’’ भौजी बोलीं।
‘‘फेर का बात आए?’’ मैंने पूछी।
‘‘तुमने औ कोनऊं न्यूज ने पढ़ी ऊमें?’’ भौजी झुंझलात भई बोलीं।
‘‘पढ़ी न! काए नई पढ़ी।’’ मैंने कई।
‘‘का पढ़ो?’’ भौजी ने पूछी।
‘‘तेलंगाना में दवा फैक्टरी में आग लग गई।’’ मैंने बताई।
‘‘बा नई, कछू औ पढ़ो?’’ भौजी ने फेर के पूछी।
‘‘हऔ भीतरे के पन्ना में लोकल खबरें रईं। आप कोन सी वारी की कै रईं?’’ मोए समझ ने आ रई हती के भौजी कोन सी खबर को ले कर दुखी बैठी हतीं।
‘‘बा सरप्राईज वारी खबर ने पढ़ी का?’’ भौजीे बोल ई परीं।
‘‘अरे हऔ! बा तो भयानक खबर आए। देखो तो भौजी कैसो करो बा मोड़ी ने।’’ मोए अब समझ परी के भौजी कोन सी खबर की बात कर रईं।
‘‘जेई तो हम कै रए के जे बिटियां कैसो अमंगल कर रईं। अभईं बा सोनम नांव की मोड़ी ने हनीमून पे अपने घरवारे खों निपटवा दओ औ अब जे देखो। दोई बचपन की सहेलियां। औ एक ने दूसरी खों धोखो दओ इत्तो बड़ो! सरप्राईज देबे के नांव पे मिलबे खों बुलाओ औ ऊके ऊपरे तेजाब डार दओ। मने हद्दई कर दई बा मोड़ी ने तो। अरे, जानी दुश्मनी में लौं बिटियां हरें ऐसो नईं करत। ऊने तो दुश्मनी खों बी शरमिंदा कर दओ। जिनगी खराब कर दई अपनी सहेली की। ई से तो बा ऊसे जनम भर की कुट्टी कर लेती, ऊको मों ने देखती, मनो ऐसो तो ने करती। बा बिटिया आए के राक्षसी आए? ऊको तनकऊं दया ने आई?’’ भौजी एक सांस में बोलत चली गईं। मनो, जी की भड़ास निकार रई होंए।
‘‘सई कई भौजी! बा खबर पढ़ के मो मोरो बी जी खराब हो गओ रओ।’’ मैंने कई।
‘‘नईं बिन्ना, हम तो जे सोचत आएं के जे बिटियां हरों को का होत जा रओ? इने घर से सई संस्कार नईं मिल रए के, इने इंटरनेट से जा सब सूझ रओ के, बो का कहाऊत आए ओटीटी, हऔ बा ओटीटी के सीरियल देख के बिगड़ रईं? मोए तो कछू कारण समझ नई ंपर रए। मनो, बिटिया हरें बा सब कर रईं जोन के बारे में कभऊं कोऊं ने सोचो बी ने रओ के बे ऐसो कर सकत आएं। मने, हम तरक्की बारे अच्छे कामन की बात नईं कर रए। हम तो जे अपराध वारे कामन की बात कर रए। पैले तो बिटियां ऐसी ने रईं। अरे, अपने ओरन की बी अपनी सहेलियन से लड़ाई होत्ती। कछू तो फेर के मेलजोल कर लेत्तीं औ एकाद गांठ बांध के बैठी रैत्तीं औ फेर अपने सासरे पौंच के सब भूल-भाल जात्तीं। ऐसो तो कोऊं ने करत्ती।’’ भौजी बोलीं।
‘‘सई कई भौजी! पैले ऐसो नई होत्तो। औ अबे बी सबरी ऐसो नई कर रईं। कछू जनी आएं जो मोड़ियन को नांव मिटा रईं।’’ मैंने कई।
‘‘अरे अभई मईना, डेढ़ मईना में ई देख लेओ के कित्तो बड़ो-बड़ो कांड कर डारो इन ओरन ने। औ जे कोनऊं दूद पीती बच्ची नोंई। सबरी री बालिग आएं। एक तो मंत्री जू ठैरीं, उनकी उमर की का कई जाए। दूसरी को ब्याओ भओ रओ, मने बा पूरी बालिग औ पढ़ी-लिखी रई। औ जे तेजाब वारी सोई इंजीनियरिंग में पढ़ रई हती। इनमें से कोनऊं अनपढ़ गंवार नोंई। सो, जबे पढ़ी-लिखी समझदार लुगाइयां, बिटिया ऐसो करहें तो बाकी को का कओ जाए?’’ भौजी बोलीं।
‘‘हऔ भौजी, बात तो चिंता करबे जोग आए।’’ मैंने कई। मोए सोई चिंता भई।  
‘‘जेई चिंता में सो हम डूबे बैठे, जब से जा खबर पढ़ी।’’ भौजी बोलीं। 
मैं का कैती? उनको चिंता करबो वाजिब हतो। हम दोई चिंता करत भए मों बांधे कुल्ल देर बैठे रए।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के जे बिटियन में ऐसी खूंखारपना कां से आ रई? ईके जड़ में तो पौंचने ई परहे। सो, आप ओरे सोई सोचियो-बिचारियो!  
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Wednesday, July 2, 2025

चर्चा प्लस | बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श समझातीं उनकी सात नायिकाएं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस
बाबा नागार्जुन का स्त्री विमर्श समझातीं उनकी सात नायिकाएं
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह             
       कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहां स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है।  
 


     नागार्जुन मानवीय संवेदना के चितेरे उपन्यासकार थे। उनके कथा साहित्य में जहां एक ओर बिहार के मिथिलांचल के ग्राम्य जीवन, सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक आन्दोलनों एवं सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है वहीं उनके उपन्यासों में मानवीय दशाओं एवं चरित्रों का अद्भुत खरापन उभर कर सामने आता है। जिस वातावरण से उनके कथा-पात्र आते हैं उसी वातावरण का निर्वहन समूची कथावस्तु-विस्तार में होता चलता है। नागार्जुन के कथा समाज में स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां, वर्ण और जातिगत भेद, सम्पन्न-विपन्न तथा पोषण एवं शोषण के ऐसे पारदर्शी चित्र चित्रित मिलते हैं कि जिनके आर-पार देखते हुए समाज की बुनियादी दशाओं को बखूबी टटोला तथा परखा जा सकता है। कवि स्वाभिमान के प्रतीक बाबा नागार्जुन को कविताओं के लिए जितनी प्रसिद्धि मिली उतनी ही सराहना मिली उनके कथा साहित्य को। नागार्जुन की कथा नायिकाओं में गहरा स्त्रीविमर्श है। उन्होंने समाज में स्त्री की दशा को परख-परख कर लिखा। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जंाचा और परखा था। गंाव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहंा परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहंा स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। सामाजिक अथवा पारिवारिक मुद्दों पर पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी दूषित मानसिकता की भत्र्सना की। बाबा नागार्जुन के स्त्री विमर्श को समझने के लिए की उनकी इन सात नायिकाओं को जानना जरूरी है। ये नायिकाएं हैं- गौरी, मधुरी, बिसेसरी, चम्पा, भुवन, इमरतिया और पारो।

गौरी: ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास की नायिका है गौरी। गौरी के व्यक्तित्व में विपरीतध्रुवीय दो पक्ष दिखायी देते हैं। एक पक्ष में गौरी एक परम्परागत् गृहस्थ स्त्री के रूप में सामने आती है। जो अधेड़ रोगी पति की मृत्यु के कारण विधवा हो जाती है। अपने दुष्कर्मी देवर जयनाथ की कामवासना की शिकार होती है। उसके जीवन में दुखों का अंत यहीं नहीं होता, गर्भवती गौरी को सामाजिक अपमान सहन करना पड़ता है। अन्य औरतें उसे व्यभिचारिणी और कुलटा कहती हैं। इतना ही नहीं उसका अपना बेटा उमानाथ अपने पिता की बरसी पर जब घर आता है तो वह मां को चरित्रहीन मान कर उसके बाल पकड़ कर खींचता है तथा पैरों से ठोकर मारता है। गौरी एक परम्परागत गृहणी की भांति हर तरह का अपमान एवं मार-पीट सहती रहती है। गौरी का दूसरा पक्ष ठीक विपरीत है। अपने दूसरे पक्ष में वह एक जागरूक स़्त्री के रूप में दिखायी पड़ती है। गांव में मलेरिया फैलने पर मलेरिया की मुफ्त दवा बंाटती है, जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी किसान सभा संगठन में अपना दो साल पुराना फटा कम्बल दे कर सहायता करती है तथा अखिल भारतीय सूत प्रतियोगिता में अव्वल आती है। यह जागरूक गौरी अपने सगे पुत्र से मिलने वाला अपमान पी कर अपने भतीजे रतिनाथ पर ममता उंढ़ेलती है। इस प्रकार नागार्जुन ने गौरी के रूप में बताया है कि एक भारतीय स्त्री अपने व्यक्तित्व को अलग-अलग कई खानों में बंाट कर भी संघर्षरत रहती है। वस्तुतः यह संघर्ष ही उसके व्यक्तित्व के तमाम हिस्सों को एक सूत्र में बांधे रहता है।

मधुरी: दूसरी नायिका है मधुरी जो ‘वरुण के बेटे’ उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह खुरखुन की बड़ी बेटी है। वह देखने में सामान्य युवती है। उसका कद मझोला है। उसका मंगल नाम के युवक से प्रेम संबंध था, किन्तु विवाह के बाद वह इस संबंध को स्थगित कर देना ही उचित समझती है। यही मधुरी मछुआरों के साथ जमींदारी का विरोध करती है, तो उसमें एक ऐसी स्त्री की छवि दिखाई पड़ती है जो समाज के आदर्श रूप की पक्षधर है, जो अन्याय का विरोध करने का साहस रखती है और जिसे निम्न वर्ग की भलाई की चिन्ता है। मधुरी का व्यक्तित्व और चरित्र स्पष्ट दो भागों में बंटा दिखायी देता है। पहला भाग मधुरी के विवाह के पहले का है जिसमें वह एक प्रेयसी एवं अल्हड़ युवती है। जिसके क्रियाकलाप यह सवाल खड़ा करते हैं कि क्या वह कभी किसी संकट का सामना कर सकेगी अथवा किसी संघर्ष को आकार दे सकेगी? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में मधुरी के जीवन का दूसरा पक्ष सामने आता हैं। जिसमें वह जन चेतना की अलख जगाती दिखायी पड़ती है। वह स्वयं पुलिसियान के पिछले छोर पर खड़ी हो कर, दाहिना हाथ घुमा-घुमा कर नारे लगाती है और मछुआरा संघ के लोगों का उत्साहवर्द्धन करती है। इस प्रकार नागार्जुन इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि एक स़्त्री समय और परिस्थिति की आवश्यकता के अनुरूप स्वयं को किस प्रकार ढाल लेती है। यह नागार्जुन के सूक्ष्म आकलन-दृष्टि का कमाल है।

बिसेसरी: बिसेसरी ‘नई पौध’ उपन्यास की प्रमुख नारी पात्र है। यूं तो इस उपन्यास में कोई भी नारी पात्र नायिका के रूप में नहीं है, किन्तु बिसेसरी रूपी पात्र कथानक में नायिका के समान उभरता है। बिसेसरी पिताविहीन गरीब घर की कन्या है। उसका नाना नौ सौ रुपए के बदले उसका बेमेल विवाह कराना चाहता है, जिससे वह व्याकुल हो उठती है। इसी के साथ बिसेसरी में वह स़्त्री प्रकट होती है जो सामंती परम्पराओं, रूढ़ियों और थोथी नैतिकता की बलिवेदी पर स्त्रियों को चढ़ाए जाने की कट्टर विरोधी है। यह चेतनासम्पन्न बिसेसरी गांव के प्रगतिशील युवकों की सहायता से बेमेल विवाह का विरोध करती है।

चम्पा: चम्पा ‘कुम्भीपाक’ उपन्यास की वह प्रमुख नायिका है, जिसका स्थान इसी उपन्यास की दूसरी नायिका भुवन के बराबर है। ‘कुम्भीपाक’ में नागार्जुन ने वेश्यावृत्ति के दलदल में झोंक दी जाने वाली स्त्रियों की लाचारी को बड़ी ही बारीकी से प्रस्तुत किया है। चम्पा एक सुन्दर स्त्री है। वह अपने जीजा की कामवासना का शिकार होती है। चम्पा अपने जीवन की त्रासदी के बारे में बताती हुई कहती है कि ‘जीजा ने मुझे कुलसुम, सरदार जी ने सतवंत कौर और शर्मा जी ने चम्पा  बनाया’। इस प्रकार वह अपने जीवन के कुम्भीपाक होने के तथ्य को एक वाक्य में उजागर कर देती है। चम्पा के जीवन में आने वाले परिवर्तन के द्वारा नागार्जुन ने यह सिद्ध किया है कि यदि घोर अनैतिक कार्यों में लिप्त स्त्री को उचित अवसर मिले तो वह स्वयं को सच्चरित्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित कर सकती है। क्या ऐसा सचमुच सम्भव है ? इसी प्रश्न का उत्तर नागार्जुन चम्पा के रूप में देते हैं।

भुवन: भुवन चम्पा के समकक्ष ‘कुम्भीपाक’ की नायिका है। उसका असली नाम इंदिरा था। वह जिला मुंगेर में पैदा हुई थी। सम्पन्न परिवार की थी। उसका पति पायलेट था, जो विवाह के कुछ माह बाद ही हवाई दुर्घटना में मारा गया। भुवन पति की मृत्यु के समय  चार माह की गर्भवती थी। एक रिश्तेदार चिकित्सा कराने बहाने उसे आसनसोल ले गया और वहीं एक धर्मशाला में अकेली छेाड़ कर भाग गया। इसके बाद भुवन का जीवन उसी कुम्भीपाक में जा समाया, जहां चम्पा रहती थी। जल्दी ही भुवन को इस बात का अनुभव होता है कि जिस दलदल में वह रह रही है उसमें भविष्य नाम की कोई चीज नहीं है। वह कुम्भीपाक से मुक्त होने के लिए संघर्ष करती है। भुवन को नीरू नाम की युवती से सहायता मिलती है और वह कुम्भीपाक से मुक्ति पा कर काशी चली जाती है, जहां से उसके सामाजिक सम्मान का मार्ग प्रश्स्त होने लगता है। जब भी वेश्यावृत्ति में संलग्न स्त्रियों की समाज की मुख्यधारा में जुड़ने की बात आती है तो प्रश्न उठता है कि क्या यह सचमुच सम्भव है ? नागार्जुन भुवन को समाज में पुनः स्थान दिला कर घोषणा करते दिखायी देते हैं कि यह सम्भव है।

इमरतिया: इमरतिया इसी नाम के उपन्यास की प्रमुख नायिका है। वह सन्यासनी है और जमनिया के मठ में रहती है। सन्यासनी होने के बावजूद उसके भीतर की स्त्री एक सामान्य स्त्री के समान है। उसकी कामभावना मरी नहीं है। वह नाटक देखने में रुचि रखती है, किन्तु मठ में बाबा के द्वारा किए जाने वाले घिनौने कृत्यों का विरोध करती है। मठ के जिस बाबा के प्रति उसके मन में श्रद्धा भावना थी वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। लोग इमरतिया को देवदासी और योगिनी की उपाधि देते हैं। किन्तु वह मठ में होने वाले अनाचार के विरुद्ध चेतना लाने का प्रयास करती है। इमरतिया के रूप में नागार्जुन यह प्रश्न सामने रखते हैं कि क्या मठों के  अनाचार में फंसी हुई स्त्रियां कभी मुक्त हो सकती हैं ? इमरतिया का चरित्र एक नायिका के रूप में इस प्रश्न का उत्तर देता है और आश्वस्त कराता है कि यदि नारी चाहे तो वह अनाचार से मुक्त हो सकती है।

पारो: यह ‘पारो’ नामक उपन्यास की नायिका है। उपन्यास का नाम नायिका के नाम पर ही है। पारो एक ऐसी स्त्री की छवि है जो गरीब परिवार में जन्म लेती है। विभिन्न प्रकार के संघर्षों का सामना करती है फिर भी साहस नहीं छोड़ती है। ‘वह लम्बी छरहरी थी। चेहरा भी लम्बा था। हाथ सींक जैसे। देह लक-लक पतली। टांगें संटी जैसी। कैसी गजब की उसकी आंखें थीं।’ बुद्धि चातुर्य में वह बढ़-चढ़ कर थी। छोटी उम्र में ही संस्कृत, व्याकरण, अमरकोश, हितोपदेश कण्ठस्थ कर चुकी थी। रामायण और गीता भी पढ़ चुकी थी। ऐसी बुद्धिमती युवती को बेमेल विवाह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। फिर भी वह जूझती रहती है। क्या स्त्री के सहनशक्ति की कोई सीमा होती है ? नागार्जुन पारो का दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए उत्तर देते हैं- ‘नहीं!’

नागार्जुन ने हर तबके की स्त्रीजीवन को सूक्ष्मता से देखा, उनकी विडम्बनाओं का आकलन किया और मुक्ति की संभावनाओं का रास्ता दिखाया। ये सात नायिकाएं स्त्रीजीवन के प्रति बाबा नागार्जुन के दृष्टिकोण को समझने के लिए पर्याप्त हैं।
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(दैनिक, सागर दिनकर में 02.07.2025 को प्रकाशित) 
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पुस्तक समीक्षा | सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती रोचक कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 02.07.2025 को 'आचरण' में पुस्तक समीक्षा


समीक्षा
सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती रोचक कहानियां
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - अभीष्ट
लेखिका - आभा श्रीवास्तव
प्रकाशक - जेटीएस पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य - 350/-
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बुंदेलखंड के रचनाकारों में आभा श्रीवास्तव तेजी से अपना स्थान बनाती जा रही हैं। नाटक, कविताएं और कहानियां तीनों पर समान रूप से वे अपनी कलम चला रही हैं। ‘‘अभीष्ट’’ उनका नवीनतम कहानी संग्रह है। इस संग्रह में कुल सोलह कहानियां हैं। ये सभी कहानियां पाठक के अंतर्मन से सीधा संवाद करती हैं। दरअसल, आभा श्रीवास्तव के पास समाज और सामाजिक संबंधों को देखने, परखने और उनकी मीमांसा करने की एक बारीक दृष्टि है। वे एक ओर स्वस्थ परंपराओं की बात करती हैं तो दूसरी ओर कथित आधुनिक मूल्यों का आकलन करती हैं। एक बेहतरीन संतुलन है उनके वैचारिक आग्रह में। मैं पहले भी आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां पढ़ चुकी हूं और उनके लेखन ने मेरे मन को छुआ भी है। क्योंकि वे स्त्री मन और जीवन की उन पर्तों को भी खंगालती हैं जहां प्रथम दृष्टि में दिखने वाला सामान्य, बहुत असमान्य बरामद होता है। इस समाज में एक स्त्री को अपने एक जीवन में विविध रूपों को जीना पड़ता है जो कि आसान नहीं है, फिर भी वह जीती है। स्त्रियों की यही खूबी परिस्थितिजन्य विडंबनाओं के साथ इस संग्रह की कहानियों में मौजूद है।  
           कहानी को कला माना जाता है और इसीलिए विद्वानों के अनुसार कहानी कहना और सुनना मनुष्य की आदिम वृत्ति है। यह कहा जा सकता है कि ‘‘कथा-जगत मनुष्य का रचा हुआ जगत है। एक ऐसा जगत, जिसमें सुख-दुःख, हास-परिहास, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय के निदर्शन के साथ मनुष्यों द्वारा अपने ‘समाजों’ का शिक्षण और मनोरंजन किया जाता रहा है। इस मनोरंजन और शिक्षण की प्रक्रिया में ही वह ‘आलोच्य’ भाव-बोध भी अन्तर्निहित है, जिसे प्रत्येक समाज ने अपने प्रगति और विकास के लिए आवश्यक विचार की तरह आगे बढ़ाया है। इसलिए, इस रचनात्मक शिक्षण और मनोरंजन के अन्तर्गत ही वह न्याय-बुद्धि भी है, जो सजग ढंग से साहित्य को, संस्कृति को, कलाओं को देखती- परखती है। इस देखने-परखने में ही जो दृष्टिकोण विकसित होते हैं, वे समीक्षा, आलोचना और मूल्यांकन के आधार-तर्क बनते हैं।‘‘         
वरिष्ठ कथाकार एवं उपन्यासकार शिवपूजन सहाय कहानी की कलात्मकता उसके लालित्य में अनुभव करते हुए कहते हैं कि “साहित्य का एक प्रमुख और ललित अंग है कहानी। देश के कहानीकारों का वृहत्तर भाग इसी अंग की परिपुष्टि में लगा रहता है। संसार की सभी समृद्ध भाषाओं के साहित्य में कहानी की भरमार है। यद्यपि कहानी-कला कोई सरल कला नहीं, तथापि साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर बलबूते की आजमाइश करते हैं, पीछे अभिलषित क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। साहित्य के ऐसे महत्वपूर्ण अंग को अपनी परिभाषाओं की कमी नहीं है, किन्तु परिभाषाओं के सम्बन्ध में आलोचकों में मतभेद है। एक अंग्रेज विद्वान् का मत है कि श्कहानी परम्परा-संबद्ध महत्त्वपूर्ण घटनाओं का क्रम है जो किसी परिणाम पर पहुंचता है।”
      ‘‘अभीष्ट’’ कहानी स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता को परिभाषित करती है। अभीष्ट का अर्थ होता है अभिलाषा की गई वस्तु अथवा मनोरथ। स्त्री और पुरुष परस्पर एक-दूसरे से क्या चाहते हैं? मात्र शारीरिक सुख अथवा इससे आगे एक स्वस्थ मानवीय मित्रता? क्या स्त्री-पुरुष की मित्रता के बीच दैहिक अनिवार्यता ही अंतिम सत्य है? या फिर विश्वास पर आधारित स्वस्थ मित्रता के धरातल पर स्त्री-पुरुष परस्पर निकट सहयोगी हो सकते हैं? दोनों ही जटिल प्रश्न हैं। संकीर्ण विचार यही कहेंगे कि स्त्री और पुरुष में विदेह मित्रता भला कहां संभव है? किंतु इस कहानी को पढ़ने के बाद संभावनाओं द्वार स्वतः खुलते चले जाएंगे। कहानी में आया यह वैचारिक द्वंद्व देखिए -”उस दिन ग्रुप में भी आये दिन घटित घटनाओं को लेकर बहुतायत में पुरुषों पर चर्चा हुई। स्त्री पुरुष की मित्रता असंभव है। वह केवल यौनाकर्षण पर टिका है। पुरुष पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यद्यपि वह भी इन कथ्यो की समर्थक है। किंतु यह भी मानना होगा कि सभी एक से नहीं होते। हां, आँख बंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता। मर्यादायें, सकारात्मकता, रचनात्मकता का बोध आचार विचार का हिस्सा होना अनिवार्य है।”
      “अभीष्ट” यदि किसी रिश्ते को संयम से जिया जाए तो उसमें देह आड़े नहीं आती है। स्त्री विमर्श रचती एक सुंदर कहानी है यह, जो सुधि और अमर के पारस्परिक मित्रता के हर कोण टटोलती हुई आगे बढ़ती है। अकेली स्त्री से पुरुषों की अपेक्षाएं, पुरुषों की पत्नियों का भय और मानसिक संघर्ष की अनवरत स्थितियां- इन सभी बिन्दुओं को ले कर चलती है यह कहानी।
       संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘शुद्विपात्र’’ संबंधों की विचित्रताओं की कहानी है। एक स्त्री का प्रेमी जो किसी और का पति बन चुका है, उस स्त्री से जन्मे अपने पुत्र पर प्रेम उंडेलते हुए उसे अपना कहना चाहता है। यह देख कर उस स्त्री के मन पर क्या बीतेगी, इसकी परवाह नहीं है उसे। अतः एक बार फिर निर्णय उस स्त्री को ही लेना पड़ता है कि पिता-पुत्र के उस बेनाम रिश्ते को स्वीकृति दे अथवा न दे। यह एक विकट मनोउद्वेलन की कहानी है। कहानी में एक प्रवाह है जो संवादों के रूप में पाठक को बंाधे रखेगा।
‘‘उस दिन’’ कहानी बालिका शिक्षा की अनिवार्यता को सामने रखती है। इस कहानी में उन प्रश्नों  और परिस्थितियों को स्वाभाविक रूप से सामने रखा गया है जिनके चलते बालिका शिक्षा पिछड़ती गई है। एक पिता अथवा अभिभावक इस बात को ले कर सशंकित रहता है कि जिस स्कूल में वह अपनी बेटी का दाखिला कराने जा रहा है, वह उसकी बेटी के लिए सुरक्षित एवं सुविधाजनक है कि नहीं। ‘‘झूठ की दीवार’’ कहानी कच्ची आयु के रूमानियत भरे सपनों के सच को बयान करती है। युवा होती लड़की के सपनों में राजकुमार का प्रवेश एक बायोलाजिकल और केमिकल प्रक्रिया है। किन्तु राजकुमार जब सपनों से निकल कर लड़की के जीवन में प्रवेश करता है तो यह समझना कठिन हो जाता है कि वह राजकुमार से दानव अथवा छलिया में कब परिवर्तित हो गया। जब तक राजकुमार का असली चेहरा सामने आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
        ‘‘मोबाईल का मेला’’ एक छोटी मगर बेहद सार्थक कहानी है। यह समय इलेक्ट््रानिक्स का है। इंटरनेट और मोबाईल का मकड़जाल कब हर पल को ‘हैक’ कर लेता है, यह मोबाईल धारक समझ ही नहीं पाता है। मोबाईल का मेला अपनी चकाचैंध से व्यक्ति के मानस को अपना गुलाम बना लेता है। क्या इस मेले के मोह से बाहर निकला जा सकता है? यही प्रश्न उठाते हुए, उसका हल सुझाती है यह कहानी। यह एक समयामयिक समस्या की कहानी है।
       इसी संग्रह में एक कहानी है ‘‘झटका भूकंप सा’’। इसमें गहरा परिवार विमर्श है। कहा गया है कि पति और पत्नी परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। अब अगर दोनों में से एक पहिया बेमेल निकले तो परिवार की गाड़ी झटके खाने लगती है और कभी-कभी उन झटकों की तीव्रता भूकंप के झटकों के समान होती है। यदि पति क्रूर हो सकता है तो पत्नी भी स्वार्थी हो सकती है। ऐसी दशा में अकारण प्रताड़ित होते हैं परिवार के अन्य सदस्य।
       ‘‘जर, जोरू, जमीन’’ कहानी में उन स्त्रियों पर कटाक्ष किया गया है जो पारिवारिक कलह एवं बंटवारे का कारण बनती हैं। एक सीधे-साधे परिवार में तू-तड़ाक वाली लालची बहू के आते ही परिवार की शांति एवं सौहाद्र्य भंग हो जाता है। सारी संपत्ति पर अधिकार पाने की लालसा में यदि बहू अभद्रता पर उतर आए तो परिवार का विखंडन सुनिश्चित होता है। यह कहानी उस समस्या की ओर संकेत करती है, जो आज किसी न किसी रूप में हर दूसरे या तीसरे घर कर मसला बनती जा रही है। एकल परिवार के चलन और दिखावे की प्रवृति ने कई स्त्रियों को भी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के बजाए पैसे के प्रति समर्पिता बना दिया है। यह कहानी भी एक विशेष परिवार विमर्श खड़ा करती है।
       लेखिका आभा श्रीवास्तव की भाषा और शिल्प सादगी पूर्ण है उनमें कहीं भी अलंकारिकता का आडंबर नहीं है वे अपनी बात सीधे-सीधे लिखते हैं। जैसे उनकी कहानी “झूठ की दीवार” का यह अंश देखिए -
“उम्र कोई अधिक नहीं, षोडसी भी नही। पन्द्रह वर्ष कुछ माह। पांचवी पास, पुस्तक पढ लेती थी, होशियार थी। लेकिन पिता ने पढ़ाई छुड़वा दी।
‘‘जा! माँ के साथ तू भी घर-घर काम कर। अपने घर की दाल रोटी चलेगी।’’
माँ को भी उसकी पढ़ाई में कोई रूचि नहीं थी। घर का छप्पर ठीक करती हुई बोली
‘‘हम लोग ऐसे ही पैदा होते हैं, ऐसे ही जी लेते हैं।’’
वह भी मान गई। माँ के साथ चली जाती। सुंदर सलोना राजकुमार दिख गया। सूरत से सुगढ़ सलोना था। तो अनपढ़ पर अपने लिये थोड़ा बहुत कमा लेता था। बस पड गई प्यार में। और घर में सबकी रजामंदी से ब्याह भी हो गया, तीन वर्ष भर में। ऐसी कोई अड़चन भी नही आई।’’                                                                                                                        
          समीक्षा में ही सभी कहानियों पर पृथक-पृथक चर्चा संग्रह की कहानियों के प्रति सस्पेंस को चोट पहुंचा सकती है। अतः सभी कहानियों को पाठकों द्वारा आद्योपांत पढ़ा जाना चाहिए। उपरोक्त कुछ बानगी मात्र इसलिए कि कहानियों के तेवर और स्वभाव की झलक देखी जा सके। आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां विचारों को आंदोलित करती हैं, सोचने को विवश करती हैं और सामाजिक आत्मावलोकन का भी आग्रह करती हैं। इन कहानियों में स्त्री जीवन के साथ किशोर मन की उलझनों को भी रखा गया है। सबसे विशेष बात यह है कि लेखिका ने किसी भी कहानी में अपने निर्णय नहीं सुनाए हैं। उन्होंने पात्रों और उनकी परिस्थितियों का वर्णन करते हुए उन निर्णयों को घोषित किया है जो स्वाभाविक हैं, उचित हैं और स्वतः उभर कर सामने आते हैं। इसीलिए इन कहानियों में बनावटीपन नहीं है। इनका मौलिक स्वर स्वतः मुखर है। इन कहानियों में मनोभावों एवं सरोकारों का इन्द्रधनुषी रंग है। राग, विराग, कटाक्ष, प्रहसन, दायित्वबोध आदि सभी कुछ बड़े ही सहज रूप से शब्दों में समाया हुआ है। शब्द और शैली भी ऐसी कि मानो कोई अपनी स्मृतियों बातचीत में साझा कर रहा हो।
          आभा श्रीवास्तव जी की भाषाई पकड़ अच्छी है। उन्होंने सरल, आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग किया है। पात्रानुसार भाषा कहानी को जीवंत बनाती है। यह कहानी संग्रह उस परिवेश से परिचित कराता है जिसमें हर व्यक्ति रहता है। मुझे विश्वास है कि संग्रह की सभी कहानियां पाठकों को पसंद आएंगी।     
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Monday, June 30, 2025

डॉ (सुश्री) शरद सिंह के काव्य संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की डॉ श्याम मनोहर सिरोठिया द्वारा समीक्षा

"गीत ऋषि" की उपाधि से विभूषित देश के वरिष्ठ गीतकार डॉ श्याम मनोहर सिरोठिया जी ने मेरे कविता संग्रह "तीन पर्तों में देवता" की बहुत गहराई से सुंदर समीक्षा की है। अत्यंत आभारी हूं 🚩🙏🚩
       मेरे अनुरोध पर डॉ. सीरोठिया जी ने मुझे समीक्षा का टेक्स्ट भी प्रेषित किया है जिसे पठन सुविधा के लिए यहां साझा कर रही हूं... साभार... 🙏
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 *त्रासदी की कोख से जन्मी धैर्य, हिम्मत एवं जीवटता  की कविताएँ* 
  कविता संग्रह--- *तीन पर्तों में देवता* 
कवयित्री---डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
प्रकाशक---बुक्स क्लिनिक पब्लिशिंग कुडूडांड, पंचमुखी हनुमान मंदिर के पास बिलासपुर (छ. ग.)495001
मूल्य---200/

समीक्षक ----डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया 

     
 आद सुश्री शरद सिंह जी का नाम हिंदी साहित्य जगत में स्त्री विमर्श को लेकर बेहद सम्मानित एवं चर्चित  है, पिछले पन्ने की औरतें,पचकौड़ी, कस्बाई सिमोन एवं शिखंडी उपन्यासों ने  हिंदी उपन्यास जगत में बड़ी हलचल पैदा की है।हिंदी, अंग्रेजी एवं बुंदेली में गद्य एवं पद्य में समान अधिकार से लेखन करने वाली डॉ शरद सिंह की 60 पुस्तकें प्रकाशित  हो चुकी हैं. कथा, कहानी, गीत, नवगीत, गजल, कविता, नाटक, समीक्षा एवं नियमित स्तंभ लेखन का एक यशश्वी  इतिहास डॉ शरद जी के साथ जुड़ा हुआ है. आपकी रचनाधर्मिता ने हमारे शहर सागर को पूरे देश में गौरवान्वित किया है। आपको पढ़ते हुए पाठक एक नए रचना संसार में विचरण करते हुए चिंतन के ऐसे आयामों का स्पर्श कर आता है जो साधारणतः उसकी कल्पनाओं से परे होते हैं.
         डॉ शरद सिंह का कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता* कोरोना काल की त्रासदी  से गुजरते हुए बेहद अवसाद के क्षणों में गहन मानवीय संवेदना की स्याही से लिखा गया है। यह विडंबना ही है कि कोरोना के दूसरे चरण में डॉ शरद सिंह ने पहले तो  अपनी पूज्य माताजी सुप्रसिद्ध रचनाकार डॉ विद्यावती मलाविका जी को हृदयाघात से खोया और उनकी सेवा करते हुए कोरोना से संक्रमित होने के बाद मात्र तेरह दिनों के अंतराल से सखी जैसी अपनी बड़ी बहन चर्चित गज़लकार  सुश्री डॉ वर्षा सिंह जी को खो दिया। इन दोहरे  वज्राघातों ने डॉ शरद सिंह को बुरी तरह तोड़ दिया था। इस त्रासदी ने डॉ शरद सिंह के अवचेतन में ईश्वर के प्रति अनास्था का भाव पैदा कर दिया था, ऐसे में ईश्वरीय सत्ता को नकारना केवल आक्रोश ही नहीं था वरन ईश्वर के प्रति नाराजी के साथ उपालंभ का उपक्रम भी था। जीवन के ऐसे भयावह, और अनिश्चित दौर में एकाकी मन ने क्या कुछ नहीं सहा होगा? जब दूर- दूर तक कोई अपना नहीं था तब शोक के उस भीषण दौर की पीड़ा की कल्पना मात्र से ही मन द्रवित हो उठता है,तब महाशोक के अथाह सागर में भटकती हुई अपनी इस प्रिय पुत्री को माँ सरस्वती ने अपने आशीष का संबल शब्दों के रुप में दिया और  फिर लिखा गया कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता*, चूँकि उन दिनों कोरोना के प्रोटोकाल को ध्यान में रखते हुए पार्थिव देह को तीन पर्तों में लपेट कर अंतिम संस्कार किया जाता था, अतः डॉ शरद सिंह द्वारा  *तीन पर्तों में देवता* को  लपेटने  का अर्थ उसकी सत्ता से विमुख होने का प्रयास जैसा भी रहा होगा 
वह लिखती हैं---
हाँ मुझसे छिन गया विश्वास 
छिन गई आस्था 
टूट गई देव प्रतिमा
हो गया दीपक औंधा
बह गया तेल
बची हुई, बुझी हुई बाती को 
तीन पर्तों में लपेट दिया है मैंने
अब कोई देवता 
न करे मुझसे
प्रार्थना की उम्मीद 
नहीं दी उसने मुझे 
मेरे अपनों के जीवन की भीख 
अब उसे भी नहीं मिलेगा 
कोई भी चढ़ावा मुझसे.....

     यह ईश्वर के प्रति अनास्था की पराकाष्ठा थी, इस संग्रह की यह कविता और ऐसी अनेक कविताएँ शोक गीत की तरह मार्मिक और हृदय को झकझोर देने वालीं हैं। इस कविता में उनका दर्प नहीं व्यथित हृदय की करुणा झलकती है।
हमारी संस्कृति में 
तीन अंक का बहुत महत्व है, तीन प्रमुख देवता- ब्रह्मा- विष्णु- महेश, तीन काल- भूत काल, वर्तमान काल,भविष्यकाल, तीन गुण- सतो गुण, रजो गुण, तमो गुण, मुख्यतः तीन लोक- स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक, पाताल लोक, जीवन की तीन अवस्थाएँ- बाल अवस्था, युवा अवस्था, वृद्धावस्था,और शिव जी का तीसरा नेत्र, तीन अंक का यह महत्व डॉ शरद सिंह के लेखन में चिंतन के नए स्वरूप में शब्दाकार हुआ है,मुझे लगता है *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह के सृजन काल में डॉ शरद जी ने गहन शोक के सागर को भाव, भाषा और शिल्प के तीन आचमनों में समेट लिया है.
   *तीन पर्तों में देवता* की कविताएँ छंद मुक्त कविताएँ हैं लेकिन शिल्प कसा हुआ है ये कविताएँ भावों से मुक्त नहीं हैं, मेरा मानना है कि मानसिक प्रताड़ना के बोझिल क्षणों में ये कविताएँ डॉ शरद जी के अन्तःकरण में ऐसे ही बची रही होंगी जैसे अनेक ज्वालामुखियों के बीच भी पृथ्वी बचाकर रखती है अपने भीतर शीतल और मीठा जल।
      *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह पढ़ते हुए, मैं अनेक बार डॉ शरद सिंह के कल्पना लोक की विराटता का अनुभव करते हुए आश्चर्यचकित हो जाता हूँ।संग्रह की 
प्रथम कविता "सपने" की एक पंक्ति देखिए-- नहीं आते सपने रतजगे में
जैसे अमावस में नहीं आता चाँद 
जैसे काले बादल से नहीं गिरती धूप 
जैसे पहले सा नहीं जुड़ता है
टूटा हुआ काँच / 
     - इस कविता की विंबधर्मिता अद्भुत है, यह दृष्टि मन को जोड़ती है कविता से।आपकी कविताओं में अर्थबोध ऐसे छुपा होता है जैसे पुष्प के भीतर सुगंध।
        *तीन पर्तों में देवता*कविता संग्रह की भूमिका में डॉ सर हरिसिंह गौर केंद्रीय वि. वि. सागर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ आनंद प्रकाश त्रिपाठी कहते हैं कि-- हमारे समय की मशहूर कथाकार शरद सिंह ने बहुत शिद्दत से अपनी बेचैनियों को  अपनी कविताओं में दर्ज किया है. कवयित्री की आंतरिक छटपटाहट, करुणा, प्रेम और कहीं आक्रोश के रुप में व्यक्त होती है।
 कविता संग्रह की एक कविता प्रेम के उस अलौकिक स्वरूप के खोज की कविता है जिसे सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है वह लिखती हैं --
उसे नहीं मिला प्रेम 
जेबें खाली करके भी 
आखिर 
सच्चा  साबुत प्रेम 
बाजारू जो नहीं होता

   -प्रेम की ऐसी  शोधपरक  अनमोल व्याख्या डॉ शरद सिंह के आत्म सौंदर्य बोध को उजागर करती है।
       कवयित्री डॉ शरद सिंह प्रेम के मूल तत्व की उपासिका हैं, उनकी यह उपासना *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह में शब्दाकार हुई है। डॉ शरद सिंह का प्रेम रुमानी नहीं है -
वह रहना चाहता है  
सोनागाछी के तंग कमरों में, 
वह प्रेम छटपटाता है 
धारावी की स्लम बस्ती में रहने के लिए, 
वह प्रेम सीरिया, तंजानिया, 
एवं बुरुडी के 
शरणार्थी शिवरों में 
जीवन का संघर्ष करते हुए 
रहना चाहता है. 

        कविता देखिए --
वह (प्रेम) बोला 
छल करते हैं लोग 
मेरा मुखौटा लगाकर 
मुझे रहने नहीं देते
मेरी मनचाही जगह 
वह देर तक बोलता रहा 
मैं सुनती रही 
फिर रोते रहे 
गले लग कर 
हम दोनों 
नींद खुलने तक 

      डॉ शरद सिंह की कविता *रजस्वला* पाठक को चिंतन का अत्यंत संवेदनशील धरातल देती है यह ऐसा विषय है जिस पर चर्चा करने से लोग बचते हैं इस सामाजिक सच्चाई से आँख चुराते हैं लेकिन डॉ शरद सिंह खुले मन से ऐसे सामाजिक विषय पर चर्चा के लिए समाज का आव्हान करती हैं ----
क्या याद है उस कवि को 
कि कितनी बार ख़रीदा था 
सेनेटरी नेपकिन
अपनी रजस्वला पत्नी के लिए 
कि उसने कितनी बार 
डिस्पोज किया था 
पत्नी का इस्तेमाल किया हुआ 
सेनेटरी नेपकिन
कवि की कविता में मौजूद
स्त्रियों- सी 
क्या पत्नी भी एक स्त्री नहीं होती ...

डॉ शरद सिंह का यह एक प्रश्न समाज के संवेदनहीन गलियारों में भटक रहा है अनंतकाल से अनुत्तरित, और लगता है यह एक और प्रश्नचिन्ह हमारे मनुष्य होने पर।
 *तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह डॉ शरद सिंह की व्यष्टि से लेकर समष्टि तक की यात्रा का दस्तावेज भी कहा जा सकता है।
*टोहता है गिद्ध* कविता युद्ध की विभीषिका से परिचित कराने में समर्थ है --
एक उजाड़ संसार का देवता है युद्ध
युद्ध एक गिद्ध है 
जो टोहता है
विभीषिका को
लाशों को
और बच रहे उन अनाथों को 
जो कहलाते हैं शरणार्थी 
युद्ध नहीं चाहती माँ, पिता, नाना- नानी, दादा- दादी 
युद्ध नहीं चाहते बच्चे 

      जीवन के सत्य की सहज सरल निर्दोष ऐसी अभिव्यक्ति डॉ  शरद सिंह की लेखनी से ही संभव हो सकती है, कविताओं में संवेदनशील कवयित्री डॉ शरद सिंह ने संवेदनाओं की एक ऐसी भाव सलिला को प्रवाहित किया है जिसमें अवगाहन कर कोई भी पाठक मनुष्यता के शाश्वत सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। यह कविता भावांजलि है, शब्दांजलि है धीरे -धीरे मरती जा रही सभ्यता, संस्कृति एवं मनुष्यता के लिए साथ ही अपनों के लिए और अपनेपन के लिए भी। कविता संग्रह का भाव पक्ष एवं कला पक्ष अत्यंत सशक्त है, भाषा उत्कृष्ट एवं गंभीर अर्थबोध से भरी है डॉ शरद सिंह ने अपनी बात को पूरी मजबूती से कहने के लिए हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी, उर्दू एवं फ़ारसी के शब्दों को भी सहजता से कविताओं में पिरोया है, कविताओं की संप्रेषणीयता बेजोड़ है, सीधे हृदय से संवाद करने में सिद्ध हैं ये कविताएँ। 
डॉ शरद सिंह शब्दों की महत्ता को जानती हैं वह लिखती हैं--
शब्द जोड़ भी सकते हैं 
शब्द तोड़ भी सकते हैं 
शब्द प्रेम में घुलें तो अमृत 
शब्द बैर में घुलें तो विष
शब्द कभी कह देते हैं बहुत कुछ तो
कभी छुपा लेते हैं सब कुछ 

     - शब्दों की असीम सत्ता को कितनी सहजता से लिख दिया है आपने इस छोटी सी कविता में जैसे समेट लिया हो गागर में अनंत विस्तारित सागर को।
      *तीन पर्तों में देवता*  कविता संग्रह की अनेक कविताएँ जैसे- हैरत, अपराधी, छापमार उदासी, त्वचा का आवरण, निर्लज्जता, रद्दीवाला,मुखौटे, सूखे हुए फूल के साथ, सीने में समुद्र,वस्त्र के भीतर, शाप की एक और किश्त जैसी तमाम कविताएँ केवल वाणी विलास का माध्यम नहीं हैं, ये और  लगभग ऐसी सभी कविताएँ समाज के देखे- अनदेखे,भोगे-अनभोगे यथार्थ की मूक पीड़ाओं को स्वर देती हैं। इन कविताओं में समसामयिक परिवेश की पथरा गई आँखों से छलकते आँसूओं को आत्मीयता के रुमाल से पोंछने का सारस्वत् दायित्व बोध है जिसे डॉ शरद सिंह ने पूरी ईमानदारी से निभाया है. आपकी कविताएँ भावनाओं को, विचारों को, नई दिशा एवं दशा देने में सक्षम हैं, इन कविताओं के माध्यम से डॉ शरद सिंह ने जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना, संरक्षण एवं संवर्धन का अभिनव कार्य किया है. आपकी दृष्टि में मानवता स्वमेव एक धर्म है। आपका यह वैचारिक चिंतन आपकी व्यवहारिकता में भी परिलक्षित होता है।
*तीन पर्तों में देवता* कविता संग्रह में सम्मिलित 53 कविताओं में से प्रत्येक कविता एक पूरी एवं विस्तृत समीक्षा के योग्य है जिन पर फिर कभी किसी अवसर पर यथा ढंग से साहित्य जगत चर्चा करेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
         डॉ शरद सिंह का कविता संग्रह *तीन पर्तों में देवता* : आपकी यश पताका को हिंदी के साहित्याकाश में नई ऊचाईयों तक 
फहराएगा और आपको देश की कवत्रियों की अग्रिम पंक्ति में सादर स्थापित करेगा इन्हीं मंगल कामनाओं एवं अशेष बधाइयों सहित।
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 *डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया*
पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, इंडियन मेडिकल एशोसिएसन  मध्य प्रदेश, सागर 
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Friday, June 27, 2025

शून्यकाल | लोक का महाकाव्य है तुलसी की लघु कृति ‘रामलला नहछू’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम - शून्यकाल
लोक का महाकाव्य है तुलसी की लघु कृति ‘रामलला नहछू’
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                     
         भारतीय जनमानस में गोस्वामी तुलसीदास एक अति सम्मानित कवि के रूप में स्थापित हैं। उनकी कृति ‘‘रामचरित मानस’’ प्रत्येक हिन्दू घर में एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूज्य है। धर्मपरायण स्त्री-पुरुष, यहां तक कि बालक, बालिकाएं भी ‘‘रामचरित मानस’’ का पाठ करके श्रीराम से निकटता अनुभव करते हैं। गोस्वामी तुलसी दास की प्रथम कृति मानी जाती है ‘‘रामलला नहछू’’। इस कृति का भी महत्व कम नहीं है। यद्यपि इसकी प्रथम कृति होने पर विद्वानों में मतभेद भी है किन्तु इस कृति में भी विशिष्ट लोकरस है। ‘‘रामचरित मानस’’ की आभा के विस्तार के सम्मुख यह लघु कृति आज भी अपनी महत्ता बनाए हुए है।

      तुलसीदास के लिए यह कहना समीचीन होगा कि वे लोक में जन्में, लोक में रहे और लोक में समा गए। तुलसीदास ने अपनी बाल्यावस्था से ही अनेक कठिनाइयां झेलीं। उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर गांव में तुलसीदास का जन्म हुआ था। उनके पिता आत्माराम एक सम्मानित ब्राह्मण थे। तुलसीदास की माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का जन्म सम्वत 1554 में श्रावण मास में शुक्ल सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। ज्योतिष के अनुसार यह नक्षत्र शुभ नहीं माना जाता है। इससे तुलसीदास के प्रति एक पूर्वाग्रह जाग उठा। जबकि कहा जाता है कि  तुलसीदास  जन्म लेते ही रोए नहीं थे अपितु उनके मुख से ‘राम’ शब्द निकला था। यह भी किंवदंती है कि जन्म से ही उनके मुख में दांत थे जिससे उनके पिता ने उन्हें अमंगलकारी मान लिया। उनकी माता हुलसी ने तुलसी की रक्षा के लिए चुनियां नाम की अपनी एक दासी को सौंप दिया। तत्कालीन समाज में अमंगल के प्रभाव को नष्ट करने के लिए इस प्रकार की विधि अपनाई जाती थी। किन्तु तुलसी के जीवन में विपत्ति का आरम्भ होना तय था। इसीलिए दासी को सौंपने के दूसरे दिन ही उनकी मां ने यह संसार त्याग दिया। इस घटना से अंधविश्वासी पिता का अंधविश्वास और गहरा गया। उन्होंने तुलसी को वापस बुलाने से मना कर दिया। दासी चुनियां ने बालक तुलसी को पुत्रवत स्नेह दिया। सबकुछ ठीक चलने लगा था किन्तु जब तुलसी साढे पांच वर्ष के थे तभी दासी चुनिया का निधन हो गया। अब एक अनाथ बालक की भांति यहां-वहां भटकने के अतिरिक्त तुलसी के पास और कोई चारा नहीं था। उन्हें कई बार भूखे ही सोना पड़ता था। यह भी किंवदंती है कि बालक तुलसी कई दिनों से भूखे थे और उन्हें कोई भी भिक्षा में भोजन नहीं दे रहा था तब माता पार्वती को दया आई और वे स्वयं एक ब्राह्मणी का वेश रखकर उनके पास आईं। इसके बाद वे प्रतिदिन स्वयं आ कर बालक तुलसी को भोजन कराने लगीं।
         तुलसीदास के जीवन में दैवीय चमत्कारों की उपस्थिति मानी जाती है। मानो कोई दैवीय शक्ति उनसे वह सृजन कराना चाहती थी जिसके बारे में उन्हें आरम्भ में स्वयं कोई अनुमान नहीं था। माग्य उन्हें काशी ले गया। संवत् 1628 में वे काशी से अयोध्या की ओर चले। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। इसलिए वे कुछ समय के लिए प्रयाग में ठहर गए। संयोगवश एक दिन उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हो गए। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास वापस काशी पहुंचे और वहां के प्रहलादघाट पर एक ब्राह्मण के घर ठहरे। उस ब्राह्मण के घर पर संस्कृत ग्रंथों का पाठ होता था तथा वहां संस्कृतमय वातावरण था। अतः तुलसीदास भी संस्कृत में पद्य रचना करने लगे। किन्तु विचित्र बात यह थी कि वे दिन भर में जो संस्कृत पद्य लिखते, रात भर में वे सब गायब हो जातीं। सात दिन तक यही क्रम चलता रहा। आठवें दिन तुलसीदास को स्वप्न में भगवान शिव ने आदेश दिया कि उन्हें संस्कृत में नहीं वरन अपनी लोकभाषा में सृजन करना है। इस घटना के बाद तुलसीदास अयोध्या चले गए जहां उन्होंने लोकभाषा को अपने सृजन का माध्यम बनाया।
   अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवनकाल में तुलसीदास ने कई ग्रन्थों रचे- रामललानहछू, गीतावली, कृष्ण गीतावली, रामचरितमानस, पार्वतीमंगल, विनय पत्रिका, जानकीमंगल, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली तथा हनुमान बाहुक। इनमें गोस्वामी तुलसीदास की प्रथम रचना ‘‘रामलला नहछू’’ मानी जाती है। यद्यपि इसके प्रथम होने को ले कर विद्वानों में मतभेद रहा है किन्तु अधिकांश लोग इसे ही प्रथम कृति मानते हैं। ‘‘गोसाईं चरित’’ में लिखा है कि ‘‘पार्वति मंगल’’, ‘‘जानकी मंगल’’ और ‘‘रामलला नहछू’’ की रचना मिथिला में एक साथ हुई। ‘‘पार्वती मंगल’’ में रचना-काल का उल्लेख इस प्रकार है -
जय संवत् फागुन सुदि पॉंचै गुरू दिन।
अस्विनि विचरेऊँ मंगल सुनि सुख छिन-छिन।।
           
अतः इसी के अनुरुप ‘‘रामलला नहछू’’ का रचनाकाल तय किया जाता है। यह एक लघु कृति है। इसके बीस सोहर छंदों में नहछू लोकाचार का वर्णन किया है। ’सोहर’ अवध क्षेत्र का प्रख्यात छंद है, यद्यपि यह अन्य क्षेत्रों में भी सोहर गाने का रिवाज़ है। ‘‘नहछू’’ दो शब्दों से बना है - नख और क्षुर अर्थात् नख काटना। अवध में विवाहपूर्व दूल्हे के नाखून काटे जाते हैं और इस रस्म को ‘‘नहछू’’ कहा जाता है। इस रस्म के दौरान स्त्रियां गारी सहित तरह-तरह के मनोरंजक गीत गाती हैं।
  
   ‘‘रामलला नहछू’’ की भाषा अवधि है, जिसमें गोंडा और अयोध्या के आसपास बोली जाने वाली पूर्वी अवधी के शब्द निहित हैं। जैसे- अहिरिन, महतारि, आवइ, हरखइ आदि। सोहर छंद में निबद्ध इस काव्य रचना में अप्रतिम दृश्यात्मकता है। ‘‘रामलला नहछू’’ में उपस्थित दृश्य देखिए कि जब राम की नहछू रस्म निभाई जा रही है तो वहां उपस्थित स्त्रियां यह गीत गाती हैं-

काहे राम जिउ सांवर लछिमन गोर हो।
की दहु रानी कौउसिलहीं परिगा भोर हो।
राम अहहिं दशरथ के लछिमन आनि क हो।
भरत सत्रुहन भई सिरी रघुनाथ क हो।।
    - अर्थात् स्त्रियां गारी गाती हुई कहती हैं कि हमें यह समझ में नहीं आता है कि एक ही पिता के पुत्र होकर राम सांवले क्यों हैं और लक्ष्मण गोरे क्यों हैं? फिर शंका प्रकट करती हैं कि कहीं कौशल्या से कोई चूक तो नहीं हो गयी थी? फिर स्वयं अपनी बात पलटती हुई कहती हैं कि राम तो दशरथ के ही पुत्र हैं, शायद लक्ष्मण दूसरे के पुत्र हों। आखिर भरत और शत्रुघ्न भी तो राम के भाई हैं।
वैसे, ‘‘रामलला नहछू’’ के कुछ पदों को पढना भी अपने आप में ज्ञान के उस द्वार को खोल देता है जहां तुलसीदास का लघु किन्तु एक महत्वपूर्ण सृजन दिखाई देता है-
आदि सारदा गनपति गौरि मनाइय हो।
रामलला कर नहछू गाइ सुनाइय हो।।
जेहि गाये सिधि होय परम निधि पाइय हो।
कोटि जनम कर पातक दूरि सो जाइय हो ।। 01।।
कोटिन्ह बाजन बाजहिं दसरथ के गृह हो ।
देवलोक सब देखहिं आनँद अति हिय हो।।
नगर सोहावन लागत बरनि न जातै हो।
कौसल्या के हर्ष न हृदय समातै हो ।। 02।।
आले हि बाँस के माँड़व मनिगन पूरन हो।
मोतिन्ह झालरि लागि चहूँ दिसि झूलन हो।।
गंगाजल कर कलस तौ तुरित मँगाइय हो।
जुवतिन्ह मंगल गाइ राम अन्हवाइय हो।। 03।।
गजमुकुता हीरामनि चैक पुराइय हो।
देइ सुअरघ राम कहँ लेइ बैठाइय हो।।
कनकखंभ चहुँ ओर मध्य सिंहासन हो।
मानिकदीप बराय बैठि तेहि आसन हो।। 04।।
बनि बनि आवति नारि जानि गृह मायन हो।
बिहँसत आउ लोहारिनि हाथ बरायन हो।।
अहिरिनि हाथ दहेड़ि सगुन लेइ आवइ हो।
उनरत जोबनु देखि नृपति मन भावइ हो।। 05।।
रूपसलोनि तँबोलिनि बीरा हाथहि हो।
जाकी ओर बिलोकहि मन तेहि साथहि हो।।
दरजिनि गोरे गात लिहे कर जोरा हो।
केसरि परम लगाइ सुगंधन बोरा हो।। 06 ।।
मोचिनि बदन-सकोचिनि हीरा माँगन हो।
पनहि लिहे कर सोभित सुंदर आँगन हो।।
बतिया कै सुधरि मलिनिया सुंदर गातहि हो।
कनक रतनमनि मौरा लिहे मुसुकातहि हो।। 07।।
गोस्वामी तुलसीदास ने ‘‘रामलला नहछू’’ के अपने पदों में लोकाचार और उससे जुड़ी भावनाओं को जीवंत कर दिया है। कुछ और पद देखिए-
भरि गाड़ी निवछावरि नाऊ लेइ आवइ हो।
परिजन करहिं निहाल असीसत आवइ हो।।
तापर करहिं सुमौज बहुत दुख खोवहिँ हो।
होइ सुखी सब लोग अधिक सुख सोवहिं हो ।। 17।।
गावहिं सब रनिवास देहिं प्रभु गारी हो।
रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।।
हिलिमिलि करत सवाँग सभा रसकेलि हो।
नाउनि मन हरषाइ सुगंधन मेलि हो ।। 18।।
दूलह कै महतारि देखि मन हरषइ हो।
कोटिन्ह दीन्हेउ दान मेघ जनु बरखइ हो।।
रामलला कर नहछू अति सुख गाइय हो।
जेहि गाये सिधि होइ परम निधि पाइय हो ।।19।।
दसरथ राउ सिंहसान बैठि बिराजहिं हो।
तुलसिदास बलि जाहि देखि रघुराजहि हो।।
जे यह नहछू गावैं गाइ सुनावइँ हो।
ऋद्धि सिद्धि कल्यान मुक्ति नर पावइँ हो ।। 20।।
जो पग नाउनि  धोव  राम धोवावइं हो।
सो पगधूरि सिद्ध मुनि दरसन पावइं हो।।
रामलला कर नहछू इहि सुख गाइय हो।
जेहि गाए सिधि होइ परम पद पाइय हो।। 21।।
‘‘रामलला नहछू’’ में भले ही एक रस्म का वर्णन है किन्तु उसमें लोक का सुख, लोक की प्रसन्नता, लोक का व्यवहार, लोक भाषा, लोक संगीत, लोकछंद, लोक स्वर, लोक की उत्सवधर्मिता तथा लोक का परस्पर आपसी सद्भाव आदि सभी कुछ निहित है। यह कृति ‘‘रामलला नहछू’’ गोस्वामी तुलसीदास की ‘‘रामचरित मानस’’ से परे भी एक उत्कृष्ट रचनाकार स्थापित करती है। यह कृति आकार में छोटी होते हुए भी लोक का महाकाव्य रचती है।
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Thursday, June 26, 2025

नवीन पुस्तक का लोकार्पण नवीन संस्कारों का लोकार्पण होता है - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, मुख्य अतिथि, पुस्तक लोकार्पण समारोह, छतरपुर

"साहित्य सृजन को भी शिशु जन्म के समान सृजन की प्रक्रिया माना जाता है किंतु जब किसी शिशु के जन्म के बाद उसका जन्मोत्सव मनाया जाता है तो वह एक व्यक्ति अथवा एक प्राणी का जन्मोत्सव होता है, वहीं जब एक पुस्तक के जन्म का उत्सव मनाया जाता है यानी पुस्तक का लोकार्पण अथवा विमोचन किया जाता है तो वह नवीन विचारों एवं संस्कारों का लोकार्पण होता है। आभा श्रीवास्तव जी सामाजिक सरोकार की कहानी लिखती हैं। आज यहां लोकार्पित उनका कहानी संग्रह सामाजिक परिवेश की पड़ताल करती  कहानियों का रोचक संग्रह है। मैं पहले भी आभा श्रीवास्तव जी की कहानियां पढ़ चुकी हूं और उनके लेखन ने मेरे मन को हमेशा छुआ है।" - बतौर मुख्य अतिथि मैंने (डॉ (सुश्री) शरद सिंह) अपने विचार व्यक्त किए।
     🚩 मित्रो, कल 25.06 2025 को छतरपुर (म प्र) के ला कैपिटल होटल के सभागार में छतरपुर की कथाकार आभा श्रीवास्तव जी के कहानी संग्रह “अभीष्ट “ का लोकार्पण समारोह पद्मश्री डॉ अवध किशोर जड़िया जी की अध्यक्षता तथा   डॉ (सुश्री) शरद सिंह यानी मेरे मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न  हुआ। 
🚩इस गरिमा पूर्ण आयोजन में अति विशिष्ट अतिथि डॉ. बहादुर सिंह परमार, विशिष्ट अतिथि के प्रो आनंद प्रकाश त्रिपाठी, श्रीमती मालती श्रीवास्तव, श्रीमती विमल बुंदेला जी रहीं। 
🚩कार्यक्रम का संचालन किया श्रीमती संध्या श्रीवास्तव तथा सुश्री आरती अक्षरा ने।
🚩इस अवसर पर प्रिय भाभी श्रीमती ह़ंसा बहादुर सिंह, लेखिका शोभा शर्मा, समाजसेवी श्रीमती सुषमा दोसाज, पुष्पा जी, साहित्यकार नीरज खरे, रंगकर्मी नवीन जी, कवि जगदीश जी आदि शहर के वरिष्ठ साहित्यकार, कवि तथा गणमान्य नागरिक उपस्थित रहे । 
🌹♥️🌹 पुनः हार्दिक बधाई आभा जी एवं हार्दिक आभार भी 🌹♥️🌹
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