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शरदाक्षरा....डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Expressions of Dr (Miss) Sharad Singh
Friday, June 24, 2022
बतकाव बिन्ना की | बेलन काए, फटफटिया काए नईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात
Wednesday, June 22, 2022
चर्चा प्लस | राजनीतिक चश्मा उतार कर देखिए "अग्निपथ" | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
राजनीतिक चश्मा उतार कर देखिए "अग्निपथ"
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
भारतीय युवाओं की स्थिति वस्तुतः चिंताजनक दशाओं से गुज़र रही है। बेरोज़गारी उन पर सबसे अधिक प्रभावी है। जो पढ़े-लिखे युवा हैं वे बेरोज़गारी की स्थिति में दिग्भ्रमित हो रहे हैं। वहीं कम पढ़े-लिखे अथवा अपढ़ युवा बड़ी आसानी से अपराध की दुनिया का रास्ता पकड़ रहे हैं। इसके साथ ही एक पक्ष और है, वह है सामाजिक अपराध और उद्दण्डता का। आज अवयस्क युवा भी वयस्कों वाले अपराध करने से नहीं हिचक रहा है। ऐसे में यदि कुछ पैसों के साथ युवाओं को जीने का सलीका (डिसिप्लिन) दिया जाने वाला हो तो इसमें क्या बुरा है इसमें? यूं भी जब अग्निपथ योजना ऐच्छिक आधार पर है तो इतना हलाकान होने की ज़रूरत भी नहीं है। जब हम अपने युवाओं को मल्टीनेशनल कंपनीज़ के अनिश्चित पैकेज़ में भेजने में नहीं झिझकते हैं तो ‘‘अग्निपथ’’ योजना में युवाओं को जाने देने में हिचक क्यों?
जब से अग्निपथ योजना की घोषणा की गई तब से देश के अनेक शहरों में विरोध का दावानल फैलने लगा। कई शहरों में पचासों वाहन फूंक दिए गए। अपने ही शहर के अपने ही लोगों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। ऐसा विरोध उस समय क्यों नहीं किया गया जब किसी युवती अथवा नाबालिग बच्ची के साथ नृशंसता से दुव्र्यवहार किया गया? क्योंकि हर सरकारी नीति का विरोध करने की राजनीति प्रभावी हो चली है। जो बात विरोध करने योग्य हो उसका विरोध बेशक़ किया जाना चाहिए लेकिन आंख मूंद कर हर बात का विरोध करना भी तो उचित नहीं कहा जा सकता है। निश्चित रूप से अग्निपथ योजना में एक भ्रम की स्थिति है कि इसे रोजगार योजना के शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है। जबकि यह न तो अनिवार्य सैनिक शिक्षा स्कीम में है और न समुचित रोजगार योजना के अंतर्गत है। इसलिए कतिपय तत्वों के लिए यह भावना भड़काना आसान हो गया कि ट्रेनिंग के बाद जब ये युवक सेवा मुक्त होंगे तब क्या करेंगे? क्या इनमें से सभी को नौकरी की गारंटी मिलेगी अथवा वे एक बार फिर बेरोजगारी की पंक्ति में जा खड़े होंगे? इस भ्रमपूर्ण स्थिति का लाभ उठा कर ही आग लगवाने वाले आग लगवा रहे हैं और अराजक माहौल बना रहे हैं।
अग्निपथ योजना में युवाओं को अल्पावधि रोजगार के अवसर दिए जाने का दूसरा पक्ष देखना भी जरूरी है, जिसे युवाओं की दशा-दिशा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। एक ओर बेरोजगारी और दूसरी ओर भौतिकता की चकाचैंध। हर युवा चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या कम पढ़ा-लिखा या फिर अपढ़ हो, भारी मानसिक दबाव में जीने को विवश है। माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान परिवार का आर्थिक संबल बने। जो युवा पैसे कमाने का रास्ता हासिल नहीं कर पाते हैं वे उस दोराहे पर जा खड़े होते है जहां एक ओर अपने अस्तित्व को मिटाने का रास्ता दिखाई देता है तो दूसरी ओर गलत काम कर के पैसा कमाने का का रास्ता दिखाई देता है। बहुत कम परिवार ऐसे हैं जहां बेरोजगार युवाओं की अवहेलना नहीं की जाती है। आमतौर पर तुलना कर-कर के कटाक्ष किए जाते हैं कि ‘‘फलां के लड़के को देखो, उसे पांच अंको का पैकेज मिल गया है और एक हमारा बेटा है जो पांच रुपए का काम भी हासिल नहीं कर सका।’’ यह ताने किसी घातक बाण की तरह युवाओं के दिल में चुभते हैं और वे गलत रास्ते पर कदम बढ़ाने को विवश हो जाते हैं। यही स्थिति लड़कियों की है। पहले विवाह के लिए सुंदर, सुशिक्षत, घरेलू कामों में दक्ष की शर्त होती थी अब नौकरीपेशा होने की भी शर्त रहती है। अच्छी नौकरी है तो अच्छा वर मिल जाएगा और नौकरी नहीं है तो वर मिलना टेढ़ी खीर रहता है। इस वातावरण में लड़कियों के सामने भी लड़कों की भांति ही दो ही रास्ते बचते हैं- या तो आत्महत्या (पहले नहीं तो विवाह के बाद) या फिर गलत रास्ते पर चल पड़ना।
एक समस्या और है कि न्यूक्लियर परिवार के चलन ने बच्चों में उद्दंडता भी बढ़ा दी है। माता-पिता दोनों पैसे कमाने में व्यस्त रहते हैं। बच्चों का उनसे पैसे और सुख-सुविधाओं तक का ही वास्ता रहता है। वे ‘‘आदर’’ की भावना को भूलते जा रहे हैं जो एक पीढ़ी पहले तक संयुक्त परिवार से उन्हें विरासत में मिलती थी। आजकल के बच्चे मुंहफट हो कर पलटजवाब देते हैं और अनाड़ी माता-पिता भी खिसियाकर रह जाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते हैं। उस पर इंटरनेट और मोबाईल की सुविधा ने आग में घी डालने का काम कर रखा है। माता-पिता की व्यस्तता का लाभ उठाते हुए युवा इन दोनों सुविधाओं का जम कर दुरुपयोग करते हैं। कुछ को गेमिंग की लत लग जाती है तो कुछ को वयस्कों की साईट्स पर जाने की। कच्ची मानसिकता वाली आयु में इन सब में प्रवृत्त हो कर वे देशप्रेम तो दूर की बात, माता-पिता के प्रति आदर और प्रेम भी भूल जाते हैं। यही अवयस्क जब वयस्कता की सीढ़ियां चढ़ते हैं तो उनका विदेश प्रेम, अपराध प्रेम और भौतिक सुविधाओं के प्रति प्रेम सिर चढ़ कर बोलने लगता है। ऐसे में उन्हें डिसिप्लिन सिखाए जाने की सख़्त जरूरत रहती है जो वे अपने घर-परिवार से नहीं सीख सकते हैं।
आज हमारे देश के औसतन युवाओं को एक बार फिर यह सीखने की जरूरत है कि यदि कोई व्यक्ति आपकी आंखों के सामने किसी संकट में फंसा हुआ हो तो उसकी मोबाईल-वीडियो बनाने के बजाए मदद करने की जरूरत होती है। ऐसी अनेक शर्मनाक घटनाएं आए दिन हमें वायरल होती हुई मिलती हैं जिनमें किसी दुर्घटनाग्रस्त की मदद करने के बजाए उसकी पीड़ा की वीडियो बना कर इंटरनेट पर डाल दी जाती है। या फिर किसी स्त्री या पुरुष को किसी समूह द्वारा नृशंसतापूर्वक मारापीटा जा रहा हो तो उसे बचाने के बजाए तब तक उसकी वीडियो बनाई जाती है जब तक वह पीड़ित मर न जाए। इस कुत्सित मनोवृत्ति पर तभी काबू पाया जाता सकता है जब युवा ऊर्जा को सही रास्ते पर चलाया जाए।
युवाओं में देशप्रेम ओर डिसिप्लिन की भावना को सुदृढ़ करने के लिए अनेक देशों में अनिवार्य सैनिक शिक्षा योजना लागू है। प्रथम विश्व युद्ध के समय 1914 में यूरोप में अनिवार्य सैन्य सेवा शुरू हुई थी और आज भी कई देशों में जारी है। कम्युनिस्ट शासन वाले देशों में तो शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण हर एक को लेना ही पड़ता है। मेक्सिको, रूस, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, तुर्की और संयुक्त अरब गणराज्य तक में अल्पकालीन सैन्यसेवा अनिवार्य है। इस्राइल में ढाई वर्ष की यह अनिवार्य सैनिक सेवा पुरुषों के लिए है और दो वर्ष की सेवा स्त्रियों के लिए। इस दौरान उन्हें सारे शस्त्रों के संचालन की शिक्षा दी जाती है। बरमूडा के नागरिकों के लिए भी अनिवार्य सैनिक सेवा का नियम है। 18 से 32 वर्ष की उम्र के लोगों को यह ट्रेनिंग मिलती है। चयन लाॅटरी से होता है। बरमूडा में यह सेवा 32 महीने की है। ब्राजील में तो 18 साल पूरे होते ही युवाओं को एक वर्ष की सैनिक शिक्षा दी जाती है। स्वास्थ्यगत आधार पर छूट मिलती है या फिर विश्वविद्यालयी शिक्षा लेने वालों को। लेकिन जैसे ही वह युवक शिक्षा पूरी कर लेता है, सैन्य प्रशिक्षण उसे लेना ही पड़ता है। साइप्रस में यह सेवा 2008 से लागू की गई और हर युवा के लिए अनिवार्य है। ग्रीस में 19 से 45 वर्ष की उम्र वालों को अल्पकालिक सैनिक सेवा में जाना आवश्यक है। ईरान में दो साल का प्रशिक्षण मिलता है। उत्तरी कोरिया में यह ट्रेनिंग 14 से 17 की उम्र के बीच शुरू होती है और युवा को 30 वर्ष की उम्र तक सैन्य प्रशिक्षण लेना पड़ता है। साउथ कोरिया में यह उम्र 18 से 28 है। मेक्सिको में 12वीं पास करने के बाद सैन्य ट्रेनिंग दी जाती है। सिंगापुर में तो राष्ट्रीय सेवा (एनएस) की ट्रेनिंग न लेने वालों को 10 हजार डॉलर का जुर्माना देना पड़ता है अथवा तीन साल की जेल। स्विट्जरलैंड में अनिवार्य सैन्य सेवा लागू है। सभी सेहतमंद पुरुषों को वयस्क होते ही मिलिट्री में शामिल होना होता है। महिलाएं खुद चाहें तो सेना में शामिल हो सकती हैं। यह लगभग 21 सप्ताह की होती है। थाईलैंड में अनिवार्य सैन्य सेवा 1905 से लागू है। सभी थाईलैंड निवासियों (पुरुष) को सेना में भर्ती होना जरूरी है। पुरुषों को 21 साल की उम्र में पहुंचते ही सेना में भर्ती होना होता है।
यहां हमारे देश में भारतीय सेना में भर्ती के लिए नई योजना ‘‘अग्निपथ’’ स्कीम का जमकर विरोध हो रहा है लेकिन विरोध करने वालों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हमारे देश में अभी अनिवार्य सैनिक शिक्षा लागू नहीं की गई। जोकि दुनिया में बढ़ते हुए आतंकवाद और विभिन्न देशों के बीच बढ़ती कलह को देखते हुए जरूरी मानी जा सकती है। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो युवा फिलहाल बेरोजगारी से जूझते हुए मानसिक दबाव और अराजकता में जी रहे हैं उन्हें सही दिशा मिलेगी। इससे उनका आत्मबल बढ़ेगा साथ ही वे कुछ पैसे भी कमा सकेंगे जिससे वे बाद में खुद का स्टार्टप शुरू कर सकते हैं। सरकार की हर योजना में व्यावसायिक सौदेबाजी की तरह खोट निकलना और उसे रद्द करने को मजबूर करना भी उचित नहीं है। जब बात देशभक्ति, युवाओं के चरित्र और मनोबल की हो तो योजना के हर पक्ष को परखना भी जरूरी है।
अग्निपथ योजना के माध्यम से भारतीय सेना, भारतीय नौसेना और भारतीय वायु सेना के लिए लगभग 46,000 सैनिकों की भर्ती की जानी है। जो ‘‘अग्निवीर’’ कहलाएंगे। अग्निपथ योजना के तहत महिलाओं की भर्ती संबंधित सेवाओं की जरूरतों पर निर्भर करेगी। वायु सेना की ओर से इसकी चयन प्रक्रिया 24 जून से शुरू हो रही है। जिसके लिए भारतीय वायु सेना ने अपनी वेबसाइट पर केंद्र सरकार की ‘अग्निपथ’ स्कीम से जुड़ी डिटेल साझा की है। इसमें योयता निर्धारण, आयु सीमा, शैक्षिक योग्यता समेत अन्य जानकारियां दी गई हैं। इस योजना में अधिकारियों से नीचे रैंक वाले व्यक्तियों के लिए रिक्रुटमेंट प्रोसेस शामिल है। इस स्कीम के तहत 75 प्रतिशत जवानों की भर्ती मात्र 4 साल के लिए की जाएगी। योजना के तहत भर्ती होने वाले सैनिकों को ‘‘अग्निवीर’’ कहा जाएगा। वहीं, केवल 25 प्रतिशत को ही अगले 15 वर्षों के लिए दोबारा सेवा में रखा जाएगा। इस योजना के तहत सभी भारतीय अप्लाई कर सकते हैं। इसमें 17.5 से 23 वर्ष की आयु के पुरुषों और महिलाओं की भर्ती की जाएगी। चार साल बाद, अग्निवीर रेगुलर कैडर के लिए अपनी मर्जी से आवेदन कर सकेंगे। योग्यता, संगठन की आवश्यकता के आधार पर, उस बैच से 25 प्रतिशत तक का चयन किया जाएगा। अन्य शैक्षणिक योग्यता और फिजिकल स्टैंडर्ड भारतीय वायु सेना द्वारा जारी किए जाएंगे। अग्निवीरों को भारतीय वायुसेना में अप्लाई करने के लिए मेडिकल योग्यता से जुड़ी शर्तों को पूरा करना होगा।
यूं भी जब अग्निपथ योजना ऐच्छिक आधार पर है तो इतना हलाकान होने की ज़रूरत भी नहीं है। जब हम अपने युवाओं को मल्टीनेशनल कंपनीज़ के अनिश्चित पैकेज़ में भेजने में नहीं झिझकते हैं तो ‘‘अग्निपथ’’ योजना में युवाओं को जाने देने में हिचक क्यों? वस्तुतः इस योजना को राजनीतिक चश्मा उतार कर देखने की ज़रूरत है।
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(22.06.2022)
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Tuesday, June 21, 2022
विविध | 21 जून विश्व संगीत दिवस |आइए चले चौराहों पर अपने संगीत के साथ | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | युवा प्रवर्तक
पुस्तक समीक्षा | रहस्य, रोमांच और मनोविज्ञान से भरपूर एक रोचक उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 21.06.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई उपन्यासकार कार्तिकेय शास्त्री के अंग्रेजी उपन्यास "The Night Out" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
रहस्य, रोमांच और मनोविज्ञान से भरपूर एक रोचक उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - द नाईट आउट
लेखक - कार्तिकेय शास्त्री
प्रकाशक - नोशन प्रेस डाॅट काॅम
मूल्य - 199/-
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कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है लेकिन इंसान अपनी भावानाओं तथा अपनी ज़रूरतों को ठीक से समझ नहीं पाता है और कभी अचानक एक रात में ही उसे सब कुछ समझ में आ जाता है। इसे अप्रत्याशित घटना मान लिया जाए अथवा एक अरसे से चल रहे मानसिक उद्वेलन का परिणाम, जो कभी भी अपने निष्कर्ष पर पहुंच सकता था। इस प्रकार के नए कथानकों पर इन दिनों अंग्रेजी के भारतीय युवा उपन्यासकार तेजी से अपनी कलम चला रहे हैं। जी हां, इस बार समीक्षा के लिए जिस उपन्यास को मैंने चुना है, वह अंग्रेजी में लिखा गया उपन्यास है। अपने इस काॅलम में मैं हिन्दी में लिखे गए साहित्य को ही समीक्षा के लिए चुनती रही हूं लेकिन इस उपन्यास को चुनने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसके लेखक सागर में जन्मे हैं और वे आज भी सागर से जुड़े हुए हैं। लेखक का नाम है कार्तिकेय शास्त्री। वे युवा हैं और वर्तमान में दुबई में रियलस्टेट ब्रोकर का काम कर रहे हैं। इस उपन्यास के प्रति मेरी दिलचस्पी इसलिए भी रही क्योंकि घर-परिवार से दूर यूनाईटेड अरब अमिरात के दुबई शहर में पैसा कमाने निकला आज का युवा जिसकी जीवनचर्या विशुद्ध भौतिकतावादी होनी चाहिए थी, साहित्य के प्रति समर्पित हो कर उपन्यासकार बन गया। यद्यपि कार्तिकेय की साहित्य के प्रति दिलचस्पी होने के कारण की झलक उनकी लिखी भूमिका (एग्नाॅलेज़मेंट) में मिलती है कि वे अपनी मां पुष्पा शास्त्री और पिता रमाकांत शास्त्री से मिले संस्कारों के प्रति अडिग हैं। साथ ही वे अपने अंकल उमाकांत मिश्र (जो सागर नगर में श्यामलम संस्था के अध्यक्ष हैं) के प्रगतिशील विचारों से अत्यंत प्रभावित हैं। अर्थात् जो संस्कार उन्होंने अपने परिवार से पाए हैं, उसके कारण उस चकाचौंध वाले देश में आजकल के युवाओं के बीच प्रचलित नाईट आउट को भी उन्होंने साहित्य की एक अनुपम कृति बना दिया। पुस्तक की भूमिका में एक और बहुत प्यारी-सी बात है कि लेखक ने अपनी ‘‘वाईफ टू बी मेघा पांडे’’ अर्थात् होने वाली पत्नी का भी आभार माना है। यह रिश्तों के प्रति लेखक की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) को दर्शाता है।
‘‘द नाईट आउट’’ पर मैं चर्चा करूं इससे पहले आज के युवा उपन्यासकारों के लेखन की कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगी। आज के युवा रचनाकारों का अनुभव संसार एकदम अलग है। वे भाषाई तौर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाते हैं अतः जब वे साहित्य सृजन की ओर कदम बढ़ाते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनकी पकड़ अंग्रेजी में मजबूत होने से वे सृजन के माध्यम के लिए अंग्रेजी को चुनते हैं। किन्तु भारतीय संस्कृति और संस्कार उनके मानस में इतने गहरे समाए रहते हैं कि वे अपनी तमाम आधुनिकताओं के बाद भी रिश्तों एवं संबंधों को ले कर भारतीय दृष्टिकोण रखते हैं। यद्यपि यह भी सच है कि हुक्काबार में जाना, पब में जाना या विपरीतलिंगी मित्रता में एक से अधिक मित्रों के साथ निकट संबंधों तक पहुंच कर अलग भी हो जाना, उनके लिए कोई बहुत गंभीर विषय नहीं है। ‘‘पैचअप’’ और ‘‘ब्रेकअप’’ आजकल के युवाओं के लिए एक पीढ़ी पहले की भांति प्रायः मरने-जीने का प्रश्न नहीं बनता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आज के युवाओं को जीवन का मूल्यबोध नहीं है। बल्कि वह जीवन को पूरे जोश के साथ जीना जानता है। यही सब बातें आज के युवा साहित्य में मुखर हो कर सामने आ रही हैं। इसीलिए इस प्रकार के उपन्यासों की अपनी अलग अर्थवत्ता है। ये उपन्यास उस युवा पीढ़ी की भावनाओं एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो ग्लोबलाईजेशन को जी रही है।
कार्तिकेय शास्त्री एक युवा लेखक हैं। ‘‘द नाइट आउट’’ उनका पहला उपन्यास है। यह रोमांस, रहस्य, मनोविज्ञान और फैंटासी से भरपूर है। जैसा कि कव्हर में दिया गया है कि ‘‘4 फ्रेंड, 6 प्लेसेस एण्ड वन नाईट’’, इसी से स्पष्ट हो जाता है कि पूरा कथानक एक रात की घटनाओं पर आधारित है। बस, यही बात जिज्ञासा जगाती है कि ऐसा क्या हुआ उस एक रात में जिसने उपन्यास के पूरे एक प्लाट को जन्म दे दिया। मुझे याद आ गया 2017 में प्रकाशित उपन्यास ‘‘द गोल्डन विंडो’’। जो अपने थ्रिलर प्लॉट के लिए बहुत लोकप्रिय हुआ था। इतना लोकप्रिय कि अगले साल यानी 2018 में, उसका किंडल संस्करण ‘‘गल्र्स नाईट आउट’’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास की लेखिकाएं दो युवा अमेरिकन महिला लिज फेंटन और लिसा स्टिंक थी, उन्होंने मिल कर एक थ्रिलर लिखा था जो तीन दोस्तों की कहानी थी। ‘‘द गोल्डन विंडो’’ की कहानी से ‘‘द नाईट आउट की कहानी का कोई साम्य नहीं है लेकिन के किंडल संस्करण को ‘‘गल्र्स नाइट आउट’’ के नाम से छापा जाना इस बात का स्पष्ट द्योतक था कि युवा पीढ़ी की गतिविधियों और जीवनशैली को लेकर हर कोई उत्सुक रहता है। इसीलिए पाठकों में ‘‘द नाईट आउट’’ को ले कर यह जिज्ञासा जरूर जागेगी कि उस रात उन चार दोस्तों के साथ आखिर क्या हुआ था जब वे रात को अनियोजित तरीके से घूमने निकले।
चार दोस्तों के अनुभवों पर आधारित यह उपन्यास एक विनोदी, भावनात्मक और साहसिक यात्रा की तरह है जो पाठकों को दोस्ती, करियर के लक्ष्यों और सच्चे प्यार के पार बहुआयामी रास्तों से ले जाती है। कहानी फोन पर तीन दोस्तों की आपसी चर्चा से शुरू होती है, जब करण को अचानक ध्यान जाता है कि आज सैटरडे नाईट है। यानी अनप्लांड नाइट आउट। करण अपने मित्र आशीष से बात करता है और उसे इस बारे में याद दिलाता है। करण आशीष का घनिष्ठ मित्र है। उनमें कई बातें एक समान हैं। विशेष रूप से उनके सोचने का ढंग और उनकी किताबों की पसंद। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद आशीष अपने पारिवारिक व्यवसाय को संभालने में व्यस्त हो जाता है जबकि करण एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करने लगता है।
आशीष करण से बात करने के बाद अपने एक और दोस्त ऋषि को फोन करके सैटरडे नाइट की याद दिलाता है। ऋषि अपने एकाउंटिंग के काम से स्वयं को त्रस्त महसूस कर रहा था। सैटरडे नाइट की बात सुनकर वह भी राहत की सांस लेता है। लेकिन वह तत्काल अपनी सहमति व्यक्त नहीं कर पाता है। वस्तुतः ऋषि अलग स्वभाव का है। वह हर चीज को व्यवस्थित ढंग से प्लान करके करना पसंद करता है। अपने काम की व्यस्तता से झल्लाया हुआ ऋषि आखिरकार आशीष को फोन करता है और अपनी सहमति व्यक्त कर देता है। अंश, आशीष और ऋषि का स्कूल के जमाने से परस्पर मित्र हंै। अंश कद-काठी में अपने मित्रों से अलग है। उसे डबल पावर का चश्मा भी लगता है। लेकिन इससे उनकी मित्रता में कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सभी अच्छे मित्र हैं।
सभी मित्र एक कार में सवार होकर निकल पड़ते हैं। वे एक हुक्का बार वे पहुंचते हैं जहां उन्हें अपनी दो गर्लफ्रेंड अवनी और गार्वी मिलती हैं। गार्वी का ताजा ब्रेकअप हुआ था जिससे वह अपसेट थी। हुक्का बार से दोनों लड़कियों को साथ लेकर उन्हें उनके घर पहुंच जाते हैं और फिर वे चारों दोस्त आउटिंग करते हुए कुछ देर के लिए एक बेंच पर जा कर बैठते हैं और आपस में चर्चा करने लगते हैं। अंश लड़कियों को लेकर दोनों दोस्तों से अलग विचार रखता है। वह स्वीकार करता है कि जब से उसका अपनी गर्लफ्रेंड रूमी से ब्रेकअप हुआ तब से लड़कियों के प्रति उसका नज़रिया बदल गया है। रूमी से अलग होने के बाद वह किसी एक लड़की के साथ गंभीर रिश्ता नहीं बना पाया। वह बताता है कि आज रात अभी गार्वी को उसके घर छोड़ते समय गार्वी ने उसके निकट आने की कोशिश की थी । मगर अंश ने उससे फिर कभी मिलने की बात कह कर विदा ले ली थी।
चारों दोस्त वहां से चलकर, रात भर खुले रहने वाले एक कैफे में पहुंचते हैं। फिर एक बार उनके बीच चर्चाओं का दौर चलता है। करण अपनी गर्लफ्रेंड वानी के साथ 2 साल से रिलेशन में था । लेकिन वानी करण से बहुत दूर रहती थी जिसके कारण वे महीने में एक-दो बार ही मिल पाते थे। वही ऋषि की भी अपनी एक गर्लफ्रेंड है जो स्कूल के समय से ही ऋषि के प्रेम में डूबी हुई है। जिसका नाम है मोनिका। लेकिन ऋषि और मोनिका के बीच ब्रेकअप हो जाता है जिस पर मोनिका बहुत रोती है और तब करण उसे समझा कर शांत करता है। कैफे में कुछ देर आपस में बहस करने के बाद वे फिर एक बार खुली सड़क पर ड्राइविंग के लिए निकल पड़ते हैं। अपनी दफ्तर की जिंदगी में एक जगह बैठे रहने से उकताए हुए दोस्त नाईट आउट में एक जगह पर अधिक देर नहीं बैठे रहना चाहते हैं।
रात्रि समाप्त होते-होते वे फार्म हाउस से होते हुए पहाड़ की चोटी पर पहुंचते हैं। वहां वे परस्पर बातें करते हैं, बहस करते हैं और आपस में एक दूसरे को और अधिक परस्पर जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। अंत में अंश को अवनी की भावनाओं का एहसास होता है और उपन्यास अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है। बीच में कई ऐसी चर्चाएं हैं जो सस्पेंस जगाती हैं और रहस्योद्घाटन भी करती हैं, जिन्हें पढ़ने का अपना एक अलग ही आनंद है। यह उपन्यास बेहद रोचक है और एक ही बैठक में पढ़े जाने को विवश करता है।
उपन्यास 9 चैप्टर में विभक्त है- द मीटअप, द प्लान, द कैफे, द लांग रोड, द रेस्टोरेंट्स ऑन द हाईवे, द पैलेस, द फार्म हाउस, द हिल तथा द फेयरवेल। यह बेहद सरल शब्दों में लिखा गया है किंतु इसमें दृश्यात्मकता की कोई कमी नहीं है। जैसे मध्यरात्रि का वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है-‘‘इट वाज गेटिंग क्लोज टू मिड नाइट एंड द सिटी वास शटिंग डाउन। दिस वाज द टाइम फॉर नाइट आऊल्स....।’’
लेखक की मनोवैज्ञानिक पकड़ भी जबरदस्त है। अकेलेपन के बारे में बहुत गहराई से लिखा गया है- ‘‘लोनलीनेस इज फार मोर डेंजरस देन गेटिंग प्वाइजंड। इटमैक्स यू एनाक्सियस, इट मैक्स यू वांट टू एस्केप, ए मैन कैन सरवाइव ऑलमोस्ट एनीथिंग - एंड टेक ए ब्रेक अप, द लॉस ऑफ ए लव्ड वन, बट नॉट लोनलीनेस। इट किल्स स्लोली एंड देयर इज नो इंस्टेंट रिमेडी।’’
युवा मनःस्थिति को जानने-समझने की दृष्टि से यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है। यह किसी भी दृष्टि से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि किसी लेखक की पहली कृति है। पूरे उपन्यास में लेखन शैली, भाषा और कथानक की दृष्टि से पूरी गंभीरता का आभास होता है। कार्तिकेय शास्त्री का यह पहला उपन्यास उनके उज्ज्वल लेखकीय भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। सरल अंग्रेजी में लिखे गए इस उपन्यास को एक बार अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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Sunday, June 19, 2022
संस्मरण | लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत
नवभारत मेंं 19.06.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
आज सोचने बैठो तो वे सब न जाने किस युग की बातें लगती हैं। बिलकुल किसी परिकथा-सी काल्पनिक। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अतीत में थीं किन्तु आज असंभव-सी प्रतीत होती हैं। किसी किंवदंती या भूले हुए मुहावरे की तरह अतीत की जीवनचर्या, आज से एकदम भिन्न थी। बात पुरानी है लेकिन बहुत पुरानी भी नहीं।
जब मैं छोटी थी तो घर में मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जला कर खाना पकाया जाता था। मेरे घर में दो चूल्हे थे। एक स्थाई चूल्हा जो चौके में स्थापित था। यह दो मुंह का था। यानी एक मुंह सामने था जिसमें लकड़ियां डाली जाती थीं और दूसरा मुंह उसके ठीक पीछे ऊपर की ओर खुला हुआ था। इस पीछे वाले मुंह पर आमतौर पर दाल पकने को रख दी जाती थी। दाल पकने में बहुत समय लगता था। लकड़ी के चूल्हे पर पतीले में रख कर दाल-चावल पकाना भी एक विशेष पाककला थी। दाल और चावल दोनों को पकाने के लिए पहले पतीले में पानी खौलाया जाता था। जिसे ‘अधहन’ कहते थे। जब पानी खदबदाने लगता तब दाल के बरतन में दाल और चावल के पतीले में चावल डाल दिए जाते थे। दाल पकाने के लिए आमतौर पर लोटे के आकार का बरतन काम में लाया जाता था जिसे ‘बटोही’ अथवा ‘बटलोही’ कहते थे। इसे चूल्हे के पीछे वाले मुंह पर चढ़ाते थे। खौलते पानी में दाल डालने के बाद उसमें हल्दी डाल दी जाती लेकिन नमक देर से डाला जाता ताकि दाल पकने में अधिक समय न ले। बटलोही के मुंह पर एक कटोरे में पानी भर कर रख दिया जाता था जो धीरे-धीरे गरम होता रहता था। यह गरम पानी पकती हुई दाल में उस समय मिलाया जाता जब दाल में पानी कम होने लगता और दाल पूरी तरह गली नहीं होती। पकती हुई दाल में ठंडा पानी मिलाने से दाल गलने में अधिक समय लेती। पकाते समय दाल का अच्छी तरह गलना बहुत महत्व रखता था। निश्चितरूप से इसी से ‘‘दाल गलना’’ मुहावरा बना होगा।
चूल्हे के पीछे वाले मुंह में आग की लपटों एवं तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ियों को आगे या पीछे सरका दिया जाता था। जब लकड़ियों से पर्याप्त अंगार बन जाते तो उन्हें चूल्हे के आगे वाले मुंह में फैला कर उन पर रोटियां सेंकी जातीं। यदि अंगार अधिक मात्रा में होते तो रोटियों पर राख कम लगती थी। मैंने मिट्टी के चूल्हे पर बहुत कम बार खाना बनाया। क्योंकि जब पूरी तरह से रसोई का पूरा काम हम दोनों बहनों के जिम्मे आया तब तक घर में कुकिंग गैस और गैस चूल्हा आ चुका था। फिर भी चूंकि मुझे बचपन से खाना पकाने का शौक़ था इसलिए मैं खाना पकाने वाली महराजिन बऊ के क्रियाकलाप ध्यान से देखा करती थी और सोचती थी कि एक दिन मैं भी इसी तरह खाना पकाया करूंगी।
घर में दूसरा चूल्हा ‘‘मोबाईल चूल्हा’’ था। वह आमतौर पर बाहर के आंगन में काम में लाया जाता था। गर्मी के दिनों में शाम को उस पर बाहर खाना बनता, जाड़े के दिनों में सुबह और रविवार की दोपहर उस पर नहाने का पानी गरम किया जाता। उन दिनों हीटर या गीज़र नहीं थे। बड़े से पतीले पर हर सदस्य के लिए बारी-बारी से पानी गरम किया जाता। उस गरम पानी को लोहे की बाल्टी में डाल कर उसमें ठंडा पानी मिलाते हुए पानी का तापमान नहाने लायक बनाया जाता। बारिश के दिनों में वह चूल्हा उठा कर घर के अंदर रख दिया जाता। बऊ खाना बनाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे को रोज नियमित रूप से गोबर से लीपती थी। लगभग पंद्रह दिन के अंतराल में मिट्टी से चूल्हे की मरम्मत भी किया करती थी। चूल्हे का पूरा मैनेजमेंट बऊ के हाथों था लेकिन चूल्हे के लिए लकड़ियों की व्यवस्था मां और मामाजी को करनी पड़ती थी। जब तक कमल मामाजी हम लोगों के साथ रहे तब तक मां को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा लेकिन मामाजी के नौकरी पर शहडोल चले जाने के बाद पूरा जिम्मा मां पर आ गया। मां की यह आदत थी कि वे अपने काम पर स्कूल जाने के अलावा कहीं भी अकेली जाना पसंद नहीं करती थीं। इसलिए जब वे सुबह छः बजे बैलगाड़ी वालों से बात करने घर से निकलतीं तो मुझे अपने साथ ले जातीं। मैं तो शायद पैदायशी घुमक्कड़ थी। मैं खुशी-खुशी उनके साथ चल पड़ती। उन दिनों लकड़ियां बेचने वाले बैलगाड़ी में लकड़ियां भर कर बेचने शहर लाते थे। पन्ना शहर के आस-पास तब न तो जंगल की कमी थी और न लकड़ियों की। बारिश के पहले अचार, बड़ी, पापड़ बना कर रखने की भांति एक बैलगाड़ी भर लकड़ियां भी खरीद कर रख ली जाती थीं। जो लकड़ियां अधिक मोटी होतीं उन्हें उस बैलगाड़ी वाले विक्रेता से ही फड़वा ली जाती थीं। लकड़ियां फाड़ने के दौरान उनके पतले टुकड़े भी निकलते जिन्हें ‘‘चैलियां’’ कहते थे। चूल्हा जलाने में इन चैलियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती। यही चैलियां पहले आग पकड़तीं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां सुलगनी शुरू होतीं। सूखी लकड़ियां सबसे अच्छी जलतीं और कम धुआं करतीं जबकि गीली लकड़ियां धुआं-धुआं हो कर रुला डालतीं। इसलिए लकड़ियां खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाता कि लकड़ियां सूखी हों। यदि ज़रा भी संदेह होता कि लकड़ियां कच्ची और गीली हैं तो उन्हें स्टोर करने से पहले कुछ दिन धूप में छोड़ दिया जाता ताकि वे अच्छी तरह सूख जाएं। उन दिनों मैंने यह बात सीखी थी कि कच्ची लकड़ियों में एक अजीब सोंधी गंध आती है, कुछ-कुछ शुद्ध गोंद जैसी। जबकि सूखी लकड़ियों में सूखी-सी, दूसरे ढंग की गंध होती है।
रसोईघर की छत एडबेस्टस सीमेंट शीट की थी ताकि खाना पकाते समय उससे धुआं आसानी से निकलता रहे। यद्यपि उस शीट की निचली सतह पर धुंए की एक पर्त्त जम जाया करती थी जिसे समय-समय पर साफ़ करते रहना पड़ता था। अन्यथा बारिश के दिनों में ठंडा-गरम तापमान मिल कर वह धुंए की पर्त्त बूंद बन कर टपकने लगती। यदि वह रंगीन बूंद किसी कपड़े पर गिर जाती तो उस कपड़े पर सदा के लिए भद्दा-सा अमिट दाग़ पड़ जाता। बहरहाल, रसोईघर में ही बांस की टटिया से पार्टीशन कर के लकड़ियां रखने की जगह बनाई गई थी, जहां बारिश के चार माह के लिए सूखी लकड़ियां करीने से जमा कर रख दी जातीं। लकड़ियों की छाल और चैलियां अलग बोरे में भर कर रखी जातीं। साथ ही गोबर के कंडे भी खरीद लिए जाते। ये कंडे चूल्हा जलाने में काम आते। जाड़े और गर्मी के मौसम में ‘‘मोरी वालियों’’ से भी लकड़ियां खरीदी जाती थीं। ये मोरी वालियां अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लाद कर बेचने आती थीं। वे लकड़ियां काट कर नहीं वरन बीन कर लाती थीं और अपने सिर पर रखती थीं अतः उनकी लकड़ियां हमेशा सूखी हुई होती थीं। उन मोरी वालियों से मोल-भाव कर के लकड़ियां खरीदी जाती थीं। काॅलेज के दिनों में जब मैं कहानियां लिखने लगी थी तब मैंने एक मोरीवाली की समस्या पर कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘काला चांद’’। कथानक की दृष्टि से वह अपने आप में एक बोल्ड कहानी थी। यानी सच को सामने रखने में मुझे कभी हिचक नहीं हुई।
चूल्हे के लिए लकड़ियों के अलावा लकड़ी का कोयला और बुरादा भी काम में लाया जाता था। लकड़ी के कोयले की अंगीठी और बुरादे की अंगीठी दोनों मेरे घर में पाई जाती थी। कोयला और बुरादा टाल से खरीदा जाता था। हम लोगों के घर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘‘छोटा शेर-बड़ा शेर’’ की कोठी के पास एक साॅ मिल थी। यह कोठी राणा परिवार की थी जो वर्षों पूर्व पन्ना की महारानी के साथ नेपाल से वहां आए थे और फिर वहीं बस गए थे। बहुत ही सम्मानित परिवार था वह। हां, तो उस साॅ मिल में भी बुरादा बेचा जाता था। अतः कई बार मां वहां से भी बुरादा मंगा लिया करती थीं। जबकि कोयले की टाल घर से काफी दूर महेन्द्र भवन के पास थी जो वहां का शासकीय परिसर था और जहां कलेक्टर कार्यालय, कचहरी, हीरा कार्यालय, पीडब्ल्यूडी ऑफिस आदि सभी कुछ था। महेन्द्र भवन दरअसल आलीशान भवन है। सन् 1980 में बड़ौदा महाराज राव फतेहसिंह गायकवाड़ की एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘‘दी पैलेसेस ऑफ इंडिया’’, इस किताब के लिए फोटोग्राफी की थी वर्जीनिया फाॅस ने। इस किताब में महेन्द्र भवन का तस्वीर सहित उल्लेख किया गया था।
लकड़ी का कोयला और बुरादा बोरों में भर कर सूखी जगह पर रखा जाता था। यानी लकड़ी, कोयला और बुरादा तीनों के व्यवस्थित और सही समय पर मैनेजमेंट से खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवथा सुनिश्चित की जाती थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुकिंगगैस, इंडक्शन, माइक्रोवेव और हाॅटप्लेट पर धुआंरहित तरीके से खाना पकाया जाएगा और एक मोबाईल काॅल पर इन्हें खरीद कर घर मंगाया जा सकेगा। सचमुच समय जीने के तरीके बदल देता है। लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि उन दिनों ज़िन्दगी फिर भी आसान थी? यह मेरा भ्रम है या सच्चाई, पता नहीं।
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Wednesday, June 15, 2022
चर्चा प्लस | विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस (15 जून) | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
Tuesday, June 14, 2022
पुस्तक समीक्षा | प्रथम पुष्प की सुवास लिए प्रथम कविता संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
प्रस्तुत है आज 14.06.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री संध्या सर्वटे के काव्य संग्रह "प्रकृति के रंग" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
प्रथम पुष्प की सुवास लिए प्रथम कविता संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रकृति के रंग
कवयित्री - संध्या सर्वटे
प्रकाशक - एक्टिव कम्प्यूटर्स एंड अमन प्रकाशन, नमक मंडी, सागर (मप्र)
मूल्य - 100/-
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संध्या सर्वटे सागर के साहित्य जगत के लिए नया नाम नहीं है किंतु अपने प्रथम काव्य संग्रह के साथ उन्होंने एक आग्रह पूर्ण कवयित्री के रूप में पहली बार दस्तक दी है। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘‘प्रकृति के रंग’’ विविध रंगी भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं का सुंदर संग्रह है। संग्रह की कविताओं पर मैं अपनी ओर से समीक्षात्मक टिप्पणी करूं इससे पूर्व चर्चा करना चाहूंगी उन दो मंतव्यों की जो भूमिका के रूप में संग्रह में समाहित हैं। पहली टिप्पणी है सागर नगर के वरिष्ठ कवि टीकाराम त्रिपाठी जी जिन्होंने ‘‘कोलाज के रूप में कविताएं’’ शीर्षक से इस संग्रह की कविताओं पर अपने विचार रखे हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘संध्या जी के अंतःकरण में यद्यपि एक कुशल चित्रकार का व्यक्तित्व बहुत भीतर तक संचित है तथापि कविता भी एक कोलाज के रूप में उनके मन मस्तिष्क की भाव भूमि में निर्मित होती रहती है जिस का प्रतिफल है यह सद्यः प्रकाश्य काव्य संग्रह है।’’
आशीर्वचन के रूप में दूसरा मंतव्य है महाराष्ट्र समाज सागर की अध्यक्ष एवं साहित्यकार डॉ मीना पिंपलापुरे का। उनके अनुसार, ‘‘संध्या सर्वटे जी द्वारा हिंदी कविता संग्रह का यह प्रथम प्रयास है। मराठी भाषा होते हुए उन्होंने हिंदी में जो प्रयास किया है वह निश्चित रूप से सराहनीय है। मराठी भाषा पर तो उनका कमांड है ही परंतु उसी तरह से हिंदी भाषा पर उनका कमांड है, जिसे हम इन कविताओं में देख सकते हैं।’’
चलिए अब दृष्टिपात करते हैं संग्रह की कविताओं और उन कविताओं की मूल भावनाओं पर। जैसा कि संध्या सर्वटे की कविता संग्रह का नाम है ‘‘प्रकृति के रंग’’, ठीक उसी प्रकार उनकी कविताओं में भावनाओं के नाना विधि रंग बिखरे हुए हैं, मानो किसी एक कैनवास पर एक लैण्डस्केप चित्रित कर दिया गया हो। संग्रह में कविताओं का आरंभ ईश वंदना से है। जिसमें प्रथम विघ्न विनाशक श्री गणेश की स्तुति की गई है। तदुपरांत हरी विठ्ठल का स्तुति गान किया गया है। इन दोनों रचनाओं के बाद प्रकृति प्रेम और जीवनचर्या से जुड़ी कोमल भावनाओं की कविताएं हैं। कवयित्री की प्रकृति संबंधी कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें न केवल प्रकृति से प्रेम है वरन प्रकृति संरक्षण को लेकर भी चिंतित हैं। प्रकृति पुकार रही कविता में वे लिखती है -
प्रकृति पुकार रही
प्रकृति से ही
हमने खिलवाड़ किया
जंगल काटे, वृक्ष काटे
जलाशयों पर घर बनाए।
अपनी प्रकृति का
उग्र रूप देख रहे
पानी ऑक्सीजन हवा
को तरस रहे
अपने ही अपनों से/दूर हो रहे
परिवार के परिवार उजड़ रहे।
इस कविता में संध्या सरवटे नहीं प्रकृति के महत्व का स्मरण कराते हुए उस कुकृत्य की ओर भी ध्यान दिलाया है। जिसके कारण प्रकृति को क्षति पहुंच रही है जैसे वृक्षों को काटना जलाशयों की भूमि को सुखाकर उन पर कालोनियां विकसित कर देना यह सब प्रकृति के प्रति अपराध है। इस कविता में भी अप्रत्यक्ष रूप से उस ओर भी संकेत करती हैं जो प्रकृति में हो रहे बदलाव के कारण पलायन करने पर विवश हो रहे व्यक्तियों और टूटते परिवारों की पीड़ा है।
कवयित्री प्रकृति के रंग में रंग जाना चाहती है जो इंद्रधनुषी आनंद लिए हुए हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘घनन घनन बदरा गरजे’’। इस कविता की पंक्तियां देखिए जिनमें वर्षा ऋतु में विरहिणी नायिका के विरह की पीड़ा को शब्दों में पिरोया गया है -
घनन घनन बदरा गरजे
दमदम दमकती बिजली चमके
झमा, झमाझम बरखा आई
याद पिया की आए
कब से खड़ी राह देखत/पिया की
अब तक ना आए रे
निंदिया आंखों में आई
क्षण क्षण जात भोर हुई
मयूर की केका सुनी
इंतजार अब सहा न जाए।
वर्षा ऋतु की भांति ही वसंत ऋतु मन पर गहरा प्रभाव डालती है। वसंत ऋतु की यह विशेषता है कि वह मन को प्रफुल्लित कर देती है क्योंकि इस ऋतु में प्रकृति अपने पूरे यौवन पर रहती है। शीत में जो हवाएं कष्ट दे रही थी वह वसंत ऋतु में सुखदाई बन जाती है। चारों दिशाएं कोयल की मधुर आवाज से गूंजने लगती है। खेतों में सरसों इस तरह खिल उठती है जैसे उसने पीले रंग का वस्त्र पहन लिया हो। कवयित्री प्रकृति के इस सौंदर्य को रेखांकित करते हुए अपनी कविता ‘‘वासंती बयार’’ में लिखती है -
फिजा में वासंती
बयार बहने लगी
कोयल की सुमधुर ध्वनि
दिशाओं में गूंजने लगी
पीले परिधान धारण कर
धरा नाचने झूमने लगी
रूप तुम्हारा यूं निखरा
आकर्षित करता मन सबका ।
कवयित्री अपनी अभिव्यक्ति के दायरे में जीवन की सहज अनुभूतियों और संवेदनाओं को प्रकट करती हैं। वे दैनिक जीवन में प्रकृति के आनंद की चर्चा करती है। जैसे भी अपनी कविता ‘‘गुलाब वाटिका’’ मैं कहती है कि -
गुलाबी ठंड में
अपनी गुलाब वाटिका में
टहलते टहलते
कांटो के बीच खिले
गुलाबों का सौंदर्य निहारते
नयन सुख के साथ
सांसो में सुगंध भरते
मन हुआ प्रमुदित
कली का रूपांतर
धीरे-धीरे फूल खिलने लगे।
बारिश और चाय-पकौड़ी का रिश्ता बहुत घनिष्ठ है। पवन झकोरा और पानी की फुहारों से आल्हादित दिवस में चाय की चुस्कियां और गरमा गरम पकौड़े एक अलग ही आनंद देते हैं इस आनंद का बड़ी सुंदरता से वर्णन किया है कवयित्री ने अपनी इस कविता में, जिसका शीर्षक है ‘‘गरमा गरम पकौड़े’’। इस कविता की विशेषता यह है कि इसमें यह बात स्पष्ट होती है कि कवयित्री कि जितनी पकड़ काव्य सृजन में है, उतनी ही दक्षता घरेलू कार्यों में भी है। इसीलिए जब कवयित्री गरमा गरम पकौड़े की बात करती हैं तो उसके साथ आम के नए अचार का स्मरण करती हैं। दरअसल ग्रीष्म काल के अंत में तथा वर्षा ऋतु के पूर्व आम का नया अचार डाला जाता है अतः सावन में इसी नए अचार का सेवन किया जाता है। यह बारीकी वह कवयित्री ही प्रस्तुत कर सकती है जिसे घरेलू कार्यों अर्थात पाककला और अचार, चटनी बनाने की समुचित जानकारी हो। यही इस कविता का सबसे दिलचस्प पक्ष है।
गरमा गरम पकौड़े
आम का नया अचार
दोस्तों के संग
लज्जतदार खाने
का अंदाज निराला
सावन की पहली बारिश
मिट्टी की सोंधी सुगंध
उल्लसित मन
आनंद से झूमे हम
सखी हो किसी का इंतजार
अरे झूमो नाचो/गुनगुनाओ
बारिश की फुहार
में भीगने का आनंद मनाओ।
‘‘कारगिल’’, ‘‘लोकमान्य गंगाधर तिलक’’,‘‘डाॅ. हरीसिंह गौर’’,‘‘योगदिवस’’ आदि वे विविधपूर्ण कविताएं हैं जिनसे यह रोचक बन गया है। कुछ कविताओं में तनिक कच्चापन महसूस हो सकता है किन्तु अहिन्दी भाषी होने के कारण अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि अभी उन्हें हिन्दी में साहित्य सृजन को साधने की ओर पहला कदम बढ़ाया है। कवयित्री संध्या सर्वटे का यह हिन्दी में प्रथम काव्य संग्रह किसी पौधे के प्रथम पुष्प की सुवास की तरह स्वागतेय है। पठनीय है।
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