Saturday, May 17, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | खुले डरे नरदा की खबर को लेहै | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

खुले डरे नरदा की खबर को लेहै
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
(पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में)
   सुन रये के ई दफा मानसून जल्दी आबे वारो। घाम में तपत टेम ऐसी खबर भौतई नोनी लगत आए। काए से के मानसून आहे तो पानी बरसहे, मोसम तनक ठंडो हो जैहे औ तब चाय औ भजिया खाबे को मजा आहे। चलो, एक सीन तनक सोच के देखियो के बायरे झिमिर-झिमिर पानी बरस रओ होए औ आप बरांडे में बैठ के गरम भजिया उठा के अपने मों में डारबे जा रए हो, औ तभई  नरदा की बास आन लगे सो, कैसो लगहे? बस, जेई सीन होबे वारो आए ई बारिस में। काए से के अपने शहर में मुतके नरदा खुले डरे। बा में गंदगी बजबजा रई। चलो मान लओ जाए के मानसून के पैले नरदा हरों की सफाई करा दई जैहै, मनो जे बी सांची आए के सबरे नरदा साफ ने हुइएं। औ एक दफा नरदा साफ कराए से का ऊमें फेर के गंदगी ने हुइए? 
    तनक सिविल लाइंस के लिंगे इंदिरा कालोनी में जा के देखियो। बड़े-बड़े साजे मकान, अच्छे साजे रहवासी, पर भोग रए नरक सो। उते अच्छो बड़ो नरदा खुलो डरो। उते से निकरबे में जी मचलान लगत आए। ऐसईं-ऐसईं मुतके नरदा आएं जोन पे आज लौं एकऊ फर्शी ने धरी गईं। चाए सदर में देख लेओ, चाए काकागंज में ढूंक आओ सबई जांगा एक सी दसा आए। जे ऐसे खुले नरदा में आए दिनां ढोर गिरत-मरत रैत आएं औ बीमारियन की जड़ तो जे आएं ही। सहर के बिकास के लाने इत्तो बड़ो-बड़ो बजट आऊत आए, ऊमें से तनक नरदा खों ढांकबे में लगा दओ जाए सो कित्तो अच्छो हुइए। अब खुले नरदा की खबर स्मार्ट सिटी वारे औ नगरनिगम वारे ने लैहैं, तो को लेहै?
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Thank you Patrika 🙏
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Friday, May 16, 2025

शून्यकाल | प्राचीन काल में भी था स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार पर आज से कम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
शून्यकाल
  प्राचीन काल में भी था स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार पर आज से कम
      - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                      
*भारतीय संविधान में पुश्तैनी अथवा खपारिवारिक संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। अन्यथा पहले संपत्ति पर पुत्रियों के अधिकार को स्वीकार ही नहीं किया जाता था। विवाहित पुत्री तो पैतृक संपत्ति से और भी वंचित कर दी जाती थी। जिससे विधवा होने की स्थिति या अन्य कोई भी विपत्ति आने पर उसकी स्थिति आर्थिक रूप से दयनीय हो जाती थी। किन्तु प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। प्राचीन भारतीय समाज में संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार सुनिश्चित किए गए थे। वेदों, महाकाव्यों एवं स्मृतियों में इस संबंध में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। लेकिन ये अधिकार उतने नहीं थे जितने कि अब हैं।*      
 
वैदिक ग्रंथों, महाकाव्यों, स्मृतियों और धर्मसूत्रें में संपत्ति पर स्त्रियों के अधिकार के संबंध में अनेक व्यवस्थाओं का उल्लेख मिलता है जिनमें कहीं-कहीं परस्पर विरोध भी विद्यमान है। इसका कारण संभवतः यह था कि भारत के सब प्रदेशों में उत्तराधिकार विषय नियम एक समान नहीं थे और विभिन्न समयों में उनमें परिवर्तन भी होता रहा। यही कारण है कि मनु, कौटिल्य, याज्ञवल्क्य, गौतम और बृहस्पति के विचार इस प्रश्न पर एक जैसे नहीं हैकि स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार किस अंश तक हो। 
 सिंधु सभ्यता में स्त्रियों के संपत्ति के अधिकार के संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है किन्तु वैदिक काल में स्त्रियों को संपत्ति पाने का अधिकार था। वैदिक काल वैदिक काल में सामान्य रूप से पुत्रियों का संपत्ति पर अधिकार नहीं होता था। यदि पुत्री भाई विहीन हो तब उसे पिता की संपत्ति मिल सकती थी। वैदिक काल में पिता पुत्री के विवाह के समय वर से कुछ धन ले सकता था जिसका कुछ भाग उसे अपनी पुत्री को स्त्रीधन के रूप में देना पड़ता था। विवाह के समय मिलने वाले भेंट-उपहार वधू को दे दिए जाते थे। इन भेंट-उपहारों पर वधू का अधिकार होता था।  इसके साथ ही यह भी प्रथा थी कि पुत्री का पिता अपने दामाद से यह वचन लेता था कि वह अपना पहला पुत्र (नाती) उसे वंश चलाने तथा संपत्ति को सम्हालने के लिए सौंप देगा। अविवाहित स्त्री को अपने पिता की संपत्ति में कुछ भाग मिलता था। 

रामायणकाल में पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता था किन्तु वह उस संपत्ति का उपयोग पति की अनुमति के बिना नहीं कर सकती थी। धर्मार्थ दान अथवा भिक्षा देने का पत्नी को अधिकार होता था। दान अथवा भिक्षा में भी वह अचल संपत्ति नहीं दे सकती थी। विवाह के समय मिले उपहारों पर वधू का अधिकार होता था तथा पिता की ओर से पुत्री को उसके विवाह के समय कुछ धन, दासियां आदि दी जाती थीं। पति की मृत्यु के उपरान्त पत्नी जीवनयापन के योग्य धन की अधिकारिणी होती थी। शेष संपत्ति पुत्रें को मिलती थी। संपत्ति का कुछ भाग अविवाहित पुत्रियों को भी दिया जाता था।

महाभारत काल में स्थिति रामायण काल से भिन्न नहीं थी। वेद व्यास के अनुसार पत्नी पति की अचल संपत्ति होती थी। इसके विपरीत पत्नी का उस संपत्ति पर ही अधिकार होता था जो उसे अपने पिता से मिली हो अथवा पति ने उसे प्रदान की हो। वैसे महाभारत काल  में पुत्रियों को पुत्रों के समान माना गया। जैसा पुत्र होता है वैसी ही पुत्री भी होती है। दोनों की स्थिति एक समान है। पिता की संपत्ति को पुत्र और पुत्रियों में बराबरी से बंाटा जाजा था। किन्तु यदि किसी पुरुष के मात्र पुत्रियां हों तो वे पिता की समग्र संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकती थीं।  

सूत्र ग्रंथों के अनुसार पति और पत्नी दोनों हीे संपत्ति के संयुक्त स्वामी होते थे। पति की अनुपस्थिति में चल संपत्ति में से पत्नी आवश्यक धन खर्च कर सकती थी किन्तु अचल संपत्ति व्यय करने का अधिकार उसे नहीं था। बौधायन के अनुसार पति जो धन उपहार के रूप में पत्नी को देता था उसकी स्वामिनी पत्नी होती थी। आपस्तंबसूत्र के अनुसार मृत पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार नहीं होता था। आपस्तंब धर्मसूत्र में पुत्र के अभाव में पुत्री को तो पिता की संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार दिया गया किन्तु विधवा स्त्री के संपत्ति पर अधिकार को स्वीकृत नहीं किया गया। 

स्मृति ग्रंथों में स्त्री को दी जाने वाली संपत्ति के रूप में स्त्री धन का उल्लेख मिलता है। मनु स्मृति के अनुसार विवाह के समय पिता, माता, भाई व अन्य संबंधियों द्वारा दिए गए उपहारों और विवाह के बाद पति द्वारा दिए गए उपहारों पर वधू का अधिकार होता था। पत्नी को यह अधिकार नहीं था कि वह अपने पति से अनुमति लिए बिना अपने पति की संपत्ति में से किसी अन्य को कुछ दे सके अथवा व्यय कर सके। मनु ने मृत पति की संपत्ति पर पत्नी के अधिकार को स्वीकृत नहीं किया है। नारद स्मृति में कन्या को पिता की संपत्ति  का अधिकारी तो माना गया है पर उसी समय तक जब तक उसका विवाह न हो जाए। विष्णु ने स्त्री धन के रूप में उन उपहारों के बारे में भी वधू को सौंपे जाने का निर्देश दिया जो विवाह के बाद पुत्र द्वारा दिए गए, अन्य संबंधियों द्वारा दिए गए अथवा निर्वाह के लिए धन के रूप में दिए गए। याज्ञवल्क्य गुजारेभत्ते के रूप में पति की एक तिहाई संपत्ति पत्नी को दिए जाने के पक्ष में था। पुत्र के अभाव में संपत्ति का उत्तराधिकार इस क्रम से होगा- पत्नी, कन्या या कन्याएं, माता-पिता, भाई, भतीजे, सगोत्र व्यक्ति, बंधु-बांधव, शिष्य और सहपाठी। नारद के अनुसार पत्नी का अधिकार मात्र चल संपत्ति पर होता था। वह उसे बेच सकती थी अथवा उसका अपनी इच्छानुसार उपभोग कर सकती थी। जबकि कात्यायन के अनुसार स्त्री अचल संपत्ति को भी बेच सकती थी। कात्यायन के अनुसार स्त्रीधन में वे सभी उपहार सम्मिलत थे जो पिता,माता व पति द्वारा दिए गए हों। इन पर पत्नी का पूर्ण अधिकार था और वह इन्हें चाहे किसी को दे सकती थी। लगभग सभी स्मृतिकारों ने अचल संपत्ति पर पति के अधिकार का पक्ष लिया है तथा पत्नी को अचल संपत्ति के अधिकार से वंचित रखा। 

कौटिल्य ने पिता की संपत्ति में पुत्री के अधिकार को उचित बताया। उसके अनुसार जिसका कोई पुत्र न हो उसकी सचल संपत्ति उसके सगे भाई अथवा उसके सहजीवी प्राप्त करें तथा उसकी अचल संपत्ति उसकी पुत्री उत्तराधिकार के रूप में दी जाए। कौटिल्य ने पुत्रियों को भी अपने पिता की संपत्ति  में अधिकार पाने योग्य ठहराया। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में स्त्रीधन का विस्तार किया गया। देवल के अनुसार  निर्वाह के लिए प्राप्त धन और लाभ को भी स्त्रीधन में सम्मिलित कर दिया।  विज्ञानेश्वर ने पिता से दाय रूप में मिली संपत्ति, खरीदी हुई संपत्ति, बंटवारे में मिली संपत्ति और जिस पर अधिक समय तक अधिकार रहने के कारण रह स्वामित्व हो गया हो, ऐसी समस्त संपत्ति को स्त्रीधन में माना।  विज्ञानेश्वर के अनुसार विधवा स्त्री अपनी अचलसंपत्ति  को अपनी पुत्री को दे सकती थी। वह अपना स्त्रीधन भी अपनी पुत्रियों को दे सकती थीं। उनमें भी पहले अविवाहित पुत्री को और फिर विवाहित पुत्रियों को। यदि किसी कारणवश पति को अपनी पत्नी के स्त्रीधन का उपयोग करना पड़े तो पति से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह समर्थ होने पर व्यय किया गया स्त्री धन अपनी पत्नी को वापस कर दे। गुप्तोत्तर काल में पुत्री को पिता की संपत्ति में कुछ भाग दिया जाता था किन्तु पुत्री को अचल संपत्ति देने की व्यवस्था नहीं थी। यह अपेक्षा की जाती थी कि यदि पिता अपने जीवन काल में अपनी संपत्ति का बंटवारा करे तो उसमें से एक भाग पत्नी को, प्रत्येक पुत्र को समान भाग तथा पुत्री को पुत्र से आधा भाग प्रदान करे। यद्यपि गुप्तोत्तरकाल के सभी विद्वान पुत्री को संपत्ति में से हिस्सा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। 
विधवा स्त्री को जीविका चलाने के लिए दाय के रूप में संपत्ति का कुछ भाग दिया जाता था।  विधवा स्त्री का अचल संपत्ति  पर अधिकार सीमित था। वह  अचल संपत्ति की आय को खर्च कर सकती थी किन्तु उसे बेच नहीं सकती थी। दक्षिण भारत के राज्यों  में विधवा को संपत्ति  पर अधिकार दिया जाता था किन्तु उत्तर भारत में यह अधिकार बहुत देर से स्वीकार किया गया। गुजरात में 12 वीं शती ई. तक विधवा को संपत्ति का अधिकारी नहीं माना जाता था।
        इस तरह देखा जाए तो संपत्ति पर अधिकार को ले कर वर्तमान समय में स्त्रियों की स्थिति सबसे सुदृढ़ है।
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Thursday, May 15, 2025

बतकाव बिन्ना की | उन ओरन लाने तो अब नई पुंगरिया चाउने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
उन ओरन लाने तो अब नई पुंगरिया चाउने
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
          ‘‘कछू जने कभऊं नईं सुदरत।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ! सई कई। आप सोई उनमें से एक हो।’’ भौजी हंसत भईं बोली।
‘‘काय, अब इत्ती झूठी बी ने बोलो। ब्याओ के बाद हम नईं सुदर गए का?’’ भैयाजी भौजी से बोले।
‘‘मने, पैले आप बिगड़े भए हते।’’भौजी ने हंस के कई।
‘‘ब्याओ के बाद तुमने हमें सुदार दओ।’’ भैयाजी मुस्क्यात भए बोले।
‘‘जे आपने मान लओ।’’ भौजी ने फेर के चुटकी लई।
‘‘हऔ, मान लओ। औ जे बी सच्ची आए के ब्याओ के बाद अच्छे-अच्छे सुदर जात आएं, हम कां लगत आएं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘सो आप जे कोन के लाने कै रए हते के कछू जने कभऊं नईं सुदरत?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘उनई के लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन के लाने?’’ मोए समझ ने परी।
‘‘अरे, देख नईं रईं? उन्ने कतल कराओ, उन्ने मिसाइलें दागीं औ अब बे भोले बाबा बन के फिर रए। बा तो अपन ओरन की बड़ाई ठैरी के उने छोड़ दओ। मने बे ठैरे कुत्ता की दुम। बारा बरस बी पुंगरिया में रखी जाए फेर बी सीधी ने हुइए। टेढ़ी की टेढ़ी रैहे। उन ओरन खों भलाई की बातें कोन समझ में आउंती आएं। बे तो कभऊं बी फेर के कछू करहें। देख नई रईं के बे अबे बी सबरे सांपन खों पाले बैठे औ दूद पिबा रए। एकऊ खों मारबे या सौंपबे की बात नई कर रए। औ अब तो उने संग देबे वारे सोई मिलत जा रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात तो सई कै रए आप। पर भैयाजी, का आए के अपन ओरें ठैरे पब्लिक, अपने ओरें भावना से चलत आएं औ जोन खों करने परत आए, बे सब कछू सोच के चलत आएं। अपन ओरें नईं समझ सकत के ऐसो काय करो औ वैसो काय नईं करो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘तुम ठीक कै रईं बिन्ना! पर तनक सोचो के बा कुत्ता की दुम के लाने एक नई पुंगरिया तो चाउने ई परहे। सबरी पुरानी पुंगरिया तो ऊके लाने कछू नईं कर पा रई। बा औ उके पाले भए सबरे गुर्रान लगत आएं।’’ भैयाजी तनक दुखी होत भए बोले।
‘‘आप फिकर ने करो औ ने दुखी होओ! हो सकत के उनके लाने नई पुंगरिया बन रई होए। अपन खों का पता?’’ मैंने कई।
‘‘सई तो कै रई बिन्ना, जे बड़े राज-काज अपन ओरे नईं समझ सकत।’’ भौजी सोई बोलीं।
‘‘मनो जे सोसल मीडिया पे तो कित्तो उल्टो-सूदो चलन लगो।’’ भैयाजी ने कई।
‘‘सोसल मीडिया की छोड़ो आप, बा तो सोसल कम, अनसोसल ज्यादा आए। औ बाकी उते बोलबे वारे गिरगिट घांईं रंग बदलत आएं। सुभै एक के धरे उरदा दर रए होंए सो संझा दूसरे के घरे मूंग दरत दिखाहें। औ तनक डर लगो तो अपनी पोस्ट-मोस्ट डिलीट कर के बढ़ा गए। कोऊं-कोऊं तो अपनो अकाउंट लौं बंद कर के बैठ जात आएं। फेर जब आयरे कछू ठंडो माहौल दिखानो तो चुप्पे से अपनो अकाउंट खोल के फेर आ ठाड़े भए। सोसल मीडिया की दुनिया खों इत्तो सीरियस लेबे की जरूरत नोईं। उते तो गांधीजी के तीन बंदरा घांई रओ चाइए- बुरौ मत देखो, बुरौ मत बोलों औ बुरौ मत सुनो। उते जो कछू अच्छो आए ऊको देखो सो सब अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई।
‘‘सई कै रईं बिन्ना! जे सोसल मीडिया सोई कभऊं-कभऊं टीवी चैनल घांईं काटन सो लगत आए। खैर, जे सब छोड़ो, औ बताओ के का चल रओ?’’ भैयाजी बात बदलत भए बोले।
‘‘सब कछू ठीक चल रओ। देखो भैयाजी, जो गलतियां निकारबे बैठो सो भगवान की बनाई चीजन में बी गलतियां दिखान लगत आएं फेर इंसान को का ठैरो?’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘सो भगवान तो भगवान आए, ऊको कोऊ का कै सकत?’’ भैयाजी कुनमुनाए से बोले। 
‘‘भगवान की गलतियन पे मोए एक नाटक याद आ रओ। बा शेक्सपियर ने एक नाटक लिखो रओ ‘‘काॅमेडी आफ एरर्स’’। आपने सोई कभऊं पढ़ो हुइए।’’ मैंने भैयाजी खों याद दिलाई।
‘‘नईं हमने कभऊं नईं पढ़ो। हमाई पढ़ाई भई हिन्दी मीडियम से, सो हम कां से जा पढ़ते? बाकी ईको नांव जरूर सुनो आए। ईपे एक हिन्दी फिलम सोई बनी रई। शायत ‘अंगूर’ नांव रओ ऊको। संजीव कुमार औ देवेन वर्मा रओ। बड़े मजे की फिलम रई।’’ भैयाजी सोंचत भए बोले।
‘‘अरे वाह! आप खों फिलम की बड़ी याद आए।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘याद जे लाने आए बा फिलम, के हम तुमाई भौजी के संगे चोरी से गए रए औ लौटत में कऊं देर ने हो जाए, ई डर से जे चाट-फुल्की खाबे खों बी ने रुकी हतीं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘तुम औ! अब का सब कछू बताबो जरूरी आए?’’ भौजी ने भैयाजी खों तनक झिरकत भई बोलीं।
‘‘भैयाजी, आपखों अब याद ने हुइए के बा ‘अंगूर’ फिलम को डायरेक्टर गुजार साब रए। लेकन हिरोईन तो आपको याद हुइए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘बा हमें याद नईं।’’ भैयाजी साफ मेट गए।
‘‘लेओ, आपको मौसमी चटर्जी याद नईं? बोई तो हिरोईन रई फिलम की औ दूसरी वारी दीप्ती नवल हती।’’ मैंने भैयाजी से कई।
बे दोई हमें कां से याद रैतीं, हमाए संगे तो हमाई हिरोइन रई।’’ भैयाजी हंसत भए बोले।
‘‘बाकी बा नाटक को का कै रई? बा हमने सोई नई पढो।’’ भौजी ने बात बदलत भई मोसे पूछी।
‘‘बा किसां? ऊ किसां में का भओ के, एजियन नांव को एक ब्यौपारी रओ। ऊके दो जुड़वां बेटा भए। ऊने दोई को नांव एंटिफोलस रख दओ। ऊने फेर ओई टेम पे दो ओई टेम के जाए दो जुड़वा खरीद लए। अपने दोई बेटों की करबे के लाने। उन दोई खरीदे भए जुड़वों को नांव ड्रोमियो रख दओ। एक दिना बा अपने बेटों औ बेटों के नोकरन बच्चन के संगे पानी के जहाज पे कऊं जा रओ हतो के जहाज डूब गओ। ईसे भओ का के एजियन की लुगाई, ऊको एक बेटा औ एक नौकर बालक ड्रोमियो हिरा गए। एजियन को एक बालक औ एक नौकर बालक ऊके साथ रैत आए। ई टाईप से दोई जुड़वा अलग-अलग हो के  बढ़त चलत आएं औ फेर मुतकी मजेदार घटनाएं सी घटत आएं। किसां की अखीर में दोई जुड़वां आपस में मिल जात आएं। सो जे हती किसां ‘‘काॅमेडी आफ एरर्स’’की। औ शेक्सपीयर ने जे बताबे की ईमें कोसिस करी रई के भगवान जू से बी गलती हो सकत आए। एक मां के जाए, एक घरे पैदा भए, जुड़वा रए, मनो अलग-अलग होतई सात उनकी हरकतें सोई अलग-अलग हो गईं। सो, भगवान ने जब उने बनाओ तो उने का पतो रओ के बे जुड़वा अलग हो के लड़त रैहें।’’ मैंने कई।
‘‘जा तो तुमने तनकई में सूंट दई। पूरी किसां ने सुनाई।’’ भौजी कुनमुनात भई बोलीं।
‘‘हऔ! औ ई किसां से जे अभई की लड़ाई को का ताल्लुक कहाओ?’’ भैयाजी सोई मों बनात भए बोले।
‘‘जे किसां लम्बी आए सो फेर कभऊं पूरी सुनाबी। रई बात किसां के अधूरी रैने की सो आपई ओरें सोचो के जो कोई किसां अधूरी-सी रै जात आए तो कैसो लगत आए। मनों बात बोई आए के किसां हती कुत्ता की दुम खों पुंगरिया में डार के सीदी करबे की, पर भओ का किसां अधूरी रै गई और कुत्ता की दुम टेढ़ी के टेढ़ी रै गई। औ बे तो झुंड बना के फिर रए। काय, सई कई के नईं?’’ मैं भैयाजी औ भौजी से पूछी।
बे दोई हंसन लगे। काए से दोई समझ गए के मैं का कै रई।
‘‘जेई से तो हम कै रए के उनके लाने तो अब नई पुंगरियां चाउने। अखीर उने पतो तो परन चाइए के कोऊ ऊकी पूंछ को सीदी कर सकत आए। बे तो अपनी पूंछ टेढ़ी करे-करे इतरा रए।’’ कैत भए भैयाजी सोई हंस परे।
‘‘कब लौं हंसहे, कोनऊं दिनां तो ऊनको पुंगरिया पैन्हाई जाहे।’’ मैंने कई।
‘‘को जाने कबे? अभई अच्छो मौका रओ।’’ भैयाजी दुखी होत भए बोले।
‘‘जे अपन ओरे सोचत आएं पर जोन खों सोचने, बे का सोचत आएं जे अपन नई समझ सकत। सो गम्म खाओ औ नई पुंगरिया बनबे को इंतजार करो।’’ मैंने कई।    
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के उन ओरन के लाने नई पुंगरिया चाउने के नईं? 
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Wednesday, May 14, 2025

चर्चा प्लस | हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है  | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर
चर्चा प्लस
हर युद्ध पर्यावरण पर एकतरफा हमला होता है 
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
युद्ध कौन चाहता है? आम जनता, घास, पेड़, फूल, पत्ते, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता? ये सभी जैव विविधता का निर्माण करते हैं, लेकिन वे भी कभी युद्ध नहीं चाहते। तो युद्ध कौन चाहता है? मिसाइलों और बमों से पर्यावरण को प्रदूषित न करें। युद्ध में सिर्फ इंसान ही नहीं मारे जाते, रॉकेट और मिसाइलों से कई पेड़, जानवर, पक्षी भी मारे जाते हैं। क्या किसी के पास इस बात के आंकड़े है कि युद्ध के कारण हर दिन कितने पौधे, कितने पक्षी, कितने जानवर, कितने कीड़े मारे जाते हैं? और कितना ध्वनि प्रदूषण होता है? इराक, यूक्रेन और दुनिया के वे सारे देश जो छोटे-बड़े युद्धों की आग में झुलस रहे हैं,वहां का पर्यावरण लगभग नष्ट हो चला है। इस संबंध में मैंने एक लेख अपनी पुस्तक ‘‘क्लाईमेट चेंज: वी केन स्लो द स्पीड’’ में भी रखा है जिसका शीर्षक है-‘‘एवरी वार इज़ वन साईडेड अटैक आॅन द इनवायरमेंट’’।  


हमने प्रथम विश्व युद्ध नहीं देखा, 1945 के बाद पैदा हुए लोगों ने द्वितीय विश्व युद्ध भी नहीं देखा, लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों के प्रभाव के रूप में इसकी भयावहता देखी है, जिसे न केवल उस समय की बल्कि बाद की पीढ़ी ने भी झेला। आज भी नागासाकी और हीरोशिमा में रेडिएशन के भयानक परिणाम देखे जा सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी ने ईरान-इराक युद्ध देखा है, अफगानिस्तान मिसाइलों से घायल हुआ है और इसका ताजा उदाहरण यूक्रेन में हमारे सामने है। दुख की बात है कि हमारे पड़ोसी देश के कारण हमें भी युद्ध के द्वार तक पहुंचना पड़ा। कश्मीर तथा पाकिसतान से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में मिसाइलों से हुए हमलों को भारतीय सेना ने बहादुरी से भले ही नाकाम किया किन्तु इसके बावजूद जो हमले गंावों और शहरों पर हुए उनमें हताहतों के मानवीय आंकड़ें हमें देर-सबेर मिल जाएंगे लेकिन उन जीव-जन्तुओं की संख्या हमें कभी पता नहीं चलेगी जो इस दौरान बेमौत मारे गए। निःसंदेह सैनिकों और नागरिकों के हताहत होने के आंकड़े हमारी आंखों के सामने से गुज़रते हैं, पर जैव श्रृंखला की टूटी हुई कड़ियों के आंकड़े हम जान नहीं पाते हैं। युद्ध कौन चाहता है? आम जनता, घास, पेड़, फूल, पत्ते, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता? ये सभी एक जैव श्रृंखला का निर्माण करते हैं लेकिन वे भी कभी युद्ध नहीं चाहते। तो युद्ध कौन चाहता है? कौन चाहता है मिसाइलों और बम से होने वाले घातक प्रदूषण को? युद्ध में सिर्फ इंसान ही नहीं मारे जाते, रॉकेट और मिसाइलों से कई पेड़, जानवर, पक्षी भी मारे जाते हैं। 
अनुमान है कि अकेले ब्रिटेन में ही द्वितीय विश्व युद्ध के पहले सप्ताह में 750,000 से अधिक पालतू बिल्लियाँ और कुत्ते मारे गए थे। हिल्डा कीन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘द ब्रिटिश कैट एंड डॉग मैसेकर: द रियल स्टोरी ऑफ वल्र्ड वॉर टूज अननोन ट्रेजडी’’ हमें यह भयानक सच्चाई बताती है। यह ब्रिटिश पालतू जानवरों के नरसंहार की कहानी बताती है, द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के समय सितंबर 1939 की अवधि, जब हवाई हमलों और संसाधनों की कमी की आशंका में सैकड़ों हजार ब्रिटिश परिवार के पालतू जानवरों को पहले ही मार दिया गया था। चिंता उचित थी कि मालिकों के मारे जाने पर उन पालतू पशुओं को खाना-पानी कौन देगा? वे बुरी मौत मारे जाएंगे। इसलिए उन्हें पहले ही मौत के घाट उतार दिया गया। पालतू पशुओं पर यह भीषण क्रूरता थी। लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि पशुओं पर यह क्रूरता उनके अपने मालिकों की इच्छा थी नहीं थी, विवशता थी। उन पालतू जानवरों ने तो ऐसी मौत के बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इंसान परस्पर युद्ध लड़ रहे थे, लेकिन मासूम पालतू जानवरों बेमौत मारे जा रहे थे।
वे पालतू जानवर थे जिन्हें सीधे मार दिया जाता था। लेकिन कई जानवर ऐसे थे जिनका इस्तेमाल युद्ध में किया जाता था। अमेरिकी सेना ने युद्ध के प्रयास के लिए 10,000 से अधिक कुत्तों को प्रशिक्षित किया और लगभग 2,000 को युद्ध में सेवा देने के लिए विदेश भेजा। चूहों को नियंत्रित करने में मदद करने के लिए बिल्लियों का इस्तेमाल जहाजों, बैरकों और सैन्य क्षेत्र के कार्यालयों में किया जाता था। इंसानों के साथ कई बिल्लियों को भी मार दिया गया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के युद्ध-संबंधी कार्यों के लिए खच्चरों, घोड़ों और यहाँ तक कि कबूतरों का भी व्यापक उपयोग किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, घुड़सवार सेना की भूमिका निभाने के लिए घोड़ों की जरूरत थी, लेकिन आपूर्ति, उपकरण, बंदूकें और गोला-बारूद ले जाने के लिए भी वे महत्वपूर्ण थे। परिवहन के लिए इन जानवरों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया था। प्रथम विश्व युद्ध में आठ मिलियन घोड़े, गधे और खच्चर मारे गए, उनमें से तीन-चैथाई उन चरम स्थितियों में मारे गए जिनमें वे काम करते थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान कुत्तों ने कई तरह के कार्यों में सेवा करते हुए अधिकांश यूरोपीय सेनाओं के लिए एक महत्वपूर्ण सैन्य भूमिका निभाई। कुत्ते मशीन गन और आपूर्ति गाड़ियाँ खींचते थे। वे संदेशवाहक के रूप में भी काम करते थे, अक्सर गोलाबारी के बीच अपने संदेश पहुँचाते थे। हिल्डा कीन ने अपनी पुस्तक ‘‘द ब्रिटिश कैट एंड डॉग मैसेकर: द रियल स्टोरी ऑफ वल्र्ड वॉर टूज अननोन ट्रेजडी’’ में लिखा है कि 1914 और 1918 के बीच केवल 484,143 ब्रिटिश घोड़े, खच्चर, ऊँट और बैल मारे गए। कबूतरों ने प्रथम विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि वे संदेश भेजने का एक अत्यंत विश्वसनीय तरीका साबित हुए। कबूतरों का महत्व इतना था कि युद्ध में 100,000 से अधिक कबूतरों का इस्तेमाल किया गया और 95ः की आश्चर्यजनक सफलता दर के साथ अपने संदेश को अपने गंतव्य तक पहुँचाया। दुर्भाग्य से, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ड्यूटी के दौरान बड़ी संख्या में कबूतर मारे गए।
द्वितीय विश्व युद्ध में नौसेना द्वारा दक्षिण प्रशांत में जहाजों की रखवाली और बारूदी सुरंगों की खोज के लिए डॉल्फिन का इस्तेमाल किया गया था। बेशक आज, डॉल्फिन को अमेरिका की नौसेना से नए रूप में जोड़ा गया है, उन्हें जहाजों की रखवाली और बारूदी सुरंगों की खोज में महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में रखा जाता है। लेकिन इस तरह से मनुष्यों की सेवा करना डॉल्फिन का स्वाभाविक कार्य नहीं है। यानी जल, थल और वायु के जीवों का मनुष्यों ने युद्ध में इस्तेमाल किया। यह उन जानवरों का इस्तेमाल था, जिनका युद्ध से कोई सरोकार नहीं था। उन्हें भू-सीमाओं या राजनीतिक लालच के बारे में नहीं पता था। विश्व युद्धों का हवा और पानी पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। द्वितीय विश्व युद्ध के जहाजों के कारण अटलांटिक महासागर में तेल संदूषण 15 मिलियन टन से अधिक होने का अनुमान है। तेल रिसाव को साफ करना मुश्किल होता है निस्संदेह, यह प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, वियतनाम युद्ध, रवांडा गृह युद्ध, कोसोवो युद्ध और खाड़ी युद्ध जैसे युद्धों का दुखद पर्यावरणीय प्रभाव है कि विध्वंसक हथियारों से जल और वायु प्रदूषित हो गए।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान शहरों पर बमबारी और जंगलों, खेतों, परिवहन प्रणालियों और सिंचाई नेटवर्क के विनाश ने विनाशकारी पर्यावरणीय परिणाम उत्पन्न किए। 1991 में खाड़ी युद्ध के पर्यावरणीय परिणामों ने हवा, समुद्री पर्यावरण और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित किया। युद्ध के 43 दिनों के दौरान लगभग 4,000 वर्ग मील के क्षेत्र में कुल 84,000 टन से अधिक बम गिराए गए। इसलिए प्रभावित तट के किनारे आर्द्रभूमि में अधिकांश मैंग्रोव और दलदल तेल से नष्ट हो गए। इन क्षेत्रों के पचास से 90 प्रतिशत जीव, मुख्य रूप से केकड़े, उभयचर और मोलस्क भी तेल रिसाव से मारे गए।
युद्ध से भूमि की सीमाएँ बदली जा सकती हैं। युद्ध में कोई जीत सकता है तो कोई हार सकता है। लेकिन युद्ध से जो पर्यावरण नष्ट होता है, उसे फिर से बनाना बहुत मुश्किल होता है। बमबारी और मिसाइलों के कारण कई साल पुराने पेड़ झुलस जाते हैं, जल जाते हैं, गिर जाते हैं। जबकि नए पेड़ों को बढ़ने और परिपक्व होने में सालों लग जाते हैं। हवा प्रदूषित हो जाती है। नदियाँ, तालाब और समुद्र का पानी प्रदूषित हो जाता है। दरअसल, युद्ध इंसानों के बीच नहीं बल्कि पर्यावरण पर एकतरफा हमला है। बेहतर है कि हम अपने राजनीतिक लालच पर काबू रखें और युद्ध न होने दें। लेकिन दुर्भाग्य से यूक्रेन में युद्ध की भयावहता से हमें पर्यावरण का नुकसान उठाना पड़ा है। आजकल के युद्धों की चर्चा के दौरान परमाणु हथियारों के प्रयोग किए जाने की शंका निरंतर बनी रहती है। ऐसे घातक परिणामों को प्रयोग में लाने के बारे में सोचने वालों को रूस के चेर्नोबल पर एक बार दृष्टिपात कर लेना चाहिए जो आज एक रेडिएशन प्रभावित निषिद्ध क्षेत्र है। बेशक वहां भी वनस्पितियों ने अपने जीवन को एक बार फिर आगे बढ़ाया है किन्तु वे वनस्पतियां कितनी रेडिएशन प्रभावित हैं, यह अभी पूरी तरह से पता नहीं है। मनुष्य तो वहां रह ही नहीं सकता है। 
युद्ध कृषि भूमि को लील जाते हैं। उन्हीं कृषि भूमि को जो हमें पेट भरने और जीवित रहने के लिए अनाज देते हैं। कृषि भूमि की मिट्टी मिसाइलों से प्रदूषित हो जाती है और उसे पुरानी अवस्था में लौटने में वर्षों लग जाते हैं। एक पक्षी जो बीजों का प्रसार करता है तथा वनस्पतियों का विस्तार करता है, उसके मारे जाने से अनेक बीजों के प्रसारण का क्रम थम जाता है। छोटे पक्षी और तितलियां परागण करती हैं, उनके मरने से सुंदर पौधों का जीवन अपनी अगली पीढ़ी तक नहीं पहुच पाता है। जो पालतू पशु हम पर निर्भर हैं, उन्हें मौत के मुंह में धकेलना हमारा जघन्य अपराध है। यदि वास्तविकता टटोली जाए तो इन स्थितियों के लिए सीधे-सीधे वे दोषी हैं जो युद्ध की स्थिति उत्पन्न करते हैं। यदि एक देश दूसरे देश को युद्ध के लिए विवश करे तो उसे विश्व न्यायालय के कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए क्योंकि वह सिर्फ युद्ध का नहीं पर्यावरण को घातक क्षति पहुंचाने का भी दोषी है। 
अब और युद्ध विश्व की पर्यावरण व्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाएगा, उससे उबरना शायद हमारे लिए संभव नहीं हो सकेगा। इस लिए युद्ध छेड़ने वालों या युद्ध की स्थिति उत्पन्न करने वालों को यह सोचना चाहिए कि वे जिस पृथ्वी पर रह रहे हैं, उसी के पर्यावरण को नुकसान पहुंचा कर वे अपनी आने वाली पीढ़ी को भयावह अंधकार की ओर धकेल रहे हैं और वे उन सभी वनस्पितियों एवं प्रणियों के की अकाल मुत्य के भी जिम्मेदार हैं जो युद्ध के दौरान मारे जाते हैं।
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Tuesday, May 13, 2025

पुस्तक समीक्षा | मांडवी का परिताप : अछूते विषय पर अनूठा उपन्यास | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 13.05.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा
     मांडवी का परिताप : अछूते विषय पर अनूठा उपन्यास
     समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास  - मांडवी का परिताप
लेखिका   - डाॅ. संध्या टिकेकर
प्रकाशक  - जे.टी.एस. पब्लिकेशन्स, वी 508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली - 110053
मूल्य     - 795/-
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प्रायः यह होता आया है कि बहु प्रचलित कथाओं एवं प्रसंगों के प्रमुख पात्र साहित्य की विभिन्न विधाओं में स्थान पा लेते हैं तथा उन पर बार-बार लिखा जाता है किन्तु कुछ पात्र अछूते रह जाते हैं। उनके प्रति किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। श्रीराम कथा की ऐसी ही एक पात्र है मांडवी। मांडवी के जीवन पर बहुत कम लिखा गया। स्वतंत्र रूप से तो लगभग बिलकुल भी नहीं। किन्तु मराठी और हिन्दी की समर्थ लेखिका डाॅ संध्या टिकेकर ने मांडवी को साहित्य के केन्द्र में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। डाॅ संध्या टिकेकर ने मांडवी पर उपन्यास लिख कर उसकी पीड़ा को गहराई से मुखर किया है। ‘‘मांडवी का परिताप’’ मांडवी के जीवन पर आधारित संवादात्मक शैली का उपन्यास है। यह उपन्यास मांडवी के तेजस्वी और धैर्यपूर्ण जीवन को मार्मिक, कारुणिक, और हृदयस्पर्शी ढंग से सामने रखता है।
डाॅ. संध्या टिकेकर जो मूलतः कवयित्री एवं अनुवादक हैं तथा मराठी भाषी हैं, उनके द्वारा अपने प्रथम उपन्यास के लिए ‘‘मांडवी’’ को चुनना और वह भी हिन्दी भाषा में लेखन के लिए, महत्वपूर्ण है। यूं भी जब एक लेखिका किसी स्त्री पात्र के बारे में लिखती है तो वह स्त्री मर्म की अतल गहराइयों तक सुगमता से जा पहुंचती है। उसके लिए अपने पात्र में कायान्तरित होना अधिक आसान होता है क्यों कि कहीं न कहीं वह अपने स्त्री पात्र की भावनाओं से सघनता से जुड़ जाती है। मैं व्यक्तिगत रूप से डाॅ. संध्या टिकेकर जी की साहित्यिक अभिरुचि से हमेशा प्रभावित रही हूं। फिर जब उन्होंने मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी: स्त्री देह से परे’’ का मराठी में अनुवाद किया तो मैं उनकी शब्द संपदा की समृद्धि से और अधिक परिचित हुई। फिर जब उन्होंने मुझसे यह चर्चा की कि वे मांडवी पर एक उपन्यास लिख रही हैं तो मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मुझे पूरा विश्वास था कि जब वे मांडवी पर उपन्यास लिखेंगी तो पूरे लगन के साथ लिखेंगी और एक अच्छी कृति हिन्दी साहित्य को देंगी। डाॅ. संध्या टिकेकर ने मांडवी के अंतद्र्वन्द्व एवं मनोविश्लेषण को जिस तरह अपने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है वह मांडवी के व्यक्तित्व को बाखूबी व्याख्यायित करता है। लेखिका ने फ्लैशबैक पद्धति प्रयोग में लाते हुए मांडवी की बाल्यावस्था से युवावस्था तक के जीवन को सुंदर ढंग से पिरोया है। जबकि मांडवी रामकथा की एक ऐसी पात्र रही है जिसके बारे में बहुत विस्तार से विवरण नहीं मिलता है। अतः लेखिका के द्वारा मांडवी को सम्पूर्णता के साथ अपने उपन्यास में प्रस्तुत करना प्रशंसनीय कार्य है।
रामकथा एक ऐसी कथा है जिसे विश्व भर में रुचिपूर्वक पढ़ा गया तथा विभिन्न भाषाओं में, विविध संस्कृतियों में उसे अपने-अपने ढंग से लिखा गया। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में ‘‘रामायण’’ की रचना के बाद विश्वभर में 300 से अधिक रामायण लिखी गईं। इनमें से कुछ संस्कृत में लिखी गईं तो कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में, तो कुछ विश्व की चुनिंदा भाषाओं में।
बौद्ध तथा जैन में भी रामकथा को अपने रूप में अपनाया गया। अनेक लेखकों द्वारा लिखी जाने के कारण ही मुख्यतः मूल कथा में परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होता रहा, जिससे कथानक का स्वरूप कुछ-कुछ बदलता भी रहा। इसके अतिरिक्त कुछ स्थानीय भावनाएं एवं प्रथाएं भी इन काव्यों में जुड़ती गईं जिसके कारण मूल-मूल कथा में परिवर्तन होते गए। रामकथा जिन प्रमुख भारतीय भाषाओं में  लिखी गई, उनमें हिन्दी में लगभग 11, मराठी में 8, बांग्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। इसके अतिरिक्त ‘‘रामायण’’ पर आधारित हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत ‘‘रामचरित मानस’’ को उत्तर भारत में विशेष स्थान प्राप्त है। संस्कृत, गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में भी रामकथा लिखी गई। महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा ‘‘रामायण’’ के दूसरे पात्रों पर पद्य रचना की है। स्वामी करपात्री ने ‘‘रामायण मीमांसा’’ की रचना करके उसमें रामगाथा का एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विवेचन दिया। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशं, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितं, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकं, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकं, जानकीहरणं आदि मुख्य हैं। विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतो की रामयागन, थाईलैंड की रामकियेन आदि रामकथा पर आधारित हैं। वस्तुतः असत्य पर सत्य की और अन्याय पर न्याय की विजय की धारणा को सुदृढ़ करने वाली यह रामकथा सभी को प्रभावित करती है तथा हृदय में आशा का संचार करती है।
यूं तो रामकथा के पात्रों पर स्वतंत्र रूप से साहित्य भी रचे गए हैं किन्तु कई पात्र उपेक्षा के शिकार रहे। अधिकतर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण पर गद्य और पद्य पुस्तकें लिखी गईं, शेष पात्र लगभग अनछुए रह गए। मैथिली शरण गुप्त द्वारा ‘‘साकेत’’ लिखे जाने तक उर्मिला भी एक उपेक्षित पात्र रही। जहां तक उपन्यास लिखे जाने का प्रश्न है तो मृदुला सिन्हा के ‘‘सीता पुनि बोल’’,‘‘परितप्त लंकेश्वरी’’ और ‘‘अहल्या उवाच’’, रामकिशोर मेहता का ‘‘पराजिता का आत्मकथ्य’’, आनंदनीलकंठन का ‘‘वानर’’ और डॉ. ममतामयी चौधरी  का ‘‘वैश्रवणी’’ उपन्यास महत्वपूर्ण रहा। फिर भी रामकथा की एक विशिष्ट पात्र मांडवी बार-बार हाशिए पर रही। मांडवी अयोध्या के राजा दशरथ की पुत्रवधु और श्रीराम के भाई भरत की पत्नी थी। वह सीता की चचेरी बहन थी। रामकाव्य में उसका चरित्र यद्यपि संक्षेप में ही है, पर वह पति-पारायणा एवं साध्वी नारी के रूप में चित्रित की गई है। उसके चरित्र में अनुराग-विराग एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द्व है। वह संयोगिनी होकर भी वियोगिनी-सा जीवन व्यतीत करती है। वह भरत के त्याग को समर्थन देती है। इस संबंध में मैथिली शरण गुप्त ने ‘‘साकेत’’ में लिखा है-
और मैं तुम्हें हृदय में थाप, बनूंगी अर्ध्य आरती आप ।
विश्व की सारी कांति समेट, करूंगी एक तुम्हारी भेंट।।
लक्ष्मण की भांति भरत श्रीराम के साथ वनवास नहीं जा सके किन्तु उन्होंने उस दौरान न तो सिंहासन की ओर देखा और न तो अपने सुख को महत्व दिया। मांडवी ने भी भरत को पूरा सहयोग दिया। किन्तु परिस्थितियों और परिस्थितियों से उपजी विडम्बनाओं के प्रति मांडवी के मन में परिताप रहा कि काश! वह समूचे घटित प्रसंग को रोक पाती, वह अयोध्या के राजमहल से ले कर जन-जन तक का दुख मिटा पाती।   
‘‘मांडवी का परिताप’’ एक ऐसी विलक्षण युवती की कथा है जो महाचरित्रों के बीच अपनी उपस्थित दर्ज़ कराती है। वह अपनी बाल्यावस्था से ही विशेष चिंतनयुक्त है। उसमें मानवीय चरित्र के विश्लेषण तथा पूर्वानुमान की अद्भुत क्षमता है। वह अपनी सबसे बड़ी बहन सीता के सुख और दुख दोनों से स्वयं को संबद्ध पाती है। वह अपनी बहनों उर्मिला और श्रुतिकीर्ति की भावनाओं को तत्काल पढ़ लेती है। श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के वनगमन के बाद उर्मिला एवं श्रुतिकीर्ति के साथ ही अपनी तीनों सासू मांओं कौशल्या, सुमित्रा, और कैकेयी का भी ध्यान रखती है। वह दशरथ की अथाह पीड़ा को भी महसूस करती है और हर पल यही सोचती है कि जो घटित हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। लेखिका ने मांडवी के बहाने तत्कालीन स्त्री समाज के चित्र को सुंदरता से वर्णित किया है। यह उपन्यास श्रीराम के युग में समाज और स्त्री के समीकरण को भी सुलझे हुए तरीके से सामने रखता है। शक्ति-संपन्ना एवं स्वाभिमानी मांडवी के चिंतन के विभिन्न पहलू पाठक बारीकी से जान सकेगा। उपन्यास का समूचा कलेवर पांच शीर्षकों में विभक्त है- प्रतीक्षा, स्मृतियां, व्याकुलता, प्रसन्नता एवं परिताप। इन्हीं पांचों अध्यायों में विस्तारित है मांडवी की जीवन-कथा। विविध घटनाक्रम के साथ स्त्री के वैचारिक अस्तित्व का सुंदर शब्दांकन है इस उपन्यास में। विवाह के पूर्व मांडवी के चरित्र में एक स्वाभाविक अल्हड़ता है। नटखटपन है। फिर भी वह विचारशील है। अपनी बहनों के प्रति चिन्तायुक्त। सभी के लिए शुभेच्छाएं है उसके हृदय में इसलिए वह सभी का भला चाहती है। विवाह के बाद अपने दायित्वों से युक्त गंभीरता उसमें आ जाती है और एक दायित्वबोध से परिपूर्ण पत्नी बन कर वह भरत के हर निर्णय में सहगामिनी बनती है।
इस उपन्यास में रोचकता है। प्रवाह है। इसकी शैली पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। पात्रों की सटीक स्थापना है इस उपन्यास में। मुझे विश्वास है कि उनका यह प्रथम उपन्यास पाठकों को पसंद आएगा।              
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Saturday, May 10, 2025

टॉपिक एक्सपर्ट | पत्रिका | ने घबड़ाइयो औ ने अफवा फैलाइयो | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 पत्रिका | टॉपिक एक्सपर्ट | बुंदेली में
ने घबड़ाइयो औ ने अफवा फैलाइयो
   - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
    
   ऑपरेशन सिंदूर जारी आए।पाकिस्तान खों जो बतानों जरूरी हो गओ रओ के आतंकियन के कंधा पे बैठ के बा काऊं नईं पौंच सकत, खाली धूरा में मिल सकत आए। बाकी अपनी सेना उते की पब्लिक को नईं मार रई, बा तो आतंकियन खों ढूंढ-ढूंढ के ठोंक रई। जे कहाऊत आए इंसानियत। जेई से तो सगरी दुनिया अपने संगे आत जा रई। ऊंसई गलत करबे वारे खों कोऊ नईं पूछत। पाकिस्तान खों ईंसे सबक लऔ चाइए। बाकी अपन खों सोई एक बात को ध्यान राखने के ने तो घबड़ाने आए औ ने अफवाएं फैलाने। का होत आए के हम जा सोच के घबड़ान लगत आएं के अब सो लड़ाई छिड़ गई, अब का हुइए? सो, भरोसो राखो के कछू बुरौ ने हुइए। अपनी सेनावारे उने उतई उनई के घर में घुस के मार रए। बे इते लौं ढूंक बी नईं सकत।
   औ हां! सबसे बड़ी बात के सोसल मीडिया की खबरन पे ज्यादा भरोसो ने करियो औ ने अफवाएं वारी पोस्टें फार्वर्ड करियो। ई टेम पे सरकारी एजेंसी की खबरें औ अखबार की खबरें सबसे भरोसे की आएं। होत का आए के जे लड़ाई औ हमले की पोस्टें डारबे वारे नाएं-माएं से कछू बी बटोर के पोस्ट करन लगत आएं, अब बे खुद तो फ्रंट पे बैठे नईयां के अपनी सगी आंखन से देख रए होंए। सो, उनपे भरोसो ने करियो औ ने भड़काए वारी पोस्टें डारियो। जे टेम मिलजुल के रैबे को आए। बे तो चाउतई आएं के हम आपस में लड़त रएं, सो, अपन खों उनको सोचो भओ नई करने। सहूरी राखो, अपनी सेना पे भरोसो राखो औ शांति से रओ। अपन जीतबी औ उने छठीं को दूद याद कराबी। जै हिंद! जै भारत!
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Friday, May 9, 2025

शून्यकाल | वे चार वैदिक कालीन स्त्रियां जो विलक्षण व्यक्तित्व की धनी थीं | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
    शून्यकाल
वे चार वैदिक कालीन स्त्रियां जो विलक्षण व्यक्तित्व की धनी थीं
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       ...नारीवाद, स्त्रीविमर्श, स्त्री स्वातंत्र्य जैसे कई शब्द हैं जो स्त्री के अधिकारों के प्रति विश्वास जगाते प्रतीत होते हैं। किन्तु कोई भी शब्द या वाद इतना चमत्कारी नहीं होता है कि रातों-रात किसी स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन ला दे। सदियों पहले स्त्री को जो अधिकार प्राप्त थे वे उसने अपनी क्षमता से प्राप्त किए थे किसी कथित क्रांति के द्वारा नहीं। एक बार फिर स्त्रियां अपनी क्षमताओं को पहचानने के उस दौर में पहुंच चुकी हैं जहां वे अपने अधिकार पुनः पाती जा रही हैं। ऐसे समय में उन चार वैदिक स्त्रियों के बारे में याद रखना जरूरी है जो अपने ज्ञान के बल पर कालजयी बनीं।

वैदिककाल में स्त्रियों को पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं थे किन्तु उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोका जाता था यदि उनमें ज्ञान की श्रेष्ठता दिखाई देती थी। ऐसी ही चार स्त्रियां जिन्हों ने अपने ज्ञान के बल पर अपने अस्तित्व को वैदिक काल से आज के आधुनिक काल तक स्मरणीय बना दिया। वे चार स्त्रियां थीं- मदालसा, अनसूया, मैत्रेयी और गार्गी। आइए इन चार महान स्त्रियों का संक्षेप में पुनः स्मरण करते हैं- 

मदालसा - मदालसा गंधर्व राजा विश्वसु की बेटी थी। वह अपने बेटों के लिए भी एक बड़ी प्रेरणा थीं। शक्तिशाली राजा शत्रुजीत का पुत्र ऋतध्वज उसका पति था। जब शत्रुजीत की मृत्यु हो गई, तो ऋतध्वज ने राजा का पद संभाला और शाही कर्तव्यों में लग गए। मदालसा ने यह सिद्ध कर दिया कि मां के ज्ञान, शिक्षा और संस्कारों से ही बच्चों का भविष्य तय होता है। समय आने पर मदालसा ने एक पुत्र विक्रांत को जन्म दिया। जब विक्रांत रोता थे तो मदालसा उन्हें चुप कराने के लिए जीवन दर्शन पूर्ण गाती थी जिसका आशय था कि ‘‘वह एक शुद्ध आत्मा है, उसका कोई वास्तविक नाम नहीं है और उसका शरीर केवल पांच तत्वों से बना एक वाहन है। वह वास्तव में शरीर का नहीं है, फिर रोता क्यों है?’’
 विक्रांत बड़ा होने पर मां के दिए हुए ज्ञान से प्रेरित हो कर सांसारिक मोह-माया या राजसी गतिविधियों से मुक्त होकर एक तपस्वी बन गया। दूसरे पुत्र सुबाहु और तीसरे पुत्र शत्रुमर्दन के साथ भी यही हुआ। तब ऋतुध्वज ने मदालसा से निवेदन किया कि वह चौथे पुत्र अलर्क को संसार से विरत होने का ज्ञान न दे अपितु ऐसा ज्ञान दे कि वह बड़ा हो कर राजपाट सम्हाले और एक प्रतापी राजा बने। इस पर मदालसा ने अपने चौथे पुत्र अलर्क को वह गीत सुनाया जिसमें उसके एक महान शासक बनने का वर्णन था। उस गीत का भावार्थ था -‘‘ एक महान राजा होने का गीत गाया जो दुनिया पर शासन करेगा, और इसे कई वर्षों तक समृद्ध और दुष्टों से मुक्त बनाएगा। ऐसा करने से वह जीवन का भरपूर आनंद उठाएगा और अंततः अनश्वरों में में गिना जाएगा।’’ अलर्क ने अपनी शैशवावस्था से जो गीत अपनी मां मदासला से सुना था उसके प्रभाव के अनुरूप उसका जीवन बना और वह एक प्रतापी राजा के रूप में अनेक वर्ष तक शासन करता रहा।

अनसूया - अनसूया एक ऐसी महिला थीं जो अपनी तपस्या से एक मृत ऋषि के जीवन को वापस ला सकती थीं। वह अनसूया ऋषि अत्रि की पत्नी थी। अनसूया की मां ऋषि स्वायंभुव की बेटी थी और उसके पिता कर्दम मुनि थे। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, मंडस्या नाम के एक ऋषि थे जिन्होंने कौशिक नाम के एक ब्राह्मण को श्राप दिया कि वह प्रातः सूर्योदय के समय मर जाएगा। जब कौशिक की पत्नी कौशिकी श्राप के बारे में पता चला तो उसने तय कि कि वह अपने सतीत्व के बल पर सूर्य को उदय ही नहीं होने देगी। जब प्रातः सूर्योदय ही नहीं होगा तो उसके पति की मृत्यु भी नहीं होगी। परिणामस्वरूप कई दिनों तक सूर्य नहीं निकला। पृथ्वी के जीवन के लिए यह उचित नहीं था अतः ब्रह्मा ने अन्य देवताओं को अनसूया के पास जाने के लिए कहा। क्योंकि ब्रह्मा जानते थे कि एक अनसूर्या ही है जो अपनी नैतिक शक्ति के बल पर सूर्य को कौशिकी के तप के बंधन से मुक्त करा सकती है और सूर्योदय करा सकती है। अनसूया ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करते हुए सूर्य को कौशिकी के तप से मुक्त करा दिया जिससे सूर्योदय हो गया। किन्तु इसके साथ ही कौशिकी के प्रति ऋषि कौशिक की मृत्यु हो गई। तब अनसूया ने कौशिकी को दिए गए अपने आश्वासन को पूरा करते हुए अपने तपोबल से कौशिकी के पति को पुनर्जीवित कर दिया। इससे प्रसन्न होकर, देवताओं ने अनुसूया को तीन पुत्रों की इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अवतार होंगे। इस प्रकार, ब्रह्मा सोम के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और शिव दुर्वासा के रूप में जन्में। अनसूया ने कभी अपने ज्ञान या शक्ति का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं किया किन्तु आवश्यकता पड़ने पर सिद्ध कर दिया की वह कितनी क्षमतावान और विलक्षण थी।

मैत्रेयी- मैत्रेयी ऋषि याज्ञवल्क्य की पत्नी थीं। उनकी दूसरी पत्नी कात्यायनी थीं। दोनों उच्च चरित्र वाली और ज्ञान की धनी थीं। यद्यपि मैत्रेयी कात्यायनी की अपेक्षा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान रखती थी। बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार ऋषि याज्ञवल्क्य गृहस्थ जीवन को त्याग कर संन्यास जीवन को स्वीकार करना चाहते थे, और अपनी संपत्ति को अपनी दोनों पत्नियों के बीच बांटना चाहते थे। तब मैत्रेयी ने स्वयं से प्रश्न किया कि यदि उनके पति गृहस्थ जीवन में अपनी वर्तमान स्थिति को त्यागने को तैयार हैं तो उन्हें इससे बड़ी कौन सी चीज मिली होगी। निश्चित रूप से कोई भी अपना पद तब तक नहीं छोड़ेगा जब तक उसे कुछ उससे बड़ा न मिल जाए। इसलिए उसने अपने पति से पूछा कि यदि उसके पास दुनिया की सारी संपत्ति हो, तो क्या वह फिर भी अमरत्व प्राप्त कर सकती है? ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा कि बिल्कुल नहीं! यह संभव नहीं है। संपत्ति और सुख-सुविधाएं मोक्ष नहीं दिला सकती हैं। तो मैत्रेयी ने फिर पूछा कि उन्हें धन क्यों अर्जित करना चाहिए यदि यह उन्हें भविष्य में जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं दिलाएगा? 
तब याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को आत्मा के दिव्य ज्ञान के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने उसे बताया कि इस दुनिया में किसी भी प्राणी के भीतर आत्मा की उपस्थिति के बिना दूसरे का प्रिय होने की क्षमता नहीं है। यहां तक कि इस दुनिया की सुंदरता का आनंद लेने का भी हमारे शरीर के भीतर आत्मा के बिना कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा ही हम सब कुछ है। आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को समझना मोक्ष, जन्म और मृत्यु के निरंतर दौर से मुक्ति पाने का तरीका है। इस प्रकार याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी ने आध्यात्म का विशद ज्ञान प्राप्त किया और फिर याज्ञवल्क्य को संन्यासमार्ग में जाने दिया। मैत्रेयी जानती थी कि मानवीय संबंधों की अंतिम परिणिति मोक्ष हो तो उत्तम है किन्तु इससे पहले ज्ञान को सहेज लिया जाना और भी अधिक उत्तम है।

गार्गी- गार्गी ऋषि गर्ग के वंश से ऋषि वचक्नु की पुत्री थीं। प्राचीन भारतीय दार्शनिक थी। वेदिक साहित्य में, उन्हें एक महान प्राकृतिक दार्शनिक, वेदों के प्रसिद्ध व्याख्याता, और ब्रह्मा विद्या के ज्ञान के साथ ब्रह्मवादी के नाम से जाना जातीं है। गार्गी का पूरा नाम गार्गी वाचक्नवी था। गार्गी परम विदुषी थीं, वे आजन्म ब्रह्मचारिणी रहीं। वृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी का याज्ञवल्क्यजी के साथ शास्त्रार्थ का विवरण मिलता है। एक बार महाराज जनक ने श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी की परीक्षा के निमित्त एक सभा की और एक सहस्त्र सुवर्ण की गौएँ बनाकर खडी कर दीं। सबसे कह दिया-जो ब्रह्मज्ञानी हों वे इन्हें सजीव बनाकर ले जाए। तब याज्ञवल्क्यजी ने अपने एक शिष्य से कहा- ‘‘शिष्य! इन गौओं को अपने यहाँ हाँक ले चलो।’’ इतना सुनते ही सब ऋषि याज्ञवल्क्यजी से शास्त्रार्थ करने लगे। याज्ञवल्क्य ने सबके प्रश्नों का उत्तर दिया। उस सभा में ब्रह्मवादिनी गार्गी भी उपस्थित थी। सबके पश्चात् याज्ञवल्क्य से गार्गी ने शास्त्रार्थ किया। एक दीर्घ शास्त्रार्थ के बाद याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘‘गार्गी! अब इससे आगे मत पूछो।’’ इसके बाद महर्षि याज्ञवक्ल्य ने वेदान्ततत्त्व के ज्ञान की चर्चा की जिसे सुनकर गार्गी परम सन्तुष्ट हुई और सब ऋषियों से बोली- ‘‘याज्ञवल्क्य सच्चे ब्रह्मज्ञानी हैं। गौएँ ले जाने के वे अधिकारी हैं।’’ तब याज्ञवल्क्य गौएं ले जा सके। 
इन चारो महान स्त्रियां समाज में रहते हुए, अपने विलक्षण ज्ञान के कारण तत्कालीन समाज में सम्मानित रहीं अपितु सदियों बाद आज भी स्मरणीय हैं। अतः स्त्री का ज्ञान एवं प्रतिभा ही उसे उच्चता प्रदान करती है, कोई नारा या वाद नहीं।    
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