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Wednesday, March 19, 2025

चर्चा प्लस | एकदम स्पष्ट थे दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक उसूल | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
     एकदम स्पष्ट थे दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक उसूल
       - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
       जौनपुर में जनसंघ के कार्यकर्ता जातिवादी समीकरण का सहारा लेना चाहते थे। जाधवराव देशमुख के अनुसार कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी से निवेदन किया कि ‘‘कांग्रेस ठाकुरवाद चला रही है तो हम ब्राह्मणवाद चला दें। इसमें क्या हानि है? चुनाव-युद्ध में सभी कुछ क्षम्य होता है न!’’ यह सुन कर दीनदयाल जी क्रोधित हो उठे। वे कार्यकत्र्ताओं को डांटते हुए बोले-‘‘सिद्धांत की बलि चढ़ा कर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय, सच पूछो तो, पराजय से भी बुरी है।’’ उनकी यह बात सुन कर वहां सन्नाटा छा गया। इस पर दीनदयाल जी ने संयत होते हुए शांत स्वर में समझाया -‘‘भाईयांे! राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता, किन्तु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने यदि जातिवाद का सहारा लिया तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा और फिर कांग्रेस और जनसंघ में कोई अंतर नहीं रहेगा।’’                                                    
      यह घटनाक्रम उस समय का है जब जनसंघ एक सशक्त विपक्षी दल था किन्तु कुछ अंतर्कलह के कारण उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी। दीनदयाल उपाध्याय उस समय जनसंघ की राजनीतिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कृतसंकल्प थे किन्तु वे स्वयं एक राजनेता के रूप में चुनाव लड़ कर पद प्राप्त नहीं करना चाहते थे। सन् 1963 में लोकसभा के उपचुनाव हुए। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने दीनदयाल जी से आग्रह किया कि वे जौनपुर से चुनाव लड़ें। दीनदयाल जी चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे किन्तु वे गुरूजी अर्थात् माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का आग्रह भी टाल नहीं सकते थे। अंततः दीनदयाल जी ने जौनपुर से नामांकन भर दिया और चुनाव की तैयारी करने लगे।  यद्यपि एक दिन उन्होंने अवसर पा कर अपने मन की बात गुरूजी से कह डाली थी कि ‘‘आपने मुझे किस झमेले में डाल दिया। मुझे प्रचारक का काम ही करने दें।’’
इस पर गोलवलकर गुरुजी ने उन्हें समझाया था कि ‘‘तुम्हारे अतिरिक्त इस झमेले में किसको डालें। संगठन के कार्य पर जिसके मन में इतनी अविचल श्रद्धा और निष्ठा है वही उस झमेले में रह कर कीचड़ में भी कीचड़ से अस्पृश्य रहता हुआ सुचारु रूप से वहां की सफाई कर सकेगा।’’

सिद्धांतों से समझौता नहीं

जौनपुर में जनसंघ के कार्यकर्ता जातिवादी समीकरण का सहारा लेना चाहते थे। जाधवराव देशमुख के अनुसार कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी से निवेदन किया कि ‘‘कांग्रेस ठाकुरवाद चला रही है तो हम ब्राह्मणवाद चला दें। इसमें क्या हानि है? चुनाव-युद्ध में सभी कुछ क्षम्य होता है न!’’
यह सुन कर दीनदयाल जी क्रोधित हो उठे। वे कार्यकत्र्ताओं को डांटते हुए बोले-‘‘सिद्धांत की बलि चढ़ा कर जातिवाद के सहारे मिलने वाली विजय, सच पूछो तो, पराजय से भी बुरी है।’’
उनकी यह बात सुन कर वहां सन्नाटा छा गया। इस पर दीनदयाल जी ने संयत होते हुए शांत स्वर में समझाया -‘‘भाईयों! राजनीतिक दल के जीवन में एक उपचुनाव कोई विशेष महत्व नहीं रखता, किन्तु एक चुनाव में जीतने के लिए हमने यदि जातिवाद का सहारा लिया तो वह भूत सदा के लिए हम पर सवार हो जाएगा और फिर कांग्रेस और जनसंघ में कोई अंतर नहीं रहेगा।’’
दीनदयाल जी का कहना था कि राजनीति में विचारधारा, सिद्धांत, नीति और कार्यक्रमों में सुन्दर ताल-मेल चाहिए, टकराव या विरोधाभास नहीं। वे कार्यकर्ताओं के ही नहीं, अपितु जन-सामान्य के राजनीतिक प्रशिक्षण पर भी बल देते थे। वे मतपत्रा को कागज का टुकड़ा न मानकर अपना अधिकार-पत्रा मानने को कहते थे। इस संबंध में उनका सिद्धांत स्पष्ट था जिसे वे तीन बिन्दुओं के रूप में कार्यकत्र्ताओं एवं आमजन के समक्ष रखते थे -
1. वोट फार पर्सन, नाट फार द पर्स 2. वोट फार पार्टी, नाट फार पर्सन तथा 3. वोट फार आइडियोलोजी, नाट फार पार्टी।
जब चुनाव का परिणाम घोषित हुआ तो स्पष्ट हो गया कि जनसंघ में अंतर्कलह समाप्त नहीं हुआ था। जौनपुर में संघ के कुछ कार्यकर्ता ऐसे थे जो दीनदयाल जी की ‘आइडियोलोजी’ के समर्थन में नहीं थे और आरम्भ से ही चाहते थे कि दीनदयाल जी वहां से चुनाव न लड़ें। उन कार्यकर्ताओं ने दीनदयाल जी के चुनाव अभियान को सहयोग देने के बदले उनका विरोध किया था। इसका मतदाताओं के मन पर बुरा असर पड़ा और दीनदयाल जी चुनाव हार गए। किन्तु उनकी संघ के प्रति तत्परता एवं निष्ठा का देश के अन्य कार्यकर्ताओं पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। स्वयं दीनदयाल जी को इस बात का संतोष था कि भले ही वे उपचुनाव हार गए किन्तु उन्होंने अपने और संघ के सिद्धांतों को जातिवादी समीकरण की भेंट नहीं चढ़ाया।
चुनाव में पराजय के बाद दीनदयाल जी के व्यवहार के बारे में भाऊराव देवरस ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि ‘‘चुनाव में हारने के दूसरे दिन ही वे (दीनदयाल जी) काशी के संघ वर्ग में पहुंच गए। वहां उनका आचरण देख कर हम सभी लोग आश्चर्य पड़ गए कि इतने बड़े चुनाव में हारने वाले क्या ये ही दीनदयाल जी हंै? उनका अत्यंत सहज और शांत आचरण देख कर मैं स्वयं दंग रह गया था।’’
 चुनाव में पराजित होने के बाद पत्राकारवार्ता में एक सम्वाददाता ने उनसे प्रश्न किया कि ‘‘देश में जब कांग्रेसविरोधी वातावरण है तो आप चुनाव कैसे हार गए?’’ इस पर दीनदयाल जी ने विनम्रतापूर्वक बिना किसी संकोच के कहा कि ‘‘स्पष्ट बताऊं, मेरे विरुद्ध खड़ा कंाग्रेस का प्रत्याशी एक सच्चा कार्यकर्ता है। उसने अपने क्षेत्रा में पर्याप्त काम किया है, इसीलिए लोगों ने उसे अधिक मत दिए।’’
गोलवलकर गुरूजी ने एक बार दीनदयाल जी के संबंध में कहा था ‘‘बिलकुल नींव के पत्थर से प्रारम्भ कर जनसंघ के कार्य को इतना नाम और इतना रूप देने का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को देना हो तो वह दीनदयाल जी को ही देना होगा।’’

जनसंघ के अध्यक्ष घोषित

सरसंघ चालक गोलवलकर गुरूजी को दीनदयाल जी की क्षमता पर पूरा भरोसा था, इसीलिए दल की ओर से उन्हें सबसे बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। सन् 1967 में जनसंघ का चैदहवां अधिवेशन कालीकट में हुआ। दल के सभी पदाधिकारियों ने एकमत से निर्णय लेते हुए दीनदयाल जी को जनसंघ का अध्यक्ष घोषित किया।
दीनदयाल जी के जनसंघ के अध्यक्ष बनने से भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ। जिस जनसंघ को डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक सुदृढ़ राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में देखना चाहते थे वह जनसंघ अब वास्तव में सुदृढ़ता प्राप्त करने वाला था। दीनदयाल जी के संगठनात्मक कौशल का लाभ जनसंघ को मिलने वाला था। दीनदयाल जी के द्वारा जनसंघ का अध्यक्ष पद स्वीकार करने से भारतीय राजनीति में पड़ने वाले प्रभाव पर शिकागो विश्वविद्यालय के लिए ‘‘जनसंघ आइडियोलाॅजी एण्ड आॅरगेनाइजेशन इन पार्टी बिहेवियर’’ विषय पर किए गए अपने शोध में वाल्टर कोरफिट्ज़ एण्डरसन ने लिखा है कि ‘‘पण्डित दीनदयाल जी के सन् 1967 में जनसंघ का अध्यक्ष पद स्वीकार करने का यही अर्थ था कि दल की संगठनात्मक नींव डालने का काम पूरा हो गया है और राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रबल प्रतिस्पर्धी के नाते सत्ता की प्रतियोगिता में उतरने का उसका संकल्प है।’’
यही तथ्य वाल्टर कोरफिट्ज़ एण्डरसन एवं श्रीधर डी. दामले की पुस्तक ‘‘द ब्रदरहुड इन सेफराॅन: द राष्ट्रीय सेवक संघ एण्ड हिन्दू रीवाइवलिज़्म’’ (वेस्ट व्यू प्रेस, आई एस बी एन: 0-8133-7358-1) में सन् 1987 के संस्करण में प्रकाश में आया।

जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद

 दीनदयाल जी का ध्यान इस ओर गया कि जनसंघ की छवि एक हिन्दू सम्प्रदायवादी संस्था के रूप में मानी जा रही है। वे अपने दल को किसी सम्प्रदायवादी शक्ति नहीं वरन् देशभक्ति की शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे।

इंग्लैण्ड में जनसंघ फोरम की स्थापना
एक अधिवेशन के सिलसिले में दीनदयाल जी को इंग्लैंड जाने का अवसर मिला। इस अवसर का लाभ उठाते हुए उन्होंने इंग्लैंड में रहने वाले भारतीयों के मध्य जनसंघ के विचारों एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। इसके साथ ही इंग्लैंड स्थित भारतीय दूतावास की शंकाओं का समाधान करते हुए उन्हें विश्वास दिलाया कि जनसंघ हिन्दू साम्प्रदायिक ताकत नहीं वरन् देशभक्त राजनीतिक दल है। इसके बाद दीनदयाल जी ने जनसंघ फोरम की स्थापना की।
पं. दीनदयाल उपाध्याय की इंग्लैंड यात्रा के दौरान एक रोचक घटना घटी। दीनदयाल जी को इंग्लैंड के पार्लियामेंट हाउस दिखाने का भार वहां के हाउस आॅफ कामन्स के तात्कालिक सदस्य श्री सोरेनसन को सौंपा गया था। सोरेनसन अपनी व्यंग-पटुता के लिए हाउस आफ कामन्स में प्रसिद्ध थे। दीनदयाल जी को जब उन्होंने देखा तो वे बड़े आश्चर्यचकित हुए। लन्दन की इस कड़कड़ाती ठण्ड में भी दीनदयाल जीे धोती और बन्द गले का कोट भर पहने हुए थे। इनकी दुर्बल काया और कद-काठी को देखते हुए तो यह और भी आवश्यक था कि वे विलायती ढंग के कपड़े पहन कर सर्दी से बचाव करने का प्रयास करते। दीनदयाल जी की ऊंची धोती को देखकर श्री सोरेनसन ने मीठी चुटकी ली ”आप महात्मा गाँधी बनने का प्रयास कर रहे हैं।’’ दीनदयाल जी समझ गये कि उनकी धोती का मजाक उड़ाया जा रहा है। फिर भी उन्होंने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- ‘‘प्रयास तो कर रहा हूं पर उनके जैसा बनना मुश्किल लग रहा है।’’
‘‘अब तक कितनी सफलता मिली?’’ सोरेनसन ने फिर चुटकी ली।
‘‘मात्रा आधी।’’ दीनदयाल जी ने कहा।
‘‘आधी क्यों?’’ सोरेनसन का अगला प्रश्न था।  
”आप देख ही रहे है, नीचे से ही तो गांधी जी का अनुकरण कर पाया हूं ऊपर तो नहीं चाहते हुए भी लन्दन के मौसम ने कोट पहनने पर विवश कर दिया है।’’ दीनदयाल जी ने हंस कर कहा।
सोरेनसन दीनदयाल जी की हाजिरजवाबी से बहुत प्रभावित हुए। वे जान गए कि यह सीधा-सादा और ठेठ भारतीय ग्रामीण क्षेत्रा से आया हुआ प्रतीत होने वाला व्यक्ति अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है।

भारत लौटने पर दीनदयाल जी की इस सफलता से जनसंघ में उत्साह का संचार हुआ और सभी ने यह अनुभव किया कि दल का नेतृत्व सर्वथा उचित हाथों में है। पं. दीनदयाल उपाध्याय की सिद्वांतवादिता और हाजिरजवाबी का हर कोई प्रशंसक बन जाता था।       
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Friday, April 5, 2024

शून्यकाल | चुनावी राजनीति के प्रति पं. दीनदयाल उपाध्याय के उसूल | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

 
दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"-
चुनावी राजनीति के प्रति पं. दीनदयाल उपाध्याय के उसूल
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          हर उम्मीदवार चुनाव में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनी रणनीति बनाता है। कई उम्मीदवार ‘‘प्रेम और राजनीति में सब जायज़ है’’ केे तर्ज़ पर साम, दाम, दण्ड, भेद को अपना लेते हैं। यही राजनीति का वह दूषित आचरण है जो राजनीतिक शुचिता को ठेस पहुंचाता है। जातीय समीकरण भी इन्हीं ठेस पहुंचाने वाले तत्वों में से एक है। ‘‘वोट बैंक’’ की राजनीति इसका एक कुरूप चेहरा प्रस्तुत करता है। पं. दीनदयाल उपाध्याय इस तरह की राजनीति के कट्टर विरोधी थे। सन् 1963 के चुनाव में एक उम्मींदवार के रूप में उन्होंने यह साबित कर दिया था कि वे किसी भी मूल्य पर चुनाव और राजनीति को स्वार्थपूर्ति का साधन नहीं बना सकते हैं।
        पं. दीनदयाल उपाध्याय समझौता परस्त नहीं थे। वे राजनीति को स्वार्थपूर्ति के साधन के रूप में नहीं, वरन जनता के हितों को साधने के माध्यम के रूप में देखते थे। कई ऐसे अवसर आए जब अपने उसूलों के कट्टर राजनीतिज्ञों को भी थेड़ा लचीलापन अपनाना पड़ा लेकिन पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ऐसे लचीलेपन को कभी स्वीकार नहीं किया जिसमें जातिगत आधार पर राजनीति की जा रही हो। सन् 1963 में लोकसभा की चार के लिए चुनाव होने थे। इन चार सीटों के लिए जिन चार बड़े़े राजनेताओं का नाम प्रस्तावित हुआ उनमें थे जौनपुर से पं.दीनदयाल उपाध्याय, फर्रूखाबाद से राममनोहर लोहिया, अमरोहा से जेबी कृपलानी, और राजकोट से मीनू मसानी। इनकी सीधी टक्कर कांग्रेस से थी। इन चारों नेताओं में पं. दीनदयाल और डा. राम मनोहर लोहिया ऐसे नेता थे जो राजनीति के जातिवादी आधार के सख़्त विरोधी थे। किन्तु फर्रूखाबाद ऐसा क्षेत्र था जहां जातिवादी समीकरण को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। न चाहते हुए भी डाॅ लोहिया को अपने विचारों में तनिक ढील देनी पड़ी। जातिगत समीकरण के आधार पर ही डाॅ. लोहिया को फर्रुखाबाद से विजय हासिल हुई। डाॅ लोहिया के पक्ष में पं. दीनदयाल ने भी प्रचार किया यद्यपि वे जातिीय समीकरण के प्रबल विरोधी थे। फिर भी एक व्यापक उद्देश्य के लिए उन्होंने जातिगत समीकरण को नहीं लेकिन डाॅ लोहिया को समर्थन दिया। इधर कांग्रेस ‘‘वोट बैंक’’ की राजनीति पर डटी हुई थी। वहीं पं. दीनदयाल ने अपने क्षेत्र में अपनी ओर से जातिवाद को स्वयं से दूर रखा। उन्होंने खुलेआम अपनी चुनावी सभाओं में यह कहा कि- ‘‘जो जातीय आधार पर मेरी सभा में आए हैं, वे कृपया इस सभा से प्रस्थान कर जाएं। मुझे जाति के आधार पर समर्थन नही चाहिए।’’ 
परिणाम पं. दीनदयाल के लिए पराजय के रूप में सामने आया। किन्तु उन्होंने इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हुए कहा कि-‘‘पं. दीनदयाल की पराजय हुई है लेकिन भारतीय जनसंघ को विजय मिली है।’
           वस्तुतः पं. दीनदयाल जनसंघ में राष्ट्रवादी विचारों एवं राजनीतिक स्वच्छता के संवाहक थे। राजनीति को ले कर उनके विचार स्पष्ट थे। वे अपनों विचारों को व्यक्त करने में हिचकते भी नहीं थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘पांचजन्य’ में कई महत्वपूर्ण राजनीतिक लेख लिखे। ये लेख भारतीय राजनीति के स्वरूप पर विवेचनात्मक लेख थे। इनमें भारतीय राजनीति की विशिष्टताओं, व्यवस्थाओं एवं त्राुटियों पर विहंगम दृष्टि डाली गई थी। कुछ अति महत्वपूर्ण लेख इस प्रकार हैं-
(1) भारतीय संविधान पर एक दृष्टि
(2) राष्ट्रजीवन की समस्याएं
(3) राष्ट्रजीवन की दशा
(4) भारतीय राजनीति की मौलिक भूलें
‘राष्ट्रधर्म’ के माध्यम से पं. दीनदयाल आमजन के लिए राजनीति का विश्लेषण सामने रखना चाहते थे। उनका मानना था कि प्रत्येक नागरिक को जो राजनीतिक परिवेश से घिरा रहता है भले ही वह राजनेता न हो, उसे राजनीति के प्रत्येक पक्ष की जानकारी होनी चाहिए। इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘राष्ट्रधर्म’ में ‘राष्ट्रजीवन की समस्याएं’ तथा ‘भारतीय राजनीति की मौलिक भूलें’ लेख लिख कर तत्कालीन भारतीय राजनीति की समुचित व्याख्या की। 

अपने लेख ‘राष्ट्रजीवन की दशा’ में उन्होंने लिखा कि ‘‘केवल प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही मानव जीवन का उद्देश्य नहीं है। भौतिक आवश्यकताओं के साथ ही मनुष्य की आधिभौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताएं भी होती हैं। केवल संास चलती रखने के परे मानव जीवन का एक निश्चित और सबसे निराला लक्ष्य होता है, उपनिषदों ने इस लक्ष्य का वर्णन आत्मा की आवश्यकताओं के रूप में किया है।’’ इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा कि ‘‘किन्तु कतिपय विद्वानों को इस अदृश्य शक्ति में विश्वास नहीं। उनके मत में केवल दृश्यजगत ही एकमेव सत्य है। ये लोग भौतिक सुख-साधनों से युक्त जीवन को चरम लक्ष्य मान कर उन सुखों की प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयास करते रहने में ही मानव जीवन की सार्थकता मानते हैं।’’ 
‘पांचजन्य’ में ‘भारतीय संविधान पर एक दृष्टि’ शीर्षक से लेख लिख कर भारतीय राजनीति की संवैधानिक अवस्था एवं उसके संवैधानिक दायित्वों का गंभीरतापूर्वक आकलन किया। उन्होंने भारतीय संविधान में भारतीयता के तत्वों को बढ़ाए जाने की पैरवी की। वे मानते थे कि महापुरुषों के विचारों के अनुरुप राजनीतिक आचरण से राजनीति में शुचिता बनी रह सकती है। 

       भारतीय इतिहास की गौरवशाली परम्पराएं पं. दीनदयाल को सदैव आंदोलित करती रहीं। वे भारतीय संस्कृति पर पड़ने वाले पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभावों को दूर करना चाहते थे। उनका मानना था कि अपने जीवन को उत्तम बनाने के लिए महापुरुषों के जीवन से बहुत कुछ सीखा और आत्मसात किया जा सकता है। अपने लेखों में पं. दीनदयाल ने भारतीय इतिहास में राष्ट्रधारा, कर्मवाद एवं स्वतंत्राता प्राप्ति के प्रयासों में तिलक जैसे महानुभावों के राजनीतिक विचारों और उनके भारतीय इतिहास में महत्व का अंाकलन करने का महती कार्य किया। इस संबंध में उनके तीन लेख विशेष उल्लेखनीय हैं- 
(1) भगवान कृष्ण
(2) भारतीय राष्ट्रधारा का पुण्यप्रवाह: गौतमबुद्ध से शंकराचार्य तक
(3) लोकमान्य तिलक की राजनीति
देश के स्वतंत्र होने के बाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की प्रथम जयंती के अवसर पर ‘पांचजन्य’ में ‘लोकमान्य तिलक की राजनीति’ लेख लिखा था। ‘भगवान कृष्ण’ तथा ‘भारतीय राष्ट्रधारा का पुण्यप्रवाह: गौतमबुद्ध से शंकराचार्य तक’ लेख ‘राष्ट्रधर्म’ में प्रकाशित हुए थे।
पं. दीनदयाल यह भली-भांति जानते थे कि देश की सांस्कृतिक विरासत को तभी बचाया जा सकता है, राजनीति को उसी स्थिति में दोषमुक्त रखा जा सकता है जब देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो। चूंकि प्रत्येक अर्थव्यवस्था के मूल में राजनीतिक विचार निहित होते हैं अतः उन्हें यह आवश्यक लगता था कि राजनीतिक दलों को पहले अपने आय-व्यय पर समुचित ध्यान देना चाहिए। जहां तक संभव हो राजनीतिक स्तर पर आर्थिक मितव्ययिता बरती जानी चाहिए। इसे वे संवैधानिक आर्थिक ढांचे के लिए बुनियादी तत्व कहते थे। ‘पांचजन्य’ में ‘राजनीतिक आय-व्यय’ शीर्षक से लेख में उन्होंने लिखा था कि जो लोग मात्रा अर्थ एवं सम्पत्ति को सर्वोपरि मानते हैं और जिनका लक्ष्य मात्रा अर्थ है वे साम्यवाद तथा समाजवादी श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोग चाहते हैं कि भारतीय राजनीति की धुरी मात्रा अर्थनीति रहे। ऐसे लोगों की दृष्टि में संस्कृति एवं जनमत का कोई महत्व नहीं होता है। उन्होंने ‘टैक्स या लूट’ शीर्षक लेख में कर प्रणाली की निंदा की।

   पं. दीनदयाल के राजनीतिक उसूलों एवं विचारों से सरसंघ चालक गोलवलकर गुरूजी अत्यंत प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने पं. दीनदयाल की क्षमता पर पूरा भरोसा जताते हुए दल की ओर से उन्हें सबसे बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। सन् 1967 में जनसंघ का चौदहवां अधिवेशन कालीकट में हुआ। दल के सभी पदाधिकारियों ने एकमत से निर्णय लेते हुए पं. दीनदयाल को जनसंघ का अध्यक्ष घोषित किया। पं. दीनदयाल के जनसंघ के अध्यक्ष बनने से भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरू हुआ। जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद पं. दीनदयाल का ध्यान इस ओर गया कि जनसंघ की छवि एक हिन्दू सम्प्रदायवादी संस्था के रूप में मानी जा रही है। वे अपने दल को किसी सम्प्रदायवादी शक्ति नहीं वरन् देशभक्ति की शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते थे। देखा जाए तो आज जब हमारा देश ग्लोबल एप्रोच में शीर्ष पर है, पं. दीनदयाल उपाध्याय के राष्ट्रवादी शुचितापूर्ण राजनीति की ही आवश्यकता है।
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Wednesday, October 18, 2023

चर्चा प्लस | वे तीन अखबार जो पं. दीनदयाल उपाध्याय और आमजन के बीच संवाद का माध्यम बने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
वे तीन अखबार जो पं. दीनदयाल उपाध्याय और आमजन के बीच संवाद का माध्यम बने
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       भारतीय राजनीति आज अपनी स्वतंत्रता की स्थापना से बहुत दूर, बहुत आगे निकल आई है। लोकतंत्र ने अपना नया ढांचा गढ़ लिया है। आज भारत के लोकतांत्रिक चुनाव मतपत्र के द्वारा नहीं बल्कि इलेक्ट्राॅनिक मशीन (ईवीएम) के द्वारा होते हैं। सोशल मीडिया आज चुनावों का आभासीय हथियार बन चुका है। लेकिन तब, जब यह सब साधन नहीं थे, आमजन से संवाद के लिए अखबार की सबसे सशक्त और विश्वसनीय माध्यम था। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय को आमजन से संवाद स्थापित करने के लिए समाचारपत्र की आवश्यकता का अनुभव हुआ। यह एक कटु सत्य है कि किसी न किसी रूप में राजनीति अभिव्यक्ति के हमेशा आड़े आई है। पं. दीनदयाल उपाध्याय को भी एक के बाद एक तीन समाचारपत्रों को आरम्भ करना पड़ा। वे रुके नहीं, झुके नहीं और उन्होंने आमजन से निरंतर संवाद बनाए रखा। (यह लेख सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्रृंखला की मेरी पुस्तक ‘‘दीनदयाल उपाध्याय’’ से लिया गया एक छोटा-सा अंश है।)
पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार विनिमय के लिए प्रकाशित सामग्री को महत्वपूर्ण मानते थे। इसीलिए उन्होंने अपने विचारों को समाचारपत्र द्वारा जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह समय देश की आजादी एवं नवनिर्माण का था। बंटवारे का दंश जनमानस को आहत किए हुए था। जनमानस में दिग्भ्रम की स्थिति थी। राष्ट्र का स्वरूप कैसा हो? पत्रकारिता के कौन-से दायित्व हों? और आमजन अपने और देश के बहुमुखी विकास के लिए किस दिशा को चुने? ये अहम प्रश्न थे जो सन् 1947 में प्रत्येक राजनेता, प्रत्येक देशभक्त और प्रत्येक दिशानिर्देशक के मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे।
स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजों के शासन से भले ही मुक्ति मिल गई किन्तु अंग्रेजी संस्कृति का मानस पर गहरा असर स्पष्ट दिखाई देता था। आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग स्वयं को अंगे्रजियत का पोषक साबित करने पर तुला हुआ था, वहीं निर्धन विपन्नता के बोझ तले दबा जा रहा था। समाज में वर्गभेद की मानसिकता बढ़ती जा रही थी। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान में बाधक बताते हुए दीनदयाल उपाध्याय ने ‘पांचजन्य’ में लिखा था कि ‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति को ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।’’

राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना

बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहाद्र्य स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय में सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल  ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल  ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। यह राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड वही प्रकाशन समूह था जिसने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटलबिहार वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत किया गया। इस सकारात्मक प्रतिक्रिया ने पं. दीनदयाल  को उत्साह से भर दिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उनका निर्णय गलत नहीं था। ‘राष्ट्रधर्म’ में देशभक्ति के आलेखों के साथ ही उन विचारों का भी प्रकाशन हुआ जो आमजन में जागरूकता बढ़ा सकते थे। सन् 1947 के पूर्व जिस आमजन के पास देश को स्वतंत्र कराने का महत्वपूर्ण उद्देश्य था वह स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही पूरा हो चुका था। स्वतंत्र देश की अपनी संभावनाओं एवं आकांक्षाओं को ले कर मतैक्य अधिक थे और निश्चितता की घोर कमी थी। इस कमी को दूर करने वाले लेखों के प्रकाशन ने ‘राष्ट्रधर्म’ को जनमानस के मध्य स्थापित कर दिया।
पं. दीनदयाल ने अपने विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह पत्रकारिता जो आजादी के उपरांत अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा सन्मार्ग की तलाश में थी। उसे दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राह दिखाने का कार्य किया था। सन् 1947 में पं. दीनदयाल  ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटल बिहार वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों को तैयार किया था। पं. दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का शंखनाद करते थे।

‘पांचजन्य’ का प्रकाशन

पं. दीनदयाल  ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करके ही नहीं रूके। उन्होंने एक और समाचारपत्र आरम्भ करने की ठानी। 14 जनवरी, सन् 1948 को ‘पांचजन्य’ का पहला अंक प्रकाशित किया।
पं. पं. दीनदयाल  जैसे अडिग व्यक्तित्व के कारण ही ‘पांचजन्य’ साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाली रुकावटों को पार करते हुए भी अपने ध्येय के प्रति कृतसंकल्प रहा। उसके जन्म का एक माह भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधी जी की हत्या से क्षोभित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में ‘पांचजन्य’ का गला घोंटने का प्रयास किया। उसके सम्पादक, प्रकाशक एवं मुद्रक को जेल में बंद कर दिया गया तथा उसके कार्यालय पर ताला ठांेक दिया गया। लगभग साढ़े चार माह बाद न्यायालय की अनुमति से ‘पंाचजन्य’ का प्रकाशन एक बार फिर संभव हो सका। यद्यपि यह राहत अल्पकालिक सिद्ध हुई। छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में ‘पांचजन्य’ को एक बार फिर सात माह के लिए बंद करा दिया गया। जुलाई, 1949 में यह प्रतिबंध हटते ही ‘पंाचजन्य’ का शंखनाद पुनः गूंज उठा।  ‘पंाचजन्य‘ का राष्ट्रहित में निर्भीक स्वर सरकारों के लिए हमेशा सिरदर्द बना रहा।
सन् 1949 में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण और दलाई लामा के निष्कासन के समय ‘पंाचजन्य’ ने नेहरु जी की अदूरदर्शिता और चीन की नीति की निर्भय होकर आलोचना की। 1962 में भारत पर चीन के हमले के लिए ‘पांचजन्य’ ने नेहरु जी की असफल विदेश नीति एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिलमिलाकर नेहरु सरकार ने ‘पांचजन्य’ को धमकी भरा नोटिस दिया।
‘पांचजन्य‘ के लेखक वर्ग में डाॅ. सम्पूर्णानन्द, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डाॅ. राममनोहर लोहिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा, किशोरी दास वाजपेयी, कृष्णचन्द प्रकाश मेढ़े जैसे मूर्धन्य विचारकों, राजनेताओं तथा साहित्यकारों का योगदान रहा है। इनके अतिरिक्त ‘पांचजन्य’ ने भविष्य में भी समय-समय पर विभिन्न राजनैतिक दलों के शिखर नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित करके राष्ट्रीय समस्याओं पर बहस चलाने की सार्थक प्रयास किया। ऐसे नेताओं में मोरारजी देसाई, चैधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, शरद यादव, ए. बी. वर्धन, एम. फारूखी, मौलाना वहीदुद्दीन खान आदि प्रमुख रहे।

‘हिमालय पत्रिका’ का प्रकाशन

‘पांचजन्य’ के द्वारा संघ के विचारों का प्रचार-प्रसार तत्कालीन कांग्रेस सरकार को चिन्ता में डालने लगा। तरह-तरह से बाधाएं डालने के बाद अंततः ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पं. दीनदयाल  ऐसी बाधा से घबराने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध लगने पर ‘हिमालय पत्रिका’ नामक समाचारपत्र प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। यह भी ‘पांचजन्य’ की भांति लोकप्रिय रहा। सत्ताधारियों ने देखा कि ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध के बाद भी संघ के विचारों का प्रसार नहीं थमा है तथा ‘हिमालय पत्रिका’ ने ‘पांचजन्य’ का स्थान ले लिया है, तो ‘हिमालय पत्रिका’ को भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
संघ के कार्यकत्र्ताओं को लगा कि एक बार फिर वे माध्यमविहीन हो रहे हैं। किन्तु पं. दीनदयाल  ने उन्हें ढाढस बंधाया और ‘देशभक्त’ के नाम से तीसरा समाचारपत्र छापना शुरू कर दिया। यह पं. दीनदयाल  की कुशाग्रबुद्धि का ही कमाल था कि सत्ताधारियों के द्वारा उत्पन्न की जाने वाली रुकावटें संघ के मार्ग को अवरूद्ध नहीं कर पा रही थीं। ऐसे में बौखलाई हुई सरकार ने पं. दीनदयाल  को बंदी बनाने का निश्चय किया। इसमें भी सरकार को सफलता नहीं मिली। इससे संघ के अन्य कार्यकत्र्ताओं पर संकट छाने लगा। तब पं. दीनदयाल  ने स्वयं को पकड़वा दिया। यह एक सोची-समझी रणनीति थी। वस्तुतः संघ के विरोधी चाहते थे कि संघ के कार्यकत्र्ता कोई ऐसा कदम उठाएं जिससे उनकी साख आमजन की दृष्टि में गिर जाए। अतः विरोधियों ने संघ के कार्यकत्र्ताओं को भड़काने का भी प्रयास किया। किन्तु पं. दीनदयाल  ने बंदीकाल में भी कार्याकत्र्तओं से तारतम्य बनाए रखा और उन्हें शांति बनाए रखने की निरन्तर सलाह देते रहे। जिसके परिणामस्वरूप कार्यकत्र्ताओं ने पं. दीनदयाल  को बंदी बनाए जाने के विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह किया। आखिरकार पं. दीनदयाल  को मुक्त कर दिया गया।  
राष्ट्रीय एकता के मर्म को समझाते हुए उन्होंने लिखा था-‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है, उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी। (पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)
सांस्कृतिक एकता के साथ ही एकात्म संस्कृति को पं. दीनदयाल  देश के लिए उचित मानते थे। वे कहते थे कि यदि ‘‘किसी गुलदस्ते में अलग-अलग किस्म के फूल लगे हैं तो वह देखने में भले ही सुन्दर दिखता है किन्तु किसी एक किस्म के फूल की सुगंध का आनन्द नहीं लिया जा सकता है और न ही उस गुलदस्ते को किसी एक फूल के नाम से पहचाना जा सकता है। यदि गुलदस्ते को एक विशिष्ट पहचान देनी है, उसकी सुगंध में स्पष्ट पहचानी जा सकने वाली एकरूपता रखनी है तो एक ही किस्म के फूलों का होना आवश्यक है। इसी तरह देश की विशिष्ट पहचान को दुनिया के सामने स्थापित करने के लिए इसकी सांस्कृतिक एकात्मता सर्वोपरि होनी चाहिए।’’
  सांस्कृतिक एकात्मता के संबंध में उन्होंने ‘राष्ट्रधर्म’ में अपने एक लेख में लिखा कि-‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को सम्प्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं।’’
पं. दीनदयाल  के विचारों में स्पष्टता थी। वे अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का प्रभावी ढंग और उसके महत्व को भली-भांति समझते थे। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रधर्म, पांचजन्य व दैनिक स्वदेश के प्रकाशन में पं. दीनदयाल  औपचारिक रूप से न तो सम्पादक थे और न स्तंभकार थे किन्तु वे इन समाचारपत्रों के सर्वेसर्वा थे। अपना नाम दिए बिना भी इन समाचारपत्रों में वे लेख लिखा करते थे। उन्हें नाम कमाने की लालसा नहीं थी, वे तो समाचार पत्रों के माध्यम से आमजन के साथ सम्वाद स्थापित करना चाहते थे। वे झूठ नहीं परोसना चाहते थे बल्कि सच सामने रखना चाहते थे।
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