Wednesday, October 18, 2023

चर्चा प्लस | वे तीन अखबार जो पं. दीनदयाल उपाध्याय और आमजन के बीच संवाद का माध्यम बने | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
वे तीन अखबार जो पं. दीनदयाल उपाध्याय और आमजन के बीच संवाद का माध्यम बने
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       भारतीय राजनीति आज अपनी स्वतंत्रता की स्थापना से बहुत दूर, बहुत आगे निकल आई है। लोकतंत्र ने अपना नया ढांचा गढ़ लिया है। आज भारत के लोकतांत्रिक चुनाव मतपत्र के द्वारा नहीं बल्कि इलेक्ट्राॅनिक मशीन (ईवीएम) के द्वारा होते हैं। सोशल मीडिया आज चुनावों का आभासीय हथियार बन चुका है। लेकिन तब, जब यह सब साधन नहीं थे, आमजन से संवाद के लिए अखबार की सबसे सशक्त और विश्वसनीय माध्यम था। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय को आमजन से संवाद स्थापित करने के लिए समाचारपत्र की आवश्यकता का अनुभव हुआ। यह एक कटु सत्य है कि किसी न किसी रूप में राजनीति अभिव्यक्ति के हमेशा आड़े आई है। पं. दीनदयाल उपाध्याय को भी एक के बाद एक तीन समाचारपत्रों को आरम्भ करना पड़ा। वे रुके नहीं, झुके नहीं और उन्होंने आमजन से निरंतर संवाद बनाए रखा। (यह लेख सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्रृंखला की मेरी पुस्तक ‘‘दीनदयाल उपाध्याय’’ से लिया गया एक छोटा-सा अंश है।)
पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार विनिमय के लिए प्रकाशित सामग्री को महत्वपूर्ण मानते थे। इसीलिए उन्होंने अपने विचारों को समाचारपत्र द्वारा जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह समय देश की आजादी एवं नवनिर्माण का था। बंटवारे का दंश जनमानस को आहत किए हुए था। जनमानस में दिग्भ्रम की स्थिति थी। राष्ट्र का स्वरूप कैसा हो? पत्रकारिता के कौन-से दायित्व हों? और आमजन अपने और देश के बहुमुखी विकास के लिए किस दिशा को चुने? ये अहम प्रश्न थे जो सन् 1947 में प्रत्येक राजनेता, प्रत्येक देशभक्त और प्रत्येक दिशानिर्देशक के मन-मस्तिष्क को झकझोर रहे थे।
स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजों के शासन से भले ही मुक्ति मिल गई किन्तु अंग्रेजी संस्कृति का मानस पर गहरा असर स्पष्ट दिखाई देता था। आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग स्वयं को अंगे्रजियत का पोषक साबित करने पर तुला हुआ था, वहीं निर्धन विपन्नता के बोझ तले दबा जा रहा था। समाज में वर्गभेद की मानसिकता बढ़ती जा रही थी। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान में बाधक बताते हुए दीनदयाल उपाध्याय ने ‘पांचजन्य’ में लिखा था कि ‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति को ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।’’

राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना

बंटवारे से उपजा अविश्वास का वातावरण फन फैलाए था। ऐसे में सौहाद्र्य स्थापित किया जाना आवश्यक था। इसी विकट समय में सभी दुरूह प्रश्नों के उत्तर जन-जन तक पहुंचाने के लिए पं. दीनदयाल  ने समाचारपत्र को माध्यम बनाने का निश्चय किया और सन् 1947 में पं. दीनदयाल  ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। यह राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड वही प्रकाशन समूह था जिसने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटलबिहार वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित किया। ‘राष्ट्रधर्म’ का पहला अंक 31 अगस्त 1947 को प्रकाशित हुआ। पाठकों द्वारा इसका भरपूर स्वागत किया गया। इस सकारात्मक प्रतिक्रिया ने पं. दीनदयाल  को उत्साह से भर दिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उनका निर्णय गलत नहीं था। ‘राष्ट्रधर्म’ में देशभक्ति के आलेखों के साथ ही उन विचारों का भी प्रकाशन हुआ जो आमजन में जागरूकता बढ़ा सकते थे। सन् 1947 के पूर्व जिस आमजन के पास देश को स्वतंत्र कराने का महत्वपूर्ण उद्देश्य था वह स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही पूरा हो चुका था। स्वतंत्र देश की अपनी संभावनाओं एवं आकांक्षाओं को ले कर मतैक्य अधिक थे और निश्चितता की घोर कमी थी। इस कमी को दूर करने वाले लेखों के प्रकाशन ने ‘राष्ट्रधर्म’ को जनमानस के मध्य स्थापित कर दिया।
पं. दीनदयाल ने अपने विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह पत्रकारिता जो आजादी के उपरांत अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा सन्मार्ग की तलाश में थी। उसे दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राह दिखाने का कार्य किया था। सन् 1947 में पं. दीनदयाल  ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटल बिहार वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों को तैयार किया था। पं. दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का शंखनाद करते थे।

‘पांचजन्य’ का प्रकाशन

पं. दीनदयाल  ‘राष्ट्रधर्म’ का प्रकाशन आरम्भ करके ही नहीं रूके। उन्होंने एक और समाचारपत्र आरम्भ करने की ठानी। 14 जनवरी, सन् 1948 को ‘पांचजन्य’ का पहला अंक प्रकाशित किया।
पं. पं. दीनदयाल  जैसे अडिग व्यक्तित्व के कारण ही ‘पांचजन्य’ साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाली रुकावटों को पार करते हुए भी अपने ध्येय के प्रति कृतसंकल्प रहा। उसके जन्म का एक माह भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधी जी की हत्या से क्षोभित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में ‘पांचजन्य’ का गला घोंटने का प्रयास किया। उसके सम्पादक, प्रकाशक एवं मुद्रक को जेल में बंद कर दिया गया तथा उसके कार्यालय पर ताला ठांेक दिया गया। लगभग साढ़े चार माह बाद न्यायालय की अनुमति से ‘पंाचजन्य’ का प्रकाशन एक बार फिर संभव हो सका। यद्यपि यह राहत अल्पकालिक सिद्ध हुई। छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में ‘पांचजन्य’ को एक बार फिर सात माह के लिए बंद करा दिया गया। जुलाई, 1949 में यह प्रतिबंध हटते ही ‘पंाचजन्य’ का शंखनाद पुनः गूंज उठा।  ‘पंाचजन्य‘ का राष्ट्रहित में निर्भीक स्वर सरकारों के लिए हमेशा सिरदर्द बना रहा।
सन् 1949 में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण और दलाई लामा के निष्कासन के समय ‘पंाचजन्य’ ने नेहरु जी की अदूरदर्शिता और चीन की नीति की निर्भय होकर आलोचना की। 1962 में भारत पर चीन के हमले के लिए ‘पांचजन्य’ ने नेहरु जी की असफल विदेश नीति एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिलमिलाकर नेहरु सरकार ने ‘पांचजन्य’ को धमकी भरा नोटिस दिया।
‘पांचजन्य‘ के लेखक वर्ग में डाॅ. सम्पूर्णानन्द, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डाॅ. राममनोहर लोहिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा, किशोरी दास वाजपेयी, कृष्णचन्द प्रकाश मेढ़े जैसे मूर्धन्य विचारकों, राजनेताओं तथा साहित्यकारों का योगदान रहा है। इनके अतिरिक्त ‘पांचजन्य’ ने भविष्य में भी समय-समय पर विभिन्न राजनैतिक दलों के शिखर नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित करके राष्ट्रीय समस्याओं पर बहस चलाने की सार्थक प्रयास किया। ऐसे नेताओं में मोरारजी देसाई, चैधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, शरद यादव, ए. बी. वर्धन, एम. फारूखी, मौलाना वहीदुद्दीन खान आदि प्रमुख रहे।

‘हिमालय पत्रिका’ का प्रकाशन

‘पांचजन्य’ के द्वारा संघ के विचारों का प्रचार-प्रसार तत्कालीन कांग्रेस सरकार को चिन्ता में डालने लगा। तरह-तरह से बाधाएं डालने के बाद अंततः ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पं. दीनदयाल  ऐसी बाधा से घबराने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध लगने पर ‘हिमालय पत्रिका’ नामक समाचारपत्र प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया। यह भी ‘पांचजन्य’ की भांति लोकप्रिय रहा। सत्ताधारियों ने देखा कि ‘पांचजन्य’ पर प्रतिबंध के बाद भी संघ के विचारों का प्रसार नहीं थमा है तथा ‘हिमालय पत्रिका’ ने ‘पांचजन्य’ का स्थान ले लिया है, तो ‘हिमालय पत्रिका’ को भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
संघ के कार्यकत्र्ताओं को लगा कि एक बार फिर वे माध्यमविहीन हो रहे हैं। किन्तु पं. दीनदयाल  ने उन्हें ढाढस बंधाया और ‘देशभक्त’ के नाम से तीसरा समाचारपत्र छापना शुरू कर दिया। यह पं. दीनदयाल  की कुशाग्रबुद्धि का ही कमाल था कि सत्ताधारियों के द्वारा उत्पन्न की जाने वाली रुकावटें संघ के मार्ग को अवरूद्ध नहीं कर पा रही थीं। ऐसे में बौखलाई हुई सरकार ने पं. दीनदयाल  को बंदी बनाने का निश्चय किया। इसमें भी सरकार को सफलता नहीं मिली। इससे संघ के अन्य कार्यकत्र्ताओं पर संकट छाने लगा। तब पं. दीनदयाल  ने स्वयं को पकड़वा दिया। यह एक सोची-समझी रणनीति थी। वस्तुतः संघ के विरोधी चाहते थे कि संघ के कार्यकत्र्ता कोई ऐसा कदम उठाएं जिससे उनकी साख आमजन की दृष्टि में गिर जाए। अतः विरोधियों ने संघ के कार्यकत्र्ताओं को भड़काने का भी प्रयास किया। किन्तु पं. दीनदयाल  ने बंदीकाल में भी कार्याकत्र्तओं से तारतम्य बनाए रखा और उन्हें शांति बनाए रखने की निरन्तर सलाह देते रहे। जिसके परिणामस्वरूप कार्यकत्र्ताओं ने पं. दीनदयाल  को बंदी बनाए जाने के विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह किया। आखिरकार पं. दीनदयाल  को मुक्त कर दिया गया।  
राष्ट्रीय एकता के मर्म को समझाते हुए उन्होंने लिखा था-‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है, उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी। (पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)
सांस्कृतिक एकता के साथ ही एकात्म संस्कृति को पं. दीनदयाल  देश के लिए उचित मानते थे। वे कहते थे कि यदि ‘‘किसी गुलदस्ते में अलग-अलग किस्म के फूल लगे हैं तो वह देखने में भले ही सुन्दर दिखता है किन्तु किसी एक किस्म के फूल की सुगंध का आनन्द नहीं लिया जा सकता है और न ही उस गुलदस्ते को किसी एक फूल के नाम से पहचाना जा सकता है। यदि गुलदस्ते को एक विशिष्ट पहचान देनी है, उसकी सुगंध में स्पष्ट पहचानी जा सकने वाली एकरूपता रखनी है तो एक ही किस्म के फूलों का होना आवश्यक है। इसी तरह देश की विशिष्ट पहचान को दुनिया के सामने स्थापित करने के लिए इसकी सांस्कृतिक एकात्मता सर्वोपरि होनी चाहिए।’’
  सांस्कृतिक एकात्मता के संबंध में उन्होंने ‘राष्ट्रधर्म’ में अपने एक लेख में लिखा कि-‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को सम्प्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं।’’
पं. दीनदयाल  के विचारों में स्पष्टता थी। वे अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का प्रभावी ढंग और उसके महत्व को भली-भांति समझते थे। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रधर्म, पांचजन्य व दैनिक स्वदेश के प्रकाशन में पं. दीनदयाल  औपचारिक रूप से न तो सम्पादक थे और न स्तंभकार थे किन्तु वे इन समाचारपत्रों के सर्वेसर्वा थे। अपना नाम दिए बिना भी इन समाचारपत्रों में वे लेख लिखा करते थे। उन्हें नाम कमाने की लालसा नहीं थी, वे तो समाचार पत्रों के माध्यम से आमजन के साथ सम्वाद स्थापित करना चाहते थे। वे झूठ नहीं परोसना चाहते थे बल्कि सच सामने रखना चाहते थे।
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