Friday, October 6, 2023

शून्यकाल | देश के प्रथम आमचुनाव की एक दिलचस्प घटना | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"शून्यकाल"... "दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
देश के प्रथम आमचुनाव की एक दिलचस्प घटना
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                     
     इन दिनों चुनावों की चर्चा ट्रेंडिंग कर रही है। जैसे-जैसे मौसम गुनगुनी धूप की ओर कदम बढ़ा रहा है वैसे-वैसे चुनावी माहौल गरमा रहा है। दलबदल की हवाएं भी चलने लगी हैं। अपने दल से असंतुष्ट दूसरे दल में अपने लिए ठौर ढूंढने लगे हैं। चुनाव हमेशा से ही दिलचस्प रहे हैं। बस, अंतर यही है कि पहले वैचारिक दृढ़ता वाले नेता अधिक थे और अब ढुलमुल विचारों वाले नेता अधिक हैं। चलिए, इसी माहौल में स्मरण करते हैं देश के प्रथम आम चुनाव के एक रोचक प्रसंग का जिससे तत्कालीन राजनीति और वर्तमान राजनीति को समझने में भी मदद मिलेगी।
  15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद राजनीतिक घटनाक्रम में तेजी से उतार-चढ़ाव आया। विभाजन की त्रासदी का दंश झेलते हुए बड़ी संख्या में शरणार्थी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे थे। शरणार्थी शिविरों में व्यापक व्यवस्थाएं की जा रही थीं, जबकि विभाजन के कारण हुए आर्थिक हानि ने संसाधनों को सीमित कर दिया था। 

          स्वतंत्र भारत में आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से एक नवीन एवं सुदृढ़ भारत के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव हो रहा था। कुछ ही माह बाद एक दुखद घटना घटी।  30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। महात्मा गंाधी पर गोली चलाने वाला व्यक्ति नाथूराम गोडसे राष्ट्रीय सेवक संघ से संबंधित पाया गया। इससे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कठिनाइयां बढ़ गईं। राजनीतिक समीकरणों में लगातार उतार-चढ़ाव आता रहा। लेकिन जो अपने विचारों के प्रति प्रतिबद्ध रहते हैं वे किसी में परिस्थिति में बदलते नहीं है। उनकी यही दृढ़ता उनकी पहचान बनती है। बहरहाल, चुनावों में आरोप-प्रयारोप का दौर न चले ऐसा हो नहीं सकता। देश के प्रथम आम चुनाव के दौरान भी घनघोर आरोपों का दौर चला था। 

    सन् 1952 में स्वतंत्र भारत का प्रथम आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में भारतीय जनसंघ की ओर से 742 प्रतिनिधि चुनाव मैदान में उतारे गए।  जनसंघ के कार्यकर्ताओं का उत्साह देख कर कांग्रेस चिन्ता में पड़ गई। चुनाव के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर झूठा आरोप लगाते हुए उन्हें और उनके साथियों को भारत विभाजन का दोषी ठहराया। यद्यपि आम जनता भी सत्यता से परिचित थी। इस झूठे आरोप का उत्तर देते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा कि - ‘‘इस प्रकार का मिथ्यारोपण नेहरू जैसे वरिष्ठ नेता को शोभा नहीं देता है। जब मुझे लगा था कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग एवं ब्रिटिश सरकार देश को बांटने पर उतारू है, तब मैने ऐसा करने से रोकने के लिए पंजाब एवं बंगाल के विभाजन की बात रखी थी। इसके पीछे सत्यता यह थी कि इस प्रकार इन प्रांतों की कुछ भूमि की तो रक्षा की जा सके, ताकि इन दोनों प्रांतों पर पाकिस्तान का कब्जा न हो जाए और यह देश के विभाजन की बात नहीं थी, क्योंकि इसका मुस्लिम लीग एवं कांग्रेस ने बिना जनमत के स्वयं निर्णय करके जनता को धोखा दिया था।’’

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनके जनसंघ पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया, जिसका उत्तर देते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा कि- ‘‘यदि अपनी जन्मभूमि से प्रेम करना साम्प्रदायिकता है, यदि दूसरी जातियों को हेय न मानते हुए अपनी जाति से प्रेम करना साम्प्रदायिकता है, यदि हमें भारत में रहने वाले 30 करोड़ हिन्दुओं से, जो हजारों वर्ष की दासता से मुक्त हुए हैं, सहानुभूति है और हम उन्हें एकता के सूत्रा में बांधने का प्रयास करते हैं, यदि हम अपनी मर्यादा को उस विधि से प्राप्त करना चाहते हैं जो हिन्दू धर्म  के गतिशील सिद्धांतों से अनुप्राणित है ओर जिसके प्रतीक स्वामी विवेकानंद हैं, तो मुझे गर्व है कि मैं साम्प्रदायवादी हूं।’’
चुनाव के दौरान कांग्रेस और जनसंघ के बीच तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू एवं डाॅ. मुखर्जी के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा। भारतीय राजनीतिक पटल पर धीरे-धीरे राजनीतिक दलों का अलग-अलग गठबंधन उभरने लगा। जो दल वैचारिक दृष्टि से एक धरातल पर नहीं थे वे भी नवोदित जनसंघ के विरुद्ध  खड़े दिखाई दे रहे थे।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपने गृहक्षेत्र दक्षिण कोलकाता से खड़े हुए। गृह क्षेत्र होते हुए भी डाॅ. मुखर्जी के लिए चुनाव आसान नहीं था। दक्षिण कोलकाता की 03 लाख की आबादी में 70 हजार मुस्लिम मतदाता थे। कांग्रेस ने मुस्लिम मतदाताओं को यह कह कर भड़का रखा था कि डाॅ. मुखर्जी और जनसंघ मुस्लिमों का भला नहीं चाहते हैं। कांग्रेस ही उनकी एकमात्र सच्ची हितैषी है। कांग्रेस ने डाॅ. मुखर्जी के विरोध में कोलकाता के एक अत्यन्त अमीर व्यक्ति को उम्मीदवार के रूप खड़ा किया। उसकी तुलना में डाॅ. मुखर्जी के पास आर्थिक संसाधन मध्यम स्तरीय थे। दक्षिण कोलकाता में कम्यूनिस्ट पार्टी भी सशक्त दावेदार थी। कंाग्रेस और कम्यूनिस्ट दोनों ही अपने-अपने मुद्दों को ले कर डाॅ. मुखर्जी के विरोध में थे। 

डाॅ. मुखर्जी के स्थान पर यदि कोई और उम्मीदवार होता तों उसे यह चुनाव बहुत भारी पड़ता। किन्तु डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जो कार्य बंगाल तथा समूचे देश के हित में किए थे, उनसे दक्षिण कोलकाता की जनता भली -भांति परिचित थी और उन पर विश्वास करती थी। इस संबंध में एक दिलचस्प घटना है कि  दक्षिण कोलकाता के एक बुनकर मुजीबुल हक़ से एक कांग्रेस प्रचारक ने कहा कि- ‘‘भारतीय जनसंघ को वोट देने से क्या फायदा है? उसे तो अभी कोई अनुभव भी नहीं है।’’
‘‘तो किसे वोट दूं?’’ मुजीबुल हक़ ने पूछा।
‘‘कांग्रेस को। क्यांेकि वह एक अनुभवी पार्टी है।’’ कांग्रेसी कार्यकर्ता ने समझाया।
‘‘यदि वोट तजुर्बे पर दिया जाना है तो फिर मैं वोट दे ही नहीं सकता हूं।’’ मुजीबुल हक़ ने कहा।
‘‘क्या मतलब? तुम वोट क्यों नही दे सकते हो?’’ कांग्रेसी कार्यकर्ता ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘ये तो पहला आम सभा चुनाव है न, और मुझे वोट देने का कोई तजुर्बा नहीं है।’’ मुजीबुल हक़ ने तपाक से उत्तर दिया।
मुजीबुल हक़ का उत्तर सुन कर कांग्रेसी कार्यकर्ता लज्जित हो कर रह गया।

सन् 1952 के प्रथम आम चुनाव में भारतीय जनसंघ ने सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी का अपनी क्षमता के अनुरूप डट कर मुकाबला किया। किन्तु प्रमुख दो कारणों से भारतीय जनसंघ को न्यूनतम सफलता प्राप्त हुई। पहला कारण था कि भारतीय जनसंघ एकदम नवोदित पार्टी थी। उसकी नीतियों का देश के कोने-कोने तक भली-भंाति प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया था। 
दूसरा कारण था कि महात्मा गांधी की हत्या के सदमे से जन समुदाय अभी उबरा नहीं था तथा भारतीय जनसंघ के मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर अनेक आरोप लगाए जा रहे थे एवं भारतीय जनसंघ भी दुष्प्रचार का निशाना बनी हुई थी। पत्रकार जगत उत्सुकता से श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अगले कदम की प्रतीक्षा कर रहा था। एक दिन ‘दी पायोनियर’ के संवाददाता ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी से पूछा कि ‘‘आपके सहयोगी तो चुनाव में पराजित हो गए हैं, क्या आप अब भी उन्हीं का साथ देना चाहेंगे?’’
संवाददाता का प्रश्न सुन कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्कुराए और शांत भाव से बोले- 
‘‘मेरे सहयोगी हारे नहीं हैं। ये चुनाव राष्ट्रवादी उद्देश्यों की प्राप्ति-संघर्ष का मानक नहीं बन सकता है। मेरे साथी चुनाव में सफल नहीं हुए किन्तु अपने कर्मठ उद्देश्यों में असफल नहीं हुए हैं। वे सतत् संघर्षरत् हैं। ऐसे में मैं उनका साथ भला कैसे छोड़ सकता हूं? वे हमेशा मेरे साथ हैं और मैं सदा उनके साथ रहूंगा।’’  संवादादाता श्यामा प्रसाद मुखर्जी का उत्तर सुन कर समझ गया कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी अवसरवादी व्यक्ति नहीं हैं। वे स्वाभिमानी एवं आदर्शवादी राजनीतिज्ञ हैं।

*(सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से सन् 2020 में प्रकाशित ‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व’ श्रृंखला की मेरी छः पुस्तकों में से एक पुस्तक ‘‘श्यामा प्रसाद मुखर्जी’’ से उद्धृत एक अंश)*                                       
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