Tuesday, October 17, 2023

पुस्तक समीक्षा | डाॅ. लोहिया के समतामूलक समाज संबंधी विचारों को सहेजती पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 17.10.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई गांधीवादी चिंतक एवं लेखक श्री रघु ठाकुर जी द्वारा संपादित पुस्तक "जाति प्रथा : राम मनोहर लोहिया" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
डाॅ. लोहिया के समतामूलक समाज संबंधी विचारों को सहेजती पुस्तक   
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - जाति प्रथा : राम मनोहर लोहिया   
संपादक    - रघु ठाकुर
प्रकाशक    - आकार बुक्स, 28 ई पाॅकेट - 4, मयूर विहार फेज1, दिल्ली-110091
मूल्य       - 250/-
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आज जाति व्यवस्था को ले कर मानो संक्रमण काल चल रहा है। यद्यपि आज जातिगत स्थितियां देश की स्वतंत्रतापूर्व की स्थितियों से भिन्न हैं किन्तु जाति प्रथा का पोषण निरंतर बना हुआ है। देश को स्वतंत्र हुए दशको गुज़र चुके हैं, किन्तु हम जाति प्रथा से मुक्त नहीं हो सके हैं। जबकि यह सभ्यसमाज का सबसे बड़ा कलंक है। एक ऐसा कलंक जो समाज को कभी भी वैचारिक प्रगति नहीं दे सकता है। आज जातिगत जनगणनाएं होती हैं। जातिगत योजनाएं बनाई जाती हैं। यहां तक कि लोकतांत्रिक चुनावों में भी जातिगत आधार पर विजय की रणनीतियां तैयार की जाती हैं। महात्मा गांधी जाति व्यवस्था को धीरे-धीरे समाप्त करना चाहते थे, वहीं डाॅ. राम मनोहर लोहिया जाति प्रथा के कलंक को शीघ्र मिटाना चाहते थे। वे जानते थे कि जब तक समाज विभिन्न जातियों में बंटा रहेगा तब तक देश और समाज सही अर्थ में विकसित नहीं हो सकेगा।

‘‘जाति प्रथा’’, यह पुस्तक है जिसमें राम मनोहर लोहिया के विचारों को गांधीवादी चिंतक एवं समाज विमर्श के वरिष्ठ लेखक रघु ठाकुर ने संपादित किया है। रघु ठाकुर स्वयं लोहियावादी विचारों के प्रबल समर्थक हैं। उनका जमीनी कार्यों का दीर्घ जीवनानुभव है। उन्होंने सुदूर ग्रामीण अंचलों से ले कर महानगरों तक में व्याप्त जाति प्रथा और उसके दुष्प्रभावों को बहुत करीब से देखा है। न केवल देखा है अपितु उन परिस्थितियों का आकलन तथा विवेचन भी किया है। रघु ठाकुर समतामूलक समाज को स्थापित होते देखना चाहते हैं। समाजविमर्श को ले कर अब तक गद्य एवं पद्य की उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘‘जाति प्रथा’’ पुस्तक में रघु ठाकुर ने डाॅ. राम मनोहर लोहिया के उन विचारों एवं भाषणों को प्रस्तुत किया है जो जाति प्रथा उन्मूलन के संबंध में हैं। यह पुस्तक डाॅ. राम मनोहर लोहिया के विचारों को बारीकी से समझने में मदद करती है। रधु ठाकुर ने पुस्तक के संबंध में आरम्भ में ही लिखा है कि -‘‘डॉ. राम मनोहर लोहिया के 8 लेख व भाषण इस पुस्तक में शामिल हैं। वैसे तो ये लेख व भाषण लगभग 60 वर्ष पुराने हैं, परन्तु मूल विचार के संदर्भ में आज भी जीवन्त और प्रासंगिक हैं। लोहिया ने अपने इन लेखों में न केवल जाति प्रथा का सच उजागर किया है, बल्कि इसके साथ-साथ इस बुराई को कैसे नष्ट किया जाये, यह भी रास्ता बताया है।’’

संपादक रघु ठाकुर ने आगे लिखा है कि -‘‘जाति प्रथा भारत की विदेशी गुलामी का मुख्य कारण रही है। भारत एक विशाल देश था परन्तु चन्द हमलावरों ने इस पर कब्जा किया था, क्योंकि मुल्क जातियों में बंटा हुआ था और जातियों ने समाज के बड़े हिस्से को जाति के नाम पर थोपे गए व्यवसाय में बांध दिया था। अगर भारत में जाति व्यवस्था नहीं होती तो भारत जैसा विशाल देश कभी भी विदेशी हुकूमतों या हमलावरों का गुलाम नहीं बन सकता था। लोहिया ने लोकतंत्र की मजबूती के लिए, जातिवाद ने भारतीय समाज को जिस जड़ता में बांध दिया था, उसे मुक्त कराकर राष्ट्रीय जीवन में हलचल पैदा करने की पहल की थी। इस जड़ता को तोड़ने व भागीदारी की इच्छा को जगाने के लिए लोहिया ने कई राजनैतिक प्रयोग भी किए थे। जिनमें से एक था ग्वालियर की महारानी के खिलाफ सुक्खो रानी जमादारिन को लोकसभा में खड़ा करना। इस एक घटना ने देश के करोड़ों शोषितों, वंचितों और समाज में दलित अनुसूचित जाति के नाम पर एक निम्न कर्म से बांध दिए गए करोड़ों लोगों के मन में हलचल पैदा की और राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी की भूख पैदा की। ऐसा ही प्रयोग लोहिया ने रायबरेली में भी किया था जहां प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाई स्व. फिरोज गाँधी के खिलाफ स्व. नन्द किशोर जी को खड़ा किया था जो नाई समाज से थे।’’

हमारे भारतीय समाज में यह जाति प्रथा आई कहां से और कब से? यह माना जाता है कि कर्म के आधार पर जातियों का जन्म हुआ किन्तु यदि ऋग्वैदिक काल में देखें तो यह तर्क खोखला प्रतीत होता है। ऋग्वेद में एक ऐसे युवक का उल्लेख है जो अपना परिचय देते हुए बताता है कि -‘‘मेरे पिता एक वैद्य हैं, मेरी मां अनाज पीसती हैं, मैं एक कवि हूं। हम सभी अलग-अलग तरीकों से धन के लिए प्रयास करते हैं।’’ इस परिचय में तो एक ही परिवार के सभी सदस्यों के कर्म अलग-अलग हैं। इसका आशय है कि ऋग्वैदिक काल में कर्म के आधार पर समाज बंटा हुआ नहीं था और न ही इस प्रकार के बंटवारे की कोई अनुवांशिक व्यवस्था थी। यह कहा जा सकता है कि उत्तर वैदिक काल में इस प्रकार की भावानाओं का उदय होने लगा तथा स्मृतियों के आते तक जाति प्रथा जोंक समाज की देह से चिपक चुकी थी और उसने पारस्परिक समता का रक्त चूसना आरंभ कर दिया था।

   देखा जाए तो ऋग्वैदिक काल के विचारों की दोषपूर्ण व्याख्या ने लगभग उसी काल से जाति प्रथा के बीज बो दिए थे। वर्ण-व्यवस्था ऋग्वैदिक काल में थी। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्म (भगवान) के मुख से राजन्य (क्षत्रिय) की बाहु से, वैश्य की जांघ से और शूद्र की पैरों से बताई गई है। ऋग्वेदकाल में चार वर्ण अस्तित्व में थे। ऋग्वैदिक काल में कुछ वर्ग तथा व्यवसाय अस्तित्व में थे। किन्तु वे वंशानुगत नही थे। रुचि एवं योग्यता के आधार पर कोई भी पुरोहित, योद्धा अथवा व्यवसायी बन सकता था। ऋग्वेद में विभिन्न वर्गों व व्यवसायों के बीच साथ भोजन ग्रहण करने तथा परस्पर वैवाहिक विभिन्न वर्गों व व्यवसायों के बीच साथ भोजन ग्रहण करने तथा परस्पर वैवाहिक संबंध स्थापित करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। वर्ण की गलत व्याख्या के कारण जाति का उद्भव हुआ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि वर्णों को जाति के नाम से जाना जाने लगा। ब्राह्मण को ब्राह्मण जाति, क्षत्रिय को क्षत्रिय जाति, वैश्य को वैश्य जाति तथा शूद्र को शूद्र जाति से जाना जाने लगा। वर्ण के जाति में परिवर्तित होने का मुख्य कारण बना जन्म एवं वंशानुगत व्यवसाय । प्रत्येक जाति का एक परम्परागत (वंशानुगत) निश्चित व्यवसाय होता था जो एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तांतरित होता रहता था। कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति अपना व्यवसाय बदल लेता था जिसकी अनुमति थी। जिस कारण अनेक उपजातियों का उदय हुआ ।
गलतियां इंसान ही करता है और उन्हें सुधारने की क्षमता भी इंसान के पास होती है, बशर्ते वह अपनी क्षमताओं को अमल में लाए और अपनी गलती सुधारने की दृढ़ इच्छाशक्ति रखे। डाॅ. राम मनोहर लोहिया जाति प्रथा रूपी गलती को सुधारना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने सक्रियता से प्रयास किया। सुव्यवस्थित ढंग से संपादन करते हुए पुस्तक के आरम्भ में डाॅ. राम मनोहर लोहिया का संक्षिप्त परिचय दिया गया है जिससे युवा पाठक जो लोहिया के व्यक्तित्व से परिचित नहीं हैं उनके बारे में कुछ बुनियादी बातें जान सकें। जैसे उनका जन्म 23 मार्च 1910 तथा मृत्यु 12 अक्टूबर 1967 को हुई। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अकबरपुर गांव में जन्म और प्रारंभिक शिक्षा । बाद में बम्बई के मारवाड़ी उच्च विद्यालय से माध्यमिक शिक्षा। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय एवं कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पाने के पश्चात जर्मनी के होमबोल्ट विश्वविद्यालय, बर्लिन, से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी की उपाधि। जर्मनी से लौटने के पश्चात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी। 1934 में कांग्रेस के अंदर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। कांग्रेस के विदेश विभाग के 1937 से 1939 सचिव रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन मे जयप्रकाश नारायण के साथ भूमिगत रेडियो का संचालन और बाद में लाहौर जेल गए। गोवा मुक्ति आंदोलन, 1946 का नेतृत्व किया। सन 1948 में कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना। बाद में सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी एवं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में कार्य किया। 1963 में लोकसभा के उप-चुनाव विजयी हुए। ‘‘मैनकाइंड’’ एवं ‘‘जन’’ के संपादक के अलावा कई महत्वपूर्ण विचारोत्तेजक रचनाएं लिखीं।
इस पुस्तक में प्रो. अशोक पंकज का प्राक्कथन, मदन जैन के ‘‘दो शब्द’’ के उपरांत जिन शीर्षकों में कलेवर को बांटा गया है वे हैं-‘‘जाति प्रथा के संबंध में - रघु ठाकुर’’, जिसके उपशीर्षक हैं- 1.जाति प्रथा का नाश क्यों और कैसे? 2. जाति 3. जाति प्रथा और गुलामी 4. छोटी जातियां और लासा 5.सुक्खो रानी और ग्वालियर महारानी 6. विशेष अवसर क्यो? 7. द्रौपदी या सावित्री? 8. अवसर से योग्यता। ये लेख डाॅ. राम मनोहर लोहिया द्वारा विभिन्न स्थानों में दिए गए भाषणों का संपादिक अंश हैं। इन लेखों से लोहिया के सामाजिक उत्थान के विचारों का पता चलता है। बानगी के लिए दो उद्धरण देखिए जिनमें एक है ‘‘जाति’’ शीर्षक भाषण-लेख से। लोहिया ने 17 जुलाई 1959 को हैदराबाद में अपने लम्बे उद्बोधन में कहा था कि -‘‘ सवाल उठता है कि फिर इसको (जाति) खतम कैसे किया जाए? में समझता हूं कि इस पर तो ज्यादा बहस करने की जरूरत नहीं कि इसको खतम किए बिना हिंदुस्तान तरक्की कर नहीं सकता में समझता हूं कि हिंदुस्तान की दुर्गाति का सबसे बड़ा कारण जाति प्रथा है। हिंदुस्तान बार-बार विदेशियों के कब्जे में गया और हमले हम इतने झेल नहीं पाये, इसका भी सबब जाति प्रथा है, पर अकेला नहीं। मैं वह गलती करना नहीं चाहता जो दूसरे लोग कर चुके हैं कि यही सबब बताऊँ। कई सबब हैं, पर उनमें यह शायद सबसे बड़ा है। वैसे दुनिया के सभी मुल्कों पर हमले हुए बहुत से देश परतंत्र हुए हैं। लेकिन जितनी बार हिंदुस्तान परतंत्र हुआ है, उतनी बार और कोई बड़ा सभ्य मुल्क नहीं हुआ। यह बिलकुल तय बात है। इस पर किसी को कोई शक नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह तो इतिहास की बात है। ऐसा क्यों हुआ है? क्यों हम इतनी बार परतंत्र होते गए? यह भी सही है कि जब हमारे पुरखे अच्छे-भले और ताकतवर और फैले हुए दिमाग के थे, तब जाति प्रथा कुछ बोली रहती भी तो बाहरी हमलों का मुकाबला कुछ अच्छी तरह से कर लिया करते थे। कभी-कभी ऐसे जमाने भी आए कि 400-500 वर्ष तक हिंदुस्तान की तरफ किसी बाहरी आदमी ने तिरछी आँखें करके देखने की हिम्मत तक नहीं की थी, लेकिन कम समय तक ज्यादातर हमले आते रहे और जब सिलसिल चलता था तो फिर एक के बाद एक, एक के बाद एक। कहीं यह गलती मत कर बैठना कि मैं कह रहा हूँ कि हिंदू-मुसलमानों के हमलों के नीचे आ गए, यह बात नहीं। बात यह है कि जब पहली दफे मुसलमानों का जो हमला हुआ, मुसलमान नहीं कहना चाहिए, क्योंकि यह तो गलत बात होगी, कहो पठान, या अफगान या तुर्क क्योंकि मुसलमान भी तो एक दफे राजा बनने के बाद फिर दुबारा मुसलमान के हाथ से हारा, तिबारा हारा, चैबारा हारा, दफे हारा।’’
22 जून 1962 में नैनीताल में समाजवादी युवजन सभा शिक्षण शिविर को संबोधित करते हुए ‘‘द्रौपदी या सावित्री’’ पर चर्चा करते हुए डाॅ. लोहिया ने कहा था कि ‘‘सावित्री के लिए हिंदू नारी और हिंदू नर, दोनों का दिल एकदम से आलोड़ित हो उठता है कि वाह, क्या गजब की औरत थी। औरत भी खुद आलोड़ित हो उठती है। मैंने कई दफा पूछा कि अगर हिंदू किंवदंती में ऐसी पतिव्रता का किस्सा मौजूद है कि यम के हाथों से अपने पति को छुड़ा लाए, तो कोई किस्सा हमको ऐसा भी बताओ, किसी पत्नीव्रत का कि जो अपनी औरत को मर जाने पर यम के हाथों से उसको छुड़ा लाया हो और फिर से उसको जीवित कराया हो। आखिर मजा तो तभी आता है जब ऐसा किस्सा दुतरफा होता है। जाहिर है कि कोई किस्सा ऐसा है नहीं।’’

पुस्तक के अंतिम भाग में दो परिशिष्ट हैं जिनमें पुस्तक के संपादक रघु ठाकुर के विचार हैं - 1. ई.डब्ल्यू.एस. के लिए आरक्षण का निर्णय कितना तार्किक? तथा, 2. जातिगत जनगणना।
यह पुस्तक ‘‘जाति प्रथा’’ शीर्षक की होते हुए भी मात्र जाति प्रथा पर ही प्रहार नहीं करती है वरन भारतीय संस्कृति में रचती-बसती गई कुरीतियों पर भी चोट करती है। यह पुस्तक दलितों एवं स्त्रियों सहित सभी मनुष्यों की बात करती है। वस्तुतः जातिप्रथा वह वायरस है जो अनेक सामाजिक बीमारियों की जड़ है। इस पुस्तक को पढ़ा जाना इसलिए भी जरूरी है कि इससे जाति प्रथा के उद्गम, विकास एवं समापन के प्रयासों के बारे में तार्किक जानकारी मिलेगी जो समाज से जाति प्रथा के कलंक को मिटाने के लिए दिशा प्रदान करेगी। महत्वपूर्ण विचार सदा प्रासंगिक होते हैं। लोहिया के महत्वपूर्ण विचारों को संपादित रूप में प्रस्तुत कर के लेखक रघु ठाकुर ने समता मूलक समाज संबंधी विचारों को सहेजने का विशिष्ट कार्य किया है।     
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