"शून्यकाल"... "दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
सागर की प्रथम निर्वाचित महिला सांसद
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
राजनीति में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने पर सभी सहमत हो चुके हैं। यह बात अलग है कि वर्तमान विधानसभा चुनाव की मध्यप्रदेश की उम्मीदवारों की घोषित सूची में महिलाओं की संख्या कम ही दिख रही है। सागर के विधान सभा क्षेत्रों को ही लें तो फिलहाल यहां टिकट पाने वालों में पुरुष वर्चस्व ही दिखाई दे रहा है। लेकिन सागर संभाग का इतिहास गौरवशाली है। सागर की प्रथम महिला सांसद श्रीमती कलावती दीक्षित अपनी योग्यता के कारण देश की प्रथम संसद में राज्यसभा के लिए मनोनीत की गई थीं, तो दूसरी सांसद सहोदरा बाई राय चुनाव जीत कर संसद में पहुंची थीं, अर्थात वे प्रथम निर्वाचित महिला सांसद थीं।
बुंदेलखंड हर दृष्टि से पिछड़ा क्षेत्र रहा है सिवाय साहस के। इस क्षेत्र के लोगों के अदम्य साहस ने हमेशा इस क्षेत्र का सिर ऊंचा रखा है। वह देश की गुलामी का जमाना था। अंग्रेजों के शासन का जमाना था। अंग्रेज सरकार बुंदेलखंड के लोगों के दुस्साहस से इतनी घबराई रहती थी कि उन्होंने दमनकारी नीति अपनाते हुए इस क्षेत्र को शिक्षा और विकास में पीछे रखा। उन्हें लगता था कि बुंदेलखंड की आम जनता आर्थिक विपन्नता के चलते टूट जाएगी और हार मान लेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अंग्रेजों का यह अनुमान गलत साबित हुआ। उन्होंने बुंदेलखंड के इतिहास और तत्कालीन वर्तमान को देखते हुए भी अनदेखा किया जिसके कारण उन्हें बार-बार मुंह की खानी पड़ी और अपने मंसूबों में सफल होने के लिए छल-कपट का सहारा लेना पड़ा। बुंदेलखंड में भी देश के अन्य भागों की भांति स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ता गया। पुरुष, महिलाएं, बच्चे सभी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होते चले गए। तब किसने सोचा था कि जिस बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षत्र में स्त्रियों को घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी थी, वहां से एक महिला गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदार बनेगी। स्वयं सहोदरा बाई राय ने भी यह नहीं सोचा रहा होगा।
सहोदरा बाई राय का जन्म 30 अप्रैल 1919 को दमोह जिले के एक छोटे से गांव बोतराई में हुआ था। उनके पिता वीरेन्द्र सिंह खंगार क्षत्रिय समाज के साधारण किसान थे। सहोदरा बाई राय का मूल नाम सुखरानी था। वे बचपन से ही फुर्तीली और नेतृत्व प्रतिभा से पूर्ण थीं। अपनी बाल्यावस्था में उन्हें कबड्डी, गुल्ली-डंडा, खेलने से ले कर तलवार चलाने का भी शौक था। सहोदरा बाई राय ने अपनी सहेलियों को एकत्र कर एक सेना बनाई थी, जिसका नाम था- “सहोदरा सेना“। यह सहोदरा सेना प्रभात फेरियों का नेतृत्व करती थी। यदि आज उस समय के ग्रामीण अंचल के परिवेश को देखा जाए तो यह सब अविश्वसनीय -सा लगता है।
उन दिनों बुंदेलखंड में भी बालविवाह का चलन था। अतः मात्र 15 वर्ष की आयु में सहोदरा बाई का विवाह दमोह जिले के खेरी ग्राम के खंगार क्षत्रिय परिवार के श्री मुरलीधर के साथ कर दिया गया। दुर्भाग्यवश सहोदरा बाई के वैवाहिक जीवन को जल्दी ही ग्रहण लग गया। किसी अज्ञात बीमारी के कारण मुरलीधर राय का निधन हो गया। एक तो ग्रामीण क्षेत्र और उस पर एक विधवा स्त्री (अवयस्क युवती)। भांति-भांति के कष्टों का सामना उन्हें करना पड़ा। किन्तु सहोदरा बाई ने हार नहीं मानी। तब सहोदरा बाई पर दबाव डाला कि वे एक आम विधवा स्त्री की तरह दब कर रहें और उपेक्षित जीवन जिएं। सहोदरा बाई को यह स्थिति स्वीकार्य नहीं थी। वे ससुराल छोड़ कर दमोह के खेरी ग्राम से सागर के कर्रापुर में अपनी बड़ी बहन के पास आकर रहने लगी। कर्रापुर में उन दिनों भी बड़ी संख्या में महिलाओं द्वारा बीड़ी बनाई जाती थी। सहोदरा बाई आर्थिक रूप से अपनी बड़ी बहन पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं अतः उन्होंने भी अन्य महिलाओं के साथ बीड़ी बना कर आजीविका चलाना आरम्भ कर दिया। यही से सहोदरा बाई को श्रमिकों की समस्याओं का पता चला। वे बीड़ी श्रमिक महिलाओं में जागरूकता लाने के प्रयास करने लगीं।
सहोदरा बाई महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थीं। सन 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की लहर बुंदेलखंड में भी गहराने लगी। धरना, प्रदर्शन, विरोध आदि किए जाने लगे। इस दौरान विरोध स्वरूप तोड़फोड़, आगजनी, सरकारी सम्पत्ति को क्षति भी पहुंचाई गई। रेल लाईन को क्षतिग्रस्त किया गया तथा टेलीफोन के तार काटेगए। सहोदरा बाई भला कैसे पीछे रहतीं? तत्कालीन स्वतंत्रता सेनानी रघुवर प्रसाद मोदी, गोपालकृष्ण आजाद, महेश दत्त दुबे, नारायण गोपीलाल श्रीवास्तव आदि के साथ ही सहोदरा बाई ने अपनी गिरफ्तारी दी। सहोदरा बाई को 6 माह के कारावास की सजा दी गई। सन 1945 में उन्होंने गांधी जी के साथ नौआखाली के दंगापीड़ित क्षेत्रों का दौरा किया और वहीं राहत-कार्य संभाला।
कारावास में रहते हुए सहोदरा बाई को गोआ मुक्ति संघर्ष के बारे में पता चला था। किन्तु वे जेल से बाहर आ कर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कंधे से कंधा मिला कर जूझती रहीं। सन 1947 में देश स्वतंत्र हो गया। किन्तु गोवा उस समय भी परतंत्र था। उस पर पुर्तगालियों का अधिकार था। पुर्तगालियों के विरुद्ध गोवा में पहला विद्रोह 15 जुलाई 1583 को कुंकली में हुआ था। पुर्तगालियों ने बातचीत के लिये कुंकली इलाके से 15 लोगों को बुलाया और उन्हें घेरकर धोखे से हमला कर दिया। जिसमें सभी की मौत हो गई। फिर सन 1788 में पिन्टो विद्रोह हुआ। वितोरिनो फारिया और जोस गोंसाल्वेजजो उस समय पुर्तगाल में थे। दोनों यूरोप में लोकतंत्र के आगमन को देख रहे थे। ये दोनों गोवा लौटे और आजादी व लोकतंत्र के विचार को गोवा में पोषित किया। पिंटो परिवार की मदद से 1788 में विद्रोह हुआ जिसे कुचल दिया गया। गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन इससे थमा नहीं बल्कि 1912 तक राणे समुदाय ने निरंतर पुर्तगालियों से सशस्त्र संघर्ष किया। सन 1930 में पुर्तगाल में कोलोनियल एक्ट पास किया गया जिसके अनुसार पुर्तगाल के किसी भी उपनिवेश में रैली, मीटिंग और अन्य कोई सरकार विरोधी सभा और गतिविधि पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सन 1932 में जब अतोनियो द ओलिवीरा सालाजार पुर्तगाल के शासक बनें, तब गोवा में दमन अपने चरम पर पहुंच गया। इस पर गोवा के क्रांतिकारियों को शेष भारत से समर्थन और सहयोग मिलने लगा। 1955 में एक जत्था गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों के समर्थन में पहुंचा जिसमें सहोदरा बाई भी शामिल थीं। वहां महिलाओं की एक आमसभा आयोजित की गई जिसको सुधाताई जोशी संबोधित कर रही थीं। उसी समय पुलिस ने सशस्त्र धावा बोल दिया और गोलियां चलाते हुए तिरंगे को गिराने का प्रयास किया। तब सहोदरा बाई ने आगे बढ़ कर तिरंगे को थाम लिया। वे पुलिस की गोलियों से घायल हो गईं लेकिन उन्होंने तिरंगे को गिरने नहीं दिया। सहोदरा बाई को क्रांतिकारी सुरक्षित स्थान पर ले गए और तत्काल चिकित्सा कर के उनके प्राण बचा लिए गए।
वीरांगना सहोदरा बाई से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बेहद प्रभावित थीं। उन्होंने सहोदरा बाई को अपने परिवार का सदस्य बताकर अपनी बहन का दर्जा दिया था। इंदिरा ने 1971 के लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और वे जीती भीं। सहोदरा बाई ने कर्रापुर में अपनी जमीन अस्पताल के लिए दान की थी। इस जमीन पर उनके नाम से अब भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र संचालित है। इसके अलावा सागर का पॉलिटेक्निक कॉलेज भी वीरांगना सहोदरा बाई के नाम पर है। सहोदरा बाई का निधन 26 मार्च 1981 को कैंसर से हुआ।
2019 में सागर के पत्रकार शशिकांत ढिमोले की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिससे ज्ञात हुआ था कि इतनी बड़ी वीरांगना के वंशज किस तरह कठिनाई भरा जीवन जी रहे हैं। उनकी एक नाती बहू सरोज रानी और नाती संजय राय कर्रापुर के मकान में निवास करते हैं। वे बिजली फिटिंग का काम करते हैं और मां सरोज बीड़ी बनाने का काम करती हैं। किन्तु उन्हें भी गर्व है कि वे उस वीरांगना के वंशज हैं जो सागर की प्रथम निर्वाचित सांसद थीं।
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