प्रस्तुत है आज 24.10.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री सुखदेव प्रसाद दुबे जी के उपन्यास "जयकारी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
एक स्त्री के संघर्ष पर विचारोत्तेजक उपन्यास : जयकारी
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - जयकारी
लेखक - सुखदेव प्रसाद दुबे
प्रकाशक - इन्द्रा पब्लिशिंग हाउस, ई-5/21, अरेरा काॅलोनी, भोपाल
मूल्य - 495/-
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यदि समाज के कतिपय कुछ विचारों एवं पुरातनपंथी सोच पर दृष्टिपात करें तो ऐसा लगता है मानो हम अभी 21वीं सदी में नहीं वरन 16-17वीं शताब्दी में जी रहे हैं। आज यह साबित हो चुका है कि स्त्रियां पुरुषों से किसी भी अर्थ में कमतर नहीं हैं, फिर भी स्त्रियों की अवहेलना किया जाना एवं कन्या-जन्म पर शोक मनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। एक अदद पुत्र की प्राप्ति की इच्छा में कई बेटियों को पैदा करना और फिर उन्हें ही कोसना कि उनकी जगह पुत्र पैदा क्यों नहीं हुआ, विचित्र है, हास्यास्पद है और दुखद भी। आज विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि गर्भ में बालक होगा या बालिका, यह केवल मां पर निर्भर नहीं होता है। फिर भी मां को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। दो-तीन दशक पूर्व तक ऐसे अनेक मामले प्रकाश में आते थे जिनमें पुत्र की चाह में लगभग हर दो साल में एक शिशु को जन्म दिया जाता था। यह सिलसिला तभी थमता था जब पुत्र की प्राप्ति हो जाती थी। यानी उतने वर्षोंं में आधा समय स्त्री को गर्भवती जीवन व्यतीत करना पड़ता था, गोया पुत्र पैदा न करने की उसके लिए मुकर्रर सज़ा थी यह। लेखक सुखदेव प्रसाद दुबे का उपन्यास ‘‘जयकारी’’ ऐसी ही एक स्त्री की जीवनगाथा है जिसका जन्म लेते ही स्वागत नहीं किया गया, वरन उसे कोसा गया।
नारायण बाबू चार संतानों के पिता बन चुके थे। चारो लड़कियां थीं। अब तो हर हाल में उन्हें पांचवी संतान के रूप में पुत्र ही चाहिए था। यहां तक कि उन्होंने दूसरी स्त्री से संतान पाने का मन भी बना लिया था। नारायण बाबू की पत्नी लक्ष्मी जानती थी कि उसके हाथ में कुछ नहीं है, फिर भी एक परंपरागत पत्नी की भांति हर हाल में अपने पति को एक पुत्र का पिता बनाना चाहती थी। एक बड़े बाबू जिनकी नारायण और लक्ष्मी पर विशेष कृपा थी, वे भी उनसे सहानुभूति रखते थे। बड़े बाबू लक्ष्मी को पुत्रप्राप्ति के उपचार के लिए कोलकाता ले जाते हैं और इधर नारायण एक अन्य स्त्री से पुत्र प्राप्ति का प्रयास करता है। परिणामतः लक्ष्मी एक बार फिर कन्या को जन्म देती है और वह दूसरी स्त्री बालक को। वह दूसरी स्त्री नारायण की विधिवत विवाहिता नहीं थी अतः उसका पुत्र नारायण की वैध संतान नहीं रहता है, फिर भी नारायण का सबसे अधिक लाड़ला रहता है। वहीं, लक्ष्मी की कन्या जो ‘‘अमेच्योर डिलीवरी’’ के कारण सात माह में ही जन्म ले लेती है, कमजोर पैदा होती है। डाॅक्टर कहती है कि इसकी जाने बचाने के लिए इसे अस्पताल ले जाना जरूरी है तो नारायण कोसते हुए कहता है कि यह पैदा ही क्यों हुई? इसे मर जाने दो। वहीं, लक्ष्मी भी एक मां हो कर उसकी ओर देखने से भी मना कर देती है। मगर उस कन्या को जीना था और वह जी गई। उसकी सांवली रंगत पर उसे ‘‘कारी’’ नाम से पुकारा जाने लगा। गोया उसे हर समय अहसास कराया जाना जरूरी हो कि वह काली है, बदसूरत है, अनचाही है।
विगत कुछ अरसे पहले मैंने इससे मिलतेजुलते विषय पर एक कहानी और एक उपन्यास पढ़ा था। कहानी थी आराधना खरे की ‘‘भूल’’, जिसमें उन्होंने एक ऐसी स्त्री के बारे में लिखा था जो अपने पति को संतान प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने की लिखित सहमति दे देती है जिसके लिए उसका पति उसे टोंकता भी है। वही पति संतान पाने के बाद अपनी दूसरी पत्नी और संतान में ऐसा रम जाता है कि अपनी पहली पत्नी के त्याग और अस्तित्व को ही अनदेखा करने लगता है। तब उस पहली पत्नी रूपी स्त्री को अपनी भूल का अहसास होता है। इससे कुछ वर्ष पूर्व पढ़ा था लेखक आर. के. तिवारी का उपन्यास ‘‘करमजली’’। एक ऐसी लड़की की कथा जिसका जन्म अवांछित माना गया और उसे करमजली यानी दुर्भाग्यशालिनी कहा गया। यहां तक कि उसका नाम ही ‘‘करमजली’’ रख दिया गया। अपशब्द समान अपने इसी नाम के साथ वह अपने जीवन के तमाम संघर्षों का सामना करती है और अपनी क्षमताएं साबित करती है।
कन्याओं के साथ इस प्रकार का दोहरा व्यवहार आज की 21 वीं कम्प्यूराईज़्ड सदी में होना समाज की दोहरेपन वाली सोच को उजागर करता है। आज भी लोग इंटरनेट पर ‘‘पुत्र कैसे प्राप्त करें’’ या ‘‘पुत्र पैदा करने के उपाय’’ सर्च करते मिलते हैं। देखा जाए तो यह वैज्ञानिक प्रगति का भी माखौल है। लेखक सुखदेव प्रसाद दुबे ने अपने उपन्यास ‘‘जयकारी’’ में नायिका कारी का वह संघर्ष लिखा है जो उसके जन्म से ही आरम्भ हो जाता है। इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस बालिका के जन्म लेते ही उसकी मृत्यु की कामना की गई हो, उस समयपूर्व जन्मी कमजोर बालिका को क्या कभी भरपेट पोषण दिया गया होगा? प्रायः ऐसे परिवारों में जहां एक पुत्र और अनेक पुत्रियां होती हैं, वे पुत्रियां अघोषित रूप में अपने भाई रूपी पुत्र की सेविकाएं होती हैं। पुत्रियों पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है जितना कि पुत्र के लालन-पालन पर। कारी का जीवन भी अपढ़ और उपेक्षित ही रह जाता किन्तु उसके जैविक पिता बड़े बाबू ने उसके लालन-पालन पर ध्यान दिया और उसे शिक्षित होने का अवसर दिया। किन्तु इससे भी परे कारी और उसके भाई को एक मनोवैज्ञानिक जटिलता का सामना करना पड़ता है। किसी पुत्र और पुत्री के लिए यह जानना कि जिसे वे अपना पिता समझते हैं वह उनका जैविक पिता नहीं है, आहत करेगा ही। पुत्री के लिए यह जानना और अधिक कष्टदायक होगा कि जब उसे पता चले कि उसकी मां को कथित ‘‘नियोग’’ परंपरा का वास्ता दे कर बलात्कार का शिकार बनाया गया था और परिणामस्वरूप उसका जन्म हुआ था। जीवन यदि सामान्य परिस्थितियों से तनिक भी हट कर हो तो संघर्ष बढ़ जाते हैं। सामाजिक एवं पारिवारिक संघर्ष के साथ मानसिक संघर्ष सबसे अधिक प्रभावित करता है। यह मानसिक संघर्ष कई बार गलत निर्णयों की ओर ले जाता है। अनेक भ्रम खड़े करता है। समाज में शक्ति और सम्मान पाने की अदम्य लालसा जगाता है। कारी के साथ भी ऐसा ही हुआ।
कारी उच्चशिक्षा प्राप्त कर के काॅलेज में प्राध्यापिका बन गई किन्तु अपने अस्तित्व का प्रश्न उसे बार-बार भ्रमित करता रहा। काॅलेज का विचित्र वातावरण, यौनसंबंधों को ले कर एक छात्रा के प्रश्न, एक अध्यापिका की संदेहास्पद जीवनशैली आदि ऐसा बहुत कुछ था जो कारी को भ्रमित करता है। वह काली मां की भांति सबल बनना चाहती है। उसकी यही अभिलाषा उसे एक ऐसे स्वामीजी के पास ले जाती है जो तंत्रविद्या के नाम पर स्त्रियों का दैहिक शोषण करते हैं। समय रहते कारी को इस बात का भान हो जाता है और स्वामीजी के प्रति उसका मोहभंग हो जाता है। यद्यपि यहां यह तनिक विचित्र लगता है कि कारी जैसी एक विवेकशील स्त्री तंत्र-अनुष्ठान का नग्ननृत्य तक करती है। उसकी चेतना जागती है सार्वजनिक अर्थात् भक्तों के सम्मुख स्वामीजी से संभोग के प्रश्न पर। खैर, जिन विचित्र स्थितियों में कारी पली-बढ़ी थी वहां उसे उपेक्षा ही मिली थी और मांकाली जैसी शक्ति सम्पन्न बनने की जिजिविषा कारी को उस छोर तक ले जाती है।
उपन्यास में ऐसे कई प्रसंग हैं जो नायिका कारी के लिए चुनौती भरे हैं। वह विचित्र परिस्थितियों में फंसती है, फिर उबरती है किन्तु एक स्त्री के रूप में सर्वशक्तिशाली बनने के अपने सपने को नहीं छोड़ पाती है। ‘शक्तिशाली बनने’ और ‘सर्वशक्तिशाली बनने’ में बहुत अंतर होता है। शक्तिशाली बनने का प्रयास व्यक्ति को कहीं न कहीं विवेकी बनाए रखता है किन्तु सर्वशक्तिशाली बनने का प्रयास उचित और अनुचित की बारीक लकीर को देखने की क्षमता छीन लेता है। कई बार अपने ही विचार, अपनी ही इच्छाएं व्यक्ति के आस-पास ऐसा मायाजाल रच देती हैं कि व्यक्ति दैवीय एवं चमत्कारी स्वरूप को सच मानने लगता है। वस्तुतः यह एक मनोवैज्ञानिक डिस्आॅर्डर है जिसे लेखक ने कारी के चरित्र और विचारों के रूप में बखूबी सामने रखा है। कथानक के अंतिम सोपान में भी ऐसा ही एक चमत्कार घटित होता है जो वैज्ञानिक दृष्टि से तो संभव नहीं है किन्तु चमत्कार के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। यही चमत्कार एक संघर्षशील स्त्री कारी को ‘‘जयकारी’’ बना देता है और समाज उसके जयकारे लगाने लगता है।
मध्यप्रदेश के सोहागपुर में सन 1938 में जन्मे लेखक सुखदेव प्रसाद दुबे का यह तीसरा उपन्यास है। सन 1961 में जबलपुर से भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर होने के बाद दो वर्ष देवास महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में अध्यापन किया। फिर प्रशासनिक सेवा में क्रमशः कलेक्टर, कमिश्नर, प्रबंध संचालक एवं सचिव का कार्य किया। तीन मुख्य मंत्रियों के सचिव भी रहे। सन 1996 में सेवानिवृत्ति के बाद, म.प्र. प्रशासनिक अधिकरण में जज के रूप में चार वर्षों तक न्यायिक कार्य किया। एक वर्ष यूनिसेफ के साथ बाल अधिकारों के लिए काम किया। लगभग चालीस वर्षों तक सेवा करते हुए लगभग पूरा प्रदेश-देश घूमा और जाना। विदेशों में जापान, इंग्लैंड, फ्रांस, फिलिपिन्स एवं अमेरिका गए। शहरी तथा ग्रामीण सभी क्षेत्रों के जन-जीवन से परिचित हुए, समस्याएं जानी और समाधान भी दिए। शिक्षा, संस्कृति, समाज कल्याण, बाल एवं महिला विकास के क्षेत्रों में विशेष रूचि ली और विशेष कार्य भी किए। अपने दीर्घ जीवनानुभवों के आधार पर जो भी लिखा वह अब तक तीन काव्य संग्रह एवं तीन उपन्यास के रूप में प्रकाशित हो चुका है।
कुल 321 पृष्ठों के उपन्यास ‘‘जयकारी’’ में अनेक घटनाक्रम, अनेक उपकथानक एवं अनेक पात्र समेटे हुए है किन्तु सम्पूर्ण कथानक नायिका कारी के इर्दगिर्द ही घूमता है। किन्तु स्त्री जीवन की विडंबना को पूरी गंभीरता से सामने रखा गया है। कारी की मां लक्ष्मी भले ही परंपरावादी पत्नी थी और अपने पति को एक पुत्र देने की उसकी उत्कट अभिलाषा थी किन्तु प्राचीन समय पर किए जाने वाले ‘‘नियोग’’ अर्थात् परपुरुष से संतान पैदा करने की मान्यता प्राप्त प्रथा को वह अपने साथ किया गया बलात्कार ही मानती है- ‘‘लक्ष्मी अपनी उम्र, अपनी उम्मीदों अपनी लालसा, अपने भविष्य के गड़भगड़ विचारों से लड़ती अपनी देह की पूरी ताकत लगाकर अपने को उस अनपेक्षित अचानक आक्रमण से रोकती रही लेकिन फिर थककर बिस्तर पर लुढ़क गई थी और वासना प्रचालित बड़े बाबू के पशुबल का शिकार हो गई।’’
यहां लेखक ने यह बात स्पष्ट कर दी है कि स्त्री सबसे अधिक शिकार होती है समाज की बनाई कुरीतियों की। यदि लक्ष्मी अपनी पुत्री कारी के जन्म पर उसे कोसती है तो वह भी पितृसत्तात्मक समाज के दबाव में आ कर। उसे पता है कि यदि वह पुत्र नहीं दे सकेगी तो उसका पति दूसरा विवाह कर लेगा। जबकि समाज में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि संतान न होने अथवा पुत्र न होने पर किसी स्त्री को दूसरा विवाह करने की अनुमति दी गई हो। चाहे ‘बांझ’ कहलाए अथवा ‘निपूती’, सारे दोष स्त्री को ही झेलने पड़ते हैं। लेखक ने उपन्यास में अनेक स्थानों पर विचारोत्तेजक प्रश्न उठाए हैं। जैसे एक स्थान पर वे पौराणिक उदाहरण गिनाते हुए लिखते हैं-‘‘बनाने वाले ने जाने क्या सोचकर स्त्री को बनाया है कि एक भी स्त्री पुरुष के प्रेम छल से नहीं बच पाती। न मन्दोदरी, न तारा, न कुन्ती, न गांधारी, न रानियां, महारानियां, न देवियां, न अप्सराएं, न गरीब साधारण कन्याएं। पुरुष एक तरफ स्त्री को पवित्रता, यौनी शुचिता तथा सतीत्व की अग्निपरीक्षाओं में झोंकता आ रहा है तो दूसरी तरफ उन्हीं को अपने स्वार्थों के लिए, पराए पुरुषों के पौरुष का शिकार भी बनाते आ रहा हैं। अहिल्या, तो दोनों तरफ से मारी गई थी, इन्द्र ने बलात्कार करके, पति ने श्राप देकर। स्त्री को अकेली देखकर आसमान भी उस पर टूट पड़ता है। पुरुष कितने ही खोटे क्यों न हों, आज तक किसी ने पुरुषों की अग्निपरीक्षा नहीं ली।’’
उपन्यास ‘‘जयकारी’’ में रोचकता है, वैचारिक तीक्ष्णता है, सरल-सहज भाषा है, देशकाल एवं वातावरण का प्रभावी प्रस्तुतिकरण है। यद्यपि कुछेक प्रसंग अव्यवहारिक एवं अवैज्ञानिक प्रतीत होते हैं किन्तु कथानक के साथ वे रचे-बसे हैं अतः विशेष बाधा नहीं पहुंचाते हैं। बस, इसका दीर्घकाय होना वर्तमान व्यस्तता भरे जीवन में अधिक समय की मांग करता है जो कि पाठक कठिनाई से जुटा पाता है। बहरहाल, यह स्त्रीविमर्श रचता पठनीय और विचारोत्तेजक उपन्यास है।
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