Sunday, August 17, 2025

शून्यकाल | स्वतंत्रता दिवस विशेष | स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

शून्यकाल : स्वतंत्रता दिवस विशेष   

स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                          
         "पराधीन सपनेहुँ सुख नाही" गोस्वामी तुलसीदास की यह पंक्ति बिलकुल सही है कि परतंत्रता से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं। दुर्भाग्यवश हमारे देश ने एक, दो नहीं बल्कि पूरे 200 साल की परतंत्रता झेली है। इसीलिए समय-समय पर विद्रोह होते रहे गुलामी का जुआ कंधे से उतार फेंकने के लिए अनेक प्रयास किए गए। ऐसे प्रयासों में बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी अपना योगदान दिया। हमारे भारतीय इतिहास में ऐसी अनेक महिलाएं हुई जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया। बुंदेलखंड में भी अनेक वीरांगनाएं हुई जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपने सुख, सुविधा एवं प्राणों तक का बलिदान कर दिया।  
      पराधीनता मानव का सबसे बड़ा पतन है। गुलाम रहकर कोई भी व्यक्ति सुखी जीवन नहीं बिता सकता। हमारा प्यारा देश भारत सदियों तक परतनता के पाश में जकड़ा रहा। यही कारण है कि कभी सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह देश धीरे -धीरे निर्धन हो गया। स्वतन्त्रता प्राप्त करते ही देश के नागरिक शीघ्रता से प्रगति की ओर बढ़े और अल्पकाल में ही चारों ओर समृद्धि दिखाई देने लगी। किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के इस सफर में अनेक स्त्री पुरुषों ने कठोर संघर्ष किया यहां तक की अपने प्राणों की आहुति भी दी। स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1857 की क्रांति में बुंदेलखंड के वीरों ने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर लोहा लिया। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, और अन्य क्रांतिकारियों ने बुंदेलखंड को स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बनाया।  यूं भी बुंदेलखंड की भूमि वीरों की भूमि रही है। स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की महिलाओं का योगदान याद आते ही सबसे पहला नाम मानस में कौंधता है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का। जिन्होंने हाथ में तलवार लेकर घोड़े पर सवार होकर और अपने मातृत्व धर्म को निभाते हुए पीठ पर अपने नन्हें बालक को बांधकर युद्ध के मैदान में अपनी वीरता का परिचय दिया। महाराष्ट्र में जन्मी लक्ष्मी बाई जब बुंदेलखंड में झांसी की रानी बनकर आईं तो उसके बाद उन्होंने बुंदेलखंड को पूरी तरह से अपना लिया और उसके प्रति समर्पित हो गईं। झांसी की रक्षा के लिए उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लिया वरन् अपनी जान की बाजी भी लगा दी। उनका जन्म 19 नवंबर, 1828 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणिकर्णिका था।पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने मार्शल आर्ट का औपचारिक प्रशिक्षण भी लिया, जिसमें घुड़सवारी, निशानेबाजी और तलवारबाज़ी शामिल थी। मनु के साथियों में नाना साहब (पेशवा के दत्तक पुत्र) और तात्या टोपे शामिल थे।14 साल की उम्र में मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ, जिनकी पहली पत्नी का बच्चा होने से पूर्व ही निधन हो गया था जो सिंहासन का उत्तराधिकारी होता। अतः मणिकर्णिका झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई बन गई। रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसकी जन्म के तीन महीने बाद ही मृत्यु हो गई। बाद में दंपति ने गंगाधर राव के परिवार से एक बेटे दामोदर राव को गोद ले लिया। सन 1853 में जब झाँसी के महाराजा की मृत्यु हो गई, तो लॉर्ड डलहौजी ने गोद लिये गए बच्चे को उत्तराधिकारी के रूप स्वीकार करने से इनकार कर दिया और राज्य पर कब्ज़ा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी ताकि झाँसी साम्राज्य को विलय से बचाया जा सके। किन्तु 17 जून, 1858 को युद्ध के मैदान में लड़ते हुए वे मृत्यु को प्राप्त हुईं । 

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भांति वीरांगना झलकारी बाई का नाम भी स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। वे एक बहुत छोटे से गांव जिसका नाम था लड़िया, में कोरी परिवार में पैदा हुई थीं। झलकारी का बचपन का नाम झलरिया था। उनके माता-पिता की आर्थिक दशा अत्यंत शोचनीय थी किंतु उन्होंने अपनी बेटी झलकारी का लालन-पालन पूरे ममत्व और लगन से किया। समय आने पर झलकारी बाई का विवाह झांसी में निवास करने वाले पूरन कोरी के साथ हुआ। झांसी में रहते हुए झलकारी बाई रानी लक्ष्मी बाई के संपर्क में आईं। वे लक्ष्मी बाई के व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित हुईं। रानी ने भी एक सखी के समान झलकारी बाई को अपनाया। झलकारी बाई ने रानी की वफादारी का हलफ उठाया। ण्क बार उन्होंने अपने पति पूरन कोरी से कहा था कि ‘‘हम पर रानी को एहसान है। हमने उनको नमक खाओ है। हम दिखा देहें के झलकारी का है।’’ 
रानी लक्ष्मी बाई ने स्त्रियों के जो विशाल सेना बनाई थी उसमें झलकारी को मुख्य स्थान दिया गया था। झलकारी ने भी लक्ष्मी बाई के हर सैन्य अभियान में उनका साथ दिया। एक बार झलकारी ने सभी जाति की स्त्रियों को इकट्ठा करके इतना जोशीला भाषण दिया था कि महिलाएं इतनी उत्तेजित हो उठी थीं कि उन्होंने स्वयं अपने हाथों में बंदूक उठाकर अंग्रेजों पर निशाना साधना शुरू कर दिया था। झलकारी ने इस बुंदेली कहावत को चरितार्थ कर दिया था कि ‘‘गर्दन कट जाए पर शीश नहीं झुकेगा’’।

जैतपुर बुंदेलखंड की एक छोटी-सी रियासत थी 27 नवंबर 1842 को लार्ड एलेन रोने जैतपुर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। उस समय जैतपुर के राजा परीक्षित थे जो आजादी के दीवाने थे। उन्होंने अंग्रेजों से युद्ध किया किन्तु सैन्यबल की कमी होने से उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। अंग्रेज सरकार ने जैतपुर का शासन अपने चाटुकार सामंत को दे दिया। जैतपुर के राजा इस दुख को सहन न कर सके और उनका प्राणांत हो गया। राजा परीक्षित की रानी को अपने पति के राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेज सरकार के विरुद्ध क्रांति का रास्ता अपनाना पड़ा। जैतपुर, सिमरिया को रानी ने अंग्रेजों से छीन लिया। तब स्थानीय मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध रानी ने जैतपुर में एक हथियारबंद सेना रख्ना शुरू कर दिया। जैतपुर की रानी को मजिस्ट्रेट ने दोबारा चेतावनी दी कि वे जैतपुर से अपने हथियारबंद सेना हटा दें। लेकिन रानी मजिस्ट्रेट के दबाव को मानने को तैयार नहीं हुई। अंततः रानी को चेतावनी दी गई। फिर भी वे नहीं झुंकीं।

जालौन उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा हिस्सा है। इसी जालौन में वीरांगना ताई बाई ने सन् 1857 की क्रांति में हिस्सा लेकर लगभग 7 माह जालौन जनपद में स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार स्थापित करके उसके प्रमुख के रूप में कार्य किया और अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे राव साहब तात्या टोपे आदि की धन तथा सैन्य बल से सहायता की। अंग्रेज तो उनसे अधिक नाराज थे कि जनपद के जनमानस से उनकी स्मृति को मिटाने के लिए उनके किले को तुड़वा कर जमीन में मिला दिया गया। 

 बांदा नवाब की बेटी राबिया बेगम का नाम भी बुंदेलखंड की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महिलाओं में एक अग्रणी नाम है। अल्पायु में ही उन्हें इस बात का एहसास हो गया था कि जब तक अंग्रेजों को बुंदेलखंड से दूर नहीं किया जाएगा तब तक बुंदेलखंड का विकास नहीं हो सकेगा। बुंदेलखंड के विभिन्न राज्य सुरक्षित नहीं रह सकेंग। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने हाथों में तलवार ले कर अंग्रेजों का सामना किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।

 सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश में स्वतंत्रता आंदोलन क्रमशः चलता रहा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चलाया गया। इस असहयोग आंदोलन में भी बुंदेलखंड की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। झांसी की पिस्ता देवी तथा चंद्रमुखी देवी की प्रमुख भूमिका रही। इन दोनों महिलाओं ने नगर के मोतीलाल पुस्तकालय के सामने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। झांसी की ही लक्ष्मण कुमारी शर्मा, रानी राजेंद्र कुमारी, काशीबाई आदि महिलाएं भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान देकर अमर हो गई।
हमीरपुर जिले में असहयोग आंदोलन में सहयोग दिया राजेंद्र कुमारी ने। रानी राजेंद्र कुमारी ने खादी को अपनाया तथा स्वतंत्रता संग्राम के पक्ष में पर्चे भी बांटे, जेल गईं। राठ की गंगा देवी, वीरा गांव की गुलाब देवी, बांदा की अनुसूया देवी ने अपने नेतृत्व में महिलाओं को संगठित किया तथा घर-घर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन के महत्व को समझाने का बीड़ा उठाया जिसके कारण उन्हें अंग्रेजों का विरोध झेलना पड़ा। 

सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वृंदावन लाल वर्मा की पत्नी कांति देवी भी स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी महिलाओं में से एक रहीं। छतरपुर रियासत की सरयू देवी पटेरिया गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को बुंदेलखंड में प्रसारित करने में अग्रणी रहीं जिसके कारण उन्हें गर्भवती स्थिति में भी जेल में रखा। पन्ना, दमोह और सागर की महिलाएं भी स्वतंत्रता आंदोलन में पीछे नहीं रहीं। सभी ने अपने पारिवारिक कर्तव्यों को निभाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और देश को आजाद कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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