Thursday, August 21, 2025

चर्चा प्लस | प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

(दैनिक, सागर दिनकर में 21.08.2025 को प्रकाशित)  
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चर्चा प्लस           
प्रासंगिकता ‘कोल्हू के बैल’ और ‘थाली के बैंगन’ की
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                             कहावतों की दुनिया निराली होती है क्योंकि कहावतें इसी दुनिया से जन्म लेती हैं और दुनिया तो निराली है ही। दो बहुप्रचलित कहावतें हैं-‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। यद्यपि नई पीढ़ी इनके अर्थ रट के भले ही इन्हें जान ले किन्तु उस समय तक इनका व्यवहारिक अर्थ नहीं समझ सकती है जब तक कि इन्हें राजनीति से जोड़ कर न बताया जाए। बस, यही तो खूबी है कहावतों की कि वे कहीं भी फिट की जा सकती हैं इसीलिए उनके मूल संदर्भों के विलुप्ति की कगार पर होते हुए भी उनकी अर्थवत्ता बनी हुई है। तो चलिए परखते हैं ‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’ की अर्थवत्ता एवं प्रासंगिकता को।  
        किसी भी चर्चा के दौरान कहावतें स्वतः वाणी में उतर आती हैं। जैसे कोई व्यक्ति काम बिगाड़ दे तो दूसरा उस पर झल्ला कर यही कहेगा कि ‘‘अकल के अंधे हो क्या? सब गड़बड़ कर दिया।’’ अंधा तो आंख का ही होगा न! जी नहीं, अकल के अंधे भी होते हैं। जब किसी को अकल का अंधा कहा जाए तो वहीं इस एक मुहावरे का प्रयोग खुद-ब-खुद हो जाता है और तगड़े कटाक्ष के सहित। यह जरूरी नहीं है कि हमेशा कटाक्ष के लिए अथवा डांट-डपट के लिए ही मुहावरों या कहावतों का प्रयोग किया जाए। किसी भी संदर्भ में कोई भी कहावत बोली जा सकती है। जैसे किसी की अतिगरीबी को बयान करने के लिए कह दिया जाता है कि ‘‘नंगा धोए क्या और सुखाए क्या?’’ यहां ‘‘नंगा’’ शब्द अति गरीबी का परिचायक है। जिसके पास वस्त्र ही न हो वह कौन से कपड़े धोएगा और, कौन से कपड़े धो कर सुखाएगा? मार्मिक दृश्यात्मकता है। वहीं यदि कह दिया जाए कि ‘‘नंगे से तो भगवान भी डरता है’’ तो यहा ‘‘नंगे’’ से आशय निर्लज्ज, ढीठ, अड़ियल व्यक्ति से होगा। इसीलिए कहावतों या मुहावरों की दुनिया निराली होती है। ये कहावतें जीवन के अनुभवों से जन्मती हैं। लेकिन जीवन जिस तेजी से बदला है उसमें बहुत सी कहावतों के मूल प्रसंग एवं संदर्भ खो गए हैं। जैसे एक कहावत है- ‘‘कोल्हू का बैल’’। अब न पारंपरिक कोल्हू कहीं दिखाई देता न कोल्हू चलाते बैल। बिजली से चलने वाले कोल्हू भी अब इलेक्ट््रानिक रूप ले चुके हैं। कम्प्यूटराइज़्ड जमाने में बैल वाला कोल्हू कहां मिलेगा? नई पीढ़ी और वह भी हिन्दी भाषा एवं साहित्य पढ़ने वाली नई पीढ़ी ‘‘कोल्हू का बैल’’ मुहावरे को रटती है, पर समझ नहीं पाती है। 

युवा पीढ़ी के लिए कई कहावतें अबूझ हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। समय की परिवर्तनशीलता ने अनेक कहावतों के परिदृश्य को लगभग विलोपित कर दिया है। बात चल रही थी ‘‘कोल्हू के बैल’’ की, तो कोल्हू वह विशालकाय यंत्र होता था जो खल और मूसल की भांति लकड़ी का बना होता था। मूसल को चलाने के लिए उसमें लकड़ी का जुआ जोड़ा जाता था जिसे बैल की गरदन पर बांध दिया जाता था। बैल उस जुए को लाद कर खल के चारो ओर गोल-गोल चक्कर काटता था जिससे खल में डाला गया सरसों, मूंगफली या तिल आदि के दाने पिस जाएं और उनसे तैल निकल आए। गोल चक्कर काटते हुए बैल को चक्कर न आ जाए, इसीलिए उसकी दोनों आंखों के बाजुओं में पट्टे बंाध दिए जाते थे ताकि उसे भ्रम हो कि वह लम्बाई में कहीं दूर चला जा रहा है। उस बैल को सुबह से रात तक काम करना पड़ता था। वह भी एक ही स्थान पर गोल-गोल चक्कर काटते हुए। इसीलिए एक ही स्थान पर अथक मेहनत करने वाले जो तैल निकालने जैसा कठिन काम करता है किन्तु मुनाफे में से उसे मात्र चारा-भूसा जैसा परिणाम मिलता है। ऐसे लोगों के लिए इस कहावत का प्रयोग किया जाता है। बस, वे एक भ्रम में चलते चले जाते हैं। जैसे कई कर्मचारी यह भ्रम पाल लेते हैं कि सिर्फ़ उनकी मेहनत से कार्यालय का सारा कामकाज चल रहा है। ऐसे लोग कभी छुट्टियां नहीं लेते, फोकट में ओव्हर टाईम काम करते हैं। उस समय वे यह भूल जाते हैं कि जब वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे उसके बाद भी कार्यालय के सभी काम उसी तरह सुचारु चलते रहेंगे। ऐसे कर्मचारी स्वयं को कोल्हू का बैल बना कर प्रसन्न रहते हैं।

 खैर, कर्मचारियों को छोड़िए क्योंकि आजकल मल्टीनेशनल कंपनी का प्रत्येक कर्मचारी कोल्हू का बैल होता है। तो फिर, क्यों न बात की जाए राजनीति की? क्योंकि हर व्यक्ति तो मल्टीनेशनल कंपनी का कर्मचारी होता नहीं है। जबकि हर व्यक्ति राजनीति से कुछ न कुछ सरोकार रखता ही है। चाहे नेता के रूप में हो या मतदाता के रूप में या फिर ट्रोलकर्ता के रूप में। यूं भी राजनीति में खुदमुख़्तारी यानी स्वयं की सत्ता होती है। विरले ही होते हैं जिन्हें ठेल-ठाल कर राजनीति में पहुंचा दिया जाता है अन्यथा अधिकांश तो अपनी बेरोजगारी को ढांपने अथवा सुनहरे भविष्य की मृगमारीचिका को ले कर राजनीति के मैदान में उतर जाते हैं।

अनेक छुटभैये जो जीवनभर अपने प्रिय नताओं के लिए कोल्हू का बैल बने रहते हैं उन्हें भी यही भ्रम होता है कि वे एक दिन राजनीति के कलछौंहे आकाश में चमकते सितारे बन जाएंगे। यही भ्रम उनसे अपने आका का हर आदेश मनवाता है। ये छुटभैये गली-गली घूम कर पोस्टर चिपकाने और अपने आका के जयकारे लगवाने में भी स्वयं की अर्थवत्ता महसूस करते हैं। जैसे कोल्हू का बैल वहीं-वहीं एक वर्तुल या गोले में चक्कर लगाता हुआ भी समझता है कि वह अपने मालिक को साथ ले कर कहीं दूर यात्रा पर निकला है। यही समझ का फेर छुटभैयों को कोल्हू का बैल बनाए रखता है। फिर यदि कुछ को समझ में आ भी जाए तब भी वे सोचते हैं कि कुछ न होने से कुछ दिखने में कोई बुराई नहीं है। अरबों की जनसंख्या में कुछ सैंकड़ा तो यह मान ही लेंगे कि वे छुटभैये अपने आका के निकटतम हैं, खास हैं। इसीलिए तो उन्हें पोस्टर चिपकाने और जयकारे लगाने का काम दिया गया है। वैसे ध्यान से देखा जाए तो भ्रम का सबसे बड़ा लाभ इन्हें मिल ही जाता है। क्योंकि ऐसे लोगों को आका की बैठक में भी प्रवेश की अनुमति नहीं होती है किन्तु वे द्वारपाल की भांति दरवाजे के बाहर मंडराते रहते हैं। जिससे जन्मजात भोली जनता को उनके खास होने का भ्रम हो जाता है। जनता सोचती है कि फलां छुटभैया हमेशा उस बड़े नेता के दरवाजे पर दिखता है यानी वह उस नेता का खास है। नेता से यदि कोई काम है तो पहले उसे खुश करना होगा, पटाना होगा। सो इस तरह छुटभैयों को शुद्ध तैल नहीं तो कम से कम चारा-भूसा मिल जाता है। वे इसी में खुश रहते हैं। जब चुनावों का मौसम आता है तो ऐसे छुटभैयों को दूसरे राज्यों में भी जा कर कोल्हू चलाने का अवसर मिल जाता है, बदले में रोटी-कपड़ा और कुछ पैसे तो मिलते ही हैं।

अब बात करते हैं दूसरी कहावत की- ‘‘थाली का बैंगन’’। छोटे शहरों, गांवों, कस्बों में तो अभी भी गृहणियों को स्वयं सब्जियां काटनी पड़ती हैं, अन्यथा मेट्रो सिटीज़ में कटी-कटाई सब्ज़ियां भी बिकने लगी हैं। जिन्हें खाने की होम डिलेवरी नहीं मंगानी है और घर में कम से कम मेहनत में खाना पकाना है उसके लिए कटी हुई सब्ज़ियां खरीदना एक लुभावना आॅप्शन होता है। मेहनत और अनुभवों से दूर भागने का यह भी एक रूप है। अतः जो साबुत सब्ज़ियां अपने घर में लाते हैं वे थाली में बैंगन को रख कर इस कहावत को चरितार्थ होता देख सकते हैं। बैंगन की बनावट ही ऐसी होती है कि वह थाली में एक स्थान पर नहीं टिक पाता है। थाली ज़रा सी हिली नहीं कि वह इधर से उधर लुढ़क जाता है। उसकी इसी प्रवृति को ले कर ‘‘थाली का बैंगन’’ कहावत बनी। इस कहावत को उन लोगों पर लागू किया जाता है जो जरा सी हलचल में अपनी पाली बदल लेते हैं अथवा अपने वचन से फिर जाते हैं। यदि कर्मचारियों में देखा जाए तो ऐसे कर्मचारी अपने साथियों के सामने अपने बाॅस की बढ़-चढ़ कर बुराई करते मिलेंगे, किन्तु वे ही जब अपने बाॅस के कक्ष में पहुंचते हैं तो बाॅस का गुणगान करते हुए अपने साथियों की बुराइयां गिनाने लगते हैं। फिर भी ‘‘थाली का बैंगन’’ का यदि सही-सही अर्थ समझना है तो राजनीति से बढ़ कर कोई अच्छा उदाहरण हो ही नहीं सकता है। पिछले कुछ वर्षों में थाली के बैंगनों की जो बाढ़ आई वह हम सबने देखी ही है। अनेक बैंगन अर्थात अनेक नेता इस पार्टी से उस पार्टी में लुढ़क गए। जिन्होंने कभी श्रीराम का नाम नहीं लिया, वे भी श्रीराम के अनन्य भक्त हो गए। लेकिन यह बात सिर्फ़ आज की या पिछले कुछ वर्षों की नहीं है, थाली के बैंगनों ने तो लोकतंत्र की नई परिभाषा ही गढ़ दी थी। 

स्वतंत्र भारत में सन् 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में पहले आम चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था। अन्य पार्टियों की कुल सीटें 223 के मुकाबले कांग्रेस को 152 सीटें मिली थीं। तब दक्षिण भारत के दिग्गज नेता टी. प्रकाशम के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि तत्कालीन राज्यपाल ने सेवानिवृत्त गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। जबकि सी. राजगोपालाचारी विधान सभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद दलबदल का दौर चला और 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस के पक्ष में आ गए। परिणामस्वरूप राजाजी मुख्यमंत्री बन पाए। दलबदल की राजनीतिक प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए राजाजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘दल के सदस्यों का सामूहिक दलबदल लोकतंत्र का सार है। सामूहिक रूप से दलबदल का आधार कई बार निजी स्वार्थों की अपेक्षा दलों और उनके नेताओं का अशिष्टतापूर्ण व्यवहार होता है। अगर हम विधायकों की या अन्य सदस्यों की अपना दल बदलने की स्वतंत्रता छीन लें, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। दलों के प्रति आस्था को कट्टर जाति-प्रथा का रूप धारण नहीं करने देना चाहिए, बल्कि इसके लचीलेपन को कायम रखना चाहिए, अन्यथा परिवर्तन के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा।’’
 लगभग साल भर बाद इसी राजनीतिक मंच पर यही नाटक पुनः प्रस्तुत किया गया। टी. प्रकाशम को कांग्रेस की ओर से आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन दिया गया। प्रकाशम ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और मुख्यमंत्री के पद के समक्ष अपने दल को त्यागने की अपनी ‘‘अंतरात्मा की आवाज’’ को सुना। यदि अंतरात्मा की आवाज़ के तर्क को स्वीकार किया जाए तो यह भी मानना होगा कि हर बैंगन में अंतरात्मा होती है। होनी भी चाहिए आखिर वनस्पतियों में भी जीवन पाया जाता है। यह बात और है कि एक टूटा हुआ बैंगन जो वस्तुतः जीवन से नाता तोड़ चुका होता है वही थाली में लुढ़कता है, पौधे में लटका हुआ बैंगन कभी, कहीं नहीं लुढ़कता। किन्तु राजनीति के बैंगन तो संजीवनी की आशा में यहां से वहां लुढ़कते हैं। जो कल नास्तिक थे, वे आज घोर आस्तिक हो गए और जो आज आस्तिक हैं वे कल फिर से घोर नास्तिक हो सकते हैं, यदि राजनीतिक परिदृश्य बदल गया तो। 

तो ये थी दो कहावतें ‘‘कोल्हू का बैल’’ और ‘‘थाली का बैंगन’’। इनकी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता तब तक समाप्त होने वाली नहीं है जब तक समाज और राजनीति से इन्हें प्राणवायु मिलती रहेगी।  
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