शून्यकाल | भाल्लुक राज जामवंत थे सत्य अथवा मिथक पात्र? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर
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शून्यकाल
भाल्लुक राज जामवंत थे सत्य अथवा मिथक पात्र?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह रामकथा में जामवंत भालुओं के राजा हैं। वाल्मीकि के अनुसार जामवंत अत्यंत अनुभवी और बुद्धिमान थे। उन्हें राज्य संचालन का अच्छा ज्ञान था। वे सुग्रीव के सलाहकारों में से एक थे। जामवंत ने राजा सुग्रीव को सलाह दी कि वे हनुमान को श्रीराम और लक्ष्मण की पहचान करने के लिए भेजें, ताकि पता चल सके कि वे कौन हैं और उनका उद्देश्य क्या है? जामवंत ने श्रीराम को सीता को खोजने और उनके अपहरणकर्ता रावण से युद्ध करने में सहायता की थी। उन्होंने हनुमान को उनकी अपार क्षमताओं का करा कर उन्हें सीता की खोज के लिए समुद्र पार जाने के लिए प्रोत्साहित किया था। क्या एक भालू यह सब कर सकता था? जामवंत को भाल्लुक क्यों कहा गया? क्या वे एक मिथक समान वन्य पशु थे अथवा वास्तविक प्राणी थे?
जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
-भावार्थ है कि जामवंत ने श्रीराम से कहा कि ‘‘हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं।’’
जामवंत, परशुराम और हनुमान तीनों रामकथा के ऐसे पात्र हैं जो दो युगों तक उपस्थित रहे अर्थात रामायाण काल में भी और महाभारत काल में भी। राम और कृष्ण दोनों के समय जामवंत के होने का उल्लेख मिलता है। जामवंत के जन्म की कथा है कि जब ब्रह्मा विष्णु की नाभि से कमल पर विराजमान थे, तब उन्होंने ध्यान किया और जम्हाई ली, जिससे एक रीछ का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जामवंत कहलाया। यह भी मान्यता है कि जम्बूद्वीप पर पैदा हुए थे इसलिए उनका नाम जामवंत पड़ा।
प्रश्न यह है कि क्या जामवंत सचमुच रीछ या भाल्लुक थे? यदि ऐसा था तो वे श्रीराम तथा वानरों से संवाद कैसे कर सकते थे? एक पालतू पशु बन कर श्रीराम के प्रति अपनी स्वामीभक्ति तो प्रदर्शित कर सकते थे किन्तु वानर अंगद, सुग्रीव एवं हनुमान से वार्तालाप कैसे कर सकते थे? एक भालू और वानरों के बीच संवाद का होना भला कैसे संभव है? जामवंत जिन्हें रामायण में तथा अन्य रामकथाओं में भाल्लुक राज कहा गया है, उनका उल्लेख हनुमान को लंका भेजने के लिए उनकी शक्ति का स्मरण कराते एवं समझाते हुए है।
वाल्मीकि ‘‘रामायण’’ के किष्किन्धा काण्ड के सर्ग 65 में रोचक वार्तालाप है जिसमें अंगद, जामवंत आदि की अन्य वानरों एवं भाल्लुकों से लंका जाने के संबंध में चर्चा हो रही है। सौ योजन, यानी हजार मील चैड़ा समुद्र देखकर वानर व्याकुल हो जाते हैं, क्योंकि कोई भी उसे लांघ नहीं सकता। हर महत्वपूर्ण वानर कहता है कि उसकी क्षमता उससे कम है। अंगद फिर से निराश हो जाते हैं क्योंकि उनके भावी राजत्व के नाम पर न तो कोई आगे आ रहा है और न ही उन्हें जाने दिया जा रहा है। लेकिन जाम्बवन्त उन्हें शांत करते हैं और हनुमान को समुद्र लांघने के कार्य के लिए प्रोत्साहित और उत्साहित करते हैं। तब अंगद के वचन सुनकर उन श्रेष्ठ वानरों, अर्थात् गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गंधमादन, मैन्द, द्विविद, सुशेषण, आदि ने अपनी-अपनी बारी के अनुसार समुद्र लांघने की अपनी-अपनी क्षमताओं के बारे में बताया।
इस विषय में गज ने कहा, ‘‘मैं दस योजन तक उड़ सकता हूं।’’
गवाक्ष ने कहा, ‘‘मैं बीस योजन तक जा सकता हूं।’’
शरभ ने कहा, ‘‘हे योजन-कूदने वालों, मैं सचमुच तीस योजन तक जा सकता हूं।’’ उसने आगे कहा कि, ‘‘और अतिआवश्यक होने पर मैं निस्संदेह चालीस योजन तक जा सकता हूं।’’
गंधमादन ने कहा, ‘‘मैं निस्संदेह पचास योजन तक जा सकता हूं।’’
वानर मैंदा ने कहा, ‘‘मैं केवल साठ योजन तक कूदने का साहस कर सकता हू।’’
महातेजस्वी द्विविद ने कहा कि, ‘‘मैं निस्संदेह सत्तर योजन तक जा सकता हूं।’’
शुषेण ने कहा, ‘‘मैं अस्सी योजन कूदने का वचन देता हू।’’
तब जामवंत ने वानरों को फटकारा कि ‘‘तुम सबके पास कूदने की योग्यता की कमी नहीं है, बल्कि यह तुम्हारा रावण का भय है जो तुम्हें रोक रहा है।’’
इस पर अंगद ने कहा कि ‘‘मैं इस सौ योजन चैड़े समुद्र को पार कर सकता हूँ, लेकिन मैं वापस आ पाऊंगा या नहीं, यह अनिश्चित है।’’
तब जामवंत ने अंगद से कहा कि, ‘‘हे अंगद, वानरों और भालुओं में श्रेष्ठ, मैं तुम्हारी पारगम्यता के बारे में जानता हूं। सौ ही क्यों, यदि आवश्यकता हो तो तुम एक लाख योजन तक जाकर वापस आ सकते हो। लेकिन तुम्हें भेजने का हमारा यह तरीका असंवैधानिक है। हे अंगद, किसी भी तरह से स्वामी समनुदेशक समनुदेशिती नहीं हो सकता, इसलिए हे श्रेष्ठ योजन-कूदने वाले, ये सभी लोग तुम्हारे द्वारा समनुदेशित हैं। तुम हमारे स्वामी के रूप में स्थापित हो और हमें तुम्हारा रक्षक बनना है। हे शत्रु-अधीनस्थ, वास्तव में आप ही इस अभियान के आधार स्तंभ हैं, अतः हे प्रिय अंगद, आपको सदैव उसी प्रकार सुरक्षित रखा जाना चाहिए जैसे किसी भी चीज की रक्षा की आवश्यकता होती है। हे सत्य-वीर अंगद, आप इस कार्य के निमित्त हैं और चूंकि आपमें बुद्धिमत्ता और साहस है, हे शत्रु-प्रज्वलित करने वाले, आप सीता की खोज के इस कार्य के आधारशिला हैं। हमारे लिए आप स्वयं भी पूजनीय हैं, और आदरणीय बाली के पुत्र होने के नाते भी पूजनीय हैं। और हे श्रेष्ठ वानर, आपकी शरण में आकर हम अपने कार्य के उद्देश्य को प्राप्त करने में समर्थ हैं।’’ ऐसा जामवंत ने अंगद से कहा।
‘‘यदि मैं लंका नहीं जा रहा हूँ, और न ही कोई अन्य वानर जा रहा है, तो हमें एक बार फिर आत्मदाह करना होगा, है न! उस दृढ़निश्चयी वानरराज सुग्रीव की आज्ञा का पालन किए बिना किष्किंधा जाने पर मुझे अपने प्राणों की कोई सुरक्षा नहीं दिखाई देती सुग्रीव एक ऐसे राजा हैं जो या तो क्षमा या क्रोध का अत्यधिक प्रदर्शन करते हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करके हमारा किष्किंधा जाना, अपने ही विनाश में प्रवेश करने के समान है। यह इसी प्रकार होगा, क्योंकि हमारे किष्किंधा लौटने का कोई अन्य परिणाम नहीं है, अतः आपके लिए यह उचित होगा कि आप गहराई से सोचें, क्योंकि आप इसके परिणामों की कल्पना कर सकते हैं।’’ अंगद ने जामवंत से कहा।
‘‘हे वीर अंगद, तुम्हारा यह कार्य तनिक भी विफल नहीं होगा। जो सीता की खोज के इस कार्य में सफल होगा, मैं उसे प्रेरित करूंगा।’’ जामवंत ने अंगद को विश्वास दिलाया। इसके बाद जामवंत तथा उसके बाद अंगद ने लंका जाने के लिए हनुमान से अनुरोध किया।
जामवंत का उल्लेख रामकथा में ही नहीं अपितु उसके अगले युग की कृष्णकथा में भी है। महाभारत में उल्लेख है कि जामवंत ने एक सिंह का वध किया था, जिसने प्रसेन से स्यमंतक नामक मणि प्राप्त की थी। कृष्ण को मणि के लिए प्रसेन की हत्या का संदेह था, इसलिए उन्होंने प्रसेन का पीछा किया। उन्हें पता चला कि प्रसेन को एक शेर ने नहीं बल्कि एक भालू ने मार डाला था। वह भालू जामवंत था। कृष्ण ने जामवंत का पीछा उसकी गुफा तक किया और युद्ध शुरू हो गया। भागवत पुराण के अनुसार कृष्ण और जामवंत के बीच युद्ध 27-28 दिनों और विष्णु पुराण के अनुसार 21 दिनों तक चले इस युद्ध में जामवंत थकने लगे। जामवंत ने समर्पण कर दिया। उसने कृष्ण को मणि दी और अपनी पुत्री जामवंती का विाह भी उनसे कर दिया। कृष्ण और जामवंती का एक चंचल पुत्र था जिसका नाम साम्ब था, जो लोगों को परेशान करता रहता था। एक बार उसने गर्भवती स्त्री का वेश धारण किया और अपने चचेरे भाइयों के साथ मिलकर कुछ ऋषियों को मूर्ख बनाने की कोशिश की। जिसके परिणामस्वरूप एक श्राप मिला जिससे यादवों का विनाश हो गया।
इन सारी कथाओं एवे संदर्भों से यही सिद्ध होता है कि जामवंत मिथक पात्र नहीं अपितु वास्तविक पात्र थे। वे भाल्लुक नहीं बल्कि ऐसे वनवासी मनुष्यों के समुदाय के थे जो भाल्लुकों का मुखौटा धारण करते थे। ठीक वैसे ही जैसे वानर समुदाय के लोग वानरों का मुखौटा लगाते थे। वस्तुतः यह उनके अपने कबीलों की विशिष्ट पहचान थी। वे सभी वीर योद्ध एवं अत्यंत विचारशील, प्रतिभावान मनुष्य थे। वनक्षेत्र में रहने के कारण अपनी पहचान भी उन्होंने वन्य पशुओं से चुनीं। ‘‘रामायण’’ के किष्किन्धा काण्ड के सर्ग 65 के उपरोक्त वार्तालाप से भी स्पष्ट होता है कि उन वन-कबीलों के बीच सभाएं एवं मंत्राणाएं हुआ करती थीं। जिस प्रकार असुर समुदाय, वानर समुदाय मनुष्य था उसी प्रकार भाल्लुक समुदाय भी मनुष्य था जिसके राजा जामवंत थे।
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