Thursday, June 30, 2022

Now I'm Fully Vaccinated - Dr (Ms) Sharad Singh

मित्रो, मैंने आज बूस्टर डोज़ लगवा लिया🎉
🚩 Now I'm Fully Vaccinated - Dr (Ms) Sharad Singh 🚩
30.06.2022
आप लोगों में से जिसने बूस्टर डोज़ नहीं लगवाया है, जल्दी लगवा लीजिए 😊
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Wednesday, June 29, 2022

चर्चा प्लस | संदर्भ रथयात्रा : अर्द्धनिर्मित भगवान और अधैर्यवान मानव | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
संदर्भ रथयात्रा : अर्द्धनिर्मित भगवान और अधैर्यवान मानव 
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           आज सब कुछ जल्दी हासिल कर लेने की ललक बढ़ गई है। जल्दी पढ़ाई पूरी हो जाए, जल्दी नौकरी मिल जाए, जल्दी सफलता मिल जाए, जल्दी भौतिक सुख-सुविधाएं मिल जाएं और यहां तक कि जल्दी प्रेम भी मिल जाए। यह उतावलापन हमें भ्रमित करने लगा है। जबकि धैर्य जीवन के लिए सबसे जरूरी तत्व है। यदि पुराणों की मानें तो हमारा उतावलपन हमारे भगवान को भी अधूरेपन से भर देता है।  
मनुष्य स्वभाव से जिज्ञासु होता है। उसकी जिज्ञासा की यह प्रवृत्ति कभी-कभी हानिकारक एवं विघ्वंसक भी हो जाती है। मनुष्य की जिज्ञासा ही है जिसने उसे वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रेरणा दी और इसी जिज्ञासा ने उससे परमाणु बम, जैविक हथियार और कृत्रिम वायरस भी बनवाए। मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना की और फिर उसे भी अपनी जिज्ञासा का शिकार बना कर अर्द्धनिर्मित रहने को विवश कर दिया। जी हां, संदर्भ है उस रथयात्रा का जो पुरी में निकाली जाती है जिसमें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अर्द्धनिर्मित प्रतिमाएं भ्रमण पर निकलती हैं। पुरी का वह मंदिर मनुष्य के उतावलेपन का प्रतीक है जहां जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अर्द्धनिर्मित प्रतिमाएं स्थापित हैं। यद्यपि भारतीय संस्कृति में अर्द्धनिर्मित मूर्तियों का पूजन निषेध है। किन्तु ये प्रतिमाएं प्रमाण हैं मनुष्य की अधैर्यता का।
वस्तुतः जिज्ञासु हर प्राणी होती है। एक बिल्ली का बच्चा या पक्षी का चूजा भी सारी दुनिया को जान लेना चाहता हैं। मनुष्य भी प्राणी है। उसमें भी सबकुछ जानने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन जितना अधैर्य मनुष्य में होता है, उतना शायद और किसी प्राणी में नहीं होता। जगन्नाथ पुरी की प्रतिमाएं मानव के अधैर्यवान होने की कथा कहती हैं।

कहानी की शुरुआत वहां से होती है जब एक बार गोपियों ने माता रोहिणी से कान्हा की रासलीला के बारे में बताने का आग्रह किया। उस समय सुभद्रा भी वहां उपस्थित थीं। तब मां रोहिणी ने सुभद्रा के सामने भगवान कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला का वर्णन करना उचित नहीं समझा, इसलिए उन्होंने सुभद्रा को बाहर भेज दिया और उनसे कहा कि अंदर कोई न आए इस बात का ध्यान रखना। इसी दौरान कृष्ण और बलराम सुभद्रा के पास आ कर दाएं-बाएं खड़े हो। इस बीच देवऋषि नारद वहां उपस्थित हुए। उन्होंने तीनों भाई-बहन को एक साथ इस रूप में देखा और इच्छा प्रकट की कि वे इसी प्रकार एक साथ पुनः दिखाई दें।

प्रचलित कथा के अनुसार कालांतर में पुरी के राजा इन्द्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन दिया और सुभद्रा तथा बलराम सहित अपने कृष्णरूप की मूर्तियां बनवाने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि तीनों मूर्तियां एक ही वृक्ष के तने से बनाई जाएं। सुबह राजा ने अपने स्वप्न के बारे में विद्वानों से चर्चा की और काष्ठ प्रतिमा के कुशल कारीगर के लिए ढिंढोरा पिटवा दिया। दूर-दूर से अनेक कारीगर आए किन्तु उनमें से कुछ उचित काष्ठ तलाश नहीं कर सके और कुछ ने लकड़ी तो ढूंढ ली किन्तु उससे मूर्ति नहीं बना पा रहे थे। राजा इन्द्रद्युम्न निराश हो गया। उसे लगा कि वह ईश्वर की इच्छा कभी पूरी नहीं कर सकेगा। तभी एक वृद्ध कारीगर वहां आया और उसने मूर्ति बनाने की इच्छा प्रकट की। राजा के मन में संशय तो जागा कि जब युवा कारीगर असफल हो रहे हैं तो यह वृद्ध क्या कर सकेगा? फिर भी उसने एक अवसर देने का निश्चय किया। कारीगर ने एक शर्त रखी कि वह मंदिर के गर्भगृह में दरवाज़ा बंद कर के मूर्तियां बनाएगा। जब मूर्तियां बन कर तैयार हो जाएंगी तभी वह दरवाजा खोलेगा। इस बीच कोई भी दरवाजा न खोले और न उसके काम में व्यवधान डाले। राजा ने कारीगर की शर्त स्वीकार कर ली। कारीगर उचित काष्ठ लाया और मंदिर के गर्भगृह में बंद हो गया। राजा प्रतिदिन मंदिर के दरवाज़े पर चक्कर लगाता ताकि मूर्तियां बनते ही उन्हें देख सके। गर्भगृह से प्रतिदिन ठक्-ठक् आवाज सुनाई देती लेकिन मूर्तिकार बाहर नहीं निकलता। जब कई दिन हो गए तो राजा व्याकुल हो उठा और उसने उतावलेपन में दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही राजा ने देखा कि मूर्तियां अधबनी थीं और मूर्तिकार वहां नहीं था। वह मूर्तिकार फिर कभी दिखाई नहीं दिया। यह कहा जाता है कि वह मूर्तिकार और कोई नहीं, देवताओं के कारीगर विश्वकर्मा थे। वह राजा के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे जिसमें राजा इन्द्रद्युम्न असफल साबित हुआ तथा और मानव के अधैर्य के प्रतीक के रूप में मूर्तियां अधबनी रह गईं।

वर्तमान में राजा इन्द्रद्युम्न के उतावलेपन को हमने अपना रखा है। हम किसी भी मुद्दे पर उतावलेपन से निष्कर्ष पर कूद पड़ते हैं। हम जल्दी सब कुछ पा लेना चाहते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में व्याप्त अधकचरा ज्ञान और उग्रता इस उतावलेपन और अधिक भड़काती रहती है। आज उतावलेपन की स्थिति यह है कि कोई व्यक्ति अपराधी है या नहीं इस पर न्यायालय द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले समाचार मीडिया फैसला सुना देता है और सोशल मीडिया तो ‘‘ट्रोल’’ कर के सजा ही देना शुरू कर देता है। यह उतावलेपन का आधुनिक चेहरा है।
       
बहरहाल, जन्नाथ की कथा इससे आगे भी कई सीख हमें दे जाती है। जैसे भगवान द्वारा बीमार की सेवा करना। पौराणिक कथा के अनुसार उड़ीसा के पुरी में माधव दास नामक व्यक्ति भगवान जगन्नाथ का परम भक्त था। माधवदास हर दिन जगन्नाथ की भक्ति भाव से आराधना करते था। एक बार माधवदास बीमार पड़ गया। बीमारी के कारण वह इतना दुर्बल हो गया कि चलना फिरना कठिन हो गया। तब जगन्नाथ स्वयं सेवक बनकर उसके घर पहुंचे और माधवदास की सेवा करने लगे। जब माधवदास को होश आया, तो उसने तुरंत पहचान लिया की यह स्वयं जगन्नाथ हैं। फिर माधवदास ने कहा कि भगवान मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि आप तो सर्वसक्षम हैं। आपको मेरी सेवा करने की आवश्यकता नहीं थी, अपितु आप मेरी बीमारी ही दूर कर सकते थे। तब जगन्नाथ ने कहा कि मुझसे अपने भक्त की पीड़ा नहीं देखी गई इसलिए सेवा कर रहा हूं। पर, जो प्रारब्ध होता है उसे भोगना ही पड़ता है। लेकिन अब तुम्हारे प्रारब्ध में जो 15 दिन का रोग और बचा है, उसे मैं स्वंय ले रहा हूं। यही कारण है कि आज भी हर साल यह माना जाता है कि जन्नाथ बलराम और सुभद्रा 15 दिन के लिये बीमार पड़ते हैं। उन्हें औषधि पिलाई जाती है। इस दौरान जगन्नाथ चारपाई पर आराम करते हैं। इस 15 दिन की अस्वस्थता के दौरान श्रद्धालुओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित रहता है। 15 दिन के बाद जब वे पूरी तरह स्वस्थ हो जाते हैं तो श्रद्धालुओं को जगन्नाथ पुरी मंदिर में दर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है. इस दिन को ‘‘नेत्र उत्सव’’ के नाम से जाना जाता है।
जगन्नाथ अर्थात ‘जगत के नाथ’ भगवान विष्णु। उड़ीसा राज्य के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा में उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा भी शामिल होते हैं। तीनों के भव्य एवं विशाल रथों को पुरी की सड़कों में निकाला जाता है। बलभद्र के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है,  जो यात्रा में सबसे आगे चलता है और सुभद्रा के रथ को ‘दर्पदलन’ या ‘पद्म रथ’ कहा जाता है जो कि मध्य में चलता है। जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को ‘नंदी घोष’ या ‘गरुड़ ध्वज’ कहते हैं, जो सबसे अंत में चलता है। इस रथयात्रा का भी अपना विशेष महत्व है। यूं तो इस रथयात्रा को लेकर कई मान्यताएं हैं किन्तु ‘‘पद्म पुराण’’ एवं ‘‘ब्रह्म पुराण’’ के अनुसार एक बार भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर भ्रमण इच्छा प्रकट की। तब भगवान जगन्नाथ एवं बलभद्र ने बहन सुभद्रा को रथ पर बिठाकर नगर भ्रमण कराने के साथ अपनी मौसी के घर गुंडिचा भी ले गये, जहां वे 7 दिनों तक रहे। जनश्रुति के अनुसार इसके बाद से ही रथयात्रा का चलन शुरु हुआ, जो आज भी जारी है। वस्तुतः यह कथा भाइयों द्वारा बहन की भावना की आदर करने की कथा है। जबकि आज भौतिकतावाद और बाजारवाद के जमाने में भावनाओं का आकलन और उसकी पूर्ति का अर्थ ही बदलता जा रहा है। आज जीवन में व्यस्तताएं और भावनात्मक दूरियां इतनी अधिक बढ़ कई हैं कि रक्षाबंधन जैसे महत्वपूर्ण त्योहार पर भी भाई बहन परस्पर मिलने का समय नहीं निकाल पाते हैं। बहनें ई-राखियां भेज देती हैं और भाई उनके ई-शाॅपिंग के बिल अदा कर देते हैं। जबकि कहा जाता है कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता है, रिश्ते और भावनाएं पैसों से बढ़ कर होती हैं।
यह रथयात्रा हमें एकजुटता का भी पाठ पढ़ाती है। भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ 45.6 फीट ऊंचा, बलरामजी का तालध्वज रथ 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है। सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ (लकड़ियों) से बनाए जाते हैं, जिसे ‘दारु’ कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है। जब तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब श्छर पहनराश् नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और रास्ते को साफ करते हैं। आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती। रथयात्रा धार्मिक के साथ ही सामाजिक अनुष्ठान का भी पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती है और न ही किसी प्रकार का उपवास रखा जाता है बलिक सभी लोग रथयात्रा में शामिल होते हैं। रथयात्रा के दौरान यहां किसी प्रकार का जातिभेद भी देखने को नहीं मिलता है। वस्तुतः रथयात्रा जैसे हमारे पर्व और पुरी की अधबनी मूर्तियां हमें आपसी सद्भाव, एकजुटता और धैर्य का संदेश देती हैं, बशर्ते हम उन्हें धैर्यपूर्वक समझने का प्रयत्न करें। वरना अपूर्ण मूर्तियों की भांति सुख-चैनविहीन अपूर्ण जीवन जीते रहेंगे।
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(29.06.2022)
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Tuesday, June 28, 2022

पुस्तक समीक्षा | स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई सुप्रसिद्ध कथाकार उर्मिला शिरीष  के उपन्यास "चांद ग़वाह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     -  चांद गवाह
लेखिका     -  उर्मिला शिरीष
प्रकाशक     -  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य        -  250/- 
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फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’

लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं।

ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियांे को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबावा डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उसके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।

नायिका दिशा का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करा दिया गया जो कोई काम-काज तो नहीं करता था लेकिन शराब के नशे में डूबे रहना उसे पसंद था। विवाह के बाद दो बेटियों की मां बन जाने पर भी दिशा अपने पति से कभी प्रेम नहीं कर पाई। एक ऐसे व्यक्ति के प्रति उसका प्रेम जागता भी कैसे जो उसकी परवाह करने के बजाए ताने मारने का एक मौका भी नहीं छोड़ता है। दिशा के मायकेवाले इन परिस्थितियों को जानते थे लेकिन उन्होंने दिशा को उसके भाग्य भरोसे छोड़ दिया था। उन सभी की नींद तो तब टूटी जब दिशा ने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप की प्रेरणा और अपनत्व के दम पर विद्रोह का शंखनाद कर दिया। वह संदीप के साथ अपने उजाड़ फार्म हाऊस में जा कर रहने लगी। परिवार और समाज दोनों को यह नागवार गुज़रा। लेकिन स्वार्थी पति को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई क्योंकि वह संदीप से भी अपने काम करा लिया करता था। अर्थात् एक ऐसा पति जो अपनी पत्नी के विवाहेत्तर संबंध से भी लाभ उठाने से नहीं हिचकता है। उसका आक्रोश अपनी पत्नी दिशा को गालियां देने तक ही सिमटा रहता है। दूसरी ओर दिशा के भाइयों और बहनों को इससे अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता होने लगती है। ‘‘लोग बातें बनाने लगे हैं’’ का दंश उनके मन को विषाक्त करता रहता है। किसी को भी दिशा की वास्तविक मनःस्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। यदि दिशा चुपचाप घुट-घुट कर जीती रहती तो रिश्तेदारों की प्रतिष्ठा खतरे में नहीं पड़ती लेकिन उसका अपने ढंग से अपना जीवन जीने का निर्णय किसी सुनामी से कम नहीं। लेखिका ने दिशा की मनःस्थिति को रेखांकित करते हुए लिखा है-‘‘शादी से पहले प्रेम करो तो गुनाह, शादी के बाद प्रेम करो तो और भी बड़ा गुनाह। फिर प्रेम करो कब? हर इंसान को प्रेम करने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए।’’(पृ.45)

दिशा की बेटियां भी मां के इस संबंध को स्वीकार करने को तैयार नहीं होती हैं। इस मुद्दे पर वे अपनी मां को अपशब्द कहने और नीचा दिखाने से नहीं चूकती हैं। उनके अनुसार जवान बेटियों की मां को ऐसा नहीं करना चाहिए। मां के इस विद्रोह से चिढ़ कर बड़ी बेटी प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाती है तथा अपने ब्यायफ्रेंड्स बदलती रहती है। विवाह के संबंध में वह मां को ताना मारती हुई कहती है-‘‘शादी कर के मैं तुम्हारी तरह बर्बाद नहीं होना चाहती। आज तुम क्या हो? एक फालतू औरत। एक ऐसी औरत जो जीवनभर से एक फालतू, नशैले और मक्कार आदमी की गुलामी करती आ रही हो। कितनी बार कहा था कि इसे बाहर निकाल दो, लेकिन नहीं.....।’’(पृ.83)
यह उपन्यास बेमेल वैवाहिक संबंध में बंधी स्त्री की स्वतंत्रता की चाह एवं संघर्ष को पूरी ईमानदारी से सामने रखता है और अनेक प्रश्नों के बीज पाठकों के मस्तिष्क में रोप देता है। दिशा के मन में अपने अस्तित्व की पहचान की भावना को जगाने वाला एक्टिविस्ट संदीप स्वयं शादीशुदा और बाल-बच्चेदार है। फिर भी वह अपनी पत्नी से संबंध विच्छेद किए बिना दिशा के साथ रहने चला आता है। फिर जब उसे लगता है कि दिशा अब अपने ढंग से जीने में सक्षम हो गई है तो वह उससे विदा ले कर दूर चला जाता है। जबकि संदीप के जाने के बाद दिशा को संदीप के प्रति अपने प्रेम की तीव्रता का अहसास होता है और वह एक बार फिर अपने अस्तित्व को खोने लगती है। अब उसका नया संघर्ष शुरू हो जाता है जो कि किसी और के नहीं बल्कि खुद के साथ है। दोनों परिवारों का विरोध और अनादर झेलते हुए संदीप का पहले दिशा के साथ रहना और फिर अपने निर्णय के आधार पर उससे दूर चला जाना, यह सोचने को विवश करता है कि क्या दिशा उसके लिए सिर्फ एक ‘‘एक्सपेरीमेंट’’ थी? यदि यह सच था तो इसका अर्थ है कि दिशा विद्रोह नहीं कर रही थी अपितु स्वयं को भ्रमित कर रही थी। यह भ्रम संदीप के प्रेम से उपजा था। सच क्या था, यह पूरा उपन्यास पढ़ने पर ही पता चलता है और तब अनेक प्रश्न मन को कुरेदने लगते हैं कि हर बार स्त्री ही क्यों समझौतों के लिए विवश की जाती है? या फिर निजता और अस्तित्व के प्रश्न देह की सीढ़ियां चढ़ कर ही हल होते हैं? परिवार को एकसूत्र में जोड़े रखने वाली मां और पत्नी रूपी स्त्री स्वच्छंदता को अपना ले तो परिवार पर इसका क्या असर पड़ता है? ये सारे प्रश्न एक स्त्री के प्रति सामाजिक सोच को रेशा-रेशा उजागर करते हैं।
‘‘चांद गवाह’’ एक बैठक में पूरा पढ ़जाने को बाध्य करने में सक्षम है। इसका कथानक धाराप्रवाह गतिमान रहता है और कौतूहल जगाता रहता है कि अब आगे क्या होगा? उपन्यास की भाषा आम बोलचाल की है और शैली संवादों से भरपूर है। यह एक अत्यंत रोचक उपन्यास है जो स्त्रीविमर्श के साथ ही गहरा समाजविमर्श भी रचता है। साथ ही स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के बीच की मौजूद बारीक-सी रेखा की गरिमा को परखने का आग्रह करता है।
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#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण 

Sunday, June 26, 2022

Article | The Shaking Earth Something Want To Say Us | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


मित्रों, हाल ही में अफ़गानिस्तान भूकंप से हिल गया। इस वर्ष के आरंभ से ही भारतीय उपमहाद्वीप में छोटे-बड़े भूकंपों का सिलसिला चल रहा है। कहीं यह कोई चेतावनी तो नहीं हमारी पृथ्वी माता की ओर से हमारे लिए? इसी विषय पर आधारित है मेरा यह लेख....
⛳Friends ! Today my article "The Shaking Earth Something Want To Say Us" has been published in the Sunday edition of #CentralChronicle. Please read it. 
🌷Hearty thanks Central Chronicle 🙏
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Article
The Shaking Earth Something Want To Say Us

-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Earth is the basis of our life. That is why we call the earth as mother. If the children are deteriorating, going on the wrong path, then the mother first tries to convince them. For not paying heed to the advice of the mother, she scolds the children and sometimes even beats them because she wants the best for her children. If the depth is considered, then the increase in the incidence of earthquakes is also a similar case. Our mother earth is warning us to stop playing with the land we are living on.

More than a thousand people died and more than 100 homes were reduced to rubble due to a terrible earthquake in Afghanistan. The magnitude of the earthquake was reported as 6.1 magnitudes. The US Geological Survey (USGS) said a 6.1-magnitude earthquake shook parts of densely populated Afghanistan and Pakistan in the early hours of June 22. According to the USGS, the quake occurred at a depth of 51 km, about 44 km (27 mi) from the city of Khost in southeastern Afghanistan. The figures of huge casualties were getting started in the initial news itself. Prior to this, in 2015 earthquakes killed more than 380 people in Pakistan and Afghanistan. Then there was a 7.5-magnitude earthquake in both the countries, in which a large number of deaths occurred in Pakistan. A 5.6 magnitude earthquake struck Afghanistan's western province of Badghis on January 17-18, 2022 as well, in which many people died and dozens were injured. During this time, the US Geological Survey had informed that a 5.6-magnitude earthquake had occurred 40 km east of Kala-e-Nav, the capital of Badghis province bordering Turkmenistan. The epicenter of the earthquake, with a depth of 10.0 km at that time, was initially determined at 34.9479 degrees north latitude and 63.5686 degrees east longitude. Several aftershocks were also felt in the area after the earthquake. At that time, the epicenter of the 5.6-magnitude earthquake was in the Afghanistan-Tajikistan border region at a depth of 100 km. The tremors were felt in several cities of Khyber- Pakhtunkhwa including Peshawar, Manshera, Balakot and Charsada.

Earlier this year, on January 6, 2022, the tremors of an earthquake in Ramnagari Ayodhya in India at 12.00 am scared people. The magnitude of this tremor was given as 4.3 on the Richter scale. It was fortunate that there was no loss of life or property in it. However, people were scared by the tremors and came out of the houses late at night. Many parts of the country including Delhi-NCR were shaken by the tremors of the earthquake in India on February 1, 2022. The tremors of the earthquake were felt all over North India. People in Delhi, NCR felt the tremor in the earth for about 15.20 seconds. At the same time, tremors of earthquake were felt in other states of North India including Jammu and Kashmir. Even at that time the epicenter of the earthquake was in the Hindu Kush of Afghanistan. The magnitude of the earthquake was 5.9. It was felt in many large areas of Pakistan and Afghanistan including Delhi, Punjab, Haryana, Himachal Pradesh, Jammu and Kashmir.
Earthquake tremors were felt in Andaman Sea on 6th May 2022 at 2:21 pm today. According to the National Center for Seismology, the magnitude of the earthquake was 4.6 on the Richter scale. Earthquake reports often come from Andaman and Nicobar. Even before this, earthquake tremors were felt in Andaman and Nicobar last month. The magnitude of the earthquake was measured at 4.3 on the Richter scale. The archipelago comes in a very sensitive area from the point of view of earthquakes. Earthquake tremors are felt repeatedly here. In the month of April also, earthquake tremors were felt several times in Andaman and Nicobar.

But the recent earthquake in Afghanistan caused great devastation. There was an earthquake of 6.1 magnitudes. After this, there was only ruin and destruction all around. The global community expressed grief over the loss of life and property caused by the earthquake in Afghanistan. In the same sequence, Prime Minister Narendra Modi also expressed grief and said on Wednesday that India is ready to provide all possible disaster relief material at the earliest. He said that India stands with the people of Afghanistan. UN Secretary-General Antonio Guterres also expressed grief over the painful deaths caused by the devastating earthquake in Afghanistan. He called on the international community to show solidarity in helping families in distress.

Why does an earthquake happen? According to geology, the whole earth is situated on 12 tectonic plates. The energy released when these plates collide is called an earthquake. Actually, these plates present under the earth keep rotating at a very slow speed. Every year 4-5 mm slips from its place. During this, if a plate slips from under someone, then someone gets away. During this, when the plates collide, an earthquake occurs. Below the surface of the Earth, the place where rocks break or collide is called the epicenter or hypocenter or focus. From this place the energy of the earthquake is decided in the form of vibrations in the form of waves. This vibration is exactly like the waves produced by throwing pebbles in a calm pond. In the language of science, the place where the line connecting the center of the earth to the center of the earthquake cuts the surface of the earth, is called the epicenter of the earthquake. According to the established rules, this place on the surface of the earth is closest to the epicenter of the earthquake. The rocks present under the earth are in a state of pressure and when the pressure exceeds a limit, the rocks suddenly break. Due to this the energy existing for years gets released. Rocks break parallel to a weak surface and these rocks are also called faults.
Is the increasing number of earthquakes a warning for us? Earth shaking with earthquake tremors want to tell us something? Actually the land which we consider to be solid is not solid. She is floating on liquid lava. When floating objects become unbalanced, they will collide with each other. We have played with the earth a lot and continue to do so. Some big dams are built and some skyscrapers. Not only this, but we keep on giving shocks to the earth on which we are living by doing nuclear tests on it. The carelessness of us humans has made a hole in the ozone layer and has started increasing the temperature of the earth. In such a situation, if the movement inside the earth increases, then it should not be a surprise. There is still time that we understand these small and big tremors of earthquakes and stop tampering with the elements of the earth, only then we will be able to prevent any major accident.
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(26.06.2022)
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Friday, June 24, 2022

बतकाव बिन्ना की | बेलन काए, फटफटिया काए नईं? | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात

मित्रो, "बेलन काए, फटफटिया काए नईं?" ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में।
हार्दिक धन्यवाद #प्रवीणप्रभात 🙏
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बतकाव बिन्ना की
बेलन काए, फटफटिया काए नईं?
      - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘भैैयाजी, जबलों चुनाव को टेम आओ है तभईं से आप मूंड़ पकरे घूमत दिखात होे, आपके लाने हो का गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कछु नईं बिन्ना!’’ भैयाजी बोले, मनो उनको मों लटकई रओ। 
‘‘ऐसो नईं! कछु तो बोलो भैयाजी! दुख बांटबे से कम होत आए। मनो मैं अपनी तरफा से नईं कै रई, ऐसो कहो जात है।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘दुख? मनो दुख तो आए पर बांटबे जोग नइयां।’’ भैयाजी ऊंसई मों बनात भए बोले।
‘‘ऐं? चलो छोड़ो आप, जो बिन्ना हरों से कहबे जोग नइयां, सो ने कहो।’’ मोए लगो के कछु ऊंसई-सी बात आए जो भैयाजी मोसे ने कह पा रए।
‘‘अरे, नईं-नईं! ऐसो कछु नइयां!’’ भैयाजी झेंपत से बोले,‘‘कछु गोपनीय नइयां। बा तो हम जे कै रए हते के बोलबे से कछु बदलबे है नइयां, सो काए के लाने बोलो जाए।’’
‘‘जो ऐसई आए सो आप इत्ती सोच-फिकर काए कर रए? अखीर सोचबे के जोग बात हुइए, तभईं तो आप सोच में डूबे दिखा रए। अब बताई दो आप। कै देबे से जी हल्को हो जेहे।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘मोए एक बात समझ में कभऊं नईं आई के जोन जागां पे महिला सीट होत आए, मने चुनाव के लाने लुगाइयां ठाढ़ी होत आएं, उते चुनाव चिन्ह चुड़ियां, मुंगरिया, थाली, मटका, बेलन घाईं लेडीज़ वारे आईटम काए रखे जात आएं?’’ भैयाजी ने कही।
‘‘जे तो ई लाने के लुगाइयन खों चुनाव चिन्ह अपनो सो लगे।’’ मैंने उने समझाओ।
‘‘काए, तुमाई भौजी खों तो अपनो बेलन से हमाई फटफटिया ज्यादा पोसात आए। हर दूसरे, तीसरे दिना हमें ताना मारत आएं के जो तुम हमें जे फटफटिया पे कहूं घुमा नईं सकत तो काए के लाने अस्सी-नब्बे हजार फूंके। अब की देखियो, झांसीवारी को मोड़ा दिल्ली से छुट्टियन में घरे आहे सो ऊसे कहबी के हमें सिखा देओ जे फटफटिया चलाबो। एक दार सींख जाएं फेर तुम घरे बैठ के चैका-बासन करियो औ हम खूबई घूमाई करहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हैं? भौजी ऐसी कैत आएं?’’ मोए जे सुन के बड़ो मजो आओ।
‘‘औ का! एक दिना तो खुदई स्टार्ट करबे की कोसिस कर रई हतीं, मनो बनी नईं उनसे। नईं तो आज हम इते ठाड़े ने दिखाते। हम घरे को काम सम्हार रए होते औ बे कहूं फर्राटे भर रई होतीं।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘सो का गलत है ईमें? आजकाल तो मुतकी लुगाइयों फटफटिया चलाउत आएं।’’ मैंने कहीं।
‘‘जे ई सो हम कै रै बिन्ना के जब आजकाल लुगाइयन खों फटफटिया, मोटर कार, टैक्टर, मोबाईल वगैरा सबईं से मोहब्बत कहानी सो उने जे ऐसे चुनावचिन्ह काए नईं दए जा रए? एक तरफी कैत आएं के लुगाइयन खों आए बढ़ाने हैं, औ उतई दूसरी तरफी लुगाइन खों चुनाव चिन्ह के नांव पे बी बेई पटा-बेलन थमा दए जात हैं।’’ भैयाजी तनक लुगाइनवादी होत भए बोले। जे देख के मोए अच्छो लगो। पर उने चवन्नी को दूसरो पहलू दिखाबो औ याद कराबो सोई जरूरी सो लगो।
‘‘बात तो आप ठीक कै रए भैयाजी, मनो जे बताओ के चुनाव जीतबे के बाद कितनी लुगाइयां पंचायत, नगरपालिका या नगर निगम में दिखाहें? मने मतलब जे के उनमें से आधी से ज्यादा तो घरई में चूला फूंकत रैंहें। सो, उनके लाने पटा-बेलन के चुनाव चिन्ह में का खराबी आए?’’ मैंने याद दिलाई।
‘‘हऔ! मनोे जे ढंग से सोचो जाए सो फटफटिया, टैक्टर वगैरा औरई फिट बैठत आएं। काए से के उन ओरन के पतियन खों राज करने रैत आए औ उने सो कार, मोटर, ट्रैक्टर, फटफटिया चलाने रैत है।’’ भैयाजी बोले।
‘‘नईं भैयाजी! जे तो गलत सोच कहानी आपकी।’’ मैंने विरोध करो।
‘‘का गलत कही?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘जेई के आप पैले जे बताओ के आप जो जे चुनाव चिन्ह में लुगवा-लुगाई के भेद की बात कर रए हो सो, जे आप लुगाइन के पक्ष में बोल रए के लुगवा हरों के पक्ष में?’’ मैंने सोई पूछी।
‘‘अरे, लुगाइन के पक्ष में ई बोल रए हम। तनक सोचो के चुनाव चिन्ह तक में लुगवा-लुगाई के अन्तर वारी सोच रखी जात आए। लुगाई के लाने पटा-बेलन औ लुगवा ठाड़ो होय सो फटफटिया चुनाव चिन्ह, भला जे का बात भई? काए पटा बेलन अकेले लुगाइन के काम को रैत आए? बे जो बाहरे रैत आएं लुगवा हरें सो का बे ओरें फटफटिया से रोटी बनाऊत आएं? औ जे फटफटिया पे के अकेले लुगवा सवारी करत आएं? जे मान लई के फटफटिया लुगवा चलात आएं मनो रैत को पूरे घरे के लाने आए। ऊपे बुड्ढा चढ़त हैं, बच्चा चढ़त हैं, लुगाइयां सो पूरी सज-धज के सवारी करत हैं। बोलो, का हम गलत बोल रए?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘नईं भैया, आप कै तो सांची रए हो। मनो जे तो जन्मई से भेद-भाव करो जात आए के मोड़ा भओ तो ऊको बुस्सर्ट पैनाई जात आए औ जो मोड़ी होए तो ऊके लाने फ्राक रैत आए। औ अब बिदेसियन खों देख-देख के बिटिया के लाने गुलाबी रंग औ बेटा के लाने नीलो रंग रखो जात आए। जेई से चुनाव चिन्ह चुनबे के टेम पे लगत हुइए के लुगाइन के लाने घर-गिरसती को आईटम रखो जाए औ लुगवा हरों के लाने बाहर वारो आईटम। जे तो सोच-सोच की बात ठैरी।’’ मैंने कही।
‘‘जे ई सोच सो हमें नईं पोसा रई। अरे जब लुगाइयन खों आगे बढ़ाने है सो उने घर-गिरसती से बाहर की दुनिया देखन देओ।’’ भैयाजी बड़ी शान से बोले।
‘‘हऔ, बात तो आप ठीक कै रै! सो मैं ऐसो करई के मोए गाड़ी सिखाबे वारो को मोबाईल नंबर पतो आए, सो ऊको अभई फोन कर के पक्को कर ले रई के कल से बो आ जाओ करे।’’ मैंने कही।
‘‘काए के लाने? तुम पे तो बनत आए गाड़ी चलात।’’
‘‘अपने लाने नईं, भौजी के लाने। तनक सोचो के कबे झांसीवारी खों मोड़ा दिल्ली से आहे औ कबे हमाई भौजी फटफटिया चलाना सीख पाहें? सो बो डिराइविंग स्कूल वारे खों बुला लेओ चाइए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘जे का कर रईं?’’ भैयाजी हड़बड़ात भए बोले। 
‘‘फोन कर रई गाड़ी सिखाबे वारे खों।’’ मैंने कही।
‘‘ने करो! तुमाई भौजी का करहें फटफटिया सीख कें? औ बा ऊपे चढ़हें कैसे? अबईं तो एक तरफी टांगें करके ऊपे बैठत आएं।’’ भैयाजी ने बहाना दओ।
‘‘काए? जब बे फटफटिया चलाहें सो पैंट, जींस पहन हें। अब ई जमाने में झांसी की रानी घांई कछौटा मारे के साड़ी पहन के सो ने चड़हें फटफटिया पे।’’ मैंने गंभीर होने की एक्टिंग करी। मनो अन्दर से मोरी हंसी फूट पड़रई हती। भैयाजी को मों देखन जोग हतो।
‘‘अरे, जे सब छोड़ो! बे कोन चुनाव में ठाड़ी हुई हैं के उनको बाहर निकरने परहे।’’ भैयाजी खिझात भए बोले।
‘‘मनो भैयाजी, आप चुनाव चिन्ह पे बहस कर सकत आओ पर भौजी खों फटफटिया चलान नईं दे सकत हो, जे तो दोहरी बात कहानी।’’ मैंने भैयाजी की खिंचाई करी।
‘‘अच्छा कर लेओ फोन, बुला लेओ सिखाबे वारे खों। तुमाए लाने सो अच्छो रैहे, ननद भौजाई दोई फटफटिया में घुमाई करहो। बाकी जे भेद-भाव वारी बात मोए नईं पोसा रई आए के लुगाई होय सो चुनाव में बी हाथ में बेलन ले के ई फिरत रए।’’ भैयाजी बोले।      
‘‘खैर, आप भौजी से फेर के एक बार पूछ लेओ तब गाड़ी सिखाबे वारे खों फोन करबी। अबई नईं कर रई, घबड़ाओ नईं।’’ मैंने हंस के कही।
भैयाजी सोई मुस्कात भए बढ़ लिए। मोसे कह-बोल के उनको जी हल्को हो गओ। मनो बात बे ठक्का-ठाई कर गए। अब तो मोए चुनाव चिन्ह में सोई ‘‘जेंडर डिस्कोर्स’’ नज़र आउने है, जे बात तय कहानी।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब चाए अलाने की घरवारी जीते के, फलाने की घरवारी, मोए का? रैने सो ‘‘पति राज’’ आए ( कछु अपवाद छोड़ दओ जाए)। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!    
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(23.06.2022)
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Wednesday, June 22, 2022

चर्चा प्लस | राजनीतिक चश्मा उतार कर देखिए "अग्निपथ" | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर


चर्चा प्लस 
राजनीतिक चश्मा उतार कर देखिए "अग्निपथ" 
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह   

                                                             भारतीय युवाओं की स्थिति वस्तुतः चिंताजनक दशाओं से गुज़र रही है। बेरोज़गारी उन पर सबसे अधिक प्रभावी है। जो पढ़े-लिखे युवा हैं वे बेरोज़गारी की स्थिति में दिग्भ्रमित हो रहे हैं। वहीं कम पढ़े-लिखे अथवा अपढ़ युवा बड़ी आसानी से अपराध की दुनिया का रास्ता पकड़ रहे हैं। इसके साथ ही एक पक्ष और है, वह है सामाजिक अपराध और उद्दण्डता का। आज अवयस्क युवा भी वयस्कों वाले अपराध करने से नहीं हिचक रहा है। ऐसे में यदि कुछ पैसों के साथ युवाओं को जीने का सलीका (डिसिप्लिन) दिया जाने वाला हो तो इसमें क्या बुरा है इसमें? यूं भी जब अग्निपथ योजना ऐच्छिक आधार पर है तो इतना हलाकान होने की ज़रूरत भी नहीं है। जब हम अपने युवाओं को मल्टीनेशनल कंपनीज़ के अनिश्चित पैकेज़ में भेजने में नहीं झिझकते हैं तो ‘‘अग्निपथ’’ योजना में युवाओं को जाने देने में हिचक क्यों?


जब से अग्निपथ योजना की घोषणा की गई तब से देश के अनेक शहरों में विरोध का दावानल फैलने लगा। कई शहरों में पचासों वाहन फूंक दिए गए। अपने ही शहर के अपने ही लोगों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। ऐसा विरोध उस समय क्यों नहीं किया गया जब किसी युवती अथवा नाबालिग बच्ची के साथ नृशंसता से दुव्र्यवहार किया गया? क्योंकि हर सरकारी नीति का विरोध करने की राजनीति प्रभावी हो चली है। जो बात विरोध करने योग्य हो उसका विरोध बेशक़ किया जाना चाहिए लेकिन आंख मूंद कर हर बात का विरोध करना भी तो उचित नहीं कहा जा सकता है। निश्चित रूप से अग्निपथ योजना में एक भ्रम की स्थिति है कि इसे रोजगार योजना के शीर्षक के अंतर्गत रखा गया है। जबकि यह न तो अनिवार्य सैनिक शिक्षा स्कीम में है और न समुचित रोजगार योजना के अंतर्गत है। इसलिए कतिपय तत्वों के लिए यह भावना भड़काना आसान हो गया कि ट्रेनिंग के बाद जब ये युवक सेवा मुक्त होंगे तब क्या करेंगे? क्या इनमें से सभी को नौकरी की गारंटी मिलेगी अथवा वे एक बार फिर बेरोजगारी की पंक्ति में जा खड़े होंगे? इस भ्रमपूर्ण स्थिति का लाभ उठा कर ही आग लगवाने वाले आग लगवा रहे हैं और अराजक माहौल बना रहे हैं।

अग्निपथ योजना में युवाओं को अल्पावधि रोजगार के अवसर दिए जाने का दूसरा पक्ष देखना भी जरूरी है, जिसे युवाओं की दशा-दिशा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। एक ओर बेरोजगारी और दूसरी ओर भौतिकता की चकाचैंध। हर युवा चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या कम पढ़ा-लिखा या फिर अपढ़ हो, भारी मानसिक दबाव में जीने को विवश है। माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान परिवार का आर्थिक संबल बने। जो युवा पैसे कमाने का रास्ता हासिल नहीं कर पाते हैं वे उस दोराहे पर जा खड़े होते है जहां एक ओर अपने अस्तित्व को मिटाने का रास्ता दिखाई देता है तो दूसरी ओर गलत काम कर के पैसा कमाने का का रास्ता दिखाई देता है। बहुत कम परिवार ऐसे हैं जहां बेरोजगार युवाओं की अवहेलना नहीं की जाती है। आमतौर पर तुलना कर-कर के कटाक्ष किए जाते हैं कि ‘‘फलां के लड़के को देखो, उसे पांच अंको का पैकेज मिल गया है और एक हमारा बेटा है जो पांच रुपए का काम भी हासिल नहीं कर सका।’’ यह ताने किसी घातक बाण की तरह युवाओं के दिल में चुभते हैं और वे गलत रास्ते पर कदम बढ़ाने को विवश हो जाते हैं। यही स्थिति लड़कियों की है। पहले विवाह के लिए सुंदर, सुशिक्षत, घरेलू कामों में दक्ष की शर्त होती थी अब नौकरीपेशा होने की भी शर्त रहती है। अच्छी नौकरी है तो अच्छा वर मिल जाएगा और नौकरी नहीं है तो वर मिलना टेढ़ी खीर रहता है। इस वातावरण में लड़कियों के सामने भी लड़कों की भांति ही दो ही रास्ते बचते हैं- या तो आत्महत्या (पहले नहीं तो विवाह के बाद) या फिर गलत रास्ते पर चल पड़ना।

एक समस्या और है कि न्यूक्लियर परिवार के चलन ने बच्चों में उद्दंडता भी बढ़ा दी है। माता-पिता दोनों पैसे कमाने में व्यस्त रहते हैं। बच्चों का उनसे पैसे और सुख-सुविधाओं तक का ही वास्ता रहता है। वे ‘‘आदर’’ की भावना को भूलते जा रहे हैं जो एक पीढ़ी पहले तक संयुक्त परिवार से उन्हें विरासत में मिलती थी। आजकल के बच्चे मुंहफट हो कर पलटजवाब देते हैं और अनाड़ी माता-पिता भी खिसियाकर रह जाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते हैं। उस पर इंटरनेट और मोबाईल की सुविधा ने आग में घी डालने का काम कर रखा है। माता-पिता की व्यस्तता का लाभ उठाते हुए युवा इन दोनों सुविधाओं का जम कर दुरुपयोग करते हैं। कुछ को गेमिंग की लत लग जाती है तो कुछ को वयस्कों की साईट्स पर जाने की। कच्ची मानसिकता वाली आयु में इन सब में प्रवृत्त हो कर वे देशप्रेम तो दूर की बात, माता-पिता के प्रति आदर और प्रेम भी भूल जाते हैं। यही अवयस्क जब वयस्कता की सीढ़ियां चढ़ते हैं तो उनका विदेश प्रेम, अपराध प्रेम और भौतिक सुविधाओं के प्रति प्रेम सिर चढ़ कर बोलने लगता है। ऐसे में उन्हें डिसिप्लिन सिखाए जाने की सख़्त जरूरत रहती है जो वे अपने घर-परिवार से नहीं सीख सकते हैं।

आज हमारे देश के औसतन युवाओं को एक बार फिर यह सीखने की जरूरत है कि यदि कोई व्यक्ति आपकी आंखों के सामने किसी संकट में फंसा हुआ हो तो उसकी मोबाईल-वीडियो बनाने के बजाए मदद करने की जरूरत होती है। ऐसी अनेक शर्मनाक घटनाएं आए दिन हमें वायरल होती हुई मिलती हैं जिनमें किसी दुर्घटनाग्रस्त की मदद करने के बजाए उसकी पीड़ा की वीडियो बना कर इंटरनेट पर डाल दी जाती है। या फिर किसी स्त्री या पुरुष को किसी समूह द्वारा नृशंसतापूर्वक मारापीटा जा रहा हो तो उसे बचाने के बजाए तब तक उसकी वीडियो बनाई जाती है जब तक वह पीड़ित मर न जाए। इस कुत्सित मनोवृत्ति पर तभी काबू पाया जाता सकता है जब युवा ऊर्जा को सही रास्ते पर चलाया जाए। 
युवाओं में देशप्रेम ओर डिसिप्लिन की भावना को सुदृढ़ करने के लिए अनेक देशों में अनिवार्य सैनिक शिक्षा योजना लागू है। प्रथम विश्व युद्ध के समय 1914 में यूरोप में अनिवार्य सैन्य सेवा शुरू हुई थी और आज भी कई देशों में जारी है। कम्युनिस्ट शासन वाले देशों में तो शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण हर एक को लेना ही पड़ता है। मेक्सिको, रूस, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, थाइलैंड, तुर्की और संयुक्त अरब गणराज्य तक में अल्पकालीन सैन्यसेवा अनिवार्य है। इस्राइल में ढाई वर्ष की यह अनिवार्य सैनिक सेवा पुरुषों के लिए है और दो वर्ष की सेवा स्त्रियों के लिए। इस दौरान उन्हें सारे शस्त्रों के संचालन की शिक्षा दी जाती है। बरमूडा के नागरिकों के लिए भी अनिवार्य सैनिक सेवा का नियम है। 18 से 32 वर्ष की उम्र के लोगों को यह ट्रेनिंग मिलती है। चयन लाॅटरी से होता है। बरमूडा में यह सेवा 32 महीने की है। ब्राजील में तो 18 साल पूरे होते ही युवाओं को एक वर्ष की सैनिक शिक्षा दी जाती है। स्वास्थ्यगत आधार पर छूट मिलती है या फिर विश्वविद्यालयी शिक्षा लेने वालों को। लेकिन जैसे ही वह युवक शिक्षा पूरी कर लेता है, सैन्य प्रशिक्षण उसे लेना ही पड़ता है। साइप्रस में यह सेवा 2008 से लागू की गई और हर युवा के लिए अनिवार्य है। ग्रीस में 19 से 45 वर्ष की उम्र वालों को अल्पकालिक सैनिक सेवा में जाना आवश्यक है। ईरान में दो साल का प्रशिक्षण मिलता है। उत्तरी कोरिया में यह ट्रेनिंग 14 से 17 की उम्र के बीच शुरू होती है और युवा को 30 वर्ष की उम्र तक सैन्य प्रशिक्षण लेना पड़ता है। साउथ कोरिया में यह उम्र 18 से 28 है। मेक्सिको में 12वीं पास करने के बाद सैन्य ट्रेनिंग दी जाती है। सिंगापुर में तो राष्ट्रीय सेवा (एनएस) की ट्रेनिंग न लेने वालों को 10 हजार डॉलर का जुर्माना देना पड़ता है अथवा तीन साल की जेल। स्विट्जरलैंड में अनिवार्य सैन्य सेवा लागू है। सभी सेहतमंद पुरुषों को वयस्क होते ही मिलिट्री में शामिल होना होता है। महिलाएं खुद चाहें तो सेना में शामिल हो सकती हैं। यह लगभग 21 सप्ताह की होती है। थाईलैंड में अनिवार्य सैन्य सेवा 1905 से लागू है। सभी थाईलैंड निवासियों (पुरुष) को सेना में भर्ती होना जरूरी है। पुरुषों को 21 साल की उम्र में पहुंचते ही सेना में भर्ती होना होता है।

यहां हमारे देश में भारतीय सेना में भर्ती के लिए नई योजना ‘‘अग्निपथ’’ स्कीम का जमकर विरोध हो रहा है लेकिन विरोध करने वालों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हमारे देश में अभी अनिवार्य सैनिक शिक्षा लागू नहीं की गई। जोकि दुनिया में बढ़ते हुए आतंकवाद और विभिन्न देशों के बीच बढ़ती कलह को देखते हुए जरूरी मानी जा सकती है। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो युवा फिलहाल बेरोजगारी से जूझते हुए मानसिक दबाव और अराजकता में जी रहे हैं उन्हें सही दिशा मिलेगी। इससे उनका आत्मबल बढ़ेगा साथ ही वे कुछ पैसे भी कमा सकेंगे जिससे वे बाद में खुद का स्टार्टप शुरू कर सकते हैं। सरकार की हर योजना में व्यावसायिक सौदेबाजी की तरह खोट निकलना और उसे रद्द करने को मजबूर करना भी उचित नहीं है। जब बात देशभक्ति, युवाओं के चरित्र और मनोबल की हो तो योजना के हर पक्ष को परखना भी जरूरी है।

अग्निपथ योजना के माध्यम से भारतीय सेना, भारतीय नौसेना और भारतीय वायु सेना के लिए लगभग 46,000 सैनिकों की भर्ती की जानी है। जो ‘‘अग्निवीर’’ कहलाएंगे। अग्निपथ योजना के तहत महिलाओं की भर्ती संबंधित सेवाओं की जरूरतों पर निर्भर करेगी। वायु सेना की ओर से इसकी चयन प्रक्रिया 24 जून से शुरू हो रही है। जिसके लिए भारतीय वायु सेना ने अपनी वेबसाइट पर केंद्र सरकार की ‘अग्निपथ’ स्कीम से जुड़ी डिटेल साझा की है। इसमें योयता निर्धारण, आयु सीमा, शैक्षिक योग्यता समेत अन्य जानकारियां दी गई हैं। इस योजना में अधिकारियों से नीचे रैंक वाले व्यक्तियों के लिए रिक्रुटमेंट प्रोसेस शामिल है। इस स्कीम के तहत 75 प्रतिशत जवानों की भर्ती मात्र 4 साल के लिए की जाएगी। योजना के तहत भर्ती होने वाले सैनिकों को ‘‘अग्निवीर’’ कहा जाएगा। वहीं, केवल 25 प्रतिशत को ही अगले 15 वर्षों के लिए दोबारा सेवा में रखा जाएगा। इस योजना के तहत सभी भारतीय अप्लाई कर सकते हैं। इसमें 17.5 से 23 वर्ष की आयु के पुरुषों और महिलाओं की भर्ती की जाएगी। चार साल बाद, अग्निवीर रेगुलर कैडर के लिए अपनी मर्जी से आवेदन कर सकेंगे। योग्यता, संगठन की आवश्यकता के आधार पर, उस बैच से 25 प्रतिशत तक का चयन किया जाएगा। अन्य शैक्षणिक योग्यता और फिजिकल स्टैंडर्ड भारतीय वायु सेना द्वारा जारी किए जाएंगे। अग्निवीरों को भारतीय वायुसेना में अप्लाई करने के लिए मेडिकल योग्यता से जुड़ी शर्तों को पूरा करना होगा।

यूं भी जब अग्निपथ योजना ऐच्छिक आधार पर है तो इतना हलाकान होने की ज़रूरत भी नहीं है। जब हम अपने युवाओं को मल्टीनेशनल कंपनीज़ के अनिश्चित पैकेज़ में भेजने में नहीं झिझकते हैं तो ‘‘अग्निपथ’’ योजना में युवाओं को जाने देने में हिचक क्यों? वस्तुतः इस योजना को राजनीतिक चश्मा उतार कर देखने की ज़रूरत है।
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(22.06.2022)
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Tuesday, June 21, 2022

विविध | 21 जून विश्व संगीत दिवस |आइए चले चौराहों पर अपने संगीत के साथ | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | युवा प्रवर्तक

आज 21 जून को योग दिवस के साथ ही विश्व संगीत दिवस भी है और इस पर है मेरा यह लेख जो "युवा प्रवर्तक" ने प्रकाशित किया है... पढ़िए इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं 👇

21 जून विश्व संगीत दिवस:
आइए चले चौराहों पर अपने संगीत के साथ

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

जिस दिन हम विश्व योग दिवस मनाते हैं ठीक उसी दिन अर्थात् 21 जून को विश्व संगीत दिवस भी मनाया जाता है। संगीत का जीवन में बहुत अधिक महत्व है। आज तो विज्ञान भी इस बात को मान चुका है कि संगीत चिकित्सा के क्षेत्र में भी कारगर है। यह मरीज को आत्मबल बढ़ाने और बीमारी से जूझने में मदद करता है। अनेक मनोवैज्ञानिक चिकित्सक मनोरोगों का ईलाज़ करने में संगीत का सहारा लेते हैं। यह अवसाद, अल्जाइमर और अनिद्रा जैसी चिकित्सा स्थितियों में मदद कर सकता है। यह हमें फिर से जीवंत बनाने और खुद के साथ-साथ हमारे आसपास के लोगों से जुड़ने में भी मदद करता है।

विश्व संगीत दिवस मनाने की शुरुआत फ्रांस से हुई। साल 1982 में पहली बार विश्व संगीत दिवस मनाया गया। उस समय के फ्रांस के तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री जैक लैंग ने देश के लोगों की संगीत के प्रति दीवानगी को देखते हुए संगीत दिवस मनाने की घोषणा कर दी। इस दिन को 'फेटे ला म्यूजिक' कहा गया। फ्रांस में 1982 में जब पहला संगीत दिवस मनाया गया तो इसे 32 से ज्यादा देशों का समर्थन मिला। इस दौरान कई कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। पूरी राज जश्न मनाया गया। उसके बाद से अब भारत समेत इटली, ग्रीस, रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पेरू, ब्राजील, इक्वाडोर, मैक्सिको, कनाडा, जापान, चीन, मलेशिया और दुनिया के तमाम देश विश्व संगीत दिवस हर साल 21 जून को मनाते हैं। वर्ल्ड म्यूजिक डे के दिन संगीत के क्षेत्र से जुड़े बड़े-बड़े गायकों और संगीतकारों को सम्मान दिया जाता है। ऐसे में दुनिया भर में जगह-जगह पर संगीत से जुड़े कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है जिन्हें संगीतकारों और गायकों को सम्मानित किया जाता है. हर वर्ष इस दिवस की थीम तय की जाती है. इस बार की थीम है “चौराहों पर संगीत” यानी “म्यूजिक एट इंटरसेक्संश”।

शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसे संगीत पसंद ना हो. संगीत ऐसी चीज है, जो लोगों के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डालती है। इसी वजह से दुनिया भर के गायकों और संगीतकारों को म्यूजिक के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मान देने के उद्देश्य से आज (21 जून) विश्व भर में ‘वर्ल्ड म्यूजिक डे’ सेलिब्रेट किया जाता है। इस दिवस का आयोजन शांति को बढ़ावा देने और संगीत के प्रति लोगों की रुचि बढ़ाने के लिए किया जाता है, क्योंकि म्यूजिक जीवन में शांति और मन को सुख देता है। इसी वजह से ज्यादातर लोग म्यूजिक सुनना पसंद करते हैं. किसी को दुख कम करने के लिए संगीत सुनना अच्छा लगता है, तो कोई खुशी में म्यूजिक सुनने को महत्त्व देता है। 

संगीत प्राचीन काल से मनोरंजन के मुख्य स्रोतों में से एक रहा है। प्राचीन काल में राजा महाराजा संगीत सुनते थे वह संगीत सुनकर अपना मनोरंजन करते थे वही आज के इस जमाने में लोग संगीत सुनकर अपना मनोरंजन भी करते हैं और अच्छे से अपना समय बिताते हैं। पहले के समय में, जब कोई टेलीविज़न, इंटरनेट कनेक्शन, वीडियो गेम या किसी अन्य तरीके से अपने आप को मनोरंजन करने के लिए नहीं था, तो संगीत ने लोगों को बोरियत से निपटने में मदद की। इससे उन्हें एक-दूसरे से बेहतर जुड़ने में मदद मिली। लोगों ने लोकगीत गाए और अपनी धुनों पर नृत्य किया। संगीत सीधी हमारी मानसिक स्थिति पर प्रभाव डालता है। संगीत के कई रंग होते हैं जिसमें गाना, बजाना, सुनना, सुनाना, गुनगुनाना, जो हमारे मस्तिष्क को ऊर्जा देते हैं, जो मस्तिष्क पर काफी प्रभाव छोड़ते हैं और जिससे हम खुशी महसूस करते हैं।

संगीत में प्रकृति को भी प्रभावित करने की क्षमता होती है। यह माना जाता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ ऐसी राग-रागिनियां थीं जिनसे आग प्रज्ज्वलित की जा सकती थी अथवा पानी बरसाया जा सकता था। मानव पर ही नहीं पशु, पक्षियों और वनस्पतियों पर भी संगीत का गहरा प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि यदि अच्छा संगीत बजाया जाए तो पौधों की वृद्धि अपेक्षाकृत तेजी से होती है और वे स्वस्थ रहते हैं।

इस दुनिया में संगीत के अनेक प्रकार हैं। लेकिन सबसे प्रमुख और आधारभूत प्रकार हैं- क्लासिकल म्यूजिक और लाईट म्यूजिक। वैसे तो यह विशद विषय है किन्तु अत्यंत संक्षेप में इस पर चर्चा करते हुए पं. शारंगदेव द्वारा ‘‘संगीत रत्नाकर’’ लिखी गई परिभाषा का स्मरण किया जा सकता है कि ‘‘गीत, वाद्य तथा नृत्यं त्रयं संगीत मुच्यते’’ अर्थात गाना, बजाना तथा नृत्य इन तीनो का सम्मिलित रूप संगीत कहलाता है।   यद्यपि पश्चिमी देशों में संगीत से आशय केवल गायन और वादन से समझा जाता है। वहां नृत्य को संगीत के अंतर्गत नहीं रखा जाता है। वैसे गायन, वादन और नृत्य को परस्पर एक-दूसरे का पूरक मानना उचित है। भले ही  परन्तु इन तीनो विधाओं का स्वतंत्र रूप से भी प्रदर्शन किया जाता है किन्तु गाते -बजाते समय भाव-प्रदर्शन के लिए थोड़ा बहुत हाथ चलाना, गाते समय मुखाकृत बनाना अर्थात शरीर की भाव - भंगिमाए आदि स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस तरह तीनों कलाओं को संगीत के अंर्तगत माना जाना गलत नहीं है।

आजकल इंसान भौतिकवाद की दौड़ में जिस प्रकार बंधी-बंधाई ज़िन्दगी जी रहा है उसमें संगीत की यह ‘‘चौराहों पर संगीत’’ थीम रखा जाना उचित है। विगत कोरोना काल ने समूचे विश्व को जिस तरह घरों में कैद कर दिया था उस दृष्टि से भी ‘‘चौराहों  पर संगीत’’ विशेष महत्व रखता है। यूं भी आजकल विश्व में जो आतंक और अपराध का वातावरण व्याप्त है उसमें भी ‘‘चौराहों  पर संगीत’’ मानवता को एकजुट होने का संदेश देता है। देखा जाए तो ऐसी थीम और ऐसे दिवसों की सारे विश्व को बहुत जरूरत है जिसमें मनुष्य अपनी मनुष्यता को बचाए रखते हुए परस्पर एक-दूसरे का सहयोगी बने और अपनी शारीरिक मानसिक सेहत का पूरा-पूरा ध्यान रख सके।
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सागर (म.प्र.)


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पुस्तक समीक्षा | रहस्य, रोमांच और मनोविज्ञान से भरपूर एक रोचक उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 21.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई उपन्यासकार कार्तिकेय शास्त्री  के अंग्रेजी उपन्यास "The Night Out" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
रहस्य, रोमांच और मनोविज्ञान से भरपूर एक रोचक उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास    -  द नाईट आउट
लेखक      -  कार्तिकेय शास्त्री
प्रकाशक     - नोशन प्रेस डाॅट काॅम
मूल्य        -  199/- 
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      कभी-कभी पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है लेकिन इंसान अपनी भावानाओं तथा अपनी ज़रूरतों को ठीक से समझ नहीं पाता है और कभी अचानक एक रात में ही उसे सब कुछ समझ में आ जाता है। इसे अप्रत्याशित घटना मान लिया जाए अथवा एक अरसे से चल रहे मानसिक उद्वेलन का परिणाम, जो कभी भी अपने निष्कर्ष पर पहुंच सकता था। इस प्रकार के नए कथानकों पर इन दिनों अंग्रेजी के भारतीय युवा उपन्यासकार तेजी से अपनी कलम चला रहे हैं। जी हां, इस बार समीक्षा के लिए जिस उपन्यास को मैंने चुना है, वह अंग्रेजी में लिखा गया उपन्यास है। अपने इस काॅलम में मैं हिन्दी में लिखे गए साहित्य को ही समीक्षा के लिए चुनती रही हूं लेकिन इस उपन्यास को चुनने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसके लेखक सागर में जन्मे हैं और वे आज भी सागर से जुड़े हुए हैं। लेखक का नाम है कार्तिकेय शास्त्री। वे युवा हैं और वर्तमान में दुबई में रियलस्टेट ब्रोकर का काम कर रहे हैं। इस उपन्यास के प्रति मेरी दिलचस्पी इसलिए भी रही क्योंकि घर-परिवार से दूर यूनाईटेड अरब अमिरात के दुबई शहर में पैसा कमाने निकला आज का युवा जिसकी जीवनचर्या विशुद्ध भौतिकतावादी होनी चाहिए थी, साहित्य के प्रति समर्पित हो कर उपन्यासकार बन गया। यद्यपि कार्तिकेय की साहित्य के प्रति दिलचस्पी होने के कारण की झलक उनकी लिखी भूमिका (एग्नाॅलेज़मेंट) में मिलती है कि वे अपनी मां पुष्पा शास्त्री और पिता रमाकांत शास्त्री से मिले संस्कारों के प्रति अडिग हैं। साथ ही वे अपने अंकल उमाकांत मिश्र (जो सागर नगर में श्यामलम संस्था के अध्यक्ष हैं) के प्रगतिशील विचारों से अत्यंत प्रभावित हैं। अर्थात् जो संस्कार उन्होंने अपने परिवार से पाए हैं, उसके कारण उस चकाचौंध वाले देश में आजकल के युवाओं के बीच प्रचलित नाईट आउट को भी उन्होंने साहित्य की एक अनुपम कृति बना दिया। पुस्तक की भूमिका में एक और बहुत प्यारी-सी बात है कि लेखक ने अपनी ‘‘वाईफ टू बी मेघा पांडे’’ अर्थात् होने वाली पत्नी का भी आभार माना है। यह रिश्तों के प्रति लेखक की प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) को दर्शाता है।

‘‘द नाईट आउट’’ पर मैं चर्चा करूं इससे पहले आज के युवा उपन्यासकारों के लेखन की कुछ विशेषताओं की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगी। आज के युवा रचनाकारों का अनुभव संसार एकदम अलग है। वे भाषाई तौर पर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाते हैं अतः जब वे साहित्य सृजन की ओर कदम बढ़ाते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनकी पकड़ अंग्रेजी में मजबूत होने से वे सृजन के माध्यम के लिए अंग्रेजी को चुनते हैं। किन्तु भारतीय संस्कृति और संस्कार उनके मानस में इतने गहरे समाए रहते हैं कि वे अपनी तमाम आधुनिकताओं के बाद भी रिश्तों एवं संबंधों को ले कर भारतीय दृष्टिकोण रखते हैं। यद्यपि यह भी सच है कि हुक्काबार में जाना, पब में जाना या विपरीतलिंगी मित्रता में एक से अधिक मित्रों के साथ निकट संबंधों तक पहुंच कर अलग भी हो जाना, उनके लिए कोई बहुत गंभीर विषय नहीं है। ‘‘पैचअप’’ और ‘‘ब्रेकअप’’ आजकल के युवाओं के लिए एक पीढ़ी पहले की भांति प्रायः मरने-जीने का प्रश्न नहीं बनता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आज के युवाओं को जीवन का मूल्यबोध नहीं है। बल्कि वह जीवन को पूरे जोश के साथ जीना जानता है। यही सब बातें आज के युवा साहित्य में मुखर हो कर सामने आ रही हैं। इसीलिए इस प्रकार के उपन्यासों की अपनी अलग अर्थवत्ता है। ये उपन्यास उस युवा पीढ़ी की भावनाओं एवं विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो ग्लोबलाईजेशन को जी रही है।

कार्तिकेय शास्त्री एक युवा लेखक हैं। ‘‘द नाइट आउट’’ उनका पहला उपन्यास है। यह रोमांस, रहस्य, मनोविज्ञान और फैंटासी से भरपूर है। जैसा कि कव्हर में दिया गया है कि ‘‘4 फ्रेंड, 6 प्लेसेस एण्ड वन नाईट’’, इसी से स्पष्ट हो जाता है कि पूरा कथानक एक रात की घटनाओं पर आधारित है। बस, यही बात जिज्ञासा जगाती है कि ऐसा क्या हुआ उस एक रात में जिसने उपन्यास के पूरे एक प्लाट को जन्म दे दिया। मुझे याद आ गया 2017 में प्रकाशित उपन्यास ‘‘द गोल्डन विंडो’’। जो अपने थ्रिलर प्लॉट के लिए बहुत लोकप्रिय हुआ था। इतना लोकप्रिय कि अगले साल यानी 2018 में, उसका किंडल संस्करण ‘‘गल्र्स नाईट आउट’’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास की लेखिकाएं दो युवा अमेरिकन महिला लिज फेंटन और लिसा स्टिंक थी, उन्होंने मिल कर एक थ्रिलर लिखा था जो तीन दोस्तों की कहानी थी। ‘‘द गोल्डन विंडो’’ की कहानी से ‘‘द नाईट आउट की कहानी का कोई साम्य नहीं है लेकिन के किंडल संस्करण को ‘‘गल्र्स नाइट आउट’’ के नाम से छापा जाना इस बात का स्पष्ट द्योतक था कि युवा पीढ़ी की गतिविधियों और जीवनशैली को लेकर हर कोई उत्सुक रहता है। इसीलिए पाठकों में ‘‘द नाईट आउट’’ को ले कर यह जिज्ञासा जरूर जागेगी कि उस रात उन चार दोस्तों के साथ आखिर क्या हुआ था जब वे रात को अनियोजित तरीके से घूमने निकले।
चार दोस्तों के अनुभवों पर आधारित यह उपन्यास एक विनोदी, भावनात्मक और साहसिक यात्रा की तरह है जो पाठकों को दोस्ती, करियर के लक्ष्यों और सच्चे प्यार के पार बहुआयामी रास्तों से ले जाती है। कहानी फोन पर तीन दोस्तों की आपसी चर्चा से शुरू होती है, जब करण को अचानक ध्यान जाता है कि आज सैटरडे नाईट है। यानी अनप्लांड नाइट आउट। करण अपने मित्र आशीष से बात करता है और उसे इस बारे में याद दिलाता है। करण आशीष का घनिष्ठ मित्र है। उनमें कई बातें एक समान हैं। विशेष रूप से उनके सोचने का ढंग और उनकी किताबों की पसंद। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद आशीष अपने पारिवारिक व्यवसाय को संभालने में व्यस्त हो जाता है जबकि करण एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करने लगता है।

आशीष करण से बात करने के बाद अपने एक और दोस्त ऋषि को फोन करके सैटरडे नाइट की याद दिलाता है। ऋषि अपने एकाउंटिंग के काम से स्वयं को त्रस्त महसूस कर रहा था। सैटरडे नाइट की बात सुनकर वह भी राहत की सांस लेता है। लेकिन वह तत्काल अपनी सहमति व्यक्त नहीं कर पाता है। वस्तुतः ऋषि अलग स्वभाव का है। वह हर चीज को व्यवस्थित ढंग से प्लान करके करना पसंद करता है। अपने काम की व्यस्तता से झल्लाया हुआ ऋषि आखिरकार आशीष को फोन करता है और अपनी सहमति व्यक्त कर देता है। अंश, आशीष और ऋषि का स्कूल के जमाने से परस्पर मित्र हंै। अंश कद-काठी में अपने मित्रों से अलग है। उसे डबल पावर का चश्मा भी लगता है।  लेकिन इससे उनकी मित्रता में कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सभी अच्छे मित्र हैं।

सभी मित्र एक कार में सवार होकर निकल पड़ते हैं। वे एक हुक्का बार वे पहुंचते हैं जहां उन्हें अपनी दो गर्लफ्रेंड अवनी और गार्वी मिलती हैं। गार्वी का ताजा ब्रेकअप हुआ था जिससे वह अपसेट थी। हुक्का बार से दोनों लड़कियों को साथ लेकर उन्हें उनके घर पहुंच जाते हैं और फिर वे चारों दोस्त आउटिंग करते हुए कुछ देर के लिए एक बेंच पर जा कर बैठते हैं और आपस में चर्चा करने लगते हैं।  अंश लड़कियों को लेकर दोनों दोस्तों से अलग विचार रखता है। वह स्वीकार करता है कि जब से उसका अपनी गर्लफ्रेंड रूमी से ब्रेकअप हुआ तब से लड़कियों के प्रति उसका नज़रिया बदल गया है। रूमी से अलग होने के बाद वह किसी एक लड़की के साथ गंभीर रिश्ता नहीं बना पाया। वह बताता है कि आज रात अभी गार्वी को उसके घर छोड़ते समय गार्वी ने उसके निकट आने की कोशिश की थी । मगर अंश ने उससे फिर कभी मिलने की बात कह कर विदा ले ली थी। 

चारों दोस्त वहां से चलकर, रात भर खुले रहने वाले एक कैफे में पहुंचते हैं। फिर एक बार उनके बीच चर्चाओं का दौर चलता है। करण अपनी गर्लफ्रेंड वानी के साथ  2 साल से रिलेशन में था । लेकिन वानी करण से बहुत दूर रहती थी जिसके कारण वे महीने में एक-दो बार ही मिल पाते थे। वही ऋषि की भी अपनी एक गर्लफ्रेंड है जो स्कूल के समय से ही ऋषि के प्रेम में डूबी हुई है। जिसका नाम है मोनिका। लेकिन ऋषि और मोनिका के बीच ब्रेकअप हो जाता है जिस पर मोनिका बहुत रोती है और तब करण उसे समझा कर शांत करता है। कैफे में कुछ देर आपस में बहस करने के बाद वे फिर एक बार खुली सड़क पर ड्राइविंग के लिए निकल पड़ते हैं। अपनी दफ्तर की जिंदगी में एक जगह बैठे रहने से उकताए हुए दोस्त नाईट आउट में एक जगह पर अधिक देर नहीं बैठे रहना चाहते हैं।
रात्रि समाप्त होते-होते वे फार्म हाउस से होते हुए पहाड़ की चोटी पर पहुंचते हैं। वहां वे परस्पर बातें करते हैं, बहस करते हैं और आपस में एक दूसरे को और अधिक परस्पर जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। अंत में अंश को अवनी की भावनाओं का एहसास होता है और उपन्यास अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचता है। बीच में कई ऐसी चर्चाएं हैं जो सस्पेंस जगाती हैं और रहस्योद्घाटन भी करती हैं, जिन्हें पढ़ने का अपना एक अलग ही आनंद है। यह उपन्यास बेहद रोचक है और एक ही बैठक में पढ़े जाने को विवश करता है।

उपन्यास 9 चैप्टर में विभक्त है- द मीटअप, द प्लान, द कैफे, द लांग रोड, द रेस्टोरेंट्स ऑन द हाईवे, द पैलेस, द फार्म हाउस, द हिल तथा द फेयरवेल।  यह बेहद सरल शब्दों में लिखा गया है किंतु इसमें दृश्यात्मकता की कोई कमी नहीं है। जैसे मध्यरात्रि का वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है-‘‘इट वाज गेटिंग क्लोज टू मिड नाइट एंड द सिटी वास शटिंग डाउन। दिस वाज द टाइम फॉर नाइट आऊल्स....।’’

लेखक की मनोवैज्ञानिक पकड़ भी जबरदस्त है। अकेलेपन के बारे में बहुत गहराई से लिखा गया है- ‘‘लोनलीनेस इज फार मोर डेंजरस देन गेटिंग प्वाइजंड। इटमैक्स यू एनाक्सियस, इट मैक्स यू वांट टू एस्केप, ए मैन कैन सरवाइव ऑलमोस्ट एनीथिंग - एंड टेक ए ब्रेक अप, द लॉस ऑफ ए लव्ड वन,  बट नॉट लोनलीनेस। इट किल्स स्लोली एंड देयर इज नो इंस्टेंट रिमेडी।’’

युवा मनःस्थिति को जानने-समझने की दृष्टि से यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है। यह किसी भी दृष्टि से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि किसी लेखक की पहली कृति है। पूरे उपन्यास में लेखन शैली, भाषा और कथानक की दृष्टि से पूरी गंभीरता का आभास होता है। कार्तिकेय शास्त्री का यह पहला उपन्यास उनके उज्ज्वल लेखकीय भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। सरल अंग्रेजी में लिखे गए इस उपन्यास को एक बार अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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Sunday, June 19, 2022

संस्मरण | लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


नवभारत मेंं 19.06.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        आज सोचने बैठो तो वे सब न जाने किस युग की बातें लगती हैं। बिलकुल किसी परिकथा-सी काल्पनिक। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अतीत में थीं किन्तु आज असंभव-सी प्रतीत होती हैं। किसी किंवदंती या भूले हुए मुहावरे की तरह अतीत की जीवनचर्या, आज से एकदम भिन्न थी। बात पुरानी है लेकिन बहुत पुरानी भी नहीं।

जब मैं छोटी थी तो घर में मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जला कर खाना पकाया जाता था। मेरे घर में दो चूल्हे थे। एक स्थाई चूल्हा जो चौके में स्थापित था। यह दो मुंह का था। यानी एक मुंह सामने था जिसमें लकड़ियां डाली जाती थीं और दूसरा मुंह उसके ठीक पीछे ऊपर की ओर खुला हुआ था। इस पीछे वाले मुंह पर आमतौर पर दाल पकने को रख दी जाती थी। दाल पकने में बहुत समय लगता था। लकड़ी के चूल्हे पर पतीले में रख कर दाल-चावल पकाना भी एक विशेष पाककला थी। दाल और चावल दोनों को पकाने के लिए पहले पतीले में पानी खौलाया जाता था। जिसे ‘अधहन’ कहते थे। जब पानी खदबदाने लगता तब दाल के बरतन में दाल और चावल के पतीले में चावल डाल दिए जाते थे। दाल पकाने के लिए आमतौर पर लोटे के आकार का बरतन काम में लाया जाता था जिसे ‘बटोही’ अथवा ‘बटलोही’ कहते थे। इसे चूल्हे के पीछे वाले मुंह पर चढ़ाते थे। खौलते पानी में दाल डालने के बाद उसमें हल्दी डाल दी जाती लेकिन नमक देर से डाला जाता ताकि दाल पकने में अधिक समय न ले। बटलोही के मुंह पर एक कटोरे में पानी भर कर रख दिया जाता था जो धीरे-धीरे गरम होता रहता था। यह गरम पानी पकती हुई दाल में उस समय मिलाया जाता जब दाल में पानी कम होने लगता और दाल पूरी तरह गली नहीं होती। पकती हुई दाल में ठंडा पानी मिलाने से दाल गलने में अधिक समय लेती। पकाते समय दाल का अच्छी तरह गलना बहुत महत्व रखता था। निश्चितरूप से इसी से ‘‘दाल गलना’’ मुहावरा बना होगा।

चूल्हे के पीछे वाले मुंह में आग की लपटों एवं तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ियों को आगे या पीछे सरका दिया जाता था। जब लकड़ियों से पर्याप्त अंगार बन जाते तो उन्हें चूल्हे के आगे वाले मुंह में फैला कर उन पर रोटियां सेंकी जातीं। यदि अंगार अधिक मात्रा में होते तो रोटियों पर राख कम लगती थी। मैंने मिट्टी के चूल्हे पर बहुत कम बार खाना बनाया। क्योंकि जब पूरी तरह से रसोई का पूरा काम हम दोनों बहनों के जिम्मे आया तब तक घर में कुकिंग गैस और गैस चूल्हा आ चुका था। फिर भी चूंकि मुझे बचपन से खाना पकाने का शौक़ था इसलिए मैं खाना पकाने वाली महराजिन बऊ के क्रियाकलाप ध्यान से देखा करती थी और सोचती थी कि एक दिन मैं भी इसी तरह खाना पकाया करूंगी।

घर में दूसरा चूल्हा ‘‘मोबाईल चूल्हा’’ था। वह आमतौर पर बाहर के आंगन में काम में लाया जाता था। गर्मी के दिनों में शाम को उस पर बाहर खाना बनता, जाड़े के दिनों में सुबह और रविवार की दोपहर उस पर नहाने का पानी गरम किया जाता। उन दिनों हीटर या गीज़र नहीं थे। बड़े से पतीले पर हर सदस्य के लिए बारी-बारी से पानी गरम किया जाता। उस गरम पानी को लोहे की बाल्टी में डाल कर उसमें ठंडा पानी मिलाते हुए पानी का तापमान नहाने लायक बनाया जाता। बारिश के दिनों में वह चूल्हा उठा कर घर के अंदर रख दिया जाता। बऊ खाना बनाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे को रोज नियमित रूप से गोबर से लीपती थी। लगभग पंद्रह दिन के अंतराल में मिट्टी से चूल्हे की मरम्मत भी किया करती थी। चूल्हे का पूरा मैनेजमेंट बऊ के हाथों था लेकिन चूल्हे के लिए लकड़ियों की व्यवस्था मां और मामाजी को करनी पड़ती थी। जब तक कमल मामाजी हम लोगों के साथ रहे तब तक मां को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा लेकिन मामाजी के नौकरी पर शहडोल चले जाने के बाद पूरा जिम्मा मां पर आ गया। मां की यह आदत थी कि वे अपने काम पर स्कूल जाने के अलावा कहीं भी अकेली जाना पसंद नहीं करती थीं। इसलिए जब वे सुबह छः बजे बैलगाड़ी वालों से बात करने घर से निकलतीं तो मुझे अपने साथ ले जातीं। मैं तो शायद पैदायशी घुमक्कड़ थी। मैं खुशी-खुशी उनके साथ चल पड़ती। उन दिनों लकड़ियां बेचने वाले बैलगाड़ी में लकड़ियां भर कर बेचने शहर लाते थे। पन्ना शहर के आस-पास तब न तो जंगल की कमी थी और न लकड़ियों की। बारिश के पहले अचार, बड़ी, पापड़ बना कर रखने की भांति एक बैलगाड़ी भर लकड़ियां भी खरीद कर रख ली जाती थीं। जो लकड़ियां अधिक मोटी होतीं उन्हें उस बैलगाड़ी वाले विक्रेता से ही फड़वा ली जाती थीं। लकड़ियां फाड़ने के दौरान उनके पतले टुकड़े भी निकलते जिन्हें ‘‘चैलियां’’ कहते थे। चूल्हा जलाने में इन चैलियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती। यही चैलियां पहले आग पकड़तीं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां सुलगनी शुरू होतीं। सूखी लकड़ियां सबसे अच्छी जलतीं और कम धुआं करतीं जबकि गीली लकड़ियां धुआं-धुआं हो कर रुला डालतीं। इसलिए लकड़ियां खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाता कि लकड़ियां सूखी हों। यदि ज़रा भी संदेह होता कि लकड़ियां कच्ची और गीली हैं तो उन्हें स्टोर करने से पहले कुछ दिन धूप में छोड़ दिया जाता ताकि वे अच्छी तरह सूख जाएं। उन दिनों मैंने यह बात सीखी थी कि कच्ची लकड़ियों में एक अजीब सोंधी गंध आती है, कुछ-कुछ शुद्ध गोंद जैसी। जबकि सूखी लकड़ियों में सूखी-सी, दूसरे ढंग की गंध होती है।
रसोईघर की छत एडबेस्टस सीमेंट शीट की थी ताकि खाना पकाते समय उससे धुआं आसानी से निकलता रहे। यद्यपि उस शीट की निचली सतह पर धुंए की एक पर्त्त जम जाया करती थी जिसे समय-समय पर साफ़ करते रहना पड़ता था। अन्यथा बारिश के दिनों में ठंडा-गरम तापमान मिल कर वह धुंए की पर्त्त बूंद बन कर टपकने लगती। यदि वह रंगीन बूंद किसी कपड़े पर गिर जाती तो उस कपड़े पर सदा के लिए भद्दा-सा अमिट दाग़ पड़ जाता। बहरहाल, रसोईघर में ही बांस की टटिया से पार्टीशन कर के लकड़ियां रखने की जगह बनाई गई थी, जहां बारिश के चार माह के लिए सूखी लकड़ियां करीने से जमा कर रख दी जातीं। लकड़ियों की छाल और चैलियां अलग बोरे में भर कर रखी जातीं। साथ ही गोबर के कंडे भी खरीद लिए जाते। ये कंडे चूल्हा जलाने में काम आते। जाड़े और गर्मी के मौसम में ‘‘मोरी वालियों’’ से भी लकड़ियां खरीदी जाती थीं। ये मोरी वालियां अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लाद कर बेचने आती थीं। वे लकड़ियां काट कर नहीं वरन बीन कर लाती थीं और अपने सिर पर रखती थीं अतः उनकी लकड़ियां हमेशा सूखी हुई होती थीं। उन मोरी वालियों से मोल-भाव कर के लकड़ियां खरीदी जाती थीं। काॅलेज के दिनों में जब मैं कहानियां लिखने लगी थी तब मैंने एक मोरीवाली की समस्या पर कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘काला चांद’’। कथानक की दृष्टि से वह अपने आप में एक बोल्ड कहानी थी। यानी सच को सामने रखने में मुझे कभी हिचक नहीं हुई।

चूल्हे के लिए लकड़ियों के अलावा लकड़ी का कोयला और बुरादा भी काम में लाया जाता था। लकड़ी के कोयले की अंगीठी और बुरादे की अंगीठी दोनों मेरे घर में पाई जाती थी। कोयला और बुरादा टाल से खरीदा जाता था। हम लोगों के घर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘‘छोटा शेर-बड़ा शेर’’ की कोठी के पास एक साॅ मिल थी। यह कोठी राणा परिवार की थी जो वर्षों पूर्व पन्ना की महारानी के साथ नेपाल से वहां आए थे और फिर वहीं बस गए थे। बहुत ही सम्मानित परिवार था वह। हां, तो उस साॅ मिल में भी बुरादा बेचा जाता था। अतः कई बार मां वहां से भी बुरादा मंगा लिया करती थीं। जबकि कोयले की टाल घर से काफी दूर महेन्द्र भवन के पास थी जो वहां का शासकीय परिसर था और जहां कलेक्टर कार्यालय, कचहरी, हीरा कार्यालय, पीडब्ल्यूडी ऑफिस आदि सभी कुछ था। महेन्द्र भवन दरअसल आलीशान भवन है। सन् 1980 में बड़ौदा महाराज राव फतेहसिंह गायकवाड़ की एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘‘दी पैलेसेस ऑफ इंडिया’’, इस किताब के लिए फोटोग्राफी की थी वर्जीनिया फाॅस ने। इस किताब में महेन्द्र भवन का तस्वीर सहित उल्लेख किया गया था। 

लकड़ी का कोयला और बुरादा बोरों में भर कर सूखी जगह पर रखा जाता था। यानी लकड़ी, कोयला और बुरादा तीनों के व्यवस्थित और सही समय पर मैनेजमेंट से खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवथा सुनिश्चित की जाती थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुकिंगगैस, इंडक्शन, माइक्रोवेव और हाॅटप्लेट पर धुआंरहित तरीके से खाना पकाया जाएगा और एक मोबाईल काॅल पर इन्हें खरीद कर घर मंगाया जा सकेगा। सचमुच समय जीने के तरीके बदल देता है। लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि उन दिनों ज़िन्दगी फिर भी आसान थी? यह मेरा भ्रम है या सच्चाई, पता नहीं।                    
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Wednesday, June 15, 2022

चर्चा प्लस | विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस (15 जून) | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस (15 जून)    
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
           भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों के लिए सदा आदर-सत्कार की भावना रही है किन्तु एकल परिवार के चलन ने बुजुर्गों को एकाकी कर दिया है। जहां तक बुजुर्गों से दुर्व्यवहार का प्रश्न है तो आए दिन ऐसी घटनाएं समाचारपत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं जिनमें थोड़े से पैसों के कारण बेटे ही अपने वृद्ध माता-पिता को शारीरिक चोट पहुंचाने से नहीं चूकते हैं। खाना, कपड़ा आदि को तरसाने, घर से निकाल देने अथवा वृद्धाश्रमों में पहुंचा देने की घटनाएं आम होती जा रही हैं, जो कि सामाजिक चिंता का विषय है।
20 अप्रैल को अपनी मां की प्रथम पुण्यतिथि पर मैंने वृद्धाश्रम जा कर वृद्धों को भोजन कराने का निश्चय किया। इस सिलसिले में मेरे शहर सागर में वृद्धजन की सेवा के लिए चर्चित ‘‘सीताराम रसोई संस्था’’ में मैं गई। वह वृद्धाश्रम नहीं है किन्तु संस्था द्वारा बुजुर्गों को दोनों समय निःशुल्क भोजन कराया जाता है। वहां मैंने पाया कि भोजन और सफाई की गुणवत्ता उच्चकोटि की है। वहां के सेवादार मिलनसार एवं उदार हैं। किन्तु वहां भोजन के लिए आए वृद्ध स्त्री-पुरुषों को देख कर मन भर आया। यह सोचना दुखी कर गया कि इनके परिजन इन्हें दो रोटी भी नहीं दे पा रहे हैं। संस्था से बाहर आ कर आस-पास चर्चा करने पर पता चला कि उनमें कुछ बुजुर्गों को घर से निकाल दिया गया है तो कुछ को घर में भोजन नहीं दिया जाता है। उनमें कुछ ऐसे भी थे जिनके परिजन सचमुच आर्थिक रूप से विपन्न थे। फिर भी यह सब जानना पीड़ादायक था। वह तो भला हो ऐसी संस्थाओं का जो इन वृद्धों को भरपेट भोजन करा रही है अन्यथा इनके पास भीख मांगने अथवा भूखे करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता। उन बुजुर्ग महिलाओं को देख कर मुझे अपनी मां की स्मृति ताज़ा हो गई। उन्होंने 93 वर्ष की आयु में हृदयाघात से संसार त्यागा। मैंने और मेरी बड़ी बहन डाॅ. वर्षा सिंह ने अपनी मां की यथाशक्ति सेवा की। समय पर भोजन, समय पर दवाएं, उन्हें प्रसन्न रखने का पूरा प्रयास। उनकी चिरविदा के बाद यही संतोष हमें रहा कि हमने उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं होने दिया। वहीं, उन लाचार बुजुर्गों को देख कर यही प्रश्न कौंधा कि क्या इनकी संतानों के सीने में दिल नहीं है?
 
अपने माता-पिता अथवा परिवार के बुजुर्गों के साथ कैसे कोई दुर्व्यवहार कर सकता है? यह प्रश्न उस समय में मन में उठता है जब खबर पढ़ते हैं कि चंद रुपयों की लालच में बेटे ने मां को मार दिया अथवा पिता को मौत के घाट उतार दिया। बहुत से बुजुर्ग तो ऐसे हैं जिन्हें घर से तो नहीं निकाला जाता है किन्तु उनके साथ घोर उपेक्षा भरा व्यवहार किया जाता है। उन्हें भोजन, कपड़ा, दवा आदि के लिए भी तरसाया जाता है। उन्हें ‘‘बेकार की वस्तु’’ समझा जाता है। एकल परिवारों के चलन ने इस तरह की विपरीत भावना को और अधिक बढ़ावा दिया है। जबकि हमारी भारतीय संस्कृति बुजुर्गों की सेवा करने को ईश्वर की सेवा के समान मानती है। श्रवण कुमार की कहानी माता-पिता की सेवा के उदाहरणस्वरूप सुनाई जाती है। किन्तु अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। बुजुर्ग बच्चों रहते हुए भी अकेले छूट रहे हैं। यदि साथ रहते हैं तब भी अकेलेपन के शिकार रहते हैं और कभी-कभी हिंसा के भी। वस्तुतः यह समस्या हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में है।
 
प्रतिवर्ष 15 जून को दुनिया भर में ‘विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस’ का आयोजन किया जाता है। यह संपूर्ण विश्व में हमारे बुजुर्गों के प्रति होने वाले दुर्व्यवहार एवं कष्टों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करने के लिए जागरूकता का दिवस है। इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर द प्रिवेंशन ऑफ एल्डर एब्यूज के अनुरोध के बाद, इसे संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अपने संकल्प 66/127, दिसंबर 2011 में आधिकारिक तौर पर मान्यता दी थी, जिसने पहली बार जून 2006 में स्मरणोत्सव की स्थापना की थी। विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस का मुख्य लक्ष्य दुनिया भर में हमारे समुदायों को वृद्ध लोगों के साथ दुर्व्यवहार और उपेक्षा के बारे में बेहतर जानकारी प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना है। यह एक वैश्विक सामाजिक मुद्दा है जिसमें न केवल वृद्ध लोगों के स्वास्थ्य बारे में बल्कि उनके अधिकारों के बारे में भी चर्चा की जाती है। वर्ष 2022 के लिए थीम है ‘‘ सभी उम्र के लिए डिजिटल इक्विटी’’ (डिजिटल इक्विटी फाॅर आॅल ऐज़)।

विश्वभर में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। बुजुर्गों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हो रही हैं। बुजुर्ग दुव्र्यवहार एक महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या है। वर्ष 2017 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर साठ वर्ष की आयु एवं उससे अधिक आयु वर्ग के पंद्रह दशमलव सात प्रतिशत लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया गया था या पिछले वर्ष विश्वभर भर में लगभग छह में से एक बुजुर्ग व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार किया गया है। भारत में लगभग 104 मिलियन बुजुर्ग हैं तथा वर्ष 2026 तक इस संख्या में 173 मिलियन की वृद्धि होने की संभावना है।

यह कल्पना करना कठिन हो सकता है कि कोई जानबूझकर किसी बुजुर्ग व्यक्ति को नुकसान पहुंचाना चाहेगा, लेकिन दुर्भाग्य से, बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक व्यापक समस्या है। कुछ दुर्व्यवहार का उद्देश्य व्यक्ति का आर्थिक रूप से शोषण करना होता है। आए दिन वरिष्ठों को निशाना बनाने वाले घोटालों के बारे में एक न एक समाचार मिलता रहता है। इसके अलावा आजकल कई लोग अपने बुजुर्गों को बुनियादी आवश्यकताएं प्रदान नहीं करते हैं, जैसे पौष्टिक भोजन, उचित दवा, सुरक्षा, स्वच्छता एवं सहायता। यदि सोचें कि बुजुर्गों की मुख्य समस्या क्या है? तो उत्तर मिलेगा कि मुख्य समस्या शारीरिक बीमारी है। नेशनल काउंसिल ऑन एजिंग के अनुसार, लगभग 92 प्रतिशत वरिष्ठों को कम से कम एक पुरानी बीमारी होती है और 77 प्रतिशत में कम से कम दो बीमारियां अवश्य रहती हैं। हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर और मधुमेह सबसे आम बीमारियां हैं।
हमारे देश में बुजुर्गों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए वृद्ध व्यक्तियों पर राष्ट्रीय नीति (एनपीओपी), 1999 में वित्तीय और खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, आश्रय और वृद्ध व्यक्तियों की अन्य जरूरतों को सुनिश्चित करने, विकास में समान हिस्सेदारी, दुर्व्यवहार और शोषण के खिलाफ सुरक्षा, और सेवाओं की उपलब्धता में सुधार के लिए राज्य सहायता की परिकल्पना की गई है।
‘‘राष्ट्रीय वयोश्री योजना’’ बीपीएल श्रेणी से संबंधित वरिष्ठ नागरिकों के लिए शारीरिक सहायता और सहायक-जीवित उपकरण प्रदान करने की योजना है। यह एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, जो पूरी तरह से केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित है। योजना के क्रियान्वयन का व्यय ‘‘वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष’’ से किया जाता है। भारत सरकार ने कई वर्षों की बहस के बाद अंततः जनवरी 1999 में वृद्ध व्यक्तियों की राष्ट्रीय नीति को घोषित किया था। प्रधान मंत्री वय वंदना योजना (पीएमवीवीवाई) भारत सरकार द्वारा घोषित सेवानिवृत्ति सह पेंशन योजना है। योजना को सरकार द्वारा सब्सिडी दी जाती है और इसे मई 2017 में लॉन्च किया गया था। वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष की स्थापना वित्त अधिनियम, 2015 के तहत की गई है, जिसका उपयोग वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए इस तरह की योजनाओं के लिए किया जाता है जो वृद्ध व्यक्तियों पर राष्ट्रीय नीति के अनुरूप है।

ज़रा देखें कि हमारे देश में वरिष्ठ नागरिक की परिभाषा क्या है? कानून के अनुसार, ‘‘वरिष्ठ नागरिक’’ का अर्थ भारत का नागरिक होने वाला कोई भी व्यक्ति है, जिसने साठ वर्ष या उससे अधिक की आयु प्राप्त कर ली हो। बुजुर्ग और वरिष्ठ नागरिक की मदद करने के लिए 5 सरकारी योजनाएं लागू हैं जिनके बारे में पता होना आवश्यक है- वरिष्ठ नागरिक बचत योजना, प्रधानमंत्री वय वंदना योजना, वरिष्ठ पेंशन बीमा योजना, राष्ट्रीय वयोश्री योजना तथा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना। इन योजनाओं की जानकारी बुजुर्गों को भी होनी चाहिए। जैसे, प्रधानमंत्री वय वंदना योजना भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा प्रदान की जाती है। भारत सरकार प्रधान मंत्री वय वंदना योजना वित्तीय सेवा विभाग, वित्त मंत्रालय द्वारा संचालित की जाती है। कोई भी वरिष्ठ नागरिक जो 60 वर्ष का है, 80 वर्ष की आयु तक राष्ट्रीय बीमा वरिष्ठ मेडिक्लेम पॉलिसी के लिए पात्र है। नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड द्वारा भारत में इस ऑनलाइन वरिष्ठ मेडिक्लेम पॉलिसी को खरीदने के लिए अधिकतम आयु सीमा 80 वर्ष है और पॉलिसीधारक इसे 90 वर्ष की आयु तक नवीनीकृत कर सकते हैं। बुढ़ापा हर व्यक्ति के जीवन में आता है, जिसे आमतौर पर कालानुक्रमिक उम्र से मापा जाता है और एक परंपरा के रूप में, 65 वर्ष या उससे अधिक आयु के व्यक्ति को अक्सर ‘‘बुजुर्ग’’ कहा जाता है। जैविक बुढ़ापा -यह उम्र बढ़ने का प्रकार है जिससे अधिकांश लोग परिचित हैं, क्योंकि यह उन विभिन्न तरीकों को संदर्भित करता है जो मानव शरीर समय के साथ स्वाभाविक रूप से बदलता है, इसके अतिरिक्त  मनोवैज्ञानिक बुढ़ापा और सामाजिक बुढ़ापा।

यदि सुशिक्षित बुजुर्ग हैं तो उन्हें अपनी शारीरिक क्षमताओं में कमी आने से पूर्व ही शासकीय सहायताओं एवं योजनाओं के बारे में जानकारी एकत्र कर लेनी चाहिए। बुजुर्गों का भरण-पोषण और सेवा कानूनन संतान का दायित्व मानी कई है अतः संतान द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर चुपचाप सहने के बजाए प्रताड़ना का विरोध करना उचित है। यदि माता-पिता अपढ़ अथवा कम पढें-लिखें है तो उन्हें भी उनके अधिकार पता होने चाहिए। दरअसल, यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि एक युवा माता-पिता अपने बुजुर्ग माता-पिता को प्रताड़ित या उपेक्षित करते हैं तो उनके इस व्यवहार से उनके बच्चे भी यही शिक्षा ग्रहण करेंगे और आगे चल कर वे भी अपने माता पिता के साथ वैसा ही कठोर व्यवहार करेंगे।  इस तथ्य को भी याद दिलाता है ‘विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार  जागरूकता दिवस’।
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(15.06.2022)
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Tuesday, June 14, 2022

पुस्तक समीक्षा | प्रथम पुष्प की सुवास लिए प्रथम कविता संग्रह | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 14.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री संध्या सर्वटे  के काव्य संग्रह "प्रकृति के रंग" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏

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पुस्तक समीक्षा
प्रथम पुष्प की सुवास लिए प्रथम कविता संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  -  प्रकृति के रंग
कवयित्री     -  संध्या सर्वटे
प्रकाशक     -  एक्टिव कम्प्यूटर्स एंड अमन प्रकाशन, नमक मंडी, सागर (मप्र)
मूल्य        -  100/- 
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संध्या सर्वटे सागर के साहित्य जगत के लिए नया नाम नहीं है किंतु अपने प्रथम काव्य संग्रह के साथ उन्होंने एक आग्रह पूर्ण कवयित्री के रूप में पहली बार दस्तक दी है। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘‘प्रकृति के रंग’’ विविध रंगी भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं का सुंदर संग्रह है। संग्रह की कविताओं पर मैं अपनी ओर से समीक्षात्मक टिप्पणी करूं इससे पूर्व चर्चा करना चाहूंगी उन दो मंतव्यों की जो भूमिका के रूप में संग्रह में समाहित हैं। पहली टिप्पणी है सागर नगर के वरिष्ठ कवि टीकाराम त्रिपाठी जी जिन्होंने ‘‘कोलाज के रूप में कविताएं’’ शीर्षक से इस संग्रह की कविताओं पर अपने विचार रखे हैं। वे  लिखते हैं कि ‘‘संध्या जी के अंतःकरण में यद्यपि एक कुशल चित्रकार का व्यक्तित्व बहुत भीतर तक संचित है तथापि कविता भी एक कोलाज के रूप में उनके मन मस्तिष्क की भाव भूमि में निर्मित होती रहती है जिस का प्रतिफल है यह सद्यः प्रकाश्य काव्य संग्रह है।’’
आशीर्वचन के रूप में दूसरा मंतव्य है महाराष्ट्र समाज सागर की अध्यक्ष एवं साहित्यकार डॉ मीना पिंपलापुरे का। उनके अनुसार, ‘‘संध्या सर्वटे जी द्वारा हिंदी कविता संग्रह का यह प्रथम प्रयास है। मराठी भाषा होते हुए उन्होंने हिंदी में जो प्रयास किया है वह निश्चित रूप से सराहनीय है। मराठी भाषा पर तो उनका कमांड है ही परंतु उसी तरह से हिंदी भाषा पर उनका कमांड है, जिसे हम इन कविताओं में देख सकते हैं।’’
चलिए अब दृष्टिपात करते हैं संग्रह की कविताओं और उन कविताओं की मूल भावनाओं पर। जैसा कि संध्या सर्वटे की कविता संग्रह का नाम है ‘‘प्रकृति के रंग’’, ठीक उसी प्रकार उनकी कविताओं में भावनाओं के नाना विधि रंग बिखरे हुए हैं, मानो किसी एक कैनवास पर एक लैण्डस्केप चित्रित कर दिया गया हो। संग्रह में कविताओं का आरंभ ईश वंदना से है। जिसमें प्रथम विघ्न विनाशक श्री गणेश की स्तुति की गई है। तदुपरांत हरी विठ्ठल का स्तुति गान किया गया है। इन दोनों रचनाओं के बाद प्रकृति प्रेम और जीवनचर्या से जुड़ी कोमल भावनाओं की कविताएं हैं। कवयित्री की प्रकृति संबंधी कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें न केवल प्रकृति से प्रेम है वरन प्रकृति संरक्षण को लेकर भी चिंतित हैं। प्रकृति पुकार रही कविता में वे लिखती है -
प्रकृति पुकार रही
प्रकृति से ही
हमने खिलवाड़ किया
जंगल काटे, वृक्ष काटे
जलाशयों पर घर बनाए।
अपनी प्रकृति का
उग्र रूप देख रहे
पानी ऑक्सीजन हवा
को तरस रहे
अपने ही अपनों से/दूर हो रहे
परिवार के परिवार उजड़ रहे।
इस कविता में संध्या सरवटे नहीं प्रकृति के महत्व का स्मरण कराते हुए उस कुकृत्य की ओर भी ध्यान दिलाया है। जिसके कारण प्रकृति को क्षति पहुंच रही है जैसे वृक्षों को काटना जलाशयों की भूमि को सुखाकर उन पर कालोनियां विकसित कर देना यह सब प्रकृति के प्रति अपराध है। इस कविता में भी अप्रत्यक्ष रूप से उस ओर भी संकेत करती हैं जो प्रकृति में हो रहे बदलाव के कारण पलायन करने पर विवश हो रहे व्यक्तियों और टूटते परिवारों की पीड़ा है।
कवयित्री प्रकृति के रंग में रंग जाना चाहती है जो इंद्रधनुषी आनंद लिए हुए हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘घनन घनन बदरा गरजे’’। इस कविता की पंक्तियां देखिए जिनमें वर्षा ऋतु में विरहिणी नायिका के विरह की पीड़ा को शब्दों में पिरोया गया है -
घनन घनन बदरा गरजे
दमदम दमकती बिजली चमके
झमा, झमाझम बरखा आई
याद पिया की आए
कब से खड़ी राह देखत/पिया की
अब तक ना आए रे
निंदिया आंखों में आई
क्षण क्षण जात भोर हुई
मयूर की केका सुनी
इंतजार अब सहा न जाए।

वर्षा ऋतु की भांति ही वसंत ऋतु मन पर गहरा प्रभाव डालती है। वसंत ऋतु की यह विशेषता है कि वह मन को प्रफुल्लित कर देती है  क्योंकि इस ऋतु में प्रकृति अपने पूरे यौवन पर रहती है। शीत में जो हवाएं कष्ट दे रही थी वह वसंत ऋतु में सुखदाई बन जाती है। चारों दिशाएं कोयल की मधुर आवाज से गूंजने लगती है। खेतों में सरसों इस तरह खिल उठती है जैसे उसने पीले रंग का वस्त्र पहन लिया हो।  कवयित्री प्रकृति के इस सौंदर्य को रेखांकित करते हुए अपनी कविता ‘‘वासंती बयार’’ में लिखती है -
फिजा में वासंती
बयार बहने लगी
कोयल की सुमधुर ध्वनि
दिशाओं में गूंजने लगी
पीले परिधान धारण कर
धरा नाचने झूमने लगी
रूप तुम्हारा यूं निखरा
आकर्षित करता मन सबका ।

कवयित्री अपनी अभिव्यक्ति के दायरे में जीवन की सहज अनुभूतियों और संवेदनाओं को प्रकट करती हैं।  वे दैनिक जीवन में प्रकृति के आनंद की चर्चा करती है।  जैसे भी अपनी कविता ‘‘गुलाब वाटिका’’ मैं कहती है कि -
गुलाबी ठंड में
अपनी गुलाब वाटिका में
टहलते टहलते
कांटो के बीच  खिले
गुलाबों का सौंदर्य निहारते
नयन सुख के साथ
सांसो में सुगंध भरते
मन  हुआ प्रमुदित
कली का रूपांतर
धीरे-धीरे फूल खिलने लगे।

बारिश और चाय-पकौड़ी का रिश्ता बहुत घनिष्ठ है। पवन झकोरा और पानी की फुहारों से आल्हादित  दिवस में  चाय की चुस्कियां और गरमा गरम पकौड़े एक अलग ही आनंद देते हैं इस आनंद का बड़ी सुंदरता से वर्णन किया है कवयित्री ने अपनी इस कविता में, जिसका शीर्षक है ‘‘गरमा गरम पकौड़े’’।  इस कविता की विशेषता यह है कि इसमें यह बात स्पष्ट होती है कि कवयित्री कि जितनी पकड़ काव्य सृजन में है, उतनी ही दक्षता घरेलू कार्यों में भी है। इसीलिए जब कवयित्री  गरमा गरम पकौड़े की बात करती हैं तो उसके साथ आम के नए अचार का स्मरण करती हैं। दरअसल ग्रीष्म काल के अंत में तथा वर्षा ऋतु के पूर्व आम का नया अचार डाला जाता है अतः सावन में इसी नए अचार का सेवन किया जाता है। यह बारीकी वह कवयित्री ही प्रस्तुत कर सकती है जिसे घरेलू कार्यों अर्थात पाककला और अचार, चटनी बनाने की समुचित जानकारी हो। यही इस कविता का सबसे दिलचस्प पक्ष है।
गरमा गरम पकौड़े
आम का नया अचार
दोस्तों के संग
लज्जतदार खाने
का अंदाज निराला
सावन की पहली बारिश
मिट्टी की सोंधी सुगंध
उल्लसित मन
आनंद से झूमे हम
सखी हो किसी का इंतजार
अरे झूमो नाचो/गुनगुनाओ
बारिश की फुहार
में भीगने का आनंद मनाओ।
‘‘कारगिल’’, ‘‘लोकमान्य गंगाधर तिलक’’,‘‘डाॅ. हरीसिंह गौर’’,‘‘योगदिवस’’ आदि वे विविधपूर्ण कविताएं हैं जिनसे यह रोचक बन गया है। कुछ कविताओं में तनिक कच्चापन महसूस हो सकता है किन्तु अहिन्दी भाषी होने के कारण अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि अभी उन्हें हिन्दी में साहित्य सृजन को साधने की ओर पहला कदम बढ़ाया है। कवयित्री संध्या सर्वटे का यह हिन्दी में प्रथम काव्य संग्रह किसी पौधे के प्रथम पुष्प की सुवास की तरह स्वागतेय है। पठनीय है।        
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Sunday, June 12, 2022

समयबद्धता और जागरूकता बना सकती है शहर को नंबर वन - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | स्वदेश ज्योति

'स्वदेश ज्योति' यह जानने की मुहिम चलाई है कि "कैसा हो हमाओ शहर"। इस बार उन्होंने मुझसे पूछा और मैंने भी अपने दिल की बात कह डाली 😊 आप भी पढ़िए 💁
हार्दिक धन्यवाद #स्वदेशज्योति 
हार्दिक आभार विनोद खरे जी 🙏
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समयबद्धता और जागरूकता बना सकती है शहर को नंबर वन - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

इसमें कोई संदेह नहीं कि सागर शहर में विकास कार्य हो रहे हैं। इसे एक स्मार्ट सिटी का रूप दिए जाने की कोशिश हो रही है। लेकिन यह कोशिश इतनी धीमी गति से चल रही है के लोगों की परेशानी का कारण बन चुकी है। पूरे शहर में जगह-जगह सड़कें खुदी हुई है जिन का चौड़ीकरण का कार्य किया जाना है। उचित तो यह होता कि जब एक सड़क का चौड़ीकरण का कार्य पूर्ण हो जाता तब दूसरी सड़क को खोदने का काम शुरू करते, इससे लोगों को असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता। शहर में जो सबसे बड़ी परेशानियां है, वे हैं- आवारा पशुओं और वाहन पार्किंग की। चाहे सिविल लाइन चौराहा हो या मकरोनिया चौराहा अथवा तीन बत्ती से लेकर कटरा मस्जिद तक का भीड़ भरा संवेदनशील मार्ग, सभी जगह आवारा पशु घूमते मिल जाते हैं जिनके कारण आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। इसी तरह वाहन पार्किंग की व्यवस्थित एवं नियोजित सुविधा न होने के कारण सड़कें वाहनों से घिरी रहती हैं। आने-जाने वालों को असुविधा का सामना करना पड़ता है। व्यवसायिक प्रतिष्ठानों जैसे बैंक, मॉल आदि में भी व्यवस्थित पार्किंग सुविधा नहीं हैं। सड़क के किनारे दोहरी-तिहरी लाईन में वाहन पार्क रहते हैं जिससे आधी सड़क तो पार्किंग स्थल बन कर रह जाती है। आवागमन के लिए मात्र आधी सड़क ही शेष बचती है। यह दोनों समस्याएं कोई आज उत्पन्न हुई समस्याएं नहीं हैं। अनेक बार इस संबंध में शासन-प्रशासन से मांगे की गई किंतु कोई स्थाई हल अभी तक लागू नहीं किया गया है। अब स्मार्ट सिटी के अंतर्गत स्थाई हल निकलने की संभावना है किंतु यह समाधान कितने महीनों अथवा वर्षों बाद लागू हो पाएगा यह समझना कठिन है। साथ ही विकास कार्यों की गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। कहने का आशय यही है कि सागर शहर अभी भी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा है जोकि कुछ दशक पहले ही सुधर जानी चाहिए थी। यदि ये समस्याएं न होती तो शहर के विकास और सौंदर्य का स्वरूप कुछ और ही होता। 
       शहर का समुचित विकास न हो पाने और जगह-जगह आज भी स्वच्छता अभियान को मुंह चिढ़ाते गंदगी के साम्राज्य के लिए सिर्फ प्रशासन जिम्मेदार नहीं है बल्कि नागरिकों की लापरवाही और जागरूकता की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है। डोर-टू-डोर कचरा गाड़ी चलाए जाने के बाद भी यदि कचरा यहां वहां फेंका जाता है तो इसके लिए स्वयं हम नागरिक जिम्मेदार हैं। हम पॉलीथिन का उपयोग करके बाहर फेंक देते हैं जो उड़कर नालियों में जा गिरते हैं और नालियों को चोक कर देते हैं। बारिश आने पर यही अवरुद्ध नालियां हमारे लिए समस्या का कारण बन जाती हैं। इसलिए हम नागरिकों को स्वयं भी जागरूकता  का परिचय देना होगा।  यह हम नागरिकों का दायित्व एवं अधिकार है कि यदि कहीं विकास कार्य की गति धीमी है तो हम बिना किसी राजनीतिक भावना के प्रशासन पर यह दबाव बना सकते हैं कि जल्दी से जल्दी कार्य पूरे किए जाएं जिससे आमजन को परेशानियां न झेलनी पड़ें। शहर के विस्तार को देखते हुए सिटी बस भी शीघ्र चलाए जाने की जरूरत है। यदि शहर के विकास पर गंभीरता से ध्यान केंद्रित किया जाए तो हमारा शहर खुद ब खुद 'नंबर वन' बन सकता है । इसी बात पर मैं अपना एक बुंदेली मुक्तक अर्ज़ कर रही हूं -
बड़ो मान  हुइए,  बड़ी शान हुइए
जो हुइए चकाचक हमाओ शहर।
तला,रोड,पशुओं की होए व्यवस्था
सो हुइए  लकादक  हमाओ शहर।
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(वरिष्ठ साहित्यकार एवं समाजसेवी)
#सागर #हमाओशहर
#कैसा_हो_हमाओ_शहर
 #डॉसुश्रीशरदसिंह