Sunday, June 19, 2022

संस्मरण | लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


नवभारत मेंं 19.06.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
लकड़ी, कोयले और बुरादे का मैनेजमेंट
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        आज सोचने बैठो तो वे सब न जाने किस युग की बातें लगती हैं। बिलकुल किसी परिकथा-सी काल्पनिक। लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो अतीत में थीं किन्तु आज असंभव-सी प्रतीत होती हैं। किसी किंवदंती या भूले हुए मुहावरे की तरह अतीत की जीवनचर्या, आज से एकदम भिन्न थी। बात पुरानी है लेकिन बहुत पुरानी भी नहीं।

जब मैं छोटी थी तो घर में मिट्टी के चूल्हे में लकड़ियां जला कर खाना पकाया जाता था। मेरे घर में दो चूल्हे थे। एक स्थाई चूल्हा जो चौके में स्थापित था। यह दो मुंह का था। यानी एक मुंह सामने था जिसमें लकड़ियां डाली जाती थीं और दूसरा मुंह उसके ठीक पीछे ऊपर की ओर खुला हुआ था। इस पीछे वाले मुंह पर आमतौर पर दाल पकने को रख दी जाती थी। दाल पकने में बहुत समय लगता था। लकड़ी के चूल्हे पर पतीले में रख कर दाल-चावल पकाना भी एक विशेष पाककला थी। दाल और चावल दोनों को पकाने के लिए पहले पतीले में पानी खौलाया जाता था। जिसे ‘अधहन’ कहते थे। जब पानी खदबदाने लगता तब दाल के बरतन में दाल और चावल के पतीले में चावल डाल दिए जाते थे। दाल पकाने के लिए आमतौर पर लोटे के आकार का बरतन काम में लाया जाता था जिसे ‘बटोही’ अथवा ‘बटलोही’ कहते थे। इसे चूल्हे के पीछे वाले मुंह पर चढ़ाते थे। खौलते पानी में दाल डालने के बाद उसमें हल्दी डाल दी जाती लेकिन नमक देर से डाला जाता ताकि दाल पकने में अधिक समय न ले। बटलोही के मुंह पर एक कटोरे में पानी भर कर रख दिया जाता था जो धीरे-धीरे गरम होता रहता था। यह गरम पानी पकती हुई दाल में उस समय मिलाया जाता जब दाल में पानी कम होने लगता और दाल पूरी तरह गली नहीं होती। पकती हुई दाल में ठंडा पानी मिलाने से दाल गलने में अधिक समय लेती। पकाते समय दाल का अच्छी तरह गलना बहुत महत्व रखता था। निश्चितरूप से इसी से ‘‘दाल गलना’’ मुहावरा बना होगा।

चूल्हे के पीछे वाले मुंह में आग की लपटों एवं तापमान को नियंत्रित करने के लिए लकड़ियों को आगे या पीछे सरका दिया जाता था। जब लकड़ियों से पर्याप्त अंगार बन जाते तो उन्हें चूल्हे के आगे वाले मुंह में फैला कर उन पर रोटियां सेंकी जातीं। यदि अंगार अधिक मात्रा में होते तो रोटियों पर राख कम लगती थी। मैंने मिट्टी के चूल्हे पर बहुत कम बार खाना बनाया। क्योंकि जब पूरी तरह से रसोई का पूरा काम हम दोनों बहनों के जिम्मे आया तब तक घर में कुकिंग गैस और गैस चूल्हा आ चुका था। फिर भी चूंकि मुझे बचपन से खाना पकाने का शौक़ था इसलिए मैं खाना पकाने वाली महराजिन बऊ के क्रियाकलाप ध्यान से देखा करती थी और सोचती थी कि एक दिन मैं भी इसी तरह खाना पकाया करूंगी।

घर में दूसरा चूल्हा ‘‘मोबाईल चूल्हा’’ था। वह आमतौर पर बाहर के आंगन में काम में लाया जाता था। गर्मी के दिनों में शाम को उस पर बाहर खाना बनता, जाड़े के दिनों में सुबह और रविवार की दोपहर उस पर नहाने का पानी गरम किया जाता। उन दिनों हीटर या गीज़र नहीं थे। बड़े से पतीले पर हर सदस्य के लिए बारी-बारी से पानी गरम किया जाता। उस गरम पानी को लोहे की बाल्टी में डाल कर उसमें ठंडा पानी मिलाते हुए पानी का तापमान नहाने लायक बनाया जाता। बारिश के दिनों में वह चूल्हा उठा कर घर के अंदर रख दिया जाता। बऊ खाना बनाना आरम्भ करने से पूर्व चूल्हे को रोज नियमित रूप से गोबर से लीपती थी। लगभग पंद्रह दिन के अंतराल में मिट्टी से चूल्हे की मरम्मत भी किया करती थी। चूल्हे का पूरा मैनेजमेंट बऊ के हाथों था लेकिन चूल्हे के लिए लकड़ियों की व्यवस्था मां और मामाजी को करनी पड़ती थी। जब तक कमल मामाजी हम लोगों के साथ रहे तब तक मां को अधिक परेशान नहीं होना पड़ा लेकिन मामाजी के नौकरी पर शहडोल चले जाने के बाद पूरा जिम्मा मां पर आ गया। मां की यह आदत थी कि वे अपने काम पर स्कूल जाने के अलावा कहीं भी अकेली जाना पसंद नहीं करती थीं। इसलिए जब वे सुबह छः बजे बैलगाड़ी वालों से बात करने घर से निकलतीं तो मुझे अपने साथ ले जातीं। मैं तो शायद पैदायशी घुमक्कड़ थी। मैं खुशी-खुशी उनके साथ चल पड़ती। उन दिनों लकड़ियां बेचने वाले बैलगाड़ी में लकड़ियां भर कर बेचने शहर लाते थे। पन्ना शहर के आस-पास तब न तो जंगल की कमी थी और न लकड़ियों की। बारिश के पहले अचार, बड़ी, पापड़ बना कर रखने की भांति एक बैलगाड़ी भर लकड़ियां भी खरीद कर रख ली जाती थीं। जो लकड़ियां अधिक मोटी होतीं उन्हें उस बैलगाड़ी वाले विक्रेता से ही फड़वा ली जाती थीं। लकड़ियां फाड़ने के दौरान उनके पतले टुकड़े भी निकलते जिन्हें ‘‘चैलियां’’ कहते थे। चूल्हा जलाने में इन चैलियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती। यही चैलियां पहले आग पकड़तीं। फिर धीरे-धीरे लकड़ियां सुलगनी शुरू होतीं। सूखी लकड़ियां सबसे अच्छी जलतीं और कम धुआं करतीं जबकि गीली लकड़ियां धुआं-धुआं हो कर रुला डालतीं। इसलिए लकड़ियां खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाता कि लकड़ियां सूखी हों। यदि ज़रा भी संदेह होता कि लकड़ियां कच्ची और गीली हैं तो उन्हें स्टोर करने से पहले कुछ दिन धूप में छोड़ दिया जाता ताकि वे अच्छी तरह सूख जाएं। उन दिनों मैंने यह बात सीखी थी कि कच्ची लकड़ियों में एक अजीब सोंधी गंध आती है, कुछ-कुछ शुद्ध गोंद जैसी। जबकि सूखी लकड़ियों में सूखी-सी, दूसरे ढंग की गंध होती है।
रसोईघर की छत एडबेस्टस सीमेंट शीट की थी ताकि खाना पकाते समय उससे धुआं आसानी से निकलता रहे। यद्यपि उस शीट की निचली सतह पर धुंए की एक पर्त्त जम जाया करती थी जिसे समय-समय पर साफ़ करते रहना पड़ता था। अन्यथा बारिश के दिनों में ठंडा-गरम तापमान मिल कर वह धुंए की पर्त्त बूंद बन कर टपकने लगती। यदि वह रंगीन बूंद किसी कपड़े पर गिर जाती तो उस कपड़े पर सदा के लिए भद्दा-सा अमिट दाग़ पड़ जाता। बहरहाल, रसोईघर में ही बांस की टटिया से पार्टीशन कर के लकड़ियां रखने की जगह बनाई गई थी, जहां बारिश के चार माह के लिए सूखी लकड़ियां करीने से जमा कर रख दी जातीं। लकड़ियों की छाल और चैलियां अलग बोरे में भर कर रखी जातीं। साथ ही गोबर के कंडे भी खरीद लिए जाते। ये कंडे चूल्हा जलाने में काम आते। जाड़े और गर्मी के मौसम में ‘‘मोरी वालियों’’ से भी लकड़ियां खरीदी जाती थीं। ये मोरी वालियां अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठा लाद कर बेचने आती थीं। वे लकड़ियां काट कर नहीं वरन बीन कर लाती थीं और अपने सिर पर रखती थीं अतः उनकी लकड़ियां हमेशा सूखी हुई होती थीं। उन मोरी वालियों से मोल-भाव कर के लकड़ियां खरीदी जाती थीं। काॅलेज के दिनों में जब मैं कहानियां लिखने लगी थी तब मैंने एक मोरीवाली की समस्या पर कहानी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘‘काला चांद’’। कथानक की दृष्टि से वह अपने आप में एक बोल्ड कहानी थी। यानी सच को सामने रखने में मुझे कभी हिचक नहीं हुई।

चूल्हे के लिए लकड़ियों के अलावा लकड़ी का कोयला और बुरादा भी काम में लाया जाता था। लकड़ी के कोयले की अंगीठी और बुरादे की अंगीठी दोनों मेरे घर में पाई जाती थी। कोयला और बुरादा टाल से खरीदा जाता था। हम लोगों के घर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ‘‘छोटा शेर-बड़ा शेर’’ की कोठी के पास एक साॅ मिल थी। यह कोठी राणा परिवार की थी जो वर्षों पूर्व पन्ना की महारानी के साथ नेपाल से वहां आए थे और फिर वहीं बस गए थे। बहुत ही सम्मानित परिवार था वह। हां, तो उस साॅ मिल में भी बुरादा बेचा जाता था। अतः कई बार मां वहां से भी बुरादा मंगा लिया करती थीं। जबकि कोयले की टाल घर से काफी दूर महेन्द्र भवन के पास थी जो वहां का शासकीय परिसर था और जहां कलेक्टर कार्यालय, कचहरी, हीरा कार्यालय, पीडब्ल्यूडी ऑफिस आदि सभी कुछ था। महेन्द्र भवन दरअसल आलीशान भवन है। सन् 1980 में बड़ौदा महाराज राव फतेहसिंह गायकवाड़ की एक किताब प्रकाशित हुई थी- ‘‘दी पैलेसेस ऑफ इंडिया’’, इस किताब के लिए फोटोग्राफी की थी वर्जीनिया फाॅस ने। इस किताब में महेन्द्र भवन का तस्वीर सहित उल्लेख किया गया था। 

लकड़ी का कोयला और बुरादा बोरों में भर कर सूखी जगह पर रखा जाता था। यानी लकड़ी, कोयला और बुरादा तीनों के व्यवस्थित और सही समय पर मैनेजमेंट से खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवथा सुनिश्चित की जाती थी। तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन कुकिंगगैस, इंडक्शन, माइक्रोवेव और हाॅटप्लेट पर धुआंरहित तरीके से खाना पकाया जाएगा और एक मोबाईल काॅल पर इन्हें खरीद कर घर मंगाया जा सकेगा। सचमुच समय जीने के तरीके बदल देता है। लेकिन ऐसा क्यों लगता है कि उन दिनों ज़िन्दगी फिर भी आसान थी? यह मेरा भ्रम है या सच्चाई, पता नहीं।                    
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2 comments:

  1. I am very thankful to you for providing such a great information. It is simple but very accurate information.

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  2. Almust read post! Good way of describing and pleasure piece of writing. Thanks!

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