चर्चा प्लस
विश्व महासागर दिवस (8 जून)
महासागर डाल सकते हैं सागर पर भी असर
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
08 जून को विश्व महासागर दिवस मनाया जाता है। क्या सागर या इसके जैसे अन्य शहरों को भी मनाना चाहिए यह दिवस, जबकि इन शहरों से महासागरों की दूरी हजारों किलोमीटर की है। पर हमें याद रखना होगा कि महासागरों में होने वाली हर हलचल पूरी पृथ्वी पर असर डालती है और आज तो महासागर तेजी से पिघलते ग्लेशियर्स की समस्या से जूझ रहे हैं। जिसका असर किसी न किसी रूप में देश के हर शहर पर पड़ना शुरू हो चुका है।
प्रतिवर्ष 08 जून को दुनिया भर में ‘विश्व महासागर दिवस’ का आयोजन किया जाता है। इसका उद्देश्य केवल महासागरों के प्रति जागरुकता लाना ही नहीं बल्कि दुनिया को महासागरों के महत्त्व और भविष्य की इनके सामने खड़ी चुनौतियों से भी अवगत कराना है। यह दिवस कई महासागरीय पहलुओं जैसे- सामुद्रिक संसाधनों के अनुचित उपयोग, पारिस्थितिक संतुलन, खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता तथा जलवायु परिवर्तन आदि पर भी प्रकाश डालता है। यह सच है कि हममें से 99 प्रतिशत लोगों ने कभी ग्लेशियरों को जाकर नहीं देखा, केवल टीवी या इंटरनेट पर देखा है। ग्लेशियरों का पिघलना भी सीधे तौर पर नहीं देखा गया है। तो हम चिंता क्यों करें? अगर ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तो हम बीच के मैदान के निवासी हैं? हालांकि हम मिडलैंड के निवासियों ने कभी बर्फबारी भी नहीं देखी। लेकिन जब पहाड़ों पर बर्फ गिरती है तो पूरा मध्य प्रदेश भी शीत लहरों के प्रभाव में आ जाता है। राजस्थान की धूलभरी आंधियां मध्यप्रदेश के आसमान को भी धुंधला कर देती हैं। तो क्या हमें वास्तव में चिंता नहीं करनी चाहिए?
08 जून, 1992 को ‘अर्थ समिट’ में कनाडा के ‘ओशियन इंस्टीट्यूट’ ने प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय महासागर दिवस मनाने का विचार प्रस्तुत किया था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2008 में संबंधित प्रस्ताव पारित किया और इस दिन को आधिकारिक मान्यता प्रदान की। पहली बार विश्व महासागर दिवस 8 जून, 2009 को मनाया गया था। वर्ष 2022 के लिए थीम रखी गई है-‘‘पुनरोद्धार: महासागर के लिए सामूहिक कार्यवाई’’ (रीवाइटेलाईजेशन: कलेक्टिव एक्शन फाॅर द ओशन)।
मैंने एक लेख लिखा था -‘‘केन ग्लेशियर मेल्टिंग एफैक्टेड ए सागेरियन?’’ ये सागेरियन कौन हैं? सागेरियन यानी सागर की निवासी। मैं सागेरीयन हूं। हां, मैं सागर में रहती हूं, भारत के मध्य में एक विकासशील शहर, और इसलिए मैं सागेरियन हूं। कुछ दिन पहले मैं एक परिचित से चर्चा कर रही था कि इन दिनों मौसम अस्थिर हो गया है। जलवायु परिवर्तन के साथ मौसम भी बदल रहा है जिसे हम अपने जीवन में नहीं समझ पाते हैं। जब तक हम समझेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। मेरे परिचित ने लापरवाही से कहा कि ‘‘मौसम बदलता रहता है, चिंता किस बात की?’’ इसके बाद उन्होंने मुझसे कहा कि ‘‘आप बेवजह ही मौसम और मौसम की चिंता करती रहती हैं। अरे हम जिस जगह रहते हैं उसका यहां कोई असर नहीं होने वाला है।’’ मैंने कहा-‘‘वाह! क्या आपने यह कहावत नहीं सुनी होगी कि अगर कोई पत्ता धरती पर भी हिलता है तो उसका असर दूर अंतरिक्ष तक होता है। अतः जब कोई घटना पृथ्वी पर ही घटित होगी तो उसका प्रभाव पृथ्वी पर इस छोर से उस छोर तक रहेगा। अब देखिए, जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, वैसे-वैसे पूरी धरती पर इसका असर होना स्वाभाविक है।’’ यह सुनकर उन्होंने कहा, ‘‘आप कहती हैं कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं और यह चिंता का विषय है। बेशक़ यह चिंता का विषय होगा लेकिन हमारे लिए नहीं। हम बीच मैदान में रह रहे हैं। हमें चिंता क्यों करनी चाहिए? हम यहां समुद्र से दूर सागर में रहते हैं। हमें ग्लेशियरों के पिघलने से क्यों डरना चाहिए? अगर ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ता है तो हमें नहीं समुद्र के तटीय इलाकों की चिंता होनी चाहिए।’’
क्या सागेरियन, भोपाली, लखनवी या लुधियानवी को ग्लेशियरों के पिघलने से नहीं डरना चाहिए? दरअसल, ग्लेशियरों का पिघलना आज ग्लोबल वार्मिंग का सबसे स्पष्ट प्रमाण है। केवल ग्लेशियर की सफेद सतहें सूर्य की किरणों को परिवर्तित करती हैं, जिससे हमारी वर्तमान जलवायु के तापमान को हल्का रखने में मदद मिलती है। जब ग्लेशियर पिघलते हैं, तो गहरे रंग की उजागर सतहें गर्मी को अवशोषित और छोड़ती हैं, जिससे तापमान बढ़ जाता है। ग्लेशियर पानी के जलाशय के रूप में कार्य करते हैं जो गर्मियों के दौरान बने रहते हैं। ग्लेशियरों के लगातार पिघलने से पूरे शुष्क महीनों में पारिस्थितिकी तंत्र में पानी का योगदान होता है, जिससे जल स्रोत बन जाता है। हिमनदों से निकलने वाला ठंडा अपवाह नीचे के पानी के तापमान को भी प्रभावित करता है।
जलवायु परिवर्तन का अर्थ है पर्यावरण में परिवर्तन। यह बदलाव बेमौसम बारिश, बर्फबारी, बढ़ती गर्मी और सूखे के रूप में हमारे सामने आ रहा है। बढ़ती गर्मी के कारण ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका से लेकर ग्रीनलैंड तक। ग्रीनलैंड का अस्तित्व खतरे में है। जीवनदायिनी नदियां सूख रही हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का स्तर लगातार बढ़ रहा है। जिससे निकट भविष्य में दुनिया के नक्शे से कई देशों का अस्तित्व मिटने की संभावना है। पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं में भी वृद्धि देखी गई है। जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक और मानवीय दोनों कारण हैं, लेकिन वर्तमान समय में जो परिणाम सामने आए हैं, वे मानवीय गतिविधियों के कारण हैं। हमारे सामने एक बड़ा संकट है और दुर्भाग्य से हमें इसकी जानकारी नहीं है। जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की गति को तेज कर रहे हैं, जिससे उन 750 मिलियन लोगों का जीवन और आजीविका खतरे में पड़ रही है जो इन ग्लेशियरों और हिमपात के पानी पर निर्भर हैं। पिघलने वाले ग्लेशियर बढ़ते समुद्र के स्तर में वृद्धि करते हैं, जो बदले में तटीय क्षरण को बढ़ाता है और तूफान की वृद्धि को बढ़ाता है क्योंकि गर्म हवा और समुद्र के तापमान तूफान और आंधी जैसे अधिक लगातार और तीव्र तटीय तूफान पैदा करते हैं। खतरनाक रूप से, यदि ग्रीनलैंड की सारी बर्फ पिघल जाती है, तो यह वैश्विक समुद्र के स्तर को 20 फीट तक बढ़ा देगा।
जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, ग्लेशियरों का पिघलना ग्लोबल वार्मिंग के गंभीर प्रमाणों में से एक है। यह इस बात का प्रमाण है कि ग्लोबल वार्मिंग से न केवल पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, बल्कि यह मौसम और जलवायु को भी बदल रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का मौसम पर पड़ने वाले असर का मतलब है कि लंबा सूखा पड़ रहा है और कहीं भारी बारिश हो रही है। इसका सीधा असर कृषि और बागवानी पर पड़ रहा है। पेयजल की समस्या भी पानी का स्तर कम होने के कारण उत्पन्न होती है। पिछले पांच वर्षों के दौरान बुंदेलखंड क्षेत्र में सूखे के दौरान हम इस सब के उदाहरण पहले ही देख चुके हैं। इसलिए, यह सोचना कि हिमालय या ध्रुवीय क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने से हमारे देश की मध्यभूमि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, अपने आप में एक भ्रम है। इसलिए विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह ग्लोबल वार्मिंग की गति को धीमा करने में योगदान करे। हमें यह समझना होगा कि ग्लेशियरों के पिघलने का असर अगर तटीय इलाकों पर 50 फीसदी पड़ेगा तो केंद्रीय भूमि में रहने वाले लोगों पर कम से कम 10 से 20 फीसदी का ही असर होगा। तो जागें, सागेरियंस, भोपाली, लखनवी या लुधियानवी या हम कहीं के भी नागरिक हैं।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लगभग तीन अरब से अधिक लोग महासागर आधारित उद्योगों में कार्यरत हैं और यह संख्या समय के साथ और अधिक बढ़ती रहेगी। महासागरीय संसाधनों को समाप्त होने से बचाने के लिये जागरुकता की आवश्यकता है। पृथ्वी की सतह पर पाया जाने वाला लगभग 97 प्रतिशत जल महासागरों में मौजूद है। भले ही वह मीठे पानी में बदले बिना पीने योग्य नहीं है लेकिन जलीय पारिस्थितिक तंत्र में मछलियों और पौधों की अनगिनत प्रजातियां मौजूद हैं। जो पृथ्वी के पर्यावरण का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। हम सभी जो महासागरों से दूर मुख्यभूमि पर निवास करते हैं, महासागरों के पुनरुद्धार में सहभागी बन सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश की सभी नदियां सागरों में जा कर मिलती हैं। हम अपनी नदियों के जल को स्वच्छ रख कर महासागरों की स्वच्छता के सहभागी बन सकते हैं। कारखानों से निकलने वाले विषाक्त रसायनों को नदियों में जाने से रोक कर समुद्री जीवों को घातक रसायनों से बचा सकते हैं। जंगलों को बचा कर, नए पेड़ उगा कर हम उस ग्लोबल वार्मिंग की गति को कम करने में सहयोग कर सकते हैं, जो ग्लेशियर्स को पिघला रही है और समुद्र के जलस्तर को बढ़ा रही है। ग्लेशियर्स के भीमकाय टुकड़ों का टूट कर समुद्र में गिरना सुनामी आने का कारण भी बन जाता है। यदि सुनामी, बाढ़, तूफान आदि से समुद्रतटीय आर्थिक व्यवस्था बिगड़ती है तो उसका असर पूरे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। जापान में आई सुनामी से जापान के द्वारा की जाने वाली वैश्विक आपूर्ति बाधित हो गई थी जिससे कई देशों में वस्तुओं के दाम बढ़ गए थे। जापान में आघात सह कर खड़े हो जाने की जो क्षमता है वह हमारे देश में नहीं है। अतः इस दिशा में प्रयासरत रहना जरूरी है कि आघात की स्थितियां कम से कम आएं और हमारे भारत जैसे विकासशील देश पर्यावर्णीय और आर्थिक आपदाओं से बचे रहें। वस्तुतः ये सारी बातें याद करते हुए आगे कदम बढ़ाने का दिन है ‘‘विश्व महासागर दिवस’’।
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(08.06.2022)
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