Sunday, June 12, 2022

संस्मरण | अचार, बड़ी, पापड़ और मसालों का उत्सव | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

नवभारत मेंं 12.06.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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संस्मरण
अचार, बड़ी, पापड़ और मसालों का उत्सव
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     'नमक हराम' और 'नमक हलाल' बड़े संजीदा मुहावरे हैं। एक गद्दारी को तो दूसरा वफ़ादारी को व्याख्यायित करता है। बचपन में इन दोनों मुहावरों का अर्थ पता नहीं था और न ही इनसे कोई वास्ता था। हां, घर में 10 किलो खड़ा नमक ज़रूर मंगाया जाता था। हमारा परिवार कम सदस्यों वाला छोटा परिवार था इसके लिए 10 किलो नमक में लगभग साल भर काम चल जाता था। लगभग 5 किलो नमक आचार और पापड़ के लिए मंगाया जाता था। पन्ना शहर में दो ही बाजार मशहूर थे- छोटा बाजार और बड़ा बाजार देखा जाए तो यह दोनों कोई इतने बड़े भी नहीं थे। लेकिन शहर में यह दो ही बाजार थे जहां किराना, कपड़ा, मिठाई सभी कुछ मिलता था। छोटा बाजार में दम्मड़ सेठ की दुकान किराने की दृष्टि से सबसे समृद्ध थी। बड़ी परंपरागत दुकान थी। दुकान के बाहर तक बोरों में दाल, चावल, गेहूं, नमक आदि रखे रहते थे। दम्मड़ सेठ का वास्तविक नाम क्या था मुझे पता नहीं। शायद कुछ ही लोग जानते रहे होंगे क्योंकि दम्मड़ सेठ नाम ही प्रचलन में था। उस पर भी संक्षिप्तीकरण होकर उनकी दुकान को लोग "दम्मड़ की दुकान" कह कर पुकारते थे। "सेठ" शब्द भी विलोपित हो जाता था। मां को भी उनकी दुकान से कुछ मंगाना होता तो हम दोनों बहनों से यही कहतीं कि "जाओ, दम्मड़ की दुकान से फलां चीज ले आओ।" 
     हमारे घर किराने का पूरा सामान यहां तक कि बाल धोने के रीठे से लेकर कपड़ा धोने का कास्टिक सोडा भी दम्मड़ की दुकान से ही आता था। ग्रीष्म के आखिरी दिनों में और बारिश आने के पूर्व किराने का सभी सामान खरीद कर डब्बों में पैक कर रख दिया जाता था। आमतौर पर ये  खजूर छाप डालडा के छोटे बड़े डब्बे हुआ करते थे । डब्बों को धोकर सुखा लिया जाता था और उस पर सामान के नाम की चिट चिपका दी जाती थी। वर्षा दीदी की राइटिंग शुरू से ही बहुत अच्छी और सधी हुई थी इसलिए उन्हें चिट पर सामानों के नाम लिखने का काम सौंपा जाता था और चिट चिपकाने का काम मेरे जिम्में रहता था। पैक करने से पहले किन सामानों को धूप में सुखाना है और किन को छांव में, यह मां को अच्छी तरह से पता था। बारिश के पूर्व नमक भी मंगा लिया जाता था जो छोटे-बड़े डलों के रूप में होता था। इसी को खड़ा नमक कहते थे। खड़ा नमक की शुद्धता विश्वसनीय मानी जाती थी जबकि उस समय पिसा नमक आजकल की भांति स्टैंडर्ड पैक नहीं किया जाता था, वह तराजू में तौल कर कागज की पुड़िया में या कागज के पैकेट में रख कर दिया जाता था, इस पिसे नमक में मिलावट की पूरी संभावना रहती थी। इसलिए इसे कम ही लोग खरीदते थे। खड़ा नमक दुकान से मंगाकर पहले पानी से धोया जाता था ताकि उसके ऊपर जमी हुई धूल आदि साफ हो जाए और इसके बाद उसे धूप में सुखाया जाता था। नमक के सूख जाने के बाद उसे लोहे के खल-बट्टे में पहले कूटा जाता था। फिर और अधिक महीन पाउडर जैसा बनाने के लिए सिलबट्टे पर पीसा जाता था। यह काम पूरी शुद्धता के साथ किया जाता था। खड़ा नमक धोए जाने के बाद नमक की एकाध छोटी डली मुंह में डाल लिया करती थी और चूसने लगती थी। यह देखकर मां पहले डांटतीं और फिर समझातीं कि इस तरह से नमक चूसना बुरी बात है, यह नुकसान करता है। खाली नमक नहीं खाया जाता है। 
        मां अध्यापन कार्य करती थी। उन दिनों स्कूलों में 2 माह की गर्मी की छुट्टियां हुआ करती थीं। गर्मी की छुट्टियों में मां का प्रयास रहता कि छुट्टियां खत्म होने के पहले नमक, मसाले, अचार, बड़ी, पापड़ आदि सभी बनाकर तैयार कर लिए जाएं। स्कूल तो प्रायः 1 जुलाई से खुलते थे लेकिन उन दिनों मौसम इस तरह अनियमित नहीं था और 15 जून आते-आते मानसून की आहट आने लगती थी। इसलिए सभी यही कोशिश करते थे कि 15 जून से पहले इस तरह के सारे काम निपटा लिया जाएं।
       लगभग 30 मई से 15 जून तक घर में गहमागहमी बनी रहती है। मां कभी अकेली बाज़ार नहीं जाती थीं। या तो वह मुझे साथ ले जाती या फिर वर्षा दीदी को। छोटी होने के कारण मुझे ज्यादा मौके मिलते। मैं मां के साथ दम्मड़ की दुकान जाती लेकिन मां किस तरह से खरीदारी करती हैं, यह देखने के बजाय मैं उन मर्तबानों पर अपना ध्यान लगाए रखती जिनमें रंग-बिरंगी टॉफी, गोलियां भरी रहती थीं। यद्यपि वे मेरे लिए निषिद्ध थीं। मगर क्या किया जाए, जो चीज में निषिद्ध होती है उसी के प्रति मन ज्यादा ललचाता है। मां का कहना था कि वे टॉफी, गोलियां अच्छी नहीं होती हैं। वे मिलावटी और सस्ते किस्म की होती हैं। मां कभी-कभी हम दोनों बहनों के लिए अच्छी चॉकलेट खरीद दिया करती थीं। 
      हां, तो  चार-पांच जून तक खड़ा नमक, खड़ी मिर्च, खड़ा धनिया, खड़ी हल्दी, खड़ा गरम मसाला आदि सभी खड़े मसाले खरीद लिए जाते थे। यह बेचारे खड़े मसाले कभी चैन से बैठ नहीं पाते थे, इनको कूट पीसकर 'फ्लैट' कर दिया जाता था। बड़ी के लिए मूंग और उड़द की दाल लाई जाती थी जिसे अच्छी तरह धोकर रात भर भिगोया जाता था और दूसरे दिन सिलबट्टे पर पीसा जाता था। मां अकेली यह सब काम नहीं कर सकती थीं। इसलिए वे खाना बनाने वाली महिला जिसे हम लोग बऊ (मां) कह कर पुकारते थे, से सहायता लेती थीं। बऊ अपनी बहू के साथ आकर सुबह से जुट जाती। जब खाना बनाने का काम करती उस दौरान उसकी बहू धनिया साफ करना, हल्दी कूटना, छानना आदि का जिम्मा सम्हाले रखती। सास बहू दोनों हमारे घर हमारे साथ खाना खाती और बीच-बीच में छाछ, लस्सी, आम का पना आदि भी चलता रहता। उन दिनों हमारे घर चाय पीने का चलन नहीं था। वे दिन उत्सव की तरह लगते थे। घर के बाहरी आंगन में कच्ची ज़मीन पर लोहे की खल पर बट्टे की धमक सुनाई पड़ती रहती और बीच-बीच में सिलबट्टे कि ठक-ठक भी ताल से ताल मिलाती। आम का अचार डाला जाता। अचार की बर्नियों को उनके मुंह पर साफ़, सफेद कपड़ा बांध कर दो-तीन दिन तक धूप में रखा जाता। इस दौरान चावल, आलू और साबूदाने के पापड़ बना कर सुखाए जाते। उन दिनों बड़ियां बनाना सबसे मशक्कत का काम था। उड़द की दाल को पीसना और भूरे कुम्हड़े को कद्दूकस करना बड़ा मेहनत वाला काम था। थोड़ी बड़ी होने पर मैंने भी यह काम करके देखा था और मुझे समझ में आ गया था कि यह वाकई "फुल एक्सरसाइज" वाला काम है। दो-तीन दिन तक बांह, कंधे और कमर दुखती रही थी। जब बड़ियां बनतीं तो उसके साथ ही तिल वाली बिजौरियां भी बनाई जातीं।
      जब सूखी लाल मिर्चीयां खल में कूटी जातीं तो उस समय मां, बऊ और उसकी बहू तीनों चेहरे पर कपड़ा बांध लिया करतीं और हम लोगों को उस ओर आने की मनाही रहती। कभी भूलवश हम लोग उधर खेलते-खेलते पहुंच जाते तो उसके बाद मिर्ची की धांस से खांसते-खांसते लौटते।
      इस दौरान बड़ी, पापड़ और चिप्स इन तीनों के बन जाने पर उसमें से कुछ हिस्सा उपहार के रूप में मां बऊ को भी दिया करती थीं। यद्यपि उसे मासिक वेतन के अतिरिक्त मेहनताना भी दिया जाता था। मां का मानना था की क्योंकि बऊ और उसकी बहू दोनों यह सब बनाने में बहुत मेहनत करती हैं इसलिए मेहनताना के अतिरिक्त भी इसमें उनका कुछ हिस्सा बनता है। वस्तुतः यह कोई उदारता नहीं थी बल्कि संबंध प्रगाढ़ रखने और आत्मीयता बनाए रखने की परंपरा का एक सुंदर निर्वहन था। इसीलिए बचपन में बऊ को लेकर मेरे मन में नौकर-मालिक वाला भाव कभी नहीं जागा। हम दोनों बहनें बऊ का बहुत सम्मान करती थीं और वह भी हमें लकड़ी के चूल्हे पर ताजा-ताजा रोटियां से कर बड़े चाव से खिलाया करती थी।
        आलू की चिप्स भी बनाकर बहुत अच्छी तरह सुखा कर बड़े-बड़े डिब्बों में पैक कर दिए जाते थे। यह सारी तैयारी अगली गर्मियों तक अर्थात साल भर के लिए होती थी। बचपन के शुद्ध मसालों की महक आज भी मेरी सांसों में समाई हुई है। आज यह भी समझ में आता है कि उस समय महिलाएं शारीरिक रूप से इतनी चुस्त-दुरुस्त और स्वस्थ क्यों रहती थी? क्योंकि वे जमकर शारीरिक श्रम करती थीं। 
       बारिश आने के पूर्व अचार, बड़ी पापड़, मसाला आदि की पूरी तैयारी संपन्न हो जाने पर मां के चेहरे पर मुस्कुराता हुआ संतोष झलकता था। पिताजी की मृत्यु के बाद वे एक 'सिंगल मदर' के रूप में हम दोनों बहनों का पालन-पोषण कर रही थीं। वे नौकरी के साथ-साथ एक समर्थ गृहणी की भूमिका भी अदा कर रही थीं, जबकि उनके इस दुरूह जीवन से बेख़बर मैं उन दिनों के माहौल को एक उत्सव के रूप में जीती रही। आज की जीवनशैली में सब कुछ बदल चुका है। अब घरों में उस तरह मसाले पीसकर नहीं रखे जाते हैं । अचार-पापड़ भी कम ही घरों में बनाए जाते हैं। भागती-दौड़ती जिंदगी ने अतीत के अनेक सुनहरे अनुभव बहुत पीछे छोड़ दिए हैं।                 
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