Tuesday, June 28, 2022

पुस्तक समीक्षा | स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 28.06.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई सुप्रसिद्ध कथाकार उर्मिला शिरीष  के उपन्यास "चांद ग़वाह" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
---------------------------------------


पुस्तक समीक्षा
स्त्रीविमर्श ही नहीं, गहरा समाज विमर्श भी है ‘चांद गवाह’ में
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
-----------------------------------------
उपन्यास     -  चांद गवाह
लेखिका     -  उर्मिला शिरीष
प्रकाशक     -  सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य        -  250/- 
------------------------------------------------
फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो ने कहा था कि ‘‘मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है किन्तु जीवन भर सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा रहता है।’’ यह प्रसिद्ध कथन उनकी पुस्तक ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में मौजूद है। सोशल कांट्रेक्ट अर्थात् सामाजिक अनुबंध या और सरल शब्दों में कहा जाए तो सामाजिक बंधन। यह सामाजिक बंधन प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अनुरूप जीने को बाध्य करता है। सामाजिक व्यवस्था की बात की जाए तो इसके अंतर्गत सबसे बड़ी व्यवस्था है वैवाहिक संबंध। समाजशास्त्रियों के अनुसार विवाह विषमलिंगी व्यक्तियों के परस्पर मिलन से कहीं अधिक गंभीर अर्थ रखता है। विवाह वह संस्था है जो बच्चों को जन्म देकर सामाजिक ढांचे का निर्माण करती है। विवाह पुरुषों और स्त्रियों को परिवार में प्रवेश देने की संस्था है। विवाह के द्वारा स्त्री और पुरुष को यौन सम्बन्ध बनाने की सामाजिक स्वीकृति और कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाती है। विवाह परिवार का प्रमुख आधार है, जिसमें संतान के जन्म और उसके पालन-पोषण के अधिकार एवं दायित्व निश्चित किये जाते हैं। समाजशास्त्री जाॅनसन का मानना है कि ‘‘विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थाई सम्बन्ध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोए बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त करते हैं।’’ वहीं बोगार्ड्स मानते हैं कि ‘‘विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।’’

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पश्चिमी समाजों की अपेक्षा विवाह का सर्वाधिक महत्व है। इसीलिए भारतीय समाजशास्त्रियों मजूमदार और मदान का कहना है कि ‘‘विवाह एक सामाजिक बंधन या धार्मिक संस्कार के रूप मे स्पष्ट होने वाली वह संस्था है, जो दो विषम लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध स्थापित करने एवं उन्हें एक दूसरे से सामाजिक, आर्थिक संबंध स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।’’

लेकिन क्या हमेशा वैसा ही होता है जैसा कि समाजशास्त्र की संकल्पनाओं, धारणाओं, व्यवस्थाओं और परिभाषाओं में लिखा हुआ है? नहीं, हमेशा इस प्रकार की नियमबद्धता नहीं रह पाती है क्योंकि विवाह मात्र एक कानूनी अनुबंध नहीं होता है अपितु इससे बढ़ कर मानसिक अनुबंध होता है जिसमें पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम और भावनाओं का सम्मान करने की बुनियादी शर्त होती है। इसीलिए बेमेल अथवा इच्छाविरुद्ध विवाह की स्थिति में वैवाहिक संबंध बिखरते चले जाते हैं। जब टूटन सारी सीमाएं लांघ जाती हैं तो विवाह-विच्छेद ही विकल्प बचता है। किन्तु भारतीय समाज में विवाह-विच्छेद आसान नहीं है। कानून एक निश्चित अवधि के ‘‘सेपरेशन पीरियड’ के बाद विच्छेद पर मुहर लगा देता है किन्तु समाज का रुख हमेशा कठोर रहता है। विशेषरूप से स्त्री के पक्ष में। भारतीय समाज एवं परिवार स्त्री को विवाह-विच्छेद की अनुमति सहजता से नहीं देता है। स्त्री को ही हर तरह से विवश किया जाता है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को हरहाल में निभाए। इस संबंध में बड़ा दकियानूसी-सा डाॅयलाॅग हुआ करता था जिसका भारतीय सामाजिक सिनेमा में बहुतायत प्रयोग किया जाता था, जब पिता अपनी बेटी को ससुराल विदा करते हुए कहता था कि ‘‘अब तू पराई हो गई। जिस घर में तेरी डोली जा रही है वहां से तेरी अर्थी ही उठना चाहिए।’’ यानी वह हर विषम परिस्थिति को झेलती हुई अपनी ससुराल में जीवन पर्यन्त टिकी रहे। इसी धारणा के चलते दहेज हत्याओं के प्रकरण बहुसंख्यक रहे हैं।

ये सभी समाजशास्त्रीय विवरण तब अपने आप जागृत हो उठे जब हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित कथाकार उर्मिला शिरीष का ताजा उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ पढ़ा। स्त्रीपक्ष के उन संदर्भों को इस उपन्यास में उठाया गया है जो मानसिक प्रताड़ना का एक कोलाज़ सामने रखते हैं। उस कोलाज़ को देखते हुए यही प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या एक स्त्री अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी सकती है? बड़ा पेंचीदा प्रश्न है। समाज की पहली पंक्ति में मौजूद अपनी सफलता की कहानियां अपनी अंजुरी में उठाई हुई स्त्रियांे को देख कर यह भ्रम होता है कि वे अपनी इच्छानुसार अपना जीवन जी पा रही हैं। जबकि सच्चाई इससे ठीक उलट होती है। विवाह के ‘‘सोशल कांट्रेक्ट’’ में सबसे अधिक समझौते स्त्री को ही करने पड़ते हैं। उस पर यदि यह संबंध दबावा डाल कर थोप दिया गया हो तो एक घुटन भरी ज़िन्दगी उसके नाम दर्ज़ हो जाती है। अधिकांश स्त्रियां हालात से समझौता कर लेती हैं किन्तु कुछ विद्रोह का साहस जुटा लेती हैं। उपन्यास ‘‘चांद गवाह’’ को पढ़ते हुए विद्रोही नायिका दिशा का विद्रोह अनेक बार असमंजस में डाल देता है। क्योंकि हम परंपरावादी समाज में रहते हैं और जब वैवाहिक परंपराएं टूटती हैं तो संबंध कांच की तरह टूट कर बिखर जाते हैं और उसकी किरचें देह एवं आत्मा को लहूलुहान करती रहती है।

नायिका दिशा का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करा दिया गया जो कोई काम-काज तो नहीं करता था लेकिन शराब के नशे में डूबे रहना उसे पसंद था। विवाह के बाद दो बेटियों की मां बन जाने पर भी दिशा अपने पति से कभी प्रेम नहीं कर पाई। एक ऐसे व्यक्ति के प्रति उसका प्रेम जागता भी कैसे जो उसकी परवाह करने के बजाए ताने मारने का एक मौका भी नहीं छोड़ता है। दिशा के मायकेवाले इन परिस्थितियों को जानते थे लेकिन उन्होंने दिशा को उसके भाग्य भरोसे छोड़ दिया था। उन सभी की नींद तो तब टूटी जब दिशा ने सामाजिक कार्यकर्ता संदीप की प्रेरणा और अपनत्व के दम पर विद्रोह का शंखनाद कर दिया। वह संदीप के साथ अपने उजाड़ फार्म हाऊस में जा कर रहने लगी। परिवार और समाज दोनों को यह नागवार गुज़रा। लेकिन स्वार्थी पति को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई क्योंकि वह संदीप से भी अपने काम करा लिया करता था। अर्थात् एक ऐसा पति जो अपनी पत्नी के विवाहेत्तर संबंध से भी लाभ उठाने से नहीं हिचकता है। उसका आक्रोश अपनी पत्नी दिशा को गालियां देने तक ही सिमटा रहता है। दूसरी ओर दिशा के भाइयों और बहनों को इससे अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता होने लगती है। ‘‘लोग बातें बनाने लगे हैं’’ का दंश उनके मन को विषाक्त करता रहता है। किसी को भी दिशा की वास्तविक मनःस्थिति से कोई लेना-देना नहीं है। यदि दिशा चुपचाप घुट-घुट कर जीती रहती तो रिश्तेदारों की प्रतिष्ठा खतरे में नहीं पड़ती लेकिन उसका अपने ढंग से अपना जीवन जीने का निर्णय किसी सुनामी से कम नहीं। लेखिका ने दिशा की मनःस्थिति को रेखांकित करते हुए लिखा है-‘‘शादी से पहले प्रेम करो तो गुनाह, शादी के बाद प्रेम करो तो और भी बड़ा गुनाह। फिर प्रेम करो कब? हर इंसान को प्रेम करने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए।’’(पृ.45)

दिशा की बेटियां भी मां के इस संबंध को स्वीकार करने को तैयार नहीं होती हैं। इस मुद्दे पर वे अपनी मां को अपशब्द कहने और नीचा दिखाने से नहीं चूकती हैं। उनके अनुसार जवान बेटियों की मां को ऐसा नहीं करना चाहिए। मां के इस विद्रोह से चिढ़ कर बड़ी बेटी प्रतिशोध लेने पर उतारू हो जाती है तथा अपने ब्यायफ्रेंड्स बदलती रहती है। विवाह के संबंध में वह मां को ताना मारती हुई कहती है-‘‘शादी कर के मैं तुम्हारी तरह बर्बाद नहीं होना चाहती। आज तुम क्या हो? एक फालतू औरत। एक ऐसी औरत जो जीवनभर से एक फालतू, नशैले और मक्कार आदमी की गुलामी करती आ रही हो। कितनी बार कहा था कि इसे बाहर निकाल दो, लेकिन नहीं.....।’’(पृ.83)
यह उपन्यास बेमेल वैवाहिक संबंध में बंधी स्त्री की स्वतंत्रता की चाह एवं संघर्ष को पूरी ईमानदारी से सामने रखता है और अनेक प्रश्नों के बीज पाठकों के मस्तिष्क में रोप देता है। दिशा के मन में अपने अस्तित्व की पहचान की भावना को जगाने वाला एक्टिविस्ट संदीप स्वयं शादीशुदा और बाल-बच्चेदार है। फिर भी वह अपनी पत्नी से संबंध विच्छेद किए बिना दिशा के साथ रहने चला आता है। फिर जब उसे लगता है कि दिशा अब अपने ढंग से जीने में सक्षम हो गई है तो वह उससे विदा ले कर दूर चला जाता है। जबकि संदीप के जाने के बाद दिशा को संदीप के प्रति अपने प्रेम की तीव्रता का अहसास होता है और वह एक बार फिर अपने अस्तित्व को खोने लगती है। अब उसका नया संघर्ष शुरू हो जाता है जो कि किसी और के नहीं बल्कि खुद के साथ है। दोनों परिवारों का विरोध और अनादर झेलते हुए संदीप का पहले दिशा के साथ रहना और फिर अपने निर्णय के आधार पर उससे दूर चला जाना, यह सोचने को विवश करता है कि क्या दिशा उसके लिए सिर्फ एक ‘‘एक्सपेरीमेंट’’ थी? यदि यह सच था तो इसका अर्थ है कि दिशा विद्रोह नहीं कर रही थी अपितु स्वयं को भ्रमित कर रही थी। यह भ्रम संदीप के प्रेम से उपजा था। सच क्या था, यह पूरा उपन्यास पढ़ने पर ही पता चलता है और तब अनेक प्रश्न मन को कुरेदने लगते हैं कि हर बार स्त्री ही क्यों समझौतों के लिए विवश की जाती है? या फिर निजता और अस्तित्व के प्रश्न देह की सीढ़ियां चढ़ कर ही हल होते हैं? परिवार को एकसूत्र में जोड़े रखने वाली मां और पत्नी रूपी स्त्री स्वच्छंदता को अपना ले तो परिवार पर इसका क्या असर पड़ता है? ये सारे प्रश्न एक स्त्री के प्रति सामाजिक सोच को रेशा-रेशा उजागर करते हैं।
‘‘चांद गवाह’’ एक बैठक में पूरा पढ ़जाने को बाध्य करने में सक्षम है। इसका कथानक धाराप्रवाह गतिमान रहता है और कौतूहल जगाता रहता है कि अब आगे क्या होगा? उपन्यास की भाषा आम बोलचाल की है और शैली संवादों से भरपूर है। यह एक अत्यंत रोचक उपन्यास है जो स्त्रीविमर्श के साथ ही गहरा समाजविमर्श भी रचता है। साथ ही स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के बीच की मौजूद बारीक-सी रेखा की गरिमा को परखने का आग्रह करता है।
           ----------------------------              
#पुस्तकसमीक्षा #डॉशरदसिंह #डॉसुश्रीशरदसिंह #BookReview #DrSharadSingh #miss_sharad #आचरण 

No comments:

Post a Comment