प्रस्तुत है आज 14.06.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवयित्री संध्या सर्वटे के काव्य संग्रह "प्रकृति के रंग" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
प्रथम पुष्प की सुवास लिए प्रथम कविता संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रकृति के रंग
कवयित्री - संध्या सर्वटे
प्रकाशक - एक्टिव कम्प्यूटर्स एंड अमन प्रकाशन, नमक मंडी, सागर (मप्र)
मूल्य - 100/-
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संध्या सर्वटे सागर के साहित्य जगत के लिए नया नाम नहीं है किंतु अपने प्रथम काव्य संग्रह के साथ उन्होंने एक आग्रह पूर्ण कवयित्री के रूप में पहली बार दस्तक दी है। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘‘प्रकृति के रंग’’ विविध रंगी भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं का सुंदर संग्रह है। संग्रह की कविताओं पर मैं अपनी ओर से समीक्षात्मक टिप्पणी करूं इससे पूर्व चर्चा करना चाहूंगी उन दो मंतव्यों की जो भूमिका के रूप में संग्रह में समाहित हैं। पहली टिप्पणी है सागर नगर के वरिष्ठ कवि टीकाराम त्रिपाठी जी जिन्होंने ‘‘कोलाज के रूप में कविताएं’’ शीर्षक से इस संग्रह की कविताओं पर अपने विचार रखे हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘संध्या जी के अंतःकरण में यद्यपि एक कुशल चित्रकार का व्यक्तित्व बहुत भीतर तक संचित है तथापि कविता भी एक कोलाज के रूप में उनके मन मस्तिष्क की भाव भूमि में निर्मित होती रहती है जिस का प्रतिफल है यह सद्यः प्रकाश्य काव्य संग्रह है।’’
आशीर्वचन के रूप में दूसरा मंतव्य है महाराष्ट्र समाज सागर की अध्यक्ष एवं साहित्यकार डॉ मीना पिंपलापुरे का। उनके अनुसार, ‘‘संध्या सर्वटे जी द्वारा हिंदी कविता संग्रह का यह प्रथम प्रयास है। मराठी भाषा होते हुए उन्होंने हिंदी में जो प्रयास किया है वह निश्चित रूप से सराहनीय है। मराठी भाषा पर तो उनका कमांड है ही परंतु उसी तरह से हिंदी भाषा पर उनका कमांड है, जिसे हम इन कविताओं में देख सकते हैं।’’
चलिए अब दृष्टिपात करते हैं संग्रह की कविताओं और उन कविताओं की मूल भावनाओं पर। जैसा कि संध्या सर्वटे की कविता संग्रह का नाम है ‘‘प्रकृति के रंग’’, ठीक उसी प्रकार उनकी कविताओं में भावनाओं के नाना विधि रंग बिखरे हुए हैं, मानो किसी एक कैनवास पर एक लैण्डस्केप चित्रित कर दिया गया हो। संग्रह में कविताओं का आरंभ ईश वंदना से है। जिसमें प्रथम विघ्न विनाशक श्री गणेश की स्तुति की गई है। तदुपरांत हरी विठ्ठल का स्तुति गान किया गया है। इन दोनों रचनाओं के बाद प्रकृति प्रेम और जीवनचर्या से जुड़ी कोमल भावनाओं की कविताएं हैं। कवयित्री की प्रकृति संबंधी कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि उन्हें न केवल प्रकृति से प्रेम है वरन प्रकृति संरक्षण को लेकर भी चिंतित हैं। प्रकृति पुकार रही कविता में वे लिखती है -
प्रकृति पुकार रही
प्रकृति से ही
हमने खिलवाड़ किया
जंगल काटे, वृक्ष काटे
जलाशयों पर घर बनाए।
अपनी प्रकृति का
उग्र रूप देख रहे
पानी ऑक्सीजन हवा
को तरस रहे
अपने ही अपनों से/दूर हो रहे
परिवार के परिवार उजड़ रहे।
इस कविता में संध्या सरवटे नहीं प्रकृति के महत्व का स्मरण कराते हुए उस कुकृत्य की ओर भी ध्यान दिलाया है। जिसके कारण प्रकृति को क्षति पहुंच रही है जैसे वृक्षों को काटना जलाशयों की भूमि को सुखाकर उन पर कालोनियां विकसित कर देना यह सब प्रकृति के प्रति अपराध है। इस कविता में भी अप्रत्यक्ष रूप से उस ओर भी संकेत करती हैं जो प्रकृति में हो रहे बदलाव के कारण पलायन करने पर विवश हो रहे व्यक्तियों और टूटते परिवारों की पीड़ा है।
कवयित्री प्रकृति के रंग में रंग जाना चाहती है जो इंद्रधनुषी आनंद लिए हुए हैं। जैसे उनकी एक कविता है ‘‘घनन घनन बदरा गरजे’’। इस कविता की पंक्तियां देखिए जिनमें वर्षा ऋतु में विरहिणी नायिका के विरह की पीड़ा को शब्दों में पिरोया गया है -
घनन घनन बदरा गरजे
दमदम दमकती बिजली चमके
झमा, झमाझम बरखा आई
याद पिया की आए
कब से खड़ी राह देखत/पिया की
अब तक ना आए रे
निंदिया आंखों में आई
क्षण क्षण जात भोर हुई
मयूर की केका सुनी
इंतजार अब सहा न जाए।
वर्षा ऋतु की भांति ही वसंत ऋतु मन पर गहरा प्रभाव डालती है। वसंत ऋतु की यह विशेषता है कि वह मन को प्रफुल्लित कर देती है क्योंकि इस ऋतु में प्रकृति अपने पूरे यौवन पर रहती है। शीत में जो हवाएं कष्ट दे रही थी वह वसंत ऋतु में सुखदाई बन जाती है। चारों दिशाएं कोयल की मधुर आवाज से गूंजने लगती है। खेतों में सरसों इस तरह खिल उठती है जैसे उसने पीले रंग का वस्त्र पहन लिया हो। कवयित्री प्रकृति के इस सौंदर्य को रेखांकित करते हुए अपनी कविता ‘‘वासंती बयार’’ में लिखती है -
फिजा में वासंती
बयार बहने लगी
कोयल की सुमधुर ध्वनि
दिशाओं में गूंजने लगी
पीले परिधान धारण कर
धरा नाचने झूमने लगी
रूप तुम्हारा यूं निखरा
आकर्षित करता मन सबका ।
कवयित्री अपनी अभिव्यक्ति के दायरे में जीवन की सहज अनुभूतियों और संवेदनाओं को प्रकट करती हैं। वे दैनिक जीवन में प्रकृति के आनंद की चर्चा करती है। जैसे भी अपनी कविता ‘‘गुलाब वाटिका’’ मैं कहती है कि -
गुलाबी ठंड में
अपनी गुलाब वाटिका में
टहलते टहलते
कांटो के बीच खिले
गुलाबों का सौंदर्य निहारते
नयन सुख के साथ
सांसो में सुगंध भरते
मन हुआ प्रमुदित
कली का रूपांतर
धीरे-धीरे फूल खिलने लगे।
बारिश और चाय-पकौड़ी का रिश्ता बहुत घनिष्ठ है। पवन झकोरा और पानी की फुहारों से आल्हादित दिवस में चाय की चुस्कियां और गरमा गरम पकौड़े एक अलग ही आनंद देते हैं इस आनंद का बड़ी सुंदरता से वर्णन किया है कवयित्री ने अपनी इस कविता में, जिसका शीर्षक है ‘‘गरमा गरम पकौड़े’’। इस कविता की विशेषता यह है कि इसमें यह बात स्पष्ट होती है कि कवयित्री कि जितनी पकड़ काव्य सृजन में है, उतनी ही दक्षता घरेलू कार्यों में भी है। इसीलिए जब कवयित्री गरमा गरम पकौड़े की बात करती हैं तो उसके साथ आम के नए अचार का स्मरण करती हैं। दरअसल ग्रीष्म काल के अंत में तथा वर्षा ऋतु के पूर्व आम का नया अचार डाला जाता है अतः सावन में इसी नए अचार का सेवन किया जाता है। यह बारीकी वह कवयित्री ही प्रस्तुत कर सकती है जिसे घरेलू कार्यों अर्थात पाककला और अचार, चटनी बनाने की समुचित जानकारी हो। यही इस कविता का सबसे दिलचस्प पक्ष है।
गरमा गरम पकौड़े
आम का नया अचार
दोस्तों के संग
लज्जतदार खाने
का अंदाज निराला
सावन की पहली बारिश
मिट्टी की सोंधी सुगंध
उल्लसित मन
आनंद से झूमे हम
सखी हो किसी का इंतजार
अरे झूमो नाचो/गुनगुनाओ
बारिश की फुहार
में भीगने का आनंद मनाओ।
‘‘कारगिल’’, ‘‘लोकमान्य गंगाधर तिलक’’,‘‘डाॅ. हरीसिंह गौर’’,‘‘योगदिवस’’ आदि वे विविधपूर्ण कविताएं हैं जिनसे यह रोचक बन गया है। कुछ कविताओं में तनिक कच्चापन महसूस हो सकता है किन्तु अहिन्दी भाषी होने के कारण अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि अभी उन्हें हिन्दी में साहित्य सृजन को साधने की ओर पहला कदम बढ़ाया है। कवयित्री संध्या सर्वटे का यह हिन्दी में प्रथम काव्य संग्रह किसी पौधे के प्रथम पुष्प की सुवास की तरह स्वागतेय है। पठनीय है।
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Love to read it, Waiting For More new Update and I Already Read your Recent Post its Great Thanks.
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