Wednesday, February 27, 2019

चर्चा प्लस ... सेना पर गर्व... अपराधों पर शर्म... - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
आज वह समय है जब हम गर्व महसूस कर रहे हैं... वहीं शर्म भी आ रही है ...क्यों?
यह मेरा आज का 'चर्चा प्लस' पढ़ने पर आप स्वयं समझ जाएंगे...
       चर्चा प्लस ...
      सेना पर गर्व... अपराधों पर शर्म...
      - डॉ. शरद सिंह
       एक ओर हमारी सेना हमें गर्व करने का अवसर दे रही है, वहीं दूसरी ओर देश के भीतर बैठे अपराधी मानवता को शर्मसार करने पर तुले हुए हैं। हमारी एक आंख में उस गर्व की चमक है जो पुलवामा का बदला लेने से मिली है, वहीं दूसरी आंख से आंसू छलक रहे हैं उन दो मासूम जुड़वा बच्चों को याद कर के जो नृशंसतापूर्वक मौत के घाट उतार दिए गए। पिछले कुछ वर्षो से देश में जिस तरह अपराधों की बाढ़ आई हुई है वह चिन्तित करने वाली है। विशेष रूप से बुंदेलखंड जैसे पिछले इलाके, जहां आर्थिक और शैक्षिक कमी है, अपराध के लिए उर्वर जमीन का काम कर रहे हैं।
 चर्चा प्लस ... सेना पर गर्व... अपराधों पर शर्म... - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar
       सारा देश क्रोध से उबल रहा था। आतंकवाद को प्रश्रय देने वालों के विरुद्ध कड़ा कदम उठाने की मांग कर रहा था। आतंकवाद के विरुद्ध सारी जनता एकजुट खड़ी दिखाई देने लगी। ऐसे माहौल में भारतीय सेना की ओर से एयर स्ट्राईक किया जाने का स्वागत हर भारतीय कर रहा है और गर्व हर रहा है अपने वीर सैनिकों पर। भारत प्रशासित कश्मीर के पुलवामा ज़िले में सीआरपीएफ़ के एक काफ़िले पर हमले और 40 से ज़्यादा जवानों के मारे जाने के बाद से भारत और पाकिस्तान में तनाव की स्थिति बनी हुई है. भारतीय वायुसेना ने पीओके समेत पाकिस्तान के बालाकोट में हवाई हमले किए हैं। जिस बालाकोट को भारतीय वायुसेना ने निशाना बनाया है, वह पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत के मानसेहरा जिले में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, मानसेहरा 1990 से आतंकी संगठनों का गढ़ बना है। पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से यह इलाका काफी सटा हुआ है। इस्लामाबाद से वहां जाने में मुश्किल से चार घंटे लगते हैं। मानसेहरा इलाके में आतंक के पनपने में सरकारी मशीनरी का हाथ रहा है। यह इलाका पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और हमारे कश्मीर से सटा हुआ है। पीओके से इसकी दूरी करीब 25 मील और कश्मीर से 45 किलोमीटर है। कश्मीर से नजदीकी को देखते हुए इसे आतंकियों के लिए ट्रेनिंग कैंप बनाया गया है। एपी के संवाददाता ने यहां के आतंकियों से बातचीत की थी। कुछ आतंकियों ने बताया था कि मानसेहरा में जितने भी ट्रेनिंग कैंप हैं, वहां कश्मीर में आतंक फैलाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। शहरी इलाके में मस्जिद और मदरसे हैं। मस्जिद और मदरसों का इस्तेमाल जवानों का ब्रेनवॉश करने के लिए किया जाता है। उनको इस्लाम के लिए मरने-मारने को तैयार किया जाता है। जंगल के काफी अंदर हथियारों की ट्रेनिंग का बेस है। वहां भर्ती होने वाले युवाओं को ट्रेनिंग दी जाती है। ट्रेनिंग लेने वाले रंगरूट जंगलों में टेंट में रहते हैं। मानसेहरा में आतंकियों के लिए चार हफ्ते का कोर्स चलाया जाता है। इस दौरान उनको बुनियादी सैन्य कौशल सिखाए जाते हैं और गोरिल्ला युद्ध को लेकर प्रशिक्षण दिया जाता है। फिर उनको विस्फोटक आदि के बारे में प्रशिक्षण लेने के लिए पीओके भेज दिया जाता है।
एक ओर हमारी सेना हमें गर्व करने का अवसर दे रही है, वहीं दूसरी ओर देश के भीतर बैठे अपराधी मानवता को शर्मसार करने पर तुले हुए हैं। हमारी एक आंख में उस गर्व की चमक है जो पुलवामा का बदला लेने से मिली है, वहीं दूसरी आंख से आंसू छलक रहे हैं उन दो मासूम जुड़वा बच्चों को याद कर के जो नृशंसतापूर्वक मौत के घाट उतार दिए गए। पिछले कुछ वर्षो से देश में जिस तरह अपराधों की बाढ़ आई हुई है वह चिन्तित करने वाली है। विशेष रूप से बुंदेलखंड जैसे पिछले इलाके, जहां आर्थिक और शैक्षिक कमी है, अपराध के लिए उर्वर जमीन का काम कर रहे हैं। बारिश की कमी, सूखे के मार, उचित जलप्रबंधन का अभाव, प्राशासनिक कमियां, भुखमरी, ग़रीबी, किसानों द्वारा आत्महत्याएं आदि ये सभी वे कारक हैं जो अपराधों को खाद-पानी मुहैया कराते हैं। वहीं पीड़ित जनता को मिलते हैं सिर्फ़ आश्वासन।
मध्य प्रदेश के चित्रकूट में पांच वर्षीय दो जुड़वा भाइयों की हत्या से हर कोई सदमे में है। 20 लाख रुपये फिरौती लेकर भी बच्चों की निर्मम हत्या ने हर किसी को हिलाकर रख दिया है। बच्चों के पिता ने हत्यारों के लिए फांसी की मांग की है। 12 फरवरी को स्कूल बस से बच्चों का अपहरण हुआ था जिसके बाद शनिवार को दोनों के जंजीरों से बंधे हुए शव यूपी के बांदा में मिले। दोनों अगवा किए गए बच्चों के शवों की जो तस्वीरें आई हैं, वह विचिलित कर देने वाली है। बच्चों के हाथों में लोहे की जंजीर पड़ी है, जो बता रही है कि, बच्चों को बांधकर नदी में फेंका गया। सतना के इन दो जुड़वा बच्चों की नृशंस हत्या ने हर व्यक्ति के मानस को झकझोर दिया है। यूं तो सतना बघेलखंड में है लेकिन बुंदेलखंड से लगा हुआ है। उस पर जिन अपराधियों ने इस घटना को अंजाम दिया उनमें से मुख्य आरोपी बुंदेलखंड के हैं और जिस स्थान यानी चित्रकूट में घटना घटित हुई वह भी बुंदेलखंड में है। इस हृदयविदारक घटना के लिए कोई पुलिस व्यवस्था को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई उस सीमारेखा को जिससे बुंदेलखंड बंटा हुआ है और दशकों से वही चूहा-बिल्ली का खेल खेला जा रहा है जो प्रत्येक दो राज्यों की सीमा पर स्थित इलाकों में खेला जाता रहा है। अपराधी एक राज्य में अपराध कर के दूसरे राज्य में जा छिपते हैं और पुलिस कानूनी मसलों में उलझी रह जाती है। इस नृशंस घटना में कहां चूक हुई यह तो जांच पूरी होने पर ही पता चलेगा लेकिन इतना तो स्पष्ट दिख रहा है कि बुंदेलखंड में अपराधों का ग्राफ बढ़ता जा रही है।
जुड़वां बच्चों की हत्या का घाव अभी आंखों के सामने आया ही था कि छतरपुर जिले में एक किशोरी पर एक युवक ने सिर्फ़ इसलिए जानलेवा हमला कर दिया कि उसने उस युवक का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लगता यही है कि शासन किसी भी दल का रहे, अपराधियों कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अपराधों के बहीखातों के पिछले कुछ पन्ने पलटें तो देख सकते हैं कि सन् 2010 की 04 मार्च को 18 वर्षीया संध्या रिछारिया को उनके पड़ोस में रहने वाले चार लड़कों ने बलात्कार के प्रयास के बाद मिट्टी का तेल डालकर जला दिया था। सागर जिले के छिरारी गांव में विजय रैकवार ने साढ़े सात साल की बच्ची की सात दिसम्बर 2012 को बलात्कार के बाद हत्या कर दी। 07 दिसम्बर 2017 को सागर के भानगढ़ थाने की 14 वर्षीय नाबालिग को देवल गांव में रब्बू उर्फ सर्वेश सेन ने अपनी हवस का शिकार बनाया । लड़की पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दी। नाबालिग की अस्पताल में सात दिन बाद मौत हो गई। बुंदेलखंड में अपराध इतना बढ़ता जा रहा है की चोरी और हत्या आम बात हो गयी है।
छतरपुर-दमोह में जहां देशी कट्टे और पिस्टल से जानलेवा हमले का चलन बढ़ा है तो सागर पिछले एक साल में चाकू-कटरबाजी की दर्जनों वारदातें हुईं। विगत वर्ष किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार शस्त्र संबंधी अपराधों में टीकमगढ़ और पन्ना संभाग में सबसे निचले पायदान पर रहे हैं। सबसे ज्यादा 236 प्रतिशत शस्त्र संबंधी अपराध छतरपुर और दूसरे क्रम पर 203 प्रतिशत अपराध दमोह जिले के पुलिस थानों में दर्ज किए गए। सागर संभाग के पांच जिलों में 75 प्रतिशत वृद्धि के साथ शस्त्र संबंधी प्रकरणों में तीसरे नंबर पर और पन्ना जिले में पिछले तीन सालों में सबसे कम केवल 17 प्रतिशत वृद्धि देखी गई। उत्तरप्रदेश के हिस्से में फैले बुंदेलखंड के बांदा, कर्वी जैसे जिलों में मामूली बात में हथियारों का प्रयोग किया जाना आम बात है।  लड़कियों, महिलाओं और बच्चों की तस्करी के भी आंकड़े बुंदेलखंड के माथे पर जब तब दाग लगाते रहते हैं। देह व्यापार का बोलबाला भी कम नहीं है। बुंदेलखंड से तो लड़कियां महानगरों में भेजी ही जा रही हैं, वहीं महानगरों से लड़कियां देहव्यापार के लिए बुलाई भी जाती हैं। बुंदेलखंड में विवाह के नाम पर भी महिलाओं को खरीदा और बेचा जाता है। बुंदेलखण्ड के झांसी, ललितपुर, जालोन, टीकमगढ़, छतरपुर, और पन्ना की बात करें, तो यहां 1 हजार पुरुषों पर 825 महिलाएं हैं। ऐसे में अपने वंश को चलाने के लिये बुंदेलखण्ड के युवा उड़ीसा जैसा गरीब राज्य की लड़कियों की खरीद फ़रोख्त करते हैं। दलालों के माध्यम से उड़ीसा से बुन्देलखण्ड पहुंची इन महिलाओं की शादी 100 रुपयें के स्टाम्प पर करा दी जाती है। यह इकरारनामा कानूनी रूप से वैध नहीं होता है।
बुंदेलखंड का ग्रामीण अंचल आज भी अशिक्षा और असुरक्षा के जाल में इस तरह जकड़ा हुआ हैकि वह अपने विरुद्ध होने वाले अपराधों के लिए आवाज़ भी बुलंद नहीं कर पाता है। उस पर अवैध हथियारों का दबाव उन्हें मुंह बंद रखने को विवश करता रहता है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में सिर्फ़ राजनीतिक हल्ला बोल कर दशा नहीं सुधारी जा सकती है। बुंदेलखंड में अपराधों के आंकड़े हमेशा स्थिति की गंभीरता की ओर संकेत करते रहे हैं, लेकिन उन लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा, जो इस दशा के लिए जिम्मेदार हैं। राजनीतिक शोर और चुनावी मुद्दों के बीच रह जाने वाली अपराधों की बढ़त की  समस्या आज भी जस के तस है। यदि बढ़ते अपराधों पर प्रशासन अब भी अंकुश न लगा सका तो कल सीमा पर बैठे सिपाही कहीं ये न पूछने लगें कि क्या इन्हीं अपराधियों के लिए हम अपनी जान दे रहे हैं? देश की सीमा पर पहरा दे रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए भी जरूरी है कि आंतरिक शांति और सुरक्षा बरकरार रहे।   
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( सागर दिनकर, 27.02.2019)
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Thursday, February 21, 2019

विलुप्ति की कगार पर है बुंदेली लोकनाट्य कला - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... Published in Patrika.com

Dr (Miss) Sharad Singh
Patrika.com में बुंदेलखंड के.लोकनाट्यों पर छाए संकट पर केंद्रित मेरे लेख को पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है..(21.02.2019)
🙏मैं आभारी हूं  'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने मेरे विचारों को इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया💐

इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं....
https://www.patrika.com/sagar-news/bundeli-folk-dance-art-faces-of-extinction-4168424/


साथ ही यहां लेख का टेक्ट्स भी दे रही हूं...

लुप्ति की कगार पर है बुंदेली लोकनाट्य कला  
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 
                       
बुंदेलखंड में लोकनाट्य अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है लेकिन उसका स्वरूप जिस तरह प्रदूषित होता जा रहा है वह उसके अस्तित्व को संकट में डाल सकता है। जिस तरह लोकगीत और लोकनृत्यों के नाम पर जो प्रस्तुतियां दी जा रही हैं या डिज़िटल की जा रही हैं उनमें लोक की वास्तविक कला के बजाए फूहड़पन अधिक रहता है। इसीतरह लोक नाट्यों पर भी संकट के बादल छा चुके हैं। चंद लोक कला अकादमियां इनके नाम को बचाए हुए हैं, अन्यथा मूल स्वरूप में ये विलुप्ति की कगार पर हैं। बुंदेलखंड में लोकनाट्य बहुत लोकप्रिय रहे हैं लेकिन आज उनका चलन तेजी से घट चला है। शहरी क्षेत्रों के निवासी तो लोकनाट्यों से भलीभांति परिचित भी नहीं हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश स्थित तीन जिलों में विगत दिनों हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि 95 प्रतिशत लोग बुंदेली लोकनाट्यों के बारे में जानते ही नहीं हैं। वे सिर्फ रामलीला को ही लोकनाट्य के रूप में जानते हैं। जबकि बुन्देखण्ड में लोकनाट्यों की समृद्ध परम्परा रही है। प्रमुख बुन्देली लोकनाट्य हैं - कांड़रा, रहस, स्वांग और भंडैती।
कांड़रा लोकनाट्य में निर्गुनिया भजन गाता है तथा गीत के अनुरूप आंगिक अभिनय कर नृत्य तथा हाव-भाव प्रदर्शित करता है। इसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर कथा तथा स्वांग शैलियों का समावेश हुआ। कांड़रा का मंच चौपाल-चबूतरा, मंदिर प्रांगण आदि होता था। यद्यपि समय के साथ इसे शास्त्रीय मंच पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा है। इसकी प्रस्तुति के समय मंच के पृष्ठ भाग के करीब वादक-मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं। जबकि नर्तक सारंगी वादन करता है और निर्गुनिया मंगला-चरण प्रारंभ। वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते किन्तु मुख्य नायक कांड़रा जो सम्भवतः कान्हा का स्वरूप है, सराई पर रंग बिरंगा जामा, पहनकर, सिर पर कलंगीदार पगड़ी बांधता है। जामा पर सफेद या रंगीन कुर्ती पहनता है। बीच-बीच में फिरकी की भांति नृत्य करता है। निर्गुनिया गीत संवाद का एक उदाहरण देखें :-
पहला व्यक्ति :- ऐसो सो गओ दावेदार, खबर नईं जा तन की । 
              जम के दूत द्वार पै ठाड़े हम पै कही ना जाए ।। 
दूसरा व्यक्ति :- सासुरो छोड़ मायको छोड़ो, छूटो अदपर डूबी नाव ।
              कहत कबीर सुनो भई साधो, सुंदरी खत पछार ।। 

कृष्ण की रासलीला से प्रभावित बुन्देली अंचल में ’रहस‘ परम्परा प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित है-एक, कतकारियों की रहस लीला और दूसरा लीला नाट्य। कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से, पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब ’रहस‘ की सही मानसिकता बना देते हैं। ’रहस‘ में अधिकांशतः दधिलीला, चीरहरण, माखन चोरी, बंसी चोरी, गेंद लीला, दानलीला आदि प्रसंग अभिनीत किए जाते हैं। ’रहस‘ का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदीतट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरूष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशतः पद्यमय होते हैं। लीलानाट्य के रूप में अभिनीत ’रहस‘ अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार ’रास चौंतरा होता है।‘ ’राधा-कृष्ण‘ बनने वाले पात्र ’सरूप‘ कहे जाते हैं। वाद्य के रूप में ’मृदंग एवं परवावज‘ (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है। रोचकता यह कि रहस के अधिकतर संवाद पद्य में होते हैं। नाट्य के दौरान काम में लाए जाने वाले उपकरण प्राकृतिक होते हैं, जैसे चीरहरण नाट्य नदी या तालाब के किनारे कतकारियां खेलती हैं इसलिए तट पर लगे वृक्ष और कतकारियों के वस्त्र ही उपकरण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसमें एक स्त्री कृष्ण बनती है तथा षेष स्त्रियां गोपियां बनती हैं। कृष्ण के द्वारा गोपियों की राह रोकना दिलचस्प प्रसंग होता है। संवाद देखिएः-

कृष्ण :- ब्रज-गोकुल के हम रहवैया, किसन हमारो नाम।
        दान दई को लेत सबई सें, एई  हमारो  काम ।।
गोपी :- बिन्द्राबन की कुंज गलिन में  छेड़त नार  पराई।
        बने फिरत हो ब्रज के राजा, करत रये  हरवाई। 
विलुप्त होने के कगार पर बुंदेली लोकनाट्य कला - Vilupti Ki Kagar pr hai Bundeli Loknatya Kala - Dr (Miss) Sharad Singh, 26.02.2019

राम विषयक रहस में भी कृष्ण रहस की छटा दिखाई देती है। जो इसमें समाहित हास्य एवं श्रृंगार के संवादों से स्पष्ट झलकती है। राम विषयक रहस में सोहर, गारी आदि का भी प्रयोग संवाद के रूप में पाया जाता है जिसका प्रसंग प्रायः राम जन्मोत्सव एवं राम विवाह होता है। यह खुले प्रांगण के बजाए घर के भीतर अथवा बाग-बगीचों में महिलाओं के बीच खेला जाता है। इसमें गारी का प्रयोग होते हुए भी मर्यादा का ध्यान रखा जाता है, जैसेः-

1. जन्में राम सलोना अबध में, जन्में राम सलोना।
रानी कौसिल्या के राम भए हैं, राजा दसरथ के छोना ।।
2. हमने सुनी अबध की नारीं, दूर रयें पुरसन सें ।
   खीर खाय सुत पैदा करतीं लाला बड़े जतन सें ।।

स्वांग बुंदेलखंड का पारंपरिक लोक नाट्य बुंदेलखंड में स्वांग का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। स्वांग प्राय : लोक नृत्य राई के विश्राम के क्षणों में किया जाता है। इसलिए स्वांग को की अवधि अधिक से अधिक 15 से 20 मिनट तक होती है। इसी के अनुरूप बुंदेली स्वांग का रूप भी निर्धारित हुआ बुंदेलखंड में इसे नकल उतारना कहते हैं। स्वांग का अर्थ रूप धारण करने से लिया जाता है। स्वांग भारतीय लोक के अति प्राचीन परंपरा है। राई नृत्य किसी भी समय किया जाता है विशेषकर जन्म, विवाह, तथा अन्य खुशी के अवसर पर तभी स्वांग भी होता है। स्वांग का कोई विशेष मंच नहीं होता जहां राई नृत्य किया जाता है। उसी जगह स्वांग किए जाते हैं । स्वांग राई का मंचन प्राय घर अथवा चौराहे का आंगन होता है समतल धरती पर चारों और दर्शक बैठ जाते हैं, बीच में जगह छोड़ देते हैं। यही जगह स्वांग राई का उपयोग मंच होता है। पहले मशाल के साथ स्वांग किए जाते थे, आजकल पर्याप्त विद्युत प्रकाश मे स्वांग का मंचन जगमगाता है । स्वांग के पात्र की राई गायन और दर्शकों के बीच होते हैं स्वांग में अधिक से अधिक तीन या चार पात्र होते हैं महिला पात्र की भूमिका भी पुरुष निभाते हैं। लेकिन मां -भाभी आदि की भूमिका नर्तकी बेडनिया निभाती है पात्रों की वेशभूषा बुंदेली होती है पुरुष धोती, कुर्ता,बंडी पहनते हैं नए लड़के पेंट, शर्ट,कोट, पहनकर अभिनय करते हैं स्त्री पात्र पुरुष साड़ी लपेट कर मुंह ढके अभिनय में उतरते हैं जिसका उद्देश्य स्वांग के विषय की पूर्ति करना होता है कहीं-कहीं पुरुष स्त्री वेश में पूर्ण सिंगार के साथ उतरते हैं। धोती घाघरा चुनरी पोलका का सलवार कुर्ता आदि पहनते हैं स्त्री पात्र बुंदेली कहने भी पहनती है स्वांग में एक विदूशक भी होता है जिस की वेशभूषा विचित्र होती है विदूसक हर तरह से चंचल और नॉट गतिविधि के केंद्र होता है समाज के हर तबके के पात्रों का स्वरूप प्रतीकात्मक होता है। स्वांग में संगीत पक्ष की गुंजाइश बहुत कम होती है फिर भी कभी-कभी प्रसंग अनुकूल नगढीया अथवा मृदंग की थाप अवश्य दी जाती है गीत और संगीत स्वांग के अंत में पूर्ण सक्षमता के साथ मंच पर अवतरित होता है तब स्वांग के सारे पाठ नृत्य में शामिल होते हैं और स्वांग के बीच गाना भी होता है जो स्वांग के कथानक को आगे बढ़ने के लिए होता है। स्वांग में बुंदेली बोली के पारंपरिक वैभव के दर्शन सहज रुप से होते हैं बुंदेली स्वांग की स्वतंत्र हिसार बनाने की आज जरूरत है तभी स्वांग अपनी अलग व्यापक पहचान बना पाएगा स्वांग का रूप प्रस्तुत की ओर से लिखे रंग का कर्म ही दृष्टि से जब तक मंच पर नहीं लाया जाता तब तक स्वांग राई के मध्य में रहेगा स्वांग में लोक नाट्य तत्व मौजूद है स्वांग बुंदेलखंड का एक जवान लोकनाट्य है । बुंदेलखंड में प्रचलित लोक नाट्य में स्वांग सर्वाधिक प्रचलित एवं जन प्रिय रूप है स्वांग प्रयः खुशी के अवसरों पर राई नृत्य के बीच में प्रदर्शित होता है यह नौटंकी से अधिक प्राचीन है स्वांग सामाजिक,सांस्कृतिक, विसंगतियों,से संबंधित होते हैं । इसके मूल में कोई कथा, घटना, लोक,गीत,लोक समस्या पहेलियां जादू टोना आदि कुछ भी हो सकता है लोग जीवन को सरस रखने के उद्देश्य से हादसे का आयोजन स्वांग के माध्यम से होता है प्रतीक स्वांग की रीढ़ है । राई नृत्य के बीच में होने वाले स्वामी को एक निश्चित समय माना गया है यह क्राम में अधिक से अधिक चार या पांच स्वांग खेले जाते हैं इसे विभिन्न त्योहारों का उत्सवों में प्रस्तुत किया जाता है।  बुंदेली लोककला के अध्येता स्व. डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त का मानना था कि ‘‘बुंदेली स्वांग के ही रूप का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि ना तो वह केवल नकल है और ना लंबा नाटक यह संगीत नौटंकी और भगत में भिन्न है। बुंदेली स्वांग का स्वरूप अन्य लोकनाट्य की तरह लोकधर्मी है स्वांग राई के अंतर्गत नाटक गतिविधि है। इसका मूल उद्देश्य हास्य और व्यंग के माध्यम से शुद्ध मनोरंजन करना है।’’ 
भंडैती बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेशी अंचल की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा है। तुलसीदास की ’चोर चतुर वटपार नट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड‘ तो केशव दास की ’कहूं भांड भांडयों करैं मान पावै‘ पंक्तियों 17वीं शती भंडैती के प्रचलन का पता चलता है। भंडैती का मंच खुला मैदान या चबूतरा होता था। पात्र कोई श्रृंगार नहीं करते थे बल्कि अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी, और चुटीले हास्य प्रस्तुत करते थे। इनमें तीखे व्यंग्य होते थे। वर्तमान में इनका प्रचलन बहुत ही कम हो गया है।
      यद्यपि आधुनिकता के इस दौर में अन्य लोककलाओं की भांति बुन्देली लोक नाट्य का अस्तित्व तेजी से सिमटता जा रहा है जो कि चिंताजनक है। इन्हें सहेजने और पुनः चलन में बनाए रखने के लिए जरूरी है नुक्कड़ नाटकों की तरह इन्हें खेले जाने की तथा इनसे जुड़े कलाकारों को प्रोत्साहित किए जाने की। बिना गंभीर प्रयास के इस कला को बचा पाना संभव नहीं है।  

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बुंदेलखंड में कमजोर जल-प्रबंधन - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ...' नवभारत ' में प्रकाशित


Dr (Miss) Sharad Singh
सामाचार पत्र "नवभारत " में प्रकाशित बुंदेलखंड में जल प्रबंधन की कमजोर दशा पर केंद्रित मेरा लेख....इसे आप भी पढ़िए !


बुंदेलखंड में कमजोर जल-प्रबंधन
                 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
                     
एक समय था जब बुंदेलखण्ड पानी की उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध था। बुंदेलखण्ड में राजशाही के दौरान अनेक गढ़ियां और किले थे जिनमें जल के उत्कृष्ट प्रबंधन के उदाहरण उनके अवशेषों आज भी विद्यमान हैं। महाराज छत्रसाल (1649 -1731) के समय बुंदेलखण्ड की सीमाएं नदियों से तय की गई थीं-

इत जमुना, उत नर्मदा, इत चंबल उत टोंस
छत्रसाल से लरन की रही न काहूं होंस
बुंदेलखंड में कमजोर जल-प्रबंधन - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ...' नवभारत ' में प्रकाशित  An Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat Newspaper
अनेक कुए, बावड़ियां, पोखर और तालाब उस समय के जल प्रबंधन की कहानी कहते हैं। किन्तु अब जल प्रबंधन की जो दशा है उसके आगे ये कहानियां भी कपोल कल्पित प्रतीत होने लगती हैं। अनियमित दोहन के कारण अधिकांश नदियां अपनी चौड़ाई और गहराई खो चुकी हैं। लापरवाहियों ने कुओं और बावड़ियों को प्रदूषित कर दिया है। तालाबों की दशा भी इनसे अलग नहीं है। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध सागर तालाब अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करता रहता है। इस तालाब को लाखा बंजारा झील भी कहते हैं। यह प्रति वर्ष सफाई का मुद्दा बन कर राजनीतिक तवे पर रोटी की तरह सिंकती रहती है।
विशेषज्ञों की मानें तो बुंदेलखंड इलाके में औसतन कम बारिश होती है और इसकी अवधि भी बस दो महीने रहती है। यहां की मिट्टी मोटी है तथा ग्रेनाइट आधार होने के कारण भूजल भंडारण स्थल ज्यादा बड़ा नहीं होता है। मोटी मिट्टी होने के कारण इसमें ज्यादा समय तक पानी नहीं ठहर पाता है। इसीलिए यह जरूरी है कि इसे निरंतर रूप से पानी मिलता रहे, जिससे ज्यादा से ज्यादा जल संग्रहण किया जा सके। इसीलिए यहां पानी को एक बड़े जलग्रहण क्षेत्र में एकत्रित करने की व्यवस्थाएं बनाई गई। जिसके लिए एक चुनिंदा क्षेत्र में बांध या तालाब बनाए जाते थे। ये तालाब आमतौर पर पूरे क्षेत्र में ऊपर से नीचे के क्रम में फैले होते थे, जिससे एक तालाब का पानी दूसरे तालाब में पहुंचता रहता है- या तो सतह से होता हुआ पहुंचता है या फिर भूजल प्रवाह से। इस प्रक्रिया में प्रत्येक जलग्रहण के चारों तरफ कुओं का पुनर्भरण होता रहता है और फिर इन कुओं से सिंचाई की जाती है। इससे तालाबों के ज्यादा पानी का उपयोग होता है और सूखे की अवधि में भी पानी उपलब्ध रहता है। इसमें जलधाराओं, प्राकृतिक नालों के पानी का भी उपयोग किया जाता था। नौवीं सदी से लेकर 13 वीं सदी तक चंदेल शासकों के समय बुंदेलखंड जल विज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उन्नति कर चुका था। चंदेलशासकों ने अपने समय की जरूरतों के अलावा आने वाले एक हजार साल तक की पानी की जरूरत पूरी करने का इंतजाम कर लिया था। चंदेलशासकों ने अपने समय की जरूरतों के अलावा आने वाले एक हजार साल तक की पानी की जरूरत पूरी करने का इंतजाम कर लिया था। एक शोध के अनुसार ऐतिहासिक रूप से जल विपन्न बुंदेलखंड में बारिश के पानी के अधिकतम हिस्से को रोक कर रखने के लिए तालाबों को एक के बाद दूसरे और दूसरे को तीसरे तालाब से जोड़ने की विधि विकसित कर ली गई थी। चंदेल शासकों ने सात सात तालाबों को जोड़कर ऐसे कई संजाल बनवाए थे। श्रृंखलाबद्ध तालाबों के संजाल से जल ग्रहण क्षेत्र में गिरे पूरे के पूरे पानी को संचित कर लिया जाता था। गर्मी के मौसम में चंदेलों की राजधानी महोबा में तापमान को कम रखने में इन विशाल तालाबों की बड़ी भूमिका थी। 
विगत वर्षों में गर्मी के मौसम में बुंदेलखंड में पानी को लेकर हाहाकार मचने की बाद कुछ प्राचीन कुओं, बावड़ियों और तालाबों से गाद-मिटटी साफ कराने का काम किया गया। लेकिन यह देखा गया कि गहरीकरण का यह काम बारिश के चंद दिनों पहले ही शुरु किया गया जिसे बारिश आरम्भ होते ही बंद कर देना प़ड़ा। इस प्रकार के आधे-अधूरे काम का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। सत्तर के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बुंदेलखंड में पाठा योजना के लिए पूरा दम लगा दिया था। विश्व बैंक से कर्ज लेकर इस योजना को पूरा किया गया था। यह एक महत्वाकांक्षी बांध योजना थी जो बाद में जल प्रबंधन प्राथमिकता सूची ऊपरी पायदान से खिसकता चला गया। बुंदेलखण्ड के मध्यप्रदेशीय हिस्से में सागर संभागमुख्यालय में बने राजघाट बांध ने जहां नगर की पेयजल की समस्या को दूर किया वहीं उसकी दशा बिगड़ती गई। सन् 2018 की गर्मियों में मात्र 17 दिन में बांध में 58 सेंटीमीटर यानी आधा मीटर से ज्यादा पानी कम हो गया था। इस लिहाज से बांध में प्रतिदिन औसतन साढ़े तीन सेंटीमीटर पानी कम होता रहा। 18 अप्रैल 2018 को बांध का जलस्तर 509.88 मीटर था जो 05 मई 2018 तक गिर कर 509.30 मीटर पर जा पहुंचा था। बांध को गहरा करने के लिए उसमें से सिल्ट हटाने का अभियान भी छेड़ा गया। जिससे स्थिति थोड़ी सम्हली।
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( नवभारत, 21.02.2019 )

नामवर सिंह ने अपने मानक स्वयं गढ़े - डॉ शरद सिंह

Tribute to Nambar Singh by Dr Sharad Singh
            विनम्र श्रद्धांजलि 🙏
"श्रद्धेय नामवर सिंह वे विरले साहित्यालोचक थे जिन्होंने अपना मानक स्वयं गढ़ा। उन्होंने  दूसरी परंपरा की खोज करके हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा दी। नामवर जी का जाना हिन्दी साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। विनम्र श्रद्धांजलि !" - डॉ शरद सिंह

"आलोचकों की प्रथम पंक्ति में जिनका नाम आता है उनमें से एक हैं नामवर सिंह। हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह होने का अर्थ क्या है? इस पर बड़ी सजगता से कलम चलाई है सदानंद शाही ने।"
- ‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2016 अंक में मेरे संपादकीय से...डॉ शरद सिंह

"वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।’’" - ‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2017 अंक में मेरे संपादकीय से...डॉ शरद सिंह

Wednesday, February 20, 2019

चर्चा प्लस ...अब जरूरी है उदारता की सीमा तय करना - डॉ. शरद सिंह

 
Dr (Miss) Sharad Singh
"जनता प्रतीक्षा कर रही है सरकार द्वारा कठोर कदम उठाए जाने की। ऐसे दौर में पाकिस्तानी निशानेबाज खिलाड़ियों को भारतीय वीजा देकर एक उदारवादी कदम और उठाया जाना ठेस पहुंचा सकता है जनता की भावनाओं को। अब उदारता की सीमा तय करना जरूरी है। " ...आज के चर्चा प्लस से।

चर्चा प्लस ...
   अब जरूरी है उदारता की सीमा तय करना
        - डॉ. शरद सिंह
पुलवामा में आतंकी हमले ने देश को झकझोर दिया है। सुरक्षा ऐजेंसियों को ले कर अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि आतंकवाद के विरुद्ध नौकरीपेशा लोगों  से लेकर गृहणियां तक सड़कों पर उतर आईं। जनता प्रतीक्षा कर रही है सरकार द्वारा कठोर कदम उठाए जाने की। ऐसे दौर में पाकिस्तानी निशानेबाज खिलाड़ियों को भारतीय वीजा देकर  एक उदारवादी कदम और उठाया जाना ठेस पहुंचा सकता है जनता की भावनाओं को। अब उदारता की सीमा तय करना जरूरी है।                 
 चर्चा प्लस ...अब जरूरी है उदारता की सीमा तय करना  - डॉ. शरद सिंह Charcha Plus Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily
    सारा देश क्रोध से उबल रहा है। आतंकवाद को प्रश्रय देने वालों के विरुद्ध कड़ा कदम उठाने को आतुर है। आतंकवाद के विरुद्ध सारी जनता एकजुट है। आमजनता नाराज़ है आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देश के रुप में कुख्यात हो चले पाकिस्तान से। देश के हर शहर, हर गांव, हर गली में पुलवामा हादसे से उभरा आक्रोश फूट पड़ रहा है। सरकार से बस एक ही मांग की जा रही है कि अब कोई ऐसा कड़ा कदम उठाया जाए जिससे इस प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लगे। कहीं दुनिया हमारी सहनशीलता को हमारी कायरता न समझने लगे। जो चिनगारी पुलवामा में हुई आतंकी घटना से भड़की उसने जनता की कोमल भावनाओं को धधका दिया है, इसके साथ ही विसंगतियों की जो पर्तें खुलने लगी हैं, वे भी कम चौंकाने वाली नहीं है। पुलवामा हमले के बाद समाचार माध्यमों द्वारा यह जानकारी आमजनता तक पहुंची कि अलगाववादियों की सुरक्षा और अन्य सुविधाओं पर सरकार हर साल 10 करोड़ से ज्यादा खर्च करती है। इसके बाद सरकार ने तुरंत कदम उठाया और मीरवाइज उमर फारुक, अब्दुल गनी भट, बिलाल लोन, हाशिम कुरैशी, फजल हक कुरैशी और शब्बीर शाह अलगाववादी नेताओं को दी गई सुरक्षा, गाड़ी और अन्य सुविधाएं वापस ले ली गईं। पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 जवानों की शहादत के बाद गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने श्रीनगर में कहा था कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई से फंड लेने वालों की सुरक्षा हटाई जाएगी। आतंकियों से खतरे की आशंका के चलते केंद्र की सलाह पर राज्य सरकार ने इन्हें एडहॉक सुरक्षा मुहैया कराई जा रही थी। यद्यपि भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अल कायदा, लश्कर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, बब्बर खालसा समेत 35 से अधिक आतंकवादी संगठनों को प्रतिबंधित संगठनों की सूची में डाल रखा है। ऐसे संगठनों को सहायता देने वालों को सरकारी सुविधा देना बंद करने का निर्णय एक सही कदम है।
एक विसंगति सुधरी तो दूसरी सामने दिखाई देने लगी। जहां एक ओर देश के कोने-कोने से आवाज़ उठ रही है कि आतंकवादी गतिविधियों का सहारा लेने वाले पाकिस्तान से सभी तरह के संबंध तोड़ लिए जाएं वहीं भारतीय उच्चायोग और पाकिस्तानी निशानेबाजी महासंघ ने भी पुष्टि की है कि दो निशानेबाजों और मैनेजर के टिकट बुक हो गए हैं। इससे पहले पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकवादी हमले के कारण पाकिस्तानी निशानेबाजों के विश्व कप में भाग लेने पर संदेह पैदा हो गया था। पाकिस्तान निशानेबाजी महासंघ ने कहा था कि समय से वीजा नहीं मिलने पर वह अपने निशानेबाज नहीं भेजेगा। पाकिस्तान के निशानेबाजों को नई दिल्ली में होने वाले विश्व कप के लिए वीजा दे दिया गया है। अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाजी खेल महासंघ के इस टूर्नामेंट के जरिए टोक्यो ओलंपिक 2020 के कोटा-स्थान तय होंगे। विश्व कप गुरुवार से कर्णी सिंह रेंज पर खेला जाएगा।
उल्लेखनीय है कि बॉलीवुड की सभी बड़ी हस्तियों और खेल जगत की हस्तियों ने इस हमले पर भर्त्सनापूर्ण टिप्पणी की। सितंबर 2016 में उरी हमले के बाद इसे सबसे खतरनाक हमला बताया जा रहा है। क्रिकेट खिलाड़ी गौतम गंभीर ने ट्विटर पर लिखा, ‘‘चलिए अलगाववादियों से बात करते हैं। चलिए पाकिस्तान से बात करते हैं, लेकिन इस बार वार्ता मेज पर नहीं होगी बल्कि युद्ध के मैदान में होगी। अब बहुत हो चुका है।’’  क्रिकेट के दीवाने तक क्रिकेट विश्वकप में पाकिस्तान के साथ न खेलने की मांग कर रहे हैं।  क्रिकेट विश्व कप में भारत और पाकिस्तान के बीच 16 जून 2019 को मैनचेस्टर में मैच होना है। पुलवामा में हुए इस आंतकी हमले के बाद भारतीय फैन्स वर्ल्ड कप 2019 में भारत-पाकिस्तान मैच को रद्द करने की मांग भी कर रहे हैं।
बॉलीवुड ने पाकिस्तान के कलाकारों को बैन कर दिया है। फेडरेशन ऑफ वेस्टर्न इंडिया सिने इम्प्लाइज (एफडब्लूआइसीई) ने यह फैसला लिया है। एफडब्लूआइसीई के मुख्य सलाहकार अशोक पंडित ने कहा कि -‘‘यदि फिल्म जगत इस नियम को नहीं मानता और पाकिस्तान के कलाकारों के साथ काम करने का दबाव बनाता है तो शूटिंग को कैंसिल कर दिया जायेगा साथ ही उन पर भी प्रतिबंध लगाया जायेगा।  जो फिल्म निर्माता पाकिस्तानी कलाकारों के साथ काम करने के लिए दबाव बनाएंगे एफडब्लूआइसीई उन पर भी प्रतिबंध लगाएगी।’’ एफडब्लूआइसीई के मुख्य सलाहकार अशोक पंडित ने कहा, “एफडब्ल्यूआईसीई पाकिस्तान के कलाकारों के साथ काम करने की जिद करने वाले फिल्म निर्माताओं पर प्रतिबंध लगाएगा। हम इसकी आधिकारिक घोषणा करते हैं। सीमापार से हमारे देश पर बार-बार हमले होने के बावजूद पाकिस्तानी कलाकारों के साथ काम करने की जिद करने वाली म्यूजिक कंपनियों को शर्म आनी चाहिए। चूंकि उन्हें कोई शर्म नहीं है तो हमें उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर करना होगा। जम्मू एवं कश्मीर के बाहर से हम जितने नुकसान का अंदाजा लगा सकते हैं, नुकसान उससे कई गुना ज्यादा हुआ है। इसकी भरपाई में सालों लग जायेंगे। एक व्यक्ति इतना ज्यादा आरडीएक्स लेकर जम्मू एवं कश्मीर में छिपकर कैसे आ सकता है? ऐसे समय में जब आतंकवादी हमले इतने ज्यादा हो गए हैं तब ये सोचना मुश्किल है कि हमारे मनोरंजन उद्योग में कुछ लोग कलाकारों के लिए पाकिस्तान की तरफ देख रहे हैं।”
प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आज़मी ने भी ट्वीट किया है और कहा है कि पाकिस्तान के साथ सभी सांस्कृतिक आदान-प्रदान को स्थगित करने की ज़रूरत है। उन्होंने स्वयं अपना वह कार्यक्रम रद्द कर दिया जिसमें उन्हें पाकिस्तान पहुंच कर एक कार्यक्रम में भाग लेना था। यानी चाहे फिल्मी कलाकार हो, चाहे साहित्यकार हो, चाहे व्यापारी वर्ग हो सभी कठोर कदम उठाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि गृहणियां भी पुलवामा की जघन्य घटना के विरोध में प्रदर्शन पर उतर आईं। फिर भी दो पाकिस्तानी निशानेबाजों को भारतीय वीजा जारी कर दिया जाना आमजनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला काम है। आखिर उदारता की भी कोई सीमा तय की जानी चाहिए। श्रीकृष्ण ने भी अपनी बुआ के पुत्र शिशुपाल के लिए अपनी उदारता की सीमा तय की थी। उन्होंने अपनी बुआ को वचन दिया था कि मैं शिशुपाल के सौ अपराधों को क्षमा कर दूंगा और उन्होंने ऐसा किया भी। लेकिन 101 वां अपराध होते ही शिशुपाल का वध कर के उसे दण्डित कर दिया था। जबकि देश के बंटवारे के समय से ही पाकिस्तान भारत के विरुद्ध अपराध पर अपराध करता आ रहा है और भारत उसके प्रति अपनी उदारता बरतता चला आ रहा है। आखिर इस उदारता की सीमा का निर्धारण अब करना ही होगा।
आज जिस कश्मीर की जमीन को रक्तरंजित किया जा रहा है, उसी कश्मीरी मूल के सन् 1901 में जन्मे लखनवी शायर आनन्दनारायण ’मुल्ला’ भारत-विभाजन से आहत होकर लिखा था जो कश्मीर की वर्तमान दशा पर भी सटीक बैठता है -
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
तिरे नामूस पर सब कुछ लुटा देने का वक़्त आया
वह खि़त्ता देवताओं की जहां आरामगाहें थीं
जहां बेदाग़ नक़्शे-पाए-इंसानी से राहें थीं
जहां दुनिया की चीख़ें थीं, न आंसू थे न आहें थीं
उसी को जंग का मैदां बना देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
रुपहली बर्फ पर है सुर्ख़ ख़ूं की आज इक धारी
सहर की नर्म किरनों ने यहां दोशीज़गी खोई
हुई आलूदा यह मासूम दुनिया अप्सराओं की
अब इन नापाक धब्बों को मिटा देने का वक़्त आया
वतन फिर तुझको पैमाने-वफ़ा देने का वक़्त आया
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( दैनिक "सागर दिनकर" , 20.02.2019 )
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Friday, February 15, 2019

संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह , नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh

15.02.2019 को प्रतिष्ठित सामाचार पत्र " #नवभारत " में #बुंदेलखंड के संकटग्रस्त #लोकनाट्य पर केंद्रित मेरा लेख....
🙏 हार्दिक धन्यवाद #नवभारत
संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य
                   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह                    
आधुनिक युग में हमने यदि कुछ गंवाया है तो वह है हमारी लोक परंपराएं, जिनमें लोकनृत्य और लोकनाट्य भी शामिल हैं। लोकनृत्य फूहड़पन की भेंट चढ़ते जा रहे हैं और लोकनाट्य सिमटते जा रहे हैं। बुंदेलखंड के लोकनाट्यों की भी यही दशा है। चंद लोक कला अकादमियां इनके नाम को बचाए हुए हैं, अन्यथा मूल स्वरूप में ये विलुप्ति की कगार पर हैं। बुंदेलखंड में लोकनाट्य बहुत लोकप्रिय रहे हैं लेकिन आज उनका चलन तेजी से घट चला है। शहरी क्षेत्रों के निवासी तो लोकनाट्यों से भलीभांति परिचित भी नहीं हैं। बुंदेलखंड के मध्यप्रदेश स्थित तीन जिलों में विगत दिनों हुए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि 95 प्रतिशत लोग बुंदेली लोकनाट्यों के बारे में जानते ही नहीं हैं। वे सिर्फ रामलीला को ही लोकनाट्य के रूप में जानते हैं। जबकि बुन्देखण्ड में लोकनाट्यों की समृद्ध परम्परा रही है। प्रमुख बुन्देली लोकनाट्य हैं - कांड़रा, रहस, स्वांग और भंडैती।
संकट में है बुंदेलखंड का लोकनाट्य
                   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह    An Article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat Daily

कांड़रा लोकनाट्य में निर्गुनिया भजन गाता है तथा गीत के अनुरूप आंगिक अभिनय कर नृत्य तथा हाव-भाव प्रदर्शित करता है। इसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर कथा तथा स्वांग शैलियों का समावेश हुआ। कांड़रा का मंच चौपाल-चबूतरा, मंदिर प्रांगण आदि होता था। यद्यपि समय के साथ इसे शास्त्रीय मंच पर भी प्रस्तृत किया जाने लगा है। इसकी प्रस्तुति के समय मंच के पृष्ठ भाग के करीब वादक-मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं। जबकि नर्तक सारंगी वादन करता है और निर्गुनिया मंगला-चरण प्रारंभ। वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते किन्तु मुख्य नायक कांड़रा जो सम्भवतः कान्हा का स्वरूप है, सराई पर रंग बिरंगा जामा, पहनकर, सिर पर कलंगीदार पगड़ी बांधता है। जामा पर सफेद या रंगीन कुर्ती पहनता है। बीच-बीच में फिरकी की भांति नृत्य करता है।
कृष्ण की रासलीला से प्रभावित बुन्देली अंचल में ’रहस‘ परम्परा प्राप्त होती है। इसके दो रूप प्रचलित है-एक, कतकारियों की रहस लीला और दूसरा लीला नाट्य। कतकारियों का रहस बुन्देलखण्ड की व्रत परम्परा का अंग बन गया है। कार्तिक बदी एक से, पूर्णिमा तक स्नान और व्रत करने वाली कतकारियां गोपी भाव से जितने क्रिया व्यापार करती हैं, वे सब ’रहस‘ की सही मानसिकता बना देते हैं। ’रहस‘ में अधिकांशतः दधिलीला, चीरहरण, माखन चोरी, बंसी चोरी, गेंद लीला, दानलीला आदि प्रसंग अभिनीत किए जाते हैं। ’रहस‘ का मंच खुला हुआ सरोवर तट, मंदिर प्रांगण, नदीतट और जनपथ होता है। कतकारी वस्त्रों में परिवर्तन करके पुरूष तथा स्त्री पात्रों का अभिनय करती हैं। वाद्यों का प्रयोग नहीं होता। संवाद अधिकांशतः पद्यमय होते हैं। लीलानाट्य के रूप में अभिनीत ’रहस‘ अधिकतर कार्तिक उत्सव और मेले में आयोजित होते हैं। इनका मंच मंदिर-प्रांगण, गांव की चौपाल अथवा विशिष्ट रूप से तख्तों से तैयार ’रास चौंतरा होता है।‘ ’राधा-कृष्ण‘ बनने वाले पात्र ’सरूप‘ कहे जाते हैं। वाद्य के रूप में ’मृदंग एवं परवावज‘ (वर्तमान में ढोलक या तबला) वीणा के बदले हारमोनियम, मंजीरे आदि का प्रयोग होता है। संवाद पद्यवद है। विदूषक का कार्य मनसुखा करता है। बीच बीच में राधा-कृष्ण तथा गोपियों का मण्डलाकार नृत्य अनिवार्य है। अंत में सरूप की आरती के बाद मांगलिक गीत से पटाक्षेप होता है। राम विषयक रहस में भी कृष्ण रहस की छटा दिखई देती है। जो इसमें समाहित हास्य एवं श्रृंगार के संवादों से स्पष्ट झलकती है।
राई नृत्य के साथ स्वांग का अभिनीत किया जाना प्रचलन में रहा है। स्वांग लोकनाट्य का विषय सामाजिक, कुरीतियों, विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण व्यंग्य होता है। इनके लिए गांवों में कोई मंच नहीं बनाया जाता, कस्बों में मंच निर्माण होता है। स्वांग में विदूषक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। स्वांग में स्त्रियों की भूमिका अधिकांशतः पुरूष पात्रों द्वारा ही अभिनीत की जाती है। संगीत में ढोलक, ढपला, नगड़िया, मृदंग आदि वाद्य प्रमुख रूप से बजाए जाते हैं।
भंडैती बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेशी अंचल की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा है। तुलसीदास की ’चोर चतुर वटपार नट, प्रभुप्रिय भंडुआ भंड‘ तो केशव दास की ’कहूं भांड भांडयों करैं मान पावै‘ पंक्तियों 17वीं शती भंडैती के प्रचलन का पता चलता है। भंडैती का मंच खुला मैदान या चबूतरा होता था। पात्र कोई श्रृंगार नहीं करते थे बल्कि अपनी विशिष्टता, वाक्पटुता, हाजिर जवाबी, और चुटीले हास्य प्रस्तुत करते थे। इनमें तीखे व्यंग्य होते थे। वर्तमान में इनका प्रचलन बहुत ही कम हो गया है।
      यद्यपि आधुनिकता के इस दौर में अन्य लोककलाओं की भांति बुन्देली लोक नाट्य का अस्तित्व तेजी से सिमटता जा रहा है जो कि चिंताजनक है। इन्हें सहेजने और पुनः चलन में बनाए रखने के लिए जरूरी है नुक्कड़ नाटकों की तरह इन्हें खेले जाने की तथा इनसे जुड़े कलाकारों को प्रोत्साहित किए जाने की। बिना गंभीर प्रयास के इस कला को बचा पाना संभव नहीं है।
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( नवभारत, 15.02.2019)
#नवभारत #शरदसिंह #बुंदेलखंड #लोकनाट्य #संकट #Navbharat #SharadSingh #Bundelkhand #loknatya

Thursday, February 14, 2019

🇮🇳 पुलवामा के बहादुर वीरों को विनम्र श्रद्धांजलि - डॉ शरद सिंह

Tribute to Pulwama's Brave Martyrs - Dr (Miss) Sharad Singh


चर्चा प्लस ... राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़ - डॉ. शरद सिंह

यूं तो वेलेंटाइन के दिन तलाक की चर्चा अटपटी लगती है लेकिन बात स्त्री के अधिकारों की हो तो मुझे हर दिन उचित लगता है...
      चर्चा प्लस ...
      राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़
        - डॉ. शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh
                                 राजनीतिज्ञ महिलाओं का सचमुच हित चाहते हैं या फिर सिर्फ़ दिखावा करते हैं, इनदिनों यह यक्षप्रश्न मुंह बाए खड़ा है। एक दल ने ट्रिपल तलाक के विरोध में आवाज़ उठाई तो दूसरा दल कह रहा है कि वह सत्ता पर आया तो ट्रिपल तलाक से संबंधित कानून को रद्द कर देगा। न पहले मुस्लिम महिलाओं से बहुमत लिया गया और न अब महिलाओं से पूछा जा रहा है। ट्रिपल तलाक का मुद्दा सफलता की पींगें भरेगा या औंधेमुंह गिरेगा, यह कहना अभी कठिन है लेकिन यह तो तय है कि इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीति के झूले में जिस तरह झुलाया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।       
 चर्चा प्लस .. राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़ - डॉ शरद सिंह ... Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily
     23 अगस्त 2017 ‘‘सागर दिनकर’’ के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मेरा लेख था- ‘‘आखिर मिल ही गया तीन तलाक से तलाक’’। जिसमें मैंने लिखा था कि -‘‘ 22 अगस्त 2017 का दिन भारतीय न्यायायिक इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। यह तारीख गवाह रहेगी भारतीय मुस्लिम महिलाओं की उस जीत की जो उन्होंने अपने मानवीय अधिकारों पक्ष में हासिल की। यही वह तारीख है जब सुप्रीम कोर्ट ने ‘तीन तलाक’ की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया। यह निर्णय उस मार्ग को भी प्रशस्त करता है जो एक दिन सभी भारतीय मुस्लिम महिलाएं को दुनिया की सभी प्रगतिशील महिलाओं की पंक्ति में ला खड़ा करेगा। ‘तीन तलाक’ की प्रथा के विरोध ने भले ही कड़ा संघर्ष झेला लेकिन अनेक चौंकाने वाली सच्चाइयां भी सामने आईं जिनसे स्वयं अधिकांश भारतीय मुस्लिम महिलाएं अनभिज्ञ थीं।

इससे पहले 30 मार्च 2016 को ‘‘सागर दिनकर’’ के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मेरा लेख था- ‘‘मुस्लिम महिलाओं का भविष्य’’। इस लेख में मैंने एक सर्वे के हवाले से आंकड़े देते हुए लिखा था कि -‘‘सर्वे में शामिल 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसदी का जुबानी तलाक हुआ।’’ इसी लेख में मैंने आगे जानकारी दी थी कि ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय मोर्चा है, जो पूरे समुदाय और विषेषरुप से मुस्लिम महिलाओं के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षरत है। यह ‘पाक कुरआन’ और भारतीय संविधान से मिले अधिकारों और निहित कर्तव्यों के लिए काम करता है। यह भारतीय संविधान में निहित न्याय , लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मानता है और ‘कुरआन’ के द्वारा मुस्लिम महिलाओं को मिले अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। 13 राज्यों की 70 हजार मुस्लिम महिलाएं सदस्यों वाले राष्ट्रीय गठबंधन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाने की जरूरत जताते हुए नवम्बर, 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत कई नेताओं को पत्र लिखा था तथा बराबरी के हक और लैंगिक न्याय की मांग की थी।’’

आज स्थितियां इतनी अधिक राजनीतिक हो गई हैं कि महिलाओं के हित के बजाएं ‘ट्रिपल तलाक कानून’ पुरुषों के विरुद्ध दिखाई देने लगा है। इस कानून में यदि कोई विसंगति है तो इसमें संशोधन किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए भी बेहतर होगा कि संशोधन से पहले मुस्लिम महिलाओं से उस पर बहुमत लिया जाए। जिस राजनीतिक दल की पहचान सेक्यूलर के रूप में हमेशा रही हो, उसके तरफ से ऐसे बयान चौंकाने के लिए पर्याप्त हैं, वह भी लोक सभा चुनाव के ठीक पहले। जबकि एक साथ तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच में से तीन जजों ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक माना। कोर्ट ने सरकार को इस पर कानून बनाने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सरकार संसद में इस पर कानून बनाए।
ट्रिपल तलाक कानून को लेकर कांग्रेस की तरफ से बड़ा बयान उस समय सामने आया जब कांग्रेस के अल्पसंख्यक महाधिवेशन में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा, ’अगर हमारी सरकार आई, तो नरेंद्र मोदी सरकार के लाए ट्रिपल तलाक कानून को खत्म कर देंगे।“ उन्होंने यह भी कहा कि ये कानून मुस्लिम पुरुषों को जेल में भेजने की एक साजिश है। उस समय वे विगत 07 फरवरी 2019 को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा सम्मेलन को संबोधित कर रही थीं। उल्लेखनीय है कि इस सम्मेलन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत अन्यम कार्यकर्ता भी मौजूद थे। जबकि 30 जनवरी 2019 की घटना है कि एटा की महिला को कथित तौर पर घर समय पर नहीं आने की वजह से उसके पति ने फोन पर ही तीन तलाक दे दिया। पीड़ित महिला ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा कि उसने अपने पति से वादा किया था कि वह तीस मिनट के भीतर लौट आएगी, मगर ऐसा नहीं करने पर उसे तुंरत तलाक दे दिया गया। महिला ने कहा कि ’मैं अपनी दादी मां को देखने अपने मायके गई थी. मेरे पति ने आधे घंटे के भीतर आने को कहा था। मैं दस मिनट लेट हो गई. उसके बाद उन्होंने मेरे भाई के मोबाइल पर फोन किया और तीन बार ’तलाक-तलाक-तलाक’ कहा. उनकी इस हरकत से मैं पूरी तरह से टूट गई।’

एक ओर महिला नेतृत्व प्रदान करती प्रियंका गांधी आपनी पूरी ताकत आगामी चुनाव में झोंक देने को दृढ़संकल्प हैं और इधर सुष्मिता देव अपने बयान पर अडिग हैं। कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव  ने कहा है कि वह तीन तलाक विधेयक पर दिए अपने बयान पर कायम हैं। देव ने कहा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो पार्टी मुस्लिम समुदाय के भीतर चर्चा से निकले विकल्पों पर जाने के बजाए तीन तलाक विधेयक  को रद्द करेगी। सांसद देव ने बताया, “जो मैंने उस दिन (गुरुवार) बैठक में कहा था, वहीं मैंने संसद के अंदर भी कहा है। तीन तलाक को अपराध करार देने वाले सभी कानूनों को कांग्रेस बदार्श्त नहीं करेगी।” उन्होंने कहा, “और उसके बाद मैंने यह भी कहा था कि जो भी कानून महिला सशक्तिकरण के लिए हैं, हम उन कानून का समर्थन करेंगे। लेकिन हम (तलाक के) अपराधीकरण का समर्थन नहीं करेंगे।”
यह हठधर्मिता है या एक ऐसा तुष्टिकरण वाला कदम जो कम से कम मुस्लिम महिलाओं के हित में तो दिखाई नहीं दे रहा हैं। देखा जाए तो यह मुद्दा समान नागरिक संहिता से जुड़ा हुआ है। यदि इतिहास के पन्ने पलटे जाएं सन् 1993 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। देखा जाए तो संशोधन की शुरुआत सन् 1772 की हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। यद्यपि सन् 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई थी।
सन् 1985 में मध्य प्रदेश की रहने वाली शाह बानो को पति द्वारा तलाक़ दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला किया कि उन्हें आजीवन गुजारा भत्ता दिया जाए। शाहबानो के मामले पर जमकर हंगामा हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने संसद में ’मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स आफ डाइवोर्स) एक्ट पास कराया जिसने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के मामले में दिए गए फैसले को निरस्त कर दिया और निर्वाह भत्ते को आजीवन न रखते हुए तलाक के बाद के 90 दिन तक सीमित रख दिया गया।
कुर्सी का लालच और मीडिया में बने रहने की चाह में डूबे कथित राजनीतिज्ञों को कम से कम एक बार उन तीन महिलाओं के संघर्ष को याद कर लेना चाहिए जो निरंतर जूझती रहीं तीन तलाक के विरुद्ध। पहली महिला - जयपुर की आफ़रीन रहमान जिन्हें एक चिट्ठी में तीन बार तलाक लिख कर तलाक दे दिया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया लेकिन स्वयं के लिए नहीं बल्कि इस बात को ध्यान में रख कर कि “अपने पति पर निर्भर अन्य औरतों को ऐसी नाइंसाफ़ी का सामना ना करना पड़े।’’ दूसरी महिला - सहारनपुर, उत्तर प्रदेश की अतिया साबरी जिनके पति ने दस रुपए के स्टैम्पपे पर तीन तलाक लिख कर उनके मायके भेज कर उन्हें तलाक दे दिया था। निराश हो कर अतिया ने सुप्रीम कोर्ट से इस प्रथा को असंवैधानिक क़रार देने की अपील की। इसके साथ मांग की कि ऐसा क़ानून बनाया जाए जो मुसलमान महिलाओं को तलाक़ से जुड़े फ़ैसले लेने के समान अधिकार दे। तीसरी महिला - काशीपुर, उत्तराखंड की शायरा बानो जो अपने पति के तीन तलाक के निर्णय से आहत् हो कर सुप्रीम कोर्ट की शरण में गईं। अक्तूबर 2015 में जब पति ने शायरा  के पास तलाक़ वाली चिट्ठी भेजी तब उनका बेटा और बेटी उनके पति के पास ही थे जिनसे वे दोबारा कभी नहीं मिल सकती थीं। एक मां की तड़प के साथ उन्होंने कोर्ट से अपील की कि “मैं तो इस प्रथा का शिकार हुई लेकिन ये नहीं चाहती कि आने वाली पुश्तें भी इसे झेलें, इसीलिए मैंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि इसे असंवैधानिक क़रार दिया जाए।“
समान नागरिक अधिकार के मुद्दों को इस तरह राजनीतिक झूले पर झुलाते रहना जहां एक ओर लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, वहीं दूसरी ओर यह महिला अधिकारों का भी हनन करता है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 14.02.2019)
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Sunday, February 10, 2019

ज़मीनी ज़रूरतों को तरसता बुंदेलखंड - डॉ. शरद सिंह ... Published in Patrika.com

Dr (Miss) Sharad Singh
आज 10.02.2019 'Patrika.com' में बुंदेलखंड में ज़मीनी ज़रूरतों की अनदेखी पर लिखे गए मेरे लेख को पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है..(10.02.2019)
🙏मैं आभारी हूं  'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने मेरे विचारों को इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया💐
इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं....
https://www.patrika.com/sagar-news/drought-and-water-crisis-in-bundelkhand-4111258/

साथ ही यहां लेख का टेक्ट्स भी दे रही हूं...

ज़मीनी ज़रूरतों को तरसता बुंदेलखंड  - डॉ. शरद सिंह   

बुंदेलखंड वह इलाका है, जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर व दतिया उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। नदियों, तालाबों, कुओं वाले इस क्षेत्र में जल का सही व्यवस्थापन नहीं होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में बुंदेलखंड में पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र ने वाटर ट्रेन भी भेज दी, जिसपर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है।
Dr Sharad Singh - Article in Patrika . com - 09.02.2019 - जमीनी जरूरतों के लिए तरस रहा बुंदेलखंड

जब किसान तंगहाल होता है तो शेष व्यवसाय भी लड़खड़ाने लगते हैं। बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। इस समाचार ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था कि बुंदेलखंड में लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे हैं’। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण गांव के लोग पलायन करने को विवश हैं। विभिन्न ऐजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल मे लगभग 50 लाख लोग बुंदेलखंड से पलायन कर चुके हैं। किसानों ने खेती छोड़ दी है और दूसरे प्रांतों में मजदूरी कर रहे हैं। यहां की बदहाली और लगातार पड़ रहे सूखे ने बुंदेलखंड के युवाओं को अपनी जड़ों से उखड़ने को विवश कर दिया है। युवा अपना गांव, अपना घर-परिवार छोड़ कर बाहर नौकरी करने जाने को मजबूर हैं। युवाओं के पास बाहर मजदूरी करके खाने-कमाने और परिवार को खिलाने के अलावा दूसरा चारा नहीं है।
प्रदेश सरकारें बढ़-चढ़ कर घोषणाएं करती रहती हैं- कभी सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने की तो कभी वेतन और भत्ता बढ़ाने की। सवाल उठता है कि क्या प्रदेश सरकारों के खजानों में इतना दम है कि वे लम्बे समय तक इस प्रकार की व्यवस्थाओं को बनाए रख सकेंगी या फिर खुद सरकारी खजाने कर्ज में डूबते चले जाएंगे? बुंदेलखंड में उद्योगों का माहौल बनाने के लिए यहां के लिए विशेष पैकेज की जरूरत है, जिससे उद्योगों को यहां आकर्षित किया जा सके। इससे भी पहले निवेशकों के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित करना भी जरूरी है। गड्ढों और मवेशियों से भरी सड़कों पर चल कर कोई निवेशक बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों तक नहीं पहुंच सकता है।     
लोकसभा चुनाव सामने हैं और योद्धा इस समर को जीतने के लिए अपनी-अपनी योजनाएं बनाने में जुट गए हैं। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश इन दो राज्यों में बंटा बुंदेलखंड राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा इलाका है जहां समस्याएं ही समस्याएं हैं इसलिए यहां आश्वासन की पोटली आसानी से खोल दी जाती है। पिछले आमसभा चुनाव के दौरान भी अनेक ऐसे राष्ट्रीयस्तर के नेता बुंदेलखंड में पधारे जिन्हें बुंदेलखंड कहां है यह जानने के लिए गूगलसर्च करना पड़ा होगा। फिर चुनाव के दिन करीब आए तो फिर बुंदेलखंड याद आया। इस बार फिर कई राजनीतिक खिलाड़ी बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारों से गुज़रेंगे। बुंदेलखंड के राजनीतिक मंच पर दृश्य वही रहेगा- ढेर सारे मुद्दे और उससे भी अधिक आश्वासन। इस प्रसंग में बार-बार एक छोटी-सी कहानी याद आता है कि एक गांव में एक तालाब था जिसमें साफ़-स्वच्छ पानी था। हर मौसम में तालाब लबालब भरा रहता। एक बार एक शिकारी ने चुपके से एक मगरमच्छ का बच्चा तालाब में छोड़ दिया। कुछ दिन बाद जब मगरमच्छ बड़ा हुआ और लोगों के लिए खतरा बन गया तो गांववालों को उस शिकारी से निवेदन किया कि वह मगरमच्छ को मार दे। शिकारी ने मगरमच्छ मारने में इतने अधिक दिन लगाए कि तब तक उस मगरमच्छ की कई संतानें हो गईं। शिकारी ने उस मगरमच्छ को पकड़ा, गांववालों से अपना ईनाम लिया और वहां से चलता बना। कुछ समय बाद गांव वालों को पता चला कि तालाब में तो अभी भी मगरमच्छ है। उन्होंने फिर शिकारी को बुलाया। फिर वहीं किस्सा दोहराया गया। एक बार शिकारी के सहायक ने ही उससे पूछ लिया कि शिकारी साहब आप हर बार मगरमच्छ का एक न एक बच्चा तालाब में क्यों जीवित छोड़ देते हैं? इस पर शिकारी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया कि अगर मैं एक बार में सारे मगरमच्छ मार दूंगा और तालाब को समस्या-मुक्त कर दूंगा तो गांव वाले मुझे फिर क्यों बुलाएंगे? लगता है यही कहानी चरितार्थ होती रहती है बुंदेलखंड में।
बुंदेलखंड की कल-कल करती नदियां अब सूख चली हैं। वनपरिक्षेत्र का धनी बुंदेलखंड अंधाधुंध अवैध कटाई को दशकों से झेल रहा है। रसूख वाले बांधों से पानी चुराते हैं और रेतमाफिया नदियों से रेत चुरा रहे हैं। परिणामतः बुंदेलखंड में भी जलवायु परिवर्तन का कालासाया मंडराने लगा है। मौसम का असंतुलन सूखे का समीकरण रचने लगा है। जब पर्याप्त बारिश नहीं होगी तो किसान कैसे फसल उगाएंगे? पर्याप्त फसल नहीं होगी तो किसान कर्ज के बोझ तले दबता जाएगा और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में वहीं हो रहा है जो आए दिन अखबारों की सुर्खियों में पढ़ने को मिलता रहा है। कर्ज़माफी कोई ऐसा स्थाई हल नहीं है कि जिसके सहारे किसान कृषिकार्य से जुड़े रहें। किसानी से युवाओं के मोहभंग होने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है। बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में चर्चा में रहा।
 लोकसभा चुनाव की प्रजातांत्रिक घड़ी में सवाल यह है कि उन गलियारों से गुज़रने वालों को बुंदेलखंड से लगाव है या सत्ता से, इसका आकलन करना होगा बुंदेलखंड के वासियों को और तय करना होगा अपना भावी विकास।
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Thursday, February 7, 2019

चर्चा प्लस... चुनाव आते ही पिटारे से निकलते हैं मुद्दों के सांप - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
मेरे कॉलम "चर्चा प्लस , Sagar Dinkar में ... आप भी पढ़िए ...

चुनाव आते ही पिटारे से निकलते हैं मुद्दों के सांप
     - डॉ. शरद सिंह

       चुनाव का समय आते ही कुछ मुद्दे ऐसे उठ खड़े होते हैं मानो इस बार तो उनका निपटारा हो ही जाएगा। पिटारे में बंद मुद्दों के सांप को राजनीतिक दल अपनी-अपनी उंगली से कोंचने लगते हैं और वह फुंफकारते हुए बाहर निकल आता है। राम मंदिर मुद्दा या शारदा चिटफंड घोटाला इससे अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि इन मुद्दों को ठंडे बस्तों में डाल दिया गया हो लेकिन इनके प्रति जिस तरह की सजगता चुनाव आते ही दिखाई देने लगती है, उसे देख कर लगता है कि यदि यही सजगता शुरु से बनी रहती तो मुद्दे कब के निपट गए होते।                                              
चर्चा प्लस... चुनाव आते ही पिटारे से निकलते हैं मुद्दों के सांप - डॉ. शरद सिंह , Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Newspaper
    मुद्दों की भी अपनी वैरायटी होती है। कुछ मुद्दे समय सीमा वाले होते हैं, जैसे- दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, वार्षिक या फिर पंचवर्षीय। पंचवर्षीय मुद्दे उठ खड़े होते हैं हर पांच साल में चुनाव का समय आते ही। राममंदिर मुद्दा और शारदा चिटफंड घोटाला भी पंचवर्षीय मुद्दे हो चले हैं। चुनाव आते ही इनको ले कर हाय-तौबा शुरू हो जाती है। शारदा चिटफंड घोटाले की आंच हर बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के के दामन तक जा पहुंचती है। इस बार भी चुनाव की सरगर्मियों के बीच जांच की अांच ममता बनर्जी को परेशान करने लगी है। चुनाव दर चुनाव खिंचने वाले मामलों की तरह इस मामले में भी चुस्ती-फुर्ती का नजारा सभी ने देखा। 

ऐसा माना जाता है कि शारदा चिटफंड घोटाला पश्चिम बंगाल के एक बड़ा आर्थिक घोटाला है, जिसमें कई राजनीतिक पार्टियों के नेताओं का हाथ होने का आरोप है। दरअसल पश्चिम बंगाल की चिटफंड कंपनी शारदा ग्रुप ने आम लोगों के ठगने के लिए कई लुभावन ऑफर दिए थे। इस कंपनी की ओर से 34 गुना रकम करने का वादा किया गया था और लोगों से पैसे ठग लिए। इस घोटाले में करीब 40 हजार करोड़ रुपये का हेर-फेर हुआ है। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सीबीआई को जांच का आदेश दिया था। साथ ही पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम पुलिस को आदेश दिया था कि वे सीबीआई के साथ जांच में सहयोग करें। दरअसल, इस कंपनी की स्थापना जुलाई 2008 में की गई थी। आरोप लगाया जाता है कि इस कंपनी के मालिक सुदिप्तो सेन ने ’सियासी प्रतिष्ठा और ताक़त’ हासिल करने के लिए मीडिया में खूब पैसे लगाए और हर पार्टी के नेताओं से जान पहचान बढ़ाई। शारदा चिटफंड घोटाले में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार सीबीआई जांच के घेरे में हैं। दरअसल राजीव कुमार ने ही चिटफंड घोटालों की जांच करने वाली एसआईटी टीम की अगुवाई की थी। साथ ही कहा गया था कि इस जांच के दौरान घोटाला हुआ था। इस कमेटी की स्थापना साल 2013 में की गई थी। दरअसल पश्चिम बंगाल में सीबीआई की एंट्री पर बैन है, इसलिए सीबीआई प्रदेश में बिना अनुमति के कार्रवाई नहीं कर सकती है। शारदा चिटफंड घोटाले की जांच को लेकर सीबीआई कोलकाता में पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार से पूछताछ के लिए पहुंची थी लेकिन पुलिस ने यहां न सिर्फ सीबीआई को रोक दिया बल्कि सीबीआई के पांच अफसरों को भी गिरफ्तार करके थाने ले गई। इस मामले में सीएम ममता बनर्जी ने भी सीबीआई का विरोध करते हुए मोदी सरकार पर निशाना साधा। घटना के बाद बंगाल की मुख्यमंत्री धरने पर भी बैठ गईं।

केंद्र पर तीखा हमला बोलते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर आरोप लगाया कि वे राज्य में तख्ता पलट का प्रयास कर रहे हैं। सीबीआई कार्रवाई “राजनीतिक रूप से प्रतिशोध वाली“ और संवैधानिक मानदंडों पर हमला है। उन्होंने कहा, ’’मुझे ऐसे प्रधानमंत्री से बात करने में शर्म महसूस होती है जिनके हाथों में खून लगा है।“ ममता ने कहा, ’’नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्य में तख्तापलट का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि हमने 19 जनवरी को विपक्ष की रैली आयोजित की थी। हम जानते थे कि रैली आयोजित करने के बाद सीबीआई हम पर हमला बोलेगी। वह ब्रिगेड रैली का जिक्र कर रही थीं जिसमें करीब 20 विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए थे। सीबीआई की कार्रवाई राजनीतिक प्रतिशोध वाली है।’’ ममता बनर्जी ने पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के आवास के बाहर जल्दबाजी में बुलाए गए संवाददाता सम्मेलन में कहा, ’’हमारी सरकार ने सत्ता में आने के बाद चिट फंड मालिकों को गिरफ्तार किया। हमने ही मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया।’’ कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार, पश्चिम बंगाल के डीजी वीरेंद्र और एडीजी (कानून व्यवस्था) अनुज शर्मा भी धरना स्थल पर मौजूद थे। एक तृणमूल कांग्रेस नेता ने कहा, “हम ममता बनर्जी के नेतृत्व में संविधान की रक्षा के लिए यहां आए हैं।“ 

लोकसभा चुनाव के नजदीक आते ही एक ओर जहां अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग तेज हो रही है, वहीं आरएसएस का मानना है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण का काम 2025 तक ही पूरा हो पाएगा। प्रयागराज में कुंभ मेले के दौरान एक कार्यक्रम में संघ में नंबर दो की हैसियत रखने वाले सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने कहा कि अगर आज से राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू होता है तो पांच साल में यह पूरा हो जाएगा।  वहीं, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर कांग्रेस की ओर से भी बड़ा बयान आया है. कांग्रेस नेता और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि कांग्रेस जब सत्ता में आएगी तभी राम मंदिर बनेगा। इससे पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ  नेता इंद्रेश कुमार ने अयोध्या मामले में देरी के लिए कांग्रेस, वाम दल औरसुप्रीम कोर्ट के दो तीन जजों को जिम्मेदारी ठहराया था। आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस , वाम और ‘दो तीन जज’ उन गुनहगारों में हैं जो न्याय में देरी कर अयोध्या मेंराम मंदिर के निर्माण में अड़चन डाल रहे हैं। उन्होंने दोहराया कि आरएसएस की मांग है कि मंदिर के निर्माण के लिए सरकार अध्यादेश लाए।
केंद्र ने अयोध्या में विवादास्पद राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद स्थल के पास अधिग्रहण की गई 67 एकड़ जमीन को उसके मूल मालिकों को लौटाने की अनुमति मांगने के लिये न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार की यह कोशिश एक चुनावी दांव के तौर पर देखा जा रहा है। बीजेपी महासचिव राम माधव ने मोदी सरकार के इस कदम को ’बहुप्रतीक्षित’ बताया। वहीं विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया। विहिप ने कहा था कि यह सही दिशा में उठाया गया कदम है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में बार-बार सुनवाई टलने के मुद्दे पर केंद्रीय कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा था कि अयोध्या ममाला जो करीब 70 सालों से लंबित है, उसकी जल्द सुनवाई होनी चाहिए क्योंकि देश के लोग वहां एक भव्य राम मंदिर का निर्माण होने की उम्मीद कर रहे हैं, जहां कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी। उन्होंने यह भी कहा था कि “अयोध्या मामला पिछले 70 सालों से लंबित है। 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का आदेश मंदिर के पक्ष में था, लेकिन अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। इस मामले का जल्द निपटारा होना चाहिए।“ 

ऐसा ही एक मुद्दा है रार्बट वाड्रा का। जमीन घोटाले का आरोप और जांच पड़ताल, कोट्र-कचहरी आदि सभी कुछ चल रहा है। शिकोहपुर जमीन घोटाला मामले में इसी साल सितंबर में रॉबर्ट वाड्रा और हुड्डा के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। यह मामला नूंह के रहने वाले सुरेंद्र शर्मा नाम ने खेड़कीदौला थाने में दर्ज करवाया था। क्योंकि इस एफआईआर में हरियाणा के पूर्व सीएम का नाम भी शामिल था, इसीलिए पुलिस ने सरकार से इजाजत मांगी थी। शिकायत दर्ज करने वाले सुरेंद्र शर्मा ने आरोप लगाया था कि वाड्रा की कंपनी ने नियमों को ताक पर रखकर घोटाला किया और वाड्रा की कंपनी स्काईलाइट हॉस्पिटेलिटी ने शिकोहपुर में करीब साढ़े सात करोड़ में जमीन खरीदी थी। कमर्शियल लाइसेंस मिलने के बाद इस जमीन की कीमत काफी हद तक बढ़ गई और बाद में इसे डीएलएफ यूनिवर्सल को 58 करोड़ रुपये में बेचा गया। इसमें शिकायत थी कि नियमों को ताक पर रखकर यह जमीन सौदा हुआ है। इसके अलावा कमर्शियल लाइसेंस देने में भी तत्कालीन हुड्डा सरकार ने नियमों का पालन नहीं किया गया।
इस मामले को लेकर शुरू से ही राजनीतिक हलचल भी देखी जा रही थी। बीजेपी जहां कांग्रेस और सोनिया गांधी पर इस मामले में तंज कसती आती रही, वहीं कांग्रेस इसे राजनीतिक साजिश बताती रही है। पिछले चुनाव के समय लगने लगा था कि चुनाव होते ही कुछ ही महीनों में निर्णय हो कर रहेगा लेकिन हुआ ऐसा नहीं। अब फिर चुनाव का समय आया तो अनेक राजनीतिज्ञों को रार्बट वाड्रा याद आने लगे। 

सवाल यह उठता है कि ‘‘जल्दी निर्णय’’ की मांग चुनाव करीब आते ही क्यों सुगबुगाती है? पांच साल किस बात की प्रतीक्षा? जनता अब इतनी नासमझ भी नहीं हैकि इन दोनों प्रश्नों का उत्तर न समझे। मीडिया से जुड़ी जनता भले ही प्रत्यक्षतः कुछ न कर सके लेकिन समझती सब कुछ है। दुख तो इस बात का है कि इन बड़े-बड़े मुद्दों के बीच जल, जमीन, जंगल जैसे बुनियादी मुद्दे सिर्फ़ जुमलेबाजी बन कर रह जाते हैं और राजनीतिक दलों की जागरूकता का ड्रामा चुनाव के मंच पर चलता रहता है। 
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 07.02.2019)
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बुनियादी विकास की बाट जोहता बुंदेलखंड - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित


Dr (Miss) Sharad Singh
प्रतिष्ठित सामाचार पत्र " नवभारत " में 07.02.2019 को  बुंदेलखंड की समस्याओं पर केंद्रित मेरा लेख....
🙏 हार्दिक धन्यवाद #नवभारत

बुनियादी विकास की बाट जोहता बुंदेलखंड
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह                     
लोकसभा चुनाव सामने हैं और योद्धा इस समर को जीतने के लिए अपनी-अपनी योजनाएं बनाने में जुट गए हैं। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश इन दो राज्यों में बंटा बुंदेलखंड राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा इलाका है जहां समस्याएं ही समस्याएं हैं इसलिए यहां आश्वासन की पोटली आसानी से खोल दी जाती है। पिछले आमसभा चुनाव के दौरान भी अनेक ऐसे राष्ट्रीयस्तर के नेता बुंदेलखंड में पधारे जिन्हें बुंदेलखंड कहां है यह जानने के लिए गूगलसर्च करना पड़ा होगा। फिर चुनाव के दिन करीब आए तो फिर बुंदेलखंड याद आया। इस बार फिर कई राजनीतिक खिलाड़ी बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारों से गुज़रेंगे।
बुनियादी विकास की बाट जोहता बुंदेलखंड - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह - नवभारत में प्रकाशित  An article of Dr (Miss) Sharad Singh in Navbharat newspaper

बुंदेलखंड के राजनीतिक मंच पर दृश्य वही रहेगा- ढेर सारे मुद्दे और उससे भी अधिक आश्वासन। इस प्रसंग में बार-बार एक छोटी-सी कहानी याद आता है कि एक गांव में एक तालाब था जिसमें साफ़-स्वच्छ पानी था। हर मौसम में तालाब लबालब भरा रहता। एक बार एक शिकारी ने चुपके से एक मगरमच्छ का बच्चा तालाब में छोड़ दिया। कुछ दिन बाद जब मगरमच्छ बड़ा हुआ और लोगों के लिए खतरा बन गया तो गांववालों को उस शिकारी से निवेदन किया कि वह मगरमच्छ को मार दे। शिकारी ने मगरमच्छ मारने में इतने अधिक दिन लगाए कि तब तक उस मगरमच्छ की कई संतानें हो गईं। शिकारी ने उस मगरमच्छ को पकड़ा, गांववालों से अपना ईनाम लिया और वहां से चलता बना। कुछ समय बाद गांव वालों को पता चला कि तालाब में तो अभी भी मगरमच्छ है। उन्होंने फिर शिकारी को बुलाया। फिर वहीं किस्सा दोहराया गया। एक बार शिकारी के सहायक ने ही उससे पूछ लिया कि शिकारी साहब आप हर बार मगरमच्छ का एक न एक बच्चा तालाब में क्यों जीवित छोड़ देते हैं? इस पर शिकारी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया कि अगर मैं एक बार में सारे मगरमच्छ मार दूंगा और तालाब को समस्या-मुक्त कर दूंगा तो गांव वाले मुझे फिर क्यों बुलाएंगे? लगता है यही कहानी चरितार्थ होती रहती है बुंदेलखंड में।
बुंदेलखंड की कल-कल करती नदियां अब सूख चली हैं। वनपरिक्षेत्र का धनी बुंदेलखंड अंधाधुंध अवैध कटाई को दशकों से झेल रहा है। रसूख वाले बांधों से पानी चुराते हैं और रेतमाफिया नदियों से रेत चुरा रहे हैं। परिणामतः बुंदेलखंड में भी जलवायु परिवर्तन का कालासाया मंडराने लगा है। मौसम का असंतुलन सूखे का समीकरण रचने लगा है। जब पर्याप्त बारिश नहीं होगी तो किसान कैसे फसल उगाएंगे? पर्याप्त फसल नहीं होगी तो किसान कर्ज के बोझ तले दबता जाएगा और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में वहीं हो रहा है जो आए दिन अखबारों की सुर्खियों में पढ़ने को मिलता रहा है। कर्ज़माफी कोई ऐसा स्थाई हल नहीं है कि जिसके सहारे किसान कृषिकार्य से जुड़े रहें। किसानी से युवाओं के मोहभंग होने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है। बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में चर्चा में रहा।
बुंदेलखंड वह इलाका है, जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर व दतिया उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। नदियों, तालाबों, कुओं वाले इस क्षेत्र में जल का सही व्यवस्थापन नहीं होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में बुंदेलखंड में पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र ने वाटर ट्रेन भी भेज दी, जिसपर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है।
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(दैनिक ‘नवभारत’, 07.02.2019)
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Tuesday, February 5, 2019

मोती बी ए जी से अविस्मरणीय मुलाकात - डॉ. शरद सिंह

Dr Sharad Singh with Moti BA... and his son Bhalchandra Upadhyay at Deoria UP in year 2008
आज अचानक सन् 2008 की वह तस्वीर मुझे अपनी एक फाईल में मिली जिसने यादें ताज़ा कर दीं भोजपुरी के ‘शेक्सपीयर’ कहे जाने वाले कवि, गीतकार एवं नाटककार मोती बी ए जी से देवरिया (उप्र) में उनके निवास पर मुलाकात की... अनमोल मुलाक़ात एक लिविंग लीजेण्ड से ... अफसोस कि अब वे नहीं हैं.... उन दिनों भी वे अस्वस्थ थे, लगभग अल्जाइमर की स्थिति में... फिर भी उन्होंने ममत्व से भर कर मुस्कुराते हुए मुझसे दो बातें की थीं.... अविस्मरणीय... 📷 तस्वीर में मौजूद हैं मोती बी.ए. जी के सुपुत्र श्री भालचन्द्र उपाध्याय।
🔖 जो मित्र मोती बी ए जी के बारे में नहीं जानते हैं उनके लिए मोती बी ए जी का एक संक्षिप्त परिचय दे रही हूं यहां....
भोजपुरी के 'शेक्सपियर' कहे जाने वाले कवि एवं गीतकार मोती बी0ए0 (मोतीलाल उपाध्याय) का जन्म 1 अगस्त 1919 को गांव-बरेजी, बरहज, देवरिया में हुआ था । उनके लिखे गीत` असो आइल महुआ बारी में बहार सजनी´ और `सेमर के फूल´ जनमानस में इतने लोकप्रिय हुए कि पूरे पूर्वांचल में लोक कलाकारों ने इन्हें आदर के साथ गाया । मोती बी0ए0 की प्रमुख रचनाएं थीं – सेमर के फूल, कवि भावन मानव, पायल छम-छम बाजे,मोती के मुक्तक, अस के गुहर, राशन की दुकान, मेघदूत का पदानुवाद, रविबेनएजरा का अनुवाद, लव एंड ब्यूटी, अंग्रेजी कविताओं का संग्रह । 1947 से 1955 तक उन्होंने मुंबई फिल्मी दुनिया में काम किया । 1955 से 1980 तक स्थानीय श्रीकृष्ण इंटर कॉलेज, बरहज में प्राध्यापक रहे । `लोकरंग-1´ पुस्तक में हम मोती बी0ए0 पर आलेख एवं उनके प्रमुख गीतों को प्रकाशित कर रहे हैं । मोती बी0ए0 को हिन्दी फिल्मों में भोजपुरी गीतों के प्रचलन का श्रेय दिया जाता है । `कठवा के नइया बनइहे रे मलहवा, नदिया के पार दे उतार, `छपक-छपक चले तोरी नइया रे मलहवा आइल पुरुवइया के बहार´ और `मोरी रानी हो तू ही मेरा प्राण आधार´ जैसे चर्चित गीत लिखने वाले मोती बी0ए0 को स्मरण करते हुए लोकरंग सांस्कृतिक समिति उन्हें नमन करती है । मोती बी0ए0 ने नदिया के पार(पुरानी) के अलावा सुभद्रा, भक्त ध्रुव, सिंदूर, साजन, राम विवाह, सुरेखा, हरण, ममता, ठकुराइन, गजब भइले रामा,चम्पा चमेली, फिल्मों में गीत लिखे । 1984 में प्रदर्शित फिल्म-गजब भइले रामा में अभिनय भी किया हालांकि शोहरत नदिया के पार से मिली । मोती बी0ए0 लम्बे समय से अस्वस्थ रहे और 18 जनवरी 2009 उन्होंने इस संसार से विदा ले लिया।

Monday, February 4, 2019

बुंदेलखंड से गायब हो रहे बच्चे और बेफिक्र हम - डॉ. शरद सिंह .. Patrika.com में

Dr ((Miss) Sharad Singh
आज 'Patrika.com' में बच्चों की गुमशुदगी की चिंताजनक बढ़ती दर मेरे लेख को पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है... 🙏मैं आभारी हूं 'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने मेरे विचारों को इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया💐
इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं....
https://m.patrika.com/…/kids-missing-every-year-from-bunde…/
बुंदेलखंड से गायब हो रहे बच्चे और बेफिक्र हम - Dr Sharad Singh Patrika dot com, 04.02.2019

बुंदेलखंड से गायब हो रहे बच्चे और बेफिक्र हम - डॉ. शरद सिंह

ह्यूमन ट्रैफिकिंग की आशंका, भीख मंगवाने वाले गिरोह का भी शिकंजा

- डॉ. शरद सिंह
  देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकतर का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमन ट्रैफिकिंग की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी। वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढऩे वाले स्कूली बच्चे हैं।
आखिर महानगरों के चौराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नजऱ से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है। 
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हाल ही के वर्षों में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं। 2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से ज़्यादा बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर जि़लों में 90 फीसदी से ज़्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को जबरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं।
बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीडि़त परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो।
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