Sunday, February 10, 2019

ज़मीनी ज़रूरतों को तरसता बुंदेलखंड - डॉ. शरद सिंह ... Published in Patrika.com

Dr (Miss) Sharad Singh
आज 10.02.2019 'Patrika.com' में बुंदेलखंड में ज़मीनी ज़रूरतों की अनदेखी पर लिखे गए मेरे लेख को पोस्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है..(10.02.2019)
🙏मैं आभारी हूं  'Patrika.com' तथा 'पत्रिका' के सागर संस्करण की जिन्होंने मेरे विचारों को इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म दिया💐
इस लिंक पर जा कर आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं....
https://www.patrika.com/sagar-news/drought-and-water-crisis-in-bundelkhand-4111258/

साथ ही यहां लेख का टेक्ट्स भी दे रही हूं...

ज़मीनी ज़रूरतों को तरसता बुंदेलखंड  - डॉ. शरद सिंह   

बुंदेलखंड वह इलाका है, जिसमें मध्यप्रदेश के छह जिले छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर व दतिया उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा, कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। नदियों, तालाबों, कुओं वाले इस क्षेत्र में जल का सही व्यवस्थापन नहीं होने के कारण लोग बूंद-बूद पानी के लिए तरसते रहते हैं। पिछले साल 2016 में बुंदेलखंड में पीने के पानी की ऐसी समस्या हुई कि केंद्र ने वाटर ट्रेन भी भेज दी, जिसपर खूब राजनीति हुई। कई गांव ऐसे हैं जहां 10 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पीने का पानी लाना पड़ता है।
Dr Sharad Singh - Article in Patrika . com - 09.02.2019 - जमीनी जरूरतों के लिए तरस रहा बुंदेलखंड

जब किसान तंगहाल होता है तो शेष व्यवसाय भी लड़खड़ाने लगते हैं। बुंदेलखंड की भुखमरी भी सुर्खियों में रही है। इस समाचार ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था कि बुंदेलखंड में लोग घास की रोटियां बनाकर खा रहे हैं’। बुंदेलखंड में खेती खत्म होने, उद्योग न होने और बेरोजगारी-भुखमरी के कारण गांव के लोग पलायन करने को विवश हैं। विभिन्न ऐजेंसियों के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल मे लगभग 50 लाख लोग बुंदेलखंड से पलायन कर चुके हैं। किसानों ने खेती छोड़ दी है और दूसरे प्रांतों में मजदूरी कर रहे हैं। यहां की बदहाली और लगातार पड़ रहे सूखे ने बुंदेलखंड के युवाओं को अपनी जड़ों से उखड़ने को विवश कर दिया है। युवा अपना गांव, अपना घर-परिवार छोड़ कर बाहर नौकरी करने जाने को मजबूर हैं। युवाओं के पास बाहर मजदूरी करके खाने-कमाने और परिवार को खिलाने के अलावा दूसरा चारा नहीं है।
प्रदेश सरकारें बढ़-चढ़ कर घोषणाएं करती रहती हैं- कभी सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने की तो कभी वेतन और भत्ता बढ़ाने की। सवाल उठता है कि क्या प्रदेश सरकारों के खजानों में इतना दम है कि वे लम्बे समय तक इस प्रकार की व्यवस्थाओं को बनाए रख सकेंगी या फिर खुद सरकारी खजाने कर्ज में डूबते चले जाएंगे? बुंदेलखंड में उद्योगों का माहौल बनाने के लिए यहां के लिए विशेष पैकेज की जरूरत है, जिससे उद्योगों को यहां आकर्षित किया जा सके। इससे भी पहले निवेशकों के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित करना भी जरूरी है। गड्ढों और मवेशियों से भरी सड़कों पर चल कर कोई निवेशक बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों तक नहीं पहुंच सकता है।     
लोकसभा चुनाव सामने हैं और योद्धा इस समर को जीतने के लिए अपनी-अपनी योजनाएं बनाने में जुट गए हैं। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश इन दो राज्यों में बंटा बुंदेलखंड राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा इलाका है जहां समस्याएं ही समस्याएं हैं इसलिए यहां आश्वासन की पोटली आसानी से खोल दी जाती है। पिछले आमसभा चुनाव के दौरान भी अनेक ऐसे राष्ट्रीयस्तर के नेता बुंदेलखंड में पधारे जिन्हें बुंदेलखंड कहां है यह जानने के लिए गूगलसर्च करना पड़ा होगा। फिर चुनाव के दिन करीब आए तो फिर बुंदेलखंड याद आया। इस बार फिर कई राजनीतिक खिलाड़ी बुंदेलखंड के राजनीतिक गलियारों से गुज़रेंगे। बुंदेलखंड के राजनीतिक मंच पर दृश्य वही रहेगा- ढेर सारे मुद्दे और उससे भी अधिक आश्वासन। इस प्रसंग में बार-बार एक छोटी-सी कहानी याद आता है कि एक गांव में एक तालाब था जिसमें साफ़-स्वच्छ पानी था। हर मौसम में तालाब लबालब भरा रहता। एक बार एक शिकारी ने चुपके से एक मगरमच्छ का बच्चा तालाब में छोड़ दिया। कुछ दिन बाद जब मगरमच्छ बड़ा हुआ और लोगों के लिए खतरा बन गया तो गांववालों को उस शिकारी से निवेदन किया कि वह मगरमच्छ को मार दे। शिकारी ने मगरमच्छ मारने में इतने अधिक दिन लगाए कि तब तक उस मगरमच्छ की कई संतानें हो गईं। शिकारी ने उस मगरमच्छ को पकड़ा, गांववालों से अपना ईनाम लिया और वहां से चलता बना। कुछ समय बाद गांव वालों को पता चला कि तालाब में तो अभी भी मगरमच्छ है। उन्होंने फिर शिकारी को बुलाया। फिर वहीं किस्सा दोहराया गया। एक बार शिकारी के सहायक ने ही उससे पूछ लिया कि शिकारी साहब आप हर बार मगरमच्छ का एक न एक बच्चा तालाब में क्यों जीवित छोड़ देते हैं? इस पर शिकारी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया कि अगर मैं एक बार में सारे मगरमच्छ मार दूंगा और तालाब को समस्या-मुक्त कर दूंगा तो गांव वाले मुझे फिर क्यों बुलाएंगे? लगता है यही कहानी चरितार्थ होती रहती है बुंदेलखंड में।
बुंदेलखंड की कल-कल करती नदियां अब सूख चली हैं। वनपरिक्षेत्र का धनी बुंदेलखंड अंधाधुंध अवैध कटाई को दशकों से झेल रहा है। रसूख वाले बांधों से पानी चुराते हैं और रेतमाफिया नदियों से रेत चुरा रहे हैं। परिणामतः बुंदेलखंड में भी जलवायु परिवर्तन का कालासाया मंडराने लगा है। मौसम का असंतुलन सूखे का समीकरण रचने लगा है। जब पर्याप्त बारिश नहीं होगी तो किसान कैसे फसल उगाएंगे? पर्याप्त फसल नहीं होगी तो किसान कर्ज के बोझ तले दबता जाएगा और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में वहीं हो रहा है जो आए दिन अखबारों की सुर्खियों में पढ़ने को मिलता रहा है। कर्ज़माफी कोई ऐसा स्थाई हल नहीं है कि जिसके सहारे किसान कृषिकार्य से जुड़े रहें। किसानी से युवाओं के मोहभंग होने का एक सबसे बड़ा कारण यह भी है। बुंदेलखंड 2004 से ही सूखे की चपेट में रहा। जब बहुत शोर मचा तो पहली बार इलाके को 2007 में सूखाग्रस्त घोषित किया गया। 2014 में ओलावृष्टि की मार ने किसानों को तोड़ दिया। सूखा और ओलावृष्टि से यहां के किसान अब तक नहीं उबर पाए हैं। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान तंगहाली में पहुंच चुके हैं। यहां के किसान लगातार कर्ज में डूबते जा रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत किसान साहूकारों और बैंको के कर्जे में डूबे हैं। ओलावृष्टि के दौरान तो सैकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं तक कर लीं। इन आत्महत्याओं की वजह से ही बुंदेलखंड देश भर में चर्चा में रहा।
 लोकसभा चुनाव की प्रजातांत्रिक घड़ी में सवाल यह है कि उन गलियारों से गुज़रने वालों को बुंदेलखंड से लगाव है या सत्ता से, इसका आकलन करना होगा बुंदेलखंड के वासियों को और तय करना होगा अपना भावी विकास।
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