यूं तो वेलेंटाइन के दिन तलाक की चर्चा अटपटी लगती है लेकिन बात स्त्री के अधिकारों की हो तो मुझे हर दिन उचित लगता है...
चर्चा प्लस ...
राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़
- डॉ. शरद सिंह
राजनीतिज्ञ महिलाओं का सचमुच हित चाहते हैं या फिर सिर्फ़ दिखावा करते हैं, इनदिनों यह यक्षप्रश्न मुंह बाए खड़ा है। एक दल ने ट्रिपल तलाक के विरोध में आवाज़ उठाई तो दूसरा दल कह रहा है कि वह सत्ता पर आया तो ट्रिपल तलाक से संबंधित कानून को रद्द कर देगा। न पहले मुस्लिम महिलाओं से बहुमत लिया गया और न अब महिलाओं से पूछा जा रहा है। ट्रिपल तलाक का मुद्दा सफलता की पींगें भरेगा या औंधेमुंह गिरेगा, यह कहना अभी कठिन है लेकिन यह तो तय है कि इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीति के झूले में जिस तरह झुलाया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।
23 अगस्त 2017 ‘‘सागर दिनकर’’ के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मेरा लेख था- ‘‘आखिर मिल ही गया तीन तलाक से तलाक’’। जिसमें मैंने लिखा था कि -‘‘ 22 अगस्त 2017 का दिन भारतीय न्यायायिक इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। यह तारीख गवाह रहेगी भारतीय मुस्लिम महिलाओं की उस जीत की जो उन्होंने अपने मानवीय अधिकारों पक्ष में हासिल की। यही वह तारीख है जब सुप्रीम कोर्ट ने ‘तीन तलाक’ की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया। यह निर्णय उस मार्ग को भी प्रशस्त करता है जो एक दिन सभी भारतीय मुस्लिम महिलाएं को दुनिया की सभी प्रगतिशील महिलाओं की पंक्ति में ला खड़ा करेगा। ‘तीन तलाक’ की प्रथा के विरोध ने भले ही कड़ा संघर्ष झेला लेकिन अनेक चौंकाने वाली सच्चाइयां भी सामने आईं जिनसे स्वयं अधिकांश भारतीय मुस्लिम महिलाएं अनभिज्ञ थीं।
इससे पहले 30 मार्च 2016 को ‘‘सागर दिनकर’’ के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मेरा लेख था- ‘‘मुस्लिम महिलाओं का भविष्य’’। इस लेख में मैंने एक सर्वे के हवाले से आंकड़े देते हुए लिखा था कि -‘‘सर्वे में शामिल 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसदी का जुबानी तलाक हुआ।’’ इसी लेख में मैंने आगे जानकारी दी थी कि ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय मोर्चा है, जो पूरे समुदाय और विषेषरुप से मुस्लिम महिलाओं के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षरत है। यह ‘पाक कुरआन’ और भारतीय संविधान से मिले अधिकारों और निहित कर्तव्यों के लिए काम करता है। यह भारतीय संविधान में निहित न्याय , लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मानता है और ‘कुरआन’ के द्वारा मुस्लिम महिलाओं को मिले अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। 13 राज्यों की 70 हजार मुस्लिम महिलाएं सदस्यों वाले राष्ट्रीय गठबंधन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाने की जरूरत जताते हुए नवम्बर, 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत कई नेताओं को पत्र लिखा था तथा बराबरी के हक और लैंगिक न्याय की मांग की थी।’’
आज स्थितियां इतनी अधिक राजनीतिक हो गई हैं कि महिलाओं के हित के बजाएं ‘ट्रिपल तलाक कानून’ पुरुषों के विरुद्ध दिखाई देने लगा है। इस कानून में यदि कोई विसंगति है तो इसमें संशोधन किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए भी बेहतर होगा कि संशोधन से पहले मुस्लिम महिलाओं से उस पर बहुमत लिया जाए। जिस राजनीतिक दल की पहचान सेक्यूलर के रूप में हमेशा रही हो, उसके तरफ से ऐसे बयान चौंकाने के लिए पर्याप्त हैं, वह भी लोक सभा चुनाव के ठीक पहले। जबकि एक साथ तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच में से तीन जजों ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक माना। कोर्ट ने सरकार को इस पर कानून बनाने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सरकार संसद में इस पर कानून बनाए।
ट्रिपल तलाक कानून को लेकर कांग्रेस की तरफ से बड़ा बयान उस समय सामने आया जब कांग्रेस के अल्पसंख्यक महाधिवेशन में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा, ’अगर हमारी सरकार आई, तो नरेंद्र मोदी सरकार के लाए ट्रिपल तलाक कानून को खत्म कर देंगे।“ उन्होंने यह भी कहा कि ये कानून मुस्लिम पुरुषों को जेल में भेजने की एक साजिश है। उस समय वे विगत 07 फरवरी 2019 को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा सम्मेलन को संबोधित कर रही थीं। उल्लेखनीय है कि इस सम्मेलन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत अन्यम कार्यकर्ता भी मौजूद थे। जबकि 30 जनवरी 2019 की घटना है कि एटा की महिला को कथित तौर पर घर समय पर नहीं आने की वजह से उसके पति ने फोन पर ही तीन तलाक दे दिया। पीड़ित महिला ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा कि उसने अपने पति से वादा किया था कि वह तीस मिनट के भीतर लौट आएगी, मगर ऐसा नहीं करने पर उसे तुंरत तलाक दे दिया गया। महिला ने कहा कि ’मैं अपनी दादी मां को देखने अपने मायके गई थी. मेरे पति ने आधे घंटे के भीतर आने को कहा था। मैं दस मिनट लेट हो गई. उसके बाद उन्होंने मेरे भाई के मोबाइल पर फोन किया और तीन बार ’तलाक-तलाक-तलाक’ कहा. उनकी इस हरकत से मैं पूरी तरह से टूट गई।’
एक ओर महिला नेतृत्व प्रदान करती प्रियंका गांधी आपनी पूरी ताकत आगामी चुनाव में झोंक देने को दृढ़संकल्प हैं और इधर सुष्मिता देव अपने बयान पर अडिग हैं। कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव ने कहा है कि वह तीन तलाक विधेयक पर दिए अपने बयान पर कायम हैं। देव ने कहा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो पार्टी मुस्लिम समुदाय के भीतर चर्चा से निकले विकल्पों पर जाने के बजाए तीन तलाक विधेयक को रद्द करेगी। सांसद देव ने बताया, “जो मैंने उस दिन (गुरुवार) बैठक में कहा था, वहीं मैंने संसद के अंदर भी कहा है। तीन तलाक को अपराध करार देने वाले सभी कानूनों को कांग्रेस बदार्श्त नहीं करेगी।” उन्होंने कहा, “और उसके बाद मैंने यह भी कहा था कि जो भी कानून महिला सशक्तिकरण के लिए हैं, हम उन कानून का समर्थन करेंगे। लेकिन हम (तलाक के) अपराधीकरण का समर्थन नहीं करेंगे।”
यह हठधर्मिता है या एक ऐसा तुष्टिकरण वाला कदम जो कम से कम मुस्लिम महिलाओं के हित में तो दिखाई नहीं दे रहा हैं। देखा जाए तो यह मुद्दा समान नागरिक संहिता से जुड़ा हुआ है। यदि इतिहास के पन्ने पलटे जाएं सन् 1993 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। देखा जाए तो संशोधन की शुरुआत सन् 1772 की हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। यद्यपि सन् 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई थी।
सन् 1985 में मध्य प्रदेश की रहने वाली शाह बानो को पति द्वारा तलाक़ दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला किया कि उन्हें आजीवन गुजारा भत्ता दिया जाए। शाहबानो के मामले पर जमकर हंगामा हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने संसद में ’मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स आफ डाइवोर्स) एक्ट पास कराया जिसने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के मामले में दिए गए फैसले को निरस्त कर दिया और निर्वाह भत्ते को आजीवन न रखते हुए तलाक के बाद के 90 दिन तक सीमित रख दिया गया।
कुर्सी का लालच और मीडिया में बने रहने की चाह में डूबे कथित राजनीतिज्ञों को कम से कम एक बार उन तीन महिलाओं के संघर्ष को याद कर लेना चाहिए जो निरंतर जूझती रहीं तीन तलाक के विरुद्ध। पहली महिला - जयपुर की आफ़रीन रहमान जिन्हें एक चिट्ठी में तीन बार तलाक लिख कर तलाक दे दिया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया लेकिन स्वयं के लिए नहीं बल्कि इस बात को ध्यान में रख कर कि “अपने पति पर निर्भर अन्य औरतों को ऐसी नाइंसाफ़ी का सामना ना करना पड़े।’’ दूसरी महिला - सहारनपुर, उत्तर प्रदेश की अतिया साबरी जिनके पति ने दस रुपए के स्टैम्पपे पर तीन तलाक लिख कर उनके मायके भेज कर उन्हें तलाक दे दिया था। निराश हो कर अतिया ने सुप्रीम कोर्ट से इस प्रथा को असंवैधानिक क़रार देने की अपील की। इसके साथ मांग की कि ऐसा क़ानून बनाया जाए जो मुसलमान महिलाओं को तलाक़ से जुड़े फ़ैसले लेने के समान अधिकार दे। तीसरी महिला - काशीपुर, उत्तराखंड की शायरा बानो जो अपने पति के तीन तलाक के निर्णय से आहत् हो कर सुप्रीम कोर्ट की शरण में गईं। अक्तूबर 2015 में जब पति ने शायरा के पास तलाक़ वाली चिट्ठी भेजी तब उनका बेटा और बेटी उनके पति के पास ही थे जिनसे वे दोबारा कभी नहीं मिल सकती थीं। एक मां की तड़प के साथ उन्होंने कोर्ट से अपील की कि “मैं तो इस प्रथा का शिकार हुई लेकिन ये नहीं चाहती कि आने वाली पुश्तें भी इसे झेलें, इसीलिए मैंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि इसे असंवैधानिक क़रार दिया जाए।“
समान नागरिक अधिकार के मुद्दों को इस तरह राजनीतिक झूले पर झुलाते रहना जहां एक ओर लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, वहीं दूसरी ओर यह महिला अधिकारों का भी हनन करता है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 14.02.2019)
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राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़
- डॉ. शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस .. राजनीतिक झूले में झूलता ट्रिपल तलाक़ - डॉ शरद सिंह ... Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily |
इससे पहले 30 मार्च 2016 को ‘‘सागर दिनकर’’ के अपने इसी कॉलम ‘‘चर्चा प्लस’’ में मेरा लेख था- ‘‘मुस्लिम महिलाओं का भविष्य’’। इस लेख में मैंने एक सर्वे के हवाले से आंकड़े देते हुए लिखा था कि -‘‘सर्वे में शामिल 525 तलाकशुदा महिलाओं में से 65.9 फीसदी का जुबानी तलाक हुआ।’’ इसी लेख में मैंने आगे जानकारी दी थी कि ‘‘भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन मुस्लिम महिलाओं के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय मोर्चा है, जो पूरे समुदाय और विषेषरुप से मुस्लिम महिलाओं के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षरत है। यह ‘पाक कुरआन’ और भारतीय संविधान से मिले अधिकारों और निहित कर्तव्यों के लिए काम करता है। यह भारतीय संविधान में निहित न्याय , लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को मानता है और ‘कुरआन’ के द्वारा मुस्लिम महिलाओं को मिले अधिकारों के लिए संघर्ष करता है। 13 राज्यों की 70 हजार मुस्लिम महिलाएं सदस्यों वाले राष्ट्रीय गठबंधन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाने की जरूरत जताते हुए नवम्बर, 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत कई नेताओं को पत्र लिखा था तथा बराबरी के हक और लैंगिक न्याय की मांग की थी।’’
आज स्थितियां इतनी अधिक राजनीतिक हो गई हैं कि महिलाओं के हित के बजाएं ‘ट्रिपल तलाक कानून’ पुरुषों के विरुद्ध दिखाई देने लगा है। इस कानून में यदि कोई विसंगति है तो इसमें संशोधन किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए भी बेहतर होगा कि संशोधन से पहले मुस्लिम महिलाओं से उस पर बहुमत लिया जाए। जिस राजनीतिक दल की पहचान सेक्यूलर के रूप में हमेशा रही हो, उसके तरफ से ऐसे बयान चौंकाने के लिए पर्याप्त हैं, वह भी लोक सभा चुनाव के ठीक पहले। जबकि एक साथ तीन तलाक़ को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच में से तीन जजों ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक माना। कोर्ट ने सरकार को इस पर कानून बनाने के लिए कहा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि सरकार संसद में इस पर कानून बनाए।
ट्रिपल तलाक कानून को लेकर कांग्रेस की तरफ से बड़ा बयान उस समय सामने आया जब कांग्रेस के अल्पसंख्यक महाधिवेशन में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने कहा, ’अगर हमारी सरकार आई, तो नरेंद्र मोदी सरकार के लाए ट्रिपल तलाक कानून को खत्म कर देंगे।“ उन्होंने यह भी कहा कि ये कानून मुस्लिम पुरुषों को जेल में भेजने की एक साजिश है। उस समय वे विगत 07 फरवरी 2019 को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा सम्मेलन को संबोधित कर रही थीं। उल्लेखनीय है कि इस सम्मेलन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत अन्यम कार्यकर्ता भी मौजूद थे। जबकि 30 जनवरी 2019 की घटना है कि एटा की महिला को कथित तौर पर घर समय पर नहीं आने की वजह से उसके पति ने फोन पर ही तीन तलाक दे दिया। पीड़ित महिला ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा कि उसने अपने पति से वादा किया था कि वह तीस मिनट के भीतर लौट आएगी, मगर ऐसा नहीं करने पर उसे तुंरत तलाक दे दिया गया। महिला ने कहा कि ’मैं अपनी दादी मां को देखने अपने मायके गई थी. मेरे पति ने आधे घंटे के भीतर आने को कहा था। मैं दस मिनट लेट हो गई. उसके बाद उन्होंने मेरे भाई के मोबाइल पर फोन किया और तीन बार ’तलाक-तलाक-तलाक’ कहा. उनकी इस हरकत से मैं पूरी तरह से टूट गई।’
एक ओर महिला नेतृत्व प्रदान करती प्रियंका गांधी आपनी पूरी ताकत आगामी चुनाव में झोंक देने को दृढ़संकल्प हैं और इधर सुष्मिता देव अपने बयान पर अडिग हैं। कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव ने कहा है कि वह तीन तलाक विधेयक पर दिए अपने बयान पर कायम हैं। देव ने कहा था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो पार्टी मुस्लिम समुदाय के भीतर चर्चा से निकले विकल्पों पर जाने के बजाए तीन तलाक विधेयक को रद्द करेगी। सांसद देव ने बताया, “जो मैंने उस दिन (गुरुवार) बैठक में कहा था, वहीं मैंने संसद के अंदर भी कहा है। तीन तलाक को अपराध करार देने वाले सभी कानूनों को कांग्रेस बदार्श्त नहीं करेगी।” उन्होंने कहा, “और उसके बाद मैंने यह भी कहा था कि जो भी कानून महिला सशक्तिकरण के लिए हैं, हम उन कानून का समर्थन करेंगे। लेकिन हम (तलाक के) अपराधीकरण का समर्थन नहीं करेंगे।”
यह हठधर्मिता है या एक ऐसा तुष्टिकरण वाला कदम जो कम से कम मुस्लिम महिलाओं के हित में तो दिखाई नहीं दे रहा हैं। देखा जाए तो यह मुद्दा समान नागरिक संहिता से जुड़ा हुआ है। यदि इतिहास के पन्ने पलटे जाएं सन् 1993 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। देखा जाए तो संशोधन की शुरुआत सन् 1772 की हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। यद्यपि सन् 1929 में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई थी।
सन् 1985 में मध्य प्रदेश की रहने वाली शाह बानो को पति द्वारा तलाक़ दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला किया कि उन्हें आजीवन गुजारा भत्ता दिया जाए। शाहबानो के मामले पर जमकर हंगामा हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने संसद में ’मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स आफ डाइवोर्स) एक्ट पास कराया जिसने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के मामले में दिए गए फैसले को निरस्त कर दिया और निर्वाह भत्ते को आजीवन न रखते हुए तलाक के बाद के 90 दिन तक सीमित रख दिया गया।
कुर्सी का लालच और मीडिया में बने रहने की चाह में डूबे कथित राजनीतिज्ञों को कम से कम एक बार उन तीन महिलाओं के संघर्ष को याद कर लेना चाहिए जो निरंतर जूझती रहीं तीन तलाक के विरुद्ध। पहली महिला - जयपुर की आफ़रीन रहमान जिन्हें एक चिट्ठी में तीन बार तलाक लिख कर तलाक दे दिया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया लेकिन स्वयं के लिए नहीं बल्कि इस बात को ध्यान में रख कर कि “अपने पति पर निर्भर अन्य औरतों को ऐसी नाइंसाफ़ी का सामना ना करना पड़े।’’ दूसरी महिला - सहारनपुर, उत्तर प्रदेश की अतिया साबरी जिनके पति ने दस रुपए के स्टैम्पपे पर तीन तलाक लिख कर उनके मायके भेज कर उन्हें तलाक दे दिया था। निराश हो कर अतिया ने सुप्रीम कोर्ट से इस प्रथा को असंवैधानिक क़रार देने की अपील की। इसके साथ मांग की कि ऐसा क़ानून बनाया जाए जो मुसलमान महिलाओं को तलाक़ से जुड़े फ़ैसले लेने के समान अधिकार दे। तीसरी महिला - काशीपुर, उत्तराखंड की शायरा बानो जो अपने पति के तीन तलाक के निर्णय से आहत् हो कर सुप्रीम कोर्ट की शरण में गईं। अक्तूबर 2015 में जब पति ने शायरा के पास तलाक़ वाली चिट्ठी भेजी तब उनका बेटा और बेटी उनके पति के पास ही थे जिनसे वे दोबारा कभी नहीं मिल सकती थीं। एक मां की तड़प के साथ उन्होंने कोर्ट से अपील की कि “मैं तो इस प्रथा का शिकार हुई लेकिन ये नहीं चाहती कि आने वाली पुश्तें भी इसे झेलें, इसीलिए मैंने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि इसे असंवैधानिक क़रार दिया जाए।“
समान नागरिक अधिकार के मुद्दों को इस तरह राजनीतिक झूले पर झुलाते रहना जहां एक ओर लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, वहीं दूसरी ओर यह महिला अधिकारों का भी हनन करता है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 14.02.2019)
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