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Wednesday, April 16, 2025

चर्चा प्लस | प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
        प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता गीता’ में
          - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
श्रीमद्भगवद्गीता को आदर्श ग्रंथ माना जाता है। इसमें जीवन का उद्देश्य और महत्व बताया गया है। इसमें असत्य पर सत्य की जीत के लिए शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है। इसमें आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व को समझाया गया है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि ‘‘मैं’’ यानी ईश्वर इस संसार के सभी तत्वों में विद्यमान है। इसलिए अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो हम पाएंगे कि गीता का उपदेश देते हुए कृष्ण प्रकृति के महत्व और उसके संरक्षण की आवश्यकता का भी उपदेश देते हैं। हमें गीता के श्लोकों के रूप में लिखे प्रकृति संरक्षण के संदेश को समझना चाहिए। यही कि यदि ईश्वर प्रकृति के प्रत्येक तत्व में है तो प्रकृति को क्षति पहुंचाना ईश्वर का अनादर करना है।   
आज पूरा विश्व पर्यावरण के क्षरण से जूझ रहा है। आज स्थिति इतनी विकट हो गई है कि पर्यावरण संरक्षण एक वैश्विक मुद्दा बन गया है। ओजोन परत के क्षरण के कारण पृथ्वी पर सूर्य का तापमान बढ़ने लगा है। आज विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से त्रस्त नजर आ रहा है। कहीं सुनामी आ रही है, तो कहीं भूकंप आ रहा है। यह सब पर्यावरण में असंतुलन के कारण हो रहा है। प्रकृति के इस असंतुलन के लिए मानव ही जिम्मेदार है। अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए उसने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है। आज हम मनुष्यों को यह भ्रम है कि हमने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है। हम एंटी-ग्रेविटी में काम कर सकते हैं, हमने गॉड पार्टिकल्स का पता लगा लिया है, हमारे पास ग्रहों का पता लगाने के लिए रॉकेट भेजने की क्षमता है और हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में प्रवेश कर चुके हैं। हम इसका अर्थ यह समझते हैं कि हम मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह हमारा भ्रम है। जब प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष होता है, तो अंततः प्रकृति जीत जाती है। सुनामी में मनुष्यों को तिनके की तरह बहा ले जाने की क्षमता होती है।
पर्यावरण संरक्षण की चेतना प्राचीन काल से ही प्रचलित है। प्रकृति और मनुष्य सदैव एक दूसरे के पूरक रहे हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना निरर्थक है। हमारे प्राचीन ग्रंथ हमें पर्यावरण संरक्षण के बारे में बहुत सी बातें बताते हैं। उनमें प्रकृति संतुलन, पर्यावरण संतुलन और जलवायु संतुलन के बारे में स्पष्ट चर्चा की गई है। दरअसल हमारे पूर्वज प्रकृति पूजक थे और वे प्रकृति के महत्व को भली-भांति समझते थे। जिन धार्मिक ग्रंथों को हम केवल धर्म या दर्शन मानते हैं, उन ग्रंथों में भी प्रकृति संरक्षण और प्रकृति के महत्व का वर्णन मिलता है। जिस प्रकार भगवद्गीता में पाप और पुण्य की व्याख्या की गई है, अन्याय के विरुद्ध न्याय के माध्यम से शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है, वहीं उस ग्रंथ में प्रकृति के महत्व को भी स्थापित किया गया है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में दैवीय शक्ति होने की बात कही गई है। अर्थात जब प्रकृति के प्रत्येक तत्व में ईश्वर है, तो वे सभी तत्व पूजनीय हैं और उनकी सेवा व देखभाल करना मनुष्य का कर्तव्य है। भगवद्गीता हिंदू समुदाय के लिए एक पवित्र ग्रंथ माना जाता है। भगवद शब्द भगवान से आया है, जिसका अर्थ है सर्वोच्च शक्ति वाला ईश्वर और गीता शब्द का अर्थ है गीत। इस प्रकार भगवद गीता शीर्षक ईश्वर के गीत को संदर्भित करता है। गीता की रचना शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी। वास्तव में गीता महान महाकाव्य महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है, जिसे वेद व्यास ने लिखा था। गीता कुरुक्षेत्र युद्ध की शुरुआत के दौरान अर्जुन को उनके सारथी भगवान कृष्ण द्वारा दी गई सलाह है। भगवद गीता के अनुसार प्रकृति तीन गुणों से बनी है जो प्रवृत्तियाँ या संचालन के तरीके हैं, जिन्हें रजस (निर्माण), सत्व (संरक्षण), और तम (विनाश) के रूप में जाना जाता है। सत्व में अच्छाई, प्रकाश और सद्भाव के गुण शामिल हैं। गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति से लेकर बादलों, बारिश, भोजन और मानव व्यवहार तक के चक्र को समझाया गया है। अर्थात जीवित प्राणी भोजन पर जीवित रहते हैं, जो बादलों (वर्षा) से उत्पन्न होता है और आगे बादल यज्ञ से उत्पन्न होते हैं, जो भगवान को अर्पित किए गए प्रसाद हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकृति संरक्षण को महत्व दिया गया है। गीता में प्रकृति को माता के रूप में दर्शाया गया है, जो सभी जीवों को पोषण देती है और उनकी रक्षा करती है। गीता में पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कही गई है, और श्रीकृष्ण ने स्वयं पर्यावरण संरक्षण का अनुभव भी किया था। श्रीमद्भगवद् गीता में पर्यावरण संतुलन का वैज्ञानिक तथ्य उस समय स्पष्ट होता है जब श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कहते हैं। मथुरा के राजमहलों से निर्वासित श्रीकृष्ण बाल रूप में ही ‘कालिया दह’ के विषाक्त जल को प्रदूषण रहित करते हैं। दावाग्नि पान कर वनों का संरक्षण करते हैं क्योंकि वन और वनस्पतियां जैव विविधता का अक्षय भंडार होती हैं। गो पालन में वह पशु-संरक्षण और गोवर्धन धारण करके पृथ्वी का संरक्षण भी करते हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति को माता कहकर इस तथ्य को समक्ष रखते हैं कि प्रकृति सब जीवधारियों को गर्भ में धारण कर उनका पोषण करती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में स्थित सूर्य और चंद्रमा इन्हें पोषित करते हैं। चंद्रमा की शीतल किरणें वनस्पतियों और औषधियों में रस का संचार करती हैं। श्रीकृष्ण ने सूर्य और नक्षत्रों के अधिपति चंद्रमा को स्वयं में पर्यवसित किया है। वृक्षों में अश्वत्थ कहकर वे उसकी आक्सीजन क्षमता का परिचय देते हैं। जल पर तैरती नाव, पोतवाहकों की वायु-चक्र से प्रभावित होती गतिशीलता पर भी उनकी गहरी दृष्टि गयी है। जलचर जीवों और आकाशगामी पंछियों के साथ ही श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और जीवमंडल एवं उसके वैज्ञानिक प्रभावों की चर्चा करते हैं।
गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति के प्रति बादल, वर्षा, भोजन और मानव व्यवहार के चक्र को समझाया गया है। -
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यद् अन्नसम्भवः
यज्ञद् भवति पर्जन्यों यज्ञः कर्मसमुद्भवः (113-1411)
- इसका अर्थ है कि जीव अन्न पर जीवित रहते हैं, जो बादल (वर्षा) से उत्पन्न होता है और बादल यज्ञ से उत्पन्न होता है, जो भगवान को अर्पित किया जाता है। संचित यज्ञ को कर्म के साधन के रूप में उपयोग किया जाएगा, अर्थात आज की आहुति कल में प्राप्त होगी।
दूसरे शब्दों कहा जाए तो अन्नाद् भवन्ति भूतानि अर्थात सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। पर्जन्यात् अन्नसम्भवः अर्थात अन्न वर्षा से होता है। यज्ञाद् भवति पर्जन्यो अर्थात वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञः कर्मसमुद्भवः अर्थात् यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। यह श्लोक दर्शाता है कि सृष्टि का चक्र कर्म, यज्ञ, वर्षा और अन्न के माध्यम से चलता है।
एक अन्य श्लोक प्रकृति को प्रत्येक कार्य का प्रमुख नियंत्रक बताता है। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से उसकी नियमित गतिविधियाँ प्रभावित होंगी, जिसका असर मानव जीवन पर पड़ सकता है। यह कविता उन लोगों को चेतावनी भी देती है, जो प्रकृति की शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं।-
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। (3-27)
भावार्थ है कि दुनिया में सभी कर्म प्रकृति के गुण के द्वारा ही किए जाते हैं। प्रकृति के गुणों से ही सभी तरह के कर्म किए जाते हैं। उदाहरण के लिए शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, नदियाँ प्रवाहित होती हैं, भौतिक वस्तुओं में परिवर्तन होता रहता है। यह सब प्रकृति द्वारा नियंत्रित एवं निर्धारित होता है जबकि ‘‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’’ अर्थात अहंकार से मोहित हो चुके इंसान को लगता है कि वह स्वतः प्रेरित हो कर कर्म कर कर रहा है। वह भूल जाता है कि प्रकृति ही मनुष्य की भी नियंता है और वह अपने नियंता को ही क्षति पहुंचाने लगता है।

गीता (अध्याय 7) में प्रकृति के सजीव और निर्जीव तत्वों के संबंध में कुछ सुंदर श्लोक हैं। -
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (7/4)
अर्थात गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है। 
इस प्रकार प्रकृति के सभी तत्व ईश्वर का अंश हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाना ईश्वर का अनादर करने के समान है।   

सातवें अध्याय के ही पांचवें श्लोक में कहा गया है-
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।।
स्वामी रामसुख दास ने इस श्लोक का बहुत सटीक अर्थ बताया है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश - ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस ‘‘अपरा’’ प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा बनी हुुई मेरी श्पराश् प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। अर्थात यदि ईश्वर को स्वीकार करते हैं, उनका सम्मान करते हैं तो प्रकृति का भी सम्मान करना चाहिए।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 
सातवें अध्याय के छठे श्लोक में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि परा और अपरा इन दोनों प्रकृतियोंके संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ। भावर्थ देखें तो- प्रकृति ईश्वर का स्वरूप है। यदि प्रकृति को क्षति पहुचाएंगे तो प्रकृति यानी ईश्वर रुष्ट हो जाएगा और प्रलय उत्पन्न होगा। वही, यदि प्रकृति संरक्षित रहे तो ईश्वर प्रसन्न रहेंगे और श्री और समृद्धि प्राप्त होगी।
सारांशतः देखा जाए तो ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ हमें सही ढंग से जीने का रास्ता दिखाती है और बिना लोभ-लालच के कर्म करने का निर्देश देती है। यदि मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा तो हम प्रकृति का क्रूरता से दोहन नहीं करेंगे और प्रकृति के संरक्षण के बारे में सोचेंगे। बस, यही कहा ह। बस, यही कहा है  श्रीकृष्ण ने गीता में। अब यह हम पर निर्भर है कि हम इसके एक-एक श्लोकों का गहराई से मर्म समझें अथवा उन श्लोकों को रट कर अपनी धार्मिक क्रिया की इति मान लें। वस्तुतः हमें प्रकृति के महत्व को आत्मसात करना चाहिए जिसे हमारे पूर्वजों ने दार्शनिक और धार्मिक शिक्षाओं के माध्यम से हमें समझाया है। हमें यह ध्यान देना चाहिए और सीखना चाहिए कि जिसको हम जीवन का मूल ज्ञान मानते हैं उस ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ की शिक्षाएं हमें प्रकृति के संरक्षण का मार्ग दिखाती हैं।
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Friday, July 26, 2024

शून्यकाल | प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम "शून्यकाल"-                                                                      प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
        प्रेम बड़ा ही कौतूहल भरा और गुदगुदाने वाला शब्द है। यह शब्द अपने आप में  रहस्यमय लगता है। आज के भौतिकवादी वैश्विक समय में परस्पर संपर्क को भले ही विस्तार मिला है, लेकिन प्रेम संकुचित और भौतिकता से ग्रसित हो गया है। ‘पैंचअप” और “ब्रेकअप” के चलन में आज प्रेम को दैहिक वस्तु मान लिया जाता है। जबकि वास्तविक प्रेम में देह आवश्यक नहीं है। अपने प्रिय को अपनी "संपत्ति" समझना भी एक बड़ी भूल है। यदि भावना में “व्यक्ति” को “संपत्ति” बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। यदि प्रेम को समझना है तो श्रीकृष्ण के महारास को समझना जरूरी है। क्योंकि प्रेम का वास्तविक अर्थ मौजूद है श्रीकृष्ण के महारास में।
कुछ वर्ष पूर्व कानपुर में एक हृदय विदारक घटना घटी थी जिसमें एक कथित युवा प्रेमी ने कॉलेज में पढ़ने वाली एक युवती को चाकू मार कर मौत के घाट उतार दिया था। वह भी सिर्फ इसलिए कि उस युवती ने उस युवक का प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। युवक पकड़ा गया। उस पर इरादतन हत्या का अपराध दर्ज हुआ। उसने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने यही कहा कि वह उस युवती से बेइंतहा प्रेम करता था। न्यायाधीश भी चकित रह गए कि यह किस तरह का प्रेम था? क्या कोई प्रेमी उस युवती को किसी भी तरह से चोट पहुंचा सकता है जिससे वह प्रेम करता हो? सच्चा प्रेम हर हाल में अपने प्रिय की सलामती चाहता है उसकी खुशी चाहता है उसके हर निर्णय को स्वीकार करता है। वस्तुतः वह युवक प्रेम में नहीं था,  सिर्फ एक आकर्षण और अधिकार की भावना उसे पर हावी थी। वह युवती पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था। ऐसा अधिकार जिसमें वह युवती किसी अन्य से बात न करें, किसी अन्य से न मिले, किसी अन्य की ओर न देखें। सिर्फ उस युवक की ‘संपत्ति’ बन कर रहे। यदि भावना में ‘‘व्यक्ति’’ को ‘‘संपत्ति’’ बना लेने की आकांक्षा है तो फिर वह प्रेम हो ही नहीं सकता है। वह मात्र एक लिप्सा है, वासना है तथा एक मनोविकार है जिसके प्रभाव में वह व्यक्ति रहता है। जब यह प्रभाव व्यक्ति को पूरी तरह से अपने जाल में जकड़ लेता है तो फिर उस व्यक्ति की उचित, अनुचित में भेद करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। अमानवीय और  क्रूरतापूर्ण उठाया गया अपना हर कदम उसे सही लगता है। यही सच था उस युवा का, जो अपनी आपराधिक मनोवृत्ति को प्रेम समझने की भूल कर रहा था। ऐसा व्यक्ति किसी से भी प्रेम नहीं कर सकता है न अपने माता-पिता से, न अपने परिजन से और न किसी अन्य व्यक्ति से। उसके द्वारा ईश्वर से प्रेम किए जाने का तो सवाल ही नहीं उठाता है क्योंकि ईश्वर तो दिखाई ही नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता उस पर वह अधिकार कैसे जमा सकता है? जहां अधिकार की भावना हो वहां प्रेम नहीं होता है।
प्रेम विश्वास समर्पण और समानता की भावना से भरा होता है। वास्तविक प्रेम में कुछ पाने की नहीं बल्कि देने की भावना प्रबल होती है। सूफी संत कवि लुत्फी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के  मैं  मोम की बाती हूं।
यक पांव पर  खड़ी हूं  जलने पिरत पाती हूं।।
सब निस  घड़ी जलूंगी,  जागा सूं न हिलूंगी,
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।।

यदि समर्पण स्वेच्छा से हो, तभी उसमें प्रेम की उपस्थिति होती है, अन्यथा समर्पण तो एक आक्रमणकर्ता शस्त्रबल से भी करा लेता है। सच्चे प्रेम की सबसे सटीक व्याख्या श्रीकृष्ण के महारास में मौजूद है। जिसने महारास का मर्म समझ लिया, वह प्रेम के मर्म को गहराई से समझ सकता है। श्रीमद्भागवत के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम श्लोक में लिखा है- ‘‘भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमिलका।’’ भावार्थ है कि इस मधुर रासलीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। 

श्रीकृष्ण द्वारा महारास रचाए जाने की कथा भी अत्यंत रोचक है। कथा इस प्रकार है कि कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो वह घमंड से भर उठा। कामदेव ने श्रीकृष्ण को चुनौती देते हुए कहा कि ‘‘मैं आपसे भी प्रतिस्पर्द्धा  करना चाहता हूं।’’
श्रीकृष्ण ने चुनौती स्वीकार कर ली लेकिन कामदेव ने इस प्रतिस्पर्द्धा के लिए कृष्ण के सामने एक शर्त भी रखी कि ‘‘इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं-सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा और एक ही समय में सभी गोपिकाओं के साथ महारास करना होगा।’’

श्रीकृष्ण ने शर्त मान ली। शरद पूर्णिमा की रात को श्रीकृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर अपनी बांसुरी बजाई। निधिवन मथुरा के निकट स्थित है। यह मान्यता है कि आज भी श्रीकृष्ण राधा एवं गोपियों के साथ दिव्य रासलीला रचाने आते हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि निधिवन को परम कृष्णभक्त स्वामी हरिदास ने बसाया था। निधिवन मंदिर में राधा कृष्ण की एक सुंदर मूर्ति और एक रंग महल है जो जंगल से घिरा हुआ है। इस रंग महल में रास लीला खत्म होने के बाद भगवान कृष्ण और राधा रानी विश्राम करते हैं। रंग महल एक छोटा सा मंदिर है जहां माना जाता है कि श्रीकृष्ण राधा को अपने हाथों से सजाते हैं। मंदिर में उनके विश्राम के लिए बिस्तर भी है। रंग महल मंदिर के पुजारी हर रात आरती के बाद इसके दरवाजे बंद करने से पहले नीम की दातुन, एक साड़ी, चूड़ियां, पान के पत्ते, मिठाई और पानी रखते हैं। माना जाता है कि रात में राधा-कृष्ण यहां आते हैं और आराम करते हैं। इस कारण सुबह सब कुछ बिखरा हुआ पाया जाता है जैसे कि किसी ने उनका उपयोग किया हो।

कामदेव की चुनौती स्वीकार करते हुए श्री कृष्ण ने निधिवन में पहुंच कर ‘‘क्लीं बीजमंत्र’’ फूंकते हुए  32 राग, 64 रागिनियां बजाईं। श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि सुनकर राधा एवं गोपियां अपने-अपने घरों से निकलकर मंत्रमुग्ध-सी निधिवन पहुंच गईं। सभी गोपियां चाहती थीं कि जिस तरह कृष्ण राधा के साथ नृत्य कर रहे हैं, उनके साथ भी नृत्य करें। वस्तुतः यही चुनौती कामदेव ने रखी थी। कामदेव को लगा था कि कृष्ण का राधा एवं गोपियों के साथ महारास नहीं हो सकेगा। कामदेव दैहिक और मानसिक प्रेम में अंतर नहीं समझ सका था। जब व्यक्ति किसी के प्रेम में इस तरह डूब जाता है कि उसे उसके न होने पर भी उसके होने का अहसास होने लगे तो वह स्थिति मानसिक प्रेम एवं अलौकिक प्रेम की चरम स्थिति होती है। ठीक यही स्थिति निर्मित हुई थी महारास के समय जब प्रत्येक गोपियों को यह प्रतीत हुआ कि कृष्ण उनके साथ नृत्य कर रहे हैं। कामदेव यह देख कर हतप्रभ रह गया। स्वर्ग में स्थित देवता भी महारास को देख कर नृत्य कर उठे।
यूं भी जब हम ईश्वर के किसी रूप की भक्ति करते हैं तो यह जानते हैं कि वह रूप सभी को प्रिय है, किन्तु साथ ही यह मानते हैं कि उस रूप की हम पर विशेष कृपा है क्योंकि हम उसे अपना मानते हैं। यह अलौकिक भावना जैसे ही लौकिक विचार के धरातल पर पहुंचती है, प्रेम को समझना ही बंद कर देती है क्योंकि वहां व्यक्ति नहीं ‘संपत्ति’ की भावना प्रभावी हो जाती है। जबकि श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि यदि प्रेम सच्चा है तो तमाम सांसारिकता के बाद भी दो प्रेमियों के बीच तीसरा नहीं आ सकता है। रसखान कहते हैं कि -
अकथ कहानी प्रेम की जानत लैली खूब।
दो तनहुं जहं एक भे मन मिलाई महबूब।।
- प्रेम की अकथ है, कहानी को व्यक्त नहीं किया जा सकता है इस कहानी में आत्मा एवं परमात्मा अथवा दो आत्माओं का परस्पर मिलन ही दैहिक मिलन का संकेत होता है

विद्वानों ने महारास या रासलीला के अनेक अर्थ किए हैं। जैसे, गोपियां वेद की ऋचाएं हैं और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष। जिस प्रकार शब्द और अर्थ का नित्य संबंध है, ऋषियों और वेद का नित्य संबंध हैं, इसी प्रकार गोपियों और कृष्ण का नित्य संबंध और विहार ही रासलीला है। सांख्यवादियों के अनुसार, रासलीला प्रकृति के साथ पुरुष का विलास है। गोपियां प्रकृति स्वरूप में अंतःकरण की वृत्तियां हैं, भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं। प्रकृति के अनेक विलास देख लेने के बाद अपने स्वरूप में स्थित होना रासलीला का रहस्य है। योग शास्त्र के अनुसार, अनहद नाद भगवान श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है। अनेक नाड़ियां गोपियां हैं। कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं। सहस्र दल कमल ही सुरम्य वृंदावन है, जहां आत्मा-परमात्मा का आनंदमय सम्मिलन रासलीला है।

श्रीकृष्ण का महारास यही तो समझाता है कि प्रेम में दैहिक अधिकार से कहीं अधिक महत्व है मानसिक अधिकार का। जिसको बहुत ही सरल और आम बोलचाल की भाषा में कहते हैं ‘‘दिल जीतना’’। वास्तविक प्रेम देह से नहीं मन और आत्मा से हो कर गुज़रता है। आज के बाजारवादी समय में प्रेम के अस्तित्व को भी ‘‘बाज़ारू बनाने’’ की भूल की जाने लगी है, जिससे ‘ब्रेकअप’ और उसके बाद ‘डिप्रेशन’ आम बात हो चली है। प्रेम छोटे-छोटी बातों में, दूसरों के बहकावे में टूट जाए तो वह प्रेम नहीं है। इसीलिए सतसई परंपरा के नीति कवि दयाराम कहते हैं-
मो उर में निज प्रेम अस, परिदृढ़ अचलित देहू। 
जैसे लोटन-दीप सों, सरक न ढुरक सनेहु।।
       - अर्थात् हे श्रीकृष्ण! जैसे लौटन दीपक से उलटा करने पर भी उसका तेल नहीं गिरता, उसी तरह विपरीत परिस्थितियों एवं प्रलोभनों में भी आपके प्रति मेरा प्रेम सदैव एक-सा बना रहे। ऐसा एकनिष्ठ प्रेम आप मेरे हृदय में दीजिए।   
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Wednesday, August 12, 2020

चर्चा प्लस | जन्मोत्सव सदा प्रासंगिक श्रीकृष्ण का | डाॅ शरद सिंह

चर्चा प्लस
जन्मोत्सव सदा प्रासंगिक श्रीकृष्ण का
  -  डाॅ शरद सिंह
     द्वापर राजनीतिक अनाचार की चरम परिणति का समय था जिसकी किसी हद तक हम वर्तमान राजनीतिक दशाओं से तुलना कर सकते हैं। अनीतिकारियों, भ्रष्टाचारियों के दरबार में आए दिन नियम-कानून का चीर-हरण होता रहता है। जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर जन्म लेते हैं। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। अधर्म के विनाश के मार्गदर्शक बने। ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के लिए सार्वजनिक स्थान पर मटकी फोड़ना ही जरूरी नहीं है, बल्कि जरूरी है उनके द्वारा दिए गए उपदेशों को अपने जीवन में उतारना जो हमें सही ढंग से जीना सिखाते हैं।  
 समय निरंतर गतिमान रहता है। समय के साथ स्थितियां एवं परिस्थितियां बदलती हैं। इसीलिए जो कल प्रासंगिक था वह आज नहीं है, जो आज प्रासंगिक है वह कल प्रासंगिक नहीं रहेगा। लेकिन कुछ तत्व, कुछ घटनाएं एवं कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो कालजयी होते हैं और उनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। ऐसे ही एक व्यक्त्वि हैं श्रीकृष्ण जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। एक ऐसा अवतार जो मानवीय गुणों से परिपूर्ण है। कृष्ण के सभी गुण मानवीय होते हुए भी अधर्म को पराजित करने के लिए थे। दरअसल, श्रीकृष्ण हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान है। कृष्ण की शिक्षाएं कृष्ण का जीवन और कृष्ण की ‘गीता’ आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है।
गीता का ज्ञान आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। गीता को लेकर आज भी बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शोध हो रहे हैं। गीता हमें जीवन को भरपूर जीने की प्ररणा देती है, कर्मयोग की शिक्षा देती है। हमारे लिए जीवंत गुरु, मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक का काम करता है। वह हमें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देती है। इससे भी बढ़ कर कृष्ण का उपदेश जिसमें वे बिना फल की इच्छा के कर्म करने की बात कहते हैं, हमें उन पलों में डिप्रेशन से बचाता है जब हम अपने किसी काम में असफल होने पर हताश हो जाते हैं और ग़तल दिशाओं में सोचने लगते हैं। गीता के माध्यम से कृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी फल की इच्छा किए बिना कर्म करने की प्रेरणा दी थी। इसके पीछे का मूलभाव यही है कि हम यदि आज हम फल की इच्छा किए बिना काम करते रहें तो विभिन्न तरह की टेंशन, फ्रस्टेशन और डिप्रेशन से बच सकते हैं। देखा जाए तो कृष्ण का सम्पूर्ण व्यक्तित्व संदेशों से भरा हुआ है। वे प्रकृति के सौंदर्य के प्रतीक मोरपंख को अपने सिर पर धारण करते हैं। वे संगीत और नृत्य से जीवन को आनन्दमय बनाने का संदेश देते हैं। वे प्रगति की दौड़ में पीछे छूट गए अपने मित्रों की सहायता करने का संदेश देते हैं। वस्तुतः कृष्ण का जन्म ही धर्म की स्थापना एवं अधर्म, अन्याय तथा अत्याचार का नाश करने के लिए हुआ था।
आज अकसर युवाओं में इस बात का असंतोष रहता है कि उनके माता-पिता उन्हें वे सभी भौतिक सुख्स नहीं दे पाते हैं जो वे पाना चाहते हैं। इसी असंतोष के कारण कुछ युवा अपराध के मार्ग में चल पड़ते हैं। जबकि युवाओं को याद रखना चाहिए कि श्रीकृष्ण चांदी का चम्मच मुंह में ले कर नहीं जन्में थे। उनका जन्म तो कारागार में हुआ था। नृशंस एवं अधर्मी कंस के कारागार में। बड़ी रोचक एवं लोमहर्षक कथा है कृष्ण के जन्म की। द्वापर युग में मथुरा में राजा उग्रसेन का राज था। कंस उनका पुत्र था। लेकिन राज्य के लालच में अपने पिता को सिंहासन से उतारकर वह स्वयं राजा बन गया और अपने पिता को कारागार में डाल दिया। देवकी कंस की चचेरी बहन थी जिसे वह बहुत प्रेम करता था।  इसीलिए कंस ने देवकी का विवाह वासुदेव के साथ पूरे धूमधाम से किया था और प्रसन्नतापूर्वक विवाह की सभी रस्मों को निभाया था। लेकिन जब व्यक्ति स्वार्थ में अंधा हो गया हो तो अपनी प्रिय बहन का भी शत्रु बन बैठता है। जिसका उदाहरण आजकल के कथित ‘आॅनर किलिंग’ में देखा जा सकता है। वरना जब बहन देवकी को विदा करने का समय आया तो कंस भावविभोर हो कर देवकी और वासुदेव को रथ में बैठाकर स्वयं ही रथ चलाने लगा। तभी अचानक ही आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवां पुत्र ही कंस काल होगा। आकाशवाणी सुनकर कंस स्वार्थपरता की सीमाएं लांघते हुए तुरंत ही अपनी बहन को मारने के लिए तत्पर हो गया। लेकिन वासुदेव ने पत्नी देवकी के प्राण बचाने के लिए उसे समझाते हुए कहा कि तुम्हें अपनी बहन देवकी से कोई भय नहीं है, देवकी की आठवीं संतान से भय है। इसलिए वे अपनी आठवीं संतान को कंस को सौंप देंगे। वासुदेव को लगा था कि जब कंस नवजात शिशु को देखेगा तो उसका हृदय पसीज उठेगा और वह शिशु को मारने का जघन्य अपराध नहीं करेगा।
कंस को वासुदेव की बात मान ली। लेकिन उसने देवकी और वासुदेव को कारागार में कैद डाल दिया। कंस को अपने प्राणों से बढ़ कर किसी का मोह नहीं था। नवजात शिशिुओं को देख कर भी उसके मन में दया भावना नहीं जागी। कंस की इस क्रूरता को हम आज इस संदर्भ में समझ सकते हैं कि पुत्र पाने के मोह में किसी प्रकार कन्याओं एवं कन्या भ्रण को मारा जाता रहा है। कंस में भी ऐसी क्रूर प्रवृत्ति थी। जब भी देवकी की कोई संतान होती तो कंस उसे मार देता इस तरह से कंस ने एक-एक करके देवकी की सभी संतानों को मार दिया। और फिर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में कृष्ण ने जन्म लिया। कृष्ण के जन्म लेते ही कारागार में एक तेज प्रकाश छा गया। कारागार के सभी दरवाजे स्वतः ही खुल गए, सभी सैनिको को गहरी नींद आ गई। वासुदेव और देवकी के सामने भगवान विष्णु प्रकट हुए और कहा कि उन्होंने ही कृष्ण रुप में जन्म लिया है। विष्णु जी ने वासुदेव जी से कहा कि वे उन्हें इसी समय गोकुल में नन्द बाबा के यहां पहुंचा दें, और उनकी कन्या को लाकर कंस को सौंप दें, वासुदेव जी गोकुल में कृष्ण जी को यशोदा जी के पास रख आए वहां से कन्या को ले आये, और कन्या कंस को दे दी। वह कन्या कृष्ण की योगमाया थी। जैसे ही कंस ने कन्या को मारने के लिए उसे पटकना चाहा कन्या उसके  हाथ से छूटकर आकाश में चली गई। और तभी भविष्यवाणी हुई कि कंस को मारने वाले ने जन्म ले लिया हैं और वह गोकुल में पहुंच चुका है। तब से कृष्ण जी को मारने के लिए कंस ने कई राक्षसों को भेजा लेकिन बालपन में भगवान ने कई लीलाएं रची, और सभी राक्षसों का वद कर दिया। जब कंस ने कृष्ण को मथुरा में आमंत्रित किया तो वहां पर पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके प्रजा को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलवाई। श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ का उपदेश देते हुए कहा भी है कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर जन्म लेते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया जाए। वे अर्जुन को यही तो उपदेश देते हैं कि धर्मरक्षा के लिए रक्तसंबंधों को भी भुला कर अन्याय के विरूद्ध शस्त्र उठाना जरूरी है। यहां धर्म का संकुचित अर्थ नहीं है। यहां धर्म का अर्थ मानवहित एवं मानवजीवन है। जो मानवहित के विरुद्ध कार्य कर रहा हो उसको दण्डित करना ही धर्म है। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव भले ही इस बार अपने-अपने घरों में ही मनाना है किन्तु उनके जन्मोत्सव से अधिक महत्वपूर्ण है कृष्ण का व्यक्तित्व और और कृष्ण के उपदेश जिसे अपना कर आज हम अपने जीवन को सहज, सरल और संतोषमय बना सकते हैं। तो श्रीकृष्ण जन्म पर मेरी ये काव्य-पंक्तियां देखें-
      कृष्ण जन्म  का  अर्थ यही है,  मानव धर्म सदा विजयी हो।
     फल का लालच छोड़ चुका वो, उत्तम कर्म सदा विजयी हो।।
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(दैनिक सागर दिनकर में 12.08.2020 को प्रकाशित)
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