Wednesday, April 16, 2025

चर्चा प्लस | प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
        प्रकृति संरक्षण के लिए कहा है श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भगवद्गीता गीता’ में
          - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
श्रीमद्भगवद्गीता को आदर्श ग्रंथ माना जाता है। इसमें जीवन का उद्देश्य और महत्व बताया गया है। इसमें असत्य पर सत्य की जीत के लिए शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है। इसमें आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व को समझाया गया है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि ‘‘मैं’’ यानी ईश्वर इस संसार के सभी तत्वों में विद्यमान है। इसलिए अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो हम पाएंगे कि गीता का उपदेश देते हुए कृष्ण प्रकृति के महत्व और उसके संरक्षण की आवश्यकता का भी उपदेश देते हैं। हमें गीता के श्लोकों के रूप में लिखे प्रकृति संरक्षण के संदेश को समझना चाहिए। यही कि यदि ईश्वर प्रकृति के प्रत्येक तत्व में है तो प्रकृति को क्षति पहुंचाना ईश्वर का अनादर करना है।   
आज पूरा विश्व पर्यावरण के क्षरण से जूझ रहा है। आज स्थिति इतनी विकट हो गई है कि पर्यावरण संरक्षण एक वैश्विक मुद्दा बन गया है। ओजोन परत के क्षरण के कारण पृथ्वी पर सूर्य का तापमान बढ़ने लगा है। आज विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से त्रस्त नजर आ रहा है। कहीं सुनामी आ रही है, तो कहीं भूकंप आ रहा है। यह सब पर्यावरण में असंतुलन के कारण हो रहा है। प्रकृति के इस असंतुलन के लिए मानव ही जिम्मेदार है। अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए उसने प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर उन्हें नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया है। आज हम मनुष्यों को यह भ्रम है कि हमने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है। हम एंटी-ग्रेविटी में काम कर सकते हैं, हमने गॉड पार्टिकल्स का पता लगा लिया है, हमारे पास ग्रहों का पता लगाने के लिए रॉकेट भेजने की क्षमता है और हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में प्रवेश कर चुके हैं। हम इसका अर्थ यह समझते हैं कि हम मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन यह हमारा भ्रम है। जब प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष होता है, तो अंततः प्रकृति जीत जाती है। सुनामी में मनुष्यों को तिनके की तरह बहा ले जाने की क्षमता होती है।
पर्यावरण संरक्षण की चेतना प्राचीन काल से ही प्रचलित है। प्रकृति और मनुष्य सदैव एक दूसरे के पूरक रहे हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना निरर्थक है। हमारे प्राचीन ग्रंथ हमें पर्यावरण संरक्षण के बारे में बहुत सी बातें बताते हैं। उनमें प्रकृति संतुलन, पर्यावरण संतुलन और जलवायु संतुलन के बारे में स्पष्ट चर्चा की गई है। दरअसल हमारे पूर्वज प्रकृति पूजक थे और वे प्रकृति के महत्व को भली-भांति समझते थे। जिन धार्मिक ग्रंथों को हम केवल धर्म या दर्शन मानते हैं, उन ग्रंथों में भी प्रकृति संरक्षण और प्रकृति के महत्व का वर्णन मिलता है। जिस प्रकार भगवद्गीता में पाप और पुण्य की व्याख्या की गई है, अन्याय के विरुद्ध न्याय के माध्यम से शस्त्र उठाने को उचित ठहराया गया है, वहीं उस ग्रंथ में प्रकृति के महत्व को भी स्थापित किया गया है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में दैवीय शक्ति होने की बात कही गई है। अर्थात जब प्रकृति के प्रत्येक तत्व में ईश्वर है, तो वे सभी तत्व पूजनीय हैं और उनकी सेवा व देखभाल करना मनुष्य का कर्तव्य है। भगवद्गीता हिंदू समुदाय के लिए एक पवित्र ग्रंथ माना जाता है। भगवद शब्द भगवान से आया है, जिसका अर्थ है सर्वोच्च शक्ति वाला ईश्वर और गीता शब्द का अर्थ है गीत। इस प्रकार भगवद गीता शीर्षक ईश्वर के गीत को संदर्भित करता है। गीता की रचना शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी। वास्तव में गीता महान महाकाव्य महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है, जिसे वेद व्यास ने लिखा था। गीता कुरुक्षेत्र युद्ध की शुरुआत के दौरान अर्जुन को उनके सारथी भगवान कृष्ण द्वारा दी गई सलाह है। भगवद गीता के अनुसार प्रकृति तीन गुणों से बनी है जो प्रवृत्तियाँ या संचालन के तरीके हैं, जिन्हें रजस (निर्माण), सत्व (संरक्षण), और तम (विनाश) के रूप में जाना जाता है। सत्व में अच्छाई, प्रकाश और सद्भाव के गुण शामिल हैं। गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति से लेकर बादलों, बारिश, भोजन और मानव व्यवहार तक के चक्र को समझाया गया है। अर्थात जीवित प्राणी भोजन पर जीवित रहते हैं, जो बादलों (वर्षा) से उत्पन्न होता है और आगे बादल यज्ञ से उत्पन्न होते हैं, जो भगवान को अर्पित किए गए प्रसाद हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में प्रकृति संरक्षण को महत्व दिया गया है। गीता में प्रकृति को माता के रूप में दर्शाया गया है, जो सभी जीवों को पोषण देती है और उनकी रक्षा करती है। गीता में पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कही गई है, और श्रीकृष्ण ने स्वयं पर्यावरण संरक्षण का अनुभव भी किया था। श्रीमद्भगवद् गीता में पर्यावरण संतुलन का वैज्ञानिक तथ्य उस समय स्पष्ट होता है जब श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और पर्यावरण के विभिन्न घटकों में समन्वय और एकीकरण की बात कहते हैं। मथुरा के राजमहलों से निर्वासित श्रीकृष्ण बाल रूप में ही ‘कालिया दह’ के विषाक्त जल को प्रदूषण रहित करते हैं। दावाग्नि पान कर वनों का संरक्षण करते हैं क्योंकि वन और वनस्पतियां जैव विविधता का अक्षय भंडार होती हैं। गो पालन में वह पशु-संरक्षण और गोवर्धन धारण करके पृथ्वी का संरक्षण भी करते हैं। श्रीकृष्ण प्रकृति को माता कहकर इस तथ्य को समक्ष रखते हैं कि प्रकृति सब जीवधारियों को गर्भ में धारण कर उनका पोषण करती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में स्थित सूर्य और चंद्रमा इन्हें पोषित करते हैं। चंद्रमा की शीतल किरणें वनस्पतियों और औषधियों में रस का संचार करती हैं। श्रीकृष्ण ने सूर्य और नक्षत्रों के अधिपति चंद्रमा को स्वयं में पर्यवसित किया है। वृक्षों में अश्वत्थ कहकर वे उसकी आक्सीजन क्षमता का परिचय देते हैं। जल पर तैरती नाव, पोतवाहकों की वायु-चक्र से प्रभावित होती गतिशीलता पर भी उनकी गहरी दृष्टि गयी है। जलचर जीवों और आकाशगामी पंछियों के साथ ही श्रीकृष्ण पारिस्थितिकी और जीवमंडल एवं उसके वैज्ञानिक प्रभावों की चर्चा करते हैं।
गीता के अध्याय 3 के एक श्लोक में प्रकृति के प्रति बादल, वर्षा, भोजन और मानव व्यवहार के चक्र को समझाया गया है। -
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यद् अन्नसम्भवः
यज्ञद् भवति पर्जन्यों यज्ञः कर्मसमुद्भवः (113-1411)
- इसका अर्थ है कि जीव अन्न पर जीवित रहते हैं, जो बादल (वर्षा) से उत्पन्न होता है और बादल यज्ञ से उत्पन्न होता है, जो भगवान को अर्पित किया जाता है। संचित यज्ञ को कर्म के साधन के रूप में उपयोग किया जाएगा, अर्थात आज की आहुति कल में प्राप्त होगी।
दूसरे शब्दों कहा जाए तो अन्नाद् भवन्ति भूतानि अर्थात सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। पर्जन्यात् अन्नसम्भवः अर्थात अन्न वर्षा से होता है। यज्ञाद् भवति पर्जन्यो अर्थात वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञः कर्मसमुद्भवः अर्थात् यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है। यह श्लोक दर्शाता है कि सृष्टि का चक्र कर्म, यज्ञ, वर्षा और अन्न के माध्यम से चलता है।
एक अन्य श्लोक प्रकृति को प्रत्येक कार्य का प्रमुख नियंत्रक बताता है। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति को नुकसान पहुँचाने से उसकी नियमित गतिविधियाँ प्रभावित होंगी, जिसका असर मानव जीवन पर पड़ सकता है। यह कविता उन लोगों को चेतावनी भी देती है, जो प्रकृति की शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं।-
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। (3-27)
भावार्थ है कि दुनिया में सभी कर्म प्रकृति के गुण के द्वारा ही किए जाते हैं। प्रकृति के गुणों से ही सभी तरह के कर्म किए जाते हैं। उदाहरण के लिए शरीर, वृक्ष आदि पैदा होते और बढ़ते-घटते हैं, नदियाँ प्रवाहित होती हैं, भौतिक वस्तुओं में परिवर्तन होता रहता है। यह सब प्रकृति द्वारा नियंत्रित एवं निर्धारित होता है जबकि ‘‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’’ अर्थात अहंकार से मोहित हो चुके इंसान को लगता है कि वह स्वतः प्रेरित हो कर कर्म कर कर रहा है। वह भूल जाता है कि प्रकृति ही मनुष्य की भी नियंता है और वह अपने नियंता को ही क्षति पहुंचाने लगता है।

गीता (अध्याय 7) में प्रकृति के सजीव और निर्जीव तत्वों के संबंध में कुछ सुंदर श्लोक हैं। -
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (7/4)
अर्थात गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है। 
इस प्रकार प्रकृति के सभी तत्व ईश्वर का अंश हैं। उन्हें नुकसान पहुंचाना ईश्वर का अनादर करने के समान है।   

सातवें अध्याय के ही पांचवें श्लोक में कहा गया है-
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत।।
स्वामी रामसुख दास ने इस श्लोक का बहुत सटीक अर्थ बताया है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश - ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस ‘‘अपरा’’ प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा बनी हुुई मेरी श्पराश् प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है। अर्थात यदि ईश्वर को स्वीकार करते हैं, उनका सम्मान करते हैं तो प्रकृति का भी सम्मान करना चाहिए।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 
सातवें अध्याय के छठे श्लोक में श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि परा और अपरा इन दोनों प्रकृतियोंके संयोग से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ। भावर्थ देखें तो- प्रकृति ईश्वर का स्वरूप है। यदि प्रकृति को क्षति पहुचाएंगे तो प्रकृति यानी ईश्वर रुष्ट हो जाएगा और प्रलय उत्पन्न होगा। वही, यदि प्रकृति संरक्षित रहे तो ईश्वर प्रसन्न रहेंगे और श्री और समृद्धि प्राप्त होगी।
सारांशतः देखा जाए तो ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ हमें सही ढंग से जीने का रास्ता दिखाती है और बिना लोभ-लालच के कर्म करने का निर्देश देती है। यदि मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा तो हम प्रकृति का क्रूरता से दोहन नहीं करेंगे और प्रकृति के संरक्षण के बारे में सोचेंगे। बस, यही कहा ह। बस, यही कहा है  श्रीकृष्ण ने गीता में। अब यह हम पर निर्भर है कि हम इसके एक-एक श्लोकों का गहराई से मर्म समझें अथवा उन श्लोकों को रट कर अपनी धार्मिक क्रिया की इति मान लें। वस्तुतः हमें प्रकृति के महत्व को आत्मसात करना चाहिए जिसे हमारे पूर्वजों ने दार्शनिक और धार्मिक शिक्षाओं के माध्यम से हमें समझाया है। हमें यह ध्यान देना चाहिए और सीखना चाहिए कि जिसको हम जीवन का मूल ज्ञान मानते हैं उस ‘‘श्रीमद्भगवद् गीता’’ की शिक्षाएं हमें प्रकृति के संरक्षण का मार्ग दिखाती हैं।
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