आज 29.04.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
प्रेम की अनुपम छांदासिक अभिव्यक्ति है - “प्रेमग्रंथ की तुम चौपाई”
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - प्रेम ग्रंथ की तुम चौपाई
कवि - डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया
प्रकाशक - पाथेय प्रकाशन, 112 सराफा वार्ड, जबलपुर, म.प्र.
मूल्य - 450/-
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हिन्दी काव्य जगत में छांदा4सिक सृजन के लिए डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया एक op स्थापित नाम हैं। दोहा, चौपाई, सोरठा, कुडलियां आदि विविध प्रकार के छंदो पर उनकी अच्छी पकड़ है। आज जब कवि समुदाय का एक बड़ा प्रतिशत मुक्तछंद की ओर आकृष्ट हो चला है, विशेषरूप से इसलिए कि छंद अधिक श्रम की मांग करता है तथा साधना की मांग करता है, तो काव्य का छंदमुक्त स्वरूप एक सरल मार्ग की भांति प्रतीत होने लगता है। यद्यपि एक श्रेष्ठ छंदमुक्त रचना भी श्रम और साधना से ही सृजित होती है किन्तु उसे आसान समझने के भ्रम में पड़ कर छंदमुक्त को अपनाने का लगाव जाग उठता है। इससे छंदबद्ध रचनाओं के सृजनकर्ता अपेक्षाकृत कम हो चले हैं। फिर भी कुछ रचनाकार ऐसे हैं जो छंदबद्ध रचना की मनोहारिता एवं लालित्य को भली-भांति समझते हैं और इसे सतत अपनाए हुए हैं। इसी क्रम में डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
पेशे से चिकित्सक रहे डाॅ. सीरोठिया को अपनी मातृ भाषा हिन्दी और हिन्दी के साहित्य से सदा अगाध प्रेम रहा। इस प्रेम को प्रमाणित करते हुए उन्होंने एमबीबीएस होते हुए भी हिन्दी में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। वस्तुतः वे उपाधि के प्रति आसक्त नहीं थे, वरन वे क्रमबद्ध तरीके से हिन्दी साहित्य के इतिहास, कालक्रम एवं विकास को जानना चाहते थे। यह सब जानने का सटीक मार्ग था हिन्दी साहित्य का विधिवत अध्ययन करना। यद्यपि इससे पूर्व वे साहित्य सृजन के क्षेत्र में कदम रख चुके थे। गोष्ठियों में उनकी छांदासिक रचनाएं ख्याति प्राप्त करने लगी थीं।
जो छंदो को साध लेता है उसकी कहन में स्वाभाविकता स्वतः आ जाती है। छंदों को साधना भी एक प्रकार की साधना ही है जो निरंतर अभ्यास एवं सतत समर्पण से आती है। डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया के इस ताज़ा संग्रह ‘‘प्रेमग्रंथ की तुम चौपाई’’ में काव्य पे्रमियों को चतुष्पदियों का एक सुंदर संसार मिलेगा। वस्तुतः चतुष्पदी चौपाई की भांति चार चरणों वाला छंद होता है। इसके प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में पंक्तियों के तुक मिलते हैं। तीसरे चरण का तुक नहीं मिलता। प्रत्येक चतुष्पदी भाषा और विचार की दृष्टि से अपने आप में पूर्ण होती है और कोई चतुष्पदी किसी दूसरी से संबंधित नहीं होती। एक चतुष्पदी अपने-आप में पूरा संवाद एवं समूचा मनोभाव समेटे हुए होती है। इस संग्रह की प्रत्येक चतुष्पदी अभिव्यक्ति की मुखर संवाद रचती है। जैसे प्रथम चतुष्पदी में ही देखें-
तुम्हीं शाम का पूजन-अर्चन।
तुम्हीं भोर का हो नित वंदन।
महक रहा है जो संासों में,
तुम सुधियों का वह शुभचंदन।।
संस्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये ‘छन्द’ शब्द का प्रयोग किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गीत में वर्णों की संख्या से सम्बंधित नियमों को छ्न्द कहते हैं जिनसे काव्य में लय और मधुरता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियां, लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों में, मात्रा को इंगित करती है और जब किसी काव्य रचना में यह एक व्यवस्थित रूप से उपस्थित होती है तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है। लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है, जैसे चौपाई, दोहा, रोला, सोरठा, मत्तगयंद इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णों की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है। शाब्दिकता का यह माप ही अंग्रेजी के ‘‘मीटर’’ तथा उर्दू-फारसी के ‘‘रुकन’’ (अराकान) के समान माना जा सकता है। प्रत्येक छंद के अपने स्वतंत्र नियम होते हैं। इसी के आधार पर छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्द शास्त्र कहते हैं। ‘‘छन्द शास्त्र’’ सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ आचार्य पिंगल द्वारा रचित ‘‘पिंगलशास्त्र’’ है। छंदों के बारे में विद्वानों ने उचित ही कहा है कि यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्द’ है। किन्तु छंद की मधुरता उसकी नियमबद्धता मात्र से ही नहीं होती है, वरन उसमें अभिव्यक्त किए गए भावों की भी अहम भूमिका होती है। भाव नौ रसों में से किसी भी रस से उपजे हुए हो सकते हैं। छंद की विशेषता इसमें निहित होती है कि उसमें अभिव्यक्त भावों को किस शास्त्रीयता से संवेदनात्मकता प्रदान की गई है। जैसे प्रस्तुत संग्रह में कवि ने श्रृंगार रस को केन्द्र में रख कर अपनी सभी चतुष्पदियां रची हैं।
छंद को साधना धैर्य का काम है, ठीक वैसे ही जैसे प्रेम की साधना करना भी धैर्य की मांग करता है। जब प्रेम छंद में निबद्ध हों तो चुनौतियां बढ़ जाती हैं। ऐसी स्थिति में प्रेम निज का न हो कर सर्वजनीन हो जाता है और तब प्रेम के स्वरूप को परिष्कार के सांचे में ढाल कर व्यक्त करना उचित होता है। डाॅ सीरोठिया ने श्रृंगार रस की परिष्कृत छटा को अपनी चतुष्पदियों में प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्रेम निवेदन करते हुए जो उपमाएं दी हैं वे आसक्ति के भाव को शालीनतामय उच्चता के शिखर तक ले जाती हैं। यथा-
वाल्मीकि का छंद तुम्हीं हो।
शब्द पुष्प मकरंद तुम्हीं हो।
मन मधुबन की प्रणय-वीथिका,
पग-पग का आनंद तुम्हीं हो।।
प्रेम है भी वह संवेग जो मनुष्यता को एक नूतन रूप प्रदान करता है। जो प्रेम के सच्चे स्वरूप को समझ जाता है वह मनुष्यता की कई सीढ़ियां एक साथ चढ़ जाता है। सच्चा प्रेम भक्ति की ऊंचाइयों तक ले जाने में सक्षम होता है। जैसे मीरा और रसखान का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम। अमीर खुसरो ने बड़ी सुंदरता से प्रेम की सुफ़िशना व्याख्या की है-
खुसरो और पी एक हैं, पर देखन में दोय।
मन को मन से तोलिये, दो मन कबहुं न होय।।
अर्थात् यही प्रेम सूफ़ियाना हो जाए तो परमात्मा में ही आत्मा के सारे प्रश्न-उत्तर निहित हो जाते हैं। अर्थात् यदि आत्मा प्रश्न है तो उसका उत्तर परमात्मा है। दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक प्रिय के लिए अपनी प्रियतमा भी सर्वस्व होती है। वह प्रिय के लिए उस दर्पण की भांति होती है जिसमें वह अपने जीवन के सभी प्रतिबिम्ब देखना चाहता है। कुछ यही भाव इस चतुष्पदी में देखा जा सकता है-
तुम्हीं प्रश्न हो, तुम ही हल हो।
तुम्हीं आज हो, तुम ही कल हो।
तुम्हीं मौन हो, तुम ही स्वर हो,
तुम्हीं खुशी हो, तुम दृगजल हो।।
अनेक स्थानों पर गीतकार ने ऐसी उपमाएं पिरोई हैं जो सहसा चौंकाती हैं और मंत्रमुग्ध भी कर देती हैं। ‘‘स्वाती की बूंद’’ अथवा ‘‘शब्द-चेतना का स्वरूप’’ जैसी उपमाएं हिन्दी काव्य जगत में परंपरागत उपमाएं कही जा सकती हैं किन्तु ‘‘आबे-जम-जम’’ की उपमासर्जक की गहनता को रेखांकित करती है। यह चतुष्पदी -
मेरे जीवन का संबल हो।
आबे-जम-जम गंगाजल हो।
तुम आशा विश्वास दुआ में,
तुम ख़ुशियों का अनुपम पल हो।।
कवि ने प्रेम को स्वर देने के लिए प्रकृति के तत्वों का भी सहारा लिया है। प्रेम की मादकता के लिए ‘महुआ’ तथा सौंदर्य के लिए ‘गुलाब’ की उपमा प्रकृति और प्रेम की परस्पर निकटता का बोध कराती है। वहीं ऋतुओं का बोध भी काव्य सौंदर्य को बढ़ाने में सक्षम है-
शरद ऋतु ज्यों बर्फ नहाई।
तुम बसंत की हो पुरवाई।
कभी जेठ की तेज तपिश-सी,
तुम साबव की बदली छाई।।
इस संग्रह में संग्रहीत चतुष्पदियों की यह भी सबसे बड़ी विशेषता है कि ये सभी श्रृंगार रस की हैं। एक ही रस में इतनी सारी चतुष्पदियां लिखना और उनमें विविधता बनाए रखना प्रशंसनीय है। प्रेम के प्रति समर्पण की कोई पराकाष्ठा नहीं होती है। इसी बात को कवि ने ‘निर्विरोध’ शब्द का प्रयोग करते हुए जिस सुंदरता से कहा है वह उद्धृत करने योग्य है-
बिना तुम्हारे जीवन कारा।
तुमसे मन का रिश्ता प्यारा।
मेरे मन की इस दुनिया में,
निर्विरोध है राज तुम्हारा।।
डाॅ. सीरोठिया की भाषा में प्रवाह है, एक लय है। शब्दों को ले कर कवि का कोई भाषाई आग्रह नहीं है। हिन्दी, उर्दू और फ़ारसी शब्दों का यथा-योग्य प्रयोग किया गया है, जो स्वाभाविकता से आए हैं, कहीं बाधा नहीं बनते अपितु सरला एवं सहजता को प्रतिपादित करते हैं। चतुष्पदियों के माध्यम से कवि ने प्रेम जैसे विशद विषय को कम से कम शब्दों में प्रवाहपूर्ण सारगर्भित अभिव्यक्ति दी है। इन चतुष्पदियों में शिल्प सौंदर्य है। कवि को संज्ञान है कि उसे अपनी भावनाओं को किन शब्दों में और किन बिम्बों के माध्यम से प्रकट करना है और यही बिम्ब विधान कवि के सृजन को विशिष्ट बनाता है। काव्य प्रेमियों के लिए यह एक उत्तम काव्य संग्रह है। साथ ही छंद विधान में रुचि रखने वालों के लिए यह अनुपम कृति है। उनका यह काव्य संग्रह पाठकों को साहित्य का सुरुचिपूर्ण आस्वादन कराएगा। यह भी विश्वास है कि उनकी यह कृति हिन्दी काव्य जगत में एक विशेष स्थान दिलाएगी।
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