चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
पद्मश्री स्व. पं. रामसहाय पाण्डे: राई नृत्य ही जिनका जीवन रहा
- डाॅ. (सुश्री) राई नृत्य बुंदेलखंड का एक
लोकप्रिय नृत्य है यह नृत्य उत्सवों जैसे विवाह, पुत्रजन्म आदि के अवसर पर किया जाता है। जब राई नृत्य का नाम आता है तो पंडित रामसहाय पाण्डे का नाम आना स्वाभाविक है। जो नृत्य अपने ही क्षेत्र में उपेक्षित था, उसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ख्याति एवं प्रतिष्ठा दिलाई पं. रामसहाय पाण्डे ने। राई का रास्ता आसान नहीं था। इस रास्ते पर चलते हुए पं.रामसहाय पाण्डे को अनेक कष्ट सहने पड़े। किन्तु न तो वे अपने पथ से डिगे और न थके। ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व का निधन लोक कला जगत की अपूर्णीय क्षति है।
पं.राम सहाय पाण्डे जी से मेरी पहली बार भेट उस समय हुई थी जब मैं राई नृत्य करने वाली बेड़ियों पर अपना पहला उपन्यास ‘‘की औरतें’’ लिख रही थी। उस दौरान कई बेड़नियों से मेरी अनेक बार मुलाकात हुई, उनकी मददगार चम्पा बहन से भी कई बार भेंट हुई लेकिन जब राई नृत्यांगनाओं एवं नृत्य के बारे में लिखना हो तो पं. राम सहाय पाण्डे से चर्चा किए बिना मेरी तमाम छानबीन अधूरी रहती। वे यह जान कर बहुत खुश हुए थे कि मैं बेड़िया समाज की स्त्रियों के बारे में उपन्यास लिख रही हूं। इसके बाद समय-समय पर विभिन्न कार्यक्रमों में उनसे भेंट होती रही। फिर उनसे जुड़े दो सुखद अवसर और आए। पहला अवसर तब आया जब उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। इसी उपलक्ष्य में उनका सागर नगर की ओर से नागरिक अभिनंदन किया जाना था। नगर विधायक भाई शैलेन्द्र जैन उस अभिनंनद समारोह का आयोजन कर रहे थे। मेरे पास प्रस्ताव आया कि मैं उनका अभिनन्दन पत्र लिखूं। प्रायः मैं इस प्रकार से लेखन से जी चुराती हूं किन्तु पद्मश्री राम सहाय पाण्डे जी का नागरिक अभिनंदन पत्र लिखना एक गौरव का विषय था अतः मैं सहर्ष स्वीकार कर लिया। श्यामलम अध्यक्ष उमाकांत मिश्र जी ने भी मेरे प्रति यह विश्वास जताया कि मैं लिख सकती हूं। इस तरह मैंने उनका अभिनंदनपत्र लिखा और फिर पद्माकर आॅडीटोरियम में हुए भव्य अभिनंदन समारोह में उसका वाचन भी किया।
दूसरा सुखद अवसर वह था जब पं. राम सहाय पाण्डे जी के पुत्र संतोष पांडे जी ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके पिताश्री की एक संक्षिप्त जीवनी लिखूं। उन्होंने मुझे आवश्यक जानकारी एवं छायाचित्र भी उपलब्ध कराए। मेरे लिखने के बाद उन्होंने मैटर को कम्पोज कराया और प्रूफ रीडिंग के लिए मेरे पास ईमेल किया। मैंने प्रूफ चेक किया। यद्यपि बाद में संतोष पाण्डे उसे प्रकाशित करा पाए अथवा नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है किन्तु उस तारतम्य में मुझे उनके जीवन के कुछ और अनछुए पहलुओं को जानने का अवसर मिला। उनके सामाजिक संघर्ष को मैंने जाना। उनकी उसी जीवनी का एक अंश यहां साझा कर रही हूं -
आरम्भिक जीवन
मृदंग वादक संगीत नृत्य पारंगत गुरू पं. रामसहाय पाण्डे का जन्म 11 अप्रैल 1933 को मध्यप्रदेश के सागर जिले के एक छोटे से गांव ग्राम मड़धार पठा में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम लालजू पाण्डे व माता का नाम करैयाबाली था। इनके पिता गांव के मालगुजार के यहां काम करते थे। पं. रामसहाय पाण्डे के चार भाई एवं चार बहनें थीं। रामसहाय पांडे सबसे छोटे थे। वह अंग्रेज शासन का जमाना था। आर्थिक कठिनाइयों से परिवार को गुजरना पड़ रहा था। फिर भी पिता लालजू पाण्डे ने अपने बच्चों का बड़े जतन से लालन-पालन किया। जैसे-तैसे व्यवस्था कर के अपनी चारो बेटियों का विवाह भी कर दिया। चारो बेटियां विभिन्न गांवों में ब्याही गईं। इनकी बड़ी बेटी कनेरा देव में गांव में,ब्याही दूसरी बेटी ग्राम जमुनिया में,तीसरी बेटी ग्राम पड़रिया में एवं सबसे छोटी बेटी गंज गांव में ब्याही गई। चार बेटियों के विवाह में इतना अधिक व्यय हो चुका था कि वे अपने बड़े बेटे का विवाह नहीं कर पा रहे थे। वे कोई प्रयास कर पाते इसके पहले ही उनके परिवार को दुर्भाग्य का अंधेरा छा गया।
जब बालक रामसहाय पाण्डे 6 वर्ष के थे तो इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। ग्राम मड़धार पठा में इनके परिवार को कोई सहारा देने वाला नहीं था। तब इनकी मां अपने चारों बेटों को लेकर अपनी बड़ी बेटी बेनीबाई के पास कनेरा देव आ गई। ओर यही पर आकर बस गई यहां पर आकर इनके चारों बेटे कनई माधव, हरीराम, रामसहाय कनेरा देव में बस गये इन्हें रहने के लिए इनकी बडी बेटी ने अपना बारा जिसमें एक मकान बना था वह इन्हें रहने को दे दिया धीरे धीरे समय बीतता गया कनई मजदूरी करने लगे माधव गाय भैसे चराने लगे ओर हरिराम का दाखला स्कूल में करा दिया वह पड़ने लगे कुछ समय बाद इनके बडे भाई कनई का बीमारी के चलते निधन हो गया तब हरीराम, कनेरा देव के ही निवासी कन्हैयालाल घोषी के यहां कारखाने में मुनिमी का काम करने लगे। मां ने अपने सबसे छोटे बेटे रामसहाय का दाखला स्कूल में करा दिया इस आशा से भर्ती करा दिया कि यदि वह चार कक्षाएं पढ़ लेगा तो कम से कम चपरासी की नौकरी तो मिल ही जाएगी और परिवार को एक अच्छा आर्थिक सहारा मिल जाएगा। किन्तु होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। बालक रामसहाय के बड़े भाई कन्हैया का स्वर्गवास हो गया था। और मंझले भाई सन्यासी हो गए थे। अब हरीराम और रामसहाय ही मां के सहारे के रूप में बचे थे।
नियति की कठोरता इतने पर भी थमी नहीं। जब रामसहाय 11 वर्ष के थे तब इनकी मां का भी स्वर्गवास हो गया। वे उस समय दूसरी कक्षा में पढ़ रहे थे। जब बालक रामसहाय पाण्डे 12 वर्ष के हुए तो सागर के पास सानोधा के मेले में गांववालों के साथ मेला देखने चले गए। सानोधा के मेले में बालक रामसहाय ने पहली बार राई नृत्य देखा। वे राई नृत्य के सम्मोहन से बच नहीं सके। उन्होंने उसी समय प्रण कर लिया कि अब मैं भी राई करुंगा। राई नृत्य में पुरुष मात्र नत्र्तक के रूप में शामिल नहीं होते हैं वरन उन्हें वादक के रूप में रहते हुए सहनत्र्तक बनने का अवसर मिलता है। अतः सानोधा से लौटने के बाद स्कूल के समय स्कूल न जा कर एकांत में मृदंग बजाने का अभिनय करते हुए मृदंग बजाने का काल्पनिक अभ्यास करने लगे। जब रामसहाय कई दिनों तक स्कूल नहीं गए तो उनके बड़े भाई के पास स्कूल से सूचना भेजी गई कि लंबी अनुपस्थिति के कारण स्कूल से नाम काटा जा रहा है। यह सूचना पा कर बड़े भाई को बहुत क्रोध आया और उन्होंने रामसहाय की जम कर पिटाई कर दी। स्कूल छूट गया तो इनके भाई ने इन्हें गाय चराने के लिए जंगल भेजने लगे। मगर रामसहाय को तो सोते-जागते मृदंगवादन ही दिखाई देता था। आखिरकार एक मृदंग का जुगाड़ हो ही गया।
बड़े भाई जो मात्र हरीराम पाण्डे ने हर प्रकार से प्रयास किया कि रामसहाय मृदंग वादन और राई नृत्य के अपने जुनून को त्याग दे लेकिन रामसहाय तो प्रण कर के बैठे थे। वे मृदंग बजाने का अभ्यास करते रहे। 16-17 वर्ष की आयु तक वे मृदंगवादन में पारंगत हो गए। मजे की बात यह कि जो हाथ मृदंग पर थापें देते थे वे हाथ अखाड़े में भी दांवपेंच का अभ्यास करते थे। पहलवानी ने युवा रामसहाय की शारीरिक क्षमता में श्रीवृद्धि कर दी। वे बिना थके नृत्य करते हुए मृदंगवादन करने में सक्षम हो गए। एक बार उनके गांव की एक बारात रायसेन जिले के ग्राम पिपरिया बड़गुवां गई। बारात में रामसहाय भी शामिल थे। वहां पर राई का मुकाबला रखा गया और उस मुकाबले में रामसहाय की जीत हुई। इस जीत ने जहां रामसहाय का मनोबल बढ़ा दिया वहीं उनकी ख्याति फैलने लगी। वे गांव-गांव जा कर राई करने लगे। लोग कौतूहल से उनका वादन एवे नत्र्तन देखते। किन्तु उनकी इस ख्याति ने उनके रास्ते में बाधाएं भी खड़ी कर दीं। उन्हें सामाजिक बहिष्कार के साथ ही अंग्रेज शासन का भी विरोध झेलना पड़ा। अंग्रेज शासन ने राई को प्रतिबंधित कर दिया था। आजादी के बाद भी सरकार राई नृत्य के पक्ष में नहीं थी। लेकिन राम सहाय पांडे जी पीछे नहीं हटे और नर्तकियों का साथ देते रहे। कई बार पुलिस लाठियां भी खाईं जिससे एक पैर भी पुलिस की मार में टूट गया जो आज भी टेढ़ा है, लेकिन यह अवरोध भी उन्हें नहीं रोक सका। वे राई नर्तकियों के सम्मान के लिए उनके साथ डट कर खड़े रहे।
सामाजिक बहिष्कार और विवाह की चुनौती
समाज में कई लोगों को इस बात पर आपत्ति थी कि एक ब्राह्मण परिवार का लड़का राई नत्र्तकियों अर्थात् बेड़िनियों के साथ नृत्य करता है। यह उन्हें अपमानजनक लगता। ऐसे लोगों ने रामसहाय के बड़े भाई पर दबाव डाला कि वे अपने छोटे भाई को नृत्य करने से रोकें। बड़े भाई जो मात्र हरीराम पाण्डे थे।ने रामसहाय को हर प्रकार से समझाया, समाज का भी वास्ता दिया किन्तु कोई असर नहीं हुआ। कुछ समय बाद बड़े भाई का विवाह हो गया। रामसहाय की 20-21 साल की आयु होते-होते बड़े भाई को उनके विवाह की चिंता हुई। उस समय के गांवों में जब बालविवाह का चलन था, उस आधार पर रामसहाय की आयु विवाह के लिए अधिक हो चली थी। रामसहाय के बड़े भाई ने इनके विवाह के लिए बहुत प्रयास किए, मगर कोई भी ब्राह्मण परिवार रामसहाय के साथ अपनी बेटी का ब्याह करने को तैयार नहीं था। बहुत प्रयास करने पर ग्राम घाना के पं. केशवदास एक शर्त पर रामसहाय को दामाद बनाने को राजी हो गए कि विवाह के बाद रामसहाय राई नृत्य नहीं करेंगे। रामसहाय को यह स्वीकार नहीं था किन्तु बड़े भाई के दबाव के सामने उन्हें चुप रहना पड़ा। बड़े भाई ने रामसहाय की ओर से भी पं. केशवदास को आश्वासन दे दिया कि वे विवाह के बाद राई नहीं करेंगे। परिणामतः धूमधाम से विवाह हो गया।
कुछ दिन सब ठीक रहा किन्तु रामसहाय का राई से मोह न छूटा था और न छूट सकता था। वे एक बार फिर मृदंग ले कर राई नृत्य करने जाने लगे। बड़े भाई ने रामसहाय को समझाने का प्रयास किया कि यदि उन्होंने राई से नाता नहीं तोड़ा तो पूरें परिवार को सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ेगा। रामसहाय बहिष्कार से डरने वाले नहीं थे। किन्तु बड़े भाई ने सामाजिक दबाव के आगे घुटने टेक दिए और रामसहाय को पत्नी सहित घर से निकाल दिया। विडंबना यह कि घर से निकालते समय (हरीराम ने जो अपनी मड़धार पठा की पुस्तैनी जमीन जायदाद पूरी बेच कर कुछ जमीन खरीद ली थी ओर उन्ही पैसो से कन्हैया लाल घोषी का बीडी का कारखाना खरीद कर स्वयं चलाने लगे ओर उसी की कमाई से अपने नाम से जमीन जाजाद खरीदते गये मगर हरीराम ने रामसहाय को राई न छोडने पर समस्त जायदाद से बचिंत कर दिया।) समाज के डर से रामसहाय को खाना-कपड़ा कुछ भी नहीं दिया। अब रामसहाय के समक्ष कठिनाइयों का अंबार था। अेकेले होते तो कहीं भी डेरा डाल देते किन्तु साथ में पत्नी थी जिसका उत्तरदायित्व उन्हीं पर था। दशा यह कि न खाना, न कपड़ा, न ओढ़ना, न बिछौना। खुले आकाश के नीचे सपत्नीक जीवन नहीं व्यतीत किया जा सकता था। ऐसी संकट की घड़ी में एक घोषी परिवार ने सहारा दिया।
- यह था जीवनी का एक संशोधित अंश। और अंत में वे पंक्तियां जो सागर के समस्त नागरिकों की ओर से उनके अभिनंदनपत्र में मैंने लिखी थी-
नृत्य ‘राई’ को जीवन अपना जिसने किया समर्पित
यह अभिनंदन-पत्र, नागरिक करते उनको अर्पित 🙏
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