Wednesday, July 31, 2019

"पत्रिका" समाचारपत्र में कथासम्राट प्रेमचंद की जयंती पर डॉ. शरद सिंह के विचार

Dr (Miss) Sharad Singh
आज "पत्रिका" समाचारपत्र ने कथासम्राट प्रेमचंद की जयंती पर मेरे (डॉ. शरद सिंह) और मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह के विचार प्रकाशित किए हैं... 
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हार्दिक धन्यवाद पत्रिका !!!
Dr (Miss) Sharad Singh on Premchand Jatanti , Patrika, 31.07.2019

प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) पर विशेष : प्रेमचंद की कहानियों में मौजूद है बुंदेलखंड - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh


(प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) पर विशेष : #नवभारत में प्रकाशित) 

31 जुलाई 1880 को जन्मे प्रेमचंद को हिन्दी साहित्य का ‘कथा सम्राट’ कहा जाता है। प्रेमचंद ने ‘‘नवाबराय’’ के नाम से उर्दू में साहित्य सृजन किया। यह नवाबराय नाम उन्हें अपने चाचा से मिला था जो उनके बचपन में उन्हें लाड़-प्यार में ‘‘नवाबराय’’ कह कर पुकारा करते थे। किन्तु अंग्रेज सरकार के कारण उन्हें अपना लेखकीय नाम ‘‘नवाबराय’’ से बदलकर ‘‘प्रेमचंद’’ करना पड़ा। हुआ यह कि उनकी ’सोज़े वतन’ (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर लीं। उर्दू अखबार “ज़माना“ के संपादक मुंशी दयानरायण निगम ने उन्हें सलाह दी कि वे सरकार के कोपभाजन बनने से बचाने के लिए ‘‘नबावराय’’ के स्थान पर ’प्रेमचंद’ लिखने लगें। इसके बाद वे ‘‘प्रेमचंद’’ के नाम से लेखनकार्य करने लगे। 
Premchand Ki Kahaniyon Me Maujud Hai Bundelkhand - Dr Sharad Singh.. Published in Navbharat

प्रेमचंद ने भारतीय समाज की विशेषताओं और अन्तर्विरोधों को एक कुशल समाजशास्त्री की भांति गहराई से समझा। इसलिए उनके साहित्य में भारतीय समाज की वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। स्त्रियों, दलितों सहित सभी शोषितों के प्रति प्रेमचंद ने अपनी लेखनी चलाई। प्रेमचंद मात्र एक कथाकार नहीं वरन् एक समाजशास्त्री भी थे। उनकी समाजशास्त्री दृष्टि सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक थी। इसीलिए वे उस सच्चाई को भी देख लेते थे जो अकादमिक समाजशास्त्री देख नहीं पाते हैं। उन्होंने जहां एक ओर कर्ज में डूबे किसान की मनोदशा को परखा वहीं समाज के दोहरेपन की शिकार स्त्रियों की दशा का विश्लेषण किया। उन्होंने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की कहानियां भी लिखीं और उनके लिए प्रेमचंद ने बुंदेलखंड के कथानकों को चुना। बुंदेलखंड पर आधारित उनकी दो कहानियां हैं- -‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारंधा’।
‘राजा हरदौल’ बुंदेलखंड की लोकप्रिय कथा है। इस बहुचर्चित कथा का बुंदेलखड के सामाजिक जीवन में भी बहुत महत्व है। यह कथा ओरछा के राजा जुझार सिंह की अपने छोटे भाई हरदौल सिंह के प्रति प्रेम और संदेह की कथा है जिसने ओरछा के इतिहास को प्रभावित किया। जुझार सिंह मुगल शासक शाहजहां के समकालीन थे। वे साहसी थे, वीर थे किन्तु उनकी संदेही प्रवृत्ति उनके इन गुणों को लांछित कर गई। इस वास्तविक घटना का सारांश यह है कि जब जुझार सिंह अपने दक्षिण भारत के अभियान पर गए तब उनका छोटा भाई हरदौल अपनी भाभी रानी कुलीना के साथ राज्य सम्हाल रहा था। दोनों का रिश्ता माता-पुत्र जैसा था। किन्तु कुछ ईर्ष्यालुओं ने जुझार सिंह के वापस आते ही रानी और हरदौल के मध्य अनैतिक संबंधों की चर्चा कर के जुझार सिंह को भ्रमित कर दिया। संदेही जुझार सिंह अपने भाई और अपनी पत्नी की पवित्रता को नहीं देख सका और उसने अपनी पत्नी रानी कुलीना को आदेश दिया कि वह अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए हरदौर को विष खिला दे। रानी स्तब्ध रह गई। अपने पुत्र समान देवर को जहर देना उसके लिए कठिन था। तब हरदौल ने अपनी भाभी को समझाया की सम्मान से बड़ा जीवन नहीं होता है, वे विष मिला भोजन परोस दें। अंततः रानी के द्वारा विष मिले भोजन को खा कर हरदौल ने अपना बलिदान दे दिया। यह भी कथा है कि जुझार सिंह ने रानी द्वारा भोजन में विष न दे पाने के कारण रानी से ही विष मिला पान का बीड़ा बनवा कर हरदौल को खिला दिया था जिससे हरदौल की मृत्यु हो गई थी। ओरछा में लाला हरदौल की समाधि आज भी मौजूद है और यह परम्परा है कि बुंदेलखंड में विवाह का पहला कार्ड लाला हरदौल का नाम लिख कर उनकी समाधि पर पहुंचाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से लाला हरदौल वधूपक्ष के घर वधू के मामा के रूप में आते हैं और विवाह निर्विघ्न सम्पन्न होता है।
प्रेमचंद ने पान में विष मिला कर देने की कथा को अपनी कहानी में पिरोया है। उन्होंने ‘राजा हरदौल’ कहानी इन पंक्तियों से आरम्भ की है, ‘‘बुंदेलखंड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुंदेले हैं। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है।’’ वे बुंदेलों के चरित्र की विशेषताओं को सामने रखते हुए हरदौल की ओर से यह संवाद लिखते हैं कि ‘खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे; पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पाए- यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।’ वहीं जुझार सिंह युद्ध के लिए विदा लेते समय अपनी रानी से कहता है, ‘प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की स्त्रियां ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं।’
बुंदेलखंड पर आधारित दूसरी कहानी ‘रानी सारन्धा’ बुंदेलखंड गौरव कहे जाने वाले महाराज छत्रसाल की मां रानी सारंधा की कथा है। रानी सारंधा ओरछा के राजा चम्पतराय की पत्नी थीं। चम्पतराय के संबंध में प्रेमचंद ने अपनी कहानी में लिखा है कि ‘राजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारी बुन्देला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुगल बादशाहों को कर देना बन्द कर दिया और वे अपने बाहुबल से राज्य-विस्तार करने लगे। मुसलमानों की सेनाएं बार-बार उन पर हमले करती थीं पर हार कर लौट जाती थीं।’
‘रानी सारंधा कहानी के आरम्भ में वे बुंदेलखंड उस रियासत का वर्णन करते हैं जहां रानी सारंधा का जन्म हुआ था। वे लिखते हैं-‘शताब्दियां व्यतीत हो गयीं बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ मुसलमान आए और बुंदेला राजा उठे और गिरे-कोई गांव कोई इलाका ऐसा न था जो इन दुरवस्थाओं से पीड़ित न हो मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहरायी और इस गांव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ। यह उसका सौभाग्य था।’ यह कथा रानी सारंधा के जीवन के साथ ही बुंदेलखंड के परिवेश से परिचित कराती है।
प्रेमचंद ने जहां अपनी कहानियों में दुखी, दलित, शोषित और दुर्बल चरित्रों को महत्व दिया, वहीं बुंदेलखंड के इतिहास के तथ्यों और चरित्रों को भी अपनी कहानियों में स्थान दिया। कथा सम्राट प्रेमचंद के कथा साहित्य में बुंदेलखंड के कथानकों का पाया जाना इस बात का द्योतक है कि वे बुंदेली संस्कृति, परम्पराओं एवं इसके गौरवशाली इतिहास से प्रभावित थे।
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नवभारत, 31.07.2019
🙏🌷 हार्दिक धन्यवाद नवभारत🌷🙏 #बुंदेलखंड #प्रेमचंद #कथासम्राट #कथाकार #राजा_हरदौल #रानी_सारंधा

चर्चा प्लस ... कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष ... मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 

कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष

 
मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद
- डॉ. शरद सिंह

 
    प्रेमचंद के कथापात्र आज भी हमारे गांव, शहर और कस्बों में दिखाई देते हैं। दृश्य बदला है लेकिन इन पात्रों की दशा में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के कर्ज तले दबा हुआ था तो आज का किसान भी कर्ज के बोझ से आत्महत्या करने को विवश हो उठता है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के निजी बहीखाते में बंधुआ था, तो आज का किसान कर्ज़माफ़ी के सरकारी बहीखाते में बंधुआ है। शराबी पिता-पुत्र के परिवार की बहू के रूप में इकलौती स्त्री ‘कफ़न’ कहानी में तड़प-तड़प कर मरती दिखाई देती है, तो आज झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली स्त्रियों की दशा इससे अलग नहीं है। प्रेमचंद ने समाज का एक समाजशास्त्री की भांति आकलन किया और सुधार के मार्ग सुझाए। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कथासाहित्य के माध्यम से उजागर किया ताकि लोगों का उस ओर ध्यान आकृष्ट हो और समाज सुधार के क़दम उठाए जा सकें। उन्होंने विधवा स्त्री से विवाह कर स्वयं इस दिशा में पहल की।


चर्चा प्लस ... कथाकार प्रेमचंद के जन्म-दिवस (31 जुलाई) पर विशेष ... मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद - डॉ. शरद सिंह -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
     कथाकार प्रेमचंद हिन्दी साहित्य में ‘कथासम्राट’ कहे जाते हैं। 31 जुलाई 1880 को जन्मे प्रेमचंद का मूलनाम धनपत राय श्रीवास्तव था। इन्हें नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘‘उपन्यास सम्राट’’ कहकर संबोधित किया था। जबकि के साथ कार्य करने के कारण लोग उन्हें ‘‘मुंशी प्रेमचंद’’ कहने लगे। यद्यपि स्वयं प्रेमचंद ने स्वयं को कभी ‘मुंशी प्रेमचंद’ नहीं लिखा। वस्तुतः प्रेमचंद के नाम के साथ ‘‘मुंशी’’ विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि ’हंस’ नामक पत्र प्रेमचंद एवं कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ’मुंशी’ छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - ‘‘मुंशी, प्रेमचंद’’। किन्तु कालान्तर में ‘मुंशी’ और ‘प्रेमचंद’ शब्दों के बीच का अर्द्धविराम अनदेखा कर कुछ लोगों ने ‘मुंशी’ शब्द को प्रेमचंद के नाम के साथ जोड़ दिया।
प्रेमचंद ने ‘‘नवाबराय’’ के नाम से उर्दू में साहित्य सृजन किया। यह नवाबराय नाम उन्हें अपने चाचा से मिला था जो उनके बचपन में उन्हें लाड़-प्यार में ‘‘नवाबराय’’ कह कर पुकारा करते थे। किन्तु अंग्रेज सरकार के कारण उन्हें अपना लेखकीय नाम ‘‘नवाबराय’’ से बदलकर ‘‘प्रेमचंद’’ करना पड़ा। हुआ यह कि उनकी ’सोज़े वतन’ (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर लीं। उर्दू अखबार “ज़माना“ के संपादक मुंशी दयानरायण निगम ने उन्हें सलाह दी कि वे सरकार के कोपभाजन बनने से बचाने के लिए ‘‘नबावराय’’ के स्थान पर ’प्रेमचंद’ लिखने लगें। इसके बाद वे ‘‘प्रेमचंद’’ के नाम से लेखनकार्य करने लगे।

प्रेमचंद ने सन् 1918 सं 1936 के बीच कुल ग्यारह उपन्यास हिन्दी साहित्य को दिए। ये उपन्यास हैं-‘सेवासदन’ (1918), ‘वरदान’ (1921), ‘प्रेमाश्रम’ (1921), ‘रंगभूमि’ (1925), ‘कायाकल्प’ (1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘प्रतिज्ञा’ (1929), ‘गबन’ (1931), ‘कर्मभूमि’ (1932), ‘गोदान’ (1936), ‘मंगलसूत्र’। इनमें ‘मंगलसूत्र’ उपन्यास वे पूरा नहीं कर पाए।
प्रेमचंद ने भारतीय समाज की विशेषताओं और अन्तर्विरोधों को एक कुशल समाजशास्त्री की भांति गहराई से समझा। इसलिए उनके साहित्य में भारतीय समाज की वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। स्त्रियों, दलितों सहित सभी शोषितों के प्रति प्रेमचंद ने अपनी लेखनी चलाई। प्रेमचंद मात्र एक कथाकार नहीं वरन् एक समाजशास्त्री भी थे। उनकी समाजशास्त्री दृष्टि सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक थी। इसीलिए वे उस सच्चाई को भी देख लेते थे जो अकादमिक समाजशास्त्री देख नहीं पाते हैं। उन्होंने जहां एक ओर कर्ज में डूबे किसान की मनोदशा को परखा वहीं समाज के दोहरेपन की शिकार स्त्रियों की दशा का विश्लेषण किया। प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में किसान के जीवन के विभिन्न पक्षों का विवरण मिलता है। किसान हमेशा देश का एक बड़ा और महत्वपूर्ण वर्ग रहा है क्योंकि हमारा देश कृषिप्रधान देश है। समाज के समस्त आर्थिक व्यवहार का मूल कृषि और किसान रहे। लेकिन यही किसान प्रेमचंद के पूर्व हिन्दी साहित्य में इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं पा सका था।
‘प्रेमाश्रम’ को किसान-जीवन का आख्यान कहा जा सकता है। इस उपन्यास में किसानों के जीवन को समग्रता से वर्णित किया गया है। ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ ने किसानों के जीवन का मानो रेशा-रेशा खोल कर सामने ररख दिया। प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न की जड़ तक पहुंचे और उन व्यवस्थागत कारणों की तलाश की जो किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने किसानों के शोषकों के रूप में सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों को चिन्हित किया। प्रेमचंद ने इस तथ्य को समझा कर लिखा कि वे हैं। जिसके पास कम ज़मीन है, सीमांत किसान है। ऐसा किसान परिवार की मदद से खेती करता है। ऐसे कई किसान पांच बीघे के आसपास की खेती का वह मालिक भी होते हैं और श्रम करने वाला किसान भी होते हैं। वे कर्ज ले कर खेती करने को विवश रहते हैं। गांव की महाजनी पद्धति से उन्हें कर्ज़ मिलता है और वे साहूकार के मकड़जाल में फंस कर पीढ़-दर-पीढ़ी ब्याज ही चुकाते रह जाते हैं। ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद ने कर्ज़ की इस परम्परा के भयावह पक्ष को मार्मिक ढंग से सामने रखा है। ‘‘दो बैलों की जोड़ी’’ में वह माद्दा है कि वह पाठकों की आंखों में आंसू ला देती है और किसानों की पीड़ा पर कराहने को मजबूर कर देती है। लेकिन यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी जरूरी है कि प्रेमचंद का किसान पीड़ित है, शोषित है लेकिन आत्महत्या के पलायनवादी कृत्य से बहुत दूर है। उसमें आक्रोश और विद्रोह भी है जो ‘‘धनिया’’ और ‘‘हल्कू’’ जैसे पात्रों के माध्यम से समय-समय पर मुखर होता है। यह तथ्य प्रेमचंद के भीतर मौजूद साम्यवादी विचारधारा को उभारता है। वे साम्यवाद का ढिंढोरा नहीं पीटते थे लेकिन समाज में समता की बात करते हुए साम्यवाद के पैरोकार हो उठते थे।

प्रेमचंद ने अपने कथानकों में किसान के सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं किया। उनका किसान स्वाभिमानी रहा। उसने हाड़तोड़ परिश्रम किया फिर भी ‘मरजाद’ के प्रति सजग रहा। उनका स्वाभिमानी किसान परिश्रम करके फसल उगाना चाहता है और मेहनत कर के ही धन कमाना चाहता है। उसे कोई ‘शॉर्टकट’ पसंद नहीं है। वह घबरा कर अन्यायी के सामने झुकने के बारे में सोचता भी नहीं है। लेकिन उसका स्वाभिमान कठोर नहीं है। वह ‘मरजादा’ के नाम पर अपने परिवार के सदस्य को मारने के बारे में नहीं सोचता है। तमाम अपमान, तिरस्कार एवं विपत्तियों के बाद भी उसके भीतर की मानवता मरी नहीं है। जैसे, होरी अपने पुत्र गोबर के प्रेम का सम्मान करते हुए गर्भवती झुनिया को अपने घर ले आता है। जो कि विधवा भी है। होरी झुनिया का तिरस्कार नहीं करता। उसे अपने परिवार का सदस्य घोषित करने का साहस करता है। होरी का यह कदम दमित किसान के भीतर जीवित मानवता का सुंदर उदाहरण है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 31.07.2019)
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Friday, July 26, 2019

बुंदेलखंड के बाहर भी बोलबाला है बुंदेली का - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ... 'नवभारत' में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
'नवभारत' में प्रकाशित मेरा लेख "बुंदेलखंड के बाहर भी बोलबाला है बुंदेली का" ... आप भी पढ़िए...
🙏धन्यवाद #नवभारत🙏
(26 जुलाई 2019)

बुंदेलखंड के बाहर भी बोलबाला है बुंदेली का
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह 

उस समय बड़ा सुखद अनुभव होता है जब अपने गांव, नगर, क्षेत्र से बाहर कोई व्यक्ति अपनी बोली बोलता हुआ मिलता है। मन प्रफुल्लित हो उठता है और नए शहर में महसूस होने वाला परायापन पल भर में दूर हो जाता है। यह तब होता है जब क्षेत्रीय भाषा अथवा बोली अपनी भौगोलिक सीमाओं से निकल कर चलन में आने लगती हैं। आज की मुंबइया भाषा में भोजपुरी के शब्दों के साथ ही बुंदेली के शब्दों का भी समावेश हो गया है। यह बुंदेली की लोकप्रियता को भी चिन्हित करता है। वैसे प्रत्येक लोकभाषा अथवा बोली का अपना महत्व होता है। उसकी अपनी उपादेयता होती है। बोली में लोकसंस्कृति निहित होती है और लोकसंस्कृति वे जड़ें होती हैं जिन पर लोक सभ्यता का वृक्ष फूलता-फलता है। लोकसंस्कृति बचपन से ले कर वृद्धावस्था तक मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाती है। बुन्देली लोकसंस्कृति भी जीवन के अनुरुप मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने में सक्षम रही है। किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र की संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति में ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोकविश्वास, जनजीवन की परम्पराएं एवं लोकाचार आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की भाषा, बोली भी निबद्ध रहती है। इसी के साथ किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उस बोली को अन्य बोलियों से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। प्रत्येक बोली की अपनी एक भूमि होती है जिसमें वह पलती, बढ़ती और विकसित होती है। बुंदेली बोली की भी अपनी मूल भूमि है जिसे बुंदेलखण्ड के नाम से पुकारा जाता है।
Navbharat -  Bundelkhand Ke bahar Bhi Bolbala Hai Bundeli Ka - Dr Sharad Singh
      महाराज छत्रासाल के समय बुन्देली बुन्देलखण्ड राज्य की राजभाषा का दर्जा रखती थी। बुंदेली बोली का विस्तार वर्तमान मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में है। इनमें मध्यप्रदेश के प्रमुख ज़िले हैं- पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़ तथा दतिया। उत्तर प्रदेश में झांसी, जालौन, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा तथा महोबा में बुंदेली अपने शुद्ध रूप में बोली जाती है। बुंदेली बोली में भी विभिन्न बोलियों का स्वरूप मिलता है जिन्हें बुंदेली की उपबोलियां कहा जा सकता है। ये उपबोलियां हैं- मुख्य बुंदेली, पंवारी, लुधयांती अथवा राठौरी तथा खटोला। दतिया तथा ग्वालियर के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में पंवार राजपूतों का वर्चस्व रहा। अतः इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली बुंदेली को पंवारी बुंदेली कहा जाता है। इनमें चम्बल तट की बोलियों का भी प्रभाव देखने को मिलता है। हमीरपुर, राठ, चरखारी, महोबा और जालौन में लोधी राजपूतों का प्रभाव रहा अतः इन क्षेत्रों की बुंदेली लुधयांती या राठौरी के नाम से प्रचलित है। यहां बनाफरी भी बोली जाती है। पन्ना और दमोह में खटोला बुंदेली बोली जाती है। जबकि सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, झांसी तथा हमीरपुर में मुख्य बुंदेली बोली जाती है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने सन् 1931 ईस्वी में जनगणना के आधार पर बुंदेली का वर्गीकरण करते हुए मानक बुंदेली (मुख्य बुंदेली), पंवारी, लुधयांती , खटोला तथा मिश्रित बुंदेली का उल्लेख किया था।
जहां संस्कृति को लिपिबद्ध रूप से सहेजा नहीं गया हो वहां बोलियों में निबद्ध लोकगीत, लोककथा, लोकनाट्य आदि के द्वारा वाचिक स्रोतों से संस्कृति का समुचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है। बुन्देली बोली संस्कृति के लगभग सभी रूप अपने भीतर समेटे हुए है। इसमें लोक चेतना, लोक वेदना, लोक सम्वेदना, लोकाचार तथा ऐतिहासिक घटनाओं का ब्यौरा भी विद्यमान है। जन्म से ले कर मृत्यु तक के संस्कारों का परिचय बुन्देली लोकगीतों में समाया हुआ है। प्रत्येक बोली का अपना एक अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोकगाथाओं, लोक गीतों, मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है। बुंदेली में साहित्य का आरंभ लगभग बारहवीं शताब्दी से माना जाता है। खड़ी बोली में भी बुंदेली कथानकों का प्रयोग सदा होता रहा है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपनी दो कहानियां बुंदेली कथानकों पर लिखी थीं। ये कहानियां हैं-‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारंध्रा’।
बोलियां जीवन में संस्कार और पारस्परिक संबंधों की नींव को मजबूत करती ही हैं साथ ही बोलियां अपने-आप में रीति-रिवाज़, लोकाचार, लोक संस्कार, लोक मान्यताओं के साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। जैसे बुन्देली के सुप्रसिद्ध लोककवि ईसुरी ने अपनी फाग कविताओं में जहां प्रेम को रीतिकालीन शैली में वर्णित किया है वहीं उस अकाल की पीड़ा का भी वर्णन किया है जिसने बुन्देलखण्ड के जनजीवन को विकट रूप में प्रभावित किया था।
यही बुंदेली आज बुंदेलखंड की सीमाओं को लांघ कर देश-विदेश की प्रिय बोली बनती जा रही है। भाषा के समान समृद्ध बुंदेली बोली को सिनेमा और टीवी धारावाहिकों में स्थान दिया जाने लगा है। ‘चाइनागेट’ फिल्म से पहले भी बुंदेली बोली में फिल्मी संवाद लिखे गए तथा फिल्में भी बनीं। निर्देशक तथा अभिनेता शिवकुमार ने बुंदेली में फिल्में बनाईं जिनकी शूटिंग ओरछा तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में की गई। फिल्म अभिनेता राजा बुंदेला ने भी बुंदेली बोली और संस्कृति को बॉलीवुड तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया। वैसे यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राजा बुंदेला बॉलीवुड को बुंदेलखंड तक ले आए। फिल्मों के साथ ही टीवी धारावाहिकों में भी झांसी, कानपुर, आदि में बोली जाने वाली बुंदेली को पर्याप्त लोकप्रियता मिल रही है। यूं तो सागर जिले के परिवेश में बना एक धारावाहिक ‘फिर सुबह होगी’ में भी बुंदेली बोली के संवाद थे किन्तु कथानक त्रुटिपूर्ण एवं भ्रामक होने के कारण यह धारावाहिक लोकप्रिय नहीं हो सका और चैनल द्वारा उसे समापन के पहले ही बंद कर दिया गया। फिर भी बोली के प्रयोग की दृष्टि से इस धारावाहिक का अपना अलग महत्व रहा। वर्तमान में भी विभिन्न टीवी चैनल्स पर बुंदेली संवादों वाले अनेक धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं।
बुंदेलखंड के वे युवा जो पढ़-लिख कर विदेशों में रह रहे हैं, वे अपने साथ अपनी बोली और संस्कृति को सात समंदर पार पहुंचा रहे हैं। अब बुंदेलखंड के बाहर भी बुंदेली का बोलबाला है। बुंदेली बोली को जो विस्तार और सम्मान मिलना चाहिए था, वह अब उसे मिलने लगा है।
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( नवभारत, 26 जुलाई 2019 )
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Wednesday, July 24, 2019

चर्चा प्लस ... कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ... 
 कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए 
    - डॉ. शरद सिंह
       गौ-हत्या के मसले को लेकर शुरू हुई मॉब लिंचिंग अब तो भीड़ में मौजूद सरफिरों को अपना सोशलमीडिया पर अपना उन्माद दिखाने का आसान रास्ता बन गई। एक उन्मादी भीड़ एक निहत्थे इंसान को लातों, घूसों, डंडों आदि से पीट-पीट कर मार डालती है और उन्हीं उन्मादियों में से कुछ इस सारे घटनाक्रम की वीडियो अपने मोबाईल पर बनाने और अपलोड करने में व्यस्त रहते हैं। यह पागलपन भरी नृशंसता नहीं, तो और क्या है? जो भीड़ अपने जीवन की जरूरतों के बुनियादी मुद्दों को हल कराने के लिए मुंह खोलने का भी साहस नहीं रखती है, उसमें अचानक इतना जुनून कहां से आ जाता है? यह कोई प्रशिक्षित भीड़ नहीं होती है, तो फिर क्या समाज में अनेक लोग मनोरोगी (साइको) होते जा रहे हैं? ये सारे प्रश्न बड़े अजीब प्रतीत होते हैं किन्तु अफसोस कि यह हमारे आज के सामाज जीवन का दुःस्वप्न बनते जा रहे हैं। 
चर्चा प्लस ... कठोर कानून जरूरी है मॉब लिंचिंग रोकने केलिए  - डॉ. शरद सिंह
        'मॉब लिंचिंग’ अर्थात् अफवाह के आधार पर भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति को नृशंसतापूर्वक जान से मार डालना। बच्चा चोरी की अफवाहों के चलते पीट-पीट कर मार डालने की घटनाओं में एक घटना और जुड़ गई जब कर्नाटक के बीदर जिले में बच्चा चोरी के शक में चार युवकों पर भीड़ ने हमला बोल दिया जिनमें एक की मौत हो गई।  बच्चा चोर के शक में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या करने का एक और मामला सामने आया है। एक वृद्ध आदमी को राष्ट्रीय पक्षी मोर का हत्यारा मान कर उसकी पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। यदि वह मोर का हत्यारा था भी तो उसे दण्डित करने का अधिकार सिर्फ कानून को था, चंद लोगों की भीड़ को नहीं। इसकी क्या गारंटी की जिन लोगों ने उस वृद्ध को मारा, वे स्वयं कसूरवार नहीं थे? घटना के संदेह के आधार पर किसी को नृशंसतापूर्वक पीट-पीट कर मार डालना अमानवीयता की हद को पार करने जैसा है। 

आए दिन बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाएं चिंता का विषय बनती जा रही हैं लेकिन इस पर नियंत्रण लाने के लिए कोई अलग से कानून नहीं है। उस पर दुर्भाग्य यह कि एक धर्म विशेष के लाग तो बहुतायत शिकार बन ही रहे हैं, साथ ही मात्र संदेह और अफवाह का आधार ले कर कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी इसका शिकार होने लगा है। गौ-हत्या के मसले को लेकर शुरू हुई मॉब लिंचिंग अब तो भीड़ में मौजूद सरफिरों को अपना सोशलमीडिया पर अपना उन्माद दिखाने का आसान रास्ता बन गई। एक उन्मादी भीड़ एक निहत्थे इंसान को लातों, घूसों, डंडों आदि से पीट-पीट कर मार डालती है और उन्हीं उन्मादियों में से कुछ इससारे घटनाक्रम की वीडियो अपने मोबाईल पर बनाने और अपलोड करने में व्यस्त रहते हैं। यह पागलपन भरी नृशंसता नहीं, तो और क्या है? 
मॉब लिंचिंग की नृशंसता की बढ़ती दर देख कर अब राजनेताओं के माथे पर भी शिकन पड़ने लगी है। इसीलिए विगत 01 जुलाई 2019 को महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस विधायक आरिफ नसीम खान ने मॉब लिंचिंग का मामला उठाया। उन्होंने मॉब लिंचिंग के खिलाफ कठोर कानून बनाने की मांग की। कांग्रेस विधायक ने कहा कि ‘‘राज्य में मॉब लिंचिंग की घटनाएं रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनना चाहिए। आरिफ नसीम खान ने विधानसभा में कहा कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश में मॉब लिंचिंग की घटनाएं सामने आने के बाद हम (कांग्रेस) मांग करते हैं कि ऐसी घटनाओं पर काबू पाने के लिए राज्य सरकार को कानून बनाना चाहिए। मॉब लिंचिंग के आरोपियों को कठोर दंड दिया जाना चाहिए तथा ऐसे मामलों में संलिप्त लोगों को कम से कम 10 साल की सजा मिलनी चाहिए।’’ 

इसके बाद 13 जुलाई 2019 को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष मायावती ने मॉब लिचिंग को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाए जाने की जरूरत बताई। इसके साथ ही इस दिशा में उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग की पहल का उन्होंने स्वागत भी किया। एक बयान जारी करके बसपा अध्यक्ष मायावती ने कहा है, ‘‘मॉब लिचिंग देश में एक भयानक बीमारी का रूप ले चुकी है. इसकी वजह से जिंदगियों का होने वाला नुकसान गंभीर मुद्दा है। इससे बचाव के लिए राष्ट्रव्यापी स्तर पर कठोर कानून की जरूरत है। लेकिन दुख की बात है कि केंद्र सरकार का रुख इसके प्रति गंभीर नहीं है। मॉब लिचिंग की बीमारी से बचाव के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की नीति और नीयत सही नहीं है। इसी का नतीजा है कि सिर्फ दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के लोग ही नहीं बल्कि सर्वसमाज के साथ पुलिस भी अब इसका शिकार बन रही है। ऐसे हालात में उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने मॉब लिंचिंग के अपराध के लिए उम्र कैद की सजा की सिफारिश की है जो स्वागतयोग्य है।’’ पिछले कुछ महीनों में झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश से मॉब लिंचिंग के मामले सामने आए। वहीं मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए मध्य प्रदेश सरकार कड़ा कानून बनाने जा रही है। इस कानून के तहत खुद को गोरक्षक बताकर हिंसा करने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। 

वह घटना भुलाई नहीं जा सकती है जब सन् 2018 में कर्नाटक में बीदर जिले के एक गांव में भीड़ ने हैदराबाद निवासी और गूगल में कार्यरत सॉफ्टवेयर इंजीनियर मोहम्मद आजम उस्मानसाब की हत्या कर दी, जबकि उसके तीन दोस्त घायल हो गए। मारे गए युवक की उम्र मात्र 28-30 वर्ष थी। वे तीन दोस्त थे जिनमें एक कतर निवासी मोहम्मद सलहम था जो उसका कजिन था। वह छुट्टियां मनाने भारत आया था। हैदराबाद लौटते समय वे तस्वीरें खींचने के लिए एक छोटे से गांव के पास रुक गए। वहां कुछ स्कूली बच्चों को देखकर उन्होंने उन्हें चॉकलेट खाने के लिए दीं। यह चॉकलेट सलहम कतर से लाया था। एक विदेशी समेत कुछ अजनबियों द्वारा बच्चों को चॉकलेट देने पर स्थानीय लोगों ने उन्हें बच्चा चोर समझ लिया। इस बीच उनकी तस्वीरें वाट्सएप ग्रुप में फैल गईं। मारे गए युवक का कसूर यही था कि वह दुर्भावनाग्रस्त किसी ऐसे व्यक्ति के व्हाट्सएप्प मैसेज का शिकार हो गया जो निर्दोषों को मार कर अराजकता का माहौल खड़ा करना चाहता था। व्हाट्सएप्प मैसेज को वायरल करने और उसे सच मान लेने वाले जुनूनी इंसानों का भी विवेक मानो मर गया था जो उन्होंने एक पल को भी नहीं सोचा कि यह ख़बर सच है या नहीं? यदि उस ख़बर के सच होने का अंदेशा था भी, तो मात्र संदेह के आधार पर किसी को पीट-पीट कर मार डालने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
कहते हैं कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती। उनका कोई दीन-धर्म नहीं होता और इसी बात का फायदा हमेशा मॉब लिंचिंग करने वाली भीड़ उठाती है। पर सवाल ये है कि इस भीड़ को इकट्ठा कौन करता है? उन्हें उकसाता-भड़काता कौन है? जो भीड़ अपने जीवन की जरूरतों के बुनियादी मुद्दों को हल कराने के लिए मुंह खोलने का भी साहस नहीं रखती है, उसमें अचानक इतना जुनून कहां से आ जाता है? यह कोई प्रशिक्षित भीड़ नहीं होती है, तो फिर क्या समाज में अनेक लोग मनोरोगी (साइको) होते जा रहे हैं? ये सारे प्रश्न बड़े अजीब प्रतीत होते हैं किन्तु अफसोस कि यह हमारे आज के सामाज जीवन का दुःस्वप्न बनते जा रहे हैं।
मॉब लिंचिंग के आंकड़े उसकी गंभीरता की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं। विगत 4 सालों में मॉब लिंचिंग के 134 मामले घटित हुए। विडम्बना यह कि तमिलनाडु और अगरतला में मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिगत वर्ष जब कहा था कि गाय के नाम पर हत्या “स्वीकार्य नहीं“ है। उनकी इस टिप्पणी के कुछ ही घंटे बाद कथित तौर पर भीड़ ने एक मुस्लिम व्यक्ति को मार डाला। भीड़ में शामिल लोगों का इल्जाम था कि वो व्यक्ति अपनी कार में बीफ़ ले जा रहा था। अपराधी मनोवृत्ति की भीड़ की यह ढिठाई उसी समय मॉब लिंचिंग के विरुद्ध कठोर से कठोरतम कानून लाने के लिए पर्याप्त थी। यदि उसी समय संसद द्वारा विशेष बैठक बुला कर मॉब लिंचिंग के विरुद्ध कठोर कानून पारित कर दिया जाता तो इस तरह की नृशंस घटनाओं के आंकड़ें यूं बढ़ते नहीं रहते।

इस तरह की घटनाओं के बढ़ने का एक मनोवैज्ञानिक कारण अपराध का एक्सपोजर भी है। सोशल मीडिया तो इसे एक तगड़ा प्लेटफॉर्म मुहैया कराता ही है, उस पर अनेक न्यूज चैनल ऐसी घटनाओं को दिखाते समय सिर्फ़ शिकार हुए व्यक्ति को सेंसर कर के दिखाते हैं, वहीं भीड़ में मौजूद लोगों के चेहरे दिखाई देते रहते हैं। इससे अधकचरी और अपराधी मानसिकता वाले व्यक्तियों को बढ़ावा मिलता है। जबकि होना यह चाहिए कि बिना सेंसर का फुटेज पुलिस, जांच ऐजेंसी और न्यायालय को उपलब्ध कराया जाए और बेहद जरूरत पड़ने पर ही टीवी के पर्दे पर दिखाया जाए, अन्यथा भीड़ के चेहरों को भी सेंसर कर दिया जाना चाहिए ताकि ‘फेमस’ होने का लालच अपराधियों के मन में पैदा न होने पाए।  
ऐसे बर्बर अपराध हमारे देश में होते हैं तो दुनिया के सामने शर्मिंदा भी हमें ही होना पड़ता है। पिछले साल जर्मन न्यूज एजेंसी डॉचवैले ने मॉब लिचिंग के विरोध में किए गए एक प्रदर्शन की तख़्ती की फोटो के साथ बेंगलुरु की घटना को जारी किया था। तख़्ती पर लिखा था-‘‘वी वुंट लेट हिन्दुस्तान बिकम लिंचिस्तान। वी शेल डिफेण्ड द ह्यूमेनिटी टिल द वेरी एण्ड’’। अर्थात् ‘‘हम हिन्दुस्तान को लिंचिस्तान नहीं बनने देंगे। हम अंतिम दम तक मानवता की रक्षा करेंगे।’’ जब कोई विदेशी न्यूज ऐजेंसी इस तरह के समाचार सप्रमाण प्रकाशित या प्रमाणित करे तो देश का सिर शर्म से झुकना स्वाभाविक है। ऐसे समाचारों का प्रतिकार करने अथवा लज्जित होने से समस्या सुलझने वाली नहीं है। वस्तुतः ढूंढना होगा उन कारणों को जो इस तरह की घटनाओं के पीछे निहित हैं। पता लगाना होगा उन अवसरवादियों का जो अपनी दुर्भावना को पूरा करने के लिए व्हाट्सएप्प जैसे लोगों को लोगों को जोड़ने वाले साधन को लोगों के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। सचेत रहना होगा उन ग्रुप मेंबर्स को जो अपने एडमिन पर भरोसा करके अपराध के सहभागी बन बैठते हैं। कोई भी ऐसी अफवाह यदि व्हाट्एप्प के माध्यम से फोन पर आए वे संदिग्ध मैसेज को तत्काल डिलीट कर दे। लगातार इस तरह की हिंसक घटनाओं के बाद तो होश आ ही जाना चाहिए। जब व्हाट्सएप्प उपयोगकर्त्ता सजग रहेंगे तो ऐसी नृशंस घटनाएं भी नहीं घट सकेंगी।

मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए कठोर कानून जरूरी है। यूं भी लोकतंत्र में मॉब लिंचिंग के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती है। लोकतंत्र सभी को जीने का अधिकार देता है, न्याय पाने का और सजा दिलाने का अधिकार देता है। लेकिन वहीं याद कराए जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं देता है।                
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 24.07.2019)
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Monday, July 22, 2019

दैनिक जागरण में 'सामयिक सरस्वती' पत्रिका की समीक्षा

Dr Sharad Singh
आज 22.07.2019 को दैनिक जागरण के सभी संस्करणों में प्रकाशित "सामयिक सरस्वती' पत्रिका के अप्रैल-जून 2019 अंक की  समीक्षा... मैं (डॉ शरद सिंह) पत्रिका की कार्यकारी संपादक हूं।
Dainik Jagaran, Saptarang, Punarnava, 22.07.2019

    स्मरणीय है कि इस पत्रिका के उत्कृष्ट संपादन के लिए माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान, भोपाल द्वारा मुझे राज्य स्तरीय रामेश्वर गुरू पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
   
Dainik Jagaran, Saptarang, Punarnava, 22.07.2019

Dr (Miss) Sharad Singh on Makronia Nagarpalika Merger, 20.07.2019



"सागर नगरनिगम और मकरोनिया नगरपालिका के मर्जर से ही विकास संभव है - डॉ. शरद सिंह (समाज सेविका)" 


Curtsey : Sagar TV News

Dr Miss Sharad Singh in Nav Duniya Event 20.07.2019



दैनिक नवदुनिया, सागर संस्करण द्वारा 20. 07. 2019 को आयोजित कार्यक्रम
"हर वोट कुछ कहता है" में सांसद श्री राजबहादुर सिंह,सागर लोकसभा क्षेत्र
को साहित्यकार एवं समाजसेवी डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, सेवानिवृत्त सीएम एच ओ
डॉ दिवाकर मिश्र एवं नवदुनिया भोपाल के इनपुट हेड श्री प्रमोद चौबे ने
नवदुनिया की ओर से एक मांगपत्र सौंपा जिसमें निराकरण करने हेतु क्षेत्र की
समस्याओं का उल्लेख किया गया था। इस अवसर पर डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ने
अतिथि के रूप में अपना उद्बोधन दिया।

Curtsey: Sagar TV News

दैनिक नवदुनिया कार्यक्रम में अतिथि डॉ. (सुश्री) शरद सिंह ...

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh
दैनिक नवदुनिया, सागर संस्करण द्वारा 20.07.2019 को आयोजित कार्यक्रम "हर वोट कुछ कहता है" में सांसद श्री राजबहादुर सिंह, सागर लोकसभा क्षेत्र को मैंने यानी  डॉ. (सुश्री) शरद सिंह, सेवानिवृत्त सीएम एच ओ डॉ दिवाकर मिश्र एवं नवदुनिया भोपाल के इनपुट हेड श्री प्रमोद चौबे ने नवदुनिया की ओर से एक मांगपत्र सौंपा जिसमें निराकरण करने हेतु क्षेत्र की समस्याओं का उल्लेख किया गया था। इस अवसर पर मैंने भी अतिथि के रूप में अपना उद्बोधन दिया।
समाचार एवं फोटो उसी अवसर की....
🙏 इस जागरूक पहल पर केन्द्रित सफल आयोजन के लिए नवदुनिया, सागर को हार्दिक बधाई एवं साधुवाद 🙏

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh
Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh
Nav Dunia, Sagar, 21.07.2019 -
Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh
Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh


Nav Dunia, Sagar, 21.07.2019 -
Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh
Nav Dunia, Sagar, 21.07.2019 -
Dr Sharad Singh in Event of Navdunia with MLA Rajbahadur Singh

Thursday, July 18, 2019

चर्चा प्लस ... विधायकपुत्री का अंतरजातीय विवाह बनाम टीआरपी - डॉ. शरद सिंह

चर्चा प्लस ...
 

विधायकपुत्री का अंतरजातीय विवाह बनाम टीआरपी
- डॉ. शरद सिंह
 

विधायक की बेटी साक्षी ने अंतरजातीय विवाह किया। विधायक पिता को यह विवाह पसंद नहीं आया। बेटी ने सोशल मीडिया पर मदद की गुहार लगाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाथ लग गई टीआरपी बढ़ाने वाली मसालेदार ख़बर। बेशक साक्षी ने कुछ गलत नहीं किया। वह बालिग है और उसे अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने का कानूनन अधिकार है। उसे सार्वजनिक रूप से मदद मांगने का भी पूरा अधिकार है। देखा जाए तो इस शादी को नकारा ही नहीं जाना चाहिए। आज जब हमारा देश एक ओर चांद पर झंडे गाड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर हम जात-पांत को लेकर झगड़े कर रहे हैं। उस पर दुर्भाग्य यह कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी टीआरपी बढ़ाने की खातिर दसवें नंबर पर आने लायक ख़बर को पहले नंबर पर रख कर अपनी तथाकथित जागरूकता की नुमाईश करते हैं।
चर्चा प्लस ... विधायकपुत्री का अंतरजातीय विवाह बनाम टीआरपी - डॉ. शरद सिंह   Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh
       मध्य प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता व विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने सोशल मीडिया पर बरेली से बीजेपी विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा व अजितेश कुमार की शादी को लेकर जो चर्चाएं चल रही हैं, उस पर टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि ऐसी खबरों से अब कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं देश मे अप्रत्याशित रूप से बढ़ेगी तथा महिला पुरुष के लिंगानुपात में भारी अंतर आएगा जो हमे अगले तीन वर्षों में सामाजिक सर्वे में स्पष्ट रूप से दिखेगा। उन्होंने कहा कि नर्सिंग होम एवं निजी अस्पतालों में गर्भपात का गौरखधंधा खूब फलेगा फूलेगा। उन्होंने दूसरे ट्वीट में लिखा है कि मेरे निजी विचार से यह चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने और रुपया कमाने के चक्कर मे बहुत बड़ा समाज विरोधी एवं राष्ट्र विरोधी कार्य कर रहे हैं। उनके इस कृत्य से अब यह बात तय है कि देश मे पिछले एक दशक से चल रहा “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ“ की योजना एवं राष्ट्रीय अभियान 50 वर्ष पीछे चला जायेगा। गोपाल भार्गव ने ट्वीट कर इस मामले में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आगे लिखा कि सोशल मीडिया और कथित राष्ट्रीय समाचार चैनल और उनके तनखैया एंकरों द्वारा अपनी टीआरपी बढ़ाने और रुपया कमाने की लालसा से एक आधुनिक लैला-मजनू को लेकर उनके दुखी पिता और परिवार का मजाक बनाया जा रहा है। जिसे लोग आनंद से देख रहे हैं। अच्छा-खासा हंगामा हुआ पं. गोपाल भार्गव की ट्वीट पर। होना ही था, वे नेता प्रतिपक्ष जो ठहरे। हंगामा करने वाले यह बात भूल गए कि साल में दो बार सामूहिक विवाह सम्मेलन करवाने वाले पं. गोपाल भार्गव को ‘शादी बाबा’ के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अपने बेटे की शादी भी ऐसे ही समारोह में की थीं। विगत आयोजन में 1100 जोड़ों का विवाह कराते समय पं. गोपाल भार्गव ने कहा था कि ‘‘यह आयोजन केवल गरीबों के लिए नहीं है। यह तो सामाजिक समरसता का कार्यक्रम है। यहां हर वर्ग जाति के वर-वधुओं का विवाह होता है। समाज में एक भ्रांति है कि सम्मेलन में केवल गरीबों के विवाह होते हैं। मैं बताना चाहता हूं कि ऐसा नहीं है। यहां हर किसी की शादियां हो सकती हैं। इसी भ्रांति को मिटाने के लिए अपने पुत्र अभिषेक का विवाह भी इसी सम्मेलन से कराया था।’’ फिर भी साक्षी मामले में उनके बयान पर हंगामा हुआ।
मामला यह था कि बरेली से विधायक राजेश मिश्रा की बेटी ने अपने पति के साथ एक वीडियो जारी किया, जिसमें उसने अपने पिता से खुद की जान को खतरा बताया था। विगत 4 जुलाई को विधायक मिश्रा की बेटी ने एक दलित युवक अजितेश कुमार से शादी की थी। अंतरजातीय विवाह के बाद से ही एक बड़ा विवाद खड़ा हुआ। साक्षी एक ब्राह्मण हैं, जबकि उनके पति अजितेश कुमार दलित परिवार से आते हैं। जिसके बाद ही इस शादी को लेकर सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर बहस चलती रही है। साक्षी के पति अजितेश ने बताया कि जिस होटल में वो रुके थे वहां राजेश कुमार मिश्रा के एक दोस्त राजीव राणा अपने लोगों के साथ आ गए थे। लेकिन वो मौका देखकर वहां से निकल गए। अजितेश के अनुसार वो दलित हैं, इसलिए उनकी पत्नी के पिता उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे और ये सब कर रहे हैं। पिता विधायक राजेश कुमार मिश्रा ने कहा, “जो हमारे परिवार में घर से निकल जाता है, उससे कोई संपर्क नहीं करता। वो जहां चाहे वहां रहे. ना हम कहीं गए, ना हमने पता किया, ना हमने किसी को फोन किया। ना हम शासन-प्रशासन के पास गए. हम इस मामले में कुछ नहीं कहना चाहते हैं। मैं बीजेपी का एक कार्यकर्ता हूं, बस अपना काम करता हूं. बाक़ी मुझे किसी से कुछ मतलब नहीं.“ वहीं साक्षी ने कहा है कि ’’अगर उनको और उनके पति के परिवार को कुछ भी होता है तो उसके ज़िम्मेदार उनके पिता और उनके दोस्त होंगे।’’

इसके बाद इस मुद्दे को ले कर टीवी चैनल्स में अपनी-अपनी टीआरपी बढ़ाने की होड़ मच गई। एक ओर परंपरागत दुखी पिता और दूसरी ओर परंपराओं को तोड़ने वाली बेटी। किसी को पिता से सहानुभूति तो किसी को बेटी से। टीवी चैनल्स में इस ख़बर को इतना उछाला गया कि झुंझलाकर मध्यप्रदेश विधान सभा के नेता प्रतिपक्ष पं. गोपाल भार्गव ने ट्वीट कर के अपने मन की बात सार्वजनिक कर दी। कई लोगो को उनकी खरी-खरी बात नागवार गुजरी। सवाल यह था कि यह बात एक राजनीतिक व्यक्ति के उद्गार थे। पर इस वक्तव्य को परखने की चेष्टा शायद ही किसी ने की हो। बात सच है कि किसी पिता को उसकी बेटी के घर से भाग कर शादी करने पर देश भर के सामने यदि इस प्रकार ताड़ना का अधिकारी बनाया जाएगा तो उसकी दशा देख कर ऐसे रसूखदार पिता बेटी पैदा करने से हिचकने लगेंगे और एक बार फिर वही माहौल बन जाएगा जो कुछ दशक पहले था।
बेशक साक्षी ने कुछ गलत नहीं किया। वह बालिग है और उसे अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने का कानूनन अधिकार है। यदि उसे अपने पिता से जान का ख़तरा (यदि सचमुच) है तो उसे सार्वजनिक रूप से मदद मांगने का भी पूरा अधिकार है। देखा जाए तो इस शादी को नकारा ही नहीं जाना चाहिए। आज जब हमारा देश एक ओर चांद पर झंडे गाड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर हम जात-पांत को ले कर झगड़े कर रहे हैं। उस पर दुर्भाग्य यह कि जिन संचार माध्यमों को अपने दृश्य-श्रव्य शक्ति का उपयोग देश की बुनियादी समस्याओं को सामने ला कर उन्हें दुरुस्त करने के लिए करना चाहिए, वे संचार माध्यम दसवें नंबर पर लगाई जाने लायक ख़बर को पहले नंबर पर ला कर और उसे बाकायदा दिन भर चला कर अपनी तथाकथित जागरूकता की नुमाईश करते रहते हैं। जबकि सवाल किसी विधायक की बेटी के अंतरजातीय विवाह करने का नहीं, विधायक द्वारा अपनी बेटी के विरुद्ध होने का नहीं बल्कि सभी बेटियों और सभी पिताओं का होना चाहिए। चर्चा तो इस बात की होनी चाहिए कि बेटियां अपनी इच्छा से अपना वर चुनें और पिता दकियानूसीपना छोड़ कर जात-पांत नहीं बल्कि लड़के का चाल-चलन देख कर अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दें। किन्तु जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस मामले को उछाला उसमें ऐसे बयान आना स्वाभाविक है जैसा कि पं. गोपाल भार्गव दे बैठे।
हमारा भारतीय कानून इस प्रकार के अंतरजातीय विवाह को पूर्ण स्वीकृति देता है। कुछ अरसा पहले खाप पंचायत की बेजा दखलंदाजी और ‘ऑनर किलिंग’ के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई वयस्क महिला अथवा पुरुष अपनी इच्छा से किसी भी व्यक्ति से शादी कर सकता है और खाप पंचायत इसमें कोई दखल नहीं दे सकती। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की पीठ ने प्रेम विवाह करने वाले युवक-युवतियों पर खाप पंचायतों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों पर अंकुश लगा पाने में असफल रहने पर केंद्र सरकार को फटकार भी लगायी थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि अंतरजातीय विवाह करने वाले प्रेमी-युगलों के खिलाफ खाप पंचायतों या ऐसे किसी संगठनों द्वारा किए गए अत्याचार या दुर्व्यवहार को पूरी तरह गैर-कानूनी है। खाप पंचायतों के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी देते हुए न्यायालय ने कहा था कि यदि केंद्र सरकार खाप पंचायतों को प्रतिबंधित करने की दिशा में कदम नहीं उठाती तो अदालत इसमें दखल देगी। सुप्रीमकोर्ट को इस तरह दखल देना ही पड़ा क्योंकि इस इक्कीसवीं सदी में पहुंच कर भी हमारे देश में आज भी प्रेम विवाह को सही नजरिए से नहीं देखा जाता है। यही कारण है कि प्रेमी युगल को कभी कभी उन्हें अपने ही परिवारजन का शिकार होना पड़ता है तो कभी समाज में प्रचलित खाप पंचायतों के बर्बर फैसलों का सामना पड़ता है। वैसे तो ‘ऑनर किलिंग’ शब्द ही बदल कर ‘हॉरेबल किलिंग’ (बर्बर हत्या) कर दिया जाना चाहिए। सम्मान की बात तो तब होती है जब परिवार या समाज सम्मानजनक फैसले ले और सामाजिक बुराइयों से ऊपर उठे। ऐसे लोग सम्मानित कैसे हो सकते हैं जो युवाओं के साथ बर्बरता से पेश आएं।
रहा सवाल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तो उसे तो खबरों को मसाला बनाने का हुनर आता है। मटुकनाथ-जूली प्रेम प्रसंग को जिस प्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हवा दी थी वह उसके द्वारा खबर को मसाला बनाने वाले हुनर का उल्लेखनीय उदाहरण है। एक दशक पहले ही यानी सन् 2006 में 64 साल के पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर मटुकनाथ चौधरी ने अपनी शिष्या जूली कुमारी को अपने जीवन का प्यार बताते हुए उनके साथ रहने का फैसला किया था। खुद से 30 साल छोटी छात्रा जूली के साथ संबंधों को लेकर पूरे देश में चर्चा में आए थे। जूली मटुकनाथ के साथ 2007 से 2014 तक लिव इन रिलेशनशिप में भी रही। जूली के लिए मटुकनाथ ने अपनी पत्नी को भी छोड़ दिया था। यह बात अलग है कि मटुकनाथ की यह शिष्या और उनके जीवन के प्यार ने इन दिनों अध्यात्म का रुख कर लिया और प्रेम के लिए चर्चित ’लव गुरु’ मटुकनाथ इन दिनों एकाकी जीवन बिता रहे हैं। मटुकनाथ और जूली के प्रेम का जो भी हश्र हुआ लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को तो अपनी वह टीआरपी मिल ही गई थी जो उसे चाहिए थी।
आज भी खाप पंचायतें अंतरजातीय विवाह करने वाले प्रेमी युगल को अमानवीय यातनाएं देती हैं। लड़की को निर्वस्त्र कर के उसके कंधे पर उसके मरणासन्न प्रेमी युवक को बिठा कर गांव में घुमाने के अमानवीयकृत्य को क्या ये इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इतनी प्रमुखता देती है जितनी कि साक्षी के मामले को प्रमुखता दी गई? क्या कभी पलट कर उन युवक-युवतियों की दशा का पता लगाया गया जो इस प्रकार की जघन्य सजा के बाद जिन्दा बच गए। इस मामले में भी साक्षी और अजितेश के जरिए अपना टीआरपी बढ़ाने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्या विधायक पिता राजेश मिश्रा और उनकी बेटी-दामाद साक्षी- अजितेश के बीच की खाई को पाट सकेगा? यदि ऐसा होता तो समाज के लिए एक अच्छा संदेश जाता लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा फिलहाल तो ऐसा होता नज़र नहीं आ रहा है।
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दैनिक ‘सागर दिनकर’, 18.07.2019
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नेलसन मंडेला के दिवस ... - डॉ. शरद सिंह

18.07.2019 ...आज महान गांधीवादी अश्वेत नेता स्व.नेलसन मंडेला के जन्मदिवस पर 'पत्रिका' समाचार पत्र ने एक विशेष फीचर में मेरे विचार प्रकाशित किए हैं... आप भी पढ़िए...
 
Dr Sharad Singh's views on Great Leader Nelson Mandela in Rajsthan Patrika, Sagar Edition, 18.07.2019

Wednesday, July 17, 2019

स्मृतियों में ... मेरे कार्यकारी संपादन में ‘सामयिक सरस्वती’ - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Executive Editor & Author

मेरे कार्यकारी संपादन में ‘सामयिक सरस्वती’ पत्रिका का प्रवेशांक अप्रैल-जून 2015 में प्रकाशित हुआ था। जिसकी चर्चा ‘लाईव हिन्दुस्तान डॉट कॉम’ में की गई थी। आज चार वर्ष बाद तब से ले कर अब तक ‘सामयिक सरस्वती’ के प्रकाशन का सफ़र जारी है। उस समय ‘लाईव हिन्दुस्तान डॉट कॉम’ में की गई चर्चा को मैं यहां साझा कर के स्मृतियों को ताज़ा कर रही हूं- 

https://www.livehindustan.com/news/tarakki/article1-story-483150.html

 
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धारा को पुनर्जीवित करने की कोशिश

सामयिक सरस्वती (त्रैमासिक पत्रिका), कार्यकारी संपादक: शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, मू. 50 रु.

‘सामयिक सरस्वती’ पत्रिका का प्रवेशांक अप्रैल-जून 2015



 ‘सामयिक सरस्वती’ के द्वितीय अंक पर 'लाईव हिन्दुस्तान डॉट कॉम' में की गई चर्चा -

https://www.livehindustan.com/news/tarakki/article1-story-497811.html

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विविधता को समेटने की कोशिश

सामयिक सरस्वती, संपादक- शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, मूल्य- 50 रुपये।
 

‘सामयिक सरस्वती’ पत्रिका का द्वितीय अंक