Thursday, July 11, 2019

विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) पर विशेष : बुंदेलखंड में जनसंख्या और संसाधनों का बिगड़ता समीकरण - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
आज 'नवभारत' में प्रकाशित विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) पर मेरा विशेष लेख "बुंदेलखंड में जनसंख्या और संसाधनों का बिगड़ता समीकरण" प्रकाशित हुआ है। इसे आप भी पढ़िए...
हार्दिक धन्यवाद #नवभारत
 

नदियों, तालाबों, कुंओ, जैसे जलस्रोतों, सघन वनों से मिलने वाले वनोपज और कृषि क्षेत्र की पर्याप्त उपलब्धता का धनी बुंदेलखंड आज तक आर्थिक विपन्नता का दंश झेल रहा है। इसके कारणों की गहराई में जाने पर यह सच्चाई सामने आती है कि संसाधनों का अवैध दोहन एवं असंतुलित वितरण के साथ ही सबसे बड़ा कारण है तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव। जिस मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में अन्य प्रदेशों से आ कर लोग आजीविका पाते थे उसी बुंदेलखंड से आज लोगों को अपनी खेती-किसानी छोड़ कर पलायन करना पड़ रहा है। संसाधनों का उचित वितरण न होना तथा अनेक स्थानों पर आवश्यकता से अधिक दोहन कर लिया जाना जनसंख्या के अनुपात में संसाधनों को तेजी से घटा रहा है। अतः जहां एक ओर आर्थिक व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने की जरूरत है, वहीं जनसंख्या पर नियंत्रण की भी महती आवश्यकता है। यदि उत्तरप्रदेशीय बुंदेलखंड के आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो यह साफतौर पर सामने आता है कि बुंदेलखंड में जनसंख्या का दबाव तेजी से बढ़ रहा हैं। छठवीं जनगणना वर्ष 2001 में हुई थी। तब बुंदेलखंड के सातों जनपदों बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, महोबा, जालौन, झांसी और ललितपुर की कुल आबादी 82,32,856 थी। एक दशक बाद वर्ष 2011 में हुई सातवीं जनगणना में बुंदेलखंड की जनसंख्या लगभग 96,59,718 हो गई थी। मतलब कि एक दशक में 12,75,862 लोग बढ़े। वर्तमान दशक और भी भरी-भरकम आंकड़े सामने रखने को तैयार है। मौजूदा संसाधनों और जनसंख्या के बीच का संतुलन तेजी से गड़बड़ा रहा है।
 
Navbharat -  Bundelkhand Me Jansankhya ka Badhata Dabav - Dr Sharad Singh विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) पर विशेष : बुंदेलखंड में जनसंख्या और संसाधनों का बिगड़ता समीकरण - डॉ. शरद सिंह
उदारीकरण की मौजूदा व्यवस्था में उद्योगों की स्थापना के लिये कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण करके उसे औद्योगिक क्षेत्र में बदलने का कार्य जारी है। औद्योगीकरण के विस्तार से भारत अनेक वस्तुओं के उत्पादन में आत्मनिर्भर तो हुआ है किन्तु इससे कृषि योग्य भूमि को हानि भी हुई है। भारत में काम-काज के अन्य विकल्पों की उपलब्धता के अवसर सीमित हैं। इसलिये जनसंख्या वृद्धि का समूचा बोझ कृषि पर है। सीमान्त और छोटी जोतों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। सन 2020 तक कृषि जोतों का आकार 0.11 हेक्टेयर रह जाने का अनुमान लगाया जा रहा है, जिसमें अब एक वर्ष भी नहीं बचे हैं। इसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। जो विस्फोटक हो चली जनसंख्या का पेट नहीं भर सकेगी और हमें दुनिया के दूसरे देशों के आगे हाथ फैलाना पड़ेगा। जनसंख्या की बढ़त के कारण रिहायशी क्षेत्र निरंतर बढ़ रहा है जिससे जंगल और जलस्रोत नष्ट होते जा रहे हैं।
प्रति वर्ष 11 जुलाई को पूरी दुनिया में ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाया जाता है। पूरे समूचा विश्व इस दिन चिन्तन करता है, पृथ्वी पर निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की संचालक परिषद के द्वारा वर्ष 1989 में पहली बार यह दिवस मनाया गया था। उस समय इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस हुई क्योंकि उस समय विश्व जनसंख्या का आंकड़ा चौंकाने वाला था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अनुभव किया कि इस प्रकार दिवस मना कर दुनिया के सभी देशों का ध्यान दुनिया की बढ़ती हुई जनसंख्या के प्रति आकृष्ट किया जा सकता है। इसके बाद इसे प्रति वर्ष वैश्विक स्तर पर मनाने का निर्णय लिया गया। इस विशेष जागरुकता उत्सव के द्वारा, परिवार नियोजन के महत्व जैसे जनसंख्या मुद्दे के बारे में जानने के लिये कार्यक्रम में भाग लेने के लिये लोगों को बढ़ावा देना, लैंगिक समानता, माता और बच्चे का स्वास्थ्य, गरीबी, मानव अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, लैंगिकता शिक्षा, गर्भनिरोधक दवाओं का इस्तेमाल और सुरक्षात्मक उपाय जैसे कंडोम, जननीय स्वास्थ्य, नवयुवती गर्भावस्था, बालिका शिक्षा, बाल विवाह, यौन संबंधी फैलने वाले इंफेक्शन आदि गंभीर विषयों पर विचार रखे जाते हैं। देश का प्रत्येक राज्य विश्व जनसंख्या दिवस को सरकारी स्तर पर उत्सवी हो कर मनाता है किन्तु यह उत्सव तभी सार्थक साबित हो सकेगा जब लैंगिक असमानता को समाप्त कर के जनसंख्या पर नियंत्रण पा लेंगे। तभी प्राकृतिक संसाधन बचेंगे, देश की अर्थव्यवस्था बचेगी और हम सुनहरे भविष्य की सच्ची आशा कर सकेंगे।
जब जनसंख्या इतनी बढ़ जाए कि संसाधन कम पड़ने लगें तो पलायन की स्थिति मजबूरी बन जाती है। जनसंख्या बढ़ने के दो कारण हैं। जिसमें पहला कारण एक बेटे की चाहत में बेटियों की लाईन लगा देना हिन्दी पट्टी की सामाजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा झोल है। दूसरा कारण है आर्थिक विपन्नता। आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके में अकसर यह भ्रम रहता है कि जितने हाथ होंगे उतनी कमाई होगी। इस मानसिकता के चलते विशेषरुप से झुग्गी बस्तियों में तीन से अधिक बच्चों की पैदाईश देखी जा सकती है। एक पैडलरिक्शा वाला अथवा रेहड़ी-खोमचा लगाने वाला व्यक्ति यदि एक या दो बच्चों को जन्म दे तो वह अपनी सीमित आय में भी उनका ढंग से लालन-पालन कर सकता है। जबकि अधिक बच्चे पैदा करने पर अपनी बाल्यावस्था से ही उन बच्चों को अपना और अपने माता-पिता के परिवार का पेट भरने के लिए मेहनत-मजदूरी में जुट जाना पड़ता है। असफल होने पर ऐसे बच्चे ही अपराध का रास्ता पकड़ लेते हैं। दूसरी ओर इन निर्दोष बच्चों के कारण संसाधनों पर पड़ने वाला दबाव इसनके साथ ही शेष आर्थिक व्यवस्था को भी तोड़ने लगता है।
जनसंख्या और संसाधनों के संतुलन को सुधारने तथा संतुलित बनाए रखने के लिए ईमानदारी से जनजागरुकता अभियान चलाया जाना की जरूरी है। आंकड़ों का खेल खेलते हुए हम जनसंख्या को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं और न ही एक दिन ‘जनसंख्या दिवस’ पर लेक्चर दे कर, फेरियां लगा कर अथवा बच्चों की प्रतियोगिताएं करा कर जनसंख्या की बढ़ती दर की गंभीरता के प्रति प्रभावी कदम उठा पाएंगे। सिर्फ एक दिन नहीं, बल्कि 365 दिन इस बात की जरूरत है कि हम उन लोगों में जनसंख्या-नियंत्रण की जागरूकता लाएं जो आज भी लिंगभेद और जितने हाथ उतनी कमाई के सिद्धांत पर जी रहे हैं। हमारी सरकार जिस बड़े दृष्टिकोण और योजनाओं को ले कर चल रही है वह भी तभी फलीभूत हो सकेगा जब संसाधनों और जनसंख्या में संतुलन बना रहेगा। सच यही है कि बुंदेलखंड में संसाधनों की आज भी कमी नहीं है लेकिन तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव समीकरण बिगाड़ रहा है।
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नवभारत, 11. 07. 2019

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