Dr (Miss) Sharad Singh |
(26 जुलाई 2019)
बुंदेलखंड के बाहर भी बोलबाला है बुंदेली का
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
उस समय बड़ा सुखद अनुभव होता है जब अपने गांव, नगर, क्षेत्र से बाहर कोई व्यक्ति अपनी बोली बोलता हुआ मिलता है। मन प्रफुल्लित हो उठता है और नए शहर में महसूस होने वाला परायापन पल भर में दूर हो जाता है। यह तब होता है जब क्षेत्रीय भाषा अथवा बोली अपनी भौगोलिक सीमाओं से निकल कर चलन में आने लगती हैं। आज की मुंबइया भाषा में भोजपुरी के शब्दों के साथ ही बुंदेली के शब्दों का भी समावेश हो गया है। यह बुंदेली की लोकप्रियता को भी चिन्हित करता है। वैसे प्रत्येक लोकभाषा अथवा बोली का अपना महत्व होता है। उसकी अपनी उपादेयता होती है। बोली में लोकसंस्कृति निहित होती है और लोकसंस्कृति वे जड़ें होती हैं जिन पर लोक सभ्यता का वृक्ष फूलता-फलता है। लोकसंस्कृति बचपन से ले कर वृद्धावस्था तक मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाती है। बुन्देली लोकसंस्कृति भी जीवन के अनुरुप मनुष्य को ज्ञान प्रदान करने में सक्षम रही है। किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र की संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति में ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोकविश्वास, जनजीवन की परम्पराएं एवं लोकाचार आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की भाषा, बोली भी निबद्ध रहती है। इसी के साथ किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उस बोली को अन्य बोलियों से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। प्रत्येक बोली की अपनी एक भूमि होती है जिसमें वह पलती, बढ़ती और विकसित होती है। बुंदेली बोली की भी अपनी मूल भूमि है जिसे बुंदेलखण्ड के नाम से पुकारा जाता है।
Navbharat - Bundelkhand Ke bahar Bhi Bolbala Hai Bundeli Ka - Dr Sharad Singh |
महाराज छत्रासाल के समय बुन्देली बुन्देलखण्ड राज्य
की राजभाषा का दर्जा रखती थी। बुंदेली बोली का विस्तार वर्तमान मध्यप्रदेश
और उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में है। इनमें मध्यप्रदेश के प्रमुख
ज़िले हैं- पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़ तथा दतिया। उत्तर प्रदेश में
झांसी, जालौन, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा तथा महोबा में बुंदेली अपने शुद्ध
रूप में बोली जाती है। बुंदेली बोली में भी विभिन्न बोलियों का स्वरूप
मिलता है जिन्हें बुंदेली की उपबोलियां कहा जा सकता है। ये उपबोलियां हैं-
मुख्य बुंदेली, पंवारी, लुधयांती अथवा राठौरी तथा खटोला। दतिया तथा
ग्वालियर के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में पंवार राजपूतों का वर्चस्व रहा।
अतः इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली बुंदेली को पंवारी बुंदेली कहा जाता
है। इनमें चम्बल तट की बोलियों का भी प्रभाव देखने को मिलता है। हमीरपुर,
राठ, चरखारी, महोबा और जालौन में लोधी राजपूतों का प्रभाव रहा अतः इन
क्षेत्रों की बुंदेली लुधयांती या राठौरी के नाम से प्रचलित है। यहां
बनाफरी भी बोली जाती है। पन्ना और दमोह में खटोला बुंदेली बोली जाती है।
जबकि सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, झांसी तथा हमीरपुर में मुख्य बुंदेली बोली जाती
है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने सन् 1931 ईस्वी में जनगणना के आधार पर बुंदेली
का वर्गीकरण करते हुए मानक बुंदेली (मुख्य बुंदेली), पंवारी, लुधयांती ,
खटोला तथा मिश्रित बुंदेली का उल्लेख किया था।
जहां संस्कृति को
लिपिबद्ध रूप से सहेजा नहीं गया हो वहां बोलियों में निबद्ध लोकगीत,
लोककथा, लोकनाट्य आदि के द्वारा वाचिक स्रोतों से संस्कृति का समुचित ज्ञान
प्राप्त हो जाता है। बुन्देली बोली संस्कृति के लगभग सभी रूप अपने भीतर
समेटे हुए है। इसमें लोक चेतना, लोक वेदना, लोक सम्वेदना, लोकाचार तथा
ऐतिहासिक घटनाओं का ब्यौरा भी विद्यमान है। जन्म से ले कर मृत्यु तक के
संस्कारों का परिचय बुन्देली लोकगीतों में समाया हुआ है। प्रत्येक बोली का
अपना एक अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोकगाथाओं, लोक गीतों,
मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने
आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी
से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है। बुंदेली में साहित्य का आरंभ
लगभग बारहवीं शताब्दी से माना जाता है। खड़ी बोली में भी बुंदेली कथानकों का
प्रयोग सदा होता रहा है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी कथा सम्राट प्रेमचंद ने
अपनी दो कहानियां बुंदेली कथानकों पर लिखी थीं। ये कहानियां हैं-‘राजा
हरदौल’ और ‘रानी सारंध्रा’।
बोलियां जीवन में संस्कार और पारस्परिक संबंधों की नींव को मजबूत करती ही हैं साथ ही बोलियां अपने-आप में रीति-रिवाज़, लोकाचार, लोक संस्कार, लोक मान्यताओं के साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। जैसे बुन्देली के सुप्रसिद्ध लोककवि ईसुरी ने अपनी फाग कविताओं में जहां प्रेम को रीतिकालीन शैली में वर्णित किया है वहीं उस अकाल की पीड़ा का भी वर्णन किया है जिसने बुन्देलखण्ड के जनजीवन को विकट रूप में प्रभावित किया था।
बोलियां जीवन में संस्कार और पारस्परिक संबंधों की नींव को मजबूत करती ही हैं साथ ही बोलियां अपने-आप में रीति-रिवाज़, लोकाचार, लोक संस्कार, लोक मान्यताओं के साथ ही तत्कालीन परिस्थितियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। जैसे बुन्देली के सुप्रसिद्ध लोककवि ईसुरी ने अपनी फाग कविताओं में जहां प्रेम को रीतिकालीन शैली में वर्णित किया है वहीं उस अकाल की पीड़ा का भी वर्णन किया है जिसने बुन्देलखण्ड के जनजीवन को विकट रूप में प्रभावित किया था।
यही
बुंदेली आज बुंदेलखंड की सीमाओं को लांघ कर देश-विदेश की प्रिय बोली बनती
जा रही है। भाषा के समान समृद्ध बुंदेली बोली को सिनेमा और टीवी
धारावाहिकों में स्थान दिया जाने लगा है। ‘चाइनागेट’ फिल्म से पहले भी
बुंदेली बोली में फिल्मी संवाद लिखे गए तथा फिल्में भी बनीं। निर्देशक तथा
अभिनेता शिवकुमार ने बुंदेली में फिल्में बनाईं जिनकी शूटिंग ओरछा तथा उसके
आस-पास के क्षेत्रों में की गई। फिल्म अभिनेता राजा बुंदेला ने भी बुंदेली
बोली और संस्कृति को बॉलीवुड तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया। वैसे यह
कहना भी गलत नहीं होगा कि राजा बुंदेला बॉलीवुड को बुंदेलखंड तक ले आए।
फिल्मों के साथ ही टीवी धारावाहिकों में भी झांसी, कानपुर, आदि में बोली
जाने वाली बुंदेली को पर्याप्त लोकप्रियता मिल रही है। यूं तो सागर जिले के
परिवेश में बना एक धारावाहिक ‘फिर सुबह होगी’ में भी बुंदेली बोली के
संवाद थे किन्तु कथानक त्रुटिपूर्ण एवं भ्रामक होने के कारण यह धारावाहिक
लोकप्रिय नहीं हो सका और चैनल द्वारा उसे समापन के पहले ही बंद कर दिया
गया। फिर भी बोली के प्रयोग की दृष्टि से इस धारावाहिक का अपना अलग महत्व
रहा। वर्तमान में भी विभिन्न टीवी चैनल्स पर बुंदेली संवादों वाले अनेक
धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं।
बुंदेलखंड के वे युवा जो पढ़-लिख कर
विदेशों में रह रहे हैं, वे अपने साथ अपनी बोली और संस्कृति को सात समंदर
पार पहुंचा रहे हैं। अब बुंदेलखंड के बाहर भी बुंदेली का बोलबाला है।
बुंदेली बोली को जो विस्तार और सम्मान मिलना चाहिए था, वह अब उसे मिलने लगा
है।
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( नवभारत, 26 जुलाई 2019 ) #बुंदेलखंड #बॉलीवुड #बोली #बुंदेली #Bundelkhand #Bundeli #Bollywood #Dialect
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