Tuesday, January 31, 2023

पुस्तक समीक्षा | ‘‘महज़ आदमी के लिए’’: तार्किक संवाद करती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 31.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक अरविंद मिश्र  के काव्य संग्रह "महज़ आदमी के लिए" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
‘‘महज़ आदमी के लिए’’: तार्किक संवाद करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - महज़ आदमी के लिए
कवि         - अरविंद मिश्र
प्रकाशक   - आईसेक्ट पब्लिकेशन, ई-7/22, एस. बी. आई., आरेरा काॅलोनी, भोपाल (मप्र)- 462016
मूल्य      - 200/-
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सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
- प्रखर आंदोलनकारी कवि पाश की कविता ‘‘सबसे ख़तरनाक’’ का अंश है यह। जब कविता एक आंदोलन की तरह मुखर होती है तो उसका रंग कुछ अधिक गहरा होता है। उसमें स्याह और धूसर रंगों की प्रमुखता होती है। जीवन जब विसंगतियों और विडम्बनाओं से घिरा हुआ हो तो यही गहरे रंग कभी अवसाद देते हैं तो कभी विद्रोही बना देते हैं। आंदोलनकारी कविताएं विद्रोह का स्वर लिए हुए होती हैं। विद्रोह हमेशा किसी दूसरे इंसान के प्रति ही नहीं होता वरन यह बिगड़ी हुई व्यवस्था के प्रति, सड़ी-गली परम्पराओं ओर मान्यताओं के प्रति, दुर्गन्ध मारते विचारों के प्रति अथवा स्वयं के प्रति भी हो सकता है। देश में समाजवादी विचारधारा के प्रसार, पहले से चली आ रही जनवादी साहित्य की परंपरा के विकास और वामपंथी आंदोलन के प्रभाव के कारण साहित्य में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरुआत हुई। साहित्य के राजनीतिक सरोकार, वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा के प्रति प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन और क्रांति जैसे विषयों पर वैचारिक मंथन आरंभ हुआ। सियाराम शर्मा ने अपने एक लेख ‘‘नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिंदी कविता’’ (पल-प्रतिपल, ंअक 42) में हिंदी कविता के विद्रोही स्वरों को तीन भागों में बांटते हुए बहुत महत्वपूर्ण व्याख्या की है। उन्होंने लिखा कि ‘‘सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से ले कर नवें दशक के प्रारंभ तक हिंदी कविता में स्पष्ट रूप से तीन अलग-अलग संसार दिखाई पड़ते हैं।’’ सियाराम शर्मा के अनुसार पहला संसार उन लोगों का हैं जिन्होंने भूखे, नंगे, फटेहाल लोगों को कविता की दुनिया से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया और प्रेम, रति और मृत्यु पर कविताएं लिखते रहे। भले ही इनका काव्य जीवन तथा समाज के सरोकारों से दूर उदरपोषित वर्ग के मनोरंजन की वस्तु बन कर रह जाए। कविता के दूसरे संसार में वे कवि हैं जो मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग की विषमताओं को जीते हैं। वे वामपंथी स्वरों से सहानुभूति रखते हैं किन्तु व्यवस्था को आमूलचूल बदलने की सीमा तक सोचने का साहस नहीं रखते। कविता के तीसरे संसार के कवि हुंकार भरते दिखाई देते हैं। उनके लिए बीमार व्यवस्थाएं समर स्थल हैं। वे लड़ने का माद्दा रखते हैं। उन्होंने अतीत में तमाम जनआंदोलनों को अपना काव्यात्मक समर्थन दिया और भविष्य में भी काव्य को मशाल की भांति प्रज्ज्वलित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस वर्गीकरण की यहां चर्चा करना इसलिए समीचीन है क्योंकि इससे अरविंद मिश्र के कविता संग्रह ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ की भावभूमि को समझना आसान हो जाएगा।   

     ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ में अरविंद मिश्र की कुल पचासी कविताएं हैं जो चार अध्याय-शीर्षकों में विभक्त की गई है- हमेशा हाशिया ही आया, संसार की सत्ता का उत्सव, आधी दुनिया की हुक्मरान और मित्र लौट आओ। इन चारो में प्रत्येक अध्याय की कविताएं शाब्दिक रूप में भले ही भिन्न हों किन्तु इनका मूल स्वर एक समान है जिसमें आक्रोश है, उलाहना है, चेतावनी है, आग्रह है और प्रतिरोध है। संग्रह की भूमिका नवल शुक्ल ने लिखी है तथा ल्बर्ब पर लीलाधर मंडलोई की लम्बी टिप्पणी है।
जब कविता में प्रतिरोध के स्वर मुखर होते हैं तो वह कविता निजी नहीं रह जाती है, ऐसी कविता जनहित की कविता बन जाती है। अरविंद मिश्र की कविताएं भी जनहित की कविताएं है क्योंकि वे मानवता विरोधी कार्यों के प्रति अपनी चिंता प्रकट करती हैं। कवि की चिंता इस बात को भी लेकर है कि जो सामाजिक और आर्थिक दुनिया के आधार हैं, वे मनुष्य आज भी निचले स्तर पर ही क्यों हैं? जैसे किसी ऊंची इमारत की नींव के पत्थरों को भूमि में दबा कर भुला दिया गया हो। यह भी भुला दिया गया हो कि यदि नींव किसी दिन दरकने लगेगी तो इमारत पर भी दरारें आ जाएंगी और इमारत ध्वस्त भी हो सकती है। अरविंद मिश्र दलितों, शोषितों के प्रति अत्यंत सहानुभूति रखते हुए उनकी स्थिति बदलने का आग्रह करते दिखाई देते हैं। इसीलिए उनके इस कविता संग्रह ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ की प्रथम कविता ही एक सुखद कल्पना और सुखद आशा का स्वर लिए हुए है-
एक दिन
तुम्हारे हाथों के स्पर्श से
गरमाएगी दुनिया
तुम्हारे हाथों की बनी रोटियां
संसार का
सबसे स्वादिष्ट व्यंजन होंगी।

एक दिन/ तुम्हारा बेटा भी
समर्थ बनेगा
खुद काटेगा/अपना बोया खेत
खून से मंहगा/बिकेगा तुम्हारा पसीना
तुम्हारी आवाज़ से/खुलेंगे घर-घर के द्वार
देखना/ तुम्हारे सारे सपने
होंगे साकार/एक दिन।

    ‘‘हम होंगे क़ामयाब एक दिन’’ की आकांक्षा को ग़रीब किसानों और खेतिहर मजदूरों से जोड़ते हुए कवि की आकांक्षा सकारात्मक भाव प्रकट करती है। लेकिन जीवन में जो भी नकारात्मक है वह भी कवि से अछूता नहीं है। यहां कवि ने ‘‘आदमी’’ शब्द का अर्थ मानवता के रूप में लेते हुए ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ शीर्षक से दो कविताएं लिखी हैं। पहली कविता का मानवीय उलाहना देखिए-
आंख मूंद श्रद्धालु
मंदिरों में कर रहे संकीर्तन
मस्जिदों में हो रही अजानें
नियम से जा रहे हैं लोग
रविवार को गिरजाघर
गुरुद्वारों में
पढ़ी जा रही है गुरुवाणी
सब चल रहा है/हो रहा है
अर्थ के लिए अनर्थ
महज़ आदमी के लिए
आदमी ज़िन्दा नहीं है।
अरविंद मिश्र की कविता में समकालीन समय अपने पूरी त्रासदी के साथ मौजूद है। वस्तुतः संग्रह की कविताएं मनुष्यता को तलाशती हुई कविताएं हैं। ये कविताएं उन पदचापों पर भी कान लगाए हुए हैं जो समय-समय पर सामाजिक भेद-भाव, तानाशाही और आर्थिक खाई के चलते अकर्मण्यता की किसी गुफा में दुबक कर बैठ गई हैं। इसीलिए जब परिवर्तन अथवा प्रतिरोध के ये पदचाप कवि को सुनाई नहीं देते हैं तो वह खिन्न स्वर में कटु शब्दों का सहरा लेता है ताकि सुप्त होती जा रही चेतना को झकझोरा जा सके। ‘‘समझ नहीं पा रहे कुचालें’’ कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
        लाख मुसीबतों के बाद भी
कह रहे हो पायलागूं
ढो रहे हो गू-मूत,
शताब्दी की शताब्दी
गुज़र जाने के बाद भी
समझ नहीं पा रहे कुचालें
यूं तो संग्रह की अधिकांश कविताएं उद्धृत करने योग्य हैं किन्तु अंत में ‘‘डाकिया’’ कविता का एक अंश देखना जरूरी है क्योंकि यह कविता बताती है कि डाकिए की भूमिका को जब से इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों ने विस्थापिता किया है तब से संवेदनाएं भी किस तरह विस्थापित हो गई हैं। यह अंश देखिए-
हार-जीत की सूचनाएं
देश-परदेश का समाचार
भांति-भांति की जातियां
देश, धर्म, रिश्ते-नाते, संस्कृतियां सब कुछ
आज जबकि व्हाट्एप, ई-मेल ने
हथिया ली हैं तुम्हारी कार्रवाइयां
सचमुच! बड़ी बात है डाकिया होना।

कवि अरविंद मिश्र का अनुभव संसार व्यापक है। वे जीवन के प्रति गहरी दृष्टि रखते हैं और उन प्रयासों को सफल होते देखना चाहते हैं जो कुछ विशेषवर्ग के मनुष्यों को मनुष्यता वाले उनके बुनियादी अधिकार दिला सकते हैं। कविताओं में शब्दों की बुनावट सटीक और बेहतरीन है। ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ काव्य संग्रह में तार्किक संवाद करती कविताएं है, कोई भी बात थोथेपन से नहीं कही गई है। इसकी यही खूबी इसे पठनीय और विशेष बनाती है।    
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Sunday, January 29, 2023

Article | The Triangle Of Newspapers, Readers & Climate Change | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
The Triangle Of Newspapers, Readers & Climate Change
           -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
*Our country has a very old relation with newspapers. The country's first newspaper was published on January 29, 1780 whose name was "Bengal Gazette". That is why Indian Newspaper Day is celebrated on 29 January. Even though the Bengal Gazette was in English, but with time, newspapers started being published in Indian regional languages as well. Newspapers expanded and the variety and topicality of their subjects increased. Where there used to be news on the efforts to get freedom before independence, now there is news on the latest burning problem like climate change. Today newspapers are brought to almost every household. Whether it is in English or regional language, but every literate person is interested in reading newspaper. Now it is to be seen that what is the limit of his interest? So let's look at the triangle of newspapers, readers and climate change.*
 
Indian Newspaper Day, which is celebrated every year on 29 th January. Indian Newspaper Day commemorates the birth of the first Indian Newspaper on January 29, 1780. The 'Hickey's Bengal Gazette', which was also known as the 'Calcutta General Advertiser', was the first weekly newspaper. Hicky's "Bengal Gazette" was the first English-language newspaper published on the Indian subcontinent. It was founded in Calcutta, capital of British India at the time, by Irishman James Augustus Hicky in 1779. The front page news stories are written in British English. James Augustus Hicky is known as the father of Indian journalism. Hicky’s Bengal Gazette was known for its sarcastic and provocative writing style. Unlike many newspapers of its time, the newspaper discussed taboo topics and proto-class consciousness, arguing for the rights of the poor and the right to taxation with representation. It was strongly anti-war and anti-colonial and routinely ridiculed East India Company leadership for their expansionist and imperialist objectives. Readers knowing the English language used to read it with great interest. Then gradually newspapers started being published in Indian languages.
"Udant Martand" was the first Hindi language newspaper published in India. Started on 30 May 1826, from Calcutta, the weekly newspaper was published every Tuesday by Pt. Jugal Kishore Shukla. Before this, "Samachar Darpan" was a Bengali weekly newspaper published by the Baptist Missionary Society and published on 23 May 1818 from the Baptist Mission Press at Serampore in the first half of the 19th century. It is considered to be the first Indian-language newspaper. After this, Rajyasamacharam or Rajya Samacharam was the first Malayalam journal published in Kerala.Its first issue came out in June 1847. Hermann Gundert, the editor of the journal, was a religious propagator from the Basel Evangelical Mission society. Rajyasamacharam started publication from Illikkunnu, Thalassery, in the Kannur district of Kerala. It was published as eight cyclostyled sheets in demy octavo size produced from a litho press. Thus the publication of newspapers in English and Indian languages increased and their readership also increased. 
Newspapers fulfilled their responsibility seriously from the beginning. Along with literacy, the readership of newspapers also increased. Some newspapers were prepared the reading material considering the interests of the readers, while some newspapers were prepared the readership according to the reading material. But all the newspapers had a common mission to keep the readers updated about all kinds of problems and the news so that the readers can be aware. The content of the newspaper is decided according to this thinking. In it, pages and columns are kept on all subjects ranging from latest events to politics, market, sports, society, education etc. Ever since the problem of climate change has come before us in the form of a serious crisis, since then one article about climate change and environmental crisis is given daily in every newspaper. It is a different matter that many readers keep the newspaper aside only after reading the content of their interest. Many readers who are interested in sports or political news miss out on climate crisis news and articles. That is, if newspapers take subscription money, they also fulfill their responsibility, while the readers who pay subscription money, instead of getting complete knowledge, they are left reading the material of their interest. This can only be called carelessness of the readers towards their knowledge and money.
Recently I was talking to a friend about climate change. I discussed about the ongoing world conferences on climate change and their results. He was listening to me reluctantly. He asked me, almost bored, where were these conferences held? Now when will such a convention be held in our Sagar city? Hearing that, I banged my head. I asked him that does the newspaper come to your house. He told proudly that yes, two newspapers come, one in Hindi and one in English. I asked him whether you read those newspapers or not? So, showing his busyness, he said that I do not have enough time to read the whole newspaper. I can read only some important news with a cursory glance. Now you tell me, what can be expected of awareness from such a reader, who is not a reader in the true sense, but only a buyer of the newspaper? 
At least it is our responsibility to be aware of our environment and our climate. Reading news and articles related to these is as important as reading sports, politics or economic news, because everything else in life rests on the environment and climate. If the air is pure then there will be no respiratory diseases. If trees and forests remain, there will be no erosion of land. If the climate remains in normal condition, there will be no drought. There will be no excessive rain either. There will be no problem of drinking water, nor will you have to leave the village and go to the city to work as a labourer. The crop will be good. When the crop is good, there will be supply of food grains due to which inflation will not increase. There will be development in every area of life. In this way, if seen seriously, climate change is a subject about which it is necessary for every citizen to be aware. It is important for everyone to know about the measures that can be taken to prevent the deadly consequences of climate change. There is no need to wander anywhere to know all this, all this material is present in the newspapers everyday. 
So, celebrating Indian Newspaper Day on January 29, we have to understand the equation of newspapers, readers and climate change and become an aware reader and a aware citizen to prevent climate change.
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 (29.01.2023)
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Thursday, January 26, 2023

वसंत पंचमी उत्सव 2023 | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

26 जनवरी 2023, वसंत पंचमी पर आदर्श संगीत महाविद्यालय में कलाविद मुन्ना शुक्ला एवं श्रीमती डॉ कविता शुक्ला जी द्वारा आयोजित मिलन समारोह एवं सहभोज का आयोजन... कल शाम से आज सुबह हुई ज़ोरदार बारिश के बावज़ूद आत्मीय वासंती महौल...🌻🎉🚩
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Wednesday, January 25, 2023

चर्चा प्लस | हम भारत के लोग और हमारा गणतंत्र | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
हम भारत के लोग और हमारा गणतंत्र
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                              
       *‘हम भारत के लोग...’ यही प्रथम शब्द हैं हमारे संविधान के। वही संविधान जो गणतंत्र की स्थापना का आधार है। हमने अपनी आकांक्षाओं, आशाओं एवं विश्वास के साथ संविधान की संरचना को स्वीकार किया और सच्चे गणतंत्र की राह में आगे बढ़ने की शपथ ली। हमने तो हमेशा अपने गणतंत्र से अनेकानेक आशाएं रखीं लेकिन क्या कभी सोचा कि हमने उन आशाओं का क्या किया जो हमारे गणतंत्र को हमसे रही होंगी? क्या हम गणतंत्र की आशाओं पर खरे उतरे हैं या फिर हम अपने गणतंत्र को अपना निजीतंत्र बनाते जा रहे हैं। कभी-कभी हमें अपने गंणतंत्र के प्रति अपने विचारों और व्यवस्थाओं का आकलन करते रहना चाहिए।*
26 जनवरी 1950 को ही देश को पूर्ण रूप से गणतंत्र यानी गणराज्य घोषित किया गया था। गणतंत्र दिवस इसलिए भी 26 जनवरी को मनाते हैं, क्योंकि इसी दिन वर्ष 1930 में भारतीय नेशनल कांग्रेस ने देश को पूर्ण रूप से आजाद होने की घोषणा की थी। पूरा संविधान तैयार करने में 2 वर्ष, 11 माह 18 दिन लगे थे। यह 26 नवंबर, 1949 को पूरा हुआ था। वहीं इसे पूरे भारत में 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। हाथ से लिखे हुए संविधान पर 24 जनवरी 1950 में 284 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे। इसमें करीब 15 महिलाएं भी शामिल थीं।
गणतंत्र का आशय है वह तंत्र जनता द्वारा निर्धारित एवं शासित हो। बहुत ही सुंदर संकल्पना। यह हम भारतीयों का सौभाग्य है कि हम विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक हैं। इस गणतांत्रिक व्यवस्था को आकार में आए अब छः दशक से अधिक का समय हो चुका है। सन् 1950 में गणतंत्र की स्थापना के बाद हमने गणतांत्रिक मूल्यों में विश्वास किया है और उसी में जीवनयापन किया है।
गणतंत्र के साथ सुनहरी आशाएं जागीं। देश तरक्की करेगा तो हम भी तरक्की करेंगे। या फिर इसके उलट कि हम तरक्की करेंगे तो देश भी तरक्की करेगा। लेकिन इस ‘हम भारत के लोग’ में से ‘हम’ पर ‘मैं’ का प्रभाव बढ़ता गया और ‘मैं’ ने ‘हम’ को निर्बल बना दिया। कभी-कभी उन्मादी भी। हमने अपनी परम्पराओं को सहेजा संवारा और उनसे सबक लिया। समयानुसार सड़ी-गली परम्पराओं को काट कर फेंका भी लेकिन उन्माद की अवस्था में पहंुचते ही हम सत्य, अहिंसा और परमार्थ के समरकरण को भुला कर हिंसक व्यवहार करने लगते हैं। जीव मात्र के प्रति उदार विचार की परम्परा के पोषक हम यदि जलीकट्टू का समर्थन करने लगते हैं तो वहीं हमारा ‘अहिंसा परमोधर्म’ का आह्वान टूटने लगता है। हमने अपने संविधान में अहिंसा को प्र्याप्त जगह दी है। परमोधर्म को भी उच्च स्थान दिया है फिर हिंसा को अपनी गौरवमयी परम्परा कहते हुए संविधान की धाराओं को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?
एक लम्बी परतंत्रता के बाद स्वतंत्रता किसी भी कीमत पर मिले स्वीकार्य थी। कीमत भी हमने चुकाई। भारतीय भू-भाग का बंटवारा हुआ। अमानवीयता का तांडव देखना पड़ा। उसके बाद गरीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोजगारी और सांप्रदायिक तनाव ने स्वतंत्रता की खुशी को कई-कई बार हताहत किया। फिर भी स्वतंत्रता विजयी रही और हमने अपना संविधान गढ़ा तथा उसे स्वयं पर लागू किया। इसके  पहले संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके। एक ऐसा गणतंत्र जिसमें नागरिकों को बराबरी का दजर्र मिले। जिसमें शासन की शक्ति किसी एक राजा अथवा अधिनायक के पास न हो कर जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों के हाथ में हो।
9 दिसम्बर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक में विभिन्न जातियों, धर्मों, आर्थिक, राजनीतिक विचारों के लोग शामिल थे और सामाजिक आधार को फैलाने की कोशिश की गई थी ताकि भारत अपने आप में जिस तरह से अद्वितीय विविधता को समेटे है उसी के अनुरूप नए गणतंत्र का निर्माण हो सके। भारतीय संविधान में नैतिकता और राजनीतिक परिपक्वता को आधार बनाया गया। गणतांत्रिक भारत में देश की विविधता और जटिलता को एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपनाया गया और ऐसा करते समय विभिन्न क्षेत्रों में बहुलतावाद का सम्मान किया गया। राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र में संघीय ढांचे और धार्मिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता के सहारे एक नए गणतंत्र के मायनों को स्पष्ट किया गया। गणतंत्र के गठन के बाद से ही नीति निर्धारकों की प्राथमिकता देश के संघीय ढांचे को बनाए रखना थी।
‘हम भारत के लोग...’ हमने अपनी आकांक्षाओं, आशाओं एवं विश्वास के साथ संविधान की संरचना को स्वीकार किया और सच्चे गणतंत्र की राह में आगे बढ़ने की शपथ ली। हमने तो हमेशा अपने गणतंत्र से अनेकानेक आशाएं रखीं लेकिन क्या कभी सोचा कि हमने उन आशाओं का क्या किया जो हमारे गणतंत्र को हमसे रही होंगी? क्या हम गणतंत्र की आशाओं पर खरे उतरे हैं या फिर हमने अपने गणतंत्र को अपना निजीतंत्र बनाते जा रहे हैं। अपनी वैश्विक छवि के साथ-साथ सबसे नीचे की पंक्ति के नागरिकों के जीवन-स्तर को ध्यान में रखते हुए इस संदर्भ में कभी-कभी हमे आत्मावलोकन भी करना चाहिए। एक लम्बी परतंत्रता के बाद स्वतंत्रता किसी भी कीमत पर मिले स्वीकार्य थी। कीमत भी हमने चुकाई। भारतीय भू-भाग का बंटवारा हुआ। अमानवीयता का तांडव देखना पड़ा। उसके बाद गरीबी, बदहाली, शरणार्थियों का सैलाब, बेरोजगारी और सांप्रदायिक तनाव ने स्वतंत्रता की खुशी को कई-कई बार हताहत किया। फिर भी स्वतंत्रता विजयी रही और हमने अपना संविधान गढ़ा तथा उसे स्वयं पर लागू किया। इसके  पहले संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नए गणतंत्र का निर्माण ऐसे हो कि देश में फैली भाषाई, धार्मिक, जातीय, सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके और लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित किया जा सके। एक ऐसा गणतंत्र जिसमें नागरिकों को बराबरी का दर्जा मिले। जिसमें शासन की शक्ति किसी एक राजा अथवा अधिनायक के पास न हो कर जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों के हाथ में हो।
गणतंत्र के साथ सुनहरी आशाएं जागीं। देश तरक्की करेगा तो हम भी तरक्की करेंगे। या फिर इसके उलट कि हम तरक्की करेंगे तो देश भी तरक्की करेगा। लेकिन इस ‘हम भारत के लोग’ में से ‘हम’ पर ‘मैं’ का प्रभाव बढ़ता गया और ‘मैं’ ने ‘हम’ को निर्बल बना दिया। कभी-कभी उन्मादी भी। हमने अपनी परम्पराओं को सहेजा संवारा और उनसे सबक लिया। समयानुसार सड़ी-गली परम्पराओं को काट कर फेंका भी लेकिन उन्माद की अवस्था में पहंुचते ही हम सत्य, अहिंसा और परमार्थ के समरकरण को भुला कर हिंसक व्यवहार करने लगते हैं। जीव मात्र के प्रति उदार विचार की परम्परा के पोषक हम यदि जलीकट्टू का समर्थन करने लगते हैं तो वहीं हमारा ‘अहिंसा परमोधर्म’ का आह्वान टूटने लगता है। हमने अपने संविधान में अहिंसा को प्र्याप्त जगह दी है। परमोधर्म को भी उच्च स्थान दिया है फिर हिंसा को अपनी गौरवमयी परम्परा कहते हुए संविधान की धाराओं को कैसे सुरक्षित रख सकते हैं?

हमारे गणतंत्र का महत्वपूर्ण अंग तंत्र है। लेकिन आजकल ऐसा लगता है जैसे तंत्र अनियंत्रित होता जा रहा है। उसे अपनी मनमानी करने से रोकने का दायित्व जिनका है कहीं कहीं तो वे खुद ही भ्रष्टाचार की मिसाल निकल आते हैं। तंत्र के इस कथन की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज के दौर में सत्ता दल का राजनैतिक हस्तक्षेप प्रशासनिक अमले पर इतना अधिक रहता हैं कि वे चाहकर भी निष्पक्ष और निर्भीक होकर काम नहीं कर सकते हैं। कोई भी जनप्रतिनिधि जब एक बार अपने राजनैतिक हित साधने के लिये तंत्र का उपयोग कर लेता हैं तो फिर गणतंत्र के मूल्यों में गिरावट आने लगती है। आर्थिक मुद्रास्फीति से कहीं अधिक घातक होती है नैतिकता की स्फीति।किसी भी समस्या को हल करने के लिये गण को तंत्र का साथ देने और तंत्र को त्वरित निराकरण के प्रयास करने आवश्यक होते हैं। आज महंगाई सबसे बड़ी समस्या हैं। हालांकि विश्व स्तरीय आर्थिक मंदी, अंर्तराष्ट्रीय बाजार की उथल पुथल, नोटबंदी के बाद की आर्थिक स्थिति ने देश को भी हिला कर रख दिया है। लेकिन इतना कह देने मात्र से सरकार के कर्तव्यो की इतिश्री नहीं हो जाती है। और ना ही केन्द्र और राज्य सरकार एक दूसरे पर दोषारोपण करके बच सकतीं है। गण चुस्त और दुरुस्त रहें तथा तंत्र पूरी मुस्तैदी से देश के विकास और आम आदमी की खुशहाली के लिये संकल्पित हो, तभी देश एक बार फिर अपने स्वर्णिम मुकाम पर पहुंच सकेगा। बहरहाल, अब समय आ गया है कि हमें खुद को धोखा देने से रोकना होगा और सही मायने में खुद के लिए तय करना होगा कि हम अपने गणतंत्र के अनुरूप एक सही तथा अच्छे नागरिक कैसे साबित हो सकते हैं।
यह सच है कि कोई भी तंत्र हो उसकी अपनी व्यक्तिगत समस्याएं होती हैं। लेकिन गणतंत्र की परिकल्पना में संवैधानिक समस्याओं के लिए कई रास्ते खुले रखे गए। संशोधनों के द्वारा संवैधानिक ढांचे में लचीलापन भी बनाए रखा गया। फिर भी प्रत्येक नए चुनाव में चाहे वह लोकसभा का हो या विधान सभा का या फिर किसी पंचायत अथवा निगम का, गरिमा के सीमाएं चटकती मिली हैं। गणतंत्रता के क्या है मायने आज हमारे देश में। इतने लम्बे अरसे में कितने नियमों का ईमानदारी से हमने निर्वाह किया है और कितने ऐसे संवैधानिक नियम है जिनको हमने संविधान के पन्नों पर लिख कर भुला दिया है। हमारा देश भारतवर्ष एक जनतांत्रिक देश है। जहां जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा ही देश की शासन व्यवस्था चलायी जाती है। गणतंत्र दिवस हमारे देश के इतिहास का वो दिन है, जिस दिन संविधान पूर्णरुपेण लागू किया गया था। देश की समस्त गतिविधियां इन संवैधानिक नियमों के आधार पर ही सुचारु ढंग से संचालित होती है। संविधान हमे जीने के तौर तरीके सीखाता है। एक सभ्य और कर्मठ राष्ट्र के सपने को साकार करता है हमारा संविधान। देश की गणतंत्रत को बनाये रखने हेतु प्रशासन के साथ साथ जनता का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। संविधान के नियम सबों के लिए बराबर होते है। वो किसी भी प्रकार के जातिभेद या वर्चस्व की भावना से ऊपर होता है। फिर भी भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और विभिन्न प्रकार के संकट आज भी मुंहबाए खड़े हैं। अगर हम सिर्फ अपनी उन्नति के बारे में सोचते है तो ये हमारी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है। हमे अपने देश और समाज के विषय में भी सोचने की जरूरत है। हमें ऐसे कार्यों की ओर स्वयं को अग्रसर करना है, जिनमें स्वयं के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति भी सम्मिलित हो। जैसे हमारा संविधान हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों की समझ देता है। वैसे ही हमें भी देश के प्रति अपनी भावना परिलक्षित करनी चाहिए। युवावर्ग जो कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति और उसके भविष्य का एकमात्र कार्यवाहक होता है।युवाओं की सहनशीलता, कर्तव्यपरायणता और कर्मठता ही राष्ट्र की अखण्डता रुपी महल के लिए ईंट का कार्य करते है। एक एक ईंट मिलकर ही एक विशाल महल का निर्माण करता है। आज जबकि हम इक्कीसवी सदी में कदम रख चुके है। तकनीक के साथ साथ लोगों की मानसिकता भी अब बदल चुकी है। ऐसे समय में गणतंत्र दिवस को सिर्फ एक राष्ट्रीय दिवस अथवा एक दिन का उत्सव मान कर, टीवी के छोटे पर्दे पर झांकियां देख कर, नेताओं के भाषण सुन कर भुला देना और दूसरे दिन से यह भी याद न रखना कि हमारा कोई संविधान भी है, हमारा कोई गणतंत्र भी है जिसके प्रति हम उत्तरदायी हैं, यह हमारी नासमझी ही नहीं अपराध भी है। आज वह समय है जब भारत समूचे विश्व की अगुवाई करने की स्थिति में आता जा रहा है। ऐसे समय में हमें अपने गणतांत्रिक मूल्यों को गंभीरतापूर्वक सहेजना होगा। धर्म, जाति, वर्ग की दकियानूसी सोच से ऊपर उठना होगा।
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#गणतंत्रदिवस

Tuesday, January 24, 2023

पुस्तक समीक्षा | हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 24.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका डॉ. सुजाता मिश्र की पुस्तक "हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
विचारों के बंद दरवाज़े पर ज़ोरदार दस्तक देती पुस्तक 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक    - हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा 
लेखिका   - डाॅ. सुजाता मिश्र
प्रकाशक   - हंस प्रकाशन, बी-336/1, गली नं.3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली-110094
मूल्य      - 695/- 
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    ‘‘हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा’’- वैचारिक आंदोलन का आग्रह करती यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसे लिखा है युवा लेखिका डाॅ. सुजाता मिश्र ने। सुजाता के पास अपनी एक मौलिक दृष्टि है। वे प्रत्येक विषय को अपनी तार्किकता पर तौलती हैं फिर उस पर कोई टिप्पणी करती हैं। उनकी ‘‘18 समीक्षाएं’’ के नाम से एक समीक्षा पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। डाॅ. सुजाता मिश्र की यह नवीनतम पुस्तक हिन्दी सिनेमा में स्त्री के बदलते स्वरूप का अकलन करती है। इस पुस्तक में उन्होंने अठारह फिल्मों का चयन किया है जिन्हें आधार बना कर वे समाज में स्त्री की दशा-दिशा की पड़ताल करती हैं। ये अठारह फिल्में ‘‘मदर इंडिया’’ से आरम्भ हो कर ‘‘त्रिभंग’’ पर जा कर ठहरती हैं। गहन मंथन के बाद चयनित ये फिल्में विविध कालखंड का प्रतिनिधित्व करती हैं।   

वस्तुतः हिन्दी सिनेमा एक लम्बी यात्रा तय कर चुका है। इसके साथ ही यात्रा की है स्त्री के सामाजिक स्वरूप स्वरूप ने। आमतौर पर सिनेमा में वही दिखाया जाता है जो कुछ समाज में घट रहा हो। कभी-कभी कुछ उत्साही निर्माता-निर्देशक जोखिम उठाते हुए लीक से हट कर सिनेमा गढ़ते हैं। ऐसी फिल्मों के केन्द्र में होती है स्त्री। चक्र, दमन, बाज़ार, मंडी, रजनीगंधा, माया मेमसाहब, फायर आदि ऐसी ही हिंदी फिल्में हैं जिनमें स्त्री जीवन को केन्द्र में रखा गया। यद्यपि लेखिका ने इनसे हट कर फिल्मों को चुना है। हिंदी सिनेमा ने स्त्री को कभी परंपरावादी रूप में दिखाया तो कभी एक विद्रोही के रूप में। सच भी यही है कि आज की स्त्री अपने परंपरावादी घुटन भरे माहौल से बाहर निकल कर खुद को जीना चाहती है। देखा जाए तो, स्त्री इस समाज से बहुत अधिक कुछ नहीं चाहती है। बस, अपने अस्तित्व की पहचान, अपने कोख पर अधिकार और अपने प्रति की जाने वाली हिंसा का समापन। वह मात्र इतना ही जताना चाहती है कि वह भी पुरुषों के समान एक इंसान है। यदि बायोलाॅजिकली शारीरिक शक्ति उसमें कम है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि पुरुष उसे मारता-पीटता रहे और उसके साथ पशुवत व्यवहार करता रहे। जबकि देखा जाए तो सबसे बड़ी बायोलाम्जिकली खूबी स्त्री के पास ही है, और वह है मातृत्व धारण करने तथा संतान को जन्म देने की क्षमता। लेकिन पुरुषवादी सामज ने उसकी इस खूबी पर भी कब्ज़्ाा कर रखा है। एक स्त्री अपनी इच्छानुसार गर्भधारण अथवा गर्भपात नहीं करा सकती है। बलात्कार को तो गोया पुरुष के द्वारा किया गया अपराध नहीं वरन स्त्री के लिए अभिशाप की तरह देखा जाता है। पुरानी हिंदी फिल्मों में एक टिपिकल स्टोरी होती थी जिसमें हीरो की भोली-भाली बहन के साथ खलनायक बलात्कार करता था और वह पीड़िता बहन ‘‘मुंह दिखाने लायक नहीं रही’’ की धारणा के चलते आत्महत्या कर लेती थी। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी सिनेमा का यह स्टीरियो टाईप मानक टूटने लगा है और आज की स्त्री चाहे-अनचाहे यौनिक संबंधों को ले कर अपने अस्तित्व को मिटाने का विरोध करती है। आज की पीढ़ी जो घर से दूर जा कर पढ़ती है, रोजी-रोजगार से जुड़ती है, उसके लिए यौनिक संबंध ‘‘टैबू’’ नहीं रह गए हैं। ‘‘शुद्ध देसी रोमांस’’ जैसी कामर्शियल फिल्में भी इस यथार्थ को पूरे सलीके से सामने रखती हैं। इस सारे परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए डाॅ. सुजाता मिश्र ने अपनी पसंद के अनुरुप फिल्मों का चयन किया है। ये अठारह फिल्में हैं- मदर इंडिया, साहिब बीबी और गुलाम, बंदिनी, निकाह, आखिर क्यों?, मिर्च मसाला, अस्तित्व, डोर, इंग्लिश-विंग्लिश, क्वीन, पाच्र्ड, निल बटे सन्नाटा, एंग्री इंडियन गाॅडेसेस, लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का, पटाखा, गाॅन केश, थप्पड़ और त्रिभंग। 

अठारह फिल्मों की मीमांसा करते हुए लेखिका ने प्रत्येक लेख का स्वतंत्र उपशीर्षक दिया है। जैसे ‘‘मदर इंडिया’’ का उपशीर्षक है-‘‘स्त्री जीवन संघर्ष की गाथा’’। निर्माता निर्देशक महबूब खान की फिलम ‘‘मदर इंडिया’’ सचमुच एक कालजयी फिल्म है जो तत्कालीन समाज में स्त्री की दलित अवस्था को बखूबी दर्शाती है। एक स्त्री अपने परिवार का पेट भरने के लिए हल में बैल की जगह अपने कंधे पर रख कर खेत जोतती है, बाढ़ से जूझती है, देह लोलुप पुरुषों का समाना करती है जबकि उसका पति अपने जीवन से घबरा कर आत्महत्या कर लेता है। लेकिन वह स्त्री एक मां है जो अपने बच्चों के लिए सबकुछ सहन करती है। वहीं यदि उसे सहन नहीं होता है तो अपने बेटे का किसी लड़की पर बेजा कब्जा करने की कोशिश करना। यह फिल्म स्त्री स्वाभिमान की कथा कहती है। इसी तथ्य की ओर संकेत करती हुई लेखिका लेख के अंत में लिखती हैं-‘‘छोड़ देना आसान होता है, मुश्क़िल होता है थामें रहना। मुश्किल होता है निभाना जिम्मेदारियां और मुश्किल होता है इंतज़ार उसके लौट आने का जो बिना बताए ही कहीं चला गया हो।’’ इस तरह की कठिनाइयों को स्त्रियों ने हमेशा ही जिया है जिसके लिए लेखिका परितक्त्या यशोधरा की याद दिलाती हैं। यहां सुजाता एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाती हैं कि खेतों में काम करने वाली स्त्रियों को कामकाजी क्यों नहीं माना जाता है?

‘‘साहिब, बीबी और गुलाम’’ में वह स्त्री है जो हर कीमत पर अपने वैवाहिक मूल्यों को बचाना चाहती है। वह अपने विलासी पति को अपने प्रति आकर्षित करने के लिए शराब तक पीने लगती है। विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म की नायिका मीनाकुमारी अभिनीत छोटी बहू का किरदार हर पल उद्वेलित करता है। बार-बार प्रश्न उठता है कि एक विलासी पति के लिए क्या स्वयं को तिल-तिल कर मिटा देना जरूरी है? इसका उत्तर वे सामाजिक स्थितियां देती हैं जिसमें निहायत नकारा ही सही लेकिन स्त्री के लिए एक पति होना जरूरी है। छोटी बहू वह सिंदूर भी लगाती है जो वशीकरण का दावा करता है। अवसरवादिता यह कि सिंदूर फैक्ट्री का मालिक आर्यसमाजी है। यानी एक ओर वह स्त्रियों की प्रगति का हिमायती है और वहीं दूूसरी ओर एक ऐसा व्यवसायी जो स्त्री की निर्बल मनोदशा का लाभ उठाकर सिंदूर को वशीकरण वाला कह कर बेचता है। दरअसल एक स्त्री की कमजोरी का फायदा सब उठाना चाहते हैं। लेखिका द्रवित हो कर लिखती हैं कि -‘‘वैसे भी इस पुरुषवादी समाज में स्त्रियों की सुनने वाला है ही कौन?’’

चारु चंद्र चक्रवर्ती के उपन्यास ‘तमसी’ पर आधारित विमल राॅय की फिल्म ‘‘बन्दनी’’ में महिला कैदी कल्याणी की कथा है जो जेल में एक टीबी पेशेन्ट की सेवा करती है और इसी सिलसिले में डाॅक्टर के संपर्क में आती है। डाॅक्टर भी उससे प्रभावित होता है किन्तु दोनों के बीच भावनात्मक संबंध ही रहते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन पूर्वाग्रह के चलते लोगों को यह संबंध दोषपूर्ण दिखाई देने लगता है। आज भी नज़रिया इससे भिन्न नहीं है। डाॅ. सुजाता ने इस लेख का उपशीर्षक दिया है -‘‘कैद में स्त्री मन’’। देह कैद में रहे तो फिर भी सहनीय होता है लेकिन जब मन को कैदी बनाया जाने लगता है तो स्थियां त्रासद हो जाती हैं। लेखिका ने लेख के अंत में ‘‘दिल वाले दुल्हनिया...’’ की सिमरन को याद करते हुए जो तुलना की है उससे समय की खाई एक झटके में भरती हुई दिखाई देती है।

डाॅ अचला नागर के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘‘निकाह’’ ने तीन तलाक को रद्द किए जाने के कई वर्ष पूर्व एक गहन विमर्श प्रस्तुत किया था। तीन तलाक की विडम्बना और स्त्री के मान-सम्मान का हनन तथा इन सबके विरुद्ध एक मुस्लिम स्त्री का डट कर खड़े होना - इन सब पक्षों के लिए इस फिल्म का विमर्श के लिए चुन कर लेखिका ने भारतीय स्त्रियों की समग्रता को सामने रखा है। वहीं, ‘‘आखिर क्यों’’ को ‘‘शक्ति का नाम ही नारी है’’ का उपशीर्षक देते हुए लेखिका ने इस फिल्म के रूप में स्त्री के स्वाभिमान के एक और पक्ष को चुना है। पुरुष ने यह छूट स्वयं को दे रखी है कि वह जैसा चाहे जीवन जी सकता है, विवाहेत्तर संबंध रख सकता है, पत्नी का त्याग कर सकता है किन्तु स्त्री यदि अपने ढंग से अपना जीवन जीना चाहे तो यह उसे सहन नहीं होता है। यह अमूमन समाज के हर तबके की दशा है, चाहे उच्चशिक्षित तबका हो या अशिक्षित। फिल्म ‘‘मिर्च मसाला’’ इसी तथ्य पर आधारित है कि अकेली स्त्री को हर पुरुष अपनी संपत्ति बना लेना चाहता है। ‘‘मिर्च मसाला’’ की अशिक्षित सोनबाई देह लोलुप सुबेदार का विरोध करती है। शुरू होता है एक चुनौती भरा संघर्ष। उसके संघर्ष में अंततः गांव की और स्त्रियां भी शामिल हो जाती हैं और सूबेदार पर मिर्चपाउडर डाल कर विरोध का शंखनाद कर देती हैं। यहां मिर्च शोषण के विरुद्ध हथियार का प्रतीक है। लेखिका टिप्पणी करती हुई लिखती हैं कि -‘‘कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों में ही हमें अपनी शक्तियों और क्षमताओं का वास्तविक बोध होता है।’’

चाहे ‘‘अस्तित्व’’ हो, ‘‘क्वीन’’ हो, ‘‘डोर’’ हो या ‘‘पार्च्ड’’ हो ये सभी फिल्में स्त्री को अपने क्षमताओं के प्रति क्रमिक जागरूक होते हुए दिखाती हैं। ‘‘एंग्री इंडियन गाॅडेसेस’’ स्त्री स्वातंत्र्य की कथा कहती है। यह सुशिक्षित कामकाजी स्त्रियों के अपने ढंग से जीने की शैली पर केन्द्रित है। ‘‘लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का’’ के पोस्टर पर काफी विवाद हुआ था। लिपिस्टिक को एक आपत्तिजनक संकेत के साथ चित्रित किया जाना कथानक की गंभीरता को हल्का करने वाला था फिर भी यह फिल्म स्त्री की दमित इच्छाओं को मुखरता प्रदान करने वाली थी। ‘‘पटाखा’’, ‘‘गाॅन केश’’, ‘‘थप्पड़’’ और ‘‘त्रिभंग’’ जैसी फिल्में मानो यह घोषणा करती हैं कि अब बस! स्त्री अब और सहन नहीं करेगी! घिसे-पिटे, लिजलिजे पुराने मानक टूटने चाहिए। अब वह परिदृश्य हो जिसमें स्त्ऱी और पुरुष सही अर्थ में समानता से जिएं। 
डाॅ. सुजाता मिश्र ने अपनी इस पुस्तक ‘‘हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा’’ में सभी अठारह फिल्मों की कहानी देते हुए उनकी स्त्रीवादी दृष्टि से विवेचना की है। यह पुस्तक हिन्दी सिनेमा के जरिए स्त्रियों के अस्तित्व के स्वरूप और संघर्ष पर गहन विमर्श का आग्रह करती है। इस पुस्तक में रोचकता के साथ ही कई विशेषताएं हैं। प्रत्येक लेख में लेखिका का आक्रोश खुल कर प्रकट हुआ है। वे स्त्रीविरोधी मानसिकता और स्त्री को महज उपभोग की वस्तु समझे जाने का प्रतिरोध करती हैं। लेखिका ने भाषाई मुद्दे को परे रखते हुए हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हुए मूल कथ्य पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा है। लेखिका ने ‘‘सेक्सुअल रिलेशन’’ जैसे शब्दों का ना केवल प्रयोग किया है अपितु यौनिक संबंधों में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा पर विस्तृत चर्चा भी की है। लेखिका के विचारों का यह खुलापन और प्रखरता विषय को धारदार ढंग से प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध हुई है। इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्यों कि यह मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि विचारों के बंद दरवाजे पर एक ज़ोरदार दस्तक है। सनद रहे कि हर परिविर्तन बंद दरवाज़ों के खुलने पर ही होता है।                          
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Monday, January 23, 2023

पुस्तक चर्चा | मुख्य वक्ता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा - डाॅ. सुजाता मिश्र की यह पुस्तक वैचारिक आंदोलन का आग्रह करती और स्त्रीविमर्श का नया प्रतिमान गढ़ती हैं। डॉ सुजाता के पास अपनी एक मौलिक दृष्टि है। उन्होंने हिंदी सिनेमा में स्त्री की स्थिति को अपनी तार्किकता की कसौटी पर कसा है, फिर उसे लिखा है। इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि विचारों के बंद दरवाजे पर एक ज़ोरदार दस्तक है।" - मुख्य वक्ता के रूप में  डॉ (सुश्री) शरद सिंह ने  यानी मैंने पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा।    
       अवसर था सिविल लाइंस स्थित होटल वरदान  के सभागार में श्यामलम् और अ.भा. महिला काव्य मंच के संयुक्त आयोजन में  डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में अतिथि विद्वान डॉ.सुजाता मिश्र द्वारा लिखित पुस्तक "हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा" पर चर्चा का।
  कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे सागर संभाग के कमिश्नर मुकेश शुक्ला जी, अध्यक्षता की डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में हिंदी एवं संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो.आनंदप्रकाश‌ त्रिपाठी जी ने तथा विशिष्ट अतिथि थीं डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान अध्यक्ष प्रो. चंदा बेन‌‌ जी। आयोजन का बेहतरीन संचालन किया स्वशासी महिला महाविद्यालय की प्राध्यापक एवं महिला काव्य मंच की अध्यक्ष डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी जी ने।
छायाचित्र सौजन्य : श्री मुकेश तिवारी एवं श्री माधवचंद्र चंदेल ... आप दोनों का हार्दिक आभार 🌷🙏🌷

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Sunday, January 22, 2023

Article | Sustainable Energy For Green Climate & Clean Climate | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

Article
 Sustainable Energy For Green Climate & Clean Climate
       -    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"
 
*Solving the energy crisis is one of the most urgent undertakings of the 21st century. There is a need to adopt a solution that does not harm the environment and climate, keep them clean and hygienic. This solution should be in the form of energy sources that never run out and are available continuously. If we start using sustainable energy sources in our factories, all resources of development and also in our daily life, then our future can be secured in every way against energy crisis. Also we can get green and clean climate. That's why it is important to know about sustainable energy sources.*
 
There is no meaning of development without energy. The whole structure of development all over the world rests on energy. That is why now it is becoming a matter of concern whether the traditional sources of energy will be able to provide energy for a long time? The faster the all-round development has taken place, the faster the consumption of energy has also increased. That is why now the quantity of conventional energy ie fossil energy is decreasing. Before it gets completely exhausted and as a result the wheel of development stops, we have to adopt alternative sources of energy. The issue of sustainable energy dominated the investors' meet held in Indore, Madhya Pradesh, India. 
The Government of India also recognizes that a transition to a more inclusive, sustainable, affordable and secure global energy system is essential. In the annual meeting of the World Economic Forum, India's Union Minister of Power and New and Renewable Energy was emphasized the need for global energy. Along with this, he was spoke on the change in the energy journey in India, including decarburization (drastically reducing the emissions of carbon dioxide and other greenhouse gases), green storage, hydrogen mission, energy security, supply chain and investment possibilities and among other things talked about the plan.
What is the difference between conventional energy, renewable energy and sustainable energy? A common assumption is that “renewable” and “sustainable” are synonyms. They both aim to reduce global greenhouse gas emissions (GHGs) and mitigate climate change, but the differences in their definitions and different implications on our environment. So, Regular or Conventional energy is generated from fossil fuels, including coal, oil, and natural gas. Renewable or Green energy is generated from sources like the sun, wind, and water. Renewable energy and sustainable energy are often used interchangeably, even among industry experts and veterans. There is some overlap between the two, as many sustainable energy sources are also renewable. However, these two terms are not exactly the same. Renewable energy comes from sources that naturally renew themselves at a rate that allows us to meet our energy needs Includes biomass, geothermal, hydropower, solar and wind. Not all renewable energy is also sustainable, but improving the sustainability of renewable and fossil fuels can have environmental benefits.
Renewable energy is defined by the time it takes to replenish the primary energy resource, compared to the rate at which energy is used. This is why traditional resources like coal and oil, which take millions of years to form, are not considered renewable. On the other hand, solar power can always be replenished, even though conditions are not always optimal for maximizing production. Examples of renewable energy sources are- 
Biomass: Organic material that is burned or converted to liquid or gaseous form. Modern examples of biomass include ethanol and biodiesel, which are collectively referred to as bio-fuels.
Geothermal: Heat produced by decaying radioactive particles found deep within the earth. Geothermal energy can be used as a direct heat source or to generate electricity.
Hydropower: One of the oldest sources of electricity, requiring not only massive amounts of water but also a formidable amount of force. Hydropower was the largest source of renewable electricity until 2019.
Solar: A favored green alternative, although production requires a large surface area and consistent sunlight. Solar farms should be combined with storage solutions in order to harness the sun’s potential. Like geothermal energy, solar power is often used as a direct heat source and electricity generator.
Wind: Utilizes turbines to convert the wind’s kinetic energy into mechanical energy.  Alternatively, the mechanical energy can be rotated at high speeds to produce electricity.
Sustainable energy is derived from resources that can maintain current operations without jeopardizing the energy needs or climate of future generations. The most popular sources of sustainable energy, including wind, solar and hydropower's, these are also renewable. 
If energy is only renewable but not sustainable means it takes thousands, millions of years to regenerate, then it will not be called sustainable energy source. Renewable and sustainable energy sources are alternatives to fossil fuels and aid in the fight against global climate change because they help curtail GHGs. Knowing the difference between renewable energy and sustainable energy makes it easier for us to choose a better source of energy for our present and future.
In the summary, renewable energy sources are flow-limited because there is a limited amount of energy available per unit of time. While, sustainable energy sources meet the needs of our current generation without compromising the ability of future generations to meet their own needs. They aim to preserving the natural integrity of the environment. So we should go for sustainable energy in daily life too for Green Climate and Clean Climate.
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 (22.01.2023)
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Thursday, January 19, 2023

बतकाव बिन्ना की | बात को हो गओ बातन्ना | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"बात को हो गओ बातन्ना"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
बात को हो गओ बातन्ना                                                      
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
हर बेरा जेई कहो जात आए के संकरात के संगे मुट्ठी भर ठंड चली जात आए। मनो ई बेरा सो मुट्ठी भर ठंड जाबे के जांगा बोरी भर के ठंड चली आई। संझा होत-होत ज्वान-जहान लों कंपन लगत, सो बूढ़ों-ठाढ़ों की तो ने पूछो। पैलऊं संझा होत-होत घरों में गुरसी जला लई जात्ती। ऊ टेम पे टीवी, मोबाईल ने हतो। सो सबरे गुरसी खों घेर-घार के बैठ जात्ते और गपियात रैत्ते। अब सो एक कमरा में दो जने बैठे होंय सो अपनो-अपनो मोबाईल पे टिपियाबे में जुटे रैत आएं। बाकी कल संझा बड़ो मजो आओ। भऔ का, के संझा की बिरियां भैयाजी ने मोय टेर लगाई। मैंने सोची के कछु काम हुइए।
‘‘आओ भैयाजी!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘आ नईं रै हम! तुमाई भौजी ने अलाव जलाई है औ तुमें बुलाओ है।’’ भैयाजी ने कही।
अलाव की सुन के मोय मजो आ गओ। जाने कितेक साल हो गई के मैंने अलाव नईं तापो।
‘‘हऔ चलो!’’ मैं तुरतईं तैयार हो गई। सूटर सो पैनई रखों हतो, शाल सोई संगे धर लई। कहूं मूंड ढंाकबे परो सो काम आहे।
भैयाजी के घर के भीतर वारे आंगन में पौंच के मैंने देखी के उते एक बड़े से लोहा के तसला में भौजी ने अलाव जला रखो हतो। उनको भीतर को आंगन कच्चो आए सो कोनऊं सल्ल ने हती।
‘‘जे अच्छो करो भौजी आपने!’’ मैंने भौजी से कही।
‘‘तुमईं तो एक दिना कै रई हतीं के आजकाल अलाव तापबे खों नईं मिलत। सो, हमने सोची के हमाई ने जला लें अलाव! आग तापबी, मोंमफली औ भूंजा खाबी औ खूबई गपियाबी। काय कैसी रई?’’ भौजी मुस्कात भई बोलीं।
‘‘रामधई भौजी! आप जैसी भौजी सबई खों मिले! मोरो तो जे सब सुनई के जी जुड़ा गओ।’’ कैत भए मोरी आंखन में अंसुआं भर आए।
‘‘चलो लेओ! चा पियो!’’ भैयाजी जबलों चाय बना लाए। मनो भैयाजी बड़ी नोनी चाय बनाउत आएं।
‘‘औ का चल रई बिन्ना? एक दिना तुम बता रई हतीं के तुमाए एक जान-पैचान के प्रोफेसर साब कोनऊं पुरानी पोथी ढूंढ रए। मिल गई उने?’’ को जाने कां से भैयाजी खों याद आ गई।
‘‘हऔ! एकाद ठइयां मिली, बाकी ढूंढ रए। होत का आए के इते लोगन खों देत नईं बनत। अब आपई सोचो के मनो आपके बब्बा की लिखी भई कोनऊं पोथी आए। आपको ऊकी कोनऊं समझ नईयां, सो आप का करहो? जा तो रद्दी वारे खों बेंच देहो, जा फेर कहूं चोखरवां के लाने छोड़ देहो। अरे, ईसे सो साजो आए के ऊ पोथी कोनऊं ऐसे मानुस खों दे देओ जो ऊकी पूछ-परख करे। ऊको फेर के छपवा देवे। ईसे का हुइए के सबरों खों पता परहे के आपके बब्बा कित्ते नोने कवि हते। मगर काय खों, इते तो कोनऊं से मांगों सो बो ऐसे हेरत आए के मनो ऊसे कोनऊं गलत बात कर दई होय।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, पोथी से मोय याद आई, बो एक कोन सी कविता तुम सुनात रैत्ते?’’ भौजी बोल परीं औ भैयाजी से पूछन लगीं,‘‘बा पोथन्ना-मोथन्ना टाईप ऊमें कछु रओ!’’
‘‘अच्छा बो!! समझ गए हम के तुम कोन सी कविता की बात कर रईं। बो, कविता नोई कहनात आए।’’ भैयाजी खुस होत भए बोले।
‘‘हऔ, कछू होय, कविता चाए कहनात, तुम तो हमें बोई सुनाओ! मुतकी सालें हो गईं, सुनी नइयां तुमसे।’’ भौजी खांे मनो अपने पुराने दिन याद हो आए।
‘‘कोन सी कहनात?’’ मोय सोई सुनबे की ललक भई।
‘‘अरे तुमने सोई सुनी हुइए। बाकी अब उत्ती नई बोली जात। बो जे आए-
इक हते राम, इक हते रावन्ना,
जे हते ठाकुर, वे हते बामन्ना।
उनने उनकी हरी लुगाई,
उनने उनकी नास कराई।
बात को हो गओ बातन्ना,
तुलसी ने लिख दई पोथन्ना।’’
- भैयाजी ने कहनात सुना दई।
‘‘अरे हऔ! ऐसी कई तो जात्ती पैले! कैसी मजे-मजे की कहनात चलत्तीं पैले औ कोनऊं बुरौ नईं मानत्तो! जे सो सब हंसी-मजाक की बतकाव रईं।’’ं मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, औ तुमें पतो नइयां के तुमाई भौजी ईके जवाब में कोन सी कहनात कैत्तीं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन सी?’’ मैंने पूछी।
‘‘अपनी भौजी सेई पूछो!’’ कैत भए भैयाजी हंसन लगे।
‘‘हऔ, ईमें हंसबे की का बात? मोय सोई जवाब आत्तों। जब जे ई वाली कहनात जे सुनात्ते सो मैं कैत्ती-
आग लगे तोरी पोथिन मैं ।
जिउ धरौ मोरो रोटिन में ।।’’
‘‘भौतई नोनी भौजी! जे तो पूरो ठक्का ठाई जवाब ठैरो!’’ मैंने भौजी की तारीफ करी।
‘‘चलो जेई पे एक औ कहनात सुनो!’’ अब भैयाजी खों जोश आ गओ कहानो। बे कहनात सुनात भए बोले-
‘‘ अत कौ भलौ न बोलबो, अत की भली न चुप्प ।
 अत कौ भलौ न बरसबो, अत की भली न धुप्प ।।’’
‘‘अईई! ई जड़कारे में पानी बरसबे वारी कहनात सो आप बोलोई नईं। मोय सुन केई ठंड लगन लगी।’’ मैंने भैयाजी से ठिठोली करत भई कई।
‘‘हऔ, सो जे सुनो!’’ भैयाजी खों मनो कहनात को पिटारो खुल गओ। बे सुनान लगे-
            ‘‘ कंडा बीने लक्ष्मी,  हर जोतें धनपाल,
अमर हते सो मर गये, रए ठनठन गोपाल।’’
‘‘हऔ, ईकी सो पूरी किसां आए। मोय पतो आए।’’ मैंने कही औ उने पूरी किसां सुना दई।
सो ई टाईप से कल संझा से जो अलाव की बैठक लगी सो रात एक बजे तक चलत रई। हमने तीन-चार दफे सो चाय पी। चना के भूंजा खाए औ मोंमफल्ली खाई। भौजी ने मुंगौड़ी सोई बनाई रई, सो बे खाईं। रामधई बरसों बाद इत्तों मजो आओ के का बताएं। कभऊं-कभऊं आप ओरन खों सोई ऐसो करो चाइए। खूबई किसां याद आहें औ खूबई कहनातें याद आहें। औ खूबई बात को बतन्ना बनहे।
मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मैंने सोई सोच लई आए के अगली मंगल खों मोए मोरी तरफ से अलाव-पार्टी रैहे जीमें भैयाजी औ भौजी चीफ गेस्ट हुइएं। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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Wednesday, January 18, 2023

चर्चा प्लस | भीष्म साहनी और हमारा साहित्य सरोकार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
भीष्म साहनी और हमारा साहित्य सरोकार
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       *भीष्म साहनी के साहित्य को पढ़ा जाना एक युग के साहित्य को पढ़े जाने के समान है। जब हम उनके उपन्यास ‘तमस’ से हो कर गुज़रते हैं तो गोया विभाजन की त्रासदी को स्वयं भुगतते हैं। अपने समय को लेखबद्ध करने वाले ऐसे साहित्यकार के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या होना चाहिए, यह तय करता है कि हमारा साहित्य सरोकार कैसा है? क्या हम भीष्म साहनी जैसे साहित्यकारों को याद करने के लिए किसी विशेष दिन की प्रतीक्षा करते हैं या उस दिन को भी हम किसी पूर्वाग्रह के चलते कहीं छिपा देते हैं? यदि ऐसा है तो हमें अपने साहित्य सरोकार की फिर से पड़ताल करने की ज़रूरत है।*
मुझे समझ में नहीं आता है कि किसी भी साहित्यकार को याद करने के लिए उसकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि का होना ही क्यों ज़रूरी है? एक साहित्यकार जिसका अवदान सर्वकालिक होता है उसे सर्वकालिक ही याद किया जाना चाहिए। कम से कम मैं तो यही मानती हूं। लेकिन परिपाटी कुछ इसी तरह की चल पड़ी है कि जब किसी नामचीन साहित्यकार की जन्म तिथि या पुण्य तिथि हो तभी हम उसे स्मरण करने का आयोजन करते हैं। आयोजन के प्रतिभागी अपनी स्मरणशक्ति पर ज़ोर डालते हैं। जिनका उस संबंधित साहित्यकार से कोई मेलजोल रहा हो वह अपने संस्मरण याद करता है। शेष प्रतिभागी उसके साहित्य और जीवन को टटोलते हैं। किताबों में या फिर इंटरनेट में। एक दिन, एक या एक से अधिक आयोजन। बड़ा तामझाम। दूसरे दिन अख़बारों में आयोजन के सामचार तक दिलचस्पी। तीसरे दिन उस साहित्यकार से संबंधित स्मृतियों को सुला दिया जाता है, अगले वर्ष के आयोजन के लिए। अर्थात् चाहे जन्म तिथि हो या पुण्य तिथि हम बरसी ही मनाते हैं।
कई बार यूं भी होता है कि साहित्यकार के विचारों को विशेष विचारधारा से जोड़ कर देखा जाने लगता है और तब सत्ताशील राजनीतिक दल के विचारों वाले साहित्यकार तो याद किए जाते हैं किन्तु उसके विपरीत विचारधारा के साहित्यकार को याद करने का जोखिम मोल नहीं लिया जाता है। यहां यह समझना कठिन हो जाता है कि साहित्य सरोकार साहित्यकार और उसकी विचारधारा से होना चाहिए या सत्ताशील राजनीतिक दल की विचारधारा से? आखिर हमारे साहित्य सरोकार हैं क्या? क्या हमारे लिए यह मायने रखता है कि एक साहित्यकार ने क्या लिखा है, या फिर यह मायने रखता है कि उसकी विचारधारा वामपंथी है, दक्षिणपंथी है, उत्तरपंथी है या पश्चिमपंथी है? कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने साहित्य सरोकार को स्वयं ही समझ नहीं पा रहे हैं।  खैर, यदि देश की स्वतंत्रता के आस-पास के साहित्यकारों के बारे में सोचें तो याद आ जाएगा कि एक थे भीष्म साहनी। उन्होंने जीवन की लम्बी पारी खेली और बहुत सारा साहित्य सृजित किया। मैं यह सोचना भी नहीं चाहती हूं कि वे वामपंथी थे या दक्षिणपंथी। मेरी दृष्टि में वे एक मानवतावादी साहित्यकार थे जिन्होंने मानव जीवन की त्रासद बारीकियों को बड़ी गंभीरता से अपने साहित्य में प्रस्तुत किया।

भीष्म साहनी को अधिकतर वे लोग जानते हैं जो साहित्य में दिलचस्पी रखते हैं लेकिन उनके भाई बलराज साहनी को वे लोग भी जानते हैं जो साहित्य में रुचि नहीं रखते हैं। बलराज साहनी एक बेहतरीन और अत्यंत संवेदनशील फिल्म अभिनेता थे। ‘‘दो बीघा ज़मीन’’, ‘‘काबुलीवाला’’, ’’हकीकत’’, ‘‘एक फूल दो माली’’ जैसी फिल्मों में अभिनीत उनका अभिनय आज भी मन को छू जाता है। वहीं, भीष्म साहनी ने साहित्य जगत में अपनी जो छाप छोड़ी, उसे भले ही हम हमेशा याद न करें लेकिन कभी भुला भी नहीं सकते हैं। वह समय अस्थिरता का समय था, स्वतंत्रता आंदोलन का समय था, देश के बंटवारे का समय था, बड़ी संख्या में शरणार्थियों का समय था, माक्र्सवाद का समय था - ऐसे समय में भीष्म साहनी के विचारों में माक्र्सवाद का प्रभाव होना स्वाभाविक था। मात्र इसलिए कि वे माक्र्सवाद के प्रबल प्रभाव वाले समय में हुए, उनकी मानवतावादी कृतियों को हम तहा कर रख दें तो यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। यह तहाने की प्रक्रिया सिर्फ़ इसलिए है कि हम अपने साहित्य सरोकार को ठीक से समझ ही नहीं पाते हैं। यदि हमें अपने साहित्यिक अतीत के माध्यम से अपने जीवन के अतीत को समझना है तो पंथ-विशेष के टैग को निकाल कर समझना होगा। यदि और अधिक अतीत में जा कर इस बात को समझने का प्रयास करें तो शायद आसानी होगी कि यदि हम स्वयं को शैव मानते हैं और वैष्णव विचारों का विरोधी मानते हैं तो मीराबाई या सूरदास के काव्य को कभी समझ नहीं सकेंगे। इसीलिए जब हम भक्त कवियों की रचनाओं को पढ़ते हैं तो अपने मस्तिष्क में पहले यह स्थापित कर लेते हैं कि हम भक्तिकाल की रचनाएं पढ़ रहे हैं। ऐसा करते ही हमारे लिए मीरा, सूर, सिद्ध कवि गुंडरीपा या सरहपा के काव्य को समझना आसान हो जाता है। कहने का आशय यही है कि साहित्य किस विचारधारा से लिखा गया और उसे किस विचारधारा से पढ़ा जा रहा है, यह दोनों परस्पर भिन्न बातें हैं। इन्हीं दोनों के अंतर को समझना आवश्यक है। बहरहाल, यहां मैं बात कर रही हूं भीष्म साहनी की।

भीष्म साहनी ने आत्मकथा लिखी थी जिसका नाम है ‘‘आज के अतीत’’। यह उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले यानी 11 जुलाई 2003 के कुछ पहले प्रकाशित हुई थी। भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिण्डी में हुआ था। वे अपने पिता हरबंस लाल साहनी तथा मां लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। सन् 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी विषय में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होने डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में ‘‘कंसेप्ट आफॅ द हीरो इन द नाॅवेल’’ शीर्षक से अपना शोधकार्य किया। सन् 1944 में उनका विवाह हुआ। 

भीष्म साहनी की व्यवस्थित साहित्य- यात्रा कहानियों से आरम्भ हुई। उनकी पहली कहानी अंबला इण्टर कालेज की पत्रिका ‘‘रावी’’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद उनकी दूसरी कहानी ‘‘नीली आंखें’’ ‘‘हंस’’ पत्रिका में छपी जिसके संपादक अमृतराय थे, जो कि प्रेमचंद के पुत्र थे। भीष्म साहनी को अपने उपन्यास ‘‘तमस’’ से सबसे अधिक ख्याति मिली। यह उपन्यास देश के बंटवारे की वास्तविक पीड़ा का आईना कहा जा सकता है। ‘‘तमस’’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘‘झरोखे’’, ‘‘कड़ियां’’, ‘‘बसन्ती’’, ‘‘कुंतो’’, ‘‘नीलू नीलिमा नीलोफर’’ आदि उपन्यास लिखे। उनकी कहानियां ‘भाग्यरेखा’, ‘पटरिया’, ‘पहला पाठ’, ‘भटकती राख’, ‘शोभायात्रा’, ‘निशाचर’, ‘पाली’ आदि ने पाठकों के अंतस तथा मानस को प्रभावित किया। भीष्म साहनी के लिखे नाटक आज भी मंचित किए जाते हैं। उन्होंने ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘माधवी मुआवजे’ जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे। बाल साहित्य लिखा। जीवनी और संस्मरण भी लिखे, जैसे-‘मेरे भाई बलराज’, ‘अपनी बात’ और ‘मेरे साक्षात्कार’। दरअसल भीष्म साहनी का लेखन विविधतापूर्ण रहा।

कहानी के बारे में वे मानते थे कि ‘‘कहानी में कहानीपन हो, उसमें जिंदगी की सच्चाई झलके, वह विश्वसनीय हो, उसमें कुछ भी आरोपित न हो, और वह जीवन की वास्तविकता पर खरी उतरे।’’ साहित्य की भाषा को ले कर भी उनके मन में कोई दुराग्रह नहीं था। वे मानते थे कि जहां आवश्यक हो वहां हिंदी हिंदी की सहोदर भाषाओं और बोलियों का बेझिझक प्रयोग किया जाना चाहिए। उनके अनुसार ‘‘उत्तर भारत की भाषाएं एक-दूसरे से इतनी मिलती-जुलती हैं कि एक के प्रयोग से दूसरी भाषा बिगड़ती नहीं, बल्कि समृद्ध होती है।’’

जहां तक भीष्म साहनी की विचारधारा का प्रश्न है तो वे निश्चितरूप से मानवतावादी विचारधारा के थे। वह समय था जब मानवतावाद प्रगतिशील और माक्र्सवादी विचारधारा से हो कर गुज़र रहा था। भीष्म साहनी भी तत्कालीन भारतीय परिवेश का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ अपने साहित्य में लेखबद्ध कर रहे थे इसलिए उनका प्रगतिशील विचारों को अपनाना, माक्र्सवादी मूल्यों को अपनाना स्वाभाविक था। यदि उन्होंने तत्कालीन जीवन की खांटी सच्चाई अपने साहित्य में लिखी और इसका आशय यह मान लिया जाए कि वे प्रगतिशील विचारधारा के पोषक थे, तो यह निःसंदेह स्वीकार किया जा सकता है। भीष्म साहनी के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होंने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी को लेखबद्ध किया। इसीलिए उनके साहित्य में यथार्थ की जीवंत उपस्थिति है और इसे प्रमाणित करने के लिए बानगी के तौर पर एक अकेला ‘‘तमस’’ ही पर्याप्त है क्योंकि विभाजन की त्रासदी को भीष्म साहनी ने स्वयं झेला था।

भीष्म साहनी के कथालेखन पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप रही। भीष्म साहनी भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एएआरए) से निरंतर संबद्ध रहे। वे पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करते थे। पूंजीवादी व्यवस्था को वे जन सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे। ‘बसन्ती’, ‘झरोखे’, ‘तमस’, ‘मय्यादास की माड़ी’ और ‘कड़ियां’ उपन्यास में उन्होंने आर्थिक विषमता की भयावहता का आंदोलित कर देने वाला विवरण दिया है। भीष्म साहनी पूंजीवाद को आर्थिक दुष्चक्र का नियंता मानते थे और माक्र्सवादी मूल्यों की पैरवी करते थे। भीष्म साहनी का धर्म मानवीय मूल्यों पर आधारित था। वे मानते थे कि धर्म की भूमिका मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की होनी चाहिए, वैमनस्य की नहीं। वे धर्म के नाम पर मौजूद विद्रूपता का कड़ा विरोध करते थे। धर्म को लेकर उनके मन में किसी भी प्रकार का संशय नहीं था, उनके विचार स्पष्ट थे। एक आयोजन में अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘मैं धर्म के उस स्वरूप को धर्म ही नहीं मानता हूं जिसमें मानवता का हनन किया जाता हो।’’

भीष्म साहनी को विविधतापूर्ण जीवनानुभव रहा। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी शामिल हुए। सन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस दौरान उन्हें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, सुदर्शन, जैनेन्द्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, इम्तियाज अली ‘ताज’, रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर आदि से मिलने का अवसर मिला। इन लोगों से भेंट ने भीष्म साहनी के लेखकीय व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डाला। फिर आया विभाजन का रक्तपाती समय। विभाजन के दौरान भीष्म साहनी का पूरा परिवार भारत आ गया। यहां उन्होंने विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया। इसी दौर में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। सन् 1975 में ‘गया सम्मेलन’ में वे प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव बने और इस पद पर सन 1986 तक रहे। अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में विचारधारा और साहित्य के परस्पर संबंध को स्पष्ट करते हुए भीष्म साहनी ने लिखा हैं कि ‘‘विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता। विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्रोत होती है, उसे दृष्टि देती है, उसकी संवेदना में ओजस्विता भरती है। साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण है। विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है। विचारधारा ने मुक्तिबोध की कविता को प्रखरता दी है। ब्रेख्त के नाटकों को अपार ओजस्विता दी है। यहां विचारधारा की वैसी ही भूमिका रही है, जैसी कबीर की वाणी में, जो आज भी लाखों-लाख भारतवासियों के होठों पर है।’’

प्रलेस के महासचिव के रूप में भीष्म साहनी ने प्रगतिशील आंदोलन को साहित्यिक विचारों की मुुख्यधारा में लाया। भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते थे। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि ‘‘प्रलेस की भूमिका एक सामाजिक, सांस्कृतिक धारा के रूप में रही, संगठन बन जाने के बाद भी उसने संस्था का रूप नहीं लिया। उसका स्वरूप एक लहर जैसा ही है, बंधी-बंधाई संस्था का नहीं है। यह भारत की सभी भाषाओं का साझा मंच था, धर्मनिरपेक्ष जनतंत्रात्मक की दृष्टि से प्रेरित और वामपंथी विचारधारा से गहरे प्रभावित जो एक देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ता था, तो दूसरी ओर विश्वव्यापी स्तर पर उठने वाली घटनाचक्र के प्रति सचेत था।’’

लेखक के सरोकार और लिखे हुए के प्रति सरोकार पर दो टिप्पणियां दो पुरोधा साहित्यकारों की यहां याद की जा सकती हैं। लेखकीय सरोकार पर पंडित विद्यानिवास मिश्र की टिप्पणी जो उनके लेख ंसग्रह ‘साहित्य के सरोकार’ में है-‘‘लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है।’’
       और दूसरी टिप्पणी जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष रहे कथाकार दूधनाथ सिंह की, साहित्य के प्रति सरोकार पर- ‘‘साहित्य कोई समूह की चीज नहीं है। यह शाश्वत और व्यक्तिगत प्रयास है। साहित्य और संस्कृति की चुनौतियां किसी एक तारीख के साथ बदलती भी नहीं। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में हड़बोंग मचा है, जिसका असर लेखन पर भी पड़ा है। सत्ता की धमकियां दबाव बनाती हैं। सवाल यह है कि व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर कोई लेखक कितना हस्तक्षेप करता है। चुनौती यह भी कि विसंगति का विरोध करेंगे या चुप रहेंगे।’’

उपरोक्त दोनों टिप्पणियां अपने-अपने ढंग से साहित्य के प्रति हमारे पूर्वाग्रह विहीन सरोकार का आग्रह करती हैं। यूं भी, भीष्म साहनी जैसे मानवतावादी दृष्टिकोण के धनी, सामाजिक प्रगति के पैरोकार तथा अपने समय के सच को एक इतिहास से भी अधिक गहराई से लिखने वाले साहित्यकार को स्मरण करने के लिए किसी विशेष दिवस या आयोजन की आवश्यकता हो, कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता है और वस्ुततः यही हमारा साहित्य सरोकार होना चाहिए कि ऐसे साहित्यकार के लेखन को हम हमेशा अपनी चेतना में जाग्रत रखें।
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Tuesday, January 17, 2023

पुस्तक समीक्षा | शापग्रस्त | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 17.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका श्रीमती पुष्पा चिले के उपन्यास "शापग्रस्त" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
पारिवारिक विडंबनाओं को लक्षित करता उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास   - शापग्रस्त
लेखिका   - पुष्पा चिले
प्रकाशक   - जवाहर पुस्तकालय, हिंदी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक, सदर बाजार, मथुरा- 281001 (उप्र)
मूल्य      - 200/-
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    परिवार मानव समाज की एक मौलिक एवं आधारभूत इकाई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन सबसे पहले वह पारिवारिक प्राणी है, क्योंकि वह परिवार में ही जन्म लेता और परिवार के द्वारा सामाजिकता को विकसित करता है। अनेक परिवार मिल कर ही समाज बनाते हैं। समाजशास्त्री डी. एन. मजूमदार के अनुसार ‘‘परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, रक्त से संबंधित होते हैं और स्थान, स्वार्थ और पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर एक किस्म की चेतनता अनुभव करते हैं।’’
परिवार की एक सबसे बड़ी भूमिका होती है वंश को सामाजिक स्वरूप प्रदान करने की। यह वंश संतानोत्पत्ति से आगे बढ़ता है, यही सामाजिक प्रचलित धारणा है। इस पक्ष पर समाजशास्त्री जोन्स कुछ खुले शब्दों में परिवार को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘‘परिवार यौन सम्बन्धों पर आधारित एक ऐसी सामाजिक संस्था है जिसका मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति एवं उनका पालन-पोषण है।’’

प्रायः संतानोत्पत्ति के साथ वंशवाद को जोड़ दिया गया है और यह मान लिया जाता है कि पुत्र से ही वंश आगे बढ़ता है। जबकि यथार्थ में पुत्र और पुत्रवधू के समागम से ही संतान की उत्पत्ति होती है तो फिर वंश चलाने का श्रेय सिर्फ पुत्र को ही क्यांे दिया जाता है? भारतीय समाज में एक जटिल सामाजिक प्रश्न है यह। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के बजाए उस विवाहिता का जीवन कष्टमय बना दिया जाता है जो संतान उत्पन्न नहीं कर पा रही हो। अनेक मामलों में तो यह भी देखने में आता है कि बिना चिकित्सकीय जांच के स्त्री को बांझ घोषित कर दिया जाता है और पुत्र रूपी पुरुष की जांच करवाई ही नहीं जाती है। स्त्री को ही हर प्रकार का संताप सहन करना पड़ता है। इस विषय पर हिन्दी में कई उपन्यास लिखे गए हैं। फिर भी यह ऐसा ज्वलंत विषय है कि जो समाज में अभी भी एक दूषित विचार की भांति मौजूद है और इस पर बार-बार लिखा जाना जरूरी है।

‘‘शापग्रस्त’’ उपन्यास में इसी प्रकार के विभिन्न पारिवारिक विषयों को तन्मयता के साथ रखा गया है। ‘‘शापग्रस्त’’ की लेखिका पुष्पा चिले एक संवेदनशील साहित्यकार हैं। उनके पास बारीक दृष्टि है, उत्तम आकलन क्षमता है और पारिवारिक विसंगतियों को दूर करने का एक आग्रह है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘‘शापग्रस्त’’ में इस प्रसंग को रखा है कि किस प्रकार एक पत्नी अपने पति की नपुंसकता के दोष को झेलती है। यदि पति पत्नी से दूरी बनाता रहे तो ‘पति’ को वश में न रख पाने का ताना भी उसी के हिस्से में आता है। उपन्यास की नायिका निर्मला जब ससुराल से अपने मायके पहुंचती है तो उसकी मां उसका मुरझाया चेहरा देख कर उससे कारण पूछती है। मां निर्मला से कहती हे कि ‘‘साफ शब्दों में बताओ निर्मला। हमसे जितना बनेगा, सम्हालने का प्रयास करेंगे। तेरे पिताजी तुझे ले कर बहुत चिंतित रहते हैं।’’
इस पर निर्मला उत्तर देती है कि ‘‘आप और पिताजी क्या सम्हालेंगे। जब मैं पत्नी नहीं सम्हाल पाई। हर जगह से सीख तो मुझे ही मिलती है। न जाने किसी से चक्कर चल रहा है या....क्या कहूं? हमेशा मुझसे भागते रहते हैं। बात करने से भी कतराते हैं। कारण आज तक समझ में नहीं आया।’’

निर्मला के पिता उसके पति महेश के बारे में छानबीन करते हैं। जब उसके विवाहेत्तर संबंध होने का प्रमाण भी नहीं मिलता है तब उधेड़बुन में डूबी निर्मला के मन में यह विचार कौंधता है कि कहीं ‘‘कोई शारीरिक कमजोरी?’’ वह सिहर उठती है।

इसके बाद अपनी कमी को दूर करने का प्रयास करते हुए निर्मला का पति महेश एक बार सामानय अवस्था में भी पहुंच जाता है और उन्हें एक पुत्री के माता-पिता बनने का सौभाग्य मिलता है। लेकिन फिर पता नहीं क्यों पति अपनी पुरानी अवस्था में पहुंच जाता है। इसका कारण उपन्यास में स्पष्ट नहीं हुआ है। एक बार फिर महेश अपनी पत्नी निर्मला की न केवल अवहेलना करता है अपितु उसे शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित करता है। वह अपनी पत्नी से मार-पीट करने से भी नहीं चूकता है। उपन्यास में स्त्रियों के द्वारा घरेलू हिंसा को सहते रहने के दुष्परिणामों को बड़े ही स्वाभाविक ढंग से वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

पति प्रताड़ित महिलाओं को जो घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं, उन्हें उपन्यास में रास्ता भी सुझाया गया है। जब संबंधों में दोष आने लगे और संबंध असहनीय लगने लगे तो आरंभ में ही प्रतिकार करना चाहिए, फिर भी यदि आरंभ में परिवार और समाज के दबाव में आकर शीघ्र निर्णय न लिया जा सके तो भी समय रहते निर्णय ले लेना चाहिए और ऐसे अमानवीय संबंध से मुक्त हो जाना चाहिए। लेखिका ने उन स्त्री पात्रों के द्वारा इस बात को गहराई से रखा है की स्त्री चाहे तो घरेलू हिंसा से स्वयं को बचाकर ऐसे दोषपूर्ण संबंध से मुक्त होकर स्वरोजगार द्वारा स्वावलंबन करते हुए अपना जीवन सुख और स्वाभिमान के साथ व्यतीत कर सकती है। इस उपन्यास का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है।
कथानक की प्रत्येक स्त्रीपात्र अपने-अपने हिस्से का दुख भोगने को विवश है। एक-दो स्त्रियां विद्रोह कर के अपने जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हैं किन्तु शेष अपनी विपरीत परिस्थितियों को प्रारब्ध मान कर स्वीकार किए रहती हैं। ये वे घटनाएं हैं जो ध्यान से देखने पर हमारे बिलकुल आसपास घटित होती दिखाई दे जाएंगी। लेखिका ने परिवारों की आंतरिक कथा को सहजता से उजागर किया है।

उपन्यास में यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है कि यदि परिवार का मुखिया अपने पुत्रों को ही सही राह नहीं दिखा पाता है तो एक धन-सम्पन्न परिवार किस तरह विपन्नता की कगार तक टूटता, बिखरता चला जाता है। परिवार का मुखिया जो परिवार की नींव भी होता है, वही अन्याय की चादर ओढ़ ले तो पीढ़ियों तक उसका प्रभाव पड़ता है। नगरसेठ भवानी प्रसाद ने यही तो किया। उसे उस लड़की से ब्याह दिया गया जो उसे तनिक भी सुंदर प्रतीत नहीं हुई। भवानी प्रसाद ने मन और कर्म की सुंदरता को देखने के बजाए दैहिक सुंदरता को महत्व दिया। वह अपनी पत्नी की उपेक्षा करते-करते अपने तीनों पुत्रों की भी उपेक्षा करने लगा जिसका परिणाम हुआ कि उसके तीनों पुत्र नकारा हो गए। पुत्रों का विवाह करके उन युवतियों के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया गया जो एक अच्छा जीवन पाने की अधिकारिणी थीं। नकारे पति की पत्नी को आर्थिक क्लेश के साथ ही अपने पति की गालियां भी सुननी पड़ती हैं जो वह अपना नकारेपन पर पर्दा डालने के लिए हथियार के रूप में काम में लाता है।  

जहां तक उपन्यास के नाम का प्रश्न है तो वह मूल कथानक का आरंभ बिंदु है जो अंत तक अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद रहते हुए, अंत में एक बार फिर परिलक्षित होता है। यदि छल-कपट पूर्वक किसी की संपत्ति हथिया ली जाए और उसे दाने-दाने का मोहताज बना दिया जाए तो ऐसा व्यक्ति पीड़ा से व्याकुल होकर ‘‘कभी सुखी न रहने’’ का शाप दे कर तसल्ली कर लेता  है। वहीं दूसरी ओर इस तरह से छलपूर्वक प्राप्त की गई संपत्ति कभी सुख नहीं देती है। कहा भी जाता है कि जो सुख मेहनत की कमाई से मिलता है वह सुख हराम की कमाई में कभी नहीं मिलता। इसीलिए नगर सेठ भवानी प्रसाद का पूरा परिवार शापग्रस्त जीवन बिताने को विवश हो जाता है।
लेखिका ने सराफा व्यवसाय के जोखिम और कतिपय पुलिसवालों की भ्रष्ट कार्यवाही को भी एक घटना के रूप में शामिल किया है। पुलिस अवैध सोना होने की सूचना पा कर सौरभ की दूकान पर छापा मारती है और जब्ती बनाने के नाम पर बहुत-सा सोना गायब कर देती है। उस पर रिश्वत के रूप में पचास ग्राम सोना और मांगा जाता है। वह तो दूसरा सराफा व्यवसायी अपनी क्षति भूल कर सौरभ के पक्ष में बयान देता है और उसे बचा लेता है। एक छोटी-सी घटना चिफंड के घोटाले वाली बीसी की भी है जिसमें हजारों लोगों को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा था।

कथानक का विस्तार तीन पीढ़ियों का है जिसमें बहुसंख्यक पात्रों को समेट लिया गया है। सीमित पन्नों  (106 पृष्ठ) में बहुत अधिक घटनाओं और पात्रों का होना पाठकों को उलझन में डाल सकता है। एक उत्साही लेखिका की भांति पुष्पा चिले ने बहुत सारी घटनाएं एक के बाद एक पिरो दी हैं। गोया पांच सौ पृष्ठों की सामग्री को मात्र सौ पृष्ठों में रख दिया गया हो। अपने अगले उपन्यास में लेखिका धैर्य का परिचय देंगी, यह आशा की जा सकती है। हां, यह जरूर है कि पात्रों और घटनाओं की बहुलता के बावजूद प्रवाहपूर्ण शैली रोचकता बनाए रखती है। जिसके लिए लेखिका प्रशंसा की पात्र हैं।
उपन्यास की भूमिका संस्कृतिविद डाॅ. श्याम सुंदर दुबे ने लिखी है। उपन्यास का आमुख सादा किन्तु आकर्षक है। लेकिन प्रूफ की ढेरों गलतियां हैं जो खीर में कंकड़ की भांति खटकती हैं। भूमिका में ही ‘‘नरेटिव’’ के स्थान पर ‘‘निगेटिव’’ छपने से वाक्य का अर्थ ही बदल गया है। यह प्रकाशकीय दोष है। कुलमिला कर यह उपन्यास पारिवारिक विडंबनाओं को समझने और उनकी तह तक जाने में मदद करता है। यह उपनयास पठनीय है और विचारणीय भी है।
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Monday, January 16, 2023

इन ग़ज़लों का स्वर जनवादी है जिन्हें बिना किसी राजनीतिक चश्मे के पढ़ा जाना चाहिए। - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पुस्तक लोकार्पण

"महेंद्र सिंह के सृजन की यह है खूबी है कि वह अपनी ग़ज़लों के द्वारा सीधे समय से संवाद करते हैं और सोए हुए जनमानस को झकझोरते हैं, धिक्कारते हैं, फटकारते हैं और अव्यवस्था के कैनवास पर जनमत के रंगों से सुव्यवस्था का सुंदर चित्र बना देना चाहते हैं। इन ग़ज़लों का स्वर जनवादी है इन्हें बिना किसी राजनीतिक चश्मे के पढ़ा जाना चाहिए। वैसे जनवादी स्वर की  ग़ज़लें पसंद करने वालों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संग्रह है।" - श्री महेंद्र सिंह की ग़ज़लगोई की विशेषताओं की चर्चा करते हुए अपने समीक्षात्मक उद्बोधन में डॉ (सुश्री) शरद सिंह अर्थात मैंने कहा। अवसर था कवि श्री महेंद्र सिंह (भोपाल) के ग़ज़ल संग्रह "कितना सन्नाटा है" का विमोचन कार्यक्रम का।
           प्रगतिशील लेखक संघ सागर इकाई के द्वारा श्यामलम संस्था के सहयोग से कल शाम (15.01.2023) को अपराह्न पुस्तक विमोचन का स्धानीय गणेश एंजोरा मैरिज हॉल में आयोजन किया गया। जिसमें मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व प्रांतीय अध्यक्ष श्री राजेंद्र शर्मा , प्रांतीय पूर्व महासचिव शैलेंद्र शैली, कवि अरविंद मिस्र (भोपाल) ने संबोधित किया।कार्यक्रम की अध्यक्षता अपने कृष्णभक्ति काव्य "ब्रजरज" के लिए विख्यात शायर मायूस सागरी ने  की।
 इस अवसर पर मेरे सहित डॉ गजाधर सागर, श्रीमती निरंजना जैन, श्रीमती नम्रता फुसकेले ने समीक्षा प्रस्तुत की। स्वागत भाषण दिया  इकाई के महासचिव श्री पैट्रिस फुसकेले  ने, कार्यक्रम का संचालन कवि एवं साहित्यकार टी.आर.त्रिपाठी के द्वारा किया गया एवं आभार प्रदर्शन मकरोनिया इकाई के अध्यक्ष डॉ सतीश पाण्डेय ने किया।
  🌷 छाया चित्रों के लिए मुकेश तिवारी जी, शैलेंद्र शैली जी तथा सुश्री भावना बड़ोन्या का हार्दिक आभार 🙏 
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