Tuesday, January 17, 2023

पुस्तक समीक्षा | शापग्रस्त | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 17.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका श्रीमती पुष्पा चिले के उपन्यास "शापग्रस्त" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
पारिवारिक विडंबनाओं को लक्षित करता उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास   - शापग्रस्त
लेखिका   - पुष्पा चिले
प्रकाशक   - जवाहर पुस्तकालय, हिंदी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक, सदर बाजार, मथुरा- 281001 (उप्र)
मूल्य      - 200/-
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    परिवार मानव समाज की एक मौलिक एवं आधारभूत इकाई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन सबसे पहले वह पारिवारिक प्राणी है, क्योंकि वह परिवार में ही जन्म लेता और परिवार के द्वारा सामाजिकता को विकसित करता है। अनेक परिवार मिल कर ही समाज बनाते हैं। समाजशास्त्री डी. एन. मजूमदार के अनुसार ‘‘परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, रक्त से संबंधित होते हैं और स्थान, स्वार्थ और पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर एक किस्म की चेतनता अनुभव करते हैं।’’
परिवार की एक सबसे बड़ी भूमिका होती है वंश को सामाजिक स्वरूप प्रदान करने की। यह वंश संतानोत्पत्ति से आगे बढ़ता है, यही सामाजिक प्रचलित धारणा है। इस पक्ष पर समाजशास्त्री जोन्स कुछ खुले शब्दों में परिवार को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘‘परिवार यौन सम्बन्धों पर आधारित एक ऐसी सामाजिक संस्था है जिसका मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति एवं उनका पालन-पोषण है।’’

प्रायः संतानोत्पत्ति के साथ वंशवाद को जोड़ दिया गया है और यह मान लिया जाता है कि पुत्र से ही वंश आगे बढ़ता है। जबकि यथार्थ में पुत्र और पुत्रवधू के समागम से ही संतान की उत्पत्ति होती है तो फिर वंश चलाने का श्रेय सिर्फ पुत्र को ही क्यांे दिया जाता है? भारतीय समाज में एक जटिल सामाजिक प्रश्न है यह। इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने के बजाए उस विवाहिता का जीवन कष्टमय बना दिया जाता है जो संतान उत्पन्न नहीं कर पा रही हो। अनेक मामलों में तो यह भी देखने में आता है कि बिना चिकित्सकीय जांच के स्त्री को बांझ घोषित कर दिया जाता है और पुत्र रूपी पुरुष की जांच करवाई ही नहीं जाती है। स्त्री को ही हर प्रकार का संताप सहन करना पड़ता है। इस विषय पर हिन्दी में कई उपन्यास लिखे गए हैं। फिर भी यह ऐसा ज्वलंत विषय है कि जो समाज में अभी भी एक दूषित विचार की भांति मौजूद है और इस पर बार-बार लिखा जाना जरूरी है।

‘‘शापग्रस्त’’ उपन्यास में इसी प्रकार के विभिन्न पारिवारिक विषयों को तन्मयता के साथ रखा गया है। ‘‘शापग्रस्त’’ की लेखिका पुष्पा चिले एक संवेदनशील साहित्यकार हैं। उनके पास बारीक दृष्टि है, उत्तम आकलन क्षमता है और पारिवारिक विसंगतियों को दूर करने का एक आग्रह है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘‘शापग्रस्त’’ में इस प्रसंग को रखा है कि किस प्रकार एक पत्नी अपने पति की नपुंसकता के दोष को झेलती है। यदि पति पत्नी से दूरी बनाता रहे तो ‘पति’ को वश में न रख पाने का ताना भी उसी के हिस्से में आता है। उपन्यास की नायिका निर्मला जब ससुराल से अपने मायके पहुंचती है तो उसकी मां उसका मुरझाया चेहरा देख कर उससे कारण पूछती है। मां निर्मला से कहती हे कि ‘‘साफ शब्दों में बताओ निर्मला। हमसे जितना बनेगा, सम्हालने का प्रयास करेंगे। तेरे पिताजी तुझे ले कर बहुत चिंतित रहते हैं।’’
इस पर निर्मला उत्तर देती है कि ‘‘आप और पिताजी क्या सम्हालेंगे। जब मैं पत्नी नहीं सम्हाल पाई। हर जगह से सीख तो मुझे ही मिलती है। न जाने किसी से चक्कर चल रहा है या....क्या कहूं? हमेशा मुझसे भागते रहते हैं। बात करने से भी कतराते हैं। कारण आज तक समझ में नहीं आया।’’

निर्मला के पिता उसके पति महेश के बारे में छानबीन करते हैं। जब उसके विवाहेत्तर संबंध होने का प्रमाण भी नहीं मिलता है तब उधेड़बुन में डूबी निर्मला के मन में यह विचार कौंधता है कि कहीं ‘‘कोई शारीरिक कमजोरी?’’ वह सिहर उठती है।

इसके बाद अपनी कमी को दूर करने का प्रयास करते हुए निर्मला का पति महेश एक बार सामानय अवस्था में भी पहुंच जाता है और उन्हें एक पुत्री के माता-पिता बनने का सौभाग्य मिलता है। लेकिन फिर पता नहीं क्यों पति अपनी पुरानी अवस्था में पहुंच जाता है। इसका कारण उपन्यास में स्पष्ट नहीं हुआ है। एक बार फिर महेश अपनी पत्नी निर्मला की न केवल अवहेलना करता है अपितु उसे शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित करता है। वह अपनी पत्नी से मार-पीट करने से भी नहीं चूकता है। उपन्यास में स्त्रियों के द्वारा घरेलू हिंसा को सहते रहने के दुष्परिणामों को बड़े ही स्वाभाविक ढंग से वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

पति प्रताड़ित महिलाओं को जो घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं, उन्हें उपन्यास में रास्ता भी सुझाया गया है। जब संबंधों में दोष आने लगे और संबंध असहनीय लगने लगे तो आरंभ में ही प्रतिकार करना चाहिए, फिर भी यदि आरंभ में परिवार और समाज के दबाव में आकर शीघ्र निर्णय न लिया जा सके तो भी समय रहते निर्णय ले लेना चाहिए और ऐसे अमानवीय संबंध से मुक्त हो जाना चाहिए। लेखिका ने उन स्त्री पात्रों के द्वारा इस बात को गहराई से रखा है की स्त्री चाहे तो घरेलू हिंसा से स्वयं को बचाकर ऐसे दोषपूर्ण संबंध से मुक्त होकर स्वरोजगार द्वारा स्वावलंबन करते हुए अपना जीवन सुख और स्वाभिमान के साथ व्यतीत कर सकती है। इस उपन्यास का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है।
कथानक की प्रत्येक स्त्रीपात्र अपने-अपने हिस्से का दुख भोगने को विवश है। एक-दो स्त्रियां विद्रोह कर के अपने जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हैं किन्तु शेष अपनी विपरीत परिस्थितियों को प्रारब्ध मान कर स्वीकार किए रहती हैं। ये वे घटनाएं हैं जो ध्यान से देखने पर हमारे बिलकुल आसपास घटित होती दिखाई दे जाएंगी। लेखिका ने परिवारों की आंतरिक कथा को सहजता से उजागर किया है।

उपन्यास में यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है कि यदि परिवार का मुखिया अपने पुत्रों को ही सही राह नहीं दिखा पाता है तो एक धन-सम्पन्न परिवार किस तरह विपन्नता की कगार तक टूटता, बिखरता चला जाता है। परिवार का मुखिया जो परिवार की नींव भी होता है, वही अन्याय की चादर ओढ़ ले तो पीढ़ियों तक उसका प्रभाव पड़ता है। नगरसेठ भवानी प्रसाद ने यही तो किया। उसे उस लड़की से ब्याह दिया गया जो उसे तनिक भी सुंदर प्रतीत नहीं हुई। भवानी प्रसाद ने मन और कर्म की सुंदरता को देखने के बजाए दैहिक सुंदरता को महत्व दिया। वह अपनी पत्नी की उपेक्षा करते-करते अपने तीनों पुत्रों की भी उपेक्षा करने लगा जिसका परिणाम हुआ कि उसके तीनों पुत्र नकारा हो गए। पुत्रों का विवाह करके उन युवतियों के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया गया जो एक अच्छा जीवन पाने की अधिकारिणी थीं। नकारे पति की पत्नी को आर्थिक क्लेश के साथ ही अपने पति की गालियां भी सुननी पड़ती हैं जो वह अपना नकारेपन पर पर्दा डालने के लिए हथियार के रूप में काम में लाता है।  

जहां तक उपन्यास के नाम का प्रश्न है तो वह मूल कथानक का आरंभ बिंदु है जो अंत तक अप्रत्यक्ष रूप से मौजूद रहते हुए, अंत में एक बार फिर परिलक्षित होता है। यदि छल-कपट पूर्वक किसी की संपत्ति हथिया ली जाए और उसे दाने-दाने का मोहताज बना दिया जाए तो ऐसा व्यक्ति पीड़ा से व्याकुल होकर ‘‘कभी सुखी न रहने’’ का शाप दे कर तसल्ली कर लेता  है। वहीं दूसरी ओर इस तरह से छलपूर्वक प्राप्त की गई संपत्ति कभी सुख नहीं देती है। कहा भी जाता है कि जो सुख मेहनत की कमाई से मिलता है वह सुख हराम की कमाई में कभी नहीं मिलता। इसीलिए नगर सेठ भवानी प्रसाद का पूरा परिवार शापग्रस्त जीवन बिताने को विवश हो जाता है।
लेखिका ने सराफा व्यवसाय के जोखिम और कतिपय पुलिसवालों की भ्रष्ट कार्यवाही को भी एक घटना के रूप में शामिल किया है। पुलिस अवैध सोना होने की सूचना पा कर सौरभ की दूकान पर छापा मारती है और जब्ती बनाने के नाम पर बहुत-सा सोना गायब कर देती है। उस पर रिश्वत के रूप में पचास ग्राम सोना और मांगा जाता है। वह तो दूसरा सराफा व्यवसायी अपनी क्षति भूल कर सौरभ के पक्ष में बयान देता है और उसे बचा लेता है। एक छोटी-सी घटना चिफंड के घोटाले वाली बीसी की भी है जिसमें हजारों लोगों को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा था।

कथानक का विस्तार तीन पीढ़ियों का है जिसमें बहुसंख्यक पात्रों को समेट लिया गया है। सीमित पन्नों  (106 पृष्ठ) में बहुत अधिक घटनाओं और पात्रों का होना पाठकों को उलझन में डाल सकता है। एक उत्साही लेखिका की भांति पुष्पा चिले ने बहुत सारी घटनाएं एक के बाद एक पिरो दी हैं। गोया पांच सौ पृष्ठों की सामग्री को मात्र सौ पृष्ठों में रख दिया गया हो। अपने अगले उपन्यास में लेखिका धैर्य का परिचय देंगी, यह आशा की जा सकती है। हां, यह जरूर है कि पात्रों और घटनाओं की बहुलता के बावजूद प्रवाहपूर्ण शैली रोचकता बनाए रखती है। जिसके लिए लेखिका प्रशंसा की पात्र हैं।
उपन्यास की भूमिका संस्कृतिविद डाॅ. श्याम सुंदर दुबे ने लिखी है। उपन्यास का आमुख सादा किन्तु आकर्षक है। लेकिन प्रूफ की ढेरों गलतियां हैं जो खीर में कंकड़ की भांति खटकती हैं। भूमिका में ही ‘‘नरेटिव’’ के स्थान पर ‘‘निगेटिव’’ छपने से वाक्य का अर्थ ही बदल गया है। यह प्रकाशकीय दोष है। कुलमिला कर यह उपन्यास पारिवारिक विडंबनाओं को समझने और उनकी तह तक जाने में मदद करता है। यह उपनयास पठनीय है और विचारणीय भी है।
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