Wednesday, January 18, 2023

चर्चा प्लस | भीष्म साहनी और हमारा साहित्य सरोकार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
भीष्म साहनी और हमारा साहित्य सरोकार
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       *भीष्म साहनी के साहित्य को पढ़ा जाना एक युग के साहित्य को पढ़े जाने के समान है। जब हम उनके उपन्यास ‘तमस’ से हो कर गुज़रते हैं तो गोया विभाजन की त्रासदी को स्वयं भुगतते हैं। अपने समय को लेखबद्ध करने वाले ऐसे साहित्यकार के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या होना चाहिए, यह तय करता है कि हमारा साहित्य सरोकार कैसा है? क्या हम भीष्म साहनी जैसे साहित्यकारों को याद करने के लिए किसी विशेष दिन की प्रतीक्षा करते हैं या उस दिन को भी हम किसी पूर्वाग्रह के चलते कहीं छिपा देते हैं? यदि ऐसा है तो हमें अपने साहित्य सरोकार की फिर से पड़ताल करने की ज़रूरत है।*
मुझे समझ में नहीं आता है कि किसी भी साहित्यकार को याद करने के लिए उसकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि का होना ही क्यों ज़रूरी है? एक साहित्यकार जिसका अवदान सर्वकालिक होता है उसे सर्वकालिक ही याद किया जाना चाहिए। कम से कम मैं तो यही मानती हूं। लेकिन परिपाटी कुछ इसी तरह की चल पड़ी है कि जब किसी नामचीन साहित्यकार की जन्म तिथि या पुण्य तिथि हो तभी हम उसे स्मरण करने का आयोजन करते हैं। आयोजन के प्रतिभागी अपनी स्मरणशक्ति पर ज़ोर डालते हैं। जिनका उस संबंधित साहित्यकार से कोई मेलजोल रहा हो वह अपने संस्मरण याद करता है। शेष प्रतिभागी उसके साहित्य और जीवन को टटोलते हैं। किताबों में या फिर इंटरनेट में। एक दिन, एक या एक से अधिक आयोजन। बड़ा तामझाम। दूसरे दिन अख़बारों में आयोजन के सामचार तक दिलचस्पी। तीसरे दिन उस साहित्यकार से संबंधित स्मृतियों को सुला दिया जाता है, अगले वर्ष के आयोजन के लिए। अर्थात् चाहे जन्म तिथि हो या पुण्य तिथि हम बरसी ही मनाते हैं।
कई बार यूं भी होता है कि साहित्यकार के विचारों को विशेष विचारधारा से जोड़ कर देखा जाने लगता है और तब सत्ताशील राजनीतिक दल के विचारों वाले साहित्यकार तो याद किए जाते हैं किन्तु उसके विपरीत विचारधारा के साहित्यकार को याद करने का जोखिम मोल नहीं लिया जाता है। यहां यह समझना कठिन हो जाता है कि साहित्य सरोकार साहित्यकार और उसकी विचारधारा से होना चाहिए या सत्ताशील राजनीतिक दल की विचारधारा से? आखिर हमारे साहित्य सरोकार हैं क्या? क्या हमारे लिए यह मायने रखता है कि एक साहित्यकार ने क्या लिखा है, या फिर यह मायने रखता है कि उसकी विचारधारा वामपंथी है, दक्षिणपंथी है, उत्तरपंथी है या पश्चिमपंथी है? कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने साहित्य सरोकार को स्वयं ही समझ नहीं पा रहे हैं।  खैर, यदि देश की स्वतंत्रता के आस-पास के साहित्यकारों के बारे में सोचें तो याद आ जाएगा कि एक थे भीष्म साहनी। उन्होंने जीवन की लम्बी पारी खेली और बहुत सारा साहित्य सृजित किया। मैं यह सोचना भी नहीं चाहती हूं कि वे वामपंथी थे या दक्षिणपंथी। मेरी दृष्टि में वे एक मानवतावादी साहित्यकार थे जिन्होंने मानव जीवन की त्रासद बारीकियों को बड़ी गंभीरता से अपने साहित्य में प्रस्तुत किया।

भीष्म साहनी को अधिकतर वे लोग जानते हैं जो साहित्य में दिलचस्पी रखते हैं लेकिन उनके भाई बलराज साहनी को वे लोग भी जानते हैं जो साहित्य में रुचि नहीं रखते हैं। बलराज साहनी एक बेहतरीन और अत्यंत संवेदनशील फिल्म अभिनेता थे। ‘‘दो बीघा ज़मीन’’, ‘‘काबुलीवाला’’, ’’हकीकत’’, ‘‘एक फूल दो माली’’ जैसी फिल्मों में अभिनीत उनका अभिनय आज भी मन को छू जाता है। वहीं, भीष्म साहनी ने साहित्य जगत में अपनी जो छाप छोड़ी, उसे भले ही हम हमेशा याद न करें लेकिन कभी भुला भी नहीं सकते हैं। वह समय अस्थिरता का समय था, स्वतंत्रता आंदोलन का समय था, देश के बंटवारे का समय था, बड़ी संख्या में शरणार्थियों का समय था, माक्र्सवाद का समय था - ऐसे समय में भीष्म साहनी के विचारों में माक्र्सवाद का प्रभाव होना स्वाभाविक था। मात्र इसलिए कि वे माक्र्सवाद के प्रबल प्रभाव वाले समय में हुए, उनकी मानवतावादी कृतियों को हम तहा कर रख दें तो यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। यह तहाने की प्रक्रिया सिर्फ़ इसलिए है कि हम अपने साहित्य सरोकार को ठीक से समझ ही नहीं पाते हैं। यदि हमें अपने साहित्यिक अतीत के माध्यम से अपने जीवन के अतीत को समझना है तो पंथ-विशेष के टैग को निकाल कर समझना होगा। यदि और अधिक अतीत में जा कर इस बात को समझने का प्रयास करें तो शायद आसानी होगी कि यदि हम स्वयं को शैव मानते हैं और वैष्णव विचारों का विरोधी मानते हैं तो मीराबाई या सूरदास के काव्य को कभी समझ नहीं सकेंगे। इसीलिए जब हम भक्त कवियों की रचनाओं को पढ़ते हैं तो अपने मस्तिष्क में पहले यह स्थापित कर लेते हैं कि हम भक्तिकाल की रचनाएं पढ़ रहे हैं। ऐसा करते ही हमारे लिए मीरा, सूर, सिद्ध कवि गुंडरीपा या सरहपा के काव्य को समझना आसान हो जाता है। कहने का आशय यही है कि साहित्य किस विचारधारा से लिखा गया और उसे किस विचारधारा से पढ़ा जा रहा है, यह दोनों परस्पर भिन्न बातें हैं। इन्हीं दोनों के अंतर को समझना आवश्यक है। बहरहाल, यहां मैं बात कर रही हूं भीष्म साहनी की।

भीष्म साहनी ने आत्मकथा लिखी थी जिसका नाम है ‘‘आज के अतीत’’। यह उनकी मृत्यु के कुछ समय पहले यानी 11 जुलाई 2003 के कुछ पहले प्रकाशित हुई थी। भीष्म साहनी का जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिण्डी में हुआ था। वे अपने पिता हरबंस लाल साहनी तथा मां लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। सन् 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी विषय में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होने डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में ‘‘कंसेप्ट आफॅ द हीरो इन द नाॅवेल’’ शीर्षक से अपना शोधकार्य किया। सन् 1944 में उनका विवाह हुआ। 

भीष्म साहनी की व्यवस्थित साहित्य- यात्रा कहानियों से आरम्भ हुई। उनकी पहली कहानी अंबला इण्टर कालेज की पत्रिका ‘‘रावी’’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद उनकी दूसरी कहानी ‘‘नीली आंखें’’ ‘‘हंस’’ पत्रिका में छपी जिसके संपादक अमृतराय थे, जो कि प्रेमचंद के पुत्र थे। भीष्म साहनी को अपने उपन्यास ‘‘तमस’’ से सबसे अधिक ख्याति मिली। यह उपन्यास देश के बंटवारे की वास्तविक पीड़ा का आईना कहा जा सकता है। ‘‘तमस’’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘‘झरोखे’’, ‘‘कड़ियां’’, ‘‘बसन्ती’’, ‘‘कुंतो’’, ‘‘नीलू नीलिमा नीलोफर’’ आदि उपन्यास लिखे। उनकी कहानियां ‘भाग्यरेखा’, ‘पटरिया’, ‘पहला पाठ’, ‘भटकती राख’, ‘शोभायात्रा’, ‘निशाचर’, ‘पाली’ आदि ने पाठकों के अंतस तथा मानस को प्रभावित किया। भीष्म साहनी के लिखे नाटक आज भी मंचित किए जाते हैं। उन्होंने ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘माधवी मुआवजे’ जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे। बाल साहित्य लिखा। जीवनी और संस्मरण भी लिखे, जैसे-‘मेरे भाई बलराज’, ‘अपनी बात’ और ‘मेरे साक्षात्कार’। दरअसल भीष्म साहनी का लेखन विविधतापूर्ण रहा।

कहानी के बारे में वे मानते थे कि ‘‘कहानी में कहानीपन हो, उसमें जिंदगी की सच्चाई झलके, वह विश्वसनीय हो, उसमें कुछ भी आरोपित न हो, और वह जीवन की वास्तविकता पर खरी उतरे।’’ साहित्य की भाषा को ले कर भी उनके मन में कोई दुराग्रह नहीं था। वे मानते थे कि जहां आवश्यक हो वहां हिंदी हिंदी की सहोदर भाषाओं और बोलियों का बेझिझक प्रयोग किया जाना चाहिए। उनके अनुसार ‘‘उत्तर भारत की भाषाएं एक-दूसरे से इतनी मिलती-जुलती हैं कि एक के प्रयोग से दूसरी भाषा बिगड़ती नहीं, बल्कि समृद्ध होती है।’’

जहां तक भीष्म साहनी की विचारधारा का प्रश्न है तो वे निश्चितरूप से मानवतावादी विचारधारा के थे। वह समय था जब मानवतावाद प्रगतिशील और माक्र्सवादी विचारधारा से हो कर गुज़र रहा था। भीष्म साहनी भी तत्कालीन भारतीय परिवेश का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ अपने साहित्य में लेखबद्ध कर रहे थे इसलिए उनका प्रगतिशील विचारों को अपनाना, माक्र्सवादी मूल्यों को अपनाना स्वाभाविक था। यदि उन्होंने तत्कालीन जीवन की खांटी सच्चाई अपने साहित्य में लिखी और इसका आशय यह मान लिया जाए कि वे प्रगतिशील विचारधारा के पोषक थे, तो यह निःसंदेह स्वीकार किया जा सकता है। भीष्म साहनी के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होंने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी को लेखबद्ध किया। इसीलिए उनके साहित्य में यथार्थ की जीवंत उपस्थिति है और इसे प्रमाणित करने के लिए बानगी के तौर पर एक अकेला ‘‘तमस’’ ही पर्याप्त है क्योंकि विभाजन की त्रासदी को भीष्म साहनी ने स्वयं झेला था।

भीष्म साहनी के कथालेखन पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप रही। भीष्म साहनी भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा), प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) और अफ्रो-एशियायी लेखक संघ (एएआरए) से निरंतर संबद्ध रहे। वे पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करते थे। पूंजीवादी व्यवस्था को वे जन सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे। ‘बसन्ती’, ‘झरोखे’, ‘तमस’, ‘मय्यादास की माड़ी’ और ‘कड़ियां’ उपन्यास में उन्होंने आर्थिक विषमता की भयावहता का आंदोलित कर देने वाला विवरण दिया है। भीष्म साहनी पूंजीवाद को आर्थिक दुष्चक्र का नियंता मानते थे और माक्र्सवादी मूल्यों की पैरवी करते थे। भीष्म साहनी का धर्म मानवीय मूल्यों पर आधारित था। वे मानते थे कि धर्म की भूमिका मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने की होनी चाहिए, वैमनस्य की नहीं। वे धर्म के नाम पर मौजूद विद्रूपता का कड़ा विरोध करते थे। धर्म को लेकर उनके मन में किसी भी प्रकार का संशय नहीं था, उनके विचार स्पष्ट थे। एक आयोजन में अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘मैं धर्म के उस स्वरूप को धर्म ही नहीं मानता हूं जिसमें मानवता का हनन किया जाता हो।’’

भीष्म साहनी को विविधतापूर्ण जीवनानुभव रहा। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी शामिल हुए। सन 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस दौरान उन्हें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, सुदर्शन, जैनेन्द्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, इम्तियाज अली ‘ताज’, रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर आदि से मिलने का अवसर मिला। इन लोगों से भेंट ने भीष्म साहनी के लेखकीय व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डाला। फिर आया विभाजन का रक्तपाती समय। विभाजन के दौरान भीष्म साहनी का पूरा परिवार भारत आ गया। यहां उन्होंने विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया। इसी दौर में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। सन् 1975 में ‘गया सम्मेलन’ में वे प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव बने और इस पद पर सन 1986 तक रहे। अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में विचारधारा और साहित्य के परस्पर संबंध को स्पष्ट करते हुए भीष्म साहनी ने लिखा हैं कि ‘‘विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता। विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्रोत होती है, उसे दृष्टि देती है, उसकी संवेदना में ओजस्विता भरती है। साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण है। विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है। विचारधारा ने मुक्तिबोध की कविता को प्रखरता दी है। ब्रेख्त के नाटकों को अपार ओजस्विता दी है। यहां विचारधारा की वैसी ही भूमिका रही है, जैसी कबीर की वाणी में, जो आज भी लाखों-लाख भारतवासियों के होठों पर है।’’

प्रलेस के महासचिव के रूप में भीष्म साहनी ने प्रगतिशील आंदोलन को साहित्यिक विचारों की मुुख्यधारा में लाया। भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते थे। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि ‘‘प्रलेस की भूमिका एक सामाजिक, सांस्कृतिक धारा के रूप में रही, संगठन बन जाने के बाद भी उसने संस्था का रूप नहीं लिया। उसका स्वरूप एक लहर जैसा ही है, बंधी-बंधाई संस्था का नहीं है। यह भारत की सभी भाषाओं का साझा मंच था, धर्मनिरपेक्ष जनतंत्रात्मक की दृष्टि से प्रेरित और वामपंथी विचारधारा से गहरे प्रभावित जो एक देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ता था, तो दूसरी ओर विश्वव्यापी स्तर पर उठने वाली घटनाचक्र के प्रति सचेत था।’’

लेखक के सरोकार और लिखे हुए के प्रति सरोकार पर दो टिप्पणियां दो पुरोधा साहित्यकारों की यहां याद की जा सकती हैं। लेखकीय सरोकार पर पंडित विद्यानिवास मिश्र की टिप्पणी जो उनके लेख ंसग्रह ‘साहित्य के सरोकार’ में है-‘‘लेखक का सरोकार लेखक को अपने प्रति, अपने भीतर के मनुष्य के प्रति तो है, पर उसके बारे में प्रश्न करने वाला भी भीतर का ही आदमी होगा, जो मेरे मन की आवाज सुन नहीं सकता वह आदमी क्यों मुझसे प्रश्न करे? मेरे लिखने का स्रोत बाहर तो है नहीं, भीतर है। इसीलिए मेरी दृष्टि में सरोकार से अधिक साहित्य का रिश्ता चिंता से है। साहित्य भीतर की बेचैनी से ही उकसता है।’’
       और दूसरी टिप्पणी जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष रहे कथाकार दूधनाथ सिंह की, साहित्य के प्रति सरोकार पर- ‘‘साहित्य कोई समूह की चीज नहीं है। यह शाश्वत और व्यक्तिगत प्रयास है। साहित्य और संस्कृति की चुनौतियां किसी एक तारीख के साथ बदलती भी नहीं। राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में हड़बोंग मचा है, जिसका असर लेखन पर भी पड़ा है। सत्ता की धमकियां दबाव बनाती हैं। सवाल यह है कि व्यवस्था की विसंगतियों को लेकर कोई लेखक कितना हस्तक्षेप करता है। चुनौती यह भी कि विसंगति का विरोध करेंगे या चुप रहेंगे।’’

उपरोक्त दोनों टिप्पणियां अपने-अपने ढंग से साहित्य के प्रति हमारे पूर्वाग्रह विहीन सरोकार का आग्रह करती हैं। यूं भी, भीष्म साहनी जैसे मानवतावादी दृष्टिकोण के धनी, सामाजिक प्रगति के पैरोकार तथा अपने समय के सच को एक इतिहास से भी अधिक गहराई से लिखने वाले साहित्यकार को स्मरण करने के लिए किसी विशेष दिवस या आयोजन की आवश्यकता हो, कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता है और वस्ुततः यही हमारा साहित्य सरोकार होना चाहिए कि ऐसे साहित्यकार के लेखन को हम हमेशा अपनी चेतना में जाग्रत रखें।
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