छतरपुर (मप्र) से प्रकाशित "प्रवीण प्रभात" ने बुंदेलखंड के सुपरिचित कवि स्व. सुरेंद्र शर्मा "शिरीष" जी को श्रद्धांजलि स्वरूप विशेषांक प्रकाशित किया है... मेरा श्रद्धांजलि लेख भी इसमें शामिल है....🙏
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(शिरीष जी की स्मृति में श्रद्धांजलि आलेख)
उनके लेखन से दिशा, लेगा सकल समाज
- डाॅ.(सुश्री) शरद सिंह
सुरेन्द्र शर्मा ‘शिरीष’ जी का दैहिक रूप में इस संसार में अब नहीं हैं, यह मानने का मन नहीं होता है। उनका स्मरण आते ही उनकी वात्सल्यपूर्ण मुस्कुराहट याद आने लगती है। जीवन के झंझावातों एवं व्यस्तताओं के चलते विगत कुछ वर्षों से ‘शिरीष’ जी से मेरी भेंट नहीं हो सकी किन्तु मेरे परिवार का उनसे वर्षों पुराना परिचय रहा है। यूं तो आकाशवाणी छतरपुर की कई गोष्ठियों और एक-दो मंचों पर उनके साथ काव्यपाठ का सुअवसर मिला था लेकिन इस औपचारिक भेंट के अतिरिक्त भी एक अपनापा था। वे जब भी पन्ना आते तो हिरणबाग स्थित मेरे घर अवश्य आते। मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह ने उनके साथ कई मंचों पर काव्य पाठ किया। दीदी के साथ हमेशा मेरी मां डाॅ. विद्यावती ‘मालविका भी जाया करती थीं। उन्हें काव्यपाठ नहीं करना रहता था लेकिन वे संरक्षिका के रूप में दीदी के साथ जाती थीं। इस बात से ‘शिरीष’ जी बहुत प्रभावित हुए थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार वे, दीदी और मां देवेन्द्र नगर के कवि सम्मेलन से लौटे थे और मां के आग्रह पर ‘शिरीष’ जी हमारे घर चाय-नाश्ते के लिए कुछ घंटे रुके थे। उस दिन दिन उन्होंने मुझसे भी ढेर सारी बातें की थीं। ‘‘अच्छा लिखती हो’’ कह कर मुझे प्रोत्साहित भी किया था। साथ ही उन्होंने मां की प्रशंसा करते हुए कहा था कि ‘‘यदि हर मां तुम्हारी मां की भांति सजग रहे तो किसी बेटी को कभी कोई खतरा नहीं हो सकता है।’’
मुझे अच्छा लगा था उनके मुख से अपनी मां की प्रशंसा सुन कर। यह उनकी सहृदयता, शालीनता और आत्मीयता थी कि उन्होंने मेरे परिवार को अपनत्व की दुष्टि से देखा। वे मेरी मां को ‘दीदी’ कह कर पुकारते थे। संभवतः सन् 1986 में एक दिन वे पन्ना आए तो उन्होंने बताया कि उनके सगे अनुज शासकीय जिला चिकित्सालय में पदस्थ हुए हैं। उन्होंने अपने अनुज से हम लोगों का परिचय कराया। हम लोग उन्हें ‘‘डाॅ. शर्मा’’ के संबोधन से पुकारते थे। फिर जब तक यानी मार्च सन 1988 तक हम लोग पन्ना में रहे तब तक उनके घर आना-जाना रहा और उन्हीं से चिकित्सा कराते रहे। चिकित्सक होते हुए भी डाॅ. शर्मा अपने बड़े भाई ‘शिरीष’ जी की भांति कविमना थे। निश्चित रूप से यह ‘शिरीष’ जी के संस्कारों का ही सुपरिणाम था।
पन्ना से सागर आकर निवासरत होने के उपरांत भी जब भी आकाशवाणी छतरपुर जाना होता तो ‘शिरीष’ जी से मिलने का सुयोग बन ही जाता। मैंने पाया कि वे वरिष्ठ कवि होते हुए भी सभी से बड़ी आत्मीयता से मिलते। उनकी दृष्टि में नवोदित रचनाकारों के प्रति भी स्नेहभाव रहता। वस्तुतः ‘शिरीष’ जी जीवन को जीना जानते थे। वे बाधाओं से पार पाना जानते थे। यह तथ्य उनके इस गीत-बंद में ख्ुाल कर मुखर हुआ है-
नहा लिया गीतों ने जब से आंसू की पावन गंगा में,
पंक्ति पंक्ति पूजन लगती है छंद छंद वंदन लगता है।।
धूपवती यात्रा में केवल मिली आचमन को ही छाया
एकाकीपन मिला भेंट में सपनों को आत्मीय बनाया
सुविधा के आसक्ति जाल में हुए पंगु संकल्प भगीरथ
था बाधा भय जिनसे उन अवरोधों ने ही पथ दर्शाया
बना लिया सहयात्री जबसे चरणों ने काटों, छालों को,
हर घाटी उपवन लगती है मरुथल जो आंगन लगता।।
‘शिरीष’ जी बुंदेलखंड के उन चंद कवियों में थे जिन्होंने खुले मंचों पर रस, छंद और अलंकार की शालीनता को स्थापित रखा। उनकी रचनाओं में शिष्ट श्रृंगार के साथ ही गहन सामाजिक सरोकार एवं वर्तमान दशाओं की चिंता का समावेश रहा। उनकी ये पंक्तियां उनके चिंन्तन को रेखांकित करने में सक्षम हैं-
पल-पल बढ़ती चिंताएं, एक सांस सौ विपदाएं।
जीवन क्या है प्रश्न चिन्ह है उत्तर क्या बतलाएं।
कोरे भाषण, मात्र प्रदर्शन, थोथी नारेबाजी
बोलो मेरे भाई, क्या यही पाई है आजादी
मोटे-मोटे हर्फ भूख के लिखती दसों दिशाएं
सूर्य, चंद्रमा तक पाते हैं रोटी की संज्ञाएं
जीवन अस्त-व्यस्त हुआ
अब हर सपना ध्वस्त हुआ
सुंदर क्या है प्रश्न चिन्ह है उत्तर क्या बतलाएं।
‘शिरीष’ जी ने हमेशा समय की नब्ज़ पर उंगली रख कर सृजन किया। इसीलिए स्त्री के प्रति बढ़ते अपराधों को देख कर वे ये पंक्तियां कहे बिना नहीं रह सके कि -
हो रहा जो आचरण अच्छा नहीं
रोज ही सीताहरण अच्छा नहीं
ऐसे सजग कवि को खोना बुंदेलखंड के साहित्य जगत के लिए तो त्रासद है ही मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति भी है क्यों कि मैंने उनके रूप में अपने एक वरिष्ठजन को खो दिया। मैं ‘शिरीष’ जी की स्मृतियों को नमन करती हुई अपने ये दोहे उन्हें समर्पित करती हूं -
दिया जिन्होंने था सदा, मुझे अतुल आशीष।
वे थे ममता से भरे, कविवर-श्रेष्ठ ‘शिरीष’।।
‘शरद’ करे उनको नमन, श्रद्धावत हो आज।
उनके लेखन से दिशा, लेगा सकल समाज।।
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Praveen Gupta
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