Tuesday, January 24, 2023

पुस्तक समीक्षा | हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 24.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका डॉ. सुजाता मिश्र की पुस्तक "हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
विचारों के बंद दरवाज़े पर ज़ोरदार दस्तक देती पुस्तक 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक    - हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा 
लेखिका   - डाॅ. सुजाता मिश्र
प्रकाशक   - हंस प्रकाशन, बी-336/1, गली नं.3, दूसरा पुस्ता, सोनिया विहार, नई दिल्ली-110094
मूल्य      - 695/- 
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    ‘‘हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा’’- वैचारिक आंदोलन का आग्रह करती यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसे लिखा है युवा लेखिका डाॅ. सुजाता मिश्र ने। सुजाता के पास अपनी एक मौलिक दृष्टि है। वे प्रत्येक विषय को अपनी तार्किकता पर तौलती हैं फिर उस पर कोई टिप्पणी करती हैं। उनकी ‘‘18 समीक्षाएं’’ के नाम से एक समीक्षा पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। डाॅ. सुजाता मिश्र की यह नवीनतम पुस्तक हिन्दी सिनेमा में स्त्री के बदलते स्वरूप का अकलन करती है। इस पुस्तक में उन्होंने अठारह फिल्मों का चयन किया है जिन्हें आधार बना कर वे समाज में स्त्री की दशा-दिशा की पड़ताल करती हैं। ये अठारह फिल्में ‘‘मदर इंडिया’’ से आरम्भ हो कर ‘‘त्रिभंग’’ पर जा कर ठहरती हैं। गहन मंथन के बाद चयनित ये फिल्में विविध कालखंड का प्रतिनिधित्व करती हैं।   

वस्तुतः हिन्दी सिनेमा एक लम्बी यात्रा तय कर चुका है। इसके साथ ही यात्रा की है स्त्री के सामाजिक स्वरूप स्वरूप ने। आमतौर पर सिनेमा में वही दिखाया जाता है जो कुछ समाज में घट रहा हो। कभी-कभी कुछ उत्साही निर्माता-निर्देशक जोखिम उठाते हुए लीक से हट कर सिनेमा गढ़ते हैं। ऐसी फिल्मों के केन्द्र में होती है स्त्री। चक्र, दमन, बाज़ार, मंडी, रजनीगंधा, माया मेमसाहब, फायर आदि ऐसी ही हिंदी फिल्में हैं जिनमें स्त्री जीवन को केन्द्र में रखा गया। यद्यपि लेखिका ने इनसे हट कर फिल्मों को चुना है। हिंदी सिनेमा ने स्त्री को कभी परंपरावादी रूप में दिखाया तो कभी एक विद्रोही के रूप में। सच भी यही है कि आज की स्त्री अपने परंपरावादी घुटन भरे माहौल से बाहर निकल कर खुद को जीना चाहती है। देखा जाए तो, स्त्री इस समाज से बहुत अधिक कुछ नहीं चाहती है। बस, अपने अस्तित्व की पहचान, अपने कोख पर अधिकार और अपने प्रति की जाने वाली हिंसा का समापन। वह मात्र इतना ही जताना चाहती है कि वह भी पुरुषों के समान एक इंसान है। यदि बायोलाॅजिकली शारीरिक शक्ति उसमें कम है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि पुरुष उसे मारता-पीटता रहे और उसके साथ पशुवत व्यवहार करता रहे। जबकि देखा जाए तो सबसे बड़ी बायोलाम्जिकली खूबी स्त्री के पास ही है, और वह है मातृत्व धारण करने तथा संतान को जन्म देने की क्षमता। लेकिन पुरुषवादी सामज ने उसकी इस खूबी पर भी कब्ज़्ाा कर रखा है। एक स्त्री अपनी इच्छानुसार गर्भधारण अथवा गर्भपात नहीं करा सकती है। बलात्कार को तो गोया पुरुष के द्वारा किया गया अपराध नहीं वरन स्त्री के लिए अभिशाप की तरह देखा जाता है। पुरानी हिंदी फिल्मों में एक टिपिकल स्टोरी होती थी जिसमें हीरो की भोली-भाली बहन के साथ खलनायक बलात्कार करता था और वह पीड़िता बहन ‘‘मुंह दिखाने लायक नहीं रही’’ की धारणा के चलते आत्महत्या कर लेती थी। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी सिनेमा का यह स्टीरियो टाईप मानक टूटने लगा है और आज की स्त्री चाहे-अनचाहे यौनिक संबंधों को ले कर अपने अस्तित्व को मिटाने का विरोध करती है। आज की पीढ़ी जो घर से दूर जा कर पढ़ती है, रोजी-रोजगार से जुड़ती है, उसके लिए यौनिक संबंध ‘‘टैबू’’ नहीं रह गए हैं। ‘‘शुद्ध देसी रोमांस’’ जैसी कामर्शियल फिल्में भी इस यथार्थ को पूरे सलीके से सामने रखती हैं। इस सारे परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए डाॅ. सुजाता मिश्र ने अपनी पसंद के अनुरुप फिल्मों का चयन किया है। ये अठारह फिल्में हैं- मदर इंडिया, साहिब बीबी और गुलाम, बंदिनी, निकाह, आखिर क्यों?, मिर्च मसाला, अस्तित्व, डोर, इंग्लिश-विंग्लिश, क्वीन, पाच्र्ड, निल बटे सन्नाटा, एंग्री इंडियन गाॅडेसेस, लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का, पटाखा, गाॅन केश, थप्पड़ और त्रिभंग। 

अठारह फिल्मों की मीमांसा करते हुए लेखिका ने प्रत्येक लेख का स्वतंत्र उपशीर्षक दिया है। जैसे ‘‘मदर इंडिया’’ का उपशीर्षक है-‘‘स्त्री जीवन संघर्ष की गाथा’’। निर्माता निर्देशक महबूब खान की फिलम ‘‘मदर इंडिया’’ सचमुच एक कालजयी फिल्म है जो तत्कालीन समाज में स्त्री की दलित अवस्था को बखूबी दर्शाती है। एक स्त्री अपने परिवार का पेट भरने के लिए हल में बैल की जगह अपने कंधे पर रख कर खेत जोतती है, बाढ़ से जूझती है, देह लोलुप पुरुषों का समाना करती है जबकि उसका पति अपने जीवन से घबरा कर आत्महत्या कर लेता है। लेकिन वह स्त्री एक मां है जो अपने बच्चों के लिए सबकुछ सहन करती है। वहीं यदि उसे सहन नहीं होता है तो अपने बेटे का किसी लड़की पर बेजा कब्जा करने की कोशिश करना। यह फिल्म स्त्री स्वाभिमान की कथा कहती है। इसी तथ्य की ओर संकेत करती हुई लेखिका लेख के अंत में लिखती हैं-‘‘छोड़ देना आसान होता है, मुश्क़िल होता है थामें रहना। मुश्किल होता है निभाना जिम्मेदारियां और मुश्किल होता है इंतज़ार उसके लौट आने का जो बिना बताए ही कहीं चला गया हो।’’ इस तरह की कठिनाइयों को स्त्रियों ने हमेशा ही जिया है जिसके लिए लेखिका परितक्त्या यशोधरा की याद दिलाती हैं। यहां सुजाता एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी उठाती हैं कि खेतों में काम करने वाली स्त्रियों को कामकाजी क्यों नहीं माना जाता है?

‘‘साहिब, बीबी और गुलाम’’ में वह स्त्री है जो हर कीमत पर अपने वैवाहिक मूल्यों को बचाना चाहती है। वह अपने विलासी पति को अपने प्रति आकर्षित करने के लिए शराब तक पीने लगती है। विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म की नायिका मीनाकुमारी अभिनीत छोटी बहू का किरदार हर पल उद्वेलित करता है। बार-बार प्रश्न उठता है कि एक विलासी पति के लिए क्या स्वयं को तिल-तिल कर मिटा देना जरूरी है? इसका उत्तर वे सामाजिक स्थितियां देती हैं जिसमें निहायत नकारा ही सही लेकिन स्त्री के लिए एक पति होना जरूरी है। छोटी बहू वह सिंदूर भी लगाती है जो वशीकरण का दावा करता है। अवसरवादिता यह कि सिंदूर फैक्ट्री का मालिक आर्यसमाजी है। यानी एक ओर वह स्त्रियों की प्रगति का हिमायती है और वहीं दूूसरी ओर एक ऐसा व्यवसायी जो स्त्री की निर्बल मनोदशा का लाभ उठाकर सिंदूर को वशीकरण वाला कह कर बेचता है। दरअसल एक स्त्री की कमजोरी का फायदा सब उठाना चाहते हैं। लेखिका द्रवित हो कर लिखती हैं कि -‘‘वैसे भी इस पुरुषवादी समाज में स्त्रियों की सुनने वाला है ही कौन?’’

चारु चंद्र चक्रवर्ती के उपन्यास ‘तमसी’ पर आधारित विमल राॅय की फिल्म ‘‘बन्दनी’’ में महिला कैदी कल्याणी की कथा है जो जेल में एक टीबी पेशेन्ट की सेवा करती है और इसी सिलसिले में डाॅक्टर के संपर्क में आती है। डाॅक्टर भी उससे प्रभावित होता है किन्तु दोनों के बीच भावनात्मक संबंध ही रहते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन पूर्वाग्रह के चलते लोगों को यह संबंध दोषपूर्ण दिखाई देने लगता है। आज भी नज़रिया इससे भिन्न नहीं है। डाॅ. सुजाता ने इस लेख का उपशीर्षक दिया है -‘‘कैद में स्त्री मन’’। देह कैद में रहे तो फिर भी सहनीय होता है लेकिन जब मन को कैदी बनाया जाने लगता है तो स्थियां त्रासद हो जाती हैं। लेखिका ने लेख के अंत में ‘‘दिल वाले दुल्हनिया...’’ की सिमरन को याद करते हुए जो तुलना की है उससे समय की खाई एक झटके में भरती हुई दिखाई देती है।

डाॅ अचला नागर के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘‘निकाह’’ ने तीन तलाक को रद्द किए जाने के कई वर्ष पूर्व एक गहन विमर्श प्रस्तुत किया था। तीन तलाक की विडम्बना और स्त्री के मान-सम्मान का हनन तथा इन सबके विरुद्ध एक मुस्लिम स्त्री का डट कर खड़े होना - इन सब पक्षों के लिए इस फिल्म का विमर्श के लिए चुन कर लेखिका ने भारतीय स्त्रियों की समग्रता को सामने रखा है। वहीं, ‘‘आखिर क्यों’’ को ‘‘शक्ति का नाम ही नारी है’’ का उपशीर्षक देते हुए लेखिका ने इस फिल्म के रूप में स्त्री के स्वाभिमान के एक और पक्ष को चुना है। पुरुष ने यह छूट स्वयं को दे रखी है कि वह जैसा चाहे जीवन जी सकता है, विवाहेत्तर संबंध रख सकता है, पत्नी का त्याग कर सकता है किन्तु स्त्री यदि अपने ढंग से अपना जीवन जीना चाहे तो यह उसे सहन नहीं होता है। यह अमूमन समाज के हर तबके की दशा है, चाहे उच्चशिक्षित तबका हो या अशिक्षित। फिल्म ‘‘मिर्च मसाला’’ इसी तथ्य पर आधारित है कि अकेली स्त्री को हर पुरुष अपनी संपत्ति बना लेना चाहता है। ‘‘मिर्च मसाला’’ की अशिक्षित सोनबाई देह लोलुप सुबेदार का विरोध करती है। शुरू होता है एक चुनौती भरा संघर्ष। उसके संघर्ष में अंततः गांव की और स्त्रियां भी शामिल हो जाती हैं और सूबेदार पर मिर्चपाउडर डाल कर विरोध का शंखनाद कर देती हैं। यहां मिर्च शोषण के विरुद्ध हथियार का प्रतीक है। लेखिका टिप्पणी करती हुई लिखती हैं कि -‘‘कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों में ही हमें अपनी शक्तियों और क्षमताओं का वास्तविक बोध होता है।’’

चाहे ‘‘अस्तित्व’’ हो, ‘‘क्वीन’’ हो, ‘‘डोर’’ हो या ‘‘पार्च्ड’’ हो ये सभी फिल्में स्त्री को अपने क्षमताओं के प्रति क्रमिक जागरूक होते हुए दिखाती हैं। ‘‘एंग्री इंडियन गाॅडेसेस’’ स्त्री स्वातंत्र्य की कथा कहती है। यह सुशिक्षित कामकाजी स्त्रियों के अपने ढंग से जीने की शैली पर केन्द्रित है। ‘‘लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का’’ के पोस्टर पर काफी विवाद हुआ था। लिपिस्टिक को एक आपत्तिजनक संकेत के साथ चित्रित किया जाना कथानक की गंभीरता को हल्का करने वाला था फिर भी यह फिल्म स्त्री की दमित इच्छाओं को मुखरता प्रदान करने वाली थी। ‘‘पटाखा’’, ‘‘गाॅन केश’’, ‘‘थप्पड़’’ और ‘‘त्रिभंग’’ जैसी फिल्में मानो यह घोषणा करती हैं कि अब बस! स्त्री अब और सहन नहीं करेगी! घिसे-पिटे, लिजलिजे पुराने मानक टूटने चाहिए। अब वह परिदृश्य हो जिसमें स्त्ऱी और पुरुष सही अर्थ में समानता से जिएं। 
डाॅ. सुजाता मिश्र ने अपनी इस पुस्तक ‘‘हिंदी सिनेमा की स्त्री यात्रा’’ में सभी अठारह फिल्मों की कहानी देते हुए उनकी स्त्रीवादी दृष्टि से विवेचना की है। यह पुस्तक हिन्दी सिनेमा के जरिए स्त्रियों के अस्तित्व के स्वरूप और संघर्ष पर गहन विमर्श का आग्रह करती है। इस पुस्तक में रोचकता के साथ ही कई विशेषताएं हैं। प्रत्येक लेख में लेखिका का आक्रोश खुल कर प्रकट हुआ है। वे स्त्रीविरोधी मानसिकता और स्त्री को महज उपभोग की वस्तु समझे जाने का प्रतिरोध करती हैं। लेखिका ने भाषाई मुद्दे को परे रखते हुए हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हुए मूल कथ्य पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा है। लेखिका ने ‘‘सेक्सुअल रिलेशन’’ जैसे शब्दों का ना केवल प्रयोग किया है अपितु यौनिक संबंधों में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा पर विस्तृत चर्चा भी की है। लेखिका के विचारों का यह खुलापन और प्रखरता विषय को धारदार ढंग से प्रस्तुत करने में सहायक सिद्ध हुई है। इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्यों कि यह मात्र एक पुस्तक नहीं बल्कि विचारों के बंद दरवाजे पर एक ज़ोरदार दस्तक है। सनद रहे कि हर परिविर्तन बंद दरवाज़ों के खुलने पर ही होता है।                          
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