Tuesday, January 31, 2023

पुस्तक समीक्षा | ‘‘महज़ आदमी के लिए’’: तार्किक संवाद करती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 31.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक अरविंद मिश्र  के काव्य संग्रह "महज़ आदमी के लिए" की समीक्षा...

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पुस्तक समीक्षा
‘‘महज़ आदमी के लिए’’: तार्किक संवाद करती कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह   - महज़ आदमी के लिए
कवि         - अरविंद मिश्र
प्रकाशक   - आईसेक्ट पब्लिकेशन, ई-7/22, एस. बी. आई., आरेरा काॅलोनी, भोपाल (मप्र)- 462016
मूल्य      - 200/-
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सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
- प्रखर आंदोलनकारी कवि पाश की कविता ‘‘सबसे ख़तरनाक’’ का अंश है यह। जब कविता एक आंदोलन की तरह मुखर होती है तो उसका रंग कुछ अधिक गहरा होता है। उसमें स्याह और धूसर रंगों की प्रमुखता होती है। जीवन जब विसंगतियों और विडम्बनाओं से घिरा हुआ हो तो यही गहरे रंग कभी अवसाद देते हैं तो कभी विद्रोही बना देते हैं। आंदोलनकारी कविताएं विद्रोह का स्वर लिए हुए होती हैं। विद्रोह हमेशा किसी दूसरे इंसान के प्रति ही नहीं होता वरन यह बिगड़ी हुई व्यवस्था के प्रति, सड़ी-गली परम्पराओं ओर मान्यताओं के प्रति, दुर्गन्ध मारते विचारों के प्रति अथवा स्वयं के प्रति भी हो सकता है। देश में समाजवादी विचारधारा के प्रसार, पहले से चली आ रही जनवादी साहित्य की परंपरा के विकास और वामपंथी आंदोलन के प्रभाव के कारण साहित्य में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरुआत हुई। साहित्य के राजनीतिक सरोकार, वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा के प्रति प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन और क्रांति जैसे विषयों पर वैचारिक मंथन आरंभ हुआ। सियाराम शर्मा ने अपने एक लेख ‘‘नक्सलबाड़ी का किसान विद्रोह और हिंदी कविता’’ (पल-प्रतिपल, ंअक 42) में हिंदी कविता के विद्रोही स्वरों को तीन भागों में बांटते हुए बहुत महत्वपूर्ण व्याख्या की है। उन्होंने लिखा कि ‘‘सातवें दशक के उत्तरार्द्ध से ले कर नवें दशक के प्रारंभ तक हिंदी कविता में स्पष्ट रूप से तीन अलग-अलग संसार दिखाई पड़ते हैं।’’ सियाराम शर्मा के अनुसार पहला संसार उन लोगों का हैं जिन्होंने भूखे, नंगे, फटेहाल लोगों को कविता की दुनिया से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया और प्रेम, रति और मृत्यु पर कविताएं लिखते रहे। भले ही इनका काव्य जीवन तथा समाज के सरोकारों से दूर उदरपोषित वर्ग के मनोरंजन की वस्तु बन कर रह जाए। कविता के दूसरे संसार में वे कवि हैं जो मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग की विषमताओं को जीते हैं। वे वामपंथी स्वरों से सहानुभूति रखते हैं किन्तु व्यवस्था को आमूलचूल बदलने की सीमा तक सोचने का साहस नहीं रखते। कविता के तीसरे संसार के कवि हुंकार भरते दिखाई देते हैं। उनके लिए बीमार व्यवस्थाएं समर स्थल हैं। वे लड़ने का माद्दा रखते हैं। उन्होंने अतीत में तमाम जनआंदोलनों को अपना काव्यात्मक समर्थन दिया और भविष्य में भी काव्य को मशाल की भांति प्रज्ज्वलित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस वर्गीकरण की यहां चर्चा करना इसलिए समीचीन है क्योंकि इससे अरविंद मिश्र के कविता संग्रह ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ की भावभूमि को समझना आसान हो जाएगा।   

     ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ में अरविंद मिश्र की कुल पचासी कविताएं हैं जो चार अध्याय-शीर्षकों में विभक्त की गई है- हमेशा हाशिया ही आया, संसार की सत्ता का उत्सव, आधी दुनिया की हुक्मरान और मित्र लौट आओ। इन चारो में प्रत्येक अध्याय की कविताएं शाब्दिक रूप में भले ही भिन्न हों किन्तु इनका मूल स्वर एक समान है जिसमें आक्रोश है, उलाहना है, चेतावनी है, आग्रह है और प्रतिरोध है। संग्रह की भूमिका नवल शुक्ल ने लिखी है तथा ल्बर्ब पर लीलाधर मंडलोई की लम्बी टिप्पणी है।
जब कविता में प्रतिरोध के स्वर मुखर होते हैं तो वह कविता निजी नहीं रह जाती है, ऐसी कविता जनहित की कविता बन जाती है। अरविंद मिश्र की कविताएं भी जनहित की कविताएं है क्योंकि वे मानवता विरोधी कार्यों के प्रति अपनी चिंता प्रकट करती हैं। कवि की चिंता इस बात को भी लेकर है कि जो सामाजिक और आर्थिक दुनिया के आधार हैं, वे मनुष्य आज भी निचले स्तर पर ही क्यों हैं? जैसे किसी ऊंची इमारत की नींव के पत्थरों को भूमि में दबा कर भुला दिया गया हो। यह भी भुला दिया गया हो कि यदि नींव किसी दिन दरकने लगेगी तो इमारत पर भी दरारें आ जाएंगी और इमारत ध्वस्त भी हो सकती है। अरविंद मिश्र दलितों, शोषितों के प्रति अत्यंत सहानुभूति रखते हुए उनकी स्थिति बदलने का आग्रह करते दिखाई देते हैं। इसीलिए उनके इस कविता संग्रह ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ की प्रथम कविता ही एक सुखद कल्पना और सुखद आशा का स्वर लिए हुए है-
एक दिन
तुम्हारे हाथों के स्पर्श से
गरमाएगी दुनिया
तुम्हारे हाथों की बनी रोटियां
संसार का
सबसे स्वादिष्ट व्यंजन होंगी।

एक दिन/ तुम्हारा बेटा भी
समर्थ बनेगा
खुद काटेगा/अपना बोया खेत
खून से मंहगा/बिकेगा तुम्हारा पसीना
तुम्हारी आवाज़ से/खुलेंगे घर-घर के द्वार
देखना/ तुम्हारे सारे सपने
होंगे साकार/एक दिन।

    ‘‘हम होंगे क़ामयाब एक दिन’’ की आकांक्षा को ग़रीब किसानों और खेतिहर मजदूरों से जोड़ते हुए कवि की आकांक्षा सकारात्मक भाव प्रकट करती है। लेकिन जीवन में जो भी नकारात्मक है वह भी कवि से अछूता नहीं है। यहां कवि ने ‘‘आदमी’’ शब्द का अर्थ मानवता के रूप में लेते हुए ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ शीर्षक से दो कविताएं लिखी हैं। पहली कविता का मानवीय उलाहना देखिए-
आंख मूंद श्रद्धालु
मंदिरों में कर रहे संकीर्तन
मस्जिदों में हो रही अजानें
नियम से जा रहे हैं लोग
रविवार को गिरजाघर
गुरुद्वारों में
पढ़ी जा रही है गुरुवाणी
सब चल रहा है/हो रहा है
अर्थ के लिए अनर्थ
महज़ आदमी के लिए
आदमी ज़िन्दा नहीं है।
अरविंद मिश्र की कविता में समकालीन समय अपने पूरी त्रासदी के साथ मौजूद है। वस्तुतः संग्रह की कविताएं मनुष्यता को तलाशती हुई कविताएं हैं। ये कविताएं उन पदचापों पर भी कान लगाए हुए हैं जो समय-समय पर सामाजिक भेद-भाव, तानाशाही और आर्थिक खाई के चलते अकर्मण्यता की किसी गुफा में दुबक कर बैठ गई हैं। इसीलिए जब परिवर्तन अथवा प्रतिरोध के ये पदचाप कवि को सुनाई नहीं देते हैं तो वह खिन्न स्वर में कटु शब्दों का सहरा लेता है ताकि सुप्त होती जा रही चेतना को झकझोरा जा सके। ‘‘समझ नहीं पा रहे कुचालें’’ कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
        लाख मुसीबतों के बाद भी
कह रहे हो पायलागूं
ढो रहे हो गू-मूत,
शताब्दी की शताब्दी
गुज़र जाने के बाद भी
समझ नहीं पा रहे कुचालें
यूं तो संग्रह की अधिकांश कविताएं उद्धृत करने योग्य हैं किन्तु अंत में ‘‘डाकिया’’ कविता का एक अंश देखना जरूरी है क्योंकि यह कविता बताती है कि डाकिए की भूमिका को जब से इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों ने विस्थापिता किया है तब से संवेदनाएं भी किस तरह विस्थापित हो गई हैं। यह अंश देखिए-
हार-जीत की सूचनाएं
देश-परदेश का समाचार
भांति-भांति की जातियां
देश, धर्म, रिश्ते-नाते, संस्कृतियां सब कुछ
आज जबकि व्हाट्एप, ई-मेल ने
हथिया ली हैं तुम्हारी कार्रवाइयां
सचमुच! बड़ी बात है डाकिया होना।

कवि अरविंद मिश्र का अनुभव संसार व्यापक है। वे जीवन के प्रति गहरी दृष्टि रखते हैं और उन प्रयासों को सफल होते देखना चाहते हैं जो कुछ विशेषवर्ग के मनुष्यों को मनुष्यता वाले उनके बुनियादी अधिकार दिला सकते हैं। कविताओं में शब्दों की बुनावट सटीक और बेहतरीन है। ‘‘महज़ आदमी के लिए’’ काव्य संग्रह में तार्किक संवाद करती कविताएं है, कोई भी बात थोथेपन से नहीं कही गई है। इसकी यही खूबी इसे पठनीय और विशेष बनाती है।    
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