Tuesday, January 10, 2023

पुस्तक समीक्षा | मन्नतों के धागे | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 10.01.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक चन्द्रभान राही के उपन्यास "मन्नत के धागे" की समीक्षा...
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उपन्यास     - मन्नतों के धागे
लेखक      - चन्द्रभान राही
प्रकाशक    - सर्वत्र, द्वितीय तल, उषा प्रीत कसॅम्प्लेक्स, 42, मालवीय नगर, भोपाल -462003
मूल्य       - 299/- (पेपरबैक)
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उपन्यास एक रोचक विधा है जो पाठक को जीवन के एक बड़े लेखकीय कैनवास पर शब्दों से चित्रित किए गए रंगों से परिचित कराती है। चूंकि उपन्यास का कथानक विस्तृत होता है तथा उसमें अनेक उपकथाएं भी समाहित होती हैं अतः उसमें सूत्रबद्धता सबसे बड़ी चुनौती होती है। जैसे यदि किसी पेंटिंग में रंगों को कलात्मकता से परस्पर ब्लेंड न किया जाए तो वे अलग-अलग धब्बों के समान दिखाई देने लगते हैं और पेंटिंग की खूबसूरती बिगड़ जाती है। इसी तरह उपन्यास में भी मूल कथानक के साथ चलती उपकथाओं को भी परस्पर अच्छी तरह और सुंदरता से ब्लेंड होना चाहिए ताकि जब पाठक उसे पढ़े तो उसे किसी तरह की उलझन या क्रमबाधा का अनुभव न करना पड़े। इस बार मैं जिस उपन्यास की समीक्षा कर रही हूं वह एक ऐसी ही पेंटिंग की तरह है जिसमें सभी रंग परस्पर अच्छी तरह से घुले-मिले (ब्लेंड) हैं। उपन्यास का नाम है -‘‘मन्नतों के धागे’’। इसके लेखक हैं चन्द्रभान राही।
चन्द्रभान राही एक कथाकार तो हैं ही, साथ ही अच्छे उपन्यासकार भी हैं। ‘‘मन्नतों के धागे’’ उनकी एक बेहतरीन कृति है। इसमें अंधविश्वास पर प्रहार किया गया है। अंधविश्वास को उजागर करने वाले कई उपन्यास पहले भी लिखे जा चुके हैं लेकिन यह उपन्यास अपनी शैली को लेकर उन सबसे अलग ठहरता है। कथानक सुपरिचित है। एक विवाहित स्त्री संतान की प्राप्ति के लिए, पति और सुसराल की समृद्धि के लिए तथा पति की दीर्घायु के लिए मंदिरों में, वृक्षों में मन्नतों के धागे बांधती है और विश्वास करती है कि उसकी मन्नतें पूरी होंगी। किन्तु जब मन्नतें मात्र मांगने या इच्छा करने से पूरी नहीं होती हैं तो उसका जीवन संकटों से घिरने लगता है। एक स्त्री की पूर्णता उसके मातृत्व में मानी जाती है। इसी पूर्णता का दबाव जब परिवार और समाज की ओर से निरंतर बनाया जाता है तो उस स्थिति में स्त्री अच्छे या बुरे का भेद भूल कर परिणाम पर ध्यान केन्द्रित कर देने को विवश हो जाती है। बांझ कह कर घर से निकाले जाने, तिरस्कृत किए जाने, लांछित किए जाने से बेहतर उसे लगता है कि वह किसी बाबा की शरण में जा कर उनसे मिन्नतें करें। उस बाबा के ढोंग से पहले भले ही वह परिचित न हो किन्तु उसके ढोंग ओर वासना को समझने के बाद भी उस स्त्री की विवशता उसे मौन रहने को बाध्य कर देती है। वह जानती है कि समाज उसकी गोद में उसकी संतान देखना चाहता है, उसका परिवार उसकी गोद में उसका शिशु देखना चाहता है, कोई भी यह नहीं जानना चाहता है कि यदि संतान पैदा नहीं हो पा रही है तो कमी किसमें है-पति या पत्नी में? पुरुषरचित समाज में पुरुषों ने अपने लिए सम्पूर्णता का चोला सिल रखा है, भले ही उसके पुरुषत्व में कोई कमी हो। बिना जाने-समझे स्त्री को बांझ कह कर पुरुषत्व के चोले को बचाए रखा जाता है क्योंकि इसी के आड़ में उसके पास दूसरी, तीसरी, चौथी शादी करने का भी विकल्प रहता है। समाज में क्या कभी ऐसा हुआ है कि पति में कमी के कारण संतान न पैदा कर पाने पर पत्नी ने एक पति छोड़ कर दूसरी शादी कर ली हो? नहीं न! यही मूल कारण है कि स्त्रियां विवश हो जाती हैं धार्मिक कर्मकांड के नाम पर किए जाने वाले अनाचार को सहने को।
उपन्यास की एक पात्र है सावित्री जिसने एक कथित बाबा से ‘मन्नत’ मांगी। कथित बाबा ने बंद कमरे में उसकी ‘मन्नत पूरी की’। जिसके परिणामस्वरूप उसे संतान प्राप्ति हो गई और परिवार, समाज में उसका सम्मान बढ़ गया। सभी ने बाबा के जयकारे किए। सावित्री न तो बाबा का सच बता सकती थी और न अपने पति का सच। पति का सच उजागर करना यानी परिवार से बहिष्कार और बाबा का सच बताना यानी समाज से बहिष्कार। वहीं मौन रह कर संतान के रूप में परिणाम का सुख भोगना सबसे अच्छा विकल्प। यह सामामजिक विडंबना ही है जिसे आज भी अनेक स्त्रियां झेल रही हैं और अनेक बाबा आनाचार कर रहे हैं।
वैसे उपन्यास की सबसे सशक्त स्त्री पात्र है दौलतिया। एक बीमार पति की पत्नी जिसके जवान देवर की उस पर बुरी दृष्टि है और जिस पर दरोगा की भी कुदृष्टि है। एक झाडूं लगाने वाली स्त्री जिस पर कस्बे के हर पुरुष की कुदृष्टि है। इसी संदर्भ में एक घटिया-सा मुहावरा प्रचलित है कि ‘ग़रीब की लुगाई, सबकी भौजाई’। एक विपन्न व्यक्ति की सुंदर पत्नी को सभी अपनी संपत्ति मानने लगते हैं। ऐसी स्त्री उनके लिए सम्मान नहीं वरन मात्र उपभोग की वस्तु होती है। दौलतिया अपने पति की बीमारी का त्रास तो झेल ही रही थी, उस पर उस पर वज्रपात तब हुआ जब वह बीमार पति भी चल बसा। अब दौलतिया को एक साथ दो रावणों से जूझना था। एक तो दरोगा और कस्बे के अन्य पुरुषों के रूप में मौजूद घर के बाहर का रावण और दूसरा उसका अपना सगा देवर जो घर के भीतर रावण की तरह उपस्थित था। देवर तो सारी सीमाएं लांघ कर एक रात उसके बिस्तर तक आ पहुंचा। उस समय तो दौलतिया ने उसे जैसे-तैसे टाल दिया। वह भी जानती थी कि हर रात वह अपने देवर को नहीं टाल सकेगी। एक न एक रात वह उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे सबकुछ छीन लेगा। दूसरी ओर दरोगा उसे अपनी मोटरसायकिल पर लिफ्ट देने के रूप में उससे निकटता बढ़ाता जा रहा था। कस्बे के दूसरे लंपट पुरुषों से बचने के लिए दरोगा की निकटता को झेलना दौलतिया की विवशता थी। इधर कुआ उधर खाई। तब दौलतिया को इन दोनों रावणों से बचने के लिए तीसरा रास्ता सूझता है। वह बाबा के आश्रम में शरण ले कर दीक्षा ले लेती है और देवी कहलाने लगती है।
क्या आश्रम में शरण लेना दौलतिया के लिए सुरक्षित था? क्या वह अपने देवी के रूप में खुश थी? उपन्यास का कथानक यहां से करवट लेता है और मन्नतों की हक़ीकत की और पर्तेंं खुलती हैं तथा स्त्रीविमर्श के नए अध्याय जुड़ते जाते हैं। वहीं इसके समानान्तर लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने बड़ी कुशलता से वृद्धविमर्श को भी कथानक में समेट लिया है। जिस संतान को पाने के लिए सावित्री ने बाबा से मन्नत ‘पूरी’ कराई थी उस संतान रूपी पुत्र का अपनी मां और पिता के साथ क्या रवैया रहा, यह पक्ष एक ज्वलंत प्रश्न के रूप में उभर कर सामने आया है। चाहे स्वाभाविक रूप से पुत्र जन्मा हो या मन्नतों द्वारा माता-पिता के लिए वह अत्यंत प्रिय ही होता है। अपनी संतान के लिए हर मां-बाप अपना सब कुछ निछावर करने को तत्पर रहते हैं लेकिन जब वही पुत्र अपने माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम का रास्ता ढूंढ लेता है और तब पारिवारिक ढांचे की सारी मान्यताएं एक झटके में ध्वस्त हो जाती हैं।
‘‘मन्नतों के धागे’’ एक ऐसा उपन्यास है जिसमें जाति विमर्श, समाज विमर्श, वृद्ध विमर्श मौजूद है किन्तु इसका मूल स्वर अंधविश्वास के धागों को काटता स्त्री विमर्श का है। उपन्यास की भाषा सरल और सहज है। संवाद पात्रों के अनुरुप ढाले गए हैं। सबसे सशक्त है इस उपन्यास की शैली जिसने एक प्रचलित विषय को नए स्वरूप में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। दौलतिया के निर्णय चैंकाते हैं। वहीं दौलतिया के देवर और दरोगा के चरित्र अच्छे में बुरे और बुरे में अच्छे का अहसास कराते हैं। वह देवर जिसे अपनी भाभी दौलतिया को मां समान मानना चाहिए वह झपट्टा मारने से नहीं चूकता है, वहीं दरोगा जो दौलतिया के साथ बलात कुछ भी कर गुज़र सकता था, वह धैर्य से प्रतीक्षा करता है उसकी सहमति की। यह बात अलग है कि दौलतिया जानती थी कि दरोगा का धैर्य किसी भी दिन टूट सकता है। यह उपन्यास का उत्तम मनोवैज्ञानिक पक्ष है। आश्रम की अंतर्कथा दौलतिया के जीवन को नया मोड़ देती है और वहीं सावित्री उस सच का सामना करती है जिसके बारे में उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। इनके साथ रामलौट, दयाराम, रामजीवन, रमेश, दीक्षा आदि कई अन्य पात्र हैं जो सटीक समय पर जुड़ते और छूटते जाते हैं। कथानक में प्रवाह आद्योपांत बना रहता है जो पूरे उपन्यास को एक बैठक में पढ़ जाने का आग्रह करता है। मूल कथा और उपकथाओं के रंग परस्पर इतनी खूबसूरती से ब्लेंड हुए हैं कि कहीं भी कोई घटना पैबंद की भांति नहीं लगती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक चन्द्रभान राही के लेखकीय विशेषताओं में उपन्यास कौशल सबसे प्रभावी है अर्थात् उनके लेखन में एक बेहतरीन उपन्यासकार की विशेषताएं हैं। कुलमिला कर यह बेझिझक कहा जा सकता है कि ‘‘मन्नतों के धागे’’ एक रोचक, सशक्त और पठनीय उपन्यास है।
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