"कओ, कैसी दुलैया से पालो परो" मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
कओ, कैसी दुलैया से पालो परो - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
जब मैं भैयाजी के घरे पौंची सो बे कंडा (उपला) थाप रए हते और संगे गाना गा रए हते-
‘‘धना ऐसी दुलैया से पालो परो...’’
‘‘काए भैयाजी जो का कर रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘देख रईं, फेर बी पूछ रईं! तुम सोई पक्की बुंदेलखंडी आओ।’’ भैयाजी कंडा थापत भए बोले।
‘‘लेओ, मोरो जनम बुंदेलखंड में भओ, सो का मैं बिलायत की कहाबी? पक्की बुंदंलन ठैरी।’’ मैंने सोई पहलवानन घांई अपनो बाजू दिखात भई कही।
‘‘रैन देओ! जो ऐसी पैलवानी आ रई सो जे कंडा थपवा देओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन ने कई के पैलवानी आ रई। बा सो मैंने स्टाईल मारी हती। बाकी आप जे बताओ के जे ई ऐसे जड़कारे में कंडा काए थाप रए? सूरज भगवान सो चंदा घांई ठंडे हो परे, ऐसे में आपके जे कंडा कैसे सूखहें?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। ऊ टेम पे बी सीत ऐसी गिर रई हती के ने पूछो। सो मैंने भैयाजी से कही,‘‘जे कंडा-मंडा छोड़ो आप, कहूं ठंड बैठ गई सो आड़े डरे दिखा हो।’’
‘‘अरे का करो जाय बिन्ना! हमाई मति मारी गई रई के हमने तुमाई भौजी से फरमाईस कर दई के तनक बाटी, भर्त औ लसोन-धना चटनी सो बना लेओ आज।’’
‘‘फेर?’’
‘‘फेर का? बे खुनक परीं औ कैन लगीं के हमने जित्ते कंडा थापे रए ऊंमें से आधे सो आपने एक जनवरी से अब लों ताप डारे। अब जो बाटी बनवाने होय सो कहूं से कंडा ले के आओ। ने तो हमाए लिंगा नईयां कंडा-मंडा। सो हमने समझाओ उनें, के जित्ते होंय उन्हई से बाटी बना देओ। फेर हम लान देबी तुमाए लाने कंडा। इत्तो सुन के बे बमक परीं औ कैन लगीं के हमाए लाने लाहो, हां, काए से के हम सो कंडा खात आएं, कंडा पे सोत आएं और कंडा ओढ़त आएं। हमने देखी के बात हती सो बिगरी जा रई हती। सो, हमने तुमाई भौजी से कही के तनक गम्म खाओ! तुम जो लो बाटी बनाओे, उत्ते में हम कहूं और से कंडा को जुगाड़ कर दे रए। सो, बे कैन लगीं के चलो, कहूं नहीं जाने! का हम समझत नइंयां, तुमें सो घर से भागबे को बहाना चाउंने रैत आए। तुम तो चलो उते बैठो, औ बा परो है मुतको गोबर, सो ऊको कंडा थाप डारो। सो बिन्ना हम समझ गए के अब कंडा थापे बिना बाटी का, गांकडें लो नईं मिलहें। सो बैठ के कंडा थाप रए। देख लेओ हमाई दसा।’’ भैयाजी पिल्लू-सी सूरत बना के बोले।
‘‘ठीक तो करी भौजी ने, अब आप कंडा थापहो सो आप को पता परहे के लुगाइयां कित्तो काम करत आएं। आप ओरन को का, आओ औ फरमाईस सुना दई के हमें जे खाने, बो खाने। अब घरवारी कैसे-कैसे कष्ट उठा रई, जे नईं दिखात आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, जे सो तुम सही कै रईं। अबे हमें समझ में आ रई के तुमाई भौजी ऐसे जड़कारें में बी कैसे कंडा थापत रैत आए।’’ भैयाजी ने मोरी बात पे हामी भर दई।
‘‘भैयाजी, वैसे आप गा का रै हते? मोय लगत आए के मैंने पैले कभऊं रेडियो पे जो गाना सुनो रओ। ऊ टेम पे भोपाल से सोई बुंदेली लोकगीत बजत्ते। ऊ टेम पे हमाओ कालेज सुबै को रैत्तो, सो दुफैर में रोटी जींमत भई रेडियो लगा लेत्ती।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, हमने सोई खूबई लोकगीत सुने रहे रेडियो पे। अब सो टेमई नईं मिलत। बाकी ऊ टेम के लोकगीत अबे लों बिसरें नइयां। बेई सो हम गा रए हते। बाकी कोनऊं फिलम बन रई होती, सो जो गाना हमाई दसा पे फिट बैठतो।’’ कैत भए भैयाजी फेर के लोकगीत गान लगे-
धना ऐसी दुलैया से पालो परो....
हमने कई जो धना लड़ुआ बना दे
लड़ुआ बना दे, तनक लड़ुआ बना दे
तिल, गुड़ लों मेंक-मांक, मिचकूं परीं
धना ऐसी दुलैया से पालो परो....
हमने कई जो धना बाटी बना दे
बाटी बना दे तनक बाटी बना दे
कंडा लों मेंक-मांक, मिचकूं परी ,,,,
‘‘जे आप गलत गा रए। कछु औ हतो ऊ गाने में।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, सो जे हमाओ वर्जन आए। ई में का? लोकगीत को जेई सो मजा आए के अपनो टाईप को बना के गा लेओ।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘कहूं नईं! बाकी मोय लगत आए के ईको बे लोकगीत गायक देसराज पटेरिया जी ने गाओ रओ। आप को कछु खयाल आए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ तुमने ठीक कही! उन्हईं ने गाओ रओ जो गाना। खूबई बजत्तो। औ ऊ टेम पे हम सो खाली मटका बजा-बजा के गाउत रैत्ते। का बे बी दिना हते!’’ भैयाजी ठंडी सांस भरत भए बोले।
‘‘काए कंडा थप गए होंय सो भीतरे कढ़ आओ, ने तो जड़ा जेहो औ हमई को तुमाई सेवा करनी परहे।’’ भौजी ने भीतरे से टेर लगाई।
‘‘राधे-राधे भौजी!’’ मैंने भौजी से कही।
‘‘अरे बिन्ना, आओ-आओ! बाटी बना रए, सो तुम सोई खा लइयो।’’ भौजी चहकत भईं मोसे बोलीं। फेर भैयाजी से कैन लगीं,‘‘अच्छे से हाथ धो लओ न? सो चलो आओ जो लों बाटियां सिंक रईं तुम भंटें को भर्त बना डारो। जे भंटा भुन गए औ जो तुमें लसोन-धना की चटनी खाने होय सो, बांट लेओ। बाकी सिलबट्टा पे बांटियो, मिक्सी में नोईं। तुमईं को मिक्सी की चटनी नईं पोसात। सो बा धरो सिलबट्टा।’’
‘‘चटनी को का करने? भर्त के आंगू चटनी की कोन को परी।’’ भैयाजी ने तुरतईं अपनी फरमाईस में कटौती कर दई। ने तो उनें भर्त बी चाउंने रओ औ चटनी सोई चाउंने रई।
भैयाजी की दसा देख के मोय औ भौजी दोई को हंसी फूट परी। इत्ते में भौजी गान लगीं-
कओ, कैसी दुलैया से पालो परो...
हमने कई जो तनक चटनी सो बांट लेओ
चटनी सो बांट लेओ, चटनी सो बांट लेओ
सिल-बट्टा देख-देख मिचकूं परे
कओ, कैसी दुलैया से पालो परो...
‘‘औ जे हमाओ वर्जन आए!’’ भौजी भैयाजी से ठिठोली करत भईं बोलीं।
रामधई बड़ो मजो आओ।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मोय सो बिना कछु करे-धरे बाटी-भर्त खाबे खों मिल रओ हतो तो मोरी सो लाटरी लगी कै सकत हो आप ओरें। जेई तो मौसम आए बाटियन को। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(05.01.2023)
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