Tuesday, May 31, 2022

पुस्तक समीक्षा | समाज के परिष्कार का आग्रह करती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 31.05.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका शशि खरे  के कहानी संग्रह "पीले फूल कनेर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
समाज के परिष्कार का आग्रह करती कहानियां
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कहानी संग्रह - पीले फूल कनेर
लेखिका     - शशि खरे
प्रकाशक    - शिल्पायन, 10295, लेन नं.1, वेस्ट गोरखा पार्क, शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य       - 450/-  
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समकालीन कथालेखन में इन दिनों बड़े उतार-चढ़ाव आए हैं जिसका सीधा संबंध वैश्विकीकरण एवं सूचना के विस्फोट से है। कथानकों में आईआईटी, इलेक्ट्राॅनिक मीडिया और कार्पोरेट जगत ने अपनी जगह बना ली है क्योंकि यह सब आज के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन भारतीय समाज बाजार की चकाचौंध में जितना प्रगतिशील और प्रसन्न दिखाई देता है वास्तव में उतना है नहीं। आज भी स्त्रियां घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं और बाबाओं के फेर में पड़ रही हैं। वैश्विकीकरण के समांतर वह समाज अभी भी मौजूद है जो दूषित परंपराओं को अपने सीने से लगाए बैठा है। इसीलिए कथाकार अपनी कहानियों के द्वारा इसका प्रतिरोध करता है।  

‘‘पीले फूल कनेर’’ लेखिका शशि खरे का यह पहला कहानी संग्रह है। इसमें कुल 22 कहानियां और एक संस्मरण संग्रहीत है। संग्रह की भूमिका ‘‘शशि खरे की कहानियों के बहाने एक गुफ्तगू‘‘ के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार, उपन्यासकार एवं ‘‘वर्तमान साहित्य’’ पत्रिका की संपादक रह चुकीं नमिता सिंह ने लिखा है। उन्होंने अपनी भूमिका में उस परिदृश्य से परिचित कराया है जिसमें ‘‘हंस’’ और ‘‘वर्तमान साहित्य’’ के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर कहानी प्रतियोगिताएं आयोजित की गई। जिनमें अन्य कहानीकारों के साथ शशि खरे ने भी अपनी कहानियां भेजी और वह निरंतर शामिल होती रहीं। उनकी कहानी का चयन तब तक नहीं हुआ जब तक वह कहानी लेखन में मंज नहीं गई। इस प्रसंग की चर्चा नमिता सिंह ने निश्चित रूप से यह जताने के लिए की है कि कहानी विधा अभ्यास और परिश्रम मांगती है, उसे हल्के से नहीं लिया जा सकता है। एक अच्छा कहानीकार बनने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। नमिता सिंह स्वयं एक समर्थ उपन्यासकार हैं अतः वे कथालेखन की बारीकियों, उसकी गरिमा और महत्ता से आत्मिक रूप से जुड़ी हुई हैं। उनकी भूमिका अर्थवत्ता पूर्ण है जो प्रत्येक नवोदित कथालेखकों के लिए दिशा निर्देश की भांति है।   

 अब बात करते हैं शशि खरे की कहानियों की। जैसाकि पहले ही मैंने उल्लेख किया कि शशि खरे ने धैर्य और परिश्रम के साथ कथा लेखन को साधा है इसलिए उनकी कहानियों में प्रभावी कथ्य और सुदृढ़ शिल्प है। संग्रह की पहली कहानी ‘‘बोनसाई’’ भोपाल गैस त्रासदी की विभीषिका की भाव-भूमि में पर्यावरण के प्रति चिंता करने का आग्रह करती है। कथा नायिका के घर पर सेविका और माली का काम करने वाली गेंदा गैस त्रासदी में अपने पति को गंवा चुकी है और उसे जहरीले वातावरण का कटु अनुभव है। जब वह देखती है कि उसकी मालकिन बोनसाई के प्रति आकृष्ट है तो वह आगाह करती है कि हमें बड़े-बड़े वृक्षों की जरूरत है न की बोनसाई की। संक्षेप में यह कथा भले ही सीधी-सादी लगे किंतु लेखिका ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। वर्तमान परिवेश में यह बहुत जरूरी-सी कहानी है।
 
दूसरी कहानी है ‘‘चलती चाकी देखकर‘‘। यह घरेलू हिंसा की व्यथा कथा है। सरकार ने दसियों कानून बना दिए हैं जिनका सहारा लेकर स्त्री घरेलू हिंसा से बच सकती है। किन्तु आज भी 50 से 60 प्रतिशत स्त्रियों को इन कानूनों का ज्ञान नहीं है। उस पर पीढ़ियों से चला आ रहा अतिसहनशील होने का ठप्पा और यह धारणा कि पति तो परमेश्वर होता है और उसे पत्नी पर हाथ उठाने का अधिकार है, इन सब धारणा के चलते आज भी हज़ारों स्त्रियां चुपचाप धरेलू हिंसा सहन करती रहती हैं। जबकि एक ही स्त्री पत्नी बन कर आती है, बहू के रूप में परिवार में रहती है, बच्चों की मां बनती है, घर संवारती सहेजती है और सबसे बड़ी बात की वह अपना वह घर छोड़ कर हमेशा के लिए आती है, जहां वह जन्मी और पली-बढ़ी। इन सबके बावजूद उसका पति उसे प्रताड़ित करता है। यही त्रासदी है इस कथा की नायिका की भी। उसका पति उसे मारता-पीटता है, प्रताड़ित करता है और प्रताड़ना का यह क्रम वर्षों तक चलता है। यहां तक कि बेटों की शादी हो जाने के बाद और बहुओं के आ जाने के बाद भी बहुओं के सामने उसका पति उससे मार-पीट करता है। कहानी यद्यपि दुखांत है किंतु उसके अंत में यह कसक छिपी हुई है कि किसी स्त्री को इस प्रकार प्रताड़ना नहीं सहनी चाहिए बल्कि उसके विरोध में आवाज उठानी चाहिए। आखिर स्त्री का भी अपना कोई अस्तित्व होता है। ‘‘कभी तो ये मन के अंधेरे‘‘ का कथानक भी घरेलू हिंसा का है। इसमें भी पत्नी अपने पति के हाथों पिटती रहती है और समाज और परिवार के डर से खामोश रहती है। यद्यपि इस कहानी में हिंसा करने वाले पति को दंडित करने की भावना व्यक्त की गई है। किंतु वह रास्ता नहीं दिखाया गया है जो व्यावहारिक है। कोई सहानुभूति के आधार पर प्रताड़ित पत्नी के पति को रात के अंधेरे में मारपीट कर सबक सिखाता है। कथा-प्रभाव की भावुकता में यह हल भले ही सुखकर लगे किंतु कहानी तब अधिक सार्थक बनती जब वह स्त्री स्वयं प्रतिकार के लिए खड़ी होती और प्रताड़ना के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाती। वह कानून का सहारा लेती, लोगों का सहारा लेती और अपनी लड़ाई खुद लड़ती।
  
‘‘नई कविता‘‘ संग्रह में एक गैरजरूरी-सी कहानी है। इस कहानी में नई कविता पर कटाक्ष किया गया है। वस्तुतः यह कहानी न होकर व्यंग लेख का भान देती है। कहानी ‘‘जादू‘‘ का कथानक ज़रा हटकर है। इसमें वर्तमान जीवन पर कृत्रिमता का प्रभाव और प्रकृति से दूर होते जाने की वास्तविकता और उसके दुष्परिणाम सामने रखे गए हैं। वर्तमान भागमभाग से दूर एक दिन जंगल के वातावरण में अपने ढंग से उन्मुक्त भाव से जीवन जीने के बाद यह एहसास होना कि यह एक दिन ही जीवन का असली दिन है, प्रकृति और मनुष्य के बीच जुड़ाव की महत्ता को स्थापित करता है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में एक पल ठहर कर सांस लेने वाली कहानी है यह।

लेखिका वर्तमान में अन्यत्र शहर में निवास करती हैं किन्तु वे सागर में जन्मी हैं अतः अपने जन्मस्थान से मोह होना स्वाभाविक है। सागर शहर का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र वह झील है जिसके निकट सागर शहर बसा और शहर के विस्तार के चलते अब तो झील शहर के मध्य में आ गई है। कहानी ‘‘सागर‘‘ मैं सागर शहर की लाखा बंजारा झील के निर्माण की प्रचलित कथा को आधार बनाकर कथानक पिरोया गया है।
 
‘‘हैलो 85‘‘, ‘‘चल गोरी घर आपने‘‘, ‘‘बीती रात‘‘, ‘‘जिंदगी के सफे‘‘ समाज विमर्श रचती कहानियां हैं। वहीं ‘‘तंत्र-मंत्र‘‘ कहानी शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस कहानी में तांत्रिकों के छद्म की चर्चा की गई है। प्रायः महिलाएं विशेष रूप से घरेलू महिलाएं इस तरह के तंत्र-मंत्र के चक्कर में फंस जाती हैं अतः उन्हें ऐसे बाबाओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए यह एक संदेश देती कहानी है।
अकसर हम देखते आए है कि जब ‘वधू चाहिए’ के अंतर्गत वैवाहिक विज्ञापन दिया जाता है तो यही शब्दावली रहती है कि ‘‘सुंदर, सुशील कन्या’’ चाहिए। अर्थात् सुंदरता पहली शर्त है और सुंदरता का हमारे समाज में अर्थ है लड़की का गोरारंग। यदि वह गोरी नहीं है तो उसके विवाह को ले कर उसकि माता-पिता चिंता में घुलते रहते हैं। लड़की भले ही कितनी भी पढ़-लिख जाए किंतु उसका गोरारंग विवाह के लिए पहली शर्त बना रहता है। इसी धारणा के कारण गोरेरंग की क्रीमों का बाज़ार हमेशा दमकता रहा है। जबकि यह आवश्यक नहीं है कि जिसका रंग गोराचिट्टा हो, जिसके नाकनक़्श आकर्षक हों, वही अपने पति से सच्चा प्रेम कर सकती है अथवा सुघड़ता से घर सम्हाल सकती है। किसी माॅडल जैसा आकर्षक दिखने वाला पति जो मिट्टी के बर्तन आदि बना कर जीवकोपार्जन करता है, किसी कारणवश अंधत्व का शिकार हो जाता है। आर्थिक तंगी का प्रकोप झेलने की स्थिति आने पर उसकी सुंदर पत्नी उसे छोड़ कर अपने मायके चली जाती है। ऐसे विपरीत समय में एक युवती उसके जीवन में आती है और पत्नी बन कर उसका जीवन संवारती है, उसके बच्चों को मां की भांति प्यार देती है। जो लोग पहले उसकी सुंदर पत्नी की सुंदरता की तारीफ करते थे, वे ही लोग अब इस युवती की तारीफ करते नहीं थकते हैं। जबकि यह युवती रंग में सांवली और नैननक़्श में मामूली अथवा सामाजिक वैवाहिक मानदण्ड के हिसाब से बदसूरत कही जाएगी। विवाह के लिए लड़की के रूप सौंदर्य को प्राथमिकता देने के चलन के थोथेपन पर चोट करते हुए ‘‘तोता-मैना‘‘ कहानी में दांपत्य जीवन में प्रेम के महत्व को स्थापित किया गया है। कहानी का क्लाईमेक्स जिज्ञासा जगाने वाला है। तोता-मैना के संवाद के बहाने पति-पत्नी की प्रकृति और प्रवृत्ति पर सामाजिक दबाव का रोचक ढंग विवरण दिया गया है। यह एक सुखांत और सशक्त कहानी है।
संग्रह की शीर्षक कहानी पीले फूल कनेर दो सहेलियों की संवेदनशील कहानी है दोनों सहेलियां परस्पर विपरीत परिस्थितियों में रहती हैं किंतु उनमें घनिष्ठ मित्रता बनी रहती है विवाह उपरांत वर्षों बाद भी वे एक दूसरे को ढूंढ निकालते हैं। भावुक कर देने वाला कथाक्रम क्लाइमेक्स पर जाकर और अधिक संवेदनशील हो उठता है सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह संग्रह की एक श्रेष्ठ कहानी है। ‘‘झाबुआ’’ जो कहानी न हो कर संस्मरण है, बेहतरीन कथात्मकता लिए हुए है। इसकी दृश्यात्मक शैली प्रभावी है। लेखिका चाहें तो भविष्य में संस्मरण लेखन को भी अपनी लेखनी का अभिन्न हिस्सा बना सकती हैं। वैसे ‘‘पीले फूल कनेर’’ की कहानियां पठनीय हैं और लेखिका के भावी कथालेखन के प्रति आश्वस्त करती हैं।  
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Sunday, May 29, 2022

पुस्तक समीक्षा | स्त्री स्वाभिमान की अद्भुत गाथा | समीक्षक देवेंद्र सोनी | उपन्यास - शरद सिंह

मेरे उपन्यास "शिखंडी" की समीक्षक देवेंद्र सोनी जी द्वारा की गई समीक्षा नई दिल्ली के दैनिक "नेशनल एक्सप्रेस" के साहित्यिक परिशिष्ट में प्रकाशित हुई है। 
मैं आभारी हूं आदरणीय गिरीश पंकज जी की तथा भाई Devendra Soni जी की🙏

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भूमिका | दर्जी की सुई की भांति कविताएं | काव्य संग्रह | डाॅ. (सुश्री) शरद सिह

भूमिका
दर्जी की सुई की भांति कविताएं
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिह
वरिष्ठ साहित्यकार, कवयित्री
समीक्षक एवं स्तम्भ लेखिका
     (कवि वीरेंद्र प्रधान के द्वितीय कविता संग्रह की भूमिका ़ चभ                        
कविता भाषा, भाव, ग्राह्य-क्षमता एवं अभिव्यक्ति-क्षमता के परिष्कार का प्रतीक होती है। जो कविता को मात्र मनोरंजन की वस्तु समझते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर रहे होते हैं। कोई भी व्यक्ति कविता तभी लिख पाता है जब उसका हृदय आंदोलित होता है और मस्तिष्क विचारों की ध्वजा फहराने को तत्पर हो उइता है। कहने का आशय कि कविता विचार और भावनाओं का सुंदर एवं संतुलित समन्वय होती है। कविता को आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है। आचार्य विश्वनाथ का कहना है, ‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ यानि रस की अनुभूति करा देने वाली वाणी काव्य है।’’ तो पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं कि ‘‘रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यं’’ यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करने वाली रचना ही काव्य है।’’ वहीं, पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, ‘‘लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानां यातु’’ यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। अर्थात् कविता में रस और शाब्दिक प्रभाव तो होना ही चाहिए किन्तु आधुनिक कविता में लोकचिंतन भी आवश्यक शर्त है। 
 लोकचिंतन का सीधा संबंध जनसामान्य से होता है। डाॅ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार ‘‘लोकमन का जन्म तभी हुआ, जब लोक बना और लोक तभी बना, जब मानव ने लोक के बारे में सोचना शुरु किया। पहले बहुत छोटे-छोटे समूह थे, फिर धीरे-धीरे कई समूह एक साथ गुफाओं में रहने लगे। जैसे ही खेती करना शुरु हुआ, मैदानों में बस्ती बसने लगी । गुफा और कृषि-युग, दोनों में लोकदर्शन का स्वरुप जागृतिक रहा है। गुफा-युग में उसका आधार रक्षा और भय का समाधान है, जबकि कृषि-युग में सृजन और संवर्द्धन की समस्या।’’ 
वर्तमान जगत में लोक का सरोकार अधिक वैज्ञानिक एवं वैश्विक हो गया है। आज परस्पर संवाद बढ़ चुके हैं, साथ ही जनसमस्याएं भी बढ़ गई हैं। कार्ल माक्र्स ने सही कहा था कि ‘‘अधिक सुविधाभोगी होना भी अपने आप में अनेक समस्याओं को जन्म देता है और जीवन को जटिल बना देत हैं।’’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज हम देख सकते हैं। इन्टरनेट की दुनिया ने सूचना क्रांति ला दी लेकिन इन्हीं सूचनाओं ने मानव मस्तिष्क को दबा रखा है। गांव शहरीकरण को अपना रहे हैं और शहर ग्लोबलाईजेशन की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। बेरोजगारी, राजनीतिक गिरावट, संवेदनहीनता आदि जैसी समस्याएं मनोरोग की भांति जड़ें जमाती जा रही हैं। एक साहित्यकार यह सब देख कर मौन नहीं रख सकता है। विशेषरूप ये एक कवि अपनी कविता में वह सब व्यक्त करने को आतुर हो उठता है जो उसे अपने आसपास विडंबनाओं के रूप में दिखाई देता है। मानो कवि एक दर्जी हो और समाज में व्याप्त अव्यवस्थाएं उस उधड़ी हुई सीवन की भांति हों जिन्हें वह सिल कर दुरुस्त कर देना चाहता हो। कवि वीरेन्द्र प्रधान की कविताएं भी किसी दर्जी की सुई की भांति उधड़ी हुई सीवन की ओर इंगित करती हैं और उसे दुरुस्त करने को तत्पर दिखाई देती हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर चुभ कर जगाने का कार्य भी करती हैं। 
वीरेन्द्र प्रधान जी का यह दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व उनका काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ प्रकाशित हो चुका है। इस दूसरे काव्यसंग्रह में संग्रहीत कविताएं समय से संवाद करने में सक्षम हैं। गोया वे समय को ललकारती हैं और समाज के समक्ष अपने शब्दों का आईना रख देती हैं ताकि समाज अपनी कुरुपता को देख सके और उसे दूर कर सके। इसके साथ यह भी कहना होगा कि वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि मात्र आईना रख कर शांत नहीं बैठता है क्योंकि वह चाहता है कि किसी भी कुरुपता को मुखौटे अथवा दिखावे के लेपन से नहीं छिपाया जाए वरन् उसे प्राकृतिक उपचार कर के दूर किया जाए जिससे समाज वास्तविक एवं लोकमंगलकारी रूप ग्रहण कर सके। 
दीर्घ जीवनानुभव एवं जनसामंजस्य कविता में लोकसत्ता की विश्वनीयतापूर्वक स्थापना करता है। वीरेन्द्र प्रधान जी भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत रहे। उनका गहन जनसंपर्क रहा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी सेवाएं देने के दौरान ग्राम्यजीवन की कठिनाइयों को समीप से जाना-समझा। इसीलिए उनकी कविताओं में समसामयिक शहरी समस्याओं के साथ ही ग्रामीण समस्याओं पर भी गंभीर चिंतन देखा जा सकता है। वे अपनी कविताओं में बिना किसी लागलपेट के बड़ी व्यावहारिक बात करते हैं। वे जैसा देखते हैं, अनुभव करते हैं, ठीक वैसा ही लिपिबद्ध कर देते हैं। इसीलिए उनकी कविताएं सहज संवाद से युक्त होती हैं। उदाहरण के लिए इस संग्रह की कविता ‘‘गांव बनाम शहर’’ को देखिए जिसमें शहरों के फैलाव से सिमटते गांवों की वास्तविक स्थिति को कविता के कैनवास पर किसी पेंटिंग की भांति चित्रित कर दिया गया है, प्रभावी दृश्यात्मकता के साथ -
गंाव को अपनाने के नाम पर
जब शहर पसारता है हाथ
गांव अपने पांव सिकोड़
पेट की ओर लेता है मोड़
उस जीह्वा से बचने के लिए
जो शहर के लम्बे हाथों के पीछे छिप
निगल जाना चाहती है गांव।

 अर्थात् कवि उस ओर लक्षित कर रहा है जिसे देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है। शहर इंसान नहीं है लेकिन इंसान शहर की फैलाव के आड़ में अपने भूमिपति बनने की लिप्सा को फैलाता जाता है। यह बारीकी वीरेन्द्र प्रधान जी की कविताओं की विशेषता है। कवि उन स्थितियों पर भी दृष्टिपात करता है जिसके कारण खेतिहरों को अपनी खेती-किसानी छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने को विवश होना पड़ता हैं। ऐसी ही एक कविता हैं-‘‘गंाव को छोड़ आना था’’। गंाव से पलायन का कारण हमेशा सूखा अथवा खेती में नुकसान ही नहीं होता है। अन्य अनेक कारण भी होते हैं, जैसे- गंाव में बच्चों की अच्छी और उच्च शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि। एक पीढ़ी पहले तक इन बुनियादी आवश्यकताओं की ख़तिर गांव छोड़ने का विचार त्याग भी दिया जाता था किन्तु वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए शहरी आवश्यकता को समझती है। बल्कि यह कहा जाए कि शहर आज की पीढ़ी की आवश्यकता का हिस्सा बन चुके हैं। परिवार को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दे पाने के लिए गंाव से शहर की ओर पलायन नियति बच गया है। कवि इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहता है-
गंाव को छोड़ कर आना था
मन से या बेमन से
शहर को अपनाना था।
  
‘‘पांव’’, ‘‘विकास’’ और ‘‘कामना’’ विविध भावभूमि की कविताएं हैं। इसी क्रम में एक सशक्त कविता है ‘‘मूलचंद’’। इस कविता का एक अंश ही पूरी कविता को पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है-
अब भी है उसे याद
पिता-शिक्षक संवाद
जिसमें खाल उधेड़ देने
मगर हड्डियां बचा रखने
का विशेषाधिकार सुरक्षित किया गया था
शिक्षक के पास
उसे बदले में जानवर से मनुष्य बनाने के।
कम पढ़ा है।
मनुष्य बन पाया या नहीं और लोग जानें
मगर नहीं भूला है वह अनुबंध
मंदबुद्धि किन्तु उत्तम स्मृति वाला मूलचंद।

संवेदनाओं पर बाज़ार के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। संपर्क के माध्यम बढ़े हैं किन्तु संवेदनाएं घट गई हैं। सोशल मीडिया पर सूचनाओं की भीड़ मानो एक भगदड़ का माहौल पैदा करती है जिसमें हर कोई ‘लाईक’ ‘कमेंट’ के ताने-बाने में उलझ कर शतरंज के घोड़े की भांति ढाई घर की छलांग लगाता रहता है। इस हड़बड़ी में वह कभी-कभी मृत्यु की सूचना पर बधाई और सफलता की सूचना पर शोक प्रकट कर बैठता है। अपनी इन अनदेखी, नासमझी पर उसे लज्जित होने की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती है क्योंकि वह पलट कर भी नहीं देखता है कि वह कौन से शब्द अथवा कौन से संकेत (इमोजी) अपने पीछे छोड़ आया है। सच पूछा जाए तो इस प्रवृत्ति ने संवेदनाओं का माखौल तो बनाया ही है, साहित्य सृजन की गंभीरता को भी गहरी चोट पहुंचाई है। रचना को बिना पढ़े ‘‘बेहतरीन’’, ‘‘वाह’’, ‘‘बहुत खूब’’ जैसे जुमले नवोदित रचनाकार (?) में इस भ्रम को जगा देते हैं, वह लोकप्रिय सर्जक है और उसका सृजन सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन जो वास्तविक रचनाकार एवं ईमानदार सर्जक हैं वे इस कोलाहल के बीच भी अपने साहित्य सृजन के प्रति ईमानदारी बनाए रखते हैं। वीरेन्द्र प्रधान जी भी सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं किन्तु वे कभी किसी भ्रम में नहीं रहते हैं तथा अपनी कविताओं के प्रति पूर्णतया सजग रहते हैं। उनके सृजन का गांभीर्य उनकी प्रत्येक कविता में अनुभव किया जा सकता है। उदाहरण के लिए इसी संग्रह की ‘‘आभार’’ शीर्षक कवितांश देखिए-
मरने को तो मरते हैं अब भी
पहले से ज़्यादा लोग
मगर अब नहीं आतीं खूंट पर कटी चिट्ठियां
और सीरियस होने के तार से 
किसी के मरने के समाचार
अब तो अख़बारों में फोटो सहित छपते हैं
मरने वाले की अंत्येष्टि और उठावने के समाचार।
सोशल मीडिया ने भी बहुत क़रीब ला दिया
व्यस्तता और समयाभाव के युग में 
बहुत समय बचा दिया।

कवि वीरेन्द्र प्रधान समाज में रह रहे स्त्री-पुरुष के बारे में ही नहीं सोचते हैं बल्कि वे उन किन्नरों के बारे में भी विचार करते हैं जो हमारे इसी समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। यह एक ऐसा मानवीय समुदाय है जो समाज में रह कर भी समाज से अलग-थलग रखा जाता है। सन् 2019 में प्रकाशित ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’ पुस्तक का मैंने संपादन करते हुए अपनी भूमिका में लिखा था कि ‘‘ हिजड़ा, किन्नर, ख़्वाजासरा, छक्का... अनेक नाम उस मानव समूह के जो न तो स्त्री हैं, न पुरुष। समाज उन्हें विचित्र दृष्टि से देखता है। अपने परिवार की खुशी, उन्नति और उर्वरता के लिए उनसे दुआएं पाने के लिए लालायित रहता है किन्तु उनके साथ पारिवारिक सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। उनके पास सम्मानजनक रोजगार नहीं है। अनेक परिस्थितियों में उन्हें यौन संतुष्टि का साधन बनना और वेश्यावृत्ति में लिप्त होना पड़ता है। समाज का दायित्व था कि वह थर्ड जेंडर के रूप में पहचाने जाने वाले इस तृतीयलिंगी समूह को अंगीकार करता। दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं। फिर साहित्यकारों का ध्यान इस ओर गया । हिन्दी कथा साहित्य में थर्ड जेंडर की पीड़ा को, उसके जीवन के गोपन पक्ष को दुनिया के सामने लाया जाने लगा। लोगों में कौतूहल जागा, भले ही शनैः शनैः। ‘यमदीप’, ‘किन्नर कथा’, ‘तीसरी ताली’, ‘गुलाम मंडी’, ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ जैसे उपन्यास लिखे गए। स्वयं थर्ड जेंडर ने आत्मकथाएं लिखीं। शिक्षा, समाज, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में थर्ड जेंडर ने अपनी योग्यता को साबित किया। ... समय आ गया कि समाज और थर्ड जेंडर के बीच की दूरी मिटाई जाए। साहित्यकार इसके लिए साहित्यिक सेतु बनाने लगे हैं जो थर्ड जेंडर विमर्श के रूप में आकार ले चुका है।’’  
एक सजग एवं समाज के परिष्कार की आकांक्षा रखने वाले कवि के रूप में वीरेन्द्र प्रधान भी र्थडजेंडर अर्थात् किन्नरों के बारे में चिंतन करते हैं। वे अपनी कविता ‘‘ एक किन्नर का कथन’ में लिखते हैं -
सुर और नर के साथ हम किन्नरों का भी उल्लेख
तो मिलता है शास्त्रों और पुराणों में
मगर उन्हें पढ़ने वाले कभी न दे पाते हमें मान्यता
हम सिर्फ मनोरंजन और लोकरंजन के साधन बन
जीते हैं,नाच-गाकर कुछ कमा लेते हैं ,कुछ खा लेते हैं।
किसी के भी जन्म पर उसके घर जाकर
खुशी का इजहार करते हैंध्खुशियां मनाते हैं
मगर अपने जन्म पर खुशी के प्रावधान बिना सिर्फ 
झिड़कियां पाते हैं।
सभ्य लोग हमें छोड़ते हैं और असभ्य लोग अपनाते हैं।

कभी किसी गर्भ जल परीक्षण में
नहीं हो पाती हमारी पहचान
इसलिए हम मारे नहीं जाते 
बच जाते हैैं भ्रूण हत्या के पाप से।
जीवित छोड़ दिये जाते हैं पल-पल मरने के लिये।
जन्म से लेकर मृत्यु तक यह पहचान का संकट
कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

लम्बी कविता का यह अंश किन्नरों के प्रति कवि के न्यायोचित आग्रह का उम्दा प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रेम, कोरोना आपदा, मौसम आदि पर भी कवि ने कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इन्हें पढ़ने वाले को ठिठक कर सोचने को विवश करती हैं। अपने काव्यकर्म के प्रति सजग वीरेन्द्र प्रधान जी सर्वहारा की पीड़ा को मुखर करते हुए भी विषमताओं के प्रति कठोरता के बजाए कोमलता का आग्रह रखते हैं, यह भी एक खूबी है उनकी कविताओं की। 
मैं अग्रजसम भाई वीरेन्द्र प्रधान जी को उनके इस कविता संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देती हूं तथा मुझे विश्वास है कि उनकी कविताएं पाठकों को रुचिकर लगेंगी एवं आंदोलित करेंगी। -------------------------------                     

संस्मरण | सिद्दीकी साहब की मुर्गियां, सेवइयां और सहजन की फलियां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

नवभारत मेंं 29.05.2022 को प्रकाशित/हार्दिक आभार #नवभारत 🙏 
संस्मरण 
सिद्दीकी साहब की मुर्गियां, सेवइयां और सहजन की फलियां
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
     पन्ना शहर की वह गलियां, सड़कें, नदी, नाले मैं कभी भुला नहीं सकती हूं। इन्हीं सब में तो समाया हुआ था मेरा बचपन। अपना बचपन भी भला कोई भूल सकता है? सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ याद रह जाता है। जैसे बचपन में सुनी हुई कहानियां और उन कहानियों के राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी या परी और राक्षस - यह सब याद रहते हैं जीवन भर। जीवन के हर मोड़ पर कहीं ना कहीं कभी न कभी वे सारे दृश्य आंखों सामने खड़े मिलते हैं और याद दिलाते हैं उन सब की जो चलन से बाहर हो गए। किसी मुहावरे की तरह कहीं पीछे छूट गए हैं। 
      छोटे बाजार से बड़ा बाजार जाने के रास्ते में जैन मंदिर के सामने एक सरकारी आवास था बहुत बड़ा। सामने से नहीं किंतु भीतर लंबे आंगन के तीन ओर कमरों से घिरा हुआ। उसके ठीक बगल में एक बड़ा नाला था, बहुत चौड़ा नाला। नाले से सटा हुआ है वह मकान था। सामने का आंगन सड़क पर खुला हुआ था जिसमें दोनों ओर सीमेंट की बेंचनुमा बैठक बनी हुई थी। सामने की ओर दो दरवाजे थे। एक ड्राइंग रूम में खुलता था और दूसरा, दूसरे कमरे से होता हुआ भीतर के आंगन में चला जाता था। पत्थर की फर्शी से ढंका हुआ आयताकार बहुत बड़ा आंगन था। उस आंगन में प्रवेश करने में दाई ओर कई कमरे बने हुए थे, जो रिहाइश के कमरे थे। पीछे की ओर रसोईघर था जबकि बांई ओर दीवार थी जिसमें कई ताक बने हुए थे। इस सरकारी आवास में सिद्दीकी साहब रहते थे। बचपन में मैं नहीं जानती थी कि वे क्या करते हैं और मुस्लिम कोई अलग धर्म है? हम लोग हिंदू थे और वे मुस्लिम इस बात का एहसास भी नहीं था । उस दौर में 'अंकल' या 'आंटी' कहकर पुकारने का चलन कम ही था। मैं सिद्दीकी साहब को सिद्दीकी मामा कहकर अथवा सिर्फ मामाजी कहकर पुकारती थी। उनकी पत्नी को मामी जी कहती थी।  संख्या तो अब ठीक-ठीक से मुझे याद नहीं है लेकिन मेरा अनुमान है कि उनकी चार-पांच बेटियां थीं। अब सोचती हूं तो एहसास होता है कि बड़ा पारंपरिक परिवार था उनका। सिद्दीकी मामी हमेशा सलवार कुर्ता पहनती थी और बहुत लंबा-सा दुपट्टा ओढ़ती थीं। जो उनके एक कंधे से होकर सिर पर से होता हुआ दूसरे कंधे पर इस ढंग से लिपटा रहता था कि उनकी पेट-पीठ कमर तक ढंके रहते थे। त्योहार के समय शरारा या गरारा पहनती थी। जो प्रायः साटन का होता था और जिस में ख़ूबसूरत ज़री की कढ़ाई होती थी। जब मां के साथ में उनके घर जाया करती तो मां सिद्दीकी मामा और मामी जी तीनों आपस में बातचीत करते और मैं उनकी बेटियों के साथ खेल में मगन हो जाती। उनके घर एक लकड़ी का घोड़ा था। जिस पर बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता था। लेकिन मां हमेशा समझाती थीं कि उस घोड़े पर बैठने के लिए कभी भी उनकी बेटियों से मैं झगड़ा न करूं और जब भी बैठूं, तो इजाज़त लेकर ही बैठूं। मां हमेशा यही कहती थी कि दूसरों की वस्तु को बिना उनसे पूछे नहीं छूना चाहिए और यह बात हम दोनों बहनों ने गांठ बांध रखी थी। उस लकड़ी के घोड़े की सवारी करने का मन लालायित होने पर भी मैं उस पर तब तक सवार नहीं होती थी जब तक सिद्दीकी मामा की बेटियां मुझे उस पर चढ़ने के लिए नहीं कहती थीं। दरअसल हम लोग कुछ ऐसे खेल खेलते थे जिसमें बारी-बारी से सभी को घोड़े की सवारी करने का मौका मिल जाता था और मैं अपना मौका आने का इंतज़ार करती थी। 

सिद्दीकी मामा के घर एक और बहुत ही रोचक चीज़ थी जो मुझे आज भी याद है।  वह थी उनकी मुर्गियां। उन्होंने बहुत सारी मुर्गियां पाल रखी थीं क्योंकि उन लोगों को सुबह नाश्ते में अंडे का आमलेट खाने की आदत थी। हम लोग विशुद्ध शाकाहारी थे इसलिए हमें न अंडे से मतलब रहता था न उनकी मुर्गे-मुर्गियों से। लेकिन जब उस अंदर के लंबे-चौड़े आंगन में मुर्गियां टहलती रहतीं तो हम बच्चे उनके पीछे दौड़ते और वे घबरा कर आगे-आगे दौड़तीं और हम उनका पीछा करते हैं। हमें यह दौड़-धूप छुआ-छुअव्वल  के खेल जैसी लगती। उन मुर्गियों के बीच एक बड़ा सा मुर्गा था, जिसकी बहुत बड़ी कलगी थी। एक दिन जब हम लोग मुर्गियों को दौड़ा रहे थे कि अचानक उस मुर्गे का मूड खराब हो गया और उसने उल्टे हम लोगों को दौड़ाना शुरू कर दिया सबसे पहले उसने सिद्दीकी मामा की बड़ी बेटी के टखने में चोंच मारी। वह उचक कर भागी। दूसरा निशाना उसने मुझे बनाया और उसने आकर मेरी फ्रॉक पकड़ ली। मैं डर गई और मैंने मां को पुकारना शुरू कर दिया। मेरी चींख-पुकार सुनकर मां और मामी दोनों भाग कर आंगन में आईं और वहां का नज़ारा देखकर हंसी के मारे उनका बुरा हाल हो गया। मां और मामी को आया देखकर मुर्गे ने मेरी फ्राक छोड़ दी। लेकिन मां और मामी की हंसी रोके नहीं रुक रही थी। आज मैं उस घटना के बारे में सोचती हूं और उस दृश्य की कल्पना करती हूं तो मुझे खुद भी हंसी आने लगती है। मुर्गियों के छोटे-छोटे चूजों से खेलना भी मुझे बहुत अच्छा लगता था। सफेद रूई के गोले के समान नर्म- मुलायम चूजे बहुत ही प्यारे लगते थे। तब मुझे नहीं मालूम था कि बड़े होने पर उनमें से कई रसोईघर की देगची में पहुंच जाते हैं। क्योंकि हम लोग शाकाहारी थे इसलिए हमारे सामने कभी मांसाहार की बात नहीं होती थी, इसलिए मैं मांसाहार के बारे में उस समय कुछ भी नहीं जानती थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि सिद्दीकी मामा के यहां बकरे की क़ुर्बानी भी दी जाती है। 

        ईद की शाम मां हम दोनों बहनों को साथ लेकर सिद्दीकी मामा के घर जाती थीं। उस समय उनके घर और भी बहुत से मेहमान आए हुए रहते थे। हम लोग ढेर सारे बच्चे इकट्ठे हो जाते और खूब धमा-चौकड़ी करते। मां ईद के उपहार के रूप में उनके लिए टेबल क्लॉथ, दो सूती पर कढ़ाई करके बनाया गया टॉवल या फिर टीपॉट को ढंकने के लिए टीकोजी बना कर ले जाया करती थीं, जिन पर वे स्वयं कढ़ाई करती थीं। मां दोसूती की कढ़ाई, सिंधी कढ़ाई, कच्छी कढ़ाई, भरवां कड़ाई, लेजीडेजी कढ़ाई में एक्स्पर्ट थीं। मैंने भी उनसे कढ़ाई करना सीखा था। वे बुनाई और सिलाई में भी माहिर थीं। कपड़े सिलना भी मैंने मां से ही सीखा। सिलाई करना आज भी मैं भूली नहीं हूं। मां के दो गुण सिलाई और कढ़ाई मैंने अपनाएं जबकि बुनाई करने का पेशंस वाला गुण वर्षा दीदी ने अपनाया। उनका बुना हुआ स्वेटर आज भी मैं पहनती हूं।
         ईद की शाम मां  हम दोनों को भी अच्छे कपड़े पहनातीं और सुंदर रिबन वाली दो चोटियां गूंथतीं। उन दिनों रिबन से सजी हुई दो चोटियों का फैशन था। वर्षा दीदी के बाल तो शुरू से ही लंबे थे और उन्होंने कभी कटवाए नहीं थे। मेरे भी बाल उन दिनों लंबे थे यद्यपि जब फिल्म "पूरब पश्चिम" आई थी, तो उस समय सायरा बानो कट बालों का फैशन चला था। मुझे भी "सायरा बानो कट" बाल कटवाने का भूत सवार हो गया था। मां ने बहुत मना किया किंतु मेरे बालहठ के आगे उनकी एक न चली और अंततः उन्हें मेरे बालों पर कैंची चलवानी पड़ी। मुझे फिल्म की कहानी तो पल्ले नहीं पड़ी थी, लेकिन सायरा बानो का हेयर स्टाइल और स्ट्रेट फ्रॉक बहुत अच्छा लगा था। उस तरह के बाल तो जरूर कट गए किंतु वैसी फ्रॉक पहनने की अनुमति नहीं मिली। मां ने समझाया था कि वह लंदन में रहती है इसलिए वह ऐसी फ्रॉक पहनती है हम लोग पन्ना में रहते हैं यहां ऐसे फ्रॉक नहीं पहने जाते हैं। बात कुछ समझ में आई थी और कुछ नहीं भी।

      ख़ैर, मैं चर्चा कर रही थी सिद्दीकी मामा के घर की ईद की। सभी शाकाहारी मेहमानों के लिए बिना अंडे की शुद्ध मावा डली हुई लाहौरी सेवइयां पकाई जाती थी, जिसमें काजू, किशमिश, पिस्ता, बादाम आदि बहुत सारे मेवे डाले जाते थे। वैसे  वह  सेवइयां बहुत ही स्वादिष्ट रहती थी। हम बच्चों को ईदी के रूप में कोई न कोई खिलौना दिया जाता था। सिद्दीकी मामा के घर की ईद को याद रखने के लिए यह भी एक बहुत बड़ा आकर्षण रहता था।
          सिद्दीकी मामा के घर के पीछे की ओर एक सहजन (मुनगे) का पेड़ लगा था जिस पर बहुत फलियां आती थीं। जब सहजन फलता तो वह हमारे घर ढेर सारे सहजन भेज दिया करते थे। उन दिनों हमारे घर में भी बड़ा-सा बगीचा था। जिसमें सेम की बेल, केले के पेड़, पपीते के पेड़, कुंदूरु की बेल और बहुत सारे फूलों के पौधे लगे थे। मां सहजन के बदले केले, पपीते, कुंदूरु आदि उनके घर हम लोगों के हाथों भिजवा दिया करती थीं। 

        कुछ वर्ष बाद सिद्दीकी मामा का स्थानांतरण हो गया और वह पन्ना से चले गए। उनके जाने के कई वर्ष बाद यानी बड़े होने पर मुझे इस बात का पता चला कि वे पन्ना के छत्रसाल महाविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर थे। वे बहुत विद्वान थे। इसके साथ ही मुझे यह भी पता चला जो कि मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता था कि  वे मुस्लिम धर्म के थे। मैंने अपने बचपन में जो माहौल पाया था उसमें हिंदू और मुस्लिम मुझे कभी अलग-अलग नहीं लगे और यह अंतर मुझे आज भी समझ में नहीं आता है। अलग-अलग धर्म मान लेने से इंसान अलग - अलग नहीं हो सकते हैं। हम सभी इंसान हैं और एक जैसे हैं। बस, यही बात मैंने अपने बचपन में सीखी और आज भी मैं उसी सीख पर क़ायम हूं।                -------------------------
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Friday, May 27, 2022

बतकाव बिन्ना की | सबई खों डर के रओ चाइए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | साप्ताहिक प्रवीण प्रभात

ब्लॉग मित्रो, "सबई खों डर के रओ चाइए!" ये है मेरा बुंदेली कॉलम-लेख "बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) में।
हार्दिक धन्यवाद #प्रवीणप्रभात 🙏
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बतकाव बिन्ना की             
सबई खों डर के रओ चाइए!
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
            ‘‘काए भैयाजी, जे कपड़ा-लत्ता ले के किते फिर रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे, ने पूछो बिन्ना! जे कमीजन पे अपनों नांव-पता कढ़वाने रओ, पर ऊने कह दई के आजकल हम शादी के कपड़ा सिलबे में बिजी आएं, कोनऊ और से जे काम करा लेओ।’’ भैयाजी बोले। 
‘‘सो का सबरी कमीजन पे अपनो नांव-गांव कढ़वाने आए का? पर मोए जे नईं समझ में आ रई के जे आप कर काए रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। 
‘‘अरे बिन्ना, आजकाल अपनी कमीजन पे अपनो कुल्ल पतो औ मोबाईल नंबर सोई लिखवाबो जरूरी आए।’’ भैया जी बोले।
‘‘जे सो आप ऐसे कै रए जैसे अंग्रेजी स्कूल के मोड़ा-मोड़ी हरें होंए। बड़े शहरन में एक-दो स्कूलन ने जे उपाय करो हतो। मोड़-मोड़ियन की यूनीफार्म पे उनको घर को पतो कढ़वा दओ रओ। आप सोई ऊंसई कर रैए आएं।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘अब का करो जाए बिन्ना!’’ भैयाजी गहरी सांस लेत भए बोले।
‘‘पर जे आप करा कए रए?’’ मैंने भैयाजी से फेर के पूछी।
‘‘बात जे है बिन्ना के अब मोरी उमर हो चली आए।’’
‘‘उमर होबे से जे कमीज पे नांव-गांव कढ़वाबे से का मेल?’’ मैंने पूछी। मोए भैयाजी की जे हरकत समझई में ने आ रई हती।
‘‘उमर होबे से जे मेल के अब मोए जे बात को डर लगन लगो आए के कल को मोए कहूं बाहरे जाने परो। ठीक! औ बाहरे जा के कहूं मोरी याददास्त हिरा गई, तो का हुइए?’’ भैयाजी बोले।
‘‘का हुइए? कोनऊं मलोमानुस आप खों थाने पोंचा देगा, उते से थानेवारे आपको आपके घरे भेज देंगे।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, औ जो कहूं कोनऊ नीमच घांई नेता मिल गओ, सो फेर पोंच गए थाने। थपड़िया-थपड़िया के पैलऊं राम नाम सत्त कर देहे। अब बड़ी उमर में कोन ठिकानों के दिमाग ने साथ नई दओ औ मोए याद नईं आओ के मोरो धरम का है? सो का हुइए? मनो चलो मान लओ के ने भूलबी, पर जो कहूं ऐसई कोनऊं से टकरा गए औ ऊने एक लपाड़ा मार दओ, सो उत्तई में तो रओ-सओ दिमाग बढ़ा जाने आए।’’ भैयाजी बोले जा रए हते के मैंने टोंकी।
‘‘जे कहां की अल्ल-गल्ल बातें कर रए? आप काए डरा रए? आपके संगे कछु न हुइए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘जे ने कओ बिन्ना, कोन खों पतो रओ हुइए के जैन साब के संगे जा कांड हो जेहे। मनो जैन साब मुसलमान निकर आते तो का उने छोड़ दओ जातो? उनकी दिक्कत जेई रई के बे बोल नई पाए। जेई मंत्रीजी ने कही। बाकी जो जैन साब अपनो धरम बता पाए होते तो का बे नेता भैया उनखों पलका पे बिठा के खीर-पुड़ी खवाउते? सो बिन्ना, हमने सोची के कोनऊ रिस्क नई लेनो चाइए। अपने कपड़ा पे अपनो नांव, पतो औ मोबाईल नंबर लिखाओ औ निस्फिकर हो के रओ। जो अपन ने बता पाएं सो मारबे वारो कपड़ा पे नांव-गांव पढ़ के शायद छोड़ई दे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बड़ी दूर की सोच रए भैयाजी!’’ मोसे और कछु कहो नई गओ।
‘‘सोचो चाइए! सबई जनन खों सोचो चाइए। को जाने को कबे, कहां फंस जाए और राम नाम सत्त हो जाए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बात सो ठीक कै रए आप! बच के रओ चाइए।’’ अब मोए बात समझ में आ गई हती।
‘‘बच के का, डर के रओ चाइए। हमने सो तुमाई भौजी से कई रई के तुम सोई अपनी साड़ी के पल्ला पे, ने तो ब्लाउ पे अपनो नांव-पतो काढ़ ले। औ संगे हमाई कमीजन पे बी काढ़ दइयो। मनो उन्ने मोरी कभऊं सुनी, के आए सुनतीं। बोलीं हमें अपनी कोनऊं साड़ी-ब्लाउज़ को सत्यानास नई कराने, औ ने हमाए ऐंगर इत्तो टेम आए के तुमाई कमीजन पे तुमाओ नांव काढ़त फिरें। रामधई बिन्ना! घंटा-खांड़ बे बमकत फिरीं।’’ भैयाजी ने अपनी पीरा बताई।
‘‘सच्ची?’
‘‘औ का? मोए का परी झूठ बोलबे की? तुम खुदई पूछ लइयो अपनी भौजी से। उन्ने मना कर दओ, जभी लों टेलर की दूकान जानो परो। पर ऊने सोई पल्ला झार दओ। कहन लगो के शादी-ब्याओ को सीजन चलो आए, फेर आइयो, अभईं टेम नईंया। हमने कही के दूनो पइसा ले ले। वा बोलो, तुमाओ दूनो बी ब्याओ के जोड़ा से कम पड़हे। बाकी गम्म करो, ब्याओ के सीजन के बाद हम दूनो का आधे पइसा में तुमाई कमीजें काढ़ देबी।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, सो ब्याओ को सीजन निपट जान देओ फेर कढ़वा लइयो।’’ मैंने कही।
‘‘हऔ, औ जो कहूं मोए ब्याओं में बाहरे जाने परो, सो का करबी? बा वारो वीडियो देख के मोरो जी सो डरान लगो आए।’’ भैयाजी घबड़ात भए बोले। 
‘‘काए डरा रए आप? जो कछु लिखो हुइए वोई हुइए। आप के टारे से नईं टर जाने। बो कशीदा वारो कही कै रओ के तनक गम्म खाओ।’’ मैंने भैयाजी खों हर तारां से समझावो चाओ।
‘‘तुमें बी हमाई फिकर नइयां!’’ भैयाजी बुरऔ मानत भए बोले।
‘‘जो का कै रए? मोए आपकी पूरी फिकर आए। मनो मोए कढ़ाई-वढ़ाई आऊत नइयां, ने तो मैं ई आपको नांव काढ़ देती।’’ मैंने भैयाजी खों मनाबे के लाने कही।
‘‘चलो कछु नईं, हमसे सो ऊंसई कै आई, बाकी हमें पतो आए के तुमे हमाई बड़ी फिकर रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
उनकी जे बात सुन के मोई तसल्ली भई। 
‘‘अरे हओ बिन्ना! हमें अभईं लों एक आईडिया आओ कहानो।’’ भैयाजी मनो उचकत भए बोले। 
‘‘कैसो आईडिया?’’
‘‘जे के तुमसे कढ़ाबो नईं बनत पर चित्रकारी सो कर लेत हो। पेंटिंग-मेंटिंग बनाउत रैत हो।’’
‘‘हऔ सो?’’
‘‘सो जे, के तुम हमाई कमीजन पे कपड़ा वारे पेंट से हमाओ नांव लिख देओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘पर....!’’
‘‘पर-वर कछु नईं! हमाए लाने तुम इत्तो सो काम तो करई सकत हो। तुम तो जे बताओ के बो कपड़ा वारो पेंट, बो का कहाउत आए फेब्रिक कलर... हऔ, कौन-कौन से रंग चाउने है, तुम तो जे बताओ। औ कैसो ब्रश लगहे। एक वो छल्ला सो रैत आए कढ़ाई वारो, वो सोई लगहे का?’’ भैयाजी बोलतई जा रए हते।
‘‘ भैयाजी पर मोरो ऐंगर टेम नईयां!’’ मैंने कही।
‘‘लेओ! अभई सो बड़ी-बड़ी बातें कै रई हतीं औ अब टेम नइयां? तुम सोई औरन घांई करन लगीं?’’ भैयाजी पांछू हटबे वारे नईं हते।
सो मैंने मन मार के रंग गिना दए। ब्रश गिना दए। औ अब डरबे की बारी मोरी हती के उनकी बीसेक कमीजन पे उनको नांव-पतो लिखबे में कित्तो टेम लगहे?

भैयाजी निकर गए रंग लाबे। मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी बिधौना हतो सो बिध गओ। चाए रो के लिखो जाए, चाए हंस के लिखो जाए, मनो लिखने सो परहेई। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(26.05.2022)
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Wednesday, May 25, 2022

चर्चा प्लस | काश ! कभी न मनाना पड़े - मिसिंग चिल्ड्रेन डे (25 मई) | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
काश ! कभी न मनाना पड़े  - मिसिंग चिल्ड्रेन डे (25 मई)
    - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह   

     दुनिया के सारे बच्चे अपनी मांओं की गोद और पिता की बांहों में सुरक्षित रहे! हमें कभी न मनाना पड़े खोए हुए बच्चों का दिवस। इसी प्रार्थना के लिए प्रेरित करता है ‘‘मिसिंग चिल्ड्रेन डे’’ यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस। यह दिवस इस बात का भी आग्रह करता है कि हम उन बच्चों को न भुलाएं जो अपराधियों द्वारा हमारे समाज में ही कहीं छुपा दिए गए हैं। साथ ही कोशिश करते रहें कि खोए हुए बच्चे अपने घर लौट सकें, अपने माता-पिता के पास, जिनकी आंखें प्रतीक्षा करते हुए पथराई जा रही हैं।


बच्चों का खो जाना इस दुनिया की सबसे बड़ी हृदयविदारक त्रासदी है। यह कल्पना से परे है कि उन माता-पिता पर क्या गुज़रती होगी जिसका बच्चा अचानक गुमशुदा हो जाता है। यदि कुछ अरसे बाद किसी अनहोनी के तहत उस बच्चे के मारे जाने की सूचना मिलती है तो एक ज़बर्दस्त झटका लगता है किन्तु इसी के साथ बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि बच्चे के संबंध में किसी भी प्रकार की सूचना कभी नहीं मिल पाती है तो माता-पिता को जीवन भर उस बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा रहती है। जबकि वे नहीं जान पाते हैं कि उनके बच्चे के साथ क्या हुआ? वह कहां है? किन हालातों में है? जीवित है भी या नहीं? कभी लौट सकेगा या नहीं? इतने सारे प्रश्नचिन्हों के साथ प्रतिदिन अपने बच्चे के लौटने की की आशा के साथ जीना कितना कठिन है, यह वे माता-पिता ही बता सकते हैं जिन्होंने अपने बच्चे को खोया है।

हर साल 25 मई को विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन उन गुमशुदा बच्चों के लिए मनाया जाता है जो किसी तरह अपने घर पहुंच चुके है, उन लोगों को याद रखने के लिए जो अपराध के शिकार हैं, और उन लोगों की तलाश करने के प्रयास जारी रखने के लिए जो अभी भी लापता हैं। मिसिंग चिल्ड्रन्स डे का प्रतीक है ‘‘फाॅरगेट मी नाॅट’’ नामक फूल।

        इस दिवस को मनाने की शुरुआत हुई सन् 1979 की घटना से। 25 मई, 1979 को छह वर्षीय एटन पैट्ज बस से स्कूल जाते समय अचानक गायब हो गया। इसके पहले तक लापता बच्चों के मामलों ने शायद ही कभी राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया हो। पहली बार एटन के लापता होने के मामले ने इस समस्या से जूझ रही देश-दुनिया का ध्यान खींचा और मीडिया का सहारा लिया। एटन के पिता, जो एक पेशेवर फोटोग्राफर थे, ने बच्चे को खोजने के लिए उसकी ब्लैक-व्हाइट तस्वीरें हर जगह वितरित कीं। जिससे मीडिया का भी इस ओर ध्यान गया। सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने लापता बच्चों की याद में इस दिवस मनाना शुरू किया। धीरे-धीरे दुनिया भर के अन्य देशों में भी इसकी शुरुआत की गई। औपचारिक रूप से 25 मई, 2001 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस को मान्यता दी गई थी। यह सब कुछ मिसिंग चिल्ड्रन यूरोप और यूरोपीय आयोग के संयुक्त प्रयास से संभव हो पाया। आज यह दिवस अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

बहुत पहले टेलीविजन पर हाॅलीवुड की एक फिल्म देखी थी जिसका नाम तो अब याद नहीं है किन्तु उसकी कहानी जो वास्तविक घटना पर आधारित थी, वह आज भी दिल-दिमाग़ में बसी हुई है। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक युवा पिता अपने बच्चे को अपनी कार में लेकर घर से निकलता है और वह किसी काम से कुछ मिनटों के लिए एक माॅल में जाता है। अपने दुधमुंहे बच्चे को जल्दी लौटने का कहते हुए वह कार की खिड़की खुली छोड़ देता है ताकि उसे हवा मिलती रहे। कुछ मिनट बाद जब वह वापस आता है तो उसे बच्चा कार में नहीं मिलता है। वह पागलों की तरह अपने बच्चे को ढूंढता है किन्तु बच्चा उसे नहीं मिलता है। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती है कि वह अपनी पत्नी के सामने बच्चे के बिना कैसे जाए। वह घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है और बच्चे के खोने के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है। वह अपनी नौकरी, बिजनेस सब छोड़ कर बच्चे की खोज में भटकता रहता है और भिखारियों के बीच सारा जीवन बिता देता है। एक पिता की मनःस्थिति जो उस पल के लिए स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाता है कि वह अपने बच्चे को कार में छोड़ कर क्यों गया, रोंगटे खड़े कर देती है।
इसी तरह अभिनेता स्टीवेन सीगल की एक फिल्म आई थी जिसमें वह अपनी गुमशुदा नाबालिग बेटी को ढूंढता हुआ एशिया के उन इलाकों में जा पहुंचता है जहां कम उम्र की लड़कियों को दुनिया भर से अपहृत कर के लाया जाता है और उनकी पोर्न फिल्म बना कर दुनिया भर में बेचा जाता है। स्टीवेन ऐसे ही एक अड्डे पर अपनी बेटी को बुरी अवस्था में पाता है और यह देख कर उसका खून खैल उठता है। चूंकि वह एक्शन फिल्म थी अतः हीरो अकेले ही बच्चों की तस्करी के माफिया से भिड़ कर अपनी बेटी को बचा लेता है। जबकि वास्तविक जीवन में ऐसा संभव नहीं होता है। यद्यपि एक बात इस फिल्म के अंत में सार्थकता के साथ रखी गई कि अपराध का शिकार हुई बेटी को हीरो गले लगा कर कहता है कि ‘‘इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं! तुम्हें एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार है और हमेशा रहेगा।’’

लापता और शोषित बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय केंद्र इंटरनेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉइटेड चिल्ड्रन एक 501 (ब) (3) गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी संगठन है जो बाल अपहरण, यौन शोषण और शोषण को समाप्त करके बच्चों के लिए इस दुनिया को एक सुरक्षित स्थान बनाने के लिए काम कर रहा है। सन् 1998 में अपनी स्थापना के बाद से आईसीएमईसी ने 117 देशों के 10,000 से अधिक कानून प्रवर्तन अधिकारियों को प्रशिक्षित किया है.बाल पोर्नोग्राफी के विरुद्ध कानूनों को लागू करने के लिए 100 से अधिक देशों की सरकारों के साथ काम किया.अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस 2001 से 6 महाद्वीपों के 20 से अधिक देशों में मनाया जा रहा है और इसके तहत 23 सदस्यीय ग्लोबल मिसिंग चिल्ड्रेन नेटवर्क बनाया गया। आईसीएमईसी का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका में है, जिसका क्षेत्रीय ऑफिस ब्राजील और सिंगापुर में है।
अब बात भारत की करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में भारत में कुल 73,138 बच्चे लापता हुए। देश में हर दिन सैकड़ों बच्चे लापता हो जाते हैं। वर्ष 2016 के दौरान कुल 63,407 बच्चे, 2017 के दौरान 63,349 बच्चे और 2018 के दौरान कुल 67,134 बच्चे लापता बताए गए हैं।  (एनसीआरबी 2019) राज्य की बात करें, तो मध्य प्रदेश वर्ष 2016, 2017 और 2018 में क्रमशः 8,503, 10,110 और 10,038 लापता बच्चों का रिकाॅर्ड रहा। वहीं पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर है।  यहां 2016 में 8,335, 2017 में 8,178 और 2018 में 8,205 बच्चे लापता हुए।  एनसीआरबी 2019 के अनुसार लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और बिहार में है। मध्य प्रदेश में लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक इंदौर जिले से रही है।  पश्चिम बंगाल में कोलकाता जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है। वहीं बिहार में पटना जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है। 
      यदि बुंदेलखंड पर दृष्टिपात करें तो यहां भी कोई अच्छी दशा नहीं है। इस विषय पर मैंने अपने इसी ‘‘चर्चा प्लस’’ काॅलम में 31.01.2019 में ‘‘गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेखबर हम’’ शीर्षक से लिखा था।
देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमेन ट्रेफिकिंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी।  वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढ़ने वाले स्कूली बच्चे हैं।
आखिर महानगरों के चैराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नजर से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है।

मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले दशक में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं।  2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से अधिक बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर जिलों में 90 फीसदी से ज्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को जबरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
        बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। बहरहाल, हम मिसिंग चिल्ड्रेन डे यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस मनाते हुए यह प्रार्थना करें कि किसी बच्चे को अपने माता-पिता से न बिछड़ना पड़े।
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(25.05.2022)
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Tuesday, May 24, 2022

पुस्तक समीक्षा | समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

प्रस्तुत है आज 24.05.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि, कथाकार "महेश कटारे सुगम"  के कहानी संग्रह "फसल" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏

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पुस्तक समीक्षा
समाज के दोहरे चरित्र को आईना दिखाती कहानियां
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - फसल
लेखक      - महेश कटारे ‘सुगम’
प्रकाशक    - लोकोदय प्रकाशन, प्रालि., 65/44 शंकरपुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ (उप्र)
मूल्य       - 150 /-
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  आज जिस कहानी संग्रह की समीक्षा मैं कर रही हूं वह बुंदेलखंड के कहानीकार महेश कटारे सुगम का कहानी संग्रह ‘‘फसल’’ है। इस संग्रह में मौजूद कहानियों में ग्रामीण परिवेश की समसामयिक समस्याओं, जिन पर शहरी समस्याओं की छाप है, को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। इन कहानियों में आंचलिकता का पुट रचा बसा है। संग्रह की पहली कहानी का नाम है - ‘‘फसल’’। यह कहानी बुंदेलखंड में व्याप्त दस्यु समस्या पर आधारित है। इसका कथानक उस समय का है जब बुंदेलखंड में डाकुओं का आतंक व्याप्त था और सरकार हर संभव प्रयास कर रही थी कि इस समस्या पर लगाम लगाई जा सके।
70-80 के दशक में मध्य प्रदेश के भिंड जिले की चंबल घाटी में डाकू मलखान सिंह एक दुर्दांत नाम था। उन दिनों मलखान सिंह के सिर पर 70 हजार रुपये ( आज के हिसाब से लगभग 6 लाख रुपये) का इनाम रखा गया था। दस्यु उन्मूलन के प्रयास करने पर मलखान सिंह, पूजा बाबा जैसे अनेक कुख्यात डाकुओं ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आत्मसमर्पण की योजना बनाना सरकार के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया था क्योंकि इन दस्युओं की ग्रामीण जनता में बहुत प्रतिष्ठा थी। वे गरीबों की आर्थिक मदद करते थे तथा कभी किसी परिवार की बहू-बेटी से अभद्रता नहीं करते थे। इसका सकारात्मक असर जनता के दिलों-दिमाग पर था। इसीलिए ग्रामीण जनता उन्हें पुलिस से बचने में मदद किया करती थी। अतः यह जरूरी हो गया था कि उन्हें सम्मानजनक तरीके से आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया जाए। मलखान सिंह का आत्मसमर्पण सशत्र्त था। उसने सरकार से यह मांग रखी थी कि उसके किसी भी साथी को मृत्युदंड की सजा न दी जाए जिसे सरकार ने मान लिया था। मलखान सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने अपने हथियार रख कर आत्मसमर्पण की घोषणा की थी।  इस आत्मसमर्पण में पुलिस अधीक्षक और उनकी पत्नी की अहम भूमिका चर्चित रही थी जिसमें कहा जाता था कि भिंड के पुलिस अधीक्षक की पत्नी ने डाकू मलखान सिंह को राखी बांधकर आत्मसमर्पण के लिए राजी किर था। आत्मसमर्पण के बाद डाकुओं को खुली जेल में रखा गया था। जहां रहते हुए वे अपनी सजा भी काट रहे थे किंतु आम जनजीवन से भी जुड़े हुए थे।

    यद्यपि जैसी की आशा थी इस आत्मसमर्पण से समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हुई अपितु कुछ अपराधी मनोवृति के ग्रामीणों को रास्ता मिल गया लूटपाट करने का और अपने प्रतिशोध लेने का वे लोगों को लूटते डकैती डालते हत्याएं करते और बीहड़ में कूद जाते। उनको अपने आप को ‘डाकू सरदार’ या ‘दस्यु सुंदरी’ कहलाने में गर्व महसूस होता। यह समस्या आगे भी कई दशकों तक चलती रही। अजयगढ़, बांदा क्षेत्र के कुख्यात डाकू चार्ली राजा के आत्मसमर्पण के अवसर पर पत्रकार के रूप में मैं भी उस घटना के साक्षी रही हूं। चार्ली राजा को देख कर ही यह अंदाजा लगता था कि यह मलखान सिंह की परंपरा दस्यु नहीं है। चार्ली शब्द का अर्थ ही उद्दंड या चलता -पुर्जा होता है। कई डाकू सामान्य जिंदगी में लौट कर भी असामान्य बने रहे। ऐसा ही एक पात्र महेश कटारे ने अपनी कहानी ‘‘फसल’’ में रखा है। किंतु कहानी में एक नया मोड़ तब आता है जब उस दुर्दांत डाकू की घर वापसी के बाद उसकी दुर्दांता बनी रहती है और उसे समूल नष्ट करने के लिए उस से पीड़ित परिवार का युवक अपने हाथों में बंदूक उठा लेता है लेकिन वह तय करता है कि उस डाकू को मारने के बाद वह बीहड़ की ओर नहीं कानून की ओर जाएगा। बुंदेलखंड की दस्यु समस्या से परिचित कराती यह एक अच्छी कहानी है।
‘‘साठ मिनट का सफर’’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है एक यात्रा वृतांत है। इसमें 60 मिनट की रेल यात्रा का रोचक विवरण है। एक कंपार्टमेंट में अनाधिकृत रूप से छात्राओं का प्रवेश करना और अपनी चुलबुली हरकतों से कंपार्टमेंट को गुंजायमान किए रखना इस कहानी की रोचकता का सबसे बड़ा पक्ष है।
‘‘रोज़-रोज़’’ कहानी का शीर्षक पढ़कर सहसा अज्ञेय की कहानी ‘‘रोज़’’ याद आ गई। यूं तो अज्ञेय की ‘‘रोज’’ पहले ‘‘गैंग्रीन’’ नाम से छपी थी लेकिन बाद में इसका शीर्षक बदलकर अज्ञेय ने ‘‘रोज’’ कर दिया था। यद्यपि अज्ञेय की ‘‘रोज’’ और महेश कटारे कि ‘‘रोज’’ में कोई साम्य नहीं है। दोनों विपरीत ध्रुवीय कहानी हैं। अज्ञेय की ‘‘रोज’’ जहां एक ऐसी स्त्री की कथा है जो अपने पारिवारिक जीवन में एक घर में कैदी सा जीवन बिता रही है, जिसकी रोज ही एक सी दिनचर्या है। वही महेश कटारे की ‘‘रोज़-रोज़’’ उन स्त्रियों की संघर्ष गाथा है जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए पैसेंजर ट्रेन पर सवार होकर, एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक की यात्रा करती हैं। वहां से उतरकर वे जंगल जाती हैं। वहां से लकड़ियां बटोरती हैं और फिर उन लकड़ियों के गठ्ठों को अपने सिर पर ढोकर स्टेशन तक लाती हैं और फिर वही यात्रा ट्रेन की अपने घर वापसी तक। इन लकड़ियों को बेचकर ही परिवार का जीवन यापन होता है। किंतु इस प्रतिदिन की यात्रा में अनेक संकट हैं- ट्रेन की भीड़ का संकट, टिकट कलेक्टर का संकट, जंगल में पहुंचकर वनरक्षक का संकट, अर्थात अनेक स्तरों पर इन स्त्रियों को रोज-रोज जूझना पड़ता है। यह स्त्री विमर्श की एक सशक्त कहानी मानी जा सकती है।

     ‘‘केट्टी’’ कहानी एक ऐसी युवती की है जो केरल की रहने वाली है। पारिवारिक आर्थिक विपन्नता के कारण वह अपनी बचपन की सहेली के पास ग्वालियर आ जाती है और वही नर्सिंग का कोर्स करके नर्स के रूप में एक गांव में नियुक्ति पा जाती है। यहां से शुरू होती है उसकी विडंबनाओं की कहानी। अस्पताल पहुंचते ही वहां का स्टाफ उसे इस प्रकार देखता है जैसे वह कोई मनोरंजन की वस्तु हो। थक-हार कर वह विवाह का रास्ता अपनाती है। वह एक ऐसे पुरुष से विवाह करती है जो पहले से ही विवाहित है किंतु उसके प्रति आकर्षित है। वह पुरुष अर्थात कंपाउंडर मिश्रा समाज में साख रखता है। अतः उस से विवाह करके केट्टी स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। केट्टी ने एक सुखद सुरक्षित जीवन की कल्पना करते हुए कंपाउंडर मिश्रा से शादी की थी वह कल्पना शीघ्र ही चूर-चूर हो गई। विवाह के बाद कंपाउंडर मिश्रा का वास्तविक रूप उसके सामने आया। वह जितना ऊपर से सज्जन दिखाई देता था, भीतर से उतना ही दुर्जन साबित हुआ। हर रात वैवाहिक-बलात्कार का सामना करती हुई केट्टी इस नतीजे पर पहुंचती है कि कानूनी अधिकार प्राप्त भेड़िए से मुक्त हो जाना ही श्रेयस्कर है। यह कहानी एक साथ गई मुद्दों पर चर्चा करती है जैसे स्त्री का अकेले रहते हुए अपने पैरों पर खड़े होने का संघर्ष, समाज में मौजूद भेड़िएनुमा लोगों की देह लोलुप चेष्टाएं और विवाह के उपरांत शराबी तथा पत्नी को उपभोग की वस्तु समझने वाला पति मिलने से उत्पन्न जीवन संकट। यह कहानी समाज में स्त्री की दशा पर पुनर्विचार करने का तीव्र आग्रह करती है।
‘‘प्यास’’ कहानी उस ग्रामीण परिवेश और समाज की कहानी है जहां मनुष्य की प्यास को भी उनकी जाति से आंका जाता है। कहानी का नायक गणपत नाई बड़ेजू की पोती का टीका चढ़ाने जाता है जहां उससे अपमान का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि रास्ते में वह सभी को कुएं से पानी लाकर पिलाता है किंतु जब उसे प्यास लगती है तो उसे डपट दिया जाता है कि इसे बड़ी प्यास लगी हुई है। उतार दो इसे गाड़ी से जब कई किलोमीटर यह पैदल चल कर आएगा, तभी से समझ में आएगा। इस तरह का दोहरे व्यवहार की यह कहानी समाज के चाल, चरित्र और चेहरे को बेनकाब करती है।
‘‘फिर का भऔ’’ कहानी गांव के एक रसूखदार के बिगड़ैल बेटे को एक लड़की द्वारा दंडित किए जाने की रोचक कहानी है। ‘‘इस तरह’’ एक हंसमुख जिंदादिल कंडक्टर की कहानी है जिसकी जाति का पता लगाने के लिए सूत्रधार परेशान रहता है। गोया कंडक्टर की जाति उसके अस्तित्व से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो किंतु अंततः सूत्रधार को एहसास होता है कि वह गलत रास्ते पर जा रहा है।
‘‘घर’’ सर्पग्रस्त घर की कहानी है। मकान मालिक सर्पोंें के हाथों बहुत व्यक्तिगत क्षति झेलता है। अंततः उसका धैर्य जवाब दे जाता है। वह सांपों को कुचलने के लिए कटिबद्ध हो उठता है। ‘‘अपना बोझ’’ एक खेतिहर श्रमिक दंपति के संघर्ष की कहानी है। पति तपेदिक से बीमार पड़ जाने पर पत्नी घर का खर्च उठाने के लिए बैलगाड़ी से सामान ढोने का काम करने लगती है। समाज के ठेकेदार उसके इस कार्य पर उंगली उठाते हैं किंतु मदद के लिए कोई नहीं आता है। अनेक हृदय विदारक संकटों से गुजरने के बाद जब लोग मदद के लिए आते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कथा की नायिका मदद लेने से इनकार कर देती है। वह कहती है कि जब जीवन भर दूसरों का बोझ उठाया तो आज अपना बोझ खुद उठाने में उससे कोई परेशानी नहीं है।
      ‘‘मुक्ति’’ उच्च शिक्षा प्राप्त कर बेरोजगार घूम रहे युवाओं के टूटते सपनों की कहानी है। कहानी का नायक चाय की दुकान वाले का बेटा है। उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की है और वह भी नौकरी पाने के सपने देखता है। परंतु वह ‘‘ओव्हरऐज़’’ हो जाता है लेकिन उसके सपने पूरे नहीं हो पाते हैं। अंततः वह अपनी डिग्रियों को भट्टी के हवाले करके अपने टूटे सपनों से मुक्ति पा जाता है। ‘‘चींटे’’  तथा  ‘‘दृश्य-अदृश्य’’ समाज-विमर्श की कहानियां हैं।
पुस्तक की भूमिका कुंदन सिंह परिहार ने लिखी है। ‘‘कहानी लेखन पर दो टूक’’ - इस शीर्षक से कहानीकार ने आत्मकथन लिखा है। जिसमें उन्होंने अपनी साहित्य की यात्रा के आरंभ होने के कारण बताए हैं। महेश कटारे सुगम की यह विशेषता है कि वे अपने लेखन में साफ़गोई का परिचय देते हैं। बिना किसी लाग लपेट के। वे सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं और कथा को विस्तार देते जाते हैं। सरल सहज हिंदी में बुंदेली बोली की छौंक जहां कहानियों की सरसता बढ़ा देती है, वही उन कहानियों का जमीन से जुड़ाव भी स्थापित करती है। ‘‘फसल’’ कहानीकार महेश कटारे सुगम का वह कहानी संग्रह है जो समाज चिंतन का एक मौलिक धरातल प्रस्तुत करता है। निश्चित रूप से यह एक पठनीय कहानी संग्रह है।   
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Sunday, May 22, 2022

सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है : शिखंडी स्त्री देह से परे - समीक्षक डॉ देवेंद्र सोनी


भोपाल से प्रकाशित "दैनिक चित्रकूट ज्योति" के रविवारीय परिशिष्ट में आज मेरे उपन्यास 'शिखण्डी' की समीक्षा समीक्षक देवेंद्र सोनी जी द्वारा की गई  है।



मूल टेक्स्ट साभार देवेंद्र सोनी जी की फेसबुक वॉल से.....

राजधानी भोपाल से प्रकाशित दैनिक चित्रकूट ज्योति के रविवारीय परिशिष्ट में पढ़िए -

डॉ.सुश्री शरद सिंह के उपन्यास 'शिखण्डी:स्त्री देह से परे' पर मेरी यह समीक्षा .

इस समीक्षा को आप हिन्दी प्रतिलिपि एप पर भी पढ़ सकते हैं।


https://hindi.pratilipi.com/story/o2isg9xjbtkd?utm_source=android&utm_campaign=content_share

मूल लेखन भी प्रस्तुत है - 

स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा के सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है उपन्यास - 'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'


उपन्यास - शिखण्डी : स्त्री देह से परे

लेखिका - शरद सिंह

प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली

मूल्य - 300₹

समीक्षक - देवेन्द्र सोनी ,इटारसी


    अपने उपन्यासों के लिए चर्चित देश की ख्यातिप्राप्त साहित्यकार डॉ सुश्री शरद सिंह का उपन्यास "शिखण्डी - स्त्री देह से परे" पढ़ने का अवसर मिला। अब तक पचास से अधिक प्रकाशित पुस्तकों का लेखन करने वालीं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ शरद सिंह का यह उपन्यास जनमानस में रचे - बसे महाकाव्य 'महाभारत' के एक शक्तिपुंज पात्र 'शिखंडी' पर आधारित है जिसमें लेखिका ने अपनी गहन विचार शक्ति से प्राण फूंक कर पाठकों के मन मस्तिष्क में हमेशा के लिए जीवंत कर दिया है।

       पौराणिक कथानक पर लिखा गया यह उपन्यास स्त्री-अस्तित्व,स्वाभिमान और गरिमा को संरक्षित करने के लिए सतत संघर्ष की अनुपम गाथा है जिसे लेखिका ने अपने संवाद कौशल से साहित्य की चिरकालिक स्मरणीय कृति बना दिया है। 

   यह उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे जाने के बाबजूद भी युगों - युगों तक अन्याय के विरुद्ध नारी - प्रतिशोध का वह जीवंत दस्तावेज है जो वर्तमान और भविष्य में  स्त्री-विमर्श को नए आयाम देगा तथा उत्पीड़न/शोषण का प्रतिकार कर प्रतिशोध की प्रबलता को प्रवाहित करेगा।

        स्त्री विमर्श की विख्यात लेखिका शरद सिंह के इस उपन्यास-' शिखण्डी : स्त्री देह से परे ' में हमारी इसी ललक की पिपासा को संतुष्टि और समाधान मिलता है । यहां पाठकों को 'महाभारत' के बारे में सारगर्भित जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही आदिकाल से चले आ रहे स्त्री - उत्पीड़न और उसके प्रतिकार स्वरूप सशक्त प्रतिशोध की संकल्पित ज्वाला भी धधकती हुई दिखाई देती है जो जन्म-जन्मान्तरों की कठिन तपस्या और शिवजी के वरदान से फलीभूत होती है।

    इस कथात्मक महाकाव्य 'महाभारत' के बारे में लेखिका 'अपनी बात' में लिखती हैं - "महाभारत' में इतिहास एवं युद्ध कथाएं तो हैं ही इसके अतिरिक्त मनोविज्ञान एवं विज्ञान का चमत्कृत कर देने वाला ज्ञान मौजूद है। प्रक्षेपास्त्र,परखनली शिशु तथा शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन का विवरण भी मिलता है। इस वैज्ञानिक ज्ञान ने 'महाभारत' की महत्ता को विश्वव्यापी बना दिया है।' महाभारत' के जितने भी प्राचीनतम लेखबद्ध - स्वरूप उपलब्ध हैं, उनका अध्ययन अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी 'नासा' द्वारा भी किया गया है तथा निरंतर किया जा रहा है। यहां तक कि दुनियाभर के एनशिएंट एलियन रिसर्चर भी 'महाभारत' काल में एलियंस की उपस्थिति की संभावना को जानने के लिए 'महाभारत' ग्रंथ का अध्ययन कर रहे हैं । यह माना जाता है कि 'महाभारत' के श्लोकों में अभी भी बहुत कुछ 'कोडीफाई' है और इसे 'डिकोड' करके प्राचीन काल के सुविकसित ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान के संदर्भ में 'महाभारत' में लौकिक, अलौकिक एवं पारलौकिक ज्ञान का प्रचुर भंडार है। 'श्रीमद्भागवतगीता' जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है। इस आदि ग्रंथ के अभिन्न अंग 'श्रीमद्भागवतगीता' में जीवन मूल्यों को समझने के लिए अकाट्य सूत्र मौजूद हैं ।आधुनिक बाजार वादी युग के मैनेजमेंट गुरु भी अपने मैनेजमेंट की सफलता के लिए 'श्रीमद्भागवतगीता' के श्लोकों का सहारा लेते हैं।"

     उपन्यास  'शिखण्डी : स्त्री देह से परे' के सारांश पर आएं तो हस्तिनापुर राज्य के महाबली भीष्म द्वारा अपने राजा विचित्रवीर्य के परिणय हेतु काशी नरेश की राजकुमारी अम्बा और उसकी दो बहन अम्बिका तथा अम्बालिका को बल पूर्वक स्वयंवर स्थल से अपह्रत कर हस्तिनापुर ले जाया जाता है । यहां राजदरबार में महाराज शाल्वराज की प्रेयसी 'अम्बा'  राजा विचित्रवीर्य की रानी बनने से साफ इंकार कर देती है जबकि उसकी दोनों बहनें अम्बिका और अम्बालिका इस हेतु अपनी सहमति दे देती हैं। 

      राजकुमारी 'अम्बा' के प्रतिकार का कारण जानकर जब 'भीष्म' उसे शाल्वराज के पास वापस भेज देते हैं तो 'कापुरुष शाल्वराज' राजकुमारी 'अम्बा' को किसी और की 'जूठन' कह अस्वीकार कर देता है। अपने इस  अपमान से आहत राजकुमारी 'अम्बा'  बिफरकर पुनः हस्तिनापुर के दरबार में लौटती हैं और भीष्म को अपनी जिंदगी बर्बाद करने का दोषी करार देते हुए कहती है - ' धिक्कार है कुरुवंशियों पर! तुम सभी स्त्री को वस्तु समझते हो। धिक्कार है, तुम्हारी ऐसी सोच पर! ऐ भीष्म, तुमने मेरा जीवन नष्ट किया! तुमने मेरे सपनों को निर्ममता पूर्वक पददलित किया, तुमने मुझे सकल विश्व के समक्ष कलंकिनी घोषित करा दिया! ऐ भीष्म!  तुमने मात्र मेरा नहीं अपितु समस्त स्त्रीजाति का अनादर किया है।' अम्बा बोले जा रही थी और उसके स्वर की भीषणता से वहां उपस्थित सभी के हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से कम्पित हो उठे।

  ' ऐ देवव्रत भीष्म! एक भीष्म प्रतिज्ञा करके तुम भीष्म कहलाए, तो सुनो, आज मैं भी एक भीष्म प्रतिज्ञा कर रही हूं कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी ! मैं अम्बा! में भीष्मा ! आज इस कुरु राजसभा में प्रतिज्ञा लेती हुई घोषणा करती हूं कि जब तक मैं तुम्हें दण्डित नहीं कर दूंगी तब तक मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा !' यह गर्जना करती हुई अम्बा जो भीष्म प्रतिज्ञा कर 'भीष्मा' बन चुकी थी, राज्यसभा से इस प्रकार चलती हुई चली गई, जैसे कोई सिंहनी हिरणों के झुंड को अपनी गर्जना से प्रकंपित कर प्रस्थानित होती है।

     राज दरबार से निकल कर दृढ़-प्रतिज्ञ अम्बा अपने पिता काशी नरेश के यहां न जाकर वन-प्रांतरों में अनेक मानसिक एवं शारीरिक यातनाओं को सहते हुए कठिन तपस्या करती है तथा अपने तपोबल से भगवान शिव से महाप्रतापी भीष्म की मृत्य का कारण बनने का वरदान प्राप्त करती है किन्तु अम्बा की यह प्रतिज्ञा पुरुष देह में ही पूर्ण हो सकती थी। अतः अम्बा अगले जन्म के लिए नदी में अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है। यही नदी बाद में अम्बा नदी के रूप में जानी गई।

        दूसरे जन्म में वह अल्पकाल के लिए शिविका के रूप में जन्म लेती है और अपनी पूर्व जन्म की स्मृति को बरकरार रखते हुए भीष्म से प्रतिशोध की कामना लिए भगवान  शिव के कहने पर अपने शरीर को अग्नि में समर्पित कर देती है। 

...फिर अपने तीसरे जन्म में भी 'अम्बा ' पांचाल नरेश राजा द्रुपद के यहां कन्या रूप में ही जन्म लेती है जिसे राजप्रासाद में बालक के रूप में पाला-पोषा जाता है किन्तु विवाहोपरांत मधुयामिनी की रात्रि को 'शिखण्डी' का भेद खुल जाता है और अचेत अवस्था में उसे शिवजी का वरदान और अपना प्रतिशोध याद आता है। तब वह गुप्त मार्ग द्वारा महल छोड़कर पुनःअपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए निकल पड़ती है, मगर यह स्त्री देह में संभव कहाँ था ? 

     शिवजी के वरदान के बावजूद सशंकित मन से वह पुनः कठिन तपस्या करती है और क्षीण अवस्था में यक्ष चिकित्सक द्वारा शल्य क्रिया के माध्यम से पुरुष देह धारण कर वापस अपने राज्य में शिखण्डी के रूप में प्रवेश कर युद्धस्थल के लिए प्रस्थित होता है। 

     अम्बा के शिखण्डी बनने तक की तीन जन्मों की इस प्रतिशोध यात्रा को लेखिका ने अपनी कल्पनाशक्ति से मानो जीवंत कर दिया है । यहां संवाद-कौशल की जितनी तारीफ की जाए कम है। शिखण्डी के रूप में सहज जिज्ञासा को शांत करते हुए डॉ. शरद सिंह  कहती हैं -

"उसका अस्तित्व कैसा था ?

वह स्त्री था, पुरुष था अथवा तृतीय लिंगी? एक व्यक्ति से जुड़े अनेक प्रश्न... क्योंकि उसका अस्तित्व सामान्य नहीं था। वह शक्तिपुंज पात्र 'महाभारत' महाकाव्य का सबसे दृढ़ निश्चयी चरित्र है, जो अपने जीवन की प्रत्येक परत के साथ न केवल चौंकाता है वरन अपनी ओर चुम्बकीय ढंग से आकर्षित भी करता है । वह पात्र है शिखण्डी जिसका अस्तित्व भ्रान्तियों के संजाल में उलझा हुआ है। वहीं वह इतना प्रभावशाली पात्र है कि महर्षि वेदव्यास ने 'महाभारत' के सबसे इस्पाती पात्र भीष्म से 'अम्बोपख्यान' कहलाया है ,जो शिखण्डी की ही कथा है, जबकि भीष्म और शिखण्डी के मध्य वैमनस्यता का नाता रहा । इस अत्यंत रोचक पात्र की जीवन गाथा अंतस को झकझोरने में सक्षम है। अतः शिखण्डी के संपूर्ण जीवन को नवीन दृष्टिकोण से जांचने ,परखने और प्रस्तुत करने की आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता।  जब शिखण्डी के जीवन की परतें खुलती हैं तो हमारे प्राचीन भारत में सुविकसित ज्ञान के उस पक्ष की भी परतें खुलकर सामने आने लगती है जहाँ शल्य चिकित्सा द्वारा लिंग परिवर्तन किए जाने के तथ्य उजागर होते हैं । इन तथ्यों का ही प्रतिफलन है यह उपन्यास-'शिखण्डी : स्त्री देह से परे'।"

   लेखिका ने इस उपन्यास में समाहित अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों में कल्पना का रंग भरते हुए उन्हें अपनी विशिष्ट शैली में रोचक बना दिया है । संवाद कौशल ने इन प्रसंगों को यादगार बना दिया है जो पाठकों के मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हुए उन्हें प्रभावित करते हैं। 

'महाभारत' के 18 दिन चले युद्ध में शिखण्डी अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु भीष्म पितामह की मृत्यु का कारक बनने के लिए अधीर नजर आता है ।

    उसे यह अवसर मिलता है जब - शिखण्डी ने अर्जुन के आगे आकर भीष्म पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसका एक भी बाण भीष्म को आहत नहीं कर पा रहा था क्योंकि शिखण्डी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं था। भीष्म को तो किसी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के बाण ही चोट पहुंचा सकते थे जबकि शिखण्डी के सामने आते ही भीष्म ने अपना धनुष झुका दिया था। वे अंबा की स्त्री - आत्माधारी स्त्री योनि -जन्मा शिखण्डी पर शर-संधान नहीं करने हेतु विवश थे। कृष्ण ने इस उचित अवसर को पहचाना और अर्जुन को संकेत किया।अर्जुन ने शिखण्डी की ओट से भीष्म पितामह पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी । बाणों का प्रहार इतना तीव्र था कि अर्जुन के बाण भीष्म के कवच को भेदते हुए उसके शरीर को छलनी करने लगे। देखते ही देखते पचासों बाण भीष्म की देह के आर- पार हो गए। दम्भी भीष्म शरशैय्या पर शिथिल पड़ा था,शिखण्डी के ठीक सामने।

      लेखिका ने यहां भीष्म और शिखण्डी की मनो-वार्ता का जो वृहद संवाद लेखन किया है वह अद्भुत है। संक्षिप्त में इसे आप भी देखिये  - "शिखण्डी के नेत्रों में विजय भाव थे तो भीष्म के नेत्रों में पश्चाताप के भाव।

' अब हम दोनों मुक्त हो जाएंगे, इस जन्म- जन्मांतर के बंधन से। मात्र उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा है ,मुझे भी, तुम्हें भी!' भीष्म ने अति मद्धम स्वर में शिखंडी से कहा, जिसे मात्र शिखण्डी ने ही सुना।

'मरणासन्न को क्षमा नहीं करोगी, अंबा?' 

यह भीष्म का शिखण्डी से मानसिक वार्तालाप था ।

'तुमने भी तो नहीं किया था देवव्रत!' शिखण्डी  ने भी उसी प्रकार मानस तरंगों से प्रत्युत्तर दिया।

' मैं प्रणबद्ध था।'

'मैं प्रणयबद्ध थी।'

'मैं अनभिज्ञ था।'

  ' कोई भी कर्म करने के पूर्व तत्सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना भी तो आवश्यक होता है, देवव्रत!' तुम्हें भी हम तीनों बहनों के बारे में ज्ञात करना था। नहीं कर सकते थे तो हम तीनों की इच्छा तो पूछते। क्या तुम्हारी दृष्टि में स्त्री की इच्छा का कोई मोल नहीं था?'

'था न ! महारानी सत्यवती और उनके पिता की इच्छा पर ही तो मैंने भीष्म प्रतिज्ञा ली थी।'

..स्वयं को दोष मुक्त कराने के लिए कुतर्क मत करो ! तुम सुविज्ञ हो और सुविज्ञ थे ! ...उत्तम यही होगा कि तुम अब अपने अंतिम समय में अपने अपराध स्वीकार कर लो! यदि तुम ऐसा करोगे तो सम्भवतः मैं सूर्य के उत्तरायण होने तक तुम्हें क्षमादान दे दूं!' शिखण्डी ने कहा ।

  ' मैं यही करूंगा!' मैं क्षमा मांगूंगा... अपनी स्वयं की आत्मा से भी, मैंने उसका कहना कभी नहीं सुना ...पर अब सुनूंगा... जो भी समय शेष है ,उसमें सुनूंगा!' भीष्म के कथन में पश्चाताप का भाव था।

   इस मानसिक संवाद के मध्य पितामह भीष्म के नेत्रों से अश्रुधाराएं बह निकलीं। इन अश्रुधाराओं को सभी ने देखा, किंतु उस मानसिक संवाद को कोई नहीं सुन सका। परिणामतः सभी को यही प्रतीत हुआ कि पितामह को शारीरिक पीड़ा हो रही है। इन अश्रुओं के मर्म को यदि कोई समझ रहा पा रहा था तो वह था शिखण्डी और कृष्ण ।

  इस तरह अपने तीसरे जन्म में राजकुमारी अम्बा का प्रतिशोध एवं प्रतिज्ञा स्त्री देह से परे शिखण्डी के रूप में पूर्ण होती है। 

   लेखिका कहती हैं - वह अपने पहले जन्म में कन्या के रूप में जन्मीं और स्त्री के रूप में अपने प्रेम सम्बन्धों को जीना चाहती थी मगर ऐसा हो न सका। अपने दूसरे जन्म में वह एक सामान्य कन्या के रूप में जन्मी,किन्तु उसने अद्भुत जीवन जिया। तीसरे जन्म में भी कन्या के रूप में वह जन्मीं और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुरुष बनी। यही पुरुष शिखण्डी था जिसने स्त्री देह से परे रहते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

   जब शिखण्डी का अंत हुआ तो वह अंत नहीं आरम्भ था जो युगों-युगों तक स्त्रियों के अपने स्वाभिमान,अपने अस्तित्व और अपनी गरिमा के संघर्ष के लिए मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। इस सत्य का स्वयं समय साक्षी बना कि अम्बा, शिखण्डी के रूप में जनम्बन्धन से मुक्त हुई और रच गई एक स्त्री की देह से परे एक अदभुत देहगाथा। 

      यह उपन्यास भाषाई संहिता और संवाद कौशल के साथ ही शिखण्डी से जुड़े एक नए दृष्टिकोण को सामने रखता है । सदियों से चली आ रही मान्यता की -' शिखण्डी' थर्ड जेंडर था ! इस उपन्यास को पढ़ने के बाद टूटती दिखाई पड़ती है और यह विदित होता है कि शिखण्डी तो कभी थर्ड जेंडर था ही नहीं। वह स्त्री के रूप में जन्मा और शल्य चिकित्सा द्वारा पुरुष के रूप में परिवर्तित होकर उसने अपना प्रतिशोध लिया। इस दृष्टि से यह उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वह पुरातन ग्रंथों एवं महाकाव्यों के चरित्रों को एक नए दृष्टिकोण से देखने का आह्वान करता है। स्त्री विमर्श का एक नया आयाम रचने के लिए लेखिका को साधुवाद।


  - देवेन्द्र सोनी

सम्पादक 

युवा प्रवर्तक

इटारसी।

मो.9111460478




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संस्मरण | पहाड़ कोठी, मदार साहब और हनुमानजी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

नवभारत मेंं 22.05.2022 को प्रकाशित
हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
संस्मरण
पहाड़ कोठी, मदार साहब और हनुमानजी
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

शहद से मीठे और पके आम जैसे रसीले बचपन के दिनों की सुनहरी आभा आज भी स्मृतियों की देहरी पर दमकती रहती है। बड़े ही खूबसूरत दिन थे। तब पहाड़ बहुत ऊंचे लगते थे और तालाब बहुत गहरे। हनुमान जी तब वैसे हनुमान जी नहीं लगते थे, जैसे अब लगते हैं। जी हां, मैं उसी पन्ना की बात कर रही हूं, वही शहर जहां मेरा बचपन व्यतीत हुआ। जहां मेरा घर था, वह हिरणबाग कहलाता था। यह कहा जाता था कि राजशाही के समय उस परिसर में हिरण पाले जाते थे। उस परिसर में आम, नीम वट और पीपल के अलावा नींबू, चांदनी, बगनविलास के पेड़ भी थे। जिनमें से कुछ धीरे-धीरे कटते चले गए और बाद में  आम, नीम, वट जैसे बड़े वृक्ष ही बचे। उस परिसर में दो बड़े कुएं थे, जिनमें हमेशा पानी लबालब भरा रहता था। इतना स्वच्छ पानी कि आस-पास के मोहल्ले की महिलाएं वहां से पीने का पानी भर कर ले जाया करती थीं। जब नाना जी से कोई कहानी सुनाते समय पनिहारिन का उल्लेख करते तो मेरे ज़ेहन में उन कुओं से पानी भरने वाली महिलाएं कौंध जातीं । फिर मेरे लिए कहानी की पनिहारिन की कल्पना करना आसान हो जाता । सीधे पल्ले की साड़ी, माथे तक घूंघट, कमर में चांदी की करधनी, हाथों में कांच की ढेर सारी चूड़ियां, सिर पर दो-दो घड़े और हाथों में लोहे की बाल्टियां। यानी ग़ज़ब का स्टेमिना। उनके घर से कुओं की दूरी कम से कम एक-दो किलोमीटर रहती ही थी। खूबसूरत ऊंची जगत वाले वे दोनों कुएं जिनमें पानी निकालने के लिए परंपरागत लकड़ी की घिर्रियां लगी हुई थीं ।

      हिरणबाग परिसर के मुख्य द्वार पर लोहे का बड़ा-सा फाटक था जिस पर चढ़कर  हम लोग झूला झूलते थे और डांट खाते थे। फाटक के बाहर चौराहा था। आज भी है। जिसका एक रास्ता छत्रसाल पार्क से होते हुए सिटी कोतवाली की तरफ जाता था। दूसरा रास्ता छोटे बाजार की ओर। दो रास्ते कुछ दूर समानांतर जाते थे जिनमें से एक रास्ता धर्म सागर तालाब की ओर जाता था और दूसरा पहाड़ कोठी की ओर ऊंचाई पर चढ़ता चला जाता था। पहाड़ कोठी नाम इसलिए पड़ा था क्योंकि वहां छोटा सा पहाड़ था जिस पर सरकारी कोठियां बनी हुई थीं। आज भी यथावत हैं। किंतु आज वह पहाड़ इतना बड़ा नहीं लगता है जितना बचपन में लगता था। आज वह पहाड़ इतना बड़ा रहा भी नहीं। बचपन के उस पहाड़ में अनेक वृक्ष थे। वह हरियाली से ढंका रहता था लेकिन आज उस पहाड़ की ढलान पर भी अनेक घर बन चुके हैं। पहाड़ कोठी की अपनी विशेषताएं थी। वहां एक्सक्यूटिव इंजीनियर, एक्साइज ऑफीसर तथा डीएफओ का बंगला था।  सबसे बड़ा कलेक्टर का बंगला था। इसके अलावा कुछ और छोटे-छोटे बंगले थे जो एसडीओ आदि को एलॉट किए जाते थे। वहां सबसे बड़ा भवन सर्किट हाउस था। यह सारे भवन आज भी मौजूद हैं।  

      एक्सक्यूटिव इंजीनियर के आलीशान बंगले में एक कुंड (चौपड़ा) बना हुआ था। जो बहुत ही डरावना लगता था। जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तो तत्कालीन एक्सक्यूटिव इंजीनियर की बेटी मेरे साथ पढ़ती थी। अब मुझे उसका नाम तो स्मरण नहीं है किंतु वह बंगला ज़रूर याद है। हम दो-तीन बच्चे अपनी उस सहेली के पास खेलने जाया करते थे। मां से अनुमति लेते समय यह हर बार सुनने को मिलता था कि  "ठीक है जाओ ! लेकिन कुंड की तरफ मत जाना। उस में झांकना भी मत। उससे दूर रहना।"

     .. इतनी सारी हिदायतें देकर मां जाने की इजाजत देती थीं। वह वाकई बहुत गहरा कुंड था। उसमें कई सीढ़ियां थीं। उसकी गहराई का अंदाज़ा कम से कम उस समय तो नहीं लगाया जा सकता था। जाहिर है, मुझे उस कुंड से डर  लगता था और मैं उसके पास जाने से हिचकती थी।

         पीडब्ल्यूडी के एक्सक्यूटिव इंजीनियर के उस बंगले के सामने राजाओं के जमाने की पुरानी बड़ी-सी तोप की बैरल रखी हुई थी। हम लोग अक्सर उस पर  बैठा करते थे। उस बैरल का मुंह शहर की ओर था। मानो वह शहर की सीमाओं की रक्षा करने के लिए सदा कटिबद्ध हो । एक्सक्यूटिव इंजीनियर के बंगले से आगे आखरी बंगला डीएफओ का था। बहुत ही बड़ा-सा बंगला। जिसमें बहुत सारे पेड़ लगे हुए थे। इन सभी बंगलों के सामने गार्ड्स पहरा देते थे। लेकिन हम बच्चों के लिए कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी। उस समय बहुत ही सीधा सरल माहौल था। वे गार्ड्स भी हमसे हंसते मुस्कुराते मिलते थे और कभी कभी कुछ खाने को भी दे दिया करते थे। कभी चॉकलेट तो कभी कोई फल।  तनिक भी डर या अविश्वास का माहौल नहीं था। हम लोग कभी-कभी सर्किट हाउस भी चले जाया करते थे। जब कोई अधिकारी वहां ठहरा नहीं रहता था और कमरे खाली पड़े रहते थे तो वहां के केयरटेकर हम बच्चों को कमरे में जाने की इजाजत दे दिया करते थे। लेकिन इस शर्त के साथ कि हम किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाएंगे, कोई तोड़फोड़ नहीं करेंगे, किसी तरह की गंदगी नहीं फैलाएंगे। हमें उनकी सारी शर्तें मंजूर रहतीं। हम वहां दीवार पर लगे बड़े-बड़े दर्पणों में अपने आप को देखते और खुश होते। फिर बाहर आकर सर्किट हाउस के परिसर में कुछ देर खेलते और फिर लौट जाते। वहां से धर्म सागर तालाब भी दिखाई देता था। जोकि बहुत सुंदर दृश्य होता था।

      डीएफओ के बंगले के आगे भी रास्ता था जो पहाड़ की चोटी तक जाता था। लेकिन बंगले के आगे का रास्ता कच्चा था। उस रास्ते में आगे चलकर एक मजार स्थापित थी जो "मदार साहब" कहलाती थी। निश्चित रूप से यह "मजार साहब" का ही अपभ्रंश थी। उस मजार पर हमेशा सुनहरे किनारों वाली हरे रंग की चादर चढ़ी रहती थी और वह पूरा क्षेत्र लोबान की सुगंध से महकता रहता था। हर शुक्रवार कोई न कोई मुस्लिम परिवार चादर चढ़ाने मदार साहब जाया करता था। पूरे बाजे गाजे के साथ। विशेष रूप से जिसकी मन्नत पूरी होती थी वह हाथठेले पर चादर और चढ़ावा रखवा कर और लाउडस्पीकर पर गाना बजाते हुए जुलूस के रूप में जाता था। उसमें परिवार की महिलाएं, पुरुष और बच्चे सभी शामिल रहते थे। लाउडस्पीकर पर हमेशा एक ही गाना बजाया जाता था जो वास्तव में ख्वाजा की इबादत में गाए जाने वाली कव्वाली थी। वह कव्वाली मुझे बहुत अच्छी लगती थी। इसीलिए आज भी उसके बोल याद हैं -

"भर दो झोली मेरी या मोहम्मद
लौटकर मै न जाऊंगा खाली..."

        अब तो इस कव्वाली हो अनेक कव्वालों द्वारा गाया जा चुका है। पर उस समय जो कव्वाली बजती थी वह शायद साबरी ब्रदर्स के द्वारा गाई गई थी।
     मदार साहब की बहुत मान्यता थी। सिर्फ मुस्लिम नहीं बल्कि सभी धर्म के लोग वहां मन्नतें मांगने और चादर चढ़ाने जाया करते थे। मदार साहब से और ऊपर जाने पर पहाड़ की चोटी पर पहुंचते थे जो लगभग समतल स्थान था। वहां अनेक ध्वंसावशेष मौजूद थे जिनमें से एकाध तो इस प्रकार गोलाकार थे कि जिससे यह लगता था कि संभवत वहां कभी बौद्ध स्तूप रहा होगा। यद्यपि इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं हैं। किंतु यह असंभव भी नहीं है।

           पहाड़ कोठी से नीचे उतरते समय घुमावदार रास्ता था। एक गहरा अंधा मोड़ और दूसरा खुला मोड़। दूसरे मोड़ पर हनुमान जी का मंदिर था। जोकि नीचे से ऊपर जाते समय पहले पड़ता था। पत्थर की फर्शी से ढंका हुआ बड़ा-सा आंगन। जो सड़क से 4-5 सीढ़ियां नीचे था । आंगन में एक ओर हनुमान जी की मढ़िया थी। उस मढ़िया की फटकी (छोटा दरवाजा) हमेशा खुली रहती थी। तीन ओर लोहे के सींखचे थे। उन दिनों न हनुमान जी को इंसानों का डर था और न इंसानों की नीयत में खोट थी कि वे वहां से कुछ चुराने का प्रयास करते। वैसे देखा जाए तो हनुमान जी की उस मढ़िया में चुराने लायक कुछ था ही नहीं। एक आदद पत्थर की मूर्ति थी जिसे पुजारी जी सुबह मुंह अंधेरे नहला-धुला कर, उस पर सिंदूर का लेप कर दिया करते थे। सिंदूर के लेप के ऊपर हनुमान जी के चेहरे पर बड़ी-बड़ी सुंदर दो आंखें चिपका दी जाती थीं। सुबह मंदिर में घंटे बजाकर पूजा की जाती और प्रसाद बांटा जाता। आमतौर पर नारियल और चिरौंजी दाने का। शाम को भी आरती और पूजा होती। विशेष रूप से मंगलवार और शनिवार को वहां मेले जैसी भीड़ जुड़ती थी। अनेक श्रद्धालु शुद्ध मावे के पेड़े, बेसन के लड्डू या भोग के लड्डू (जो सिर्फ पूजा में चढ़ावे के लिए ही बनाए जाते थे इसीलिए उन्हें भोग के लड्डू कहा जाता था) चढ़ाते थे। साथ में नारियल भी। हनुमान जी  को चढ़ाने के बाद शेष प्रसाद वहां उपस्थित बच्चों और बड़ों सभी में समान रूप से बांट दिया जाता था। अनेक बच्चे प्रसाद पाने के लालच में ही मंगलवार और शनिवार को मंदिर पहुंच जाया करते थे।

        हनुमान जी का मंदिर मेरे घर से अधिक दूर नहीं था। कई बार मैं, वर्षा दीदी और कॉलोनी के अन्य बच्चे मंदिर प्रांगण में खेलने चले जाया करते थे। मंदिर प्रांगण में एक चिल्ली का वृक्ष था। उस वृक्ष में गर्मी के मौसम में फल सूखकर उड़ने के लिए तैयार हो जाते थे। चिल्ली के बीज का स्वाद चार की चिरौंजी जैसा होता था। मैं और वर्षा दीदी मंदिर प्रांगण में जाकर ढेर सारी चिल्लियां बटोर किया करते थे। फिर घर आकर उनमें से बीज निकालकर खाया करते थे। मां समझाती थीं कि "ज्यादा बीज मत खा लेना नहीं तो पेट दुखेगा।" लेकिन बचपन में ऐसी हिदायतओं की भला किसे परवाह रहती है? वैसे भी बचपन में पाचन शक्ति भी तगड़ी होती है। खेलना, कूदना और सब कुछ पचा लेना, यही तो विशेषता होती है बचपन की। मैं तो यूं भी बचपन से ही खिलंदड़ी किस्म की थी। अवसर पाते ही घर से बाहर कॉलोनी के बच्चों के साथ खेलने जा पहुंचती और तब तक खेलती रहती जब तक मां डांट कर, वापस घर चलने को नहीं कहतीं। यद्यपि मां की आज्ञा की अवहेलना मैंने कभी नहीं की इसलिए पहली डांट पर ही सीधे घर का रास्ता पकड़ लेती।
        आज उन बचपन के दिनों से समय बहुत दूर आ चुका है। लेकिन हनुमान जी और मदार साहब के बीच के सौहार्द्र की छाप आज भी मेरे मानस में मौजूद है। शांति, अपनत्व और हरियाली का संदेश देती चिल्लियां आज भी मेरे मन के आंगन में उड़ती रहती हैं।
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Article | Rain water harvesting can be secure our future | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle

⛳Friends ! Today my article "Rain water harvesting can be secure our future" has been published in the Sunday edition of #CentralChronicle. Please read it.  
🌷Hearty thanks Central Chronicle 🙏
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Article
Rain water harvesting can be secure our future

-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh

The temperature of the earth is increasing continuously. The uses of ground water have increased even faster. Overpopulation and our carelessness towards conservation of natural resources are both the reasons for water scarcity. Incidents of beatings for drinking water have started coming to the fore again. This exposes our weak water management. It is necessary that every citizen should become self-depend for water so that no one has to face water crisis. The most practical way to do this is through rainwater harvesting which is today's biggest demand of the time.

We all know that about 71 percent of the earth is covered by water. Apart from this, 1 to 6 percent of the water is underground. That is, even after all this; the most difficult thing is water. 97% of the water on Earth's surface is in the oceans, which is not potable due to being salty. Only 3 percent of the water is potable, of which 2.4 percent is stored in the glaciers of the North and South Poles. More or less it is also not accessible for drinking. Now only 0.6% water is left. Where it is used for drinking, which is in rivers, lakes and ponds. Apart from this, drinking water is also extracted from 1.6 percent of the water reserves present under the ground. Even after this, during the summer season, most parts of the country often experience drought-like conditions. Therefore, experts believe that when the water rains, then our utmost attention should be on saving this water. At the same time, we can imagine a better life for the future by securing the water that comes out of the houses inside the earth.
Billions of people in India live in cities and the demand for water in these cities is very high. Urban administrations are trying to meet most of this demand through their water supply system. But, there are still many such areas in all the cities, where the government services of water supply have not reached. There are many reasons behind the origin of these problems. This also includes a reduction in the number of water available with municipal corporations for supply to citizens. Apart from this, the shortcomings of water management of cities are also responsible for such a situation. That is why all the municipal corporations of the country are now constantly trying to improve the water supply in the cities. For this, they are constantly trying to provide more water to the city dwellers by collecting different sources, such as rivers, lakes, canals, ground water and rain water.

The process of collecting rainwater in certain ways is called rainwater harvesting. With its help, the level of water inside the ground rises. This technology is being adopted all over the world. This system can be used in all the places where there is a minimum 200 mm of rain every year. This can ensure the availability of water for the future. Where water is not available in sufficient quantity, water is supplied through pipelines. There by proper arrangement of rain water harvesting systems, the water needs of all the communities can be met. Seeing the benefits of rainwater harvesting, many city administrations in India are trying to popularize and implement the idea of rainwater harvesting. So that rainwater harvesting facilities can be established in private and government buildings, houses and housing societies, institutions and public places. But still rainwater harvesting has not been fully implemented. Just as laws are being implemented to make houses earthquake resistant, in the same way, it will be mandatory to install rainwater harvesting systems in the construction of new houses. Only then will these people be serious about it.

The Parliamentary Committee on Urban Development, in its report presented in 2015, recommended that rainwater harvesting systems should be installed in all central government offices and residential buildings. The committee had also said that updated data related to this should be prepared. The committee had made the same recommendation in its earlier report released in 2013. According to NITI Aayog (National Institution for Transforming India), Rain Water Harvesting is considered as a simple, practical and eco-friendly way of conserving water and recharging ground water. In such a situation, rainwater harvesting has been made mandatory in many states of the country. According to the Ministry of Urban Development, up to 55,000 liters of water can be conserved every year per 100 square meters of roof area. In Madhya Pradesh, rainwater harvesting has been made mandatory in all buildings constructed on an area of 140 sqm or more.

It is true that rainwater harvesting has its own hazards but they are not more than water crises, they can be overcome with little care. Rain water is clean to a great extent, but if there is pollution in the environment, then there is a danger of rainwater getting polluted too. Even if rainwater is not collected and stored properly, there is a risk of it getting polluted. Because of this many challenges arise. The level of pollution in the cities of India remains very poor and there is every possibility that this pollutant will have a bad effect on the rain water as well. Roofs of buildings or where the rainwater collects, vacant land, those places are also prone to dust, bird filth, insects and garbage. If these impurities are not prevented from entering the pipes, storage tanks or pits, the quality of the water deteriorates, and there is a danger of filling the pits or tanks with sediment. Zinc or lead can also be adulterated in the collected rain water. The reason for this is leakage from metals, pipes or tanks on the roof. If water containing such impurities is used for drinking, serious health problems can arise.

Hence reducing the risk of water contamination, planning how much water to store, filtering leaves and waste, arranging for diverting the first rain water, covering tanks, stormwater harvesting, etc. Preventing entry into the tank, proper management of water stored in the tank and provision of filters to prevent sediment accumulation. At the same time, it is necessary to regularly check the level of water stored in the tank and ensure proper use of water. The government should make efforts to make citizens more aware of the economic and environmental benefits of rainwater harvesting as well as high-rise buildings in densely populated areas, such as multi-storey buildings, housing societies, buildings of institutions and businesses. Arrangement of rain water harvesting should be ensured in the buildings in time.

Actually, explaining the importance of rain harvesting to the people, it is most important to instill confidence in it so that people can understand how important it is for the availability of water in the future. That is, it is necessary that we make a habit of storing water in every rain by water harvesting.
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 (22.05.2022)
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