नवभारत मेंं 01.05.2022 को प्रकाशित
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संस्मरण
चोरी, स्वाद और धूप-छांव का समीकरण
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
उन दिनों मैं पन्ना (म.प्र) के शिशु मंदिर विद्यालय में पढ़ा करती थी। (सरस्वती शिशु मंदिर नहीं) यह मनहर महिला समिति नामक एक ट्रस्ट द्वारा संचालित विद्यालय था। बड़ा खूबसूरत था मेरा वह स्कूल। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से बिलकुल सटा हुआ था। सिर्फ बाउंड्रीवॉल थी दोनों के बीच।. एक साझा कुआ भी था दोनों के मध्य। उस कुए के जगत को इस कौशल के साथ बांटा गया था कि दोनों स्कूलों के चपरासी उस कुए से पानी तो भर सकते थे किन्तु कोई भी कुए में उतरे बिना एक हिस्से से दूसरे हिस्से में नहीं जा सकता था। स्पष्ट है कि कुए में उतरना संभव नहीं था। बहुत गहरा कुआ था। उसमें झांकने में ही डर लगता था। वैसे दोनों विद्यालय पन्ना राजघराने की महारानी मनहर कुमारी के नाम पर पन्ना महाराज ने बनवाए थे। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मैंने आगे की पढ़ाई की थी। मेरी मां वहां हिंदी की लेक्चरर थीं। जहां आप पढ़ते हों और उसी स्कूल में आपकी मां या पिता शिक्षक हों तो आप हमेशा शिकायत के राडार में रहते हैं। लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी।
उन दिनों के दो-तीन अनुभव ऐसे हैं जो मेरी स्मृति पर हमेशा के लिए दर्ज हो कर रह गए और उन्होंने मेरे जीवन पर गहरा असर डाला। उनमें से एक घटना थी मेरे लंच बॉक्स की चोरी की। उन दिनों हम दोनों बहनों के लिए मां बिस्कुट के टीन के डब्बे खरीद दिया करती थीं। दोनों के लिए अलग-अलग डब्बे, ताकि आपस में किसी प्रकार का कोई झगड़ा न होने पाए। यद्यपि हम दोनों बहनों के बीच खाने-पीने को लेकर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ फिर भी मां शायद कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थीं। उन दिनों जे.बी. मंघाराम के बिस्कुट के डब्बे चलन में थे, जिन पर बहुत ही खूबसूरत चित्र हुआ करते थे। मां ने अलग से लंच बॉक्स खरीदने के बजाए उन्हीं बिस्कुट के डिब्बों में से एक को मेरा लंच बॉक्स बना दिया था और मैं उसी में अपना लंच स्कूल ले जाया करती थी। शायद यह घटना तीसरी या चैथी कक्षा की है। मेरी कक्षा में एक लड़की थी जिसे दूसरों के बस्ते से सामान निकाल लेने की यानी चोरी करने की आदत थी। हमें उसके बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं थी लेकिन अंदाजा जरूर था। फिर भी उसे कभी कोई रंगे हाथों नहीं पकड़ पाया और इसीलिए वह हमेशा सजा से बचती रही। एक दिन उस लड़की ने मेरे लंच बॉक्स पर भी हाथ साफ कर दिया। यानी मेरा खाने का डब्बा ही चुरा लिया। वह खूबसूरत चित्र वाला बिस्कुट का डब्बा था। ऐसा लंच बॉक्स मेरी किसी भी सहपाठी के पास नहीं था। इसीलिए वह सब में लोकप्रिय भी था। निश्चित रूप से उस चोर लड़की की नज़र मेरे उस लंच बॉक्स पर कई दिनों से रही होगी और मौका पाकर उसने अपने हाथ की सफाई दिखा ही दी। चूंकि यह काम उसने लंच-टाईम के बाद किया था अतः मुझे पता ही नहीं चला। घर लौटने पर जब मां ने बस्ता टटोला तो उन्हें मेरा डब्बा नहीं मिला। उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने तो खाना खाने के बाद याद से अपना डब्बा अपने बस्ते में रख लिया था। मंा समझ गईं कि मैंने डिब्बा खो दिया है। खैर, मां ने दूसरे दिन दूसरे डब्बे में मेरे लिए खाना रख दिया। वह दूसरा डब्बा भी बिस्कुट का डब्बा ही था। सुंदर से चित्र वाला। एफिल टाॅवर की तस्वीर थी उस पर। दो-तीन दिन बाद वह भी मेरे बस्ते से चोरी हो गया। मां को जब इसका पता चला तो वे मुझ पर गुस्सा हुई कि मैं अपना सामान ठीक से क्यों नहीं रखती हूं। बतौर सजा उन्होंने यह तय किया कि मैं प्लास्टिक के लिफाफे में यानी प्लास्टिक की थैली में अपना लंच ले जाया करूंगी। उन दिनों प्लास्टिक की थैलियों यानी पन्नियों का इस कदर चलन नहीं था। वह थैली किसी पैकिंग के रूप में घर आई थी। मां उसी प्लास्टिक की थैली में मेरा लंच पैक करके मेरे बस्ते में रख दिया करतीं थीं। लेकिन लंचटाईम में जब मेरी सारी सहेलियां अपने-अपने लंच बॉक्स लेकर खाना खाने बैठतीं तो मुझे उनके बीच अपनी प्लास्टिक की थैली निकालते हुए शर्म महसूस होती। मैं अलग जाकर एक कोने में बैठ कर खाना खा लिया करती। मेरी इस हरकत पर मेरी क्लास टीचर का ध्यान गया और उन्होंने मेरी मां को इस बारे में बताया कि मैं आजकल अलग-थलग बैठकर खाना खाती हूं। जब मां ने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें सारी बातें सच-सच बता दी कि मुझे प्लास्टिक की थैली में खाना ले जाने में शर्म आती है। इसके बाद मां ने मुझे पुनः एक बिस्किट का डिब्बा दिया और इस हिदायत के साथ कि मैं उसका पूरा ख्याल रखूंगी। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनका विश्वास कायम भी रखा। नया डब्बा मिलने के बाद से मैं खाना खाने के बाद अपने बस्ते का पूरा ध्यान रखती कि मेरे बस्ते से कोई भी सामान चोरी न हो पाए। मन में यह भी डर समा चुका था कि यदि अब डब्बा चोरी हुआ तो मां प्लास्टिक की थैली हमेशा के लिए पकड़ा देंगी।
लंचबॉक्स की चोरी की यह घटना हमेशा के लिए मेरे मन में छप कर रह गई और मुझे ऐसी छात्राओं से चिढ़ होने लगी जो दूसरों के बस्तों से सामान चुरा लेते थी। यद्यपि मेरा स्कूल को-एजुकेशन था लेकिन छात्रों ने ऐसी गड़बड़ी कभी नहीं की। एकाध बार तो मैंने किसी छात्रा को चोरी से दूसरे के बस्ते में झांकते देखा तो उसकी शिकायत भी कर दी। भले ही बदले में उस सहपाठी छात्रा से मेरी लड़ाई हुई और बोलचाल भी बंद हो गई यानी कट्टी हो गई। शायद यह भी एक ऐसी घटना थी जिसने बचपन से ही मेरे भीतर गलत बात की पीड़ा महसूस करने और गलत का विरोध करने का साहस जगाया।
उन्हीं दिनों की बात है। गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गई थीं। जो उन दिनों पूरे दो माह की हुआ करती थीं। पन्ना में बल्देवजी के मंदिर के सामने एक मिठाई की दूकान थी। लाजवाब मिठाइयां बनती थीं उसके यहां। हमें उसकी दूकान के पेड़े बहुत पसंद थे। पेड़े भी दो तरह के मिलते थे-एक स्पेशल पेड़ा जो शुद्ध मावे का रहता था और मंहगा रहता था जबकि दूसरा सामान्य पेड़ा जो ‘‘सादा’’ पेड़ा कहलाता था मैदे की मिलावट वाला रहता था और अपेक्षाकृत सस्ता रहता था। मां कभी-कभी हमें पेड़ा खरीदने के लिए पैसे दे दिया करती थीं। उस गर्मी की छुट्टी की तपती सुबह मैंने और वर्षा दीदी ने मां से पेड़े खरीदने को पैसे मांगे। मां ने पैसे दे दिए लेकिन यह भी हिदायत दी कि धूप में मत घूमना। जल्दी से पेड़े ले कर घर आ जाना। हवा गरम हो रही है, लू लग जाएगी। हम लोगों ने आश्वासन दिया कि बस, अभी गए और अभी आए। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने स्लीवलेस फ्राक पहनी थी जबकि वर्षा दीदी ने आधी बांहों वाली फ्राक। हम लोग घर से निकले तो चार कदम चल कर ही समझ में आ गया कि धूप कितनी तेज है। आजकल के हिसाब से मेरे घर से बल्देवजी का मंदिर कोई अधिक दूर नहीं था लेकिन उन दिनों हमारे छोटे-छोटे पैरों के लिए वह दूरी बहुत थी। जब वर्षा दीदी ने देखा कि धूप से मेरा सिंर और मेरी बांहें झुलस रही हैं तो उन्होंने एक तरक़ीब निकाली। वे मुझसे बोलीं-‘‘जहां छाया आएगी वहां अपन धीरे-धीरे चलेंगे और जहां धूप आएगी उसे अपन दौड़ कर पार कर लेंगे।’’ उनकी इस बात पर अमल भी किया गया और यही युक्ति अपनाते हुए पेड़े खरीद कर हम दोनों जल्दी घर लौट आए।
अब सोचती हूं तो लगता है कि धूप और छांव का जो समीकरण वर्षा दीदी ने उस समय ईजाद किया था, वह दरअसल ज़िन्दगी जीने का सर्वश्रेष्ठ फार्मूला था। जीवन में जब कठिनाइयां आएं तो उन्हें दौड़ कर पार करने की कोशिश करो, और जब सुखद दिन रहें तो उन्हें पूरी तरह से ‘एंज्वाय’ करो। पेड़े के स्वाद के चक्कर में मैंने ज़िदगी का एक पाठ पढ़ लिया था जिसे धूप से मेरे बचाव के लिए अनजाने में लिखा था मेरी वर्षा दीदी ने। वाकई बचपन बहुत सारे सबक सिखा जाता है। कुछ हम याद रख पाते हैं और कुछ हम भूल जाते हैं। यूं भूलना भी ज़रूरी होता है जिससे आगे के जीवन में मिलने वाले नए सबक याद रखे जा सकें। लेकिन मुझे न तो लंचबाॅक्स की चोरी भूली और न उन पेड़ों का स्वाद और न धूप-छांव का समीकरण। आज भी जब धूप में पैदल निकलती हूं तो दीदी का फार्मूला याद आ जाता है। हर व्यक्ति के बचपन में कोई न कोई ऐसे फार्मूले रहे अवश्य होंगे, बशर्ते याद हों या न याद हों।
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बचपन की मधुर यादें ! सुंदर प्रस्तुति
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