संस्मरण
सिद्दीकी साहब की मुर्गियां, सेवइयां और सहजन की फलियां
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
पन्ना शहर की वह गलियां, सड़कें, नदी, नाले मैं कभी भुला नहीं सकती हूं। इन्हीं सब में तो समाया हुआ था मेरा बचपन। अपना बचपन भी भला कोई भूल सकता है? सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ याद रह जाता है। जैसे बचपन में सुनी हुई कहानियां और उन कहानियों के राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी या परी और राक्षस - यह सब याद रहते हैं जीवन भर। जीवन के हर मोड़ पर कहीं ना कहीं कभी न कभी वे सारे दृश्य आंखों सामने खड़े मिलते हैं और याद दिलाते हैं उन सब की जो चलन से बाहर हो गए। किसी मुहावरे की तरह कहीं पीछे छूट गए हैं।
छोटे बाजार से बड़ा बाजार जाने के रास्ते में जैन मंदिर के सामने एक सरकारी आवास था बहुत बड़ा। सामने से नहीं किंतु भीतर लंबे आंगन के तीन ओर कमरों से घिरा हुआ। उसके ठीक बगल में एक बड़ा नाला था, बहुत चौड़ा नाला। नाले से सटा हुआ है वह मकान था। सामने का आंगन सड़क पर खुला हुआ था जिसमें दोनों ओर सीमेंट की बेंचनुमा बैठक बनी हुई थी। सामने की ओर दो दरवाजे थे। एक ड्राइंग रूम में खुलता था और दूसरा, दूसरे कमरे से होता हुआ भीतर के आंगन में चला जाता था। पत्थर की फर्शी से ढंका हुआ आयताकार बहुत बड़ा आंगन था। उस आंगन में प्रवेश करने में दाई ओर कई कमरे बने हुए थे, जो रिहाइश के कमरे थे। पीछे की ओर रसोईघर था जबकि बांई ओर दीवार थी जिसमें कई ताक बने हुए थे। इस सरकारी आवास में सिद्दीकी साहब रहते थे। बचपन में मैं नहीं जानती थी कि वे क्या करते हैं और मुस्लिम कोई अलग धर्म है? हम लोग हिंदू थे और वे मुस्लिम इस बात का एहसास भी नहीं था । उस दौर में 'अंकल' या 'आंटी' कहकर पुकारने का चलन कम ही था। मैं सिद्दीकी साहब को सिद्दीकी मामा कहकर अथवा सिर्फ मामाजी कहकर पुकारती थी। उनकी पत्नी को मामी जी कहती थी। संख्या तो अब ठीक-ठीक से मुझे याद नहीं है लेकिन मेरा अनुमान है कि उनकी चार-पांच बेटियां थीं। अब सोचती हूं तो एहसास होता है कि बड़ा पारंपरिक परिवार था उनका। सिद्दीकी मामी हमेशा सलवार कुर्ता पहनती थी और बहुत लंबा-सा दुपट्टा ओढ़ती थीं। जो उनके एक कंधे से होकर सिर पर से होता हुआ दूसरे कंधे पर इस ढंग से लिपटा रहता था कि उनकी पेट-पीठ कमर तक ढंके रहते थे। त्योहार के समय शरारा या गरारा पहनती थी। जो प्रायः साटन का होता था और जिस में ख़ूबसूरत ज़री की कढ़ाई होती थी। जब मां के साथ में उनके घर जाया करती तो मां सिद्दीकी मामा और मामी जी तीनों आपस में बातचीत करते और मैं उनकी बेटियों के साथ खेल में मगन हो जाती। उनके घर एक लकड़ी का घोड़ा था। जिस पर बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता था। लेकिन मां हमेशा समझाती थीं कि उस घोड़े पर बैठने के लिए कभी भी उनकी बेटियों से मैं झगड़ा न करूं और जब भी बैठूं, तो इजाज़त लेकर ही बैठूं। मां हमेशा यही कहती थी कि दूसरों की वस्तु को बिना उनसे पूछे नहीं छूना चाहिए और यह बात हम दोनों बहनों ने गांठ बांध रखी थी। उस लकड़ी के घोड़े की सवारी करने का मन लालायित होने पर भी मैं उस पर तब तक सवार नहीं होती थी जब तक सिद्दीकी मामा की बेटियां मुझे उस पर चढ़ने के लिए नहीं कहती थीं। दरअसल हम लोग कुछ ऐसे खेल खेलते थे जिसमें बारी-बारी से सभी को घोड़े की सवारी करने का मौका मिल जाता था और मैं अपना मौका आने का इंतज़ार करती थी।
सिद्दीकी मामा के घर एक और बहुत ही रोचक चीज़ थी जो मुझे आज भी याद है। वह थी उनकी मुर्गियां। उन्होंने बहुत सारी मुर्गियां पाल रखी थीं क्योंकि उन लोगों को सुबह नाश्ते में अंडे का आमलेट खाने की आदत थी। हम लोग विशुद्ध शाकाहारी थे इसलिए हमें न अंडे से मतलब रहता था न उनकी मुर्गे-मुर्गियों से। लेकिन जब उस अंदर के लंबे-चौड़े आंगन में मुर्गियां टहलती रहतीं तो हम बच्चे उनके पीछे दौड़ते और वे घबरा कर आगे-आगे दौड़तीं और हम उनका पीछा करते हैं। हमें यह दौड़-धूप छुआ-छुअव्वल के खेल जैसी लगती। उन मुर्गियों के बीच एक बड़ा सा मुर्गा था, जिसकी बहुत बड़ी कलगी थी। एक दिन जब हम लोग मुर्गियों को दौड़ा रहे थे कि अचानक उस मुर्गे का मूड खराब हो गया और उसने उल्टे हम लोगों को दौड़ाना शुरू कर दिया सबसे पहले उसने सिद्दीकी मामा की बड़ी बेटी के टखने में चोंच मारी। वह उचक कर भागी। दूसरा निशाना उसने मुझे बनाया और उसने आकर मेरी फ्रॉक पकड़ ली। मैं डर गई और मैंने मां को पुकारना शुरू कर दिया। मेरी चींख-पुकार सुनकर मां और मामी दोनों भाग कर आंगन में आईं और वहां का नज़ारा देखकर हंसी के मारे उनका बुरा हाल हो गया। मां और मामी को आया देखकर मुर्गे ने मेरी फ्राक छोड़ दी। लेकिन मां और मामी की हंसी रोके नहीं रुक रही थी। आज मैं उस घटना के बारे में सोचती हूं और उस दृश्य की कल्पना करती हूं तो मुझे खुद भी हंसी आने लगती है। मुर्गियों के छोटे-छोटे चूजों से खेलना भी मुझे बहुत अच्छा लगता था। सफेद रूई के गोले के समान नर्म- मुलायम चूजे बहुत ही प्यारे लगते थे। तब मुझे नहीं मालूम था कि बड़े होने पर उनमें से कई रसोईघर की देगची में पहुंच जाते हैं। क्योंकि हम लोग शाकाहारी थे इसलिए हमारे सामने कभी मांसाहार की बात नहीं होती थी, इसलिए मैं मांसाहार के बारे में उस समय कुछ भी नहीं जानती थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि सिद्दीकी मामा के यहां बकरे की क़ुर्बानी भी दी जाती है।
ईद की शाम मां हम दोनों बहनों को साथ लेकर सिद्दीकी मामा के घर जाती थीं। उस समय उनके घर और भी बहुत से मेहमान आए हुए रहते थे। हम लोग ढेर सारे बच्चे इकट्ठे हो जाते और खूब धमा-चौकड़ी करते। मां ईद के उपहार के रूप में उनके लिए टेबल क्लॉथ, दो सूती पर कढ़ाई करके बनाया गया टॉवल या फिर टीपॉट को ढंकने के लिए टीकोजी बना कर ले जाया करती थीं, जिन पर वे स्वयं कढ़ाई करती थीं। मां दोसूती की कढ़ाई, सिंधी कढ़ाई, कच्छी कढ़ाई, भरवां कड़ाई, लेजीडेजी कढ़ाई में एक्स्पर्ट थीं। मैंने भी उनसे कढ़ाई करना सीखा था। वे बुनाई और सिलाई में भी माहिर थीं। कपड़े सिलना भी मैंने मां से ही सीखा। सिलाई करना आज भी मैं भूली नहीं हूं। मां के दो गुण सिलाई और कढ़ाई मैंने अपनाएं जबकि बुनाई करने का पेशंस वाला गुण वर्षा दीदी ने अपनाया। उनका बुना हुआ स्वेटर आज भी मैं पहनती हूं।
ईद की शाम मां हम दोनों को भी अच्छे कपड़े पहनातीं और सुंदर रिबन वाली दो चोटियां गूंथतीं। उन दिनों रिबन से सजी हुई दो चोटियों का फैशन था। वर्षा दीदी के बाल तो शुरू से ही लंबे थे और उन्होंने कभी कटवाए नहीं थे। मेरे भी बाल उन दिनों लंबे थे यद्यपि जब फिल्म "पूरब पश्चिम" आई थी, तो उस समय सायरा बानो कट बालों का फैशन चला था। मुझे भी "सायरा बानो कट" बाल कटवाने का भूत सवार हो गया था। मां ने बहुत मना किया किंतु मेरे बालहठ के आगे उनकी एक न चली और अंततः उन्हें मेरे बालों पर कैंची चलवानी पड़ी। मुझे फिल्म की कहानी तो पल्ले नहीं पड़ी थी, लेकिन सायरा बानो का हेयर स्टाइल और स्ट्रेट फ्रॉक बहुत अच्छा लगा था। उस तरह के बाल तो जरूर कट गए किंतु वैसी फ्रॉक पहनने की अनुमति नहीं मिली। मां ने समझाया था कि वह लंदन में रहती है इसलिए वह ऐसी फ्रॉक पहनती है हम लोग पन्ना में रहते हैं यहां ऐसे फ्रॉक नहीं पहने जाते हैं। बात कुछ समझ में आई थी और कुछ नहीं भी।
ख़ैर, मैं चर्चा कर रही थी सिद्दीकी मामा के घर की ईद की। सभी शाकाहारी मेहमानों के लिए बिना अंडे की शुद्ध मावा डली हुई लाहौरी सेवइयां पकाई जाती थी, जिसमें काजू, किशमिश, पिस्ता, बादाम आदि बहुत सारे मेवे डाले जाते थे। वैसे वह सेवइयां बहुत ही स्वादिष्ट रहती थी। हम बच्चों को ईदी के रूप में कोई न कोई खिलौना दिया जाता था। सिद्दीकी मामा के घर की ईद को याद रखने के लिए यह भी एक बहुत बड़ा आकर्षण रहता था।
सिद्दीकी मामा के घर के पीछे की ओर एक सहजन (मुनगे) का पेड़ लगा था जिस पर बहुत फलियां आती थीं। जब सहजन फलता तो वह हमारे घर ढेर सारे सहजन भेज दिया करते थे। उन दिनों हमारे घर में भी बड़ा-सा बगीचा था। जिसमें सेम की बेल, केले के पेड़, पपीते के पेड़, कुंदूरु की बेल और बहुत सारे फूलों के पौधे लगे थे। मां सहजन के बदले केले, पपीते, कुंदूरु आदि उनके घर हम लोगों के हाथों भिजवा दिया करती थीं।
कुछ वर्ष बाद सिद्दीकी मामा का स्थानांतरण हो गया और वह पन्ना से चले गए। उनके जाने के कई वर्ष बाद यानी बड़े होने पर मुझे इस बात का पता चला कि वे पन्ना के छत्रसाल महाविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर थे। वे बहुत विद्वान थे। इसके साथ ही मुझे यह भी पता चला जो कि मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता था कि वे मुस्लिम धर्म के थे। मैंने अपने बचपन में जो माहौल पाया था उसमें हिंदू और मुस्लिम मुझे कभी अलग-अलग नहीं लगे और यह अंतर मुझे आज भी समझ में नहीं आता है। अलग-अलग धर्म मान लेने से इंसान अलग - अलग नहीं हो सकते हैं। हम सभी इंसान हैं और एक जैसे हैं। बस, यही बात मैंने अपने बचपन में सीखी और आज भी मैं उसी सीख पर क़ायम हूं। -------------------------
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