प्रस्तुत है आज 31.05.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका शशि खरे के कहानी संग्रह "पीले फूल कनेर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
समाज के परिष्कार का आग्रह करती कहानियां
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कहानी संग्रह - पीले फूल कनेर
लेखिका - शशि खरे
प्रकाशक - शिल्पायन, 10295, लेन नं.1, वेस्ट गोरखा पार्क, शाहदरा, दिल्ली-32
मूल्य - 450/-
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समकालीन कथालेखन में इन दिनों बड़े उतार-चढ़ाव आए हैं जिसका सीधा संबंध वैश्विकीकरण एवं सूचना के विस्फोट से है। कथानकों में आईआईटी, इलेक्ट्राॅनिक मीडिया और कार्पोरेट जगत ने अपनी जगह बना ली है क्योंकि यह सब आज के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन भारतीय समाज बाजार की चकाचौंध में जितना प्रगतिशील और प्रसन्न दिखाई देता है वास्तव में उतना है नहीं। आज भी स्त्रियां घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं और बाबाओं के फेर में पड़ रही हैं। वैश्विकीकरण के समांतर वह समाज अभी भी मौजूद है जो दूषित परंपराओं को अपने सीने से लगाए बैठा है। इसीलिए कथाकार अपनी कहानियों के द्वारा इसका प्रतिरोध करता है।
‘‘पीले फूल कनेर’’ लेखिका शशि खरे का यह पहला कहानी संग्रह है। इसमें कुल 22 कहानियां और एक संस्मरण संग्रहीत है। संग्रह की भूमिका ‘‘शशि खरे की कहानियों के बहाने एक गुफ्तगू‘‘ के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार, उपन्यासकार एवं ‘‘वर्तमान साहित्य’’ पत्रिका की संपादक रह चुकीं नमिता सिंह ने लिखा है। उन्होंने अपनी भूमिका में उस परिदृश्य से परिचित कराया है जिसमें ‘‘हंस’’ और ‘‘वर्तमान साहित्य’’ के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर कहानी प्रतियोगिताएं आयोजित की गई। जिनमें अन्य कहानीकारों के साथ शशि खरे ने भी अपनी कहानियां भेजी और वह निरंतर शामिल होती रहीं। उनकी कहानी का चयन तब तक नहीं हुआ जब तक वह कहानी लेखन में मंज नहीं गई। इस प्रसंग की चर्चा नमिता सिंह ने निश्चित रूप से यह जताने के लिए की है कि कहानी विधा अभ्यास और परिश्रम मांगती है, उसे हल्के से नहीं लिया जा सकता है। एक अच्छा कहानीकार बनने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है। नमिता सिंह स्वयं एक समर्थ उपन्यासकार हैं अतः वे कथालेखन की बारीकियों, उसकी गरिमा और महत्ता से आत्मिक रूप से जुड़ी हुई हैं। उनकी भूमिका अर्थवत्ता पूर्ण है जो प्रत्येक नवोदित कथालेखकों के लिए दिशा निर्देश की भांति है।
अब बात करते हैं शशि खरे की कहानियों की। जैसाकि पहले ही मैंने उल्लेख किया कि शशि खरे ने धैर्य और परिश्रम के साथ कथा लेखन को साधा है इसलिए उनकी कहानियों में प्रभावी कथ्य और सुदृढ़ शिल्प है। संग्रह की पहली कहानी ‘‘बोनसाई’’ भोपाल गैस त्रासदी की विभीषिका की भाव-भूमि में पर्यावरण के प्रति चिंता करने का आग्रह करती है। कथा नायिका के घर पर सेविका और माली का काम करने वाली गेंदा गैस त्रासदी में अपने पति को गंवा चुकी है और उसे जहरीले वातावरण का कटु अनुभव है। जब वह देखती है कि उसकी मालकिन बोनसाई के प्रति आकृष्ट है तो वह आगाह करती है कि हमें बड़े-बड़े वृक्षों की जरूरत है न की बोनसाई की। संक्षेप में यह कथा भले ही सीधी-सादी लगे किंतु लेखिका ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। वर्तमान परिवेश में यह बहुत जरूरी-सी कहानी है।
दूसरी कहानी है ‘‘चलती चाकी देखकर‘‘। यह घरेलू हिंसा की व्यथा कथा है। सरकार ने दसियों कानून बना दिए हैं जिनका सहारा लेकर स्त्री घरेलू हिंसा से बच सकती है। किन्तु आज भी 50 से 60 प्रतिशत स्त्रियों को इन कानूनों का ज्ञान नहीं है। उस पर पीढ़ियों से चला आ रहा अतिसहनशील होने का ठप्पा और यह धारणा कि पति तो परमेश्वर होता है और उसे पत्नी पर हाथ उठाने का अधिकार है, इन सब धारणा के चलते आज भी हज़ारों स्त्रियां चुपचाप धरेलू हिंसा सहन करती रहती हैं। जबकि एक ही स्त्री पत्नी बन कर आती है, बहू के रूप में परिवार में रहती है, बच्चों की मां बनती है, घर संवारती सहेजती है और सबसे बड़ी बात की वह अपना वह घर छोड़ कर हमेशा के लिए आती है, जहां वह जन्मी और पली-बढ़ी। इन सबके बावजूद उसका पति उसे प्रताड़ित करता है। यही त्रासदी है इस कथा की नायिका की भी। उसका पति उसे मारता-पीटता है, प्रताड़ित करता है और प्रताड़ना का यह क्रम वर्षों तक चलता है। यहां तक कि बेटों की शादी हो जाने के बाद और बहुओं के आ जाने के बाद भी बहुओं के सामने उसका पति उससे मार-पीट करता है। कहानी यद्यपि दुखांत है किंतु उसके अंत में यह कसक छिपी हुई है कि किसी स्त्री को इस प्रकार प्रताड़ना नहीं सहनी चाहिए बल्कि उसके विरोध में आवाज उठानी चाहिए। आखिर स्त्री का भी अपना कोई अस्तित्व होता है। ‘‘कभी तो ये मन के अंधेरे‘‘ का कथानक भी घरेलू हिंसा का है। इसमें भी पत्नी अपने पति के हाथों पिटती रहती है और समाज और परिवार के डर से खामोश रहती है। यद्यपि इस कहानी में हिंसा करने वाले पति को दंडित करने की भावना व्यक्त की गई है। किंतु वह रास्ता नहीं दिखाया गया है जो व्यावहारिक है। कोई सहानुभूति के आधार पर प्रताड़ित पत्नी के पति को रात के अंधेरे में मारपीट कर सबक सिखाता है। कथा-प्रभाव की भावुकता में यह हल भले ही सुखकर लगे किंतु कहानी तब अधिक सार्थक बनती जब वह स्त्री स्वयं प्रतिकार के लिए खड़ी होती और प्रताड़ना के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाती। वह कानून का सहारा लेती, लोगों का सहारा लेती और अपनी लड़ाई खुद लड़ती।
‘‘नई कविता‘‘ संग्रह में एक गैरजरूरी-सी कहानी है। इस कहानी में नई कविता पर कटाक्ष किया गया है। वस्तुतः यह कहानी न होकर व्यंग लेख का भान देती है। कहानी ‘‘जादू‘‘ का कथानक ज़रा हटकर है। इसमें वर्तमान जीवन पर कृत्रिमता का प्रभाव और प्रकृति से दूर होते जाने की वास्तविकता और उसके दुष्परिणाम सामने रखे गए हैं। वर्तमान भागमभाग से दूर एक दिन जंगल के वातावरण में अपने ढंग से उन्मुक्त भाव से जीवन जीने के बाद यह एहसास होना कि यह एक दिन ही जीवन का असली दिन है, प्रकृति और मनुष्य के बीच जुड़ाव की महत्ता को स्थापित करता है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में एक पल ठहर कर सांस लेने वाली कहानी है यह।
लेखिका वर्तमान में अन्यत्र शहर में निवास करती हैं किन्तु वे सागर में जन्मी हैं अतः अपने जन्मस्थान से मोह होना स्वाभाविक है। सागर शहर का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र वह झील है जिसके निकट सागर शहर बसा और शहर के विस्तार के चलते अब तो झील शहर के मध्य में आ गई है। कहानी ‘‘सागर‘‘ मैं सागर शहर की लाखा बंजारा झील के निर्माण की प्रचलित कथा को आधार बनाकर कथानक पिरोया गया है।
‘‘हैलो 85‘‘, ‘‘चल गोरी घर आपने‘‘, ‘‘बीती रात‘‘, ‘‘जिंदगी के सफे‘‘ समाज विमर्श रचती कहानियां हैं। वहीं ‘‘तंत्र-मंत्र‘‘ कहानी शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस कहानी में तांत्रिकों के छद्म की चर्चा की गई है। प्रायः महिलाएं विशेष रूप से घरेलू महिलाएं इस तरह के तंत्र-मंत्र के चक्कर में फंस जाती हैं अतः उन्हें ऐसे बाबाओं के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए यह एक संदेश देती कहानी है।
अकसर हम देखते आए है कि जब ‘वधू चाहिए’ के अंतर्गत वैवाहिक विज्ञापन दिया जाता है तो यही शब्दावली रहती है कि ‘‘सुंदर, सुशील कन्या’’ चाहिए। अर्थात् सुंदरता पहली शर्त है और सुंदरता का हमारे समाज में अर्थ है लड़की का गोरारंग। यदि वह गोरी नहीं है तो उसके विवाह को ले कर उसकि माता-पिता चिंता में घुलते रहते हैं। लड़की भले ही कितनी भी पढ़-लिख जाए किंतु उसका गोरारंग विवाह के लिए पहली शर्त बना रहता है। इसी धारणा के कारण गोरेरंग की क्रीमों का बाज़ार हमेशा दमकता रहा है। जबकि यह आवश्यक नहीं है कि जिसका रंग गोराचिट्टा हो, जिसके नाकनक़्श आकर्षक हों, वही अपने पति से सच्चा प्रेम कर सकती है अथवा सुघड़ता से घर सम्हाल सकती है। किसी माॅडल जैसा आकर्षक दिखने वाला पति जो मिट्टी के बर्तन आदि बना कर जीवकोपार्जन करता है, किसी कारणवश अंधत्व का शिकार हो जाता है। आर्थिक तंगी का प्रकोप झेलने की स्थिति आने पर उसकी सुंदर पत्नी उसे छोड़ कर अपने मायके चली जाती है। ऐसे विपरीत समय में एक युवती उसके जीवन में आती है और पत्नी बन कर उसका जीवन संवारती है, उसके बच्चों को मां की भांति प्यार देती है। जो लोग पहले उसकी सुंदर पत्नी की सुंदरता की तारीफ करते थे, वे ही लोग अब इस युवती की तारीफ करते नहीं थकते हैं। जबकि यह युवती रंग में सांवली और नैननक़्श में मामूली अथवा सामाजिक वैवाहिक मानदण्ड के हिसाब से बदसूरत कही जाएगी। विवाह के लिए लड़की के रूप सौंदर्य को प्राथमिकता देने के चलन के थोथेपन पर चोट करते हुए ‘‘तोता-मैना‘‘ कहानी में दांपत्य जीवन में प्रेम के महत्व को स्थापित किया गया है। कहानी का क्लाईमेक्स जिज्ञासा जगाने वाला है। तोता-मैना के संवाद के बहाने पति-पत्नी की प्रकृति और प्रवृत्ति पर सामाजिक दबाव का रोचक ढंग विवरण दिया गया है। यह एक सुखांत और सशक्त कहानी है।
संग्रह की शीर्षक कहानी पीले फूल कनेर दो सहेलियों की संवेदनशील कहानी है दोनों सहेलियां परस्पर विपरीत परिस्थितियों में रहती हैं किंतु उनमें घनिष्ठ मित्रता बनी रहती है विवाह उपरांत वर्षों बाद भी वे एक दूसरे को ढूंढ निकालते हैं। भावुक कर देने वाला कथाक्रम क्लाइमेक्स पर जाकर और अधिक संवेदनशील हो उठता है सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह संग्रह की एक श्रेष्ठ कहानी है। ‘‘झाबुआ’’ जो कहानी न हो कर संस्मरण है, बेहतरीन कथात्मकता लिए हुए है। इसकी दृश्यात्मक शैली प्रभावी है। लेखिका चाहें तो भविष्य में संस्मरण लेखन को भी अपनी लेखनी का अभिन्न हिस्सा बना सकती हैं। वैसे ‘‘पीले फूल कनेर’’ की कहानियां पठनीय हैं और लेखिका के भावी कथालेखन के प्रति आश्वस्त करती हैं।
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