चर्चा प्लस
काश ! कभी न मनाना पड़े - मिसिंग चिल्ड्रेन डे (25 मई)
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
दुनिया के सारे बच्चे अपनी मांओं की गोद और पिता की बांहों में सुरक्षित रहे! हमें कभी न मनाना पड़े खोए हुए बच्चों का दिवस। इसी प्रार्थना के लिए प्रेरित करता है ‘‘मिसिंग चिल्ड्रेन डे’’ यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस। यह दिवस इस बात का भी आग्रह करता है कि हम उन बच्चों को न भुलाएं जो अपराधियों द्वारा हमारे समाज में ही कहीं छुपा दिए गए हैं। साथ ही कोशिश करते रहें कि खोए हुए बच्चे अपने घर लौट सकें, अपने माता-पिता के पास, जिनकी आंखें प्रतीक्षा करते हुए पथराई जा रही हैं।
बच्चों का खो जाना इस दुनिया की सबसे बड़ी हृदयविदारक त्रासदी है। यह कल्पना से परे है कि उन माता-पिता पर क्या गुज़रती होगी जिसका बच्चा अचानक गुमशुदा हो जाता है। यदि कुछ अरसे बाद किसी अनहोनी के तहत उस बच्चे के मारे जाने की सूचना मिलती है तो एक ज़बर्दस्त झटका लगता है किन्तु इसी के साथ बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा समाप्त हो जाती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि बच्चे के संबंध में किसी भी प्रकार की सूचना कभी नहीं मिल पाती है तो माता-पिता को जीवन भर उस बच्चे के लौटने की प्रतीक्षा रहती है। जबकि वे नहीं जान पाते हैं कि उनके बच्चे के साथ क्या हुआ? वह कहां है? किन हालातों में है? जीवित है भी या नहीं? कभी लौट सकेगा या नहीं? इतने सारे प्रश्नचिन्हों के साथ प्रतिदिन अपने बच्चे के लौटने की की आशा के साथ जीना कितना कठिन है, यह वे माता-पिता ही बता सकते हैं जिन्होंने अपने बच्चे को खोया है।
हर साल 25 मई को विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन उन गुमशुदा बच्चों के लिए मनाया जाता है जो किसी तरह अपने घर पहुंच चुके है, उन लोगों को याद रखने के लिए जो अपराध के शिकार हैं, और उन लोगों की तलाश करने के प्रयास जारी रखने के लिए जो अभी भी लापता हैं। मिसिंग चिल्ड्रन्स डे का प्रतीक है ‘‘फाॅरगेट मी नाॅट’’ नामक फूल।
इस दिवस को मनाने की शुरुआत हुई सन् 1979 की घटना से। 25 मई, 1979 को छह वर्षीय एटन पैट्ज बस से स्कूल जाते समय अचानक गायब हो गया। इसके पहले तक लापता बच्चों के मामलों ने शायद ही कभी राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया हो। पहली बार एटन के लापता होने के मामले ने इस समस्या से जूझ रही देश-दुनिया का ध्यान खींचा और मीडिया का सहारा लिया। एटन के पिता, जो एक पेशेवर फोटोग्राफर थे, ने बच्चे को खोजने के लिए उसकी ब्लैक-व्हाइट तस्वीरें हर जगह वितरित कीं। जिससे मीडिया का भी इस ओर ध्यान गया। सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने लापता बच्चों की याद में इस दिवस मनाना शुरू किया। धीरे-धीरे दुनिया भर के अन्य देशों में भी इसकी शुरुआत की गई। औपचारिक रूप से 25 मई, 2001 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस को मान्यता दी गई थी। यह सब कुछ मिसिंग चिल्ड्रन यूरोप और यूरोपीय आयोग के संयुक्त प्रयास से संभव हो पाया। आज यह दिवस अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
बहुत पहले टेलीविजन पर हाॅलीवुड की एक फिल्म देखी थी जिसका नाम तो अब याद नहीं है किन्तु उसकी कहानी जो वास्तविक घटना पर आधारित थी, वह आज भी दिल-दिमाग़ में बसी हुई है। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक युवा पिता अपने बच्चे को अपनी कार में लेकर घर से निकलता है और वह किसी काम से कुछ मिनटों के लिए एक माॅल में जाता है। अपने दुधमुंहे बच्चे को जल्दी लौटने का कहते हुए वह कार की खिड़की खुली छोड़ देता है ताकि उसे हवा मिलती रहे। कुछ मिनट बाद जब वह वापस आता है तो उसे बच्चा कार में नहीं मिलता है। वह पागलों की तरह अपने बच्चे को ढूंढता है किन्तु बच्चा उसे नहीं मिलता है। उसकी हिम्मत नहीं पड़ती है कि वह अपनी पत्नी के सामने बच्चे के बिना कैसे जाए। वह घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है और बच्चे के खोने के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानता है। वह अपनी नौकरी, बिजनेस सब छोड़ कर बच्चे की खोज में भटकता रहता है और भिखारियों के बीच सारा जीवन बिता देता है। एक पिता की मनःस्थिति जो उस पल के लिए स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाता है कि वह अपने बच्चे को कार में छोड़ कर क्यों गया, रोंगटे खड़े कर देती है।
इसी तरह अभिनेता स्टीवेन सीगल की एक फिल्म आई थी जिसमें वह अपनी गुमशुदा नाबालिग बेटी को ढूंढता हुआ एशिया के उन इलाकों में जा पहुंचता है जहां कम उम्र की लड़कियों को दुनिया भर से अपहृत कर के लाया जाता है और उनकी पोर्न फिल्म बना कर दुनिया भर में बेचा जाता है। स्टीवेन ऐसे ही एक अड्डे पर अपनी बेटी को बुरी अवस्था में पाता है और यह देख कर उसका खून खैल उठता है। चूंकि वह एक्शन फिल्म थी अतः हीरो अकेले ही बच्चों की तस्करी के माफिया से भिड़ कर अपनी बेटी को बचा लेता है। जबकि वास्तविक जीवन में ऐसा संभव नहीं होता है। यद्यपि एक बात इस फिल्म के अंत में सार्थकता के साथ रखी गई कि अपराध का शिकार हुई बेटी को हीरो गले लगा कर कहता है कि ‘‘इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं! तुम्हें एक सामान्य जीवन जीने का अधिकार है और हमेशा रहेगा।’’
लापता और शोषित बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय केंद्र इंटरनेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉइटेड चिल्ड्रन एक 501 (ब) (3) गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी संगठन है जो बाल अपहरण, यौन शोषण और शोषण को समाप्त करके बच्चों के लिए इस दुनिया को एक सुरक्षित स्थान बनाने के लिए काम कर रहा है। सन् 1998 में अपनी स्थापना के बाद से आईसीएमईसी ने 117 देशों के 10,000 से अधिक कानून प्रवर्तन अधिकारियों को प्रशिक्षित किया है.बाल पोर्नोग्राफी के विरुद्ध कानूनों को लागू करने के लिए 100 से अधिक देशों की सरकारों के साथ काम किया.अंतरराष्ट्रीय गुमशुदा बाल दिवस 2001 से 6 महाद्वीपों के 20 से अधिक देशों में मनाया जा रहा है और इसके तहत 23 सदस्यीय ग्लोबल मिसिंग चिल्ड्रेन नेटवर्क बनाया गया। आईसीएमईसी का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका में है, जिसका क्षेत्रीय ऑफिस ब्राजील और सिंगापुर में है।
अब बात भारत की करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2019 में भारत में कुल 73,138 बच्चे लापता हुए। देश में हर दिन सैकड़ों बच्चे लापता हो जाते हैं। वर्ष 2016 के दौरान कुल 63,407 बच्चे, 2017 के दौरान 63,349 बच्चे और 2018 के दौरान कुल 67,134 बच्चे लापता बताए गए हैं। (एनसीआरबी 2019) राज्य की बात करें, तो मध्य प्रदेश वर्ष 2016, 2017 और 2018 में क्रमशः 8,503, 10,110 और 10,038 लापता बच्चों का रिकाॅर्ड रहा। वहीं पश्चिम बंगाल दूसरे स्थान पर है। यहां 2016 में 8,335, 2017 में 8,178 और 2018 में 8,205 बच्चे लापता हुए। एनसीआरबी 2019 के अनुसार लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और बिहार में है। मध्य प्रदेश में लापता बच्चों की संख्या सबसे अधिक इंदौर जिले से रही है। पश्चिम बंगाल में कोलकाता जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है। वहीं बिहार में पटना जिले में लापता बच्चों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है।
यदि बुंदेलखंड पर दृष्टिपात करें तो यहां भी कोई अच्छी दशा नहीं है। इस विषय पर मैंने अपने इसी ‘‘चर्चा प्लस’’ काॅलम में 31.01.2019 में ‘‘गुम हो रहे बुंदेलखंड से बच्चे और बेखबर हम’’ शीर्षक से लिखा था।
देश में प्रतिदिन औसतन चार सौ महिलाएं और बच्चे लापता हो जाते हैं और इनमें से अधिकांश का कभी पता नहीं चलता। हर साल घर से गायब होने वाले बच्चों में से 30 फीसदी वापस लौटकर नहीं आते। नाबालिगों की गुमशुदगी का आंकड़ा साल दर साल बढ़ रहा है। बुंदेलखंड इससे अछूता नहीं है। बच्चों के गुम होने के आंकड़े बुंदेलखंड में भी बढ़ते ही जा रहे हैं। सागर के अलावा टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से भी कई बच्चे गुम हो चुके हैं। चंद माह पहले सागर जिले की खुरई तहसील में एक किशोरी को उसके रिश्तेदार द्वारा उसे उत्तर प्रदेश में बेचे जाने का प्रयास किया गया। वहीं बण्डा, सुरखी, देवरी, बीना क्षेत्र से लापता किशोरियों का महीनों बाद भी अब तक कोई पता नहीं है। इन मामलों में ह्यूमेन ट्रेफिकिंग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
सागर, टीकमगढ़, दमोह और छतरपुर जिलों से जनवरी 2018 से अगस्त 2018 के बीच 513 किशोर-किशोरी लापता हुए हैं। इनमें से करीब 362 बच्चे या तो स्वयं लौट आए या पुलिस द्वारा उन्हें विभिन्न स्थानों से दस्तयाब किया गया। लेकिन अब भी 151 से ज्यादा बच्चों को कोई पता ही नहीं चला है। वर्ष 2018 में जिले में किशोर-किशोरियों की गुमशुदगी के आंकड़ों में पहले की अपेक्षा बहुत अधिक है। कुल 178 गुमशुदगी दर्ज हुए मामलों में किशोरों की संख्या लगभग 55 थी और किशोरियों 123 थी। वर्ष 2015 में गुमशुदगी का आंकड़ा 136 था जो 2016 में 167 और पिछले साल 2017 में 215 तक पहुंच गया था। इन आंकड़ों को देखते हुए इस वर्ष 2018 के दिसम्बर तक यह संख्या ढाई सौ के आसपास पहुंच गई थी। लापता होने वालों में सबसे ज्यादा 14 से 17 आयु वर्ग के किशोर-किशोरी होते हैं। इनमें भी अधिकांश कक्षा 9 से 12 की कक्षाओं में पढ़ने वाले स्कूली बच्चे हैं।
आखिर महानगरों के चैराहों पर ट्रैफिक रेड लाइट होने के दौरान सामान बेचने या भीख मांगने वाले बच्चे कहां से आते हैं? इन बच्चों की पहचान क्या है? अलायंस फॉर पीपुल्स राइट्स (एपीआर) और गैर सरकारी संगठन चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) द्वारा जब पड़ताल की गई तो पाया गया कि उनमें से अनेक बच्चे ऐसे थे जो भीख मंगवाने वाले गिरोह के सदस्य थे। माता-पिता विहीन उन बच्चों को यह भी याद नहीं था कि वे किस राज्य या किस शहर से महानगर पहुंचे हैं। जिन्हें माता-पिता की याद थी, वे भी अपने शहर के बारे में नहीं बता सके। पता नहीं उनमें से कितने बचचे बुंदेलखंड के हों। बचपन में यही कह कर डराया जाता है कि कहना नहीं मानोगे तो बाबा पकड़ ले जाएगा। बच्चे अगवा करने वाले कथित बाबाओं ने अब मानो अपने रूप बदल लिए हैं और वे हमारी लापरवाही, मजबूरी और लाचारी का फायदा उठाने के लिए नाना रूपों में आते हैं और हमारे समाज, परिवार के बच्चे को उठा ले जाते हैं और हम ठंडे भाव से अख़बार के पन्ने पर एक गुमशुदा की तस्वीर को उचटती नजर से देख कर पन्ने पलट देते हैं। यही कारण है कि बच्चों की गुमशुदगी की संख्या में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बच्चों के प्रति हमारी चिन्ता सिर्फ अपने बच्चों तक केन्द्रित हो कर रह गई है।
मध्यप्रदेश राज्य सीआईडी के किशोर सहायता ब्यूरो से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले दशक में बच्चों के लापता होने के जो आंकड़ें सामने आए हैं वे दिल दहला देने वाले हैं। 2010 के बाद से राज्य में अब तक कुल 50 हजार से अधिक बच्चे गायब हो चुके हैं। यानी मध्यप्रदेश हर दिन औसतन 22 बच्चे लापता हुए हैं। एक जनहित याचिका के उत्तर में यह खुलासा सामने आया। 2010-2014 के बीच गायब होने वाले कुल 45 हजार 391 बच्चों में से 11 हजार 847 बच्चों की खोज अब तक नहीं की जा सकी है, जिनमें से अधिकांश लड़कियां थीं। सन् 2014 में ग्वालियर, बालाघाट और अनूपुर जिलों में 90 फीसदी से ज्यादा गुमशुदा लड़कियों को खोजा ही नहीं जा सका। ध्यान देने वाली बात ये है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लापता होने की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो विशेषरूप से 12 से 18 आयु वर्ग की हैं। निजी सर्वेक्षकों के अनुसार लापता होने वाली अधिकांश लड़कियों को जबरन घरेलू कामों और देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। पिछले कुछ सालों में एक कारण ये भी सामने आया है कि उत्तर भारत की लड़कियों को अगवा कर उन्हें खाड़ी देशों में बेच दिया जाता है। इन लड़कियों के लिए खाड़ी देशों के अमीर लोग खासे दाम चुकाते हैं। बदलते वक्त में अरबों रुपए के टर्नओवर वाली ऑनलाइन पोर्न इंडस्ट्री में भी गायब लड़कियों-लड़कों का उपयोग किया जाता है। इतने भयावह मामलों के बीच भिक्षावृत्ति तो वह अपराध है जो ऊपरी तौर पर दिखाई देता है, मगर ये सारे अपराध भी बच्चों से करवाए जाते हैं।
बच्चों के लापता होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ होता है मानव तस्करों का जो अपहरण के द्वारा, बहला-फुसला कर अथवा आर्थिक विपन्ना का लाभ उठा कर बच्चों को ले जाते हैं और फिर उन बच्चों का कभी पता नहीं चल पाता है। इन बच्चों के साथ गम्भीर और जघन्य अपराध किए जाते हैं जैसे- बलात्कार, वेश्यावृत्ति, चाइल्ड पोर्नोग्राफी, बंधुआ मजदूरी, भीख मांगना, देह या अंग व्यापार आदि। इसके अलावा, बच्चों को गैर-कानूनी तौर पर गोद लेने के लिए भी बच्चों की चोरी के मामले सामने आए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे मानव तस्करों के आसान निशाना होते हैं। वे ऐसे परिवारों के बच्चों को अच्छी नौकरी देने के बहाने आसानी से अपने साथ ले जाते हैं। ये तस्कर या तो एक मुश्त पैसे दे कर बच्चे को अपने साथ ले जाते हैं अथवा किश्तों में पैसे देने का आश्वासन दे कर बाद में स्वयं भी संपर्क तोड़ लेते हैं। पीड़ित परिवार अपने बच्चे की तलाश में भटकता रह जाता है।
सच तो यह है कि बच्चे सिर्फ पुलिस, कानून या शासन के ही नहीं प्रत्येक नागरिक का दायित्व हैं और उन्हें सुरक्षित रखना भी हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है, चाहे वह बच्चा किसी भी धर्म, किसी भी जाति अथवा किसी भी तबके का हो। बहरहाल, हम मिसिंग चिल्ड्रेन डे यानी गुमशुदा बच्चों का दिवस मनाते हुए यह प्रार्थना करें कि किसी बच्चे को अपने माता-पिता से न बिछड़ना पड़े।
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(25.05.2022)
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